नट : जानवर और गोश्त : दिव्या विजय




































मोनोलाग (एकालाप) भी नाटक की ही एक विधा है. नाटक में जो जरूरी चीज है वह है नाटकीयता जो उसे ‘लार्जर देन लाइफ’ या ‘लेस देन लाइफ’ बनाती है.  वह समतल दर्पण तो बिलकुल भी नहीं है. और नाटक पढने से अधिक देखने की चीज है. इसे लिए उसे भरतमुनि ने ‘दृश्य काव्य’ कहा है. 

दिव्या विजय ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर हैं,  नाटकों में अभिनय भी करती हैं. ‘जानवर और गोश्त’ का कथ्य चुस्त और मारक है.  आप फिलहाल पढिये.  

जानवर और गोश्त               
दिव्या विजय


(मंच तीन हिस्सों में विभक्त है. एक हिस्से में बाज़ार का दृश्य है. एक में लड़के का कमरा तथा एक ओर लड़की का घर. बाज़ार के दृश्य में कुछ दुकानों के शटर, फल-सब्ज़ियों आदि के ठेले. लड़की के घर में पुरानी चादर बिछा एक तख़्त, स्टूल, दवाइयाँ और एक दरवाज़ा. लड़के का कमरा अस्त-व्यस्त चादर वाला, कम्प्यूटर से सम्बंधित कुछ किताबें, कोने में एक कंप्यूटर, स्त्रियों के पोस्टर. दृश्य के अनुसार तीनों हिस्सों को इस्तेमाल होगा.)

(मंच पर प्रकाश. बाज़ार का दृश्य. वाहनों के आने-जाने का स्वर. ठेले वालों की हाँक और ख़रीदारों के मोल-भाव की आवाज़ें. लगभग २५-२६ वर्ष की स्त्री मुड़ी-तुड़ी साड़ी पहने भागते हुए आती है. कंधे पर एक थैला है. मंच पर आकर थैला ज़मीन पर रख देती है.



स्त्री- (दर्शकों को सम्बोधित करते हुए)

मैं स्त्री हूँ. मुझे पहचानते हैं आप लोग? मैं कोई भी हो सकती हूँ. कोई आपकी करीबी या राह चलती हुई. दूर से दिखने वाली...पास से छुई जा सकने वाली ...कोई भी.



(ठेलों की ओर चेहरा घुमाकर)

क्या बेच रहे हो?
(सब्ज़ियाँ उठाकर)
अहा, मूली, गाजर, आलू. क्या भाव है इनका?
(सोचकर)
मेरा क्या भाव लगाओगे. बताओ मेरी क्या क़ीमत है.
(कुछ क्षण इधर-उधर देखने के उपरांत फल वाले का चाकू उठा लेती है.)

मैं अपनी देह के टुकड़े कर देती हूँ. देह के अलग-अलग टुकड़ों का मोल लगा लो.

(विक्षिप्त हँसी हँस कर)

मैं जानती हूँ सबसे अधिक मोल मेरे जिस्म के किस हिस्से का लगेगा.

(अपनी देह की ओर एक अश्लील इशारा फेंक) .

पुरुषों की दुनिया में सबसे अधिक काम की चीज़ भी तो वही है. मैं वस्तु हूँ तुम सब ख़रीदार. मैं अपनी नीलामी स्वयं किये देती हूँ. सबसे कम मोल तो मेरे मन का होगा? है ना? चलो मैं मुफ़्त देती हूँ अपना मन? है कोई लेने वाला.

(इधर-उधर देखकर)

नहीं है, नहीं है? देखो मैं कहती थी कोई होगा.
(आसमान की ओर देखकर)
माँss...कोई नहीं लेता मेरा मन. बिन पैसों के भी नहीं. तुमने ठीक कहा था. तुम यूँ ही चली गयी...मैं भी ऐसे ही चली जाऊँगी. 

(दर्शकों की ओर देख)
मेरी माँ को उसके प्रेमी ने मार डाला था. चाकुओं से गोद कर या ज़हर देकर नहीं बल्कि छल कर. उसके शरीर का क़त्ल मैंने किया पर उसका मन तो अरसे से मुर्दा था. मैंने तो उसे मुर्दा ज़िंदगी से मुक्ति दिला दी.
 (हथेलियाँ फैलाती है, हथेलियाँ लाल हैं)
यह ख़ून है...मेरी माँ का, उसके पिल्ले का और मेरी बेटी का. क्या...क्या कहा...? मैं हत्यारी हूँ? नहीं-नहीं यह हत्या नहीं.
(अचानक कुछ याद करते हुए)
जानते हैं मुझे भी मेरे प्रेमी ने मार डालना चाहा पर मैं बच निकली. देखिए मैं सही-सलामत हूँ. (स्वयं को छूते हुए)
हूँ ना...मेरे हाथ-पैर सब अपनी जगह पर हैं. साँसें..
(ज़ोर से साँस लेने का अभिनय करते हुए) साँसें भी चल रही हैं. 

