मीमांसा : धर्म का समानांतर : अरुण माहेश्वरी

(कश्मीर में अवंतीपुर के प्राचीन मंदिर के खंडहर की तस्वीरें : अरुण माहेश्वरी)















अभिनवगुप्त मुख्यत: काश्मीरी शैव-सिद्धांत के अपने दर्शनिक ग्रन्थों के कारण प्रसिद्ध हैं. उन्होंने काव्यशास्त्र के  क्षेत्र में भी यश अर्जित किया है, वे भरत और आनंदवर्धन पर क्रमश: अपनी ‘अभिनवभारती’ और ‘काव्यलोकलोचन’ नामक टीकाओं के लिए विख्यात हैं.

यहाँ काव्यशास्त्र की चर्चा नहीं है. बल्कि धर्मों की वर्तमान अर्थवत्ता के प्रसंग में काश्मीरी 'प्रत्याभिज्ञान’ दर्शन से मुखामुखम का एक प्रयास है.




कश्मीर की घाटियों में 'धर्म चर्चाका एक समानांतर वैचारिक यात्रा वृत्तांत 


अरुण माहेश्वरी


'र्यटनवाद जिंदाबाद' के नारे के अपने सुख और इसकी गहमा-गहमी के बीच स्वाभाविक यही था कि हम एक प्रकार की विचार-शून्य आध्यात्मिकता की शरण में चले जाते. लेकिन पता नहीं क्यों, आपके लेख (जगदीश्वर चतुर्वेदी की रवीन्द्रनाथ, मार्क्सवाद और धर्म संबंधी हाल की कुछ पोस्ट) का विषय इस परिवेश में भी हमें घेरे रहा है और अभी तो इस पर सोचना एक प्रकार के प्रीतिकर भटकाव जैसा लग रहा है. संभव है, इसमें शायद इस कश्मीर घाटी का भी कुछ अपना योगदान भी है. क्योंकि जब श्रीनगर की एक पहाड़ी के शिखर पर दूर से ही हमने शंकराचार्य के भव्य मठ की झलक देखी, तभी हमारे दिमाग़ में इस घाटी में बस गये भारत के एक श्रेष्ठतम दार्शनिक, तांत्रिक, सौन्दर्यशास्त्री, तर्कशास्त्री, संगीतकार, कवि और नाटककार अभिनवगुप्त और उनके शैवमत और अद्वैत की भव्यता की भी याद आगई थी.

आज दुनिया के प्रसिद्ध मार्क्सवादी दार्शनिक स्लावोय जिजेक किसी भी संक्रमण के बिंदु को एक ऐसी घटना के रूप में देखते है जो सिर्फ नये भविष्य का ही निर्माण नहीं करती, बल्कि उलट कर अतीत की गहरी गुहा में जा कर उसके भी पूरी तरह से एक नये आख्यान की रचना करती है. इस प्रकार संक्रमणकारी घटना अतीत की भी पुनर्रचना करती है, तमाम पूर्व-धारणाओं को नये सिरे से परिभाषित करती है. जिजेक इसे हेगेल की शब्दावली में एक 'परम प्रत्यावर्तन' (Absolute Recoil) कहते हैं और सबसे अधिक ग़ौर करने लायक बात यह है कि वे इसी 'परम प्रत्यावर्तन' में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नये रूप को स्थापित करने का दावा करते हैं.

(कश्मीर में अवंतीपुर के प्राचीन मंदिर के खंडहर की तस्वीरें)

अभिनवगुप्त का 'प्रत्याभिज्ञान' भी तो बिल्कुल यही, एक प्रत्यावर्तन ही तो था. उन्होंने भी संक्रमण को सिर्फ वर्तमान के संदर्भ में नहीं, बल्कि अतीत तक गहरे धस कर वर्तमान के तमाम संदर्भों को नए रूप में परिभाषित करने की शक्ति के रूप में देखा था. मज़े की बात यह है कि अभिनवगुप्त के इसी दर्शन से, परिवर्तन के बिंदु से अर्जित शक्ति और बौद्ध दर्शन के वज्रयान के योग से आगे उनकी तंत्र विद्या का विकास हुआ - इस शक्ति ने सिद्धि और विभूति के ज़रिये चमत्कारी तंत्र विद्या को जन्म दिया. अभिनवगुप्त के 'तंत्रलोक' में परिवर्तन के संयोग का यह बिंदु, जहाँ से जीवन और विचार का एक नया लोक उद्घाटित होता है, संभोग के क्षण में बदल जाता है. 

