प्रसिद्ध लातिन
अमेरिकी कथाकार जूलियो कोर्टाज़ार Julio Cortázar (August 26, 1914 – February 12,
1984) अपनी चकित करने वाली
शैली और कथा के फैंटेसी रुझान के लिए जाने
जाते हैं. जीवन के अँधेरे पक्ष और
अस्तित्वगत प्रश्नों को वह उठाते हैं.
उनके पात्र अक्सर कथा की बुनावट में घिर जाते हैं और विभ्रम और कई बार प्रति -यथार्थ की रचना करते हैं. उनकी तमाम कथा
कृतियों पर फिल्में बनी हैं.
यह कहानी उनके संग्रह ‘Blow-up and Other Stories’ में संकलित है. कथा नायक जब अपने भविष्य से मिलता है तब यह महसूस करता
है कि जीवन अर्थहीन अस्तित्व का दुहराव भर है और इससे मुक्ति संभव नहीं.
मृत्यु का नश्वरता, अमरता, पुनर्जन्म आदि से कुछ लेना देना नहीं है. मृत्यु का
अर्थ शून्य हो जाना है.
इस कहानी का इंग्लिश से अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है.
सुशांत की विदेशी कहानियों के हिंदी अनुवाद की किताब इधर
हाल ही में प्रकाशित हुई है.
अनूदित लातिनी अमेरिकी कहानी
एक पीला
फूल
जूलियो कोर्टाज़ार
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय
हम अमर हैं. मैं जानता हूँ, सुनने में यह किसी चुटकुले जैसा
लगता है. मैं जानता हूँ क्योंकि मैं इस नियम के अपवाद से मिला. मैं एकमात्र नश्वर
व्यक्ति से मिला. उसने मुझे अपनी कहानी कैम्ब्रॉन के एक शराबख़ाने में सुनाई. वह
पिए हुए था इसलिए वह बिना फ़िक्र किए मुझे सच्चाई बता सका, हालाँकि शराबख़ाने का मालिक, वहाँ
काम करने वाले लोग और वहाँ नियमित रूप से आने वाले पियक्कड़ -- सभी उसकी बातें सुन
कर इतना हँस रहे थे कि हँसते-हँसते उनकी आँखों से दारू बाहर आने लगी थी. मेरे
चेहरे को देखकर उसे लगा होगा कि मुझे उसकी कहानी अच्छी लग रही है. इसलिए धीरे-धीरे
वह मेरी ओर खिसक आया. अंत में हम दोनों कोने की एक मेज़ की ओर चले गए ताकि हम वहाँ
बैठकर पी सकें और आराम से बातें कर सकें.
उसने मुझे बताया कि वह
नौकरी से अवकाश ग्रहण कर चुका था और उसकी पत्नी गर्मी के इस मौसम में अपने
माता-पिता के पास रहने चली गई थी. हालाँकि उसके यह कहने के लहज़े से मुझे ऐसा लगा
जैसे उसकी पत्नी उसे छोड़ गई थी. दिखने में वह ज़्यादा बूढ़ा नहीं लग रहा था और
बेवक़ूफ़ तो बिलकुल नहीं. उसका चेहरा सूखा हुआ-सा था और उसकी आँखें तपेदिक के
मरीज़ जैसी थीं. सच कहूँ तो वह ग़म ग़लत करने के लिए पी रहा था, जैसा कि उसने शराब का अपना पाँचवॉं गिलास शुरू करते हुए
बताया. लेकिन मैं उस शख़्स में पेरिस की गंध नहीं ढूँढ़ पाया -- पेरिस की वह ख़ास
गंध जिसे हम विदेशी आसानी से ढूँढ़ लेते हैं. उसके नाख़ून क़रीने से कटे हुए थे और
उन पर कोई दाग-धब्बे नहीं थे.
उसने मुझे बताया कि कैसे
उसने इस लड़के को पंचानवे नम्बर की बस में देखा था. वह लगभग तेरह साल का लड़का था.
