परख : धुँधले अतीत की आहटें












गोपाल माथुर के उपन्यास 'धुँधले अतीत की आहटें' की समीक्षा विमलेश शर्मा की कलम से .







अनाम खामोशियों, स्थगित जीवन और निर्वासित मन का राग 

विमलेश शर्मा 


तीत कितना भी धुँधला क्यों ना हो उसकी आहटें अनजानी धमक लिए हुए होती हैं. उनकी कशिश इतनी तीव्र होती हैं कि वे मौसमों को पैरों में घूँघरूं बाँध किसी भी पहर गमकने लग जाती हैं.अक्सर किसी राह की तलाश में पगडंडी को खोजने के  लिए आँखों पर जोर देना पड़ता है पर अतीत स्मृतियों के जाले में सदा टँगा रहता है. लेखक के लहजे में ही कहूँगी कि वह सदा अलसाये दिन में शाम के झुटपुटे की मानिंद सहमा सा रूका रहता है. इन्हीं अहसासातों की बानगी है, धुँधले अतीत की आहटें. गोपाल माथुर का यह उपन्यास बीते वर्ष बोधि प्रकाशन से आयी ऐसी सौगात है जो हमारे मन की बसाहट में सीधी घुसपैठ करता है. उपन्यास में चिन्हित आहटें, पदचापें अपने अबोले में ही कह कर जाती हैं कि उम्र गुज़र जाती है, उन चुप्पियों की आहटें सुनते हुए जिन्हें अगर सलीके से कहा गया होता तो जाने कितने दरवाजे खुल सकते थे. 

यह उपन्यास पीठ पर भार सी ठिठकी सिसकती उदासियों की बानगी है. यहाँ उकेरे गए किरदार पाठक के मन में उतरकर उसके साथ चहलकदमी करने लगते हैं. किरदार यहाँ मात्र घटनाओं के हाथ की कठपुतली ना होकर स्मृतियों में उसी तरह ठिठके रह जाते हैं जैसे कि बरसती बारिश के बाद पानी के चहबच्चे, जो किसी स्मृति का जीवंत दस्तावेज भर होते हैं. उपन्यास पढ़ते हुए कई बार ऐसा लगा है कि लेखक के ही साथ मेरा पाठक मन भी मेंगलोर के उस समुद्र और ग्रेनाइट की काली चट्टानों के बीच पहुँच गया है जहाँ नरेटर और सिन्थिया अपने अभिशप्त जीवन की जकड़न से बाहर आने का प्रयास कर रहे हैं.

पूरे उपन्यास में वातावरण इतना जीवंत है कि आप हाथ बढ़ाकर बादलों को कभी भी छू सकते हैं, बारिशों को महसूस सकते हैं, चढ़ते सूरज औऱ उतराती शाम से गलबहियाँ कर सकते हैं और नम हवाओं से भीग सकते हैं. परिवेश की इतनी करीबी शिनाख़्त हमें निर्मल वर्मा के लिखे में मिलती है, जहाँ बैंच , पेड़ो की टहनियाँ, बहती नदी , एकांत सड़क भी बतियाती नज़र आती है. परन्तु गर हम इस सृजन को निर्मल वर्मा के लिखे की छाँह में ही देखेंगे तो यह लेखक के साथ अन्याय होगा. इस उपन्यास को दो मर्तबा पढ़कर जाना कि यहाँ कहीं निर्मल वर्मा की उदासियाँ है तो कहीं टैगोर का भाषायी कुवारांपन. हो सकता है किसी पाठक को इसमें शरतचन्द्र दिखाई दें तो किसी को कोई और रचनाकार. दरअसल गहन अनुभूतियों से रचा गया यह सृजन पाठकीय चेतना के भीतर स्थायी नमी लेकर ठिठक जाता है. वही अनुभूति जब फिर से किसी सृजन से आलोडित होती है तो पाठक उसमें पहले की छाँह ढूँढने लगता है. 

यही बात इस उपन्यास के कहन में भी नजर आती है. चर्च में, समुद्र किनारे अनेक स्थल उपन्यास में ऐसे हैं जहाँ निर्मल वर्मा ठिठके खड़े नज़र आते हैं, पर पूरी पाठकीय यात्रा में निर्दोष खड़ा लेखक, आपको चुपचाप आपके ही पूर्वाग्रह से बाहर खींच लाने में सफल हो जाता है. वो क्षण ठीक उसी अपराधबोध सा होता है जिसे लेखक उपन्यास में  अपने दरवाजे पर नक्काशी के काम को लेकर उस वृद्ध की अस्वस्थता को लेकर अनुभूत करता है. औपन्यासिक नायक की ही तरह मेरा पाठकीय मन भी, मेरे पूर्वाग्रह को लेकर लेखक के समक्ष ठीक उसी तरह नतमस्तक होता है.

