जयश्री रॉय का उपन्यास ‘दर्दजा’ ‘फ़ीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन’ की (कु)
प्रथा और उसकी यातना को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास है जो इधर खूब चर्चित हुआ है और
उसे स्पंदन सम्मान भी दिया गया है.
‘दर्दजा’ पर लिखे इस शोध परक समीक्षा के लिए राकेश बिहारी प्रशंसा
के पात्र हैं. उन्होंने हिंदी में लिखे इस उपन्यास को समझने के क्रम में इस विषय
पर लिखे गए सभी संभव स्रोतों की छानबीन की
है और यथासंभव उनका ज़िक्र भी किया है.
वैश्विक होते हिन्दी कथा-साहित्य की गवाही –
‘दर्दजा’
‘एल्मन पीस एंड ह्यूमन राइट सेंटर’ कनाडा और सोमालिया में काम करने वाला एक गैरलाभकारी संगठन है. ‘सिस्टर सोमालिया’ इस संगठन की एक विशेष परियोजना है जो यौन-हिंसा पीड़ित स्त्रियॉं के हितों की रक्षा के लिए काम करती है. ऊपर उद्धृत कविता सन 2013 में इसी संगठन के एक कार्यक्रम में सोमाली कवयित्री दहाबो अली म्यूज ने सुनाई थी. उल्लेखनीय है कि दहाबो अली म्यूज एक ‘एफ़जीएम’ पीड़ित स्त्री हैं. ‘एफजीम’ यानी ‘फ़ीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन’ अर्थात स्त्रियॉं का खतना! इस कविता में म्यूज ने स्त्री-खतना के संदर्भ में स्त्रियॉं की तकलीफ को कौमार्य, स्त्रीत्व और मातृत्व के तीन त्रासद अनुभवों में वर्गीकृत करके देखा है.
“अगर मैं अपनी सुहागरात को
याद करूँ
तो जाने क्या-क्या कल्पनाएं थी मेरी!
आलिंगन... मीठे चुंबन... भुजपाश...
मगर नहीं...
मेरे नसीब में तो लिखा था बेपनाह दर्द... अंतहीन पीड़ा और अछोर उदासी...
किसी घायल पशु की तरह कराहती
सुहाग-सेज पर छटपटाती मैं
झेल रही थी वही पीड़ा जो जन्म के साथ ही औरतों की किस्मत में लिख दी जाती है
अल सुबह गूँजे थे मेरी सास के शब्द - ‘हा, हाँ, कुमारी है यह’
जब भय और गुस्से से भरी थी मैं
जब नफरत ही बन गई थी मेरी स्थायी सखी
औरतें सलाह देने लगीं मुझे- यह दर्द ही हमारा नसीब है और हर जनाना दर्द की तरह
यह भी गुजर ही जाएगा
सफर कहूँ या कि संघर्ष, जारी रहा
शादी के दिन बीते और मैंने भी समर्पण कर दिया
दुख छंटने लगे और फूल कर गुब्बारा बन गया मेरा पेट
खुशियों की एक झलक... एक नई उम्मीद... एक बच्चा... एक नई ज़िंदगी... /
लेकिन हाय! एक नन्ही जान के आने से तो मेरी जान पर ही बन आई
यही तो हैं औरत की किस्मत मे लिखे वे तीन दर्द
जिनका जिक्र मेरी दादी करती थीं – खतना, मधुचन्द्रिका और प्रसव
प्रसव वेदना से छटपटाती गुहार लगाती रही मैं
और कहती रहीं वे - ज़ोर लगाओ...
यह एक जनाना दर्द है और उसी की तरह गुजर जाएगा...”
(दहाबो अली म्यूज / अंग्रेजी से अनुवाद – सौरभ
शेखर)
‘एल्मन पीस एंड ह्यूमन राइट सेंटर’ कनाडा और सोमालिया में काम करने वाला एक गैरलाभकारी संगठन है. ‘सिस्टर सोमालिया’ इस संगठन की एक विशेष परियोजना है जो यौन-हिंसा पीड़ित स्त्रियॉं के हितों की रक्षा के लिए काम करती है. ऊपर उद्धृत कविता सन 2013 में इसी संगठन के एक कार्यक्रम में सोमाली कवयित्री दहाबो अली म्यूज ने सुनाई थी. उल्लेखनीय है कि दहाबो अली म्यूज एक ‘एफ़जीएम’ पीड़ित स्त्री हैं. ‘एफजीम’ यानी ‘फ़ीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन’ अर्थात स्त्रियॉं का खतना! इस कविता में म्यूज ने स्त्री-खतना के संदर्भ में स्त्रियॉं की तकलीफ को कौमार्य, स्त्रीत्व और मातृत्व के तीन त्रासद अनुभवों में वर्गीकृत करके देखा है.
सुपरिचित कथाकार जयश्री रॉय के चौथे और नवीनतम
उपन्यास ‘दर्दजा’ के केंद्र में भी स्त्रियॉं की यही तकलीफ है. उपन्यास के
शुरुआती हिस्से की कुछ पंक्तियाँ हैं- “दादी गौरव से भरकर
गिनातीं- दुख तो अनगिनत हैं औरत के भाग्य में, मगर तीन दुख खास हैं- एक तो पहला सुन्ना,
दूसरा
जब शादी की रात उसे फिर संभोग के लिए काटकर खोला जाता है और तीसरा जब बच्चा जनने
के लिए उसे प्रसव के समय काटा जाता है. मैं सुनती हूँ और भीतर ही भीतर थरथराती
हूँ. अब मेरे लिए शादी की रात का माने खूबसूरत जोड़ा, मेंहदी और गहने नहीं हैं. अब मुझे सुहाग के बिस्तर का खून, मिलन की यातना और दुल्हन के आँसू दिखते हैं. जिस शादी की
कल्पना कभी मुझे हिना के मादक गंध से भर देती थी, आज नसों में लहू की रवानगी को रोक देती है.”
रेखांकित किया जाना चाहिए कि एफ़जीएम पीड़ित
कवयित्री म्यूज की इस कविता में स्त्रियॉं के हिस्से का यह दर्द जिस सघनता के साथ
अभिव्यंजित हुआ है, जयश्री रॉय ने
स्त्रियॉं के खिलाफ होनेवाले इस अत्याचार की भीषण यातना को उसी अंतरंग आत्मीयता और
मारक प्रभावोत्पादकता के साथ ‘दर्दजा’ ’में पुनर्सृजित किया है. लेकिन यह उपन्यास उस कविता से इन मामलों में
भिन्न और व्यापक है कि जहां म्यूज की कविता पूरी मानवता से स्त्रियॉं को उनका
सुख-स्वप्न वापस करने की एक भावुक अपील के साथ खत्म होती है, वहीं यह उपन्यास इस अमानवीय त्रासदी के खिलाफ एक समर्थ और
मानीखेज विद्रोह और प्रतिरोध की आवाज़ के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है.
परकाया प्रवेश की विलक्षण लेखकीय क्षमता और
संवेदना की सघनतम तीव्रता के संयुक्त रसायन से निर्मित ‘दर्दजा’ का प्रभाव इतना
सूक्ष्म और मारक है कि वह किसी पाठक के आलोचकीय विवेक को लंबे समय तक अपने गिरफ्त
में ले लेता है. उपन्यास में व्यंजित स्त्रियॉं की तकलीफ पाठकों के लिए इस कदर
अपनी हो जाती है कि इसे पढ़ते हुये उसे
अपने स्थान और काल का भी भान नहीं रहता. नतीजतन अपने वजूद और लिंग से मुक्त हो वह
कब खुद ही उपन्यास की मुख्य चरित्र ‘माहरा’ में तब्दील होकर ‘माशा’ में ‘अपनी बेटी’ का चेहरा देखने लगता है, उसे भी पता नहीं चलता. पाठ के दौरान किसी पाठक को भोक्ता में तब्दील कर देना
और कृति की चिंता को पाठक की निजी चिंता में बदल देना इस उपन्यास की सबसे बड़ी
विशेषता है.