वह बूढ़ा कुछ देर तक उसे टकटकी बाँधे देखता रहा और तब अचानक उसे यह हैरानी भरा
अहसास हुआ कि दिखने में वह लड़का हू-ब-हू उसी की तरह लगता था, कम-से-कम उस लड़के की उम्र में वह जैसा दिखता था, ठीक वैसा. धीरे-धीरे वह पक्के तौर पर इस नतीजे पर पहुँचा कि
वह लड़का उसकी किशोरावस्था का हमशक्ल ही था. लड़के की एक-एक चीज़ हू-ब-हू उस के
जैसी थी- उसका चेहरा, उसके हाथ, माथे पर गिर आए उसके घुँघराले बाल, उसकी आँखें. और इनसे भी ज़्यादा उसका शर्मीलापन, कहानियों की किताब में शरण ढूँढ़ने का उसका ढंग, पीछे की ओर सिर झटक कर अपने माथे पर गिर आई लटों को हटाने
का उसका तरीका, और अनाड़ियों जैसी उसकी हरकतें.
लड़के की शक़्ल-सूरत और हाव-भाव उससे इतना ज़्यादा मिलते थे कि उसे इस बात पर हँसी
आ गई, लेकिन जब वह लड़का रेनेस नाम की
जगह पर बस से उतरा तो वह बूढ़ा भी उसके पीछे-पीछे वहीं बस से उतर गया, हालाँकि उसे मौंटपारनैसे
जाना था जहाँ उसका एक दोस्त उसका इंतज़ार कर रहा था.
लड़के से बात करने का
बहाना ढूँढ़ते हुए बूढ़े ने उससे किसी ख़ास सड़क के बारे में पूछा और जवाब में
उसने वह आवाज़ सुनी जो ठीक उसकी किशोरावस्था की आवाज़ जैसी थी. वह लड़का भी उधर ही
जा रहा था और कुछ देर तक वे दोनों चुपचाप एक साथ चलते रहे. तनाव से भरे उस पल में
अचानक उसके ज़हन में जैसे कोई रहस्योद्घाटन हो गया.
मोटे तौर पर बात यह थी कि
उसने उस लड़के का घर देख लेने का बहाना ढूँढ़ लिया. साथ ही उसने क़िले जैसे बने उस
फ़्रांसीसी घर में बेरोक-टोक आने-जाने का तरीक़ा भी ढूँढ़ लिया. दरअसल, वह कुछ समय तक एक गुप्तचर के रूप में काम कर चुका था. फिर
भला उसकी यह ख़ूबी कब काम आती.
उस लड़के के घर में
बदहाली की एक मर्यादित गंध थी. वहाँ अपनी उम्र से बूढ़ी दिखने वाली उसकी माँ थी, काम से अवकाश ग्रहण कर चुके उसके मामा थे और दो पालतू
बिल्लियाँ थीं. बाद में उनसे घुलना-मिलना ज़्यादा मुश्किल नहीं रहा. संयोग से
बूढ़े के चचेरे भाई का बेटा उस लड़के का अच्छा दोस्त था और वह बूढ़ा इसी बहाने उस
लड़के ल्यूक से मिलने हर हफ़्ते उसके घर जाने लगा. लड़के की माँ बूढ़े को गरम-गरम
कॉफ़ी पिलाती और वे दोनों युद्ध , नौकरी और ल्यूक के बारे
में बातें करते रहते.
जो बात एक आकस्मिक खोज से
शुरू हुई थी वह अब रेखागणित के प्रमेय-सी विकसित हो रही थी. यह एक ऐसी शक़्ल ले
रही थी जिसे लोग किस्मत कहते हैं. यदि रोज़मर्रा के शब्दों में कहें तो ल्यूक
दोबारा अस्तित्व में आया उसी बूढ़े का रूप था. यानी नश्वरता जैसी कोई चीज़ नहीं
थी. हम सभी अमर थे.
