परिप्रेक्ष्य : योग का धर्म : संजय जोठे








योग का अर्थ है ‘जुड़ना’, इसे ‘संतुलन’ भी कहा गया है. ज़ाहिर है ये दोनों चीजें सेहत के लिए जरूरी हैं. आज ‘स्वास्थ्य’, बाज़ार के लिए भारी मुनाफे (कई बार तो लूट) का माध्यम बना हुआ है. विज्ञान/बाज़ार  के पास किसी भी बीमारी का मुकम्मल इलाज नहीं है, ताउम्र दवाईयां लेते हुए ‘मैनेज’ भर करने के लिए आप मजबूर हैं/ कर दिए गए हैं. ऐसे में योग एक विकल्प है.  

योग अब अंतर्राष्ट्रीय है. बाकायदा २१ जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जा रहा है. क्या इस वैश्विक योग का कोई धर्म भी है ? किसी धर्म से इसे जोड़कर इसकी पहुँच और असर को हम कम तो नहीं कर रहे हैं ? युवा समाजशास्त्री संजय जोठे का यह प्रासंगिक आलेख ख़ास आपके लिए.   




योग का धर्म                                     
संजय जोठे


हाल ही में विश्व योग दिवस और योग के सन्दर्भ में जो चर्चाएँ और मत या वाद विवाद निर्मित हुए हैं उन पर बहुत ध्यानपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है. योग को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पहचान मिलना अच्छी बात है और हर भारतीय इस पर गर्व कर सकता है. असल में जो लोग भी प्राकृतिक स्वस्थ और सहज जीवन शैली के पक्ष में हैं उन्हें योग को मान्यता मिलने से प्रसन्नता ही होगी. चाहे वे हिन्दू हों मुस्लिम हों बौद्ध या इसाई हों. जैसे आतंक या बर्बरता की निंदा करने वाले सिर्फ निंदा करने मात्र से किसी संस्कृति या धर्म के पक्ष या विपक्ष में नहीं खड़े हो जाते उसी तरह किसी सद्गुण या व्यवहार की प्रशंसा या उसका अनुशीलन करने से आप किसी धर्म या संस्कृति के पक्ष या विपक्ष में नहीं खड़े हो जाते.

एक बड़ा विरोधाभास है जो बहुत जाहिर तौर पर चल रहा है. हम निंदा तटस्थ होकर करते हैं लेकिन प्रशंसा करते हुए पक्ष में आने की उम्मीद कर रहे हैं. दुर्व्यवहार या आतंक की निंदा करते हुए हम कहते हैं कि ऐसे व्यवहार का कोई धर्म या मजहब नहीं होता लेकिन साथ ही हम योग को विपस्सना को या ताई-ची या कुंग-फू आदि अभ्यासों को धर्म विशेषों से जोड़कर देखने दिखाने लगते हैं. किसी सद्गुण या सद-व्यवहार को किसी भी तरह की धार्मिक, जातीय, या राष्ट्रीय पहचान से जोड़ देना गलत है. और इसे किसी तरह के राष्ट्रवाद का उपकरण बना देना तो बड़ी खतरनाक बात है. इसके अपने खतरे हैं और फायदे भी हैं. फायदे तात्कालिक हैं और इसके नुकसान बहुत दीर्घकालिक हैं. ये नुकसान हम अभी देखना नहीं चाहते लेकिन ये सामने आयेंगे.

किसी भी संस्कृति में उसके श्रेष्ठ तत्वों को तभी श्रेष्ठ माना जा सकता है जबकि वे जागतिक लाभ की हों और उनका मानवमात्र के कल्याण के लिए कोई सदुपयोग हो. वे लाभ और वे प्रक्रियाएं निरपेक्ष होती हैं वे अपनी पहचान में और अपने उद्गम में मानवीय होती हैं. उनका किसी धर्म या संस्कृति से कोई संबंध नहीं होता है. जिस अर्थ में उन्हें किसी धर्म या संस्कृति विशेष के पेटेंट की तरह देखा या दिखाया जाता है उस अर्थ में तो कोई संबंध बिलकुल ही नहीं होता है.


उदाहरण के लिए आधुनिक विज्ञान को लीजिये बहुत गहराई में जाएँ तो इसके जन्मदाता अधिकाँश रूप से क्रिस्चियन या यहूदी हैं. कुछ मित्र इसे मेसोपोटामियन सभ्यता से जोड़ सकते हैं या अरबों ने जिस तरह से यूरोपियन पुनर्जागरण को आकार दिया उस अर्थ में ये अरबों से भी जुड़ सकता है. 

