बोली हमरी पूरबी : बलराम शुक्ल (संस्कृत कविताएँ)


संस्कृत बोलचाल और कार्य व्यापार की भाषा अब नहीं रही. पर इस  महान शास्त्रीय भाषा में अब भी साहित्य रचा जा रहा है. इसका विगत इतना लालित्यपूर्ण और उदात्त है कि इसका एक समकालीन भी है यह हम अक्सर नज़रंदाज़ कर जाते हैं. तमाम भाषाओँ की कविताओं के हिंदी अनुवाद छपते हैं पर समकालीन संस्कृत कविता हम में शायद बहुतों ने इधर दशकों से न सुनी है न पढ़ी है.  जब मैंने साहित्य अकादेमी के एक बहुभाषी कविता समारोह में बलराम शुक्ल को सुना तो चकित रह गया. एक तो इस भाषा का अपना नाद और ऊपर से शिल्प का सम्मोहक सौन्दर्य. मैंने बलराम शुक्ल से कहा आप संस्कृत की समकालीन कविताएँ लिख रहे हैं. इन कविताओं को पढ़ते हुए आप देखेंगे कि इन कविताओं में हमारे समय की वैचारिकी  और उसके निशान बखूबी मौजूद हैं वह भी परम्परागत लावण्य के साथ.



बलराम शुक्ल की कविताएँ                                        



(एक)
रिक्शा चालक पर लिखी गयी कविता
( Portrait of a Rickshaw puller:   Rajkumar Sthabathy)

त्रिचक्रिकाचालकसुन्दरस्मितं
दिनेऽपि सेन्दूकृतसच्चतुष्पथम् ।
अमासमे हर्म्यतलेऽघदूषिते
शताट्टहासान् धनिनामदोऽर्हति ॥


रिक्शा चलाने वाले की सुन्दर हँसी
जिसके नाते चौराहा पर दिन में भी चाँदनी खिल गयी है
उस पर पाप की खान अपनी बड़ी बड़ी अटारियों में रहने वाले अमीरों के अट्टहास निछावर हैं. 
​​
ब्रवीमि ते घर्मजलैश्च दुर्दिनी
कृतं कृतिन्! धन्यतरं सुजीवितम्।
अघेश्वराणां दुरुदर्कदुर्भगाद्
धनेन धन्वीकृतजीवनादिदम् ॥


पसीने से बरसाती बने तुम्हारे जीवन को मैं
दुर्भाग्य पैदा करने वाले दुष्ट मालिकों के जीवन से
जो धन से रेगिस्तान बना दिये गये हैं
बहुत अच्छा समझता हूँ.


मुखं वलीपङ्क्तिसुशोभिभालकं
परिस्रवद्घर्मजलाविलाकृति ।
तमालगन्धि प्रकटं मलीमसं
मयेष्यते ते परिचुम्ब्यतामिति ॥

तुम्हारा झुर्रियों से भरे माथे वाला मुँह
चूते हुए पसीने से मलिन
तमाल की गन्ध से व्याप्त, मैला कुचैला
चूम लेने लायक है

चतुष्पथे प्रस्तरितैरथाक्षिभिः
प्रतीक्षमाणैः परितः पदातये ।
विसृज्यमाना वदनेषु शून्यता
हृदस्मदीयं ज्वलयत्यहर्निशम् ॥


चौराहे पर जब तुम अपनी पथराई अगोरती आँखों से
पैदल चलने वालों की बाट जोहते हो
     उस समय तुम्हारे मुँह पर छाया सूनापन मेरे दिल को दिन रात जलाता रहता है.
​​
स्फुटच्छिरं बद्धशरीरमारुतं
यदोच्चभूमिं प्रसभं विकर्षसि ।
स्वकीययानं व्ययिताखिलोर्ज्जया
मनो मदीयं सकलं विलीयते ॥

नसों को फोड़ते हुए
साँसों को रोककर
सारी ताकत झोंक कर जब अपने रिक्शे को तुम चढाई पर खींचते हो
मेरा जी बिलकुल डूबने लगता है.