(थक कर एक पत्थर पर बैठ जाती है)  
मुझे नौकरी चाहिए थी. मेरी पुरानी नौकरी छूट गयी थी क्यूँकि मेरे बॉस को जो चाहिए था वो देने से मैंने इंकार कर दिया था. एक स्कूल में कम्प्यूटर टीचर की पोस्ट ख़ाली थी. उन्होंने कहा आप चाहें तो गरमी की छुट्टियों के बाद जुलाई से जॉइन कर सकती हैं. मैंने हाँ कहकर कॉंट्रैक्ट साइन कर दिया था. मुझे कम्प्यूटर आता था. बस अंगुलियों में थोड़ी तेज़ी लानी थी. मैंने कम्प्यूटर क्लास लेनी शुरू कर दी. इंस्टिट्यूट उसी का था. हम पहली बार वहीं मिले थे.

 (आवाज़ को कोमल कर)  
मुझसे मिलने के तीन दिन बाद उसने कहा कि वो मुझे चाहता है. वहाँ और बहुत-सी लड़कियाँ आती थीं लेकिन उस ने सिर्फ़ मुझसे कहा..सिर्फ़ मुझसे. मैं इतनी भोली थी कि उसके एक बार कहते ही मैं मान गयी कि वो मुझे प्यार करता है और उसके घर चली गयी. वो बहुत अच्छा दिखता था. बहुत प्यार से बात करता था.  

(आवाज़ ऊँची कर)  
क्या उम्र थी मेरी तब...बच्ची ही तो थी. मुझे अच्छे-बुरे का अंतर नहीं पता था. मुझे नहीं मालूम था कि लोग झूठ भी बोलते हैं. मैं भी झूठ नहीं बोलती थी. 

(सड़क पर चलते काल्पनिक जानवर से बचने के लिए खड़े होते हुए और घर वाले हिस्से में प्रवेश करते हुए

तब मेरी माँ ज़िंदा थी. मैंने माँ को उसके बारे में सब बता दिया. माँ ने कहा कि पुरुष झूठे होते हैं, दुराचारी होते हैं. इतनी जल्दी क़ुबूल नहीं करना चाहिये कि तुम उन्हें चाहती हो उनकी बातों पर यक़ीन करना चाहिए. फिर उन्होंने अपने पेट पर से साड़ी हटायी और मुझे उन ऑपरेशनों के निशान दिखाए जो बार-बार बच्चा गिराने के लिए उन्हें कराने पड़े थे. मुझे माँ पर ग़ुस्सा आया कि मेरे जीवन के सबसे रूमानी पल को वे अपने आँसुओं से धोकर ख़राब कर रही हैं. पर मैंने उन्हें प्यार से समझाया और कहा सारे पुरुष एक-से नहीं होते. फिर मैं अपना पर्स झुलाते हुए बाहर निकल गयी. आज हम फ़िल्म देखने जाने वाले थे. फ़िल्म देखते वक़्त वो मेरी गर्दन पर देर तक चूमता रहा...और मैंने वो सब किया जो वो चाहता था. मैंने उसे कहा उसके कमरे पर चलते हैं तो उसने कहा कमरे पर तो हम कभी भी जा सकते हैं...भीड़ की बात अलग होती है. मैं कुछ समझी..कुछ नहीं. पर मैं उसकी बात हर बार मान लेती थी. मैं उस से प्यार जो करती थी. 


(घर में चहलक़दमी करते हुए)  

मेरा प्रेमी शुरू में अच्छा था. वो मुझे प्यार करता, मेरी बातें सुनता और हम दिन-रात एक दूसरे के आग़ोश में पड़े रहते. फिर अचानक एक दिन वो मुझे भूलने लगा. उसके पास वक़्त कम पड़ने लगा. हम बहुत कम मिलने लगे. जब मिलते तब भी प्यार की बातें नहीं होतीं. मैंने उस से कहा कि वो बदल गया पर वो कहता ये मेरा भ्रम है.