यूनानियों की बात करें तो प्राचीन भारतीयों से यूनान के व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंधों को आधार बनाकर ये यात्रा घूम फिरकर भारत भी आ सकती है. कई लोगों का दावा है और बहुत हद तक सही भी है कि आधुनिक गणित खगोल, रसायन, धातु विज्ञान, भेषज आदि के मूल सूत्र भारत में खोजे गये. ये ठीक बात है. इससे कहीं आगे बढ़कर मनोविज्ञान और समाज मनोविज्ञान की बहुत विक्सित मान्यताएं और प्रक्रियायं भारत में ही खोजी गयीं है. भौतिक और वस्तुगत विज्ञान में तो भारत ने शुरुआत की ही थी लेकिन विषयगत विज्ञान, चेतनागत विज्ञान या अध्यात्म सहित योग और ध्यान की मौलिक प्रक्रियाए भी भारत में खोजी और विकसित की गयी हैं.

इसी तरह विश्वभर में महिलाओं को या जनसामान्य को राजनीतिक आर्थिक और शैक्षणिक अधिकार देकर समानित करने में पश्चिमी देशों ने जो कुर्बानियां दीं है उससे महिला दिवस जैसे दिवस मनाने का चलन हुआ है. इससे ये नहीं मान लेना चाहिए कि महिला दिवस पर साइयत का या यूरोप का पेटेंट है.

लेकिन यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि किस देश या धर्म या संस्कृति ने क्या खोजा और किसी धर्म की क्या विशेषता है. अधिक महत्वपूर्ण बात ये है कि किसी एक व्यवहार या विधा को किसी राष्ट्रीयता से जोड़ना उचित है या नहीं. सीधे शब्दों में प्रश्न ये है कि क्या योग को हिन्दू धर्म से या किसी तरह के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़ा जाना चाहिए या नहीं.  इसे तरह क्या विज्ञान को साई धर्म से और उनकी राष्ट्रीय पहचान से जोड़ा जाना चाहिए? मेरी समझ में इसका उत्तर ये है कि योग को हिन्दू धर्म से जोड़कर या आधुनिक विज्ञान को साई धर्म से जोड़कर नहीं देखा जा सकता और योग को या विज्ञान को किसी भी तरह की राष्ट्रीय पहचान या राष्ट्रवाद का उपकरण नहीं बनाना चाहिए.

योग दुनिया की सुन्दरतम चीजों में से एक है. इसका प्रसार एक विज्ञान की तरह ही होना चाहिए हालाँकि अन्य विज्ञानों की तरह ये पूरी तरह वस्तुगत नही है - बल्कि विषयगत और इससे कहीं आगे बढकर ये अन्तरंग योग की भूमिकाओं में विषयी-गत भी हो जाता है – इसलिए इसमें तटस्थता बनाए रखना बहुत मुश्किल है. इस मुश्किल को आसान करने की जरूरत है. इस मुश्किल को सुलझाने के लिए यह जाहिर करने की जरूरत है कि विषयगत होने के बावजूद इसका किसी धर्म की मान्यताओं से या धर्म और संस्कृति विशेष के इतिहास, समाज शास्त्र या सामाजिक मनोविज्ञान से इसका कोई लेना देना नहीं है. लेकिन हम जो देख रहे हैं वो एकदम उलटा हो रहा है, मुश्किल आसान नहीं की जा रही है बल्कि इस मुश्किल का लाभ उठाया जा रहा है और इस बात को स्थापित करने में आनंद लिया जा रहा है कि योग हिन्दू धर्म का है या योग हिन्दू है.

आइये सबसे पहले इसी बात का परीक्षण कर लेते हैं कि योग आत्यंतिक अर्थों में हिन्दू है या नहीं. भारत के ज्ञात इतिहास को और धार्मिक-दार्शनिक विकास की धारा को समानांतर रखते हुए देखें तो साफ़ नजर आता है कि योग का कोई एक स्पष्ट उद्गम नहीं खोजा जा सकता. किसी भी तरह प्रमाणिकता से यह नही कहा जा सकता कि कोई धर्म या दर्शन विशेष ने योग को जन्म दिया (हालाँकि योग स्वयं में एक दर्शन माना जाता है). अगर ऐसा कोई पक्षपातपूर्ण प्रयास किया भी जाए तो योग का श्रेय हमें जैन धर्म को देना होगा न कि हिन्दू धर्म को. बहुत सावधानी से देखा जाए तो इस बात को समझा जा सकता है. जैनों की धर्म साधना बहुत गहरे अर्थ में शरीर केन्द्रित है. तप और यम नियम उनकी साधना में बहुत अधिक महत्वपूर्ण हैं, इतने अधिक कि अन्तरंग योग के अंग धारणा ध्यान और समाधी लगभग गौण ही बना दिए गये हैं. काया क्लेश, अणुव्रत, एकासन, कायोत्सर्ग, सल्लेखना सहित भोजन और आसनों की व्यवस्था का जैसा पालन जैनों में होता आया है वो गौर करने लायक है. जिसे हम हठयोग कहते हैं वो भी अपने गहरे अर्थों में जैन आचार्यों द्वारा ही अधिक पूर्णता से प्रयोग किया गया है.