"हम सब के सब अमर हैं, बुज़ुर्गवार ! हालाँकि कोई इसे साबित नहीं कर सका था, किंतु इसे मेरे साथ होना था - पंचानवे नम्बर की बस पर जैसे पूरे तंत्र में थोड़ा-सा खोट. जैसे लहरदार समय का दोहराव. मेरा मतलब है, हू-ब-हू वही.जैसे उसने किशोरावस्था की मेरी देह धारण कर ली हो. जैसे वह मेरा अवतार हो. लेकिन उसी समय में. मेरे बाद नहीं. यदि ढंग से सोचा जाए तो जब तक मेरी मृत्यु नहीं हो जाती, ल्यूक को पैदा ही नहीं होना चाहिए था. और फिर उस अनोखे हादसे के बारे में आप क्या कहेंगे जब शहर की भीड़ भरी बस में मेरी मुलाक़ात अपने ही पुराने प्रतिरूप से हो गई ! है न हैरानी की बात ? लेकिन ऐसे मामले में आप भौंचक्के रह जाते हैं. आपको लगता है कि ऐसा कैसे हो सकता है. कहीं आपका दिमाग़ तो नहीं घूम गया. हालत यह हो जाती है कि आपको अपने चित्त को शांत करने के लिए दवाइयाँ खानी पड़ती हैं.”
जब मैं अपने मन की बात
लोगों से कहता तो वे मुझ पर हँसते. मैं साफ़ देख सकता था कि वह मेरी किशोरावस्था
का प्रतिरूप था, बल्कि वह भविष्य में भी ठीक मेरी
ही तरह बनने वाला था. यह सिरफिरा जो अभी आप से बात कर रहा है, ठीक उसकी तरह. उस के हाव-भाव, उसका
व्यवहार, उसका पूरा व्यक्तित्व हू-ब-हू
मेरा ही था. वह ठीक मेरी तरह खेलता था. वैसे ही गिरता और चोट खाता था. मेरी ही तरह
उसके पैरों में भी मोच आ जाती थी और वह मेरी ही तरह घबराता और शर्माता था.
"ल्यूक की माँ मुझे
अपने बेटे की हर बात बताती जबकि वह बेचारा लज्जित या परेशान-सा वहीं खड़ा हो कर यह
सब सुन रहा होता. उसकी नितांत निजी और अंतरंग बातें भी उसके बचपन की घटनाएँ - उसके पहले दाँत के उगने
का क़िस्सा, जब वह आठ साल का था तो कैसे चित्र
बनाता था, उसकी बीमारियाँ उसकी माँ को बातें करना अच्छा लगता था. एक बात
तो तय थी कि उसे कभी मुझ पर संदेह नहीं हुआ. उसके मामा मेरे साथ शतरंज खेलते थे.
दरअसल मैं उसके परिवार का हिस्सा बन गया था. यहाँ तक कि कभी-कभी महीने के अंत में
तंगी के दिनों में मैं उन्हें घर चलाने के लिए पैसे भी उधार दे देता था."
ल्यूक के अतीत के बारे
में जानना आसान था. घर के बुज़ुर्गों से बातचीत के दौरान मासूम से सवाल पूछने भर
की देर थी. चाचा जी के गठिया, देश की राजनीति और बढ़ती
बेईमानी की बातों के बीच ल्यूक का ज़िक्र भी आ जाता.
इसलिए शतरंज की चालों और
मांस की क़ीमत में वृद्धि की गम्भीर चर्चा के बीच मुझे ल्यूक के बचपन की घटनाओं के
बारे में भी पता चला और छोट-छोटे साक्ष्य मिलकर ठोस सबूत कुछ और मँगवाते हैं.
"तो मैं कह रहा था
कि बचपन में मैं जैसा था, ल्यूक इस समय ठीक वैसा ही
था. लेकिन वह हू-ब-हू मेरा प्रतिरूप नहीं था. उसे समरूप कह सकते हैं, समझे ? मेरा मतलब है, जब मैं सात साल का था तो मेरी कलाई की हड्डी उतर गई थी जबकि
उस उम्र में ल्यूक के कंधे की हड्डी उतर गई थी. नौ की उम्र में मुझे 'खसरा' हो गया था जबकि उसे इसी
उम्र में ऐसा बुखार हो गया था जिसमें उसकी देह पर लाल चकत्ते निकल आए थे. ' खसरा ' की वजह से मैं दो हफ़्तों
तक बीमार रहा था जबकि ल्यूक पाँच दिनों में ठीक हो गया था. देखिए , समय के साथ विज्ञान तरक़्क़ी करता ही है. तो यह सारा मामला
एक दोहराव था.”