(अचानक ठहर कर

माँ अचानक बीमार रहने लगी थी. पता नहीं क्या हो गया था. उसका शरीर धीरे-धीरे सड़ रहा था. वो नीम-बेहोशी में बड़बड़ाती कि यही होना था. आदमी कुत्ते होते हैं... औरत गोश्त होती है.... प्यार उनका सबसे आसान हथियार होता है. वो अक्सर मुझे बाँहों में भर लेती..कहती...अकेले रह लेना पर किसी झूठे इंसान के साथ नहीं. माँ का शरीर दुर्गन्ध से भरा था. मुझे मितली आती और मैं वहाँ से भाग जाना चाहती पर मैं माँ को नीचे लिटा कर उसके घाव साफ़ करती और कहती कि मैं वही करूँगी जो तुम कहोगी.
(तख़्त पर बैठकर

पर मैंने वो नहीं किया. मैं वो कर ही नहीं पायी. मुझे उसकी याद सताती और मैं पगला जाती. मैं उसके पास जाती रही. मैं हर रोज़ उसके पैरों में बैठकर उस से विनती करती कि मुझे रख लो. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती. वो दयालु था. कभी-कभी उसे मुझ पर दया जाती और वो मुझे प्यार कर देता. उसके प्यार के टुकड़ों पर मेरी साँसें चल रही थीं.



(लड़के के कमरे में

एक दिन मैं उसके घर गयी तो एक दूसरी औरत वहाँ मौजूद थी.


(शून्य में देखकर)
वो उसे प्यार कर रहा था. मेरा मन हुआ कि मैं उसे चौंका दूँ. पर मैं एक अंधेरे कोने में खड़े होकर देखती रही. वो उसे मुझसे बेहतर तरीक़े से प्यार कर रहा था. मुझे ईर्ष्या हुई पर मैं चुप रही. जब वो दोनों प्यार कर चुके तो मैं कपड़े उतार कर उन दोनों के सामने जा खड़ी हुई. मैंने उस से कहा कि अब मेरी बारी है. वो दोनों हतप्रभ थे. वो उस दूसरी औरत को यक़ीन दिलाता रहा कि मैं पागल हूँ और मैं वहाँ खड़ी हँसती रही. तभी वो उठा और  थप्पड़ लगा कर मुझे घसीटते हुए बाहर निकाल दिया. वो एक सुनसान इलाक़ा था. वहाँ बहुत कम लोग आते-जाते था. खिड़की से उसने मेरे कपड़े मेरे मुँह पर दे मारे जिन्हें मैंने एक ओट में खड़े होकर पहन लिए. 

(दरवाज़ा खुलने की आवाज़)
तभी वो औरत झटके से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकली और मुझसे बोली आओ तुम्हें घर छोड़ देती हूँ. उसके पास पुरानी कार थी. उसमें बिठाकर वो मुझे घुमाती रही और मुझसे मेरे प्रेमी के बारे में सवाल पूछती रही. मेरे हर जवाब पर वो रोती जाती और मेरे पूछे गए सवालों का जवाब देती जाती. मैं जान रही थी मेरा प्रेमी अच्छा आदमी नहीं था...वो मुझसे प्यार नहीं करता था. लेकिन मैं खुश थी कि वो उस औरत से भी प्यार नहीं करता था. 