अतीत की अनुभूति की  संश्लिष्ट अभिव्यक्ति में बुने गए कथानक में तरल और सूक्ष्म भाषिक प्रयोग इस रचाव को विशिष्ट बनाते हैं. इस उपन्यास के बिंब और वातावरण सृष्टि इसके प्राण हैं. शब्द औऱ अनकहे अर्थों में गूँथे बिम्ब पाठक को उसी अपार्टमेन्ट में पहुँचा देते हैं जहाँ वह नायक रह रहा होता है. मोटरसाइकिल से तय किया रास्ता, कटहल के पेड़, समुद्र का किनारा, ठिठके.. तिरते...बरसते बादल सभी बिंब आप ठीक वैसे ही महसूस कर सकते हैं जैसे कि आपके समक्ष घट रहे हों. निःसंदेह वातावरण कि इतनी सशक्त उपस्थिति अरसे बाद किसी उपन्यास में देखने, पढ़ने को मिली है. पढ़ते हुए अनेक स्थानों पर लगता है कि तेजी से ली गयी एक सांस भी शब्दों की उस महीन बुनावट को ठेस पहुँचा देगी जो किसलय सी कोमल हैं. मिसाल के तौर पर यह अंश ही देखिए जिसे पढ़ते हुए एक नामालूम शाम आपकी सांसों में शामिल होने लगती है 

...आपको नहीं लगता कि बोल कर हम इस शाम का सम्मोहन तोड़ देंगे..ऐसी शाम बहुत दिनों बाद आई है जब नीले आकाश ने बादलों के बीच जगह बना कर हमारी तरफ देखा है और जब सूरज छिप जाने के बाद भी समुद्र के उस पार अपनी उपस्थिति दर्ज़ किए हुए है. 

या फिर यह टुकड़ा..  

क्षितिज पर छाई सिंदूरी लालिमा अपनी आभा आहिस्ता-आहिस्ता रात को सौंपने लगी थी. बहुत दिनों बाद हवा सांस लेने के लिए थमी थी और सारी प्रकृति जैसे अपने ही सुरूर में डूबी हुई झूम रही थी. चाँद अभी निकला नहीं था. आंगन में लगे नारियल के पेड़ चुपचाप हमें छत पर बातें करते हुए सुन रहे थे.....(138)

जाने कितनी शामें , कितनी सुबहों, बारिशों औऱ बादलों के टुकड़ों के  बीच पाठकीय मन की आवाजाही लगी रहती है. वातावरण का यही सजीव चित्रण 250 पृष्ठों की पाठकीय यात्रा में  सुबह सी ताज़गी तारी किए रहता है.

जीवन भी एक अज़ीब शै है, जब जो हासिल होता है, वह पास होकर भी पास नहीं होता और जो चीज़ दूर होती है उसका आकर्षण दूर होकर भी सिर चढ़कर बोलता है. उपन्यास में यही कशमकश है जहाँ वर्तमान और अतीत आपस में ऐसे उलझ जाते हैं, जिन्हें एक-दूसरे से अलग करना असम्भव प्रतीत होता है. कथानायक, संजना, सिन्थिया ,फिलिप,वृद्ध और पिण्टो कृति के मुख्य किरदार हैं जिनके इर्द-गिर्द उपन्यास की कथा आगे बढ़ती है. इनमें भी संजना और फिलिप अनुपस्थित किरदार है. 

ये विभावना की ही भाँति अपना अस्तित्व मुख्य किरदारों के समकक्ष बनाए रखते हैं. पिंटो  जो कि सिन्थिया का पुत्र है, की उपस्थिति हमें कथानायक और सिन्थिया के संवादों से ही विदित होती है. मुख्य् रूप से यहाँ दो ही किरदार है, यह निःसन्देह इस उपन्यास की उपलब्धि है कि इतने कम चरित्रों के माध्यम से लेखक संबध विच्छेद से उपजे निर्वासित और अभिशप्त मन की अनेक स्थितियाँ रचता है.