“चलिए , मैं आपको एक और उदाहरण
देता हूँ. कोने पर जो बेकरी की दुकान है ,
उसका मालिक
नेपोलियन का प्रतिरूप है. लेकिन वह यह बात नहीं जानता क्योंकि प्रतिरूप में कोई
बदलाव नहीं हुआ है. मेरा मतलब है, नानबाई की दुकान का वह
मालिक कभी भी शहर की किसी बस में असली नेपोलियन से नहीं मिल पाएगा; पर यदि किसी तरह उसे इस सच्चाई का पता चला तो शायद वह यह
जान पाए कि वह नेपोलियन का दोहराव है, कि वह अब भी नेपोलियन को
ही दोहरा रहा है. बर्तन धोने वाले व्यक्ति से एक ठीक-ठाक बेकरी का मालिक बनने तक
की उसकी यात्रा में कॉर्सिका से फ़्रांस के सिंहासन तक की नेपोलियन की यात्रा का
साम्य ढूँढ़ा जा सकता है. और यदि उस बेकरी के मालिक ने ध्यान से अपने जीवन की
घटनाओं का अध्ययन किया तो उसे अपने जीवन में भी नेपोलियन के जीवन से मेल खाती
घटनाओं का अंबार दिखने लगेगा - मिस्र का अभियान, वाणिज्य-दूतावास
की घटना, ऑस्टरलिट्ज़ का युद्ध आदि.
सम्भवत: उसे इस बात का आभास भी हो जाए कि कुछ बरसों के बाद उसकी बेकरी के साथ कुछ
गड़बड़ होने वाली है. हो सकता है, उसका अंत भी नेपोलियन की
तरह ही सेंट हेलेना जैसी किसी जगह में हो -छठे माले पर स्थित किसी एक कमरे वाली
तंग जगह में. क्या उसके लिए यह भी नेपोलियन की पराजय की तरह नहीं होगा ? चारो ओर एकाकीपन के जल से घिरा हुआ. तब भी उस बेकरी पर गर्व
करता हुआ जो उसके जीवन में किसी राजसी ठाठ से कम नहीं थी. आप समझे ? "
देखिए, मैं सब कुछ समझ रहा था, लेकिन
मुझे यह भी लगा कि हम सभी लगभग उसी उम्र में बचपन में बीमार हुए होंगे और फ़ुटबॉल
खेलते हुए तक़रीबन हम सभी ने कुछ-न-कुछ तोड़ा होगा.
"मैं जानता हूँ, मैंने प्राय: दिखने वाले सामान्य संयोगों के अलावा और किसी
चीज़ का उल्लेख नहीं किया है. उदाहरण के लिए , यदि
आप बस में हुए रहस्योद्घाटन पर विचार करें तो भी ल्यूक का मेरे जैसा दिखना किसी
गम्भीर महत्त्व की बात नहीं कही जा सकती. लेकिन जो बात महत्त्वपूर्ण थी वह थी
घटनाओं का क्रम. और इसे समझा पाना मुश्किल है क्योंकि इसमें चरित्र और स्वभाव
शामिल हैं, ग़ैर-सटीक स्मृतियाँ शामिल हैं, बचपन की पौराणिक कथाएँ शामिल हैं. जब मैं ल्यूक की उम्र का
था, तो मैं एक बहुत बुरे समय से गुज़र
रहा था जिसकी शुरुआत एक लम्बी बीमारी से हुई थी. स्वास्थ्य-लाभ के बीच में ही कुछ
मित्रों के साथ खेलते हुए मेरी बाँह टूट गई. जैसे ही मेरी बाँह ठीक हुई, मुझे अपने स्कूल के एक
मित्र की बहन से बेइंतहा प्यार हो गया.
हे ईश्वर, यह ऐसा दुखदायी था जैसे आप उस लड़की से नज़रें नहीं मिला पा
रहे हों क्योंकि वह आपका मज़ाक उड़ा रही है. ल्यूक भी बीमार पड़ा और जब वह कुछ ठीक
होने लगा था, वे उसे लेकर सर्कस देखने गए जहाँ
वह फिसल कर गिर गया और उसके टखने का जोड़ उखड़ गया. इस घटना के कुछ ही समय बाद एक
दिन दोपहर में ल्यूक की माँ ने संयोग से उसके हाथों में लिपटा हुआ एक छोटा-सा
रुमाल देखा जब वह खिड़की के सामने खड़ा रो रहा था. उसकी माँ ने वह रुमाल पहले कभी
नहीं देखा था."