एक-एक घटना तथा पात्रों के अन्तर्जगत में
बनने-बिगड़ने वाली दुनिया के प्रति लेखिका के गहरे कंसर्न, जीवंततम स्वरूप में दर्द के प्रामाणिक दस्तावेजीकरण और ‘मैं’ शैली में लिखे होने
के कारण इस उपन्यास से गुजरते हुये तहमीना दुर्रानी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘कुफ्र’ की याद लगातार बनी
रहती है. गो कि विषयवस्तु के दृष्टिकोण से दोनों उपन्यास बिलकुल दो धरातल पर लिखे
गए हैं, तथापि आपबीती का–सा अहसास करानेवाले स्त्री-दुखों के अंतरंग की मौजूदगी के
कारण इन दोनों उपन्यास के पात्र और कंसर्न एक-से जान पड़ते हैं. लेकिन इस साम्य के
बावजूद इनकी दो बातें ‘दर्दजा’ और ‘कुफ्र’ को एक दूसरे से अलग करती हैं. एक- विषय संबंधी लेखिकाओं के
अनुभव तथा दो- पात्रों की बुनावट. ‘कुफ़्र’ जहां घोषित रूप से
वास्तविक घटना से प्रेरित है, वहीं ‘दर्दजा’ पूरी तरह एक शोध
आधारित उपन्यास है. स्त्री-सरोकारों के अतिरिक्त कुफ़्र और दर्दजा में एक और समानता
है– माँ-बेटी का संबंध. लेकिन
माँ-बेटी के सम्बन्धों की सृष्टि के दौरान पात्रों की बुनावट (खासकर माँ के चरित्र
में) का अंतर यहाँ साफ देखा जा सकता है. काल-परिवेश के अनुरूप होने के बावजूद
यथास्थिति के आगे समर्पण को देख जहां कई बार ‘कुफ़्र’ की माँ का चरित्र हमें एक
खास तरह की खीज से भर देता है वहीं ‘दर्दजा’ की माहरा अपने विद्रोही तेवर के कारण उपन्यास में आद्योपांत
त्रासदी के समानान्तर प्रतिरोध का एक मुकम्मल प्रतिसंसार रचती चलती है. इस तरह ‘दर्दजा’ की माहरा को कुफ़्र
की ‘माँ’ के विस्तार की तरह भी देखा जा सकता है.
महज वास्तविक घटना से प्रेरित होना ही किसी
कृति के सफल और प्रभावशाली होने का कारण नहीं होता, लेकिन एक प्रभावशाली कथानक विकसित करने की अनिवार्यता को देखते हुये, तथ्यों और शोध में प्राप्त जानकारियों को आधार बना कर लिखी
जाने वाली कथाकृतियों की चुनौतियाँ दुहरी होती हैं. शोध में अर्जित संवेदनात्मक
अनुभवों, तनावों और तकलीफ़ों को आत्मसात
कर आत्मानुभव की प्रामाणिकता के साथ पुनराविष्कृत करने की कला के बिना इस तरह की
रचना संभव नहीं हो सकती. इसी लेखकीय गुण को परकायाप्रवेश कहा जाता है. ‘दर्दजा’ इस कसौटी पर पूरी
तरह खरा उतरता है. अनुभव की प्रामाणिकता को भोगे हुये यथार्थ या संदर्भित घटनास्थल
की यात्रा की अनिवार्यता में संकुचित करके देखने वाले पाठकों-आलोचकों को यह
उपन्यास जरूर पढ़ना चाहिए. यथार्थ की पुनर्रचना महज देखी हुई घटनाओं के
दस्तावेजीकरण से बहुत आगे यथार्थ में घटित होने वाली घटनाओं की संभावनाशीलता को
आँखें बंदकर महसूस करते हुये शब्दरूप में साकार कर देने का लेखकीय कौशल है.
परकायाप्रवेश की बात करते हुये, 2004 में हार्पर कॉलिन्स द्वारा प्रकाशित अमरीकी
लेखिका रीता विलियम्स गार्सिया के उपन्यास ‘नो लाफ्टर हियर’, जिसका विषय-संदर्भ भी स्त्री-खतना ही है, का उल्लेख भी यहाँ प्रासंगिक जान पड़ता है. उल्लेखनीय है कि
रीता विलियम्स भी उक्त उपन्यास लिखने के पहले किसी ऐसी स्त्री से प्रत्यक्षतः नहीं
मिली थीं जिसका सुन्ना किया गया हो. उन्होने किसी भोक्ता से मिलने के बजाय पहले से
उपलब्ध साहित्यिक और समाजशास्त्रीय पुस्तकों के शोध-अध्ययन पर ज्यादा ध्यान दिया.
मतलब यह कि किसी खास समय या स्थान के यथार्थ को समझने के लिए लेखक का उसका
प्रत्यक्षदर्शी होने से ज्यादा संवेदनशील होना जरूरी है. किसी समाज या परिवेश की
विशिष्टताओं, मान्यताओं और मूल्यों के
संदर्भ में किया गया शोध लेखक की संवेदनशीलता के साथ तादात्म स्थापित कर न सिर्फ
कृति की प्रभावोत्पादकता को सूक्ष्म और बेधक बनाता है बल्कि ऐसे रचनात्मक संस्पर्श
से वास्तविक अनुभव जगत को एक बहुलार्थी विस्तार भी मिलता है. रेखांकित किया जाना
चाहिए कि ‘दर्दजा’ प्रथम पुरुष में लिखा गया उपन्यास है जबकि ‘नो लाफ्टर हियर’
अन्य
पुरुष में.
‘नो लाफ्टर हियर’ के केंद्र में जहां अकीला और विक्टोरिया दो सहेलियाँ हैं
वहीं ‘दर्दजा’ के केंद्र में माहरा औरा मासा (माँ-बेटी) हैं. गौरतलब है कि
‘नो लाफ्टर हियर’ की विक्टोरिया भोक्ता है और अकीला द्रष्टा. जबकि ‘दर्दजा’ में माहरा और मासा
दोनों ही भोक्ता हैं. भोक्ता और द्रष्टा का यह अंतर इन उपन्यासों के शिल्प-विधान
में ही नहीं बल्कि इनके प्रभावक्षेत्र में
भी देखा जा सकता है. मैं शैली की कलात्मक सफलता जहां ‘दर्दजा’ के पाठकों को भी
भोक्ता में तब्दील कर देती है, वहीं तमाम
संवेदनशीलता के बावजूद ‘नो लाफ्टर हियर’ द्रष्टा की सीमा में ठहर जाता है. यहाँ इस बात को भी
रेखांकित किया जाना चाहिए कि द्रष्टा की दृष्टि से लिखा जाना किसी कृति की
अनिवार्य कमी नहीँ होती, बल्कि द्रष्टा की
दृष्टि कुछ अर्थों में तटस्थ भी होती है,
नतीजतन
ऐसी रचनाओं में लेखक भोक्ता के पक्ष-विपक्ष को समान तन्मयता या कि तटस्थता के साथ
एक आवश्यक दूरी से परख पाता है. ‘नो लाफ्टर हियर’ में मिसेज साउन्डर जो कि पेशे से एक शिक्षिका है और स्त्री
खतना की प्रथा के प्रति सहानुभूति रखती है,
की
उपस्थिति को खुद रीता विलियम्स उसी तटस्थ दृष्टिसंपन्नता का नतीजा मानती हैं. ‘एफजीम’ के प्रति एक स्त्री
वह भी शिक्षिका के इस सहानुभूतिपरक रवैये के लिए आलोचकों ने ‘नो लाफ्टर हियर’
की
आलोचना भी की है. पात्रों की तकलीफ और संदर्भित कुप्रथा संबंधी सामाजिक मूल्यबोधों
को लिखने से पहले उसे ‘स्व’ की कसौटी पर परख कर लेखिका का स्वयं हर तरह के किन्तु-परंतु
से मुक्त हो जाने का ही नतीजा है कि पितृसत्ता से अनुकूलित कुछ बड़ी-बूढ़ियों को छोड़
दें तो दर्दजा में इस कुप्रथा से हमदर्दी रखने वाला इस तरह का कोई स्त्री चरित्र
नहीँ है.