स्त्री को पुरुष की शक्ति का केंद्र बना कर उसमें प्रवेश से वे पुरुष की आत्मोपलब्धि, खुद के पुनर्राविस्कार की तांत्रिकता का शास्त्र तैयार करते है, और हम जानते ही हैं कि परवर्ती समय में इस तंत्र विद्या के तहत स्त्री के शरीर के साथ कितने प्रकार के विकट और विकृत प्रयोगों का एक सिलसिला हमारे यहाँ शुरू हो जाता है. सचमुच यह देख कर आश्चर्य होता है कि जिजेक भी अपने दार्शनिक विमर्श में बेहिचक पोर्नोग्राफ़ी के प्रसंगों का धड़ल्ले से प्रयोग करने के लिये काफी बदनाम है !

बहरहाल, धर्म संबंधी चर्चा के क्रम में अभिनवगुप्त, उनके 'प्रत्याभिज्ञान' और तंत्रविद्या और जिजेक तथा उनके 'परम प्रत्यावर्तन' और पोर्नोग्राफ़ी की इस अनायास और किंचित अप्रासंगिक सी दिखाई दे रही चर्चा के बावजूद जब हम भारतीय चिंतन के संदर्भ में धर्म की स्थिति के बारे में सोचते हैं तो यह उतनी अप्रासंगिक भी नहीं जान पड़ती है. 'प्रत्याभिज्ञान' का एक दार्शनिक पहलू था और तंत्र विद्या के रूप में उसका एक भ्रष्ट कर्मकांडी रूप सामने आया था. कमोबेस इसी प्रकार भारतीय चिंतन में भी धर्म का कोई एक ही निश्चित रूप नहीं रहा है -दर्शनशास्त्रीय स्तर पर भी और कर्मकांडी स्तर पर भी. उपरोक्त चर्चा के प्रारंभ से ही एक बात तो साफ़ है कि रिलीजन या वर्च्यूज के जिस अर्थ में आज धर्म को देखा जाता है, वैसा सुदूर अतीत में न पश्चिम में था और न ही भारतीय चिंतन में. 

एक लंबे काल तक दोनों जगह धार्मिक और दार्शनिक विमर्श के बीच कोई फर्क नहीं था. वह मनुष्य की पारलौकिक ही नहीं, इहलौकिक जिज्ञासाओं के भी केंद्र में था. हेगेल का 'परम विचार' तक कहीं न कहीं ईश्वर से जुड़ता था और व्यवहार के धरातल पर राज्य के संचालक के नाते राजा में ईश्वर के अंश को देखता था. इस प्रकार कहीं भी धर्म का कोई एक रूढ़ स्वरूप नहीं रहा है.

कुमारिल के 'मीमांसा सूत्र' का पहला वाक्य ही है - 'अथातो धर्म-जिज्ञासा' - अर्थात धर्म के स्वरूप के बारे में जिज्ञासा. उनकी इस धर्म-जिज्ञासा में वेदों का सबसे केंद्रीय स्थान था. उनके यहाँ धर्म का मतलब है वैदिक आदेश-निर्देश, वैदिक यज्ञ और  इनसे भी महत्वपूर्ण है वैदिक विधि-निषेध. इसे आदमी के मंगल का अंतिम, अत्यांतिक मार्ग माना गया, तमाम संदेहों और प्रश्नों से परे. स्वर्गादि शुभ फलों के प्रदाता वैदिक यज्ञों के रूप में जब वे धर्म की विस्तृत व्याख्या करते हैं तो उससे यही जाहिर होता है कि दूरदर्शितापूर्ण कार्यों से वांछित फल की प्राप्ति ही धर्म है, बशर्ते इसे प्राप्त करने में वैदिक विधि-निषेधों का बाक़ायदा पालन किया गया हो. मसलन्, आदमी को चोट पहुँचाना अवांछनीय है, इसीलिये शत्रु को चोट पहुँचाना भी धर्म नहीं है. इस धर्म को श्रुति के द्वारा विधि-निषेधों से जाना जा सकता है.

इस प्रकार साफ़ है कि मीमांसक कुमारिल की धर्म की अवधारणा में ईश्वर या किसी रहस्यवादी धार्मिक भावावेश का कोई स्थान नहीं था. इसमें किसी प्रकार के संवेगों, रहस्यात्मकता भावों या बुद्धि या विचारों का भी कोई ख़ास स्थान नहीं था. यह मूलत: श्रुति-आदेशों के निष्ठापूर्ण पालन से जुड़ा हुआ कार्य था. इसमें अहिंसा का एक स्थायी तत्व जरूर था, जो जीने और जीने दो की मानव जीवन की एक बुनियादी शर्त थी. वेदों पर इसकी निर्भरशीलता सिर्फ विधि-निषेधों के ज्ञान के लिये थी, और किसी वजह से नहीं. शत्रु की हत्या से एक व्यक्ति को तात्कालिक सुख मिलने पर भी वैदिक आदेशों से वर्जित होने के कारण उससे भविष्य में अनिवार्यत: दुख पैदा होगा, इसीलिये उसे उन्होंने धर्म के बाहर ही रखा था.