चूँकि किसी को तो इस
चर्चा को आगे बढ़ाना ही था , इसलिए मैंने कहा कि छिछला
प्यार चोटों, टूटी हड्डियों और सीने में दर्द
का अपरिहार्य सहगामी होता है. लेकिन मुझे यह मानना पड़ा कि खिलौने वाले हवाई जहाज
का मामला अलग क़िस्म का था. वह हवाई जहाज ल्यूक को अपने जन्म-दिन पर मिला था जिसके
नोदक को रबड़-बैंड चलाता था.
जब ल्यूक को यह तोहफ़ा मिला तो मुझे
उत्थापक-यंत्र वाला अपना उपहार याद आ गया जो मेरी माँ ने मुझे तब दिया था जब मैं
चौदह साल का था. और मुझे याद आ गया कि उसका क्या हुआ था. मैं बाहर बगीचे में था
हालाँकि आँधी आने वाली थी. बादलों की गड़गड़ाहट साफ़ सुनाई दे रही थी. गली से लगे
मुख्य दरवाज़े के पास उगे पेड़ के नीचे पड़ी मेज पर मैं उस समय मशीन को जोड़ रहा
था. तभी किसी ने मुझे मकान में से पुकारा और मुझे एक मिनट के लिए भीतर जाना पड़ा.
किंतु जब मैं लौटा तो मैंने पाया कि मेरा बक्सा और उत्थापक-यंत्र ग़ायब थे और
मुख्य द्वार पूरा खुला हुआ था. निराशोन्मत्त हो कर चीख़ता हुआ मैं बाहर गली की ओर
भागा लेकिन वहाँ कोई भी नहीं था. उसी पल सड़क के उस पार मकान पर बिजली गिरी.
"यह सब एक झटके में
हो गया और मैं यही सब याद कर रहा था जब ल्यूक अपने हवाई-जहाज के खिलौने को उतनी ही
खुशी से देख रहा था जितनी खुशी से मैंने अपने उत्थापक-यंत्र को देखा था. उसकी माँ
मेरे लिए कॉफ़ी ले आई और हम आपस में सामान्य बातचीत करने लगे. तभी हमें एक चीख़
सुनाई दी. ल्यूक दौड़ कर कमरे की खिड़की तक गया था और वहाँ ऐसे खड़ा था जैसे वह
खिड़की में से बाहर कूद जाना चाहता था. उसका चेहरा पीला पड़ गया था और उसकी आँखों
से आँसू बह रहे थे. किसी तरह वह हमें बता पाया कि उसका हवाई जहाज वाला खिलौना हवा
में मुड़ा था और आधी खुली खिड़की में से होता हुआ बाहर जा कर ग़ायब हो गया था. वह
हवाई जहाज हमें अब कभी नहीं मिलेगा - ल्यूक बुदबुदाता रहा. वह तब भी सुबक रहा था
जब हमें निचली मंज़िल पर शोर सुनाई दिया. तभी उसके चाचा यह ख़बर ले कर दौड़ते हुए
आए कि गली के उस पार स्थित मकान में आग लग गई थी. अब आप समझे ? जी हाँ, थोड़ी शराब और लेना उचित
होगा."
बाद में जब मैंने कुछ
नहीं कहा तो उस बूढे ने आगे कहना जारी रखा. अब वह केवल ल्यूक के बारे में सोच रहा
था, ल्यूक की किस्मत के बारे में.