लेखिका की नजर मछली की आँख की तरह सिर्फ और
सिर्फ उपन्यास के सरोकारों पर है. भोक्ता और द्रष्टा की दृष्टि के इस अंतर को
दोनों उपन्यासों के शीर्षकों की व्यंजनामूलकता से भी समझा जा सकता है. विक्टोरिया
के चेहरे से गायब हंसी को जहां रीता विलियम्स अकीला की दृष्टि से देखती हुई अपने
उपन्यास का शीर्षक तय करती हैं, वहीं जयश्री अपने
पात्र और दर्द के बीच स्थित नाभिनाल संबंध को रूपायित करने केलिए एक नए शब्द के
विन्यास तक पहुँच जाती हैं.
कुछ पाठकों-आलोचकों ने ‘दर्दजा’ शब्द के प्रयोग पर
प्रश्न खड़े किए हैं. उर्दू भाषा का शब्द होने के कारण ‘दर्द’ के साथ ‘जा’ प्रत्यय का
इस्तेमाल उन्हें व्याकरणसम्मत नहीँ लगता. यहाँ इस बात को समझे जाने की जरूरत है कि
लेखक की रचनाशीलता हर वक्त शब्दकोशों का मुखापेक्षी ही नहीं होती, संवेदना की सघनता लेखक से अपने लिए नए शब्द भी आविष्कृत
करवाती है. सच पूछिए तो उपन्यास में अंतर्निहित स्त्री-दुखों को देखते हुये ‘दर्दजा’ जैसे स्त्री शब्द
का मुकम्मल पर्यायवाची बन के सामने आता है. दर्द के बदले पीड़ा या तकलीफ जैसे
समानार्थी हिन्दी शब्दों का प्रयोग करते ही दर्दजा शब्द का भावबोध प्रभाहीन हो
जाएगा. वैसे जो लोग उर्दू भाषा और उसके व्याकरण से परिचित हैं उन्हें ‘जेह’ का अर्थ और उसका
प्रयोग पता होगा, यदि दर्द को जेह के
साथ मिला कर ‘दर्दजेह’ शब्द बने तो उसका अर्थ ‘दर्द से पैदा हुई’ ही होगा. इस तरह ‘दर्दजा’ को ‘दर्दजेह’ के खूबसूरत हिन्दी
रूपान्तरण की तरह भी देखा जा सकता है.
पुरुषों का खतना अपनी सामान्य स्वीकार्यता के
कारण लगभग एक आम बात हो चुका है, इसके बारे में लोग
जानते भी हैं. लेकिन स्त्रियॉं का खतना या सुन्ना अपनी तमाम भयावहताओं के बावजूद
समाज के एक बड़े हिस्से के लिए अनजाना क्षेत्र ही है. महिलाओं के ख़तने में महिला
जननांगों के ‘क्लिटोरिस`’ का हिस्सा काट दिया जाता है और मात्र मूत्रत्याग
और रजोस्राव के लिए छोटा द्वार छोड़ दिया जाता है. यह प्रक्रिया प्रायः इतनी जटिल
और लोमहर्षक होती है कि खतना के दौरान ही बहुत सी लड़कियों की मृत्यु तक हो जाती
है. लेकिन दर्द और भय का यह सफर यहीं खत्म नही होता, खतना के बाद स्त्रियॉं को संभोग और मातृत्व के दौरान अकल्पनीय तकलीफ से गुजरना
पड़ता है. यूनीसेफ के आंकड़ों के अनुसार खतना या सुन्ना के कारण महिला जननांग को
विकृत करने की यह अमानवीय प्रथा अफ्रीका और
मध्यपूर्व के 29 देशों में प्रचलित
है और आज विश्व में ऐसी 20 करोड़ महिलाएं हैं
जिनका खतना किया गया है. हालांकि यूनीसेफ की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 30 साल में इस प्रथा का शिकार होने की आशंका लगभग 33 प्रतिशत कम हो गई है लेकिन जिबूती, मिस्र, गिनी और सोमालिया
जैसे अफ्रीकी देशों में अभी भी यह प्रथा अनवरत जारी है. चूंकि यह प्रथा उन देशों
में ज्यादा है जहां की आबादी तेजी से बढ़ रही है, इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले सालों में खतना-पीड़ित स्त्रियॉं की संख्या
और बढ़ जाये. इन्हें कारणो से लंबे समय से जारी इस कुप्रथा के विरुद्ध आज पूरी
दुनिया में प्रतिरोध की आवाज़ तेज हो रही है. जयश्री रॉय ने इस उपन्यास में पीड़ा से
प्रतिरोध तक की इस संघर्ष यात्रा को कलात्मक रचनाधर्मिता के साथ पुनराविष्कृत किया
है.
धार्मिक अंधविश्वास और कर्मकांड के नाम पर जारी
यह क्रूरतम अमानवीय कुप्रथा दरअसल स्वच्छता के आवरण में यौन शुचिता और शारीरिक
पवित्रता की पितृसत्तात्मक साज़िशों का नतीजा है, जो स्त्री देह और उसकी यौनिकता को अपनी संपत्ति मानती है. देश, काल, सभ्यता और धर्म की
सीमाओं से परे स्त्री यौनिकता की पहरेदारी का इतिहास बहुत पुराना है. सुहाग शैय्या
पर होनेवाली रक्तरंजित कौमार्य परीक्षाओं की परंपरा हो या कि ‘चेस्टिटी बेल्ट’
या
कमरपेटियों का चलन, या फिर सुरक्षा की
आड़ में रचा गया लक्ष्मणरेखा और अग्निपरीक्षा का मिथक या फिर स्त्री खतना या इन
जैसी और प्रथाएँ-मान्यताएँ, इन सबका पहला और
आखिरी उद्देश्य स्त्रियॉं की नैसर्गिक कामेच्छाओं की चौकीदारी या दमन ही है. यहाँ
इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि तरक्की और विकास के नाना दावों-प्रतिदावों के
बावजूद ये प्रथाएँ किसी न किसी रूप में दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं. प्रसिद्ध
तेलुगू लेखक तापी धर्माराव की चर्चित पुस्तक ‘इनपकच्चडालु’, जिसका हिन्दी
अनुवाद डॉक्टर सी वसन्ता ने ‘लोहे की कमरपेटियाँ’ शीर्षक से किया है,
में
तेलुगू की एक लोकोक्ति का उल्लेख किया गया है -
‘मुद्र मुद्र लगाने उंदि
मुगुशुरु पिल्ललनि कन्नदि’ यानी, ‘मुहर ज्यों की त्यों है, और वह तीन बच्चों की माँ बन गई.‘
स्त्रीविरोधी इस लोकोक्ति में निहित व्यंजना के
आलोक में मुहर का संदर्भ समझने के लिए किसी अतिरिक्त प्रयास की जरूरत नहीँ है.
स्त्री यौनांगों पर लगाई जाने वाली इन मुहरों के बावजूद स्त्री की माँ बनने की
स्थिति को रोकने के लिए ही शायद ‘चेस्टिटी बेल्ट’ या कमरपेटियों का चलन शुरू हुआ होगा. अफ्रीकी देशों में
व्याप्त स्त्री खतना की प्रथा उन्हीं पितृसत्तात्मक मूल्यों का वीभत्स क्रूरतम
प्रारूप है. जाहिर है, ऐसे में अपने
संदर्भित भौगोलिक क्षेत्र के बावजूद इस विषय पर बात करना पूरी दुनिया की औरतों की
समस्याओं पर बात करना है. भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर जारी आर्थिक बदलावों
के बीच ‘दर्दजा’ के प्रकाशन को हिन्दी की दुनिया में स्थानीय और वैश्विक के
सीमांतों को परस्पर मिलानेवाले रचनात्मक उपक्रमों की सकारात्मक कड़ी के रूप में
देखा जाना चाहिए.
उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र ने 6 फरवरी को स्त्री-खतना के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस डे‘
घोषित
किया है, जिसके तहत वर्ष 2030 तक पूरे विश्व से ‘एफजीम’ उन्मूलन का लक्ष्य
निर्धारित किया गया है. गोकि संयुक्त राष्ट्र के इस अभियान में भारत के लिए कोई
उल्लेखनीय सक्रिय भूमिका निर्धारित नहीं की गई है फिर भी इस बात पर गौर किया जाना
चाहिए कि कि भारत में महिलाओं के खतना की प्रक्रिया बोहरा मुस्लिम समुदाय में
प्रचलित है जिनकी आबादी लगभग दस लाख है. चूंकि भारत में किसी दूसरे मुस्लिम समुदाय
में स्त्री खतना की कोई प्रथा प्रचलित नहीं है इसे यहाँ धार्मिक परंपरा के मुक़ाबले
एक खास समूह के सांस्कृतिक रिवाज की तरह ही देखा जाता है. तथापि भारत में भी आज ‘एफजीम’ के खिलाफ आंदोलन और
अभियान चलाये जा रहे हैं ताकि बोहरा समाज में इसके प्रति एक जागरूकता पैदा की जा
सके. इस संदर्भ में ‘एफजीम’ विरोधी कार्यकर्ता मासूमा रानाल्वी का उल्लेख जरूर किया
जाना चाहिए जो ‘ईच वन रीच वन’ के नाम से इसके विरुद्ध एक अभियान चला रही हैं.
गौरतलब है कि अफ्रीका और मध्यपूर्व के देशों में प्रचलित स्त्री खतना की
तुलना में बोहरा समाज में होनेवाली स्त्री खतना की प्रक्रिया के बहुत कम जटिल और
तकलीफदेह होने के बावजूद यहाँ भी इस रिवाज का उद्देश स्त्रियॉं की कामेच्छाओं पर
नियंत्रण ही है. प्रसिद्ध कवि-आलोचक विष्णु खरे ने अपने देश में ही स्त्री खतना की
समस्या होने के बावजूद ‘दर्दजा’ की कथाभूमि के अफ्रीका केन्द्रित होने पर घोर आपत्ति प्रकट
की है. जो लोग अफ्रीका और मध्यपूर्व के
देशों में प्रचलित स्त्री खतना और बोहरा समाज में होनेवाली स्त्री खतना की प्रक्रिया
और प्रभाव क्षेत्र के गुणात्मक अंतर को जानते हैं वे इस बात को बखूबी समझ सकते हैं
कि उपन्यास की अफ्रीकी पृष्ठभूमि इस क्रूरतम अमानवीय प्रथा को समझने के लिए कितना
बाजिव है. यदि विष्णु खरे जी के तर्क का अनुसरण किया जाये तो कोई लेखक तबतक किसी
दूसरे व्यक्ति या समाज की तकलीफ पर बात करने का अधिकारी नहीं हो सकता जबतक खुद
उसकी या उसके समाज की तकलीफों का समूल नाश न हो जाये.
स्त्री खतना प्रथा की जैविक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक जटिलताओं-भयावहताओं तथा संयुक्त
राष्ट्र के सार्थक हस्तक्षेप के बीच विश्वपटल पर जारी ‘एफजीम’ केन्द्रित विमर्श
और प्रतिरोध का स्वरूप चतुष्कोणीय है. स्त्रियों की तकलीफ और संयुक्त राष्ट्र की
अगुवाई में ‘एफजीम’ के विरूद्ध संघर्ष के समानान्तर इसके साथ दो और बहसें भी दुनिया में
चल रही हैं- एक – कुरान, हदीस और बाइबल के उद्धरणों के आधार पर इसकी धार्मिक अनिवार्यता
या स्वीकार्यता पर विमर्श तथा दो – पुरुष खतना की तरह
ही स्त्री खतना को भी सांस्थानिक स्वरूप देने की कोशिश, जिसमें यौनांगों के विकृतिकरण को अवैज्ञानिक तरीकों के बदले
चिकित्सकीय देखरेख में सम्पन्न कराने पर जोर दिया जाता है. जयश्री ने इस उपन्यास
को मुख्यतः स्त्रियॉं की तकलीफ और अंशतः इस कुप्रथा के विरूद्ध जारी
संगठनात्मक संघर्षों पर केन्द्रित किया
है. स्त्री खतना के धार्मिक पक्ष संबंधी कुछेक क्षेपक संदर्भों और इस बावत उपन्यास
के स्त्री पात्रों की कुछ सहज जिज्ञासाओं को छोड दें तो इसे लेकर दुनिया में धार्मिक
अनिवार्यता और स्वीकार्यता पर जारी बहस तथा खतना की प्रक्रिया में कुछ बदलावों के
साथ इसे सांस्थानिक रूप देने की कोशिशें और उनका सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव इस
उपन्यास के प्रतिपाद्य संदर्भ का हिस्सा नहीं है. यही इस उपन्यास की शक्ति और सीमा
दोनों हैं.
दर्दजा महीन संवेदनात्मक बुनावट का उपन्यास है.
संवेदना का रस इसके के रग-रेशे में नमक और चीनी की तरह घुला हुआ है. इस उपन्यास के
कथात्मक विस्तार को मोटे तौर पर तीन भागों में बांटकर देखा जा सकता है. पहला
हिस्सा माहरा के सुन्ना-प्रसंग से शुरू होकर उसकी शादी तक का है तो दूसरा हिस्सा
उसके ससुराल जाने से लेकर उसकी माँ की मृत्यु तक का. तीसरा हिस्सा माहरा की बेटी
मासा के दस साल की होने के बाद से लेकर उसकी मुक्ति तक यानी उपन्यास के अंत तक का
है. इन तीनों पड़ावों के बीच मुख्य कथा के समानान्तर घटित होने वाली छोटी-बड़ी कई महत्वपूर्ण
घटनाएँ और इस क्रम में पात्रों के आपसी सम्बन्धों का सघन संजाल है जो संरचना के
स्तर पर इसे एक मजबूत औपन्यासिकता प्रदान करता है.
उपन्यास की शुरुआत अपने आसन्न सुन्ना की बात
सुनकर माहरा के घर से भाग जाने की घटना से होती है. तपते रेगीस्तान के बीहड़ की भीषणताओं
के बीच वह अपने बंधु-बांधवों द्वारा पकड़ ली जाती है, नतीजतन वह फिर से अपने घर लाई जाती है और उसका सुन्ना कर दिया जाता है. सुन्ना
के दौरान और उसके बाद माहरा अथाह पीड़ा की अंतहीन श्रंखलाओं से गुजरती है. लेकिन वह
उन स्त्रियॉं में से नहीं जो दर्द से समझौता कर के गाय-बकरियों की-सी निरीह और
परवश ज़िंदगी जीने को ही अपनी नियति मान हमेशा-हमेशा के लिए खुद को व्यवस्था के
हाथों सौप देती हैं. वह प्रतिरोध करना जानती है. प्रतिरोध में विफल होने के बावजूद
फिर-फिर उठ खड़ा होने का हौसला रखती है. खुद के लिए देखे सपनों को अपनी बहन, बेटी और माँ सहित दुनिया की हर स्त्री की आँख में
स्थानांतरित कर हमेशा के लिए उसे जिंदा रखना जानती है. स्त्री-जीवन की तमाम
तकलीफ़ों से मुक्ति पाकर एक मनुष्य की तरह
जीने का यह सपना माहरा ने खुली आँखों से देखा है और उसे हासिल करने के लिए प्रतिरोध से लेकर विद्रोह तक का हर जतन
करती है.
माहरा के अनवरत संघर्ष की आभा से प्रदीप्त इन
सपनों की चमक और उन्हें हासिल करने की मर्मांतक बेचैनी उपन्यास के कतरे-कतरे में
देखी जा सकती है. माहरा के भागने के प्रसंग से शुरू होने वाले इस उपन्यास में
भागने के कई और प्रसंग भी हैं – माहरा की बड़ी बहन
जुब्बा का शादी से पहले भागना, तीन बार शादी का सेहरा बांध चुके साठ वर्षीय जहीर के साथ अपनी शादी तय होने की खबर सुनकर अपनी दीदी
की तरह ही भाग जाने का माहरा का निश्चय,
अपनी
बेटी मासा को सुन्ना से बचाने के लिए उसके साथ एक बार भाग जाने में सफल होने बाद
पितृसत्ता के हाथों पुनः छले जाने की स्थिति में माहरा और मासा का दुबारे भागना...
