प्रेमचंद गाँधी समर्थ कवि के साथ उम्दा अनुवादक भी हैं. फिलीस्तीनी कवयित्री सूसन अबुलहवा की इन कविताओं में प्रेम को पढ़ते हुए आप अपने आप को खो बैठेंगे. ये कविताएं उनके संग्रह ‘माय वॉयस सॉट द विण्ड’ से ली गई हैं. हिंदी में पहली बार सूसन अबुलहवा की कविताएँ प्रेमचंद गांधी के अनुवादों के मार्फत प्रकाशित हो रही हैं, सूसन अबुलहवा पर उनकी टिप्पणी के साथ.
प्रेम दिवस पर इससे बेहतर और क्या हो सकता है.
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फिलीस्तीन-इजराइली
संघर्ष में पिछली एक सदी में लाखों लोग न केवल मारे गए हैं, बल्कि आज भी दरबदर
होकर दुनिया भर में भटकने को विवश हैं और ऐसे में अगर कोई रचनाकार स्वयं इन हालात
से गुज़रा हो तो विस्थापन और जीवन का संघर्ष ही उसकी कलम का सत्य बन जाता है.
सूसन अबुलहवा फिलीस्तीन की एक ऐसी ही लेखिका हैं, जिनका जन्म ही युद्ध और भारी
रक्तपात के दिनों में भटकते शरणार्थी माता-पिता के यहां कुवैत में 3 जून, 1970 को
हुआ. जन्म के साथ ही विस्थापन और माता-पिता के होते हुए भी लंबे समय तक अपने ही
परिजनों के बीच अनाथ बच्ची की तरह भटकने का जो सिलसिला शुरु हुआ, वह सूसन के लिए
एक ऐसा दर्द बन गया कि आज उनकी लेखनी में ही नहीं कर्म में भी उस दर्द को अभिव्यक्त
करने और किसी तरह कम करने का बायस बन गया है.
चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा के बावजूद सूसन लेखन और पत्रकारिता की ओर मुड़ गई, जहां अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने फिलीस्तीनी जनता के दु:खों और तकलीफों को बयां किया. 2006 में सूसन का पहला उपन्यास ‘मोर्निंग्स इन जेनिन’, जो पहले ‘द स्कार ऑफ डेविड’ के नाम से प्रकाशित हुआ था, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेस्टसेलर उपन्यास है, जिसका दुनिया की 26 भाषाओं में अनुवाद हुआ. फिलीस्तीनी परिवारों के विस्थापन के दर्द को इतिहास, यथार्थ और कल्पना के सम्मिश्रण से सूसन ने एक कलात्मक और काव्यात्मक भाषा में बहुत डूब कर बयान किया है. यह उपन्यास एक परिवार के बहाने समूची फिलीस्तीनी जनता के शरणार्थी शिविरों में रहने की मार्मिक गाथा है.
चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा के बावजूद सूसन लेखन और पत्रकारिता की ओर मुड़ गई, जहां अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने फिलीस्तीनी जनता के दु:खों और तकलीफों को बयां किया. 2006 में सूसन का पहला उपन्यास ‘मोर्निंग्स इन जेनिन’, जो पहले ‘द स्कार ऑफ डेविड’ के नाम से प्रकाशित हुआ था, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेस्टसेलर उपन्यास है, जिसका दुनिया की 26 भाषाओं में अनुवाद हुआ. फिलीस्तीनी परिवारों के विस्थापन के दर्द को इतिहास, यथार्थ और कल्पना के सम्मिश्रण से सूसन ने एक कलात्मक और काव्यात्मक भाषा में बहुत डूब कर बयान किया है. यह उपन्यास एक परिवार के बहाने समूची फिलीस्तीनी जनता के शरणार्थी शिविरों में रहने की मार्मिक गाथा है.