उसकी माँ ने यह फ़ैसला किया था कि उसे शिक्षा प्राप्त करने के लिए एक व्यावसायिक
विद्यालय में भेजा जाएगा. उसकी माँ जिसे 'उसके जीवन का मार्ग' बता रही थी और कह रही थी
कि यह दिशा अच्छी और संतोषजनक होगी, वह मार्ग तो पहले से ही
उसके लिए खुला था. यदि वह ल्यूक के बारे में उन्हें कुछ कहता तो उसकी माँ और उसके
मामा- दोनों उसे पागल समझते और ल्यूक को उससे दूर कर देते. किंतु केवल वह , जो अपनी ज़बान नहीं खोल सकता था, केवल वह ही उन्हें यह बता सकता था कि ल्यूक के बारे में कुछ
भी करने का कोई फ़ायदा नहीं था. वे कुछ भी करते, नतीजा
वही रहने वाला था. अपमान, एक भयंकर दिनचर्या, एक के बाद एक आने वाले नीरस बरस, दुखद विपत्तियाँ -- ये सभी उसके कपड़ों और उसकी आत्मा को
लगातार कुतरते रहने वाले थे. इनकी वजह से कुढ़ा हुआ और एकाकी ल्यूक किसी
रात्रिकालीन क्लब की शरण में चला जाने वाला था.
लेकिन इस सारे मामले में
ल्यूक की नियति ही सबसे बुरी बात नहीं थी. सबसे ख़राब बात यह थी कि समय आने पर
ल्यूक की मृत्यु हो जानी थी, और फिर कोई और व्यक्ति
ल्यूक के और अपने जीवन के नमूने को फिर से जीने वाला था, जब तक कि उसकी भी मृत्यु नहीं हो जाती और फिर कोई अन्य
व्यक्ति इस चक्र का हिस्सा नहीं बन जाता. ऐसा लग रहा था जैसे उस बूढ़े के लिए
ल्यूक अभी से महत्त्वहीन हो गया था. अनिद्रा-रोग से ग्रस्त वह बूढ़ा रात में ल्यूक
के अलावा उन सभी व्यक्तियों के बारे में सोचता रहता था जो इस चक्र का हिस्सा बनने
वाले थे - वे अन्य जिनके नाम रॉबर्ट या क्लॉड या माइकेल होने थे. जैसे यह सब किसी
अनंत विस्तार का सिद्धांत हो जैसे बिना जाने बेचारे अनंत लोग किसी नमूने को दोहरा
रहे हों, हालाँकि उन्हें अपनी इच्छाशक्ति
और कुछ भी चुनने की आज़ादी पर पूरा भरोसा हो. बूढ़े के आँसू उसके बीयर के गिलास
में घुल रहे थे, हालाँकि उस गिलास में बीयर नहीं, शराब पड़ी थी. आप इसके बारे में कर ही क्या सकते थे, कुछ भी नहीं.
"जब मैं उन्हें यह
बताता हूँ कि कुछ माह बाद ल्यूक की मृत्यु हो गई तो वे मुझ पर हँसते है. वे मूढ़
यह सब समझने में असमर्थ हैं जी हाँ, अब आप मेरी ओर ऐसी निगाहों से मत देखिए. कुछ महीनों के बाद
ल्यूक की मृत्यु हो गई. उसकी बीमारी फेफड़ों की सूजन के रूप में शुरू हुई. इसी
उम्र में मुझे जिगर की सूजन की बीमारी हो गई थी. मुझे अस्पताल में भर्ती करवाया
गया था जबकि ल्यूक की माँ ने उसे घर पर ही रख कर उसकी देख-भाल करने की ज़िद की.”
"मैं उससे मिलने हर
रोज़ जाता था. कभी-कभी ल्यूक के साथ खेलने के लिए मैं अपने भतीजे को भी अपने साथ
ले जाता. उस घर में इतनी बदहाली और दुख-तकलीफ़ें थीं कि मेरा वहाँ जाना उन लोगों
के लिए हर तरह से सांत्वना का काम करता था. मैं ल्यूक के साथ ज़्यादा-से-ज़्यादा
समय बिताता. कभी-कभी मैं उसके लिए सूखी हिल्सा मछलियाँ या फल, कचौरियाँ वग़ैरह ले जाता."