उपन्यास के अलग-अलग हिस्सों में स्त्रियॉं के घर से भाग जाने या भागने की कोशिश
करने के ये अलग-अलग दृश्य दरअसल पितृसत्ता के खूँटे से खुद को मुक्त करने के स्त्री-जतनों
की एक लंबी श्रंखला की अलग-अलग कड़ियाँ है. लेकिन सदियों से जड़ जमा कर बैठी
पितृसत्ता के इस खूँटे से मुक्त होना
इतना आसान भी नहीं, तभी तो मासा और
माहरा के साथ भागने का दूसरा दृश्य जो उपन्यास का चरमोत्कर्ष भी है,
को
छोड़ दें तो बाकी की सभी कोशिशों मे निहित विद्रोह अपने अंजाम तक नहीं पहुंचता.
उपन्यास के आखिरी दृश्य में माहरा मासा को भागने के लिए हर तरह से प्रेरित करते
हुये खुद जीवन की डार से बिछड़ कर भी मासा को भगाने में सफल हो जाती है. गौरतलब है
कि भागना यहाँ पलायन नहीं है. बल्कि पितृसत्ता की सुनियोजित साज़िशों के विरुद्ध
स्त्रियॉं का एक स्वाभाविक विद्रोह है.
पितृसत्ता की मजबूत चहारदीवारी और प्रतिकूल
भौगोलिक परिस्थितियों के बीच आत्महंता होने की हद तक के विद्रोह की ये घटनाएँ हो
सकता है कुछ पाठकों को नाटकीय और अव्यावहारिक लगें, लेकिन उस स्थान विशेष की वास्तविकताओं से भिज्ञ और परिचित पाठक इस बात को
जानते-समझते हैं कि सोमालिया और अन्य अफ्रीकी देशों के जनजातीय समाज के लिए ऐसी
घटनाएँ आम भले न हो पर अनजानी नहीं हैं. स्त्री दुखों की बेचैन कर देनेवाली अंतहीन
श्रंखलाओं के बीच विद्रोह और प्रतिरोध की ये चिंगारियाँ ही ‘माहरा’ और ‘दर्दजा’ को साहित्येतिहास
में दर्ज हो चुकी विशेष स्त्री पात्रों और कथाकृतियों की पंक्ति में ला खड़ा करती
हैं.
खतना की तरह ही इन देशों में शादी भी स्त्रियों
के लिए एक अभिशाप जैसा ही है. भूख और गरीबी से जूझते इस भूभाग में दहेज और शादी की
आड़ में दरअसल कमउम्र लड़कियों की खरीद-फरोख्त यहाँ एक आम बात है. ऊपर से खतना की
अनिवार्यता से उत्पन्न शारीरिक-मानसिक तकलीफ़ों के बीच स्त्रियॉं का पूरा जीवन ही
जैसे यातना-प्रदेश में बदल जाता है. इस
उपन्यास में एक जगह जयश्री कहती हैं –
‘भूख
हर चीज को जायकेदार बना देती है’. गौर किया जाना
चाहिए कि शादी की खोल में बेची जाने वाली माहरा की कीमत महज तीन ऊंट, पाँच गायें तथा पाँच बकरियाँ हैं. हालांकि कीमत कितनी भी
ऊंची हो स्त्रियॉं की इस खरीद-फरोख्त को कभी जायज नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन माहरा की ‘कीमत’ के बहाने भूख और जायके के इस क्रूरतम संबंध को सहज ही समझा
जा सकता है. इस तरह यह उपन्यास अपनी गहराईयों में अपने संदर्भित भूगोल में व्याप्त
भूख के प्रश्नों से जुड़ जाता है. भूख के बदले स्त्रियॉं का सौदा करके पितृसत्ता
चाहे जिस संतोष से ग्रस्त हो ले, स्त्रियॉं को यह
कत्तई मंजूर नहीं होता, यही कारण है कि
माहरा, जुब्बा और मासा जैसी
लड़कियां, जो भले ही संख्या में कम
हों, सुन्ना और शादी की
भयावहताओं के विरुद्ध घर से भाग जाने का आत्महंता रास्ता अख़्तियार करती हैं.
‘दर्दजा’ के इन प्रसंगों से गुजरते हुये प्रख्यात सोमाली मोडेल, लेखिका और ‘एफजीम’ विरोधी कार्यकर्ता वारिस दिरिये की आत्मकथा ‘डेजर्ट फ्लावर’ की याद आना भी
स्वाभाविक है. ‘डेजर्ट फ्लावर’ अंतराष्ट्रीय बेस्टसेलर रह चुका है और इस पर इसी नाम से एक
फीचर फिल्म भी बन चुकी है,
जिसे
कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित और पुरस्कृत होने का अवसर भी मिला
है. उल्लेखनीय है कि सोमालिया के एक बंजारा परिवार में जन्मी वारिस दिरिये अपने से
बहुत ज्यादा उम्र के व्यक्ति से कुछ इसी तरह की शादी तय कर दिये जाने के बाद
सोमालिया के बीहड़ रेगिस्तानों से भागती हुई मोगादीशू चली गई थीं, जहां अपनी बहन की सरपरस्ती में रहते हुये एक संघर्षपूर्ण
जीवन जीने के उपरांत अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ वे लंदन गईं और बाद में एक
अंतर्राष्ट्रीय मॉडल की तरह ख्यात हुईं. लगभग पैंतीस वर्ष की उम्र में जब वह अपने
कार्यक्षेत्र की बुलंदियों पर थीं, उन्होंने इस सत्य
से पर्दा उठाया कि महज तीन वर्ष की अवस्था में अपनी दो बहनों के साथ वह भी खतना
प्रथा की शिकार हुई थीं.
उसी वर्ष उन्हें संयुक्त राष्ट्र ने ‘एफजीम’ उन्मूलन अभियान का
अंबेसडर नियुक्त किया था. सोमालिया की पृष्ठभूमि, खतना का शिकार होना, तीन बहनें, अपने से बहुत बड़ी उम्र के मर्द से विवाह तय होना जिसकी पहले
से तीन पत्नियाँ थीं और फिर सोमालिया के तपते रेगिस्तान को पार करते हुये मोगादीशू
भाग जाने की कोशिश... माहरा और वारिस दिरिये के जीवन में घटित इन मोटी समानताओं को
देखते हुये दूर से दर्दजा पर ‘डेजर्ट फ्लावर’ के प्रभाव के असर की संभावना दिखती है, लेकिन दर्दजा जहां पूरी तरह माहरा के भोगे गए
स्त्री-तकलीफ़ों की त्रासदी और उससे मुक्त होने की छटपटाहटों के बीच स्त्री-स्त्री
के बीच बहानपे के सहज सम्बन्धों को व्यंजित करता है, वहीं ‘डेजर्ट फ्लावर’ के केंद्र में उन्हीं तकलीफ़ों से गुजर कर निकली एक सोमालियन
बंजारा लड़की के अंतर्राष्ट्रीय ख्यात मॉडल बन जाने की सक्सेस स्टोरी दर्ज है. बहुत
संभव है कि जयश्री को अपनी शोध-यात्रा में वारिस दिरिये की जीवन-गाथा से गुजरने
का मौका मिला हो और माहरा को रचते वक्त
वारिस के जीवन की घटनाएं भी उनके जेहन में
रही हों, पर दर्दजा का औपन्यासिक
विन्यास अपने प्रतिपाद्य संदर्भ के कारण ‘डेजर्ट फ्लावर’
से
बहुत भिन्न है. और फिर यह एक अकेली घटना भी नहीं है जो सोमालिया में घटित हुई हो, आज भी इस तरह की घटनाएँ वहाँ घटित हो रही हैं. चूंकि वारिस
एक अंतर्राष्ट्रीय ख्यात सख्शियत हैं,
उनके
और माहरा के जीवन में घटित होने वाले ये साम्य ‘दर्दजा’ के कथानक की वास्तविकता को
ही सिद्ध करते हैं.