कहने का मतलब यह है कि धर्म के इस रूप में किसी प्रकार के रहस्यवाद के लिये कोई जगह नहीं थी. मुझे लगता है, वेदों और धर्म के इस रूप के संबंधों की मोटे तौर पर एक तुलना आज के संविधान और उसके क़ानूनी प्राविधानों से की जा सकती है. परवर्ती स्मृतियों में धर्म के इस विचार का नाना प्रकार की नैतिकताओं और सद्गुणों के रूप में विकास होता चला गया. इस मामले में स्थिति यहाँ तक चली गई थी कि यदि कोई कार्य वांछित है, जिसकी बुद्धि और विवेक अनुमति देता है, तो उसकी पुष्टि वेदों अथवा स्मृति पुराणों में न होने पर भी इस बिनाह पर उसे धर्म माना जाने लगा कि उसका उल्लेख वेदों में हैं, लेकिन वह हमें दिखाई नहीं दे रहा है.

(कश्मीर में अवंतीपुर के प्राचीन मंदिर के खंडहर की तस्वीरें)

इस प्रकार, भारतीय चिंतन में वैदिक आदेशों के पालन, सत्य और अहिंसा के नैतिक सद्गुणों और आत्म- ज्ञान की यौगिक क्रियाओं के रूप में धर्म संबंधी अवधारणाओं के विकास की अपनी यह एक अलग और लंबी कहानी है जिसे हम आज तक 'मानव धर्म' के रूप में दोहराते रहते हैं. लेकिन भारतीय पुराणों में भागवत पुराण इस विषय के एक और ही नये पहलू को सामने लाता है. इसमें ईश्वर भक्ति और उपासना के पहलू को धर्म के एक सर्वप्रमुख पहलू के रूप में रखा जाता है. 

भागवत में कहा गया है कि ईश्वर की 'अहैतुक' और 'अप्रतिहत' भक्ति ही धर्म है. यह भारतीय दर्शन के इतिहास में धर्म के बारे में विचार की एक बिल्कुल नई दिशा कही जा सकती है. ईश्वर भक्ति को न उत्पन्न करने वाले धर्म को इसमें 'निष्फल धर्म' बताया गया है. वैदिक आदेशों से चालित धर्म को तात्कालिक सुख का प्रदाता बताया गया. स्थायी और परम सुख तो सिर्फ ईश्वर भक्ति से हासिल किया जा सकता है. इसे वैदिक धर्म से उत्कृष्ट माना गया.

भागवत के पहले श्लोक में ही 'परम सत्य' की आराधना की गई है,  जो परमेश्वर ही है. इसे ही ब्रह्मन, परमात्मन् आदि कई नामों से पुकारा जाने लगा. इस अरूप ब्रह्मन में एक मायावी शक्ति को, तमाम प्रकार की सृष्टियों की शक्ति को देखा जाने लगा. भागवत में कई जगह परमेश्वर की चर्चा शुद्ध चैतन्य के रूप में की गई है. इस प्रकार, परमेश्वर का आंतरिक सत्य, उसका शुद्ध चैतन्य रूप, उसकी बाहरी सत्ता 'माया' और अन्य तमाम जीवों में अधिष्ठित उसकी सत्ता के एक त्रिगुणात्मक रूप में ब्रह्मन को देखा गया. इसके साथ ही दिक्-काल से मुक्त वैकुण्ठ की कल्पना की गई जहाँ इस परमेश्वर का वास है. और, परम सत्य, जिसे परम सत्ता कहा गया, उसके सगुण रूपों की कल्पनाओं से उस पूरे धर्म व्यवसाय की पैदाईश होती है जो मंदिरों, मठों, गिरजाघरों और मस्जिदों की तरह के नये वर्चस्वकारी सत्ता केंद्रों के विकास तक जाता है, जिसे हम धर्म के शुद्ध कर्मकांडी रूप में आज अपने जीवन में देखते हैं.