कथाक्रम में जाने कितने अनुभव अस्पष्ट और अशरीरी है , जो उस अकेलेपन को रेखांकित करते हैं जिसे हर व्यक्ति कहीं ना कहीं अपनी जिन्दगी में भोगता है. ठीक इन्हीं क्षणों में पाठकीय अनुभव अपनी गहनता, व्यापकता औऱ तीव्रता में कलात्मक अनुभव के समीप हो जाता है. यहाँ पात्र अपनी उपस्थिति से हमारे मानस पर चित्रित नहीं होते  वरन् अपनी विराट अनुपस्थिति से एक गहरे अभाव, त्रास, वेदना  से साक्षात्कार करवाते हैं. हम सिर्फ उस उपस्थिति का अभाव महसूस करते हैं, जो पूर्व में औपन्यासिक किरदारों के जीवन के साथ जुड़ी थी- औऱ अब वह नहीं है. इसी अकेलेपन और अभाव की भावना से लगाव का जन्म होता है और इसी लगाव में सिन्थिया औऱ नरेटर बाहर से अपने को देख पाते हैं. ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ रचना का अनुभव पाठकीय अनुभव संसार को झिंझोड़ कर  रख देता है. उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते पाठक कभी नायक तो कभी सिन्थिया को अपने भीतर महसूस करता है, वह उसी संसार में जीता है, उठता है, बैठता है, जहाँ पात्रों का बसेरा है. यही नहीं वह उस कॉफी की गर्माहट को भी महसूस करता है जो सिन्थिया और कथानायक के हलक से उतर रही होती है. निःसंदेह यही किसी कृति की प्रामाणिकता और अर्थवत्ता है जिसे अनुभूतियों की यह तीव्रता रेखांकित करती है.

वस्तुतः यह उपन्यास अलगाव की जमीं पर उपजे दो किरदारों की कहानी है. यह कहानी एक रहस्य को आद्योपांत अपने साथ लेकर चलती है कि आखिर क्यों इन पूर्ण पात्रों के जीवन में इतना अधूरापन है, यही रहस्य पाठक को अंत तक जिगीषु बनाए रखता है. कोई भी रहस्य तभी पूर्ण सफल है जब वह पूर्ण रूपेण अभेद्य या अज्ञात ना हो. अगर रहस्य अभेद्य है तो फिर वह रहस्य है ही नहीं. यहाँ यह रहस्य अनेक मनःस्थितियों के माध्यम से अनेक आयामों में उजागर होता रहता  है. पाठक अपनी दृष्टि से हर उस बिन्दू पर उस रहस्य को खोजने का प्रयास करता है जहाँ किरदारों के कदम ठिठकते हैं और यही कारण है कि किरदारों के रहस्य की परतें अनेक स्तरीय हो जाती हैं. यही संयोजन अंततः उस रहस्य से साक्षात्कार भी करवाता है जो अंत तक अनुद्घाटित था. यही शैलीगत बुनावट रचना में प्रवाह उत्पन्न करती है.

किसी भी रचना की सफलता पाठक से एकाकार होने से होती है. यह साफल्य अलग-अलग तंतुओं में नहीं  वरन् समूचे संघटन विधान में जीवित रहता है. इसीलिए यहाँ भी जब हम  एक तत्त्व को दूसरे से अलगाते हैं तो रचना का सौन्दर्य और संवेदना मुरझाने लगती है. भाषा, किरदार, कथातत्त्व, भाव संयोजन वे तत्त्व हैं जो किसी भी कलाकृति को स्वायत्त व विशिष्ट बनाते हैं. यहाँ सभी माध्यमों से ऐसे यथार्थ का गुम्फन है जो अतीत की छाँह में सरकता है. उपन्यास में घटना बाहुल्य नहीं है ना ही किरदारों को बाहुबली भूमिका में दर्शाया गया है वरन् इसके उलट वे बेहद सादा हैं, बेहद आम. इतने सादा कि किरदार की गोल बिन्दी पर ठिठक कर समुद्र की नमी को महसूस किया जा सकता है. यहाँ दैनिक जीवन की मुस्कराहटें हैं, जान बूझ कर पूछे गए निरर्थक प्रश्न हैं जिनका प्रयोग हम और आप जीवन की अनेक असहज स्थितियों से बचने के लिए करते हैं. 