(लड़की का घर
मैं घर पहुँची तो माँ बिस्तर से गिरी हुई थी. उसका बिस्तर गंधा रहा था. मैंने बिस्तर बदला, उनके कपड़े बदले और उन्हें किसी तरह उठाकर ऊपर लिटा दिया. माँ ने मेरे उलटे पहने कपड़े देखे और रोने लगी. उनका रोना कुत्ते जैसा था. उन्होंने कहा तू कोई जानवर पाल ले...या एक बच्चा पैदा कर ले. आदमी से प्यार मत कर...वो तुझे खा जाएगा. मेरा प्रेमी मुझे जीवन भर भोगता रहा और मुझे बीमार बनाकर चला गया. तू मेरी ज़िद का परिणाम है नहीं तो तू भी इन्हीं निशानों में दफ़न होती. वो अपना पेट फिर उघाड़ चुकी थी और मैं सोच रही थी कि क्या मैं सारी ज़िंदगी उसे ख़ुद को भोगने दे सकूँगी. यह सोचते हुए मेरे पैरों के बीच कुछ लिज़लिज़ा बहने लगा. इसके लिए मैंने ख़ुद को धिक्कारा और उसके घर जाने की सजा ख़ुद को दी.
कुछ दिनों बाद वो घर आया था. मेरे पैरों में गिरा हुआ मुझसे माफ़ी माँग रहा था. माँ चुपचाप कोने में सिमटी हुई देख रही थी और मैं सातवें आसमान पर थी. मैं उसे लेकर दूसरे कमरे में चली गयी. वो रोने लगा. मैं चाहती थी माँ उसके आँसू देख सके. उसे थोड़ी देर रोता हुआ देखने के बाद मैंने उसे उठाया तो वो मुझसे लिपट गया. लगभग दो घंटे बाद जब हम कमरे से बाहर निकले तो उसने मुझे यक़ीन दिला दिया था कि वो सिर्फ़ मेरा है.  उसने कहा था वो दूसरी औरत एक ग़लती है और मैंने स्वीकार लिया था. मैंने उस से तमाम बातें पूछना चाहते हुए भी नहीं पूछीं. उसके सारे झूठ मैं आँख बंद किए सुनती रही. अंत में उसने कहा वो मेरे साथ रहना चाहता है और मैंने हाँ कह दिया. वो ये कहता तो भी मैं हाँ कहती. पर यह बात मैंने उसे नहीं कही क्योंकि मेरी मासूमियत धीरे-धीरे धुलने लगी थी. कमरे के बाहर माँ उसी अवस्था में बैठी थी और उसकी आँखें बंद थीं. मुझे लगा वो सदमे से मर गयी है. मैंने पास जाकर देखा तो उसकी साँसें चल रही थीं. उसके बाहर जाते ही माँ ने कहा वो झूठ बोल रहा है. वो तुझे तबाह कर देगा. मैंने सोचा मैं जानती हूँ लेकिन मैंने कहा वो मुझे चाहता है.


(बाज़ार वाले हिस्से में) 
(दुकान के शटर पर नीचे पड़े चौक से लकीरें खींचते हुए


इसके बाद हम साथ रहने लगे थे. उसने मेरे मन से तमाम शंकाएँ मिटाने का पूरा प्रयत्न किया था. वे मिटीं तो थीं पर मैं उन्हें भूल गयी थी. वो मुझे प्यार करता, मैं उसे प्यार करती. हम बस प्यार करते रहते. कभी-कभी मैं माँ को देखने जाती. वो मेरे साथ नहीं आता. उसे वहाँ बदबू आती. मैं भी वहाँ जाती तो ठीक से नहलाए बग़ैर वो मुझे नहीं छूता. हाँ, वो मुझे इतना चाहता था कि ख़ुद नहलाता. उसे पसंद नहीं था मैं माँ के यहाँ जाऊँ पर वो समझता था कि वो मेरी माँ हैं. कभी-कभी दबी आवाज़ में वो कहता कि मैं उनकी बीमारी घर ले आऊँगी. मैंने अरसे से माँ और उसके अलावा किसी को नहीं देखा था. ऐसा नहीं था कि कोई था जिसे मैं देखना चाहती थी पर मैं बाहर निकलना चाहती थी. मेरा काम शुरू होने वाला था. मैं काम पर जाने लगी. ज़्यादा काम नहीं था बस बैठ कर पढ़ाना होता. मुझे अच्छा लगता था. घर से बाहर निकलना..खुली हवा में साँस लेना. अब मैं उसे और भी प्यार करने लगी थी. मैं, मैं होकर ख़ुश थी.

पर वो एक पल के लिए भी मुझसे अलग नहीं होना चाहता था. उसे लगता मैं उससे अलग होकर ज़्यादा ख़ुश हूँ. जाने क्यूँ वो कहने लगा कि मैं उस से ऊब गयी हूँ. मैं जब भी बाहर जाती वो कहता मैं अपने यार से मिलने जाना चाहती हूँ. मैं दोस्त बनाना चाहती तो वो कहता तुम हवस की मारी हो... धंधा क्यूँ नहीं कर लेती. एक दिन उसने मुझे बहुत मारा. कहा तुम रंडी हो...एक मर्द से पेट नहीं भरता. उसने कहा वो मेरे लिए मर्द लाएगा. बाद में वो बहुत पछताया और मुझे माँ से मिलाने ले गया. माँ मुझे देखकर मुस्कुरायी और मेरे निशानों को देख अनदेखा कर दिया. माँ ने कुत्ते का बच्चा पाल लिया था. माँ ने मेरा बग़ैर उभरा हुआ पेट हुआ पेट भी देख लिया था. उन्होंने प्यार से मेरे पेट पर हाथ फिराया. इस दफ़ा वो रोयी नहीं... अपना पेट उघाड़ा. माँ के घाव भरने लगे थे और वो ख़ुश दिखायी दे रही थी. 