हालाँकि आरंभ में जैन धर्म श्रमण धर्म का एक अंग था जो बाद में जैन धर्म बनता है और हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध धर्म से भी दूरी बना लेता है. अंतिम तीर्थंकर महावीर के बाद जैन धर्म या जिन धर्म की अलग पहचान बन जाती है. अगर जैनों के पहले तीर्थंकर की बात करें तो भगवान् ऋषभदेव का उल्लेख बहुत सम्मानपूर्वक ऋग्वेद में मिलता है. इससे साफ होता है कि ऋषभदेव ऋग्वेद से पुराने हैं. असल में लोकमानस में ज़िंदा आदमी का सम्मान मुश्किल से ही होता है ऋग्वेद अगर ऋषभदेव को पवित्र पुरुष की तरह दिखाता है तो ऋषभदेव ऋग्वेद से कम से कम पांच सौ वर्ष पुराने होने ही चाहिए.
(A yogi seated in a garden, North Indian
or Deccani miniature painting, c.1620-40)

कृष्ण और राम ऋषभदेव के बहुत बाद के प्रतीत होते हैं. इंद्र जो ब्राह्मणों का सबसे बड़ा देवता है उसका उल्लेख ऋग्वेद में पाया जाता है लेकिन इस बात पर संशय है कि वह ऋषभदेव और कृष्ण की तरह एक जीता जागता पुरुष था या काल्पनिक देवता था. इस पूरे घमासान में एक बात साफ़ होती है कि हठयोग या शरीर केन्द्रित अभ्यासों पर आधारित प्रणाली को सबसे अधिक उपयोग करने वाले संप्रदाय के रूप में जैनियों को या सीधे सीधे ऋषभदेव और उनके परवर्ती जैन आचार्यों को योग को जन्म देने का या संकलित करने का श्रेय दिया जा सकता है.

बाद की शताब्दियों में खो गए इतिहास में जिस तरह से जैन धर्म का और बौद्ध धर्म का पतन हुआ और जिस तरह से जैन व बौद्ध धर्म के श्रेष्ठ तत्वों को हिन्दू धर्म में शामिल किया गया उस प्रक्रिया में योग और इसके समस्त अनुशासन भी हिन्दुओं द्वारा अपना लिए गये. इसका यह अर्थ बलकुल नहीं है कि हिन्दुओं ने योग को विकसित नहीं किया है या उनसे किसी भी अर्थ में श्रेय छीना जा सकता है. अनेक अर्थों में यह सिद्ध होता है कि जिस तरह से जैन आचार्यों ने योग को एक कठिन और कष्टपूर्ण प्रक्रिया बना दिया था उसके विपरीत जाकर हिन्दुओं ने उसे सरल और आनंदपूर्ण प्रक्रिया बना दिया. ये हिन्दुओं का योगदान है. इसी तरह कठोर शारीरिक प्रक्रियाओं को हटाकर बुद्ध ने इसे विशुद्ध मनोवैज्ञानिक आधारों पर खडा किया और बुद्धि और विवेक आधारित योग की नीव रखी जिसे आज हम ज्ञानयोग या राजयोग के नाम से जानते हैं वो बहुत अर्थों में बौद्धों की विपश्यना और अनापानसती आधारित यौगिक अनुशासनों से निर्मित हुआ है.

बुद्ध ने भी हिन्दुओं की भांति कठोर कायाक्लेश को नकारकर एक मध्यम मार्ग की रचना की थी. हालाँकि खुद बुद्ध का मध्यम मार्ग अनेक अर्थों में माध्यम मार्ग नजर नहीं आता, वे संयम, ब्रह्मचर्य और संन्यास/भिक्षु धर्म पक्षपाती हैं. औपनिषदिक ऋषि इस अर्थ में असली मध्यम मार्गी नजर आते हैं जो गृहस्थ थे और संपत्ति भी रखते थे.

खैर ये सब बातें इसलिए कि योग को भारत में ही किसी एक धर्म विशेष से जोड़ना ठीक नहीं है. अब बात करें राष्ट्रीय या भौगोलिक पहचान की. चीन में प्रचलित प्राणिक और शारीरिक अभ्यासों को देखें तो यह स्पष्ट होता है कि वहां भी “ची” या प्राण पर आधारित शारीरिक और मानसिक अभ्यासों की लंबी और बहुत पुराणी परम्परा है. लाओ-त्जे की ताओ परम्परा में यिन और यांग का जो संदर्भ आता है वो सांख्य की पुरुष और प्रकृति के सिद्धांत से कही अधिक विक्सित दार्शनिक सिद्धांत है.