जगदीश्वर जी, इस चर्चा का सिर्फ यही मतलब है कि आपने अपने लेख में जिस प्रकार से भारतीय चिंतन में धर्म के एक साधारण और सर्वकालिक रूप की चर्चा करते हुए उसे अपनाने की बात की है, वह यथार्थ में बिल्कुल भी वैसा सुनिश्चित नहीं है, न भारतीय चिंतन की परंपरा में और न ही हमारे जीवन की ठोस वास्तविकता में. यदि हम इसकी चर्चा 'मानव धर्म' की अवधारणा के रूप में करना चाहे तो आज के राष्ट्रीय  राज्य में इस धर्म का अकेला वैदिक ग्रंथ राज्य का संविधान होता है. मनुष्य के सामाजिक आचरण उसके आदेशों - निर्देशों से चालित होते हैं. चूँकि हम राष्ट्रीय जनतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे है, इसलिये हम अपने संविधान की बात करते है. इसे ही यदि आप वैश्विक संदर्भ में देखना चाहे तो इसमें एक ओर आज की पूँजीवादी वैश्विकता के क़ायदे- क़ानून है और दूसरी ओर मार्क्सवादी अन्तरराष्ट्रीयतावाद है, पूरे मानव जीवन और सोच- विचार को बिल्कुल नये रूप में ढालने की शक्ति का विचार - जीवन के क्रांतिकारी रूपांतरण का विचार, वास्तविक संक्रमणकारी विचार. हमारे अनुसार तो आज के समय में परम प्रत्यावर्तन किसी धर्म से नहीं, इस नये सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावादी प्रत्यय और इससे जुड़े लगातार प्रयोगों से ही मुमकिन है.

जगदीश्वर जी, एक प्रवाह में, पहलगाम की परम शांत वादियों में, धर्म की तरह के विषय पर हमने यह एक काफी लंबी यात्रा कर ली है. मैं नहीं जानता इसमें कितना कह पाया हूँ, कितना नहीं. और प्रामाणिकता के पहलू तो अलग है ही. कोलकाता लौट कर अपने इस नोट पर ज्यादा प्रामाणिक तथ्यों के साथ काम करने की कोशिश करूँगा. फिर भी अपने इस नोट को तमाम मित्रों से उसी प्रकार साझा कर रहा हूँ, जिस प्रकार पिछले पाँच दिनों से इन वादियों की ख़ुशगवार तस्वीरों को साझा करता रहा हूँ. सचित्र यात्रा वृतांत के साथ इस प्रकार की विचार-यात्रा के सुख भी कम नहीं हैं. उम्मीद है मित्रों भी कुछ ऐसा ही लगेगा .


इस प्रकार की वैचारिक उत्तेजना देने के लिये आपको बहुत धन्यवाद.
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अरुण माहेश्वरी (4 जून 1951)
मार्क्सवादी आलोचक, सामाजिक-आर्थिक विषयों पर टिप्पणीकार एवं पत्रकार.   

प्रकाशित पुस्तकें (१)साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार (2) आरएसएस और उसकी विचारधारा (3) नई आर्थिक नीति : कितनी नई (4) कला और साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय मानदंड (5) जगन्नाथ (अनुदित नाटक) (6) पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति (7) पाब्लो नेरुदा : एक कैदी की खुली दुनिया (8) एक और ब्रह्मांड, (9) सिरहाने ग्राम्शी, (10) हरीश भादानी, (11) धर्म, संस्कृति और राजनीति, (12) समाजवाद की समस्याएं, (13) तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक की इबारतें, (14) प्रतिद्वंद्विता से इजारेदारी तक, (15) आलोचना के कब्रिस्तान से, (16) Another Universe .


 संपर्क : सीएफ - 204, साल्ट लेक, कोलकाता - 700064 

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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-07-2016) को "खिलता सुमन गुलाब" (चर्चा अंक-2410) पर भी होगी।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. Tewari Shiv Kishore : प्रत्याभिज्ञान कभी सुना नहीं। प्रत्यभिज्ञा ही सुनते आये हैं। संस्कृत में प्रत्याभिज्ञान शब्द बन भी नहीं पा रहा है। भगवान जाने!