सूसन का दूसरा
उपन्यास ‘द ब्लू बिटविन स्काई एण्ड वाटर’ अपने प्रकाशन से पहले ही
दुनिया की 19 भाषाओं में अनुवाद होकर पिछले साल एक साथ प्रकाशित हुआ है. प्रकाशन
के बाद अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हो रहा है. यह सूसन के पहले उपन्यास के ही
विस्तार की कथा है, जिसमें गाजा़पट्टी में शरणार्थी शिविरों में रहने वाले
परिवारों के बीच अपनी जड़ों की खोज में अमेरिका से चलकर आई युवती द्वारा अपनी
आंखों से देखा अपने परिजनों का अटूट जीवन संघर्ष दर्ज है. सूसन की भाषा में अरब की
दिलचस्प किस्सागोई की ताकत और अद्भुत काव्यात्मक लयकारी है. इस भाषा का एक
नायाब उदाहरण सूसन के पहले कविता संग्रह ‘माय वॉयस सॉट द विण्ड’ की कविताओं में
देखा जा सकता है, जहां अरब स्त्री लैला के रूप में अपने सदियों पुराने प्रेमी
क़ैस यानी मजनूं को अपनी दु:खभरी गाथा सुनाती है.
सूसन अबुलहवा ने
जिस प्रकार जन्म से ही विस्थापन और अनाथ बच्चों जैसा जीवन जीया, वह इस लेखिका
को निरंतर विचलित करता रहता है. इसीलिए सूसन लेखन के साथ एक एक्टिविस्ट की भूमिका
भी बराबर निभाती रही हैं. इसी उद्देश्य से उन्होंने ‘प्लेग्राउण्ड्स फॉर
फिलीस्तीन’ नामक एक एनजीओ बनाया है, जिसके माध्यम से शरणार्थी और विस्थापन
का दर्द झेल रहे फिलीस्तीनी बच्चों के लिए उनके आसपास खेल के मैदान, शिक्षा के
लिए स्कूल और अन्य ज़रूरत की चीज़ें उपलब्ध कराई जाती हैं. वे बच्चे, जिन्होंने
आंखें खोलते ही कर्फ्यू और गोला-बारूद के धमाके सुने हों, जिनके लिए खेल के मैदान
की कल्पना ही मुश्किल हो, उनके लिए ऐसे मैदान बनाना और उपलब्ध कराना एक
संवेदनशील लेखक के लिए कितना ज़रूरी है, यह सूसन की निष्ठा से ही समझ में आता है.
अपनी प्रतिबद्ध
साहित्यिक रचनाधर्मिता और मानवाधिकारों को लेकर सक्रियता के चलते सूसन अबुलहवा को अब
तक कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया है. इनमें प्रमुख हैं, कथात्मक एव
रचनात्मक गैर कथात्मक लेखन के लिए लीवे फाउण्डेशन का एडना एण्ड्रेड अवार्ड,
ऐतिहासिक कथात्मक लेखन के लिए बेस्ट बुक अवार्ड, मिडल ईस्ट मॉनिटर्स (मीमो) फिलीस्तीन बुक
अवार्ड और बारबरा डेमिंग मेमोरियल फण्ड अवार्ड.
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प्रेमचंद
गाँधी
फिलीस्तीनी
कविताएं : सूसन अबुलहवा
क़ैस तुम्हारी लैला पुकारती है
(एक)
मैं जानती हूं
सृष्टि ने भी अपनी सांसें थाम ली थीं
जब हम दोनों की नज़रें मिलीं
चांद भी उस रात छुप कर
सूरज के पीछे जाकर
निहार रहा था हमारे प्रेम को
मैं जब तक भीगती हूं तुम्हारे वजूद में
हवा में सुनाई देती हैं मुझे तुम्हारी आहें
मैं कल्पना में तुम्हारी नज़रों को
बिल्कुल अपने नज़दीक महसूस करती हूं
मैं दिल की उन धड़कनों को सुनती हूं
जिन्हें मैं ही पहचानती हूं