"एक बार मैंने उसकी
माँ से उस दवाई की दुकान का ज़िक्र किया जो मुझे विशेष छूट देती थी. फिर तो ल्यूक
की दवाइयाँ ख़रीदने की इजाज़त भी मुझे मिल गई. अंत में उन्होंने ल्यूक की
सेवा-सुश्रुषा की पूरी ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी. आप समझ सकते हैं कि ऐसे किसी
मामले में, जब डॉक्टर बिना किसी विशेष फ़िक्र
के कभी भी आ-जा सकता है, कोई भी इस बात पर ज़्यादा
ध्यान नहीं देता कि रोगी की बीमारी के अंतिम लक्षणों का उसके पहले इलाज से कोई
लेना-देना है या नहीं.
आप मेरी ओर ऐसे क्यों देख
रहे हैं ? क्या मैंने कोई ग़लत बात की है? "
नहीं, नहीं. उसने कुछ भी ग़लत नहीं कहा था, ख़ास करके तब जब वह शराब पीने की वजह से नशे में था. बल्कि
यदि आप ख़ास तौर पर किसी भयंकर दृश्य की कल्पना न करें तो बेचारे ल्यूक की मृत्यु
से यही साबित होता था कि यदि किसी की कल्पना-शक्ति उर्वर हो, तो वह पंचानवे नम्बर की बस से एक स्वप्न-चित्र शुरू कर सकता
है जिसकी परिणति शांतिपूर्वक मर रहे किसी लड़के के बिस्तर के किनारे हो सकती है.
मैंने केवल उसे शांत करने के लिए 'नहीं' कहा था. अपनी कहानी दोबारा शुरू करने से पहले वह कुछ देर तक
शून्य में ताकता रहा.
ठीक है, आप जो चाहे समझें. सच्चाई यह है कि ल्यूक की अंत्येष्टि के
कुछ हफ़्ते बाद पहली बार मुझे कुछ ऐसा महसूस हुआ, जिसे
आप प्रसन्नता कह सकते हैं. मैं अब भी कभी-कभार उसकी माँ से मिलने जाता रहता. अपने
साथ कभी-कभी मैं महँगे बिस्किट का पैकेट भी ले जाता, किंतु
अब मेरे जीवन में न ल्यूक की माँ का, न ही उस मकान का कोई अर्थ
रह गया था. यह ऐसा था जैसे मैं पहला नश्वर व्यक्ति होने की अद्भुत निश्चितता में
डूब गया था, यह महसूस करते हुए कि शराब पीते
हुए दिन-प्रतिदिन मेरे जीवन का क्षरण हो रहा था. अंत में किसी-न-किसी समय, किसी-न-किसी जगह इस जीवन की इति हो जानी थी.
“मेरा जीवन किसी अन्य अज्ञात वृद्ध के जीवन की नियति का दोहराव भर था जिसके बारे में मुझे छोड़ कर किसी को नहीं पता था, किंतु केवल मैं जानता था कि अब कोई और ल्यूक इस मूढ़ता के चक्र का हिस्सा बन कर इस मूर्खतापूर्ण जीवन को नहीं दोहराने वाला था. इस अनुभूति के पूरे अर्थ को समझिए, बुज़ुर्गवा, और मेरी खुशी के मेरे साथ रहने तक मुझसे रश्क कीजिए."
ज़ाहिर तौर पर यह खुशी
ज़्यादा समय तक क़ायम नहीं रह सकी थी. सामान्य रेस्त्रां और देसी शराब से यह साबित
होता था. उसकी आँखें भी ऐसी चमक से दीप्त थीं जिसका देह से कोई लेना-देना नहीं था.
जो भी हो, उस बूढ़े ने अपनी रोज़मर्रा की
सामान्यता का पूरा मज़ा लेते हुए कुछ महीने जिए थे. हालाँकि उसकी पत्नी उसे छोड़
गई थी और उसका पचास बरस का जीवन किसी खंडहर-सा था, वह
अपनी न छीनी जा सकने वाली नश्वरता के प्रति आश्वस्त था. एक दोपहर लग्ज़ेम्बौर्ग
बाग़ से गुज़रते हुए उसने एक पीला फूल देखा.