माहरा उपन्यास की केंद्रीय चरित्र जरूर है पर
उपन्यास के अन्य सभी चरित्रों के साथ उसका और उसके साथ उपन्यास के उन सभी चरित्रों
के परस्पर संबंध अपने-अपने संदर्भों के साथ उपन्यास को एक बहुकोणीय गति प्रदान
करते हैं. इस क्रम में माहरा, उसके पति जहीर की
खाला, और जहीर की तीसरी और अपंग
बीवी फातिमा के परस्पर सम्बन्धों के बहाने जयश्री रॉय ने यहाँ स्त्री दुखों और
उससे उत्पन्न विडंबनाओं के बीच बहनापे का जो सांद्र सौंदर्य रचा है वह बहुत
महत्वपूर्ण और अर्थगर्भी है. परस्पर हितों की टकराहटों के बीच हर स्त्री के भीतर
पलने वाले एक-से दर्द की छाँह में बहनापे की यह मजबूत, आत्मीय और तरल उपस्थिति माहरा और मासा की मुक्तिकथा के
बहाने कौमार्य, स्त्रीत्व और
मातृत्व के संदर्भित तीन शाश्वत स्त्री-दुखों से सम्पूर्ण स्त्री जाति की मुक्ति
का मार्ग तलाशती है. औरतों के सुख एक-से होते हों कि नहीं पर उनके दुखों का रंग
देश, धर्म और संबंधों की चौहद्दी
से परे एक-सा ही होता है.
जहीर की शारीरिक ज़्यादतियों से त्रस्त और आहत
होकर रोती हुई माहरा के साथ जहीर की खाला और फातिमा का बेआवाज पिघलते हुये एक हो
जाना स्त्री दुखों के उसी साझेपन का स्वीकार है. इन तीन स्त्रियॉं के संबंधों से
अलग माहरा एक संबंध अपनी माँ के साथ भी जीती है- वही माँ जिसने अपने दूध, खून और पसीने से सींचने के बाद भी एक दिन उसे जहीर के हाथों बिक जाने दिया था, इतना ही नहीं जब सुहाग रात में बिस्तर पर दर्द से छटपटाते
हुये उसे माँ की सबसे ज्यादा याद आई थी,
तब
वही माँ एक बंजारन के साथ उसके बंद गुप्तांग को काट कर खुलवाने के लिए उपस्थित हुई
थीं. वात्सल्य और पितृसत्ता के अनुकूलन का इससे क्रूर और जघन्य द्वंद्व कुछ और
नहीं हो सकता. माँ के इस व्यवहार से माहरा को असीम दुख होता है लेकिन वह इस बात को
समझती है कि यह माँ का नैसर्गिक नहीं बल्कि पितृसत्ता से अनुकूलित व्यवहार है. तभी
तो अपनी माँ की मृत्यु पर वह पारंपरिक शोक में नहीं डूबती बल्कि उसकी मृत्यु को
उसके दुखों से मुक्ति के बहाने की तरह देखते हुये ऊपरवाले से इस बात की दुआ करती
है कि उसकी माँ को फिर से इस नर्क में ना आना पड़े. दर्द की अतिशयता जब एक सीमा से
आगे बढ़ती है तो वह उसकी दवा हो जाती है. लेकिन यह दवा कोई कारगर इलाज नहीं जिसे हर
पीड़ित के साथ दुहराया और आजमाया जाय बल्कि यह दर्द की उस असहनीय स्थिति की सबसे
कारगर अभिव्यंजना है जो भोक्ता और द्रष्टा दोनों से ही उससे मुक्ति के मार्ग
तलाशने के नित नए जतन करवाती है.
‘दर्दजा’ में मृत्यु बार-बार घटित होती है. उपन्यास में घटित मौतों
की श्रंखला में जिनका उल्लेख जरूरी है उनमें ऊपर उल्लिखित माहरा की माँ की मृत्यु
के अतिरिक्त माहरा की बड़ी बहन जुब्बा,
छोटी
बहन मासा, नवजात पुत्र अजान, हैरी और अंत में खुद माहरा की मृत्यु विशेष रूप से
उल्लेखनीय है. किसी एक उपन्यास में एक साथ इतनी मौतों का यह कोई पहला उदाहरण भले न
हो पर यह एक सामान्य बात नहीं है. वैसे तो मृत्यु कभी हो और किसी की हमेशा ही शोक
का कारण होती है लेकिन लड़ते हुये मरने और रोते हुये मरने के बीच हमेशा ही एक फर्क
होता है. उल्लेखनीय है कि जुब्बा जहां घर से भागते हुये रेगिस्तान में हिंसक
जानवरों की भेंट चढ़ गई वहीं माहरा ने उसी रेगिस्तान में मासा को भगाने के लिए अपने
प्राणों की आहुति दे दी. ये दोनों इस उपन्यास में घटित होने वाली पहली और आखिरी
मौतें हैं. मतलब यह की जुब्बा और माहरा की दो मानीखेज मौतों के बीच ही दर्दजा में
स्त्री जीवन और दर्द का महागाथात्मक औपन्यासिक विस्तार आकार ग्रहण करता है.
सुन्ना के दौरान हुये इन्फेक्शनजनित एड्स से
मरने के कारण माहरा की छोटी बहन मासा की मौत बहुत त्रासद है. उसकी मृत्यु को हर
रोज करीब आते देखना उपन्यास के पात्रों के साथ ही पाठकों के लिए भी उतना ही
तकलीफदेह है. लेकिन जयश्री ने पुनर्जन्म की युक्ति का सहारा लेकर जिस तरह माहरा की
बेटी में मासा को पुनर्जीवित कर दिया है,
उसका
पभाव त्रियायामी है- एक- मासा की मृत्यु से उत्पन्न शोक को न्यूनतम समयान्तराल में
ही जन्म से जुड़ी स्वाभाविक उम्मीदों में बदल देना, दो- सपनों का हस्तांतरण और तीन –
धर्म-संप्रदाय
विशेष की मान्यताओं से निर्मित चौहद्दियों को लांघते हुये दुख और उसके निस्तार
हेतु किए जा रहे प्रयोजनों का सीमारहित विस्तार जो अंततः इस मान्यता को पुष्ट करता
है कि तकलीफ और त्रासदी एक खास सीमा पर पहुँचने के बाद छोटी-छोटी संकीर्णताओं और
दीवारों को तोड़ कर एक बड़ी बिरादरी का निर्माण करती हैं. मुस्लिम होने के बावजूद आवागमन के चक्र से
छुटकारा पाने के लिए अपनी मां की मृत्यु के बाद माहरा द्वारा की गई प्रार्थना हो
या फिर पुनर्जन्म की मान्यताओं के अनुरूप अपनी बेटी में अपनी छोटी बहन मासा की
प्रतिछवि देखना, इन्हें सिर्फ अन्य
धर्मावलम्बी मेंटर के साथ रहने के प्रभाव में सीमित करके नहीं देखा जा सकता है.
दर्दजा की विशेषता इस बात में नहीं कि यह
स्त्री खतना संबंधी तकलीफ़ों को बहुत संवेदनशीलता से दर्ज करता है बल्कि इसकी
विशेषता इस बात में निहित है कि यह धार्मिक आडंबरों और कर्मकांड की आड़ में समूर्ण
स्त्री समाज पर आरोपित पितृसत्तात्मक आचार
संहिताओं का प्रतिरोध करते हुये उसे हर कदम चुनौती देता है. पर ये प्रतिरोध कहीं
से फिल्मी या अव्यावहारिक अतिरंजना के शिकार नहीं हैं. अपनी सीमाओं में रहने को अभिशप्त और हर तरह से
लाचार व मजबूर एक स्त्री किस तरह के
प्रतिरोध कर सकती है उसके उदाहरण उपन्यास में आद्योपांत मौजूद हैं. माहरा की शादी
के अवसर पर खतना के बाद संक्रामक बीमारियों और आरोपित एकांतवास झेलती महरू का
प्रतिरोध हो या कि यह महसूस करने के बाद कि उसकी मर्मभेदी छटपटाहट संभोग के दौरान
जहीर को पाशविक आनंद से भर देती है,
माहरा
का बिना उफ किए सबकुछ बर्दाश्त कर जाना,
या
फिर हज के दौरान मची भगदड़ में जहीर के मारे जाने की खबर प्राप्त होने पर माहरा का
न रोना हो या फिर जुब्बा, माहरा या मासा का
घर छोड़ के भागने की कोशिश या फिर मासा का अपनी शादी से इंकार... ये और इस तरह के
कई अन्य प्रसंग दर्दजा में दर्ज स्त्री-प्रतिरोध की ही विभिन्न छवियाँ हैं.