मेरा पेट बढ़ने के साथ-साथ हमारे झगड़े भी बढ़ने लगे और मेरी तबियत भी ख़राब रहने लगी. जिस दिन तबियत स्कूल में बिगड़ जाती एक लड़का मुझे मोटर-साइकल पर घर छोड़ जाता. वो मेरे साथ ही काम करता था. मैंने अपने प्रेमी को बता दिया था...छिपाने जैसा कुछ नहीं था. पर उसने...उसने फिर से मुझे गालियाँ दीं और कहा कि मैं नौकरी छोड़ दूँ. मैं नौकरी छोड़ना नहीं चाहती थी. मैंने ज़िद की, उसने ज़िद नहीं मानी. उसका शक़ बढ़ता जा रहा था. जानते हैं उसने क्या किया...उसने मेरी रूह को काट-पीट कर अलगनी पर टाँग दिया. उसने उसे रुई की तरह धुन दिया. मैं चीखना चाहती थी पर उसने मेरे मुँह में मेरे ही माँस के टुकड़े भर दिये. मैं कहना चाहती थी कि मैं सिर्फ़ तुमसे प्यार करती हूँ. उस लड़के से या किसी से भी मेरा सम्बंध नहीं. ये सही बात है कि मैंने मोटर साइकिल वाले लड़के  एक बार ख़्वाब  में देखा था और ख़्वाब में वो मेरे क़रीब आना चाह रहा था पर वो ख़्वाब था और ऐसा कभी-कभी हो जाता है.

(दर्शकों को सम्बोधित कर) आपके साथ भी हुआ होगा न. मैंने तो सुना है सारे मर्द किसी और को सोचते हैं. 

ख़ैर उसने मुझे यह सब बोलने का मौक़ा नहीं दिया और मुझे घर से निकल जाने को कहा. मैं बेघर होने वाली थी. मैंने उसके पैर पकड़ लिए. रोते हुए मैंने कहा कि मैंने भी तो तुम्हें एक बार माफ़ किया था. याद है तुम्हें. तुम मुझसे प्यार करते हो ...इतनी आसानी से कैसे जाने दे सकते हो मुझे. मुझे रोको ...रोको मुझे. कहो कि तुम मुझसे प्यार करते हो..मेरे बिना मर जाओगे. तुम मुझे क्यूँ निकाल रहे हो. मैं घर के बाहर पडी कुछ दिनों तक प्रतीक्षा करती रही कि वो मुझे माफ़ कर देगा पर वो मुझे भूल गया था. वो दूसरी औरतों के साथ व्यस्त हो गया था. बहुत-सी औरतें मेरे घर, जो अब मेरा नहीं रहा था आने लगीं थीं.


(रोते हुए)

वो मुझे कैसे भूल सकता था. उसे मेरी याद क्यों नहीं आती थी. इतने समय तक साथ रहने के बावजूद वो आसानी से मुझे भूल गया. 


(लड़की का घर)
मैं माँ के पास पहुँची. माँ पिल्ले को रोटी खिला रही थी. उसने मुझे देखा और कहा वो तुझसे खेल रहा था...खेल ख़त्म हुआ. मुझे ग़ुस्सा आया और मैंने पिल्ले का मुँह तकिए से दबा कर उसे मार डाला. फिर मैंने अपना पेट काटा और देखा वो एक लड़की थी. मैंने उसे मिट्टी में दबा दिया. मैं ख़ुश थी कि मैंने एक लड़की को जन्म लेने से पहले मार दिया. माँ ख़ुश नहीं थी. वो पूरी रात बड़बड़ाती रही. वो फिर से अपना पेट उघाड़ना चाहती थी पर मैंने उसके हाथ बाँध दिए. अब मैं समझ गयी थी कि उसे उसके अजन्मे बच्चों का दुःख नहीं था. वो इस सारे समय में अपने प्रेमी को याद कर रही थी. मैंने उसका सीना चीर दिया. मैं देखना चाहती थी कि ऐसी औरतों के दिल किन चीज़ों से बने होते हैं. वहाँ कुछ नहीं था सिवाय खून के क़तरों और नुचे हुए माँस के टुकड़ों के. मैंने उन सबको ठोकर मारी और उसके पास जा पहुँची. वो कंप्यूटर पर बैठा नंगी तस्वीरें देख रहा था. मुझे देख वो चौंक गया. मैं उसको चूमने लगी...पहले वो मुझे परे धकेलता रहा फिर वो कमज़ोर पड़ गया. उसके कमज़ोर पलों में मैंने उसका दिल निकाला और अपने साथ ले आई. आते-आते मैंने एक लात नंगी तस्वीरों वाले कंप्यूटर पर दे जमाई.