वह क्यारी के किनारे पर था, एक
सामान्य पीला फूल. मैं सिगरेट जलाने के लिए वहाँ रुका और उसे देख कर मेरा ध्यान
भंग हुआ. ऐसा लगा जैसे वह फूल भी मेरी ओर देख रहा था. आप समझ सकते हैं न, कभी-कभी चीज़ों के बीच कैसा सम्पर्क स्थापित हो जाता
है आप समझ रहे हैं न. कभी-न-कभी सभी इसे
महसूस करते हैं. शायद इसे ही लोग सुंदरता कहते हैं. दरअसल मुझे वह फूल बेहद सुंदर
लगा. और तब यह अहसास मुझ पर शिद्दत से हावी हुआ कि एक दिन मैं मर कर सदा के लिए
ख़त्म हो जाने वाला था.
"वह फूल बेहद सुंदर था और भविष्य में आने वाले लोगों के लिए फूल हमेशा मौजूद होंगे. और तभी मैं अनस्तित्व और नगण्यता के बारे में सब कुछ जान गया. मुझे लगा था कि मुझे शांति मिल गई थी. मेरे साथ ही इस श्रृंखला का अंत हो जाना था. मेरी मृत्यु के साथ ही. ल्यूक की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. भविष्य में मेरे किसी समरूप के लिए किसी फूल को मौजूद नहीं रहना था. कहीं कुछ भी नहीं रहना था. कुछ भी नहीं. असल बात यह थी कि यह फूल दोबारा कभी अस्तित्व में नहीं आने वाला था.”
सिगरेट का जल रहा हिस्सा
मेरी उँगलियों को जला रहा था. मुझे जलन और टीस महसूस हुई. अगले चौराहे पर मैं एक
बस में चढ़ गया जो कहीं जा रही थी - कहाँ जा रही थी, यह
महत्वपूर्ण नहीं था. मेरी बेवक़ूफ़ी देखिए कि मैं चारो ओर हर चीज़ को ग़ौर से
देखने लगा. सड़क पर दिखाई दे रहे हर आदमी को. बस में मौजूद हर व्यक्ति को. जब बस
का अंतिम स्टॉप आया तो मैं उस बस से उतर कर किसी और बस में चढ़ गया जो उपनगर की ओर
जा रही थी.
पूरी दोपहर, बल्कि रात होने तक मैं बसों से चढ़ता-उतरता रहा. सारा समय
मैं उस फूल और ल्यूक के बारे में सोचता रहा. मैं यात्रियों के बीच ल्यूक से
मिलते-जुलते चेहरे ढूँढ़ता रहा. कोई ऐसा व्यक्ति जिसका चेहरा मुझसे या ल्यूक से
मिलता-जुलता हो. कोई ऐसा व्यक्ति जो दोबारा मेरा प्रतिरूप बन सके. कोई ऐसा व्यक्ति
जिसे देख कर मैं जान जाऊँ कि मैं खुद को ही देख रहा हूँ. कोई हो जो मेरे जैसा हो.
और मैं उससे कुछ भी कहे बिना उसे चले जाने
दूँ. लगभग उसे बचा कर सुरक्षित रखते हुए ताकि वह जा कर बेचारगी से भरा अपना
मूर्खतापूर्ण जीवन जी सके. अपना मूढ़, निष्फल जीवन. तब तक जब तक
कोई और ऐसे ही मूढ़, निष्फल जीवन को दोहराने न
आ जाए. और फिर कोई और ऐसे ही मूढ़, निष्फल जीवन को दोहराए.
और फिर कोई और..
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सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,गौड़ ग्रीन सिटी,वैभव खंड ,
इंदिरापुरम्, ग़ाज़ियाबाद – 201014 ( उ.प्र.)
8512070086 / ई-मेल : sushant1968@gmai.com
8512070086 / ई-मेल : sushant1968@gmai.com
इस मदद के लिए सिर्फ आभार ही व्यक्त किया जा सकता है. धन्यवाद अरुण देव और सुशांत सुप्रिय.
जवाब देंहटाएंJulio Cortazar मेरे प्रिय लेखकों में से एक हैं, उन्हें हिंदी में देख अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंकहानी हमारी पढ़ी हुई और प्रिय है. लेकिन अनुवाद भी बहुत अच्छा बन पड़ा है. लहजा...बिलकुल वैसा ही है...हालाँकि हमने तो अंग्रेजी में ही पढ़ा है.
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