मैं जहां हूं वहां से बहुत दूर हूं
मेरी देह, मेरी आवाज़ मेरी अपनी नहीं है
माफ़ करना हमारी मरुधरा के पुत्र
क्योंकि मेरी रूह हमेशा से वहीं है
जहां तुम्हारे क़दम पड़े थे
मैं अपनी देह से निकलकर अरब में घूमती हूं
उस कविता को इकट्ठा करने के लिए
जो तुमने यहां की रेत में बोई थी
ये मरुस्थल के फूल ही हैं सब कुछ
जो मेरे दिल को उसकी धड़कनों से बांधे रखते हैं
इन्हीं से पर्वतों पर मेरा सूर्योदय होता है
और आती है जायके और स्वाद की महक
तुम्हारा प्रेम मेरे भीतर बुना हुआ है
वही मुझे अपने वजूद में जकड़ कर मुझे चलाता है
और मेरी रातों में तुम्हारा जुनून और तुम्हारी
दीवानगी
भरता रहता है मेरे भीतर
दिन में मैं अपने चेहरे को
पोशाक की तरह पहनती हूं
काजल से मैं रचती हूं उस सौंदर्य को
जो तुमने मेरी आंखों को दिया
और रंगती हूं अपने होंठ
कि शायद तुम इस हिजाब के नीचे
उन्हें पाकीजगी भरा आकार दे दोगे
मैं किस्मत का पूरा बोझ लिए
बिच्छुओं के डंक जैसी धूप में
घूमती हूं बाज़ारों में
झूठे सम्मान के नीचे कुचली हुई
औचित्य के तारों और
नकली नैतिकता में उलझी हुई मैं
जब इस बिस्तर पर लेटती हूं तो
वह तुम्हीं तो होते हो
जो मेरी देह में तैरते रहते हो
और समय को इतिहास से
मुक्त करते हो
कितना तरसी हूं मैं तुम्हारे दीवाने दिल के लिए
जिस दीवानगी पर तुम नहीं काबू पा सके
ईमानदारी से कहूं तो
वही दीवानगी मुझे बीमार कर रही है.
(दो)
मैंने अपनी नींदों में तुम्हारा नाम पुकारा
और उठ गई
चौंक गई प्यार की इस पारदर्शिता से
सुबह की पहली किरण की शांति में
ओस की कंपकंपाती नन्ही बूंद की तरह
शांत हवा से ताल मिलाती
मेरी आंखों की बरौनियां कांपी, पुतलियां खुलीं
मैंने अपनी देह अपनी बांहों में लपेट ली
जागती आंखें बंद कीं
ख्वाब के कुछ और पल पाने के लिए
समय को झटके देकर खींचा
और अपनी देह उस प्रेत में लुढ़का दी
जो तुम हो
लेकिन तुम रात के साथ ही चले गए
और मुझे रहना है तुम्हारे बिना ही इस रोशनी में
अपने बिस्तर की चादरें धोती हूं मैं
और जैसे ही सुखाने के लिए अपनी बांहें फैलाती हूं
कोई चमत्कार घटने की कामना करती हूं
जो तुम्हें मुझ तक ले आए
लेकिन कोई चमत्कार अब नहीं होने वाला
इसलिए दूसरी चादर टांगती हूं मैं
उस पर दाग हैं तुम्हारे होने के
मेरे प्रिय .
(तीन)
यह किसकी देह है जिसमें मेरा दम घुटता है
ये किसके गंदे हाथ हैं जो मुझे जकड़े हुए हैं
मेरा वक़्त मेरा नहीं
मेरे दिन इस किले और यहां के नौकरों से वाबस्ता
हैं
और जैसे ही मैं हर रात भागने की कोशिश करती हूं
वह मेरे पास आता है
मैं कसकर मुट्ठियां बांधती हूं
अपने नाखून अपनी मांस-मज्जा में धंसाती हूं
इन पलों को ख़त्म करने के लिए
मैं तुम्हारे चेहरे को स्थिर थामने के लिए
तकियों को पकड़ती हूं
मेरी आंखें निचुड़कर बंद हो जाती हैं.