कहने की जरूरत नहीं कि सामूहिक प्रतिरोध की कोई
भी कोशिश तबतक कामयाब नहीं हो सकती जबतक प्रतिरोधी शक्तियाँ निजी तौर पर प्रतिरोध
के लिए दिलो जान से तैयार न हों. दर्दजा में वर्णित स्त्रियों के निजी प्रतिरोध के
ये उदाहरण उनके भीतर बदल रहे संसार की मजबूत गवाहियाँ हैं. जहीर की कथित मृत्यु की
सूचना प्राप्त होने के बाद माहरा और फातिमा के आंतरिक आह्लाद और मातमपुरशी के
दौरान माहरा की शोकविहीन मनोदशा के बचाव में खाला द्वारा गढ़ी गई तरकीबों को
प्रतिरोध के दौरान विखंडित होते पुराने मूल्यों के समानान्तर नए मूल्यों के रचे जाने
की पूर्वपीठिका की तरह देखा जाना चाहिए. भगदड़ में मौत की खबर को झुठलाते हुये जहीर
की घर वापसी पर माहरा की रुलाई और फातिमा की चुप्पी के बीच जहीर के कौतूहल को देख
पुनः स्थिति को सम्हालने की गरज से गढ़ा गया खाला का झूठ भी स्त्री मनोजगत में रचे
जा रहे नए नीति संदर्भों का ही पता देता है.
दर्दजा पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि उपन्यास
में वर्णित इस कुप्रथा के विरूद्ध जारी
संगठनात्मक संघर्षों का संज्ञान न लिया जाये जिसके सूत्रधार हैरी और उसकी पत्नी
(मेम) हैं, जो ‘डेजर्ट ड्रीम’
नाम
की एक संस्था के माध्यम से ‘एफजीम’ उन्मूलन अभियान में अपनी भूमिका निभा रहे हैं. मेम माहरा और
उसके छोटी बहन मासा के साथ गहरे जुड़ी हैं. मासा तो उनके लिए बेटी जैसी ही है. एड्स के दिनों में वही उसकी देखभाल भी करती है.
एक ऐसे समाज में जहां पितृसत्ता से अनुकूलित होने के कारण माँ, माँ नहीं रह जाती (संदर्भ- माहरा की माँ) वहाँ एक गैर माँ
का इस तरह माँ हो जाना खासा महत्वपूर्ण है. मुख्य कथा की सूत्रधार माहरा जहां
भोक्ता है वहीं इस हिस्से के सूत्रधार हैरी दंपत्ति द्रष्टा. जयश्री रॉय ने
द्रष्टा और भोक्ता की सामाजिक, वर्गीय और शैक्षणिक
पृष्ठभूमि के अंतर के समानान्तर उपन्यास के संवेदनात्मक और सूचनात्मक पहलुओं की
तार्किकता का पूरा ध्यान रखते हुये सूचनात्मक महत्व की चीजों को हैरी और मेम के
हिस्से उचित ही रख छोड़ा है. लेकिन मासा प्रकरण को छोड दें तो बाकी हिस्से में
उपन्यास की संरचना और कंटेंट को उन्होने जैसे भोक्ता और द्रष्टा की स्पष्ट विभाजक
रेखा से बाँट कर रखा है.
लेखिका की अन्य कृतियों यथा – ‘इकबाल’ (उपन्यास), ‘जून जाफरान और चाँद रात’, ‘थोड़ी सी जमीं थोड़ा सा आसमान’, ‘फुरा के आँसू और पिघला हुआ इंद्र्धनुष’ आदि (कहानियाँ) से परिचित पाठक जयश्री रॉय की संवाद सह साक्षात्कार शैली को जानते हैं. कमोबेश उपन्यास के दूसरे हिस्से के लिए जिसे अपनी सुविधा हेतु मैं सूचनात्मक कह रहा हूँ को अभिव्यक्त करने के लिए यहाँ भी लेखिका ने लगभग उसी लेखकीय तकनीक का सहारा लिया है. नतीजतन उपन्यास के कुछ हिस्सों में, खास कर ‘डेजर्ट ड्रीम’ के क्रिया कलाप और ‘एफजीम’ के विरुद्ध दुनिया में जारी संघर्षों से जुड़े भाग में, कथात्मकता का वही प्रवाह नहीं बना रहता जो उपन्यास के बड़े हिस्से में सतत दिखाई पड़ता है. क्या ही बेहतर होता यदि उन हिस्सों को संप्रेषित करने के लिए भी संवाद और सूचना शेयरिंग की शैली के बजाय किस्सागोई की तकनीक का ही प्रयोग किया गया होता. पूरे उपन्यास में जिस आत्मीय अंतरंगता के साथ जयश्री ने कथासूत्र की रोचकता और संवेदनशीलता को थामे रखा है उसे देख उनकी लेखकीय क्षमता पर तो संशय नहीं किया जा सकता लेकिन प्रतिपाद्य संदर्भ के मानवीय और संवेदना पक्षों के प्रति उनकी मत्स्यलोचनभेदी केन्द्रीयता उन्हें कहीं और देखने का वक्त ही नहीं देती.
लेखिका की अन्य कृतियों यथा – ‘इकबाल’ (उपन्यास), ‘जून जाफरान और चाँद रात’, ‘थोड़ी सी जमीं थोड़ा सा आसमान’, ‘फुरा के आँसू और पिघला हुआ इंद्र्धनुष’ आदि (कहानियाँ) से परिचित पाठक जयश्री रॉय की संवाद सह साक्षात्कार शैली को जानते हैं. कमोबेश उपन्यास के दूसरे हिस्से के लिए जिसे अपनी सुविधा हेतु मैं सूचनात्मक कह रहा हूँ को अभिव्यक्त करने के लिए यहाँ भी लेखिका ने लगभग उसी लेखकीय तकनीक का सहारा लिया है. नतीजतन उपन्यास के कुछ हिस्सों में, खास कर ‘डेजर्ट ड्रीम’ के क्रिया कलाप और ‘एफजीम’ के विरुद्ध दुनिया में जारी संघर्षों से जुड़े भाग में, कथात्मकता का वही प्रवाह नहीं बना रहता जो उपन्यास के बड़े हिस्से में सतत दिखाई पड़ता है. क्या ही बेहतर होता यदि उन हिस्सों को संप्रेषित करने के लिए भी संवाद और सूचना शेयरिंग की शैली के बजाय किस्सागोई की तकनीक का ही प्रयोग किया गया होता. पूरे उपन्यास में जिस आत्मीय अंतरंगता के साथ जयश्री ने कथासूत्र की रोचकता और संवेदनशीलता को थामे रखा है उसे देख उनकी लेखकीय क्षमता पर तो संशय नहीं किया जा सकता लेकिन प्रतिपाद्य संदर्भ के मानवीय और संवेदना पक्षों के प्रति उनकी मत्स्यलोचनभेदी केन्द्रीयता उन्हें कहीं और देखने का वक्त ही नहीं देती.
स्त्री सरोकारों की बात करते हुये यह उपन्यास
पितृसत्तात्मक प्रवृत्तियों और पुरुषों के विरोध के अंतर को बखूबी समझता है.
उपन्यास में तबान और हैरी जैसे मित्र पुरुषों की उपस्थिति ‘दर्दजा’ को हालिया प्रकाशित
कई स्त्री उपन्यासों (जिसमें पुरुष अमूमन और अनिवार्यतः खल ही होते हैं) से अलग ला
खड़ा करती है. तवान केलिए माहरा का यह
सोचना कि ‘हर औरत के मन में जिस मर्द
की तलाश रहती है, तवान उसी का
मुकम्मल चेहरा था’ स्त्री विमर्श में
नए पुरुष की अवधारणा को सजीव साकार करने के उपक्रम की तरह देखा जाना चाहिए. हाँ, उपन्यास में उसकी संक्षिप्त उपस्थिति पाठक को कुछ जरूर
अतृप्त करती है. अच्छा होता लेखिका ने तवान के चरित्र को और विकसित करने की
संभावनाओं की तलाश की होती.
कथा-संदर्भ में निहित संवेदना की प्रभावशाली
सार्वभौमिकता और कथा परिवेश की स्थानीय विशेषताओं की सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति के कारण
यह उपन्यास स्थानीय और वैश्विक दोनों की उपादेयता को समान रूप से तुष्ट करता है.