(दर्शकों से)
अब आप सोच रहे हैं मैं क्या करूँगी. आप ही बताइए मुझे क्या करना चाहिए? मर जाना चाहिए? (कुछ सोचते हुए..ऊँची आवाज़ में)
नहीं मैं ख़ुद को नहीं मारूँगी. मैं ही क्यों मरूँ हर बार...? इस बार मैं नहीं मरूँगी.
(अपने थैले में से एक दिलनुमा वस्तु निकालती है. उसे वहशी निगाहों से देखती है.)
यह देख रहे हैं...जानते हैं यह क्या है? ये उसी हरामी का दिल है. देख रहे हैं कैसे चिकना और मुलायम है...मेरे एहसासों से सींचता था यह आदमी अपना दिल. क्या करूँ....रौंद दूँ इसे? आग लगा दूँ इसमें? या क़ब्र बना दूँ इसकी?
(आँखों में अजब चमक गयी है)
नहीं इनमें से कुछ नहीं... मैं अपना दिल इस दिल से बदल लूँगी.
(भीषण अट्टहास) 
फिर आपकी दुनिया के लोग जान पायेंगे...कैसा होता है ठोकर खाना, छला जाना.
(जाने के लिए मुड़ती है पर ठिठक जाती है)...
और सुनिए, मेरा दिल यहीं छोड़े जा रही हूँ..ऐसे ही बीच चौराहे पर टंगा हुआ. कोई सही कीमत लगाने वाला जिस रोज़ आपको मिले मुझे बुला लेना. मैं आऊँगी और
(सीने के बायीं ओर हाथ रख)
इस दिल को त्याग उस रोज़ पुनः अपना दिल ग्रहण करुँगी.

( मंच से प्रस्थान)
(अ न्ध का र)
__________________
सभी  पेंटिग  : Nicola Samorì



दिव्या विजय :
(२० नवम्बर १९८४, अलवर, राजस्थान)
divya_vijay2011@yahoo.com

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  1. A monologue!! Is there something which you don't do? �� एकालाप बहुत अच्छा है। हृदय विदारक और आईना दिखाने वाला नाटक। जैसे नाख़ून बार-बार बढ़ कर याद दिलाते हैं कि हम कितने ही सभ्य हो जायें पर हैं तो आदिम जानवर ही। यह नाटक औरतों को जन्म दे सकने की क्षमता के रूप में मिले वरदान और अभिशाप के भी कारण उनकी दयनीय सामाजिक स्थिति को दिखाता है और यही प्रेम में भी परिलक्षित होता है। नाटक की भाषा विषय और परिस्थिवश चरित्र में आए बदलाव के अनुसार सटीक है।

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  2. यह एकालाप शुरू से अंत तक बांधे रहा । पढ़ने के बाद उसी कथा बारे में सोचता रहा । यह एकालाप प्रभावशाली असर छोड़ता है । इस विषय पर बहुत लिखा जा रहा है फिर भी यह बहुत असरदार है । औरत की सामाजिक स्थिति एवं उसके प्रति पुरुषवादी दृष्टि का सहज चित्रण किया गया है । धन्यवाद ।

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  3. अद्भुत है। इसके इतर स्त्री को अपनी दुनिया बसा लेनी चाहिए।

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  4. बहुत बढ़िया, एक सांस में पूरा पढ़ गई

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  5. नाटक बहुत अच्छा लिखा है!
    बिल्कुल एकालाप है, घटना आज की हो या कल की,चोट स्री को और घृणा प्रेम को मिली। बिल्कुल प्रेम का इसमें सरासर अपराध है।प्रेम खुद से क्यों नहीं पूछता है कि वो कितना गलत है।स्री-पुरुष को क्यों प्रेम में भेद करना पड़ता है? प्रेम जो जिद पर भी हावी था। बहुत अच्छा दिव्या जी....

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