जंगल के गीत, पंछियों की फुसफुसाहटों और अनाम खामोशियों के बीच यह उपन्यास अतीत का राग है जिसके दंश से किरदार विलग होना चाहते हैं. यह अतीत राग इतना प्रभावी है कि युगल के बीच चुकी हुई उपस्थितियाँ भी मुखर रहती हैं. सिन्थिया की हर याद में फिलिप जीवित है. समन्दर, चर्च, घर से लेकर बारिशों तक उसकी उपस्थिति इतनी मौज़ू है कि नायिका उससे चाहकर भी मुक्त नहीं हो पाती. यही बात कथानायक लेखक के साथ है, कभी तुलनात्मक दृष्टिकोण से तो कभी सौन्दर्य की बानगियों से संजना अनायास ही उसके समक्ष आ खड़ी होती है. यही कारण है कि देह और मन के इतने समीप होने के बावजूद दोनों किरदारों के बीच एक अजीब सी खामोशी पसरी रहती है. संबंधों का यह बिखराव उनकी सूखी आँखों में साफ झलकता है. यह बिखराव इस कदर कथानायक लेखक के मन पर हावी है कि वह अपने उपन्यास लेखन की समाप्ति पर खुश होने के बजाय उन पात्रों के बिछड़ने से दुखी हो जाता है.

आजकल अनेक रचनाओं में स्त्री के शोषण की बात , उसके छले जाने की बात की जाती है पर इससे इतर यहाँ संबंधों के बिखराव से आहत होता पुरूष नज़र आता है. लिव इन रिलेशन से उपजे अलगाव को जहाँ कथानायक और संजना के माध्यम से दिखलाया गया है वहीं दांपत्य में उपजे देहवादी दृष्टिकोण और एकरसता को फिलिप के माध्यम से चित्रित किया गया है.  यहाँ दोनों ही प्रसंगों में यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि एक दूसरे को स्पेस दिए बगैर प्रेम संभव नहीं है.  प्रेम में इतना अधिक चुंबकीय आकर्षण होता है कि तमाम प्रकार के आकर्षण इन के बीच घुल जाते हैं औऱ रह जाती है तो दो आत्माएँ. इस भाव के वैपरीत्य के शिकार सिन्थिया और कथानायक अपने-अपने ध्रूवों पर रहते हुए इस एकाकीपन को झेलते हैं.  

दोनों एक दूसरे के अतीत से अनजान हैं, दोनों एक दूसरे के अतीत में अनुपस्थित है पर कोई धागा है जो उन्हें जोड़े हुए है. कथानायक अपने अधूरे उपन्यास को पूरा करने एक अनजाने शहर में आता है जहाँ नायिका अपने अतीत की चादर देह पर ओढ़े जीने की बेतरतीब कोशिश में रत है. स्थगित जिन्दगी की तलाश में भटकते हुए इन दोनों पात्रों के जीवन के  दर्द को बयां करते हुए लेखक एक स्थान पर अपने ही पात्रों से कहलवाता है कि हम दोनों ही वर्तमान में जीते हुए अतीत के प्रेत हैं. हमें तब तक मुक्ति नहीं मिल  पाएगी जब तक हमारा अतीत हमसे मुक्त नहीं हो जाता.  

जीवन की यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि अतीत आपको लगातार हॉण्ट करता है. और फिर किसी एक क्षण जीवन की शुरूआत उस अतीत पर निर्भर हो जाती है जो अतीत होकर भी जीवंत है, अश्वत्थामा की ही तरह. इन्हीं अन्तर्विरोधों से जूझते हुए , नैतिकता और दायित्व बोध का भार निर्वहन करते हुए अंततः दोनों अपने अतीत से फारिग होने की चेष्टा करते हैं. देह के कुछ अंशों की अनुपस्थिति के दाग आत्मा पर इतने अधिक हावी होते हैं कि जीवन ही पंगु हो जाता है. इन्हीं प्रसंगों की उकेरन में कहीं निर्मल वर्मा की नज़ाकत अवसाद ओढ़े सामने आती है तो कहीं चेखव की रचनात्मक गहराई, कहीं टैगोर के नायिका के जोगी की ही भाँति सिन्थिया कथानायक से दूर भाग अपने खोल में सिमट जाती है. उपन्यास का बहाव मेंगलोर के बादलों की आवाजाही सा है. यह लेखक की शिल्पगत खूबी है कि कम चरित्रों और संवादों के होते हुए भी लेखक अंतिम पृष्ठ तक लाजवाब धैर्य़ बनाए रखता है. यहाँ स्थगित होती हुई बुनियादी सच्चाईयाँ हैं जिन्हें लेखक स्वयं बयां करता है. अनेक बिम्बों में स्खलित होती हुई संवेदनाएँ अतीत को बुहारने का अंतहीन प्रयास करती नज़र आती हैं. उपन्यास का अंत खासा चौंकाता है पर एक ब्रेस्ट कैंसर से उपजी त्रासदी का इतना संयत चित्रण सिर्फ और सिर्फ गोपाल माथुर ही कर सकते थे. इस तरह अंत भी उपन्यास के अनेक बिंदुओं के ही तरह ठहर कर सोचने को मजबूर करता है.