    Arun Maheshwari : प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यावर्तन और Absolute Recoil के पूरे संदर्भ में पढ़ें, शायद कुछ समझ में आ जाए ।


    Arun Maheshwari :पूरे विषय को अच्छी तरह से समझने के लिये आपकी सुविधा की खातिर Abhinavagupta : Reconsiderations पुस्तक के संपादक मकरंद परांजपे के प्राक्कथन के एक छोटे से उद्धरण को दे रहा हूं । इससे हेगेल के Absolute Recoil (परम प्रत्यावर्तन) और अभिनवगुप्त के ‘प्रत्यभिज्ञा’ को मिला कर हम यहां जिस ‘प्रत्याभिज्ञान’ तत्व की चर्चा कर रहे हैं, वह शायद ईश्वरीय कृपा जितना रहस्यमय नहीं रह जायेगा।
    परांजपे लिखते हैं - ‘‘Pratyabhijna or recognition is thus not the cognisance of some thing new. Nor is the recollection of something old. It is the coming together of smriti or memory and the newness of direct perception that produces the flash of recognition which is at once new and old.”


    Tewari Shiv Kishore : माहेश्वरी जी प्रत्याभिज्ञान कोई शब्द नहीं होता। परांजपे ने भी प्रत्यभिज्ञा शब्द ही प्रयुक्त किया है। इतने गंभीर आलेख में ऐसी भूलें अश्रद्धा उत्पन्न करती हैं।आपने जो अंग्रेजी उद्धरण दिया है वह प्राचीन स्फोट सिद्धांत की शैव व्याख्या से संबंधित लगता है।

    Arun Maheshwari :Tewari Shiv Kishore सही है, यह प्रत्यभिज्ञा ही है । मैंने अपना आशय साफ़ किया है । हेगेल के Absolute Recoil से अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञा को जोड़ कर देखने की एक कोशिश है । और जो उद्धरण है, वह अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञा तत्व की ही परांजपे की व्याख्या है ...See More


    Tewari Shiv Kishore: धन्यवाद। लोचन मैंने पढ़ी है। बाकी के बारे में सुना भर है।

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  3. Jagadishwar Chaturvedi :मैं अरूण माहेश्वरी के नजरिए से असहमत हूँ, जल्द ही इसका विस्तार से उत्तर दूँगा।

    Arun Maheshwari :दरअसल, आपकी रवीन्द्रनाथ और धर्म वाली पोस्ट को मैं बाद में खोज नहीं पाया । इसी वजह से इस टिप्पणी को उसके प्रत्येक नुक़्ते के आधार पर जिस रूप में विकसित करना चाहता था, नहीं कर पाया । उस पोस्ट पर मैंने रवीन्द्रनाथ पर अलग से और भी कुछ लिखा था ।


    Arun Maheshwari : वैसे आपके प्रत्युत्तर का बहुत स्वागत है, क्योंकि तभी शायद अपनी बात को और भी खोल कर रखने का मुझे मौका मिलेगा ।

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  4. प्रत्याभिज्ञान शब्द आप चाहें तो बना लें। मुझसे नहीं बन पाया। पर इस शब्द का प्रयोग इस संदर्भ में न करें क्योंकि यह शब्द इस या किसी भी संदर्भ में शैव दार्शनिकों ने प्रयोग नहीं किया। किया हो तो आप एक उद्धरण देकर मेरा मुँह बंद कर सकते हैं। पिछली टिप्पणी ठीक थी। आपको अंतिम पैराग्राफ नहीं जोड़ना चाहिए था।

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  5. मुझे अपने इस प्रयोग में कोई दोष इसलिये नहीं लगता क्योंकि इसे मैं हिंदी में विचार की एक नई श्रेणी के रूप में देख रहा हूँ । जैसे हेगेल ने ground/reason के ढह जाने की अपनी व्याख्या में absolute recoil का एक क्रियापद के तौर पर ही प्रयोग किया है उसे स्लावोय जिजेक ने ज्ञान की एक संपूर्ण नई श्रेणी का रूप देकर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को एक नई आधारशिला पर स्थापित करने का दावा करने वाली अपनी किताब का शीर्षक बना दिया है । हिंदी में मैं इस पद को इसी रूप में बनाये रखना चाहता हूँ ।

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  6. अब दुराग्रह का आरंभ हो रहा है। अतः मेरी ओर से चर्चा को समाप्त समझें। धैर्य रखने के लिए धन्यवाद।

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  7. Tewari Shiv Kishore अभिनवगुप्त ने प्रत्यभिज्ञा का प्रयोग लगभग इसी अर्थ में किया है, जो मेरी टिप्पणी का एक प्रमुख आशय है । इसलिये यह कहना सही नहीं है कि इस संदर्भ में शैव दार्शनिकों ने इसका प्रयोग नहीं किया है । जहाँ तक उदाहरण का सवाल है, परांजपे का उद्धरण मेरे अनुसार पर्याप्त होना चाहिए था । उसे थोड़ा ध्यान से देख लीजिए । बाक़ी और बाद में देंगे ।

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