सोमालिया के जनजीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों यथा- लोक-संस्कृति, जलवायु, पर्यावरण, सामाजिक मान्यताओं आदि का प्रामाणिक वर्णन कथानक के साथ इस
कदर नाभिनाल हो कर आता है कि कथा-परिवेश और कथानक के बीच परस्पर संवाद उपन्यास की
संरचना का अभिन्न हिस्सा बन जाता है. देश-काल के प्रति हर कदम चौकन्ना होने के साथ
हर प्रसंग को मैं की कसौटी पर कसना जैसे इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया का
अपरिहार्य हिस्सा है. यही कारण है कि देश-परिवेश के प्रति तमाम सावधानी के बावजूद
कथानक को अपना बना लेने की अंतरंग रचना-प्रक्रिया कुछ जगहों पर अपवादस्वरूप कब
स्थान विपर्यय दोष का कारण बन जाती है,
खुद
उपन्यासकार को भी नहीं ध्यान रहता. ‘सावन’ और ‘ईश्वर’ जैसे शब्दों के प्रयोग इन्हीं अपवादों के उदाहरण हैं.
देश,
धर्म
और संस्कृति से इतर स्त्री यौनिकता हमेशा से पुरुषों की चिंता का कारण रही है. या
यूं कहें कि पितृसत्ता सिर्फ पुरुषों को ही यौनानन्द का अधिकारी मानती है.
स्त्रियों कों भी यौन सुख का नैसर्गिक अधिकार है, पितृसत्ता इसे सहज स्वीकार नहीं कर पाती और स्त्री यौनिकता की पहरेदारी के
अलग-गलग तकनीक और तरीके ईजाद करती है. स्त्री स्वातंत्र्य और स्त्री यौनिकता को
अलग करके नहीं देखा जा सकता लेकिन पुरुषवादी आचार संहिताएँ बहुत चालाकी से इन
दोनों को एक दूसरे से अलग कर स्त्री विमर्श का पुरुषवादी पाठ तैयार करती हैं.
पितृसत्ता द्वारा आधी आबादी के स्त्रीकरण की यह सुनियोजित प्रक्रिया अपने कई
उपक्रमों में तो इस हद तक क्रूर है कि उसे आधी आबादी की जान की परवाह तक नहीं.
स्त्री खतना हो या ‘फीमेल सेक्सुअलिटी’ को स्त्री स्वातंत्र्य से अलग कर के देखने की अलग अलग
देश-परिवेश में जारी भिन्न रणनीतियां,
इन
सबका गंतव्य अंततः एक ही है- स्त्री मात्र को उसके हिस्से के सुख-स्वप्न से वंचित
रखना. स्त्री उत्पीड़न के तमाम सांस्थानिक उपक्रम चाहे वे किसी देश, धर्म, संस्कृति, भौगोलिक परिवेश या जाति से ताल्लुक रखते हों अपने साझा
उद्देश्यों के कारण इतने एक-से हैं कि इनमें से किसी एक पर बात करना दरअसल इन सब
पर बात करना है. निश्चित तौर पर स्त्री-खतना यानी ‘एफजीम’ पितृसत्ता के इस चेहरे के
क्रूरतम संस्करणों में से एक है.
यह आश्वस्तिकारक है कि पूरी दुनिया में इसके खिलाफ़ आज संघर्ष तेज हुआ है. ‘दर्दजा’ स्त्री उत्पीड़न और उसके खिलाफ चल रहे संघर्ष की अभिसंधि पर खड़ा, हिन्दी भाषा मे अपने तरह का एक अलग और उल्लेखनीय कार्य है, जिसे वैश्विक होते हिन्दी कथा साहित्य की ठोस गवाही की तरह देखा जाना चाहिए.
(राकेश बिहारी अपनी बेटी के साथ) |
यह आश्वस्तिकारक है कि पूरी दुनिया में इसके खिलाफ़ आज संघर्ष तेज हुआ है. ‘दर्दजा’ स्त्री उत्पीड़न और उसके खिलाफ चल रहे संघर्ष की अभिसंधि पर खड़ा, हिन्दी भाषा मे अपने तरह का एक अलग और उल्लेखनीय कार्य है, जिसे वैश्विक होते हिन्दी कथा साहित्य की ठोस गवाही की तरह देखा जाना चाहिए.
________
(पक्षधर -२१’ में भी प्रकाशित.)
राकेश बिहारी
संपर्क:
एन. एच. 3 / सी 76, एन टी पी सी विंध्याचल, पो. विंध्यनगर,
जि. सिंगरौली 486885 (म.प्र.) मोबाईल
– 09425823033
विषय के सभी पहलुओं को छूता एक महत्वपूर्ण आलेख।
जवाब देंहटाएंबेहद महत्त्वपूर्ण लेख ।
जवाब देंहटाएंकिसी कृति को संपूर्णता में जानने के लिए उस कृति के हर पहलु पर विचार होना चाहिए न कि चलताऊ भाषा में महज चलताऊ समीक्षा ।
इस लेख के लिए राकेश बिहारी जी को खूब बधाई ।
महिला कथाकारों पर राकेश जी की समीक्षाओं में नीला घर की समीक्षा मुझे अपने ढंग की अलग समीक्षा लगी थी पर ददर्जा पर उन्होंने बहुत वस्तुपरक ढंग से अपनी बात रखी है। विषय पर आधारित प्रमुख कृतियों और उनसे ददर्जा की भिन्नता बतलाते हुए परकाया प्रवेश का उनका तर्क ठोस रूप में सामने आया है। चूंकि ये उपन्यास मैंने पढ़ा है और कुछ लिखा भी है इस पर इसलिये और बेहतर तरीके से समझ पाई हूँ कि राकेश जी की समीक्षा में विषय का गहन अध्ययन शामिल है। और ददर्जा के शीर्षक से लेकर, कथा और कथा के ढाँचे पर उनकी पैनी निगाह गयी है। जयश्री जी को बधाई के साथ राकेश जी कोहार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंहाल में वागर्थ में दर्दजा पर सौरभ शेखर की लिखी समीक्षा पढ़ने के बाद इस किताब पर दूसरी समीक्षा पढ़ रहा हूँ। इस कुप्रथा पर बहुत सारे बाहरी संदर्भों और तथ्यों के साथ लिखे जाने के कारण समीक्षा बहुत महत्वपूर्ण बन पड़ी है। FGM को केंद्र में रखकर लिखी कुछ और किताबों के बारे में जानकारी मिली। मैंने FGM के बारे में पहली बार सन 2000 में पढ़ा-जाना था, जब मैं यूनिसेफ़ के एक दस्तावेज़ का अनुवाद कर रहा था। यह कुप्रथा आज भी बदस्तूर जारी है और भारत भी इससे अछूता नहीं है। कितनी विडम्बना है कि जहां कुछ देशों में पिछड़ेपन और रूढ़िवाद के कारण अब भी औरतों का खतना किया जा रहा है, वहीं पश्चिमी देशों और सम्पन्न तबकों में अति-आधुनिक या कहें, post-modern societies की औरतों के बीच virginity-restoration और designer vagina के लिए cosmetic surgery तक कराने का चलन बढ़ चला है!! कौमार्य की पुन:प्राप्ति के साथ-साथ, अब तो चिर-यौवन के लिए औरतें vampire-therapy/facial आदि भी कराने लगी हैं, जिसमें त्वचा के नीचे रक्त/प्लाज्मा आदि inject किया जाता है! यह एक तरह से प्राचीन काल में प्रचलित रक्त-स्नान/रक्त-पान जैसा ही है, जिन्हें कई देशों की राजकुमारियाँ/रानियाँ/सुंदरियाँ अपना रूप निखारने और बरकरार रखने के लिए किया करती थीं!
जवाब देंहटाएं-राहुल राजेश ।
जवाब देंहटाएंख़ूब मन से लिखा है राकेश जी ने। दर्दजा या दर्दजेह का यह सफ़र कई राहों से होकर जाता है। FGM पर कई खिड़कियां खुलती हैं, एक और जरूरी नाम है, नवल अल सद्दावी का, ख़ासतौर से उनकी पुस्तक 'वुमन एट पॉइंट ज़ीरो।
राकेश जी और जयश्री रॉय जी को ढेर बधाई।
बहूत ही सुंदर समीक्षा राकेश जी अभिनंदन।
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