उपन्यास लेखन में जिस धैर्य औऱ लगन का निवेश किया गया है उसे उपन्यास के हर प्रस्थान बिन्दू पर सहज ही जाना जा सकता है. गौरतलब है कि उपन्यास का रचाव करने वाला लेखक ही इसका मुख्य पात्र भी है . कहने का तात्पर्य है कि उपन्यास का मुख्य पात्र स्वयं लेखकीय भूमिका में है. वह  उन तमाम लेखकीय दायित्वों, उसके अनमनेपन औऱ लेखन की अनुकूल परिस्थितियों से भली भाँति वाकिफ़ है, इसीलिए उपन्यास के तीन खण्ड कविता की बानगी से उस लेखकीय मनोदशा का भी चित्रण करते हैं, जिन्हें कोई भी लेखक अपनी सृजनयात्रा के दौरान अनुभूत करता है. लेखक द्वारा रचाव के क्षणों को, किरदारों के जन्म से उनके बढ़ने तक की स्थितियों को कई रचनाकारों ने परकाया प्रवेश कहा है, ठीक वैसे ही गोपाल माथुर लिखते हैं कि-  

शुरू शुरू में मुझे लगता था कि उपन्यास की सारी स्थितियां मेरी ही तो सृजित की हुई हैं उन्हें मैं कभी भी किसी भी तरह घुमा सकता हूँ पर अहिस्ता अहिस्ता मैंने जाना कि एक सीमा के बाद उपन्यास के पात्र इतना ग्रो कर जाते हैं की लेखक का साथ छोड़ देते हैं और अपनी राह खुद--खुद चलने लगते हैं. एक दिन वे इतने सक्षम हो जाते हैं की लेखक को वह लिखना पड़ता है जो वे चाहते हैं.

बरबस बहकर आया यह दुःख इतना अलग है कि बारिशों के बाद भी कोरा बना रहता है, जो इतना भारी है कि हवाएँ उसे उड़ा नहीं सकती और इतना हल्का कि पलक झपकते ही काँधे पर आ बैठता है.  नथुनों में भरती हुई बादलों की नम गंध शब्दों के मार्फ़त कब पाठक के नथुनों में आ जमती है इसका आभास पाठक को नहीं हो पाता. 

यह शैलीगत चातुर्य ही है कि घटनाक्रम के घटाटोप के अभाव के बावजूद यहाँ सांवेगिक तीव्रता बदस्तूर बरसती है. शब्दों की कारीगरी इतनी अनायास है कि उपन्यास अपने वृहद कलेवर के बावजूद बोझिल महसूस नहीं हो पाता. कथा कहने का ढंग, सूक्ष्म स्पर्श,दृष्टि की गहनता और रचाव की कलात्मकता वे बिन्दू हैं जिन्हें यह उपन्यास पढ़कर सहज ही महसूस किया जा सकता है.
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विमलेश शर्मा
vimlesh27@gmail.com

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  1. Mridula Shukla बहुत अच्छा लिखा है । बहुत गहन पड़ताल करके लिखा है ।

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  2. समीक्षा पसंद आई।

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  3. यह समीक्षा कहती कम और छिपाती ज्यादा जान पड़ती है । वैसे भी जहाँ घटनाक्रम, जो किसी भी उपन्यास की जीवन रेखा होता है, को घटाटोप मान कर उसके अभाव का उत्सव मनाया जा रहा हो, वहाँ कहने को शायद बहुत ज्यादा नहीं रहता । चूँकि उपन्यास पढ़ा नहीं है, इसलिये ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता है ।

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  4. सारगर्भित समीक्षा है..

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