भारतीय सांख्य में पुरुष और प्रकृति को भिन्न करके एक विभाजन पैदा किया गया है जबकि ताओ धर्म में ये दोनों एकदूसरे में लींन होते हैं और एकदूसरे से पैदा होते हैं. ये मनोविज्ञान के या प्रकृति के काम करने के ढंग के हिसाब से कहीं अधिक वैज्ञानिक बात है.

इस अर्थ में अगर कभी चीन के लोग प्राण या हठ योगिक प्रक्रियाओं को जन्म देने के बारे में दावा करने लगें तो उनको चुप करना भी मुश्किल होगा.

ये तो रही ऐतिहासिक, भौगोलिक और दार्शनिक अर्थ में योग के श्रेय की लड़ाई की संभावना. लेकिन इससे भी अधिक जरुरी ये है कि इस तरह का श्रेय लेने या देने से क्या योग को जागतिक सद्गुण बनाने में मदद मिलेगी ? क्या योग को हिन्दू धर्म या हिन्दू संस्कृति से या भारत से जोड़ देने में योग को फायदा होगा? और असल में बड़ा सवाल ये है कि यहाँ योग का फायदा देखा जा रहा है या देश धर्म और संस्कृति के फायदे पर या महिमामंडन पर जोर है? बहुत सीधे कहें तो असल में हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति या भारत को गौरवान्वित करने के लिए योग का इस्तमाल किया जा रहा है. इससे योग को क्या फायदा होगा इसकी चिंता बहुत कम लोगों को है.  

यह बहुत बड़ा और मेरे ख्याल से सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या योग जैसे जागतिक लाभ के दर्शन को, एक  धर्म, संस्कृति और देश की पहचान से मुक्त दर्शन को क्या किसी पहचान के खांचे में बांधकर उसका लाभ किया जा सकता है? क्या इस बात का ख़तरा हम नहीं देख पा रहे हैं कि धर्मों के अंधविश्वास और सांस्कृतिक पक्षपातों सहित उसके ऐतिहासिक समाज मनोविज्ञान को भी हम इस पहचान देने की प्रक्रिया में उस दर्शन पर थोप देंगे? वैसे इमानदारी से कहा जाए तो ये ख़तरा खतरे की तरह नहीं देखा जा रहा है बल्कि इस खतरे को ही एक लक्ष्य की तरह बना लिया गया है. योग की सफलताओं के प्रकाश में भारतीय इतिहास की अन्य सभी प्रक्रियाओं को उजागर और महिमामंडित करने का एक प्रयासपूर्वक आन्दोलन चल रहा है. इसमे कोई खराबी नहीं है लेकिन एक बड़ा ख़तरा है. ये बड़ा खतरा इतना बड़ा है कि इसके सामने अन्य फायदे धूमिल हो जाते हैं.


ख़तरा ये है कि योग को न समझने वाले वर्ग ने जिस तरह के चमत्कार और अंधविश्वास पैदा कर लिए हैं उनको और बल मिल जाएगा. योग को हिन्दू या भारतीय बताकर तात्कालिक लाभ तो होगा लेकिन योग के चमत्कारों और अतिशयोक्तिपूर्ण दावों सहित अंधविश्वास को हटाना कठिन हो जाएगा. इस अर्थ में हिन्दू धर्म का या हिन्दू संस्कृति या भारत का फायदा तो हो जाएगा लेकिन योग को भारी नुक्सान हो जाएगा. एक वैज्ञानिक चित्त के और वैज्ञानिक समाज के विकास को ये अंधविश्वास प्रभावित कर सकते हैं, इससे स्वयं योग का विकास भी प्रभावित होगा. इस खतरे के प्रति बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है.
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संजय जोठे  university of sussex से अंतराष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
sanjayjothe@gmail.com

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  1. बड़ा निरपेक्ष और गहरी अन्तर्दृष्टी युक्त लेख।आभार और धन्यवाद

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  2. डॉ साज़िद खान21 जून 2016, 5:18:00 pm

    संजय जोठे जी का आलेख पढ़ा। वैज्ञानिक दृष्टि से किया गया विश्लेषण सार्थक है। इसे इस रूप में स्वीकारा जाना चाहिए।
    जोठे जी का यह कहना कि-"असल में बड़ा सवाल ये है कि यहाँ योग का फायदा देखा जा रहा है या देश धर्म और संस्कृति के फायदे पर या महिमामंडन पर जोर है? बहुत सीधे कहें तो असल में हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति या भारत को गौरवान्वित करने के लिए योग का इस्तमाल किया जा रहा है. इससे योग को क्या फायदा होगा इसकी चिंता बहुत कम लोगों को है." सचमुच चिंता का विषय है।

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