(चार)
मेरा दिल जलता है तुम्हारे लिए
यहां तक कि मेरी देह भी
बदल जाती है ग्रीष्म ऋतु में
बच्चे जनने से मुटा गई है
मेरी छोटी-पतली कमर
और काजल मेरे गालों पर बहता है
काले आंसुओं की तरह
कभी तुम्हारा स्पर्श जाने बिना
मेरी छातियां दुबक गई हैं
वक्ष-कुसुम कुम्हला गए हैं
और प्रेमिल चुंबन के बिना
मेरे होंठ पीले पड़ गए हैं
मेरी पापमय प्रार्थनाओं में
झुलसी है मर्यादा और
छोड़ गई है मेरी देह को
शिष्ट-शालीन राख में बदलकर
मैंने इस जिंदगी की सांसों से
आज़ाद होने के लिए
बहुत उत्सुकता से इंतज़ार किया है
इस पतन का
जो मुझे तुमसे दूर रखता है
क्या तुम मुझसे
कौमार्य के आनंद के बिना भी
प्रेम करोगे
मैं ही वह इकलौती निर्वसन स्त्री हूं
तुम्हारी कविताओं के मुर्दा शरीरों से बनी हुई
आओ अब मिलो मेरे हबीब
इस निर्जन में
जहां रेगिस्तान की रेत में
कविता के फूल खिलते हैं
मैं उस दिल से इंतज़ार करूंगी
जो थक चुका है उस पल की लंबी प्रतीक्षा में
जब हम पहली बार मिले थे
एक अनछुई देह की मनोव्यथा और
एक अनकही कहानी के साथ
मैं इंतज़ार करूंगी
बिना ओस की एक सुबह की
गहरी उदासी में लिपटी हूं मैं यहां
तुम्हारे जुनून में सांसें लेती हुई.
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प्रेमचन्द
गांधी
जयपुर में 26 मार्च, 1967 को जन्म.
कृतियां : ‘इस सिंफनी में’ और ‘चांद के आईने में’ (कविता) ‘संस्कृति का समकाल’ (निबंध) ‘विश्व की प्रेम कथाएं (अनुवाद) प्रकाशित. समसामयिक और कला, संस्कृति के
सवालों पर निरंतर लेखन. कई पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तंभ लिखे. सभी महत्वपूर्ण
पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. कविता के लिए लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई और
राजेंद्र बोहरा सम्मान. सांस्कृतिक लेखन के लिए पं. गांकुलचंद्र राव सम्मान.
अनुवाद, सिनेमा और सभी कलाओं में गहरी रूचि. विभिन्न सामाजिक
आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी. कुछ नाटक भी लिखे, जिनमें रामकथा के
स्त्रीपाठ के रूप में चर्चित नाटक ‘सीता लीला’ का मंचन. टीवी और सिनेमा के लिए भी काम किया. दो बार पाकिस्तान
की सांस्कृतिक यात्रा.
220, रामा
हेरिटेज, सेंट्रल स्पाइन,
विद्याधर नगर,
जयपुर-302039
मोबाइल:
09829190626
प्रेमचंद गाँधी ने कमाल का अनुवाद किया है ।पीड़ा का अनुवाद बहुत कठिन होता है और तब और कठिन जब वह कविता में हो।शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंसचमुच लगा नही कि अनुवाद पढ़ रही थी,बहुत ही सार्थक अभिव्यक्ति है, गाँधी जी की।
जवाब देंहटाएंआपसे जुड़कर,साहित्यिक खजाना मिल जाता है मुझे,साधुवाद।
आस-पास लड़ाई, भुखमरी, विस्थापन आदि में भी कवयित्री ने अपने नारी मन की कोमलता अक्षुण्ण रखी और कवितायें उसी से तर हैं। कवयित्री और अनुवादक दोनों को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार कवितायें तो उतना ही शानदार अनुवाद .........स्त्री मन को बखूबी रेखांकित किया है
जवाब देंहटाएंकविता का अनुवाद अत्यंत ही कठिन कार्य है, लेकिन आपने जिस तरह कवियित्री की मनोभावना को दर्शाया है, लगता ही नहीं कि यह अनुवाद है... हृदय से धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंइतने शानदार अनुवाद और ऐसी लाजवाब ख़बर के लिए शुक्रिया !!
जवाब देंहटाएंमैंने अपनी नींदों में तुम्हारा नाम पुकारा
जवाब देंहटाएंऔर उठ गई
चौंक गई प्यार की इस पारदर्शिता से bahot khubsurat kavitaye....Tumhare karan padhane mil rahi hai Prem . Bahot achha Anuvaad.
सुंदर कविताएँ। सुंदर अनुवाद।
जवाब देंहटाएं- राहुल राजेश, कोलकाता।
अद्भुत कवयित्री।
जवाब देंहटाएंअद्भुत कविताएँ।
अद्भुत अनुवाद।
प्रेमचन्द गांधी को
और समालोचन को
हार्दिक बधाई।
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