त्वयोह्यमानो विपथे विसंष्ठुले
स्वनायकानामिव दन्तुरान्तरे ।
विचारयेऽहं तव दुःखदुःखितस्
त्वमास्स्व यानेऽथ वहाम्यतः परम् ॥

अपने नेताओं के दिल की तरह ऊबड खाबड खराब रास्तों पर
जब तुम बमुश्किल रिक्शा खींचते हो
तुम्हारे दुःख से दुःखित होकर मैं सोचता हूँ
अच्छा होता तुम्हीं बैठ जाते और मैं तुम्हारा रिक्शा खींचता.

सलज्जचित्तोऽस्म्यपराधबोधतो
मनुष्यताऽत्रास्ति कथं प्रधर्षिता ।
कथं च कश्चित् स्थितिमान् सदासने
तथापरः कर्षति यन्त्रवद्भुवि ॥

अपराध बोध से लजाया हुआ हूँ मैं
सोचता हूँ कि  मनुष्यता कितनी अन्याय ग्रस्त है
कोई तो ऊँचे आसन पर बैठा है

और कोई मशीन की तरह उसे खींच रहा है.


(दो)  

न केवलं कृष्ण
(इतना ही नहीं कृष्ण)


(पेंटिग : Arun Kumar Samadder)
                    

     न केवलं कृष्ण सुमाञ्जलिं मम
                                   गृहाण गन्धान्धितषट्पदावलीम्।
                          अनेकदुष्कर्मविदूषिताङ्गुलि
                                       निजे करे मेऽपि करद्वयम् कुरु ॥

हे कृष्ण,  मेरी इस अंजलि भर को मत ग्रहण करना
जिसमें सुगन्ध की अधिकता से भौंरों को उन्मत्त कर देने वाले फूल भरे हैं
मेरी इन हथेलियों को भी अपने हाथों में ले लेना जिनकी उँगलियाँ अनेक दुष्कर्मों से दूषित हैं.
                                      


  न केवलं कृष्ण पटीरलेपना
                      न्यशान निर्वापकमङ्ग तेऽङ्गके।
           कठोरलोकेषु विघर्षतापितं
                   कदापि मेऽङ्गं निगृहाण चर्चया॥


हे कृष्ण
अङ्गों को सुशीतल करने वाले इस चन्दन के लेपमात्र को  ग्रहण करके
बस मत कर देना 
कठोर संसार में घिस घिस कर व्यथित हुए
मेरे इन अंगों की भी चर्चा को कभी स्वीकार कर लेना

       
   
   न केवलं कृष्ण सुमन्दगन्धितैः
                     सुतृप्य     धूपैर्मधुधूमवन्दितैः।
           तुषाग्निगर्भीकृतमर्म जीवनं     
                      ममापि धूम्रं परिदृश्यतामिदम्॥



हे कृष्ण, केवल मीठे और मन्द सुगन्ध वाले धूपों से ही मत तृप्त हो जाइयेगा
मर्मस्थलों में सुलगते हुए भूसी की आग से धुँआ धुँआ
मेरे इस जीवन की ओर भी थोड़ी दृष्टि डाल लीजियेगा.


          भवेन्नवे ते नवनीतभोजने
                       रुचिः परा गोकुलचन्द्र सुन्दर।
          अथ व्यथामन्थसुमन्थितान्तरं
                        मनो ममापि स्वदतां समर्पितम्॥

हे गोकुल के चन्द्र, सुन्दर श्रीकृष्ण
माखन खाने में आपकी रुचि अगर है तो हो
व्यथाओं पीडाओं की मथानी से  अच्छी तरह मथे गये
मेरे मन में भी आपकी रुचि हो जाय
जिसे मैंने आपको समर्पित किया है.

                  दलं च पुष्पं च फलं तथोदकं
                   शुभं भेवेत्तेऽर्चकवृन्ददापितम्।
                  अपत्रपुष्पे विफले सुनीरसे
                   तदीयजीवेऽप्यवधेहि माधव ॥


तुम्हारे अर्चकों द्वारा समर्पित फूल, फल, पत्ते और जल तुम्हारे लिये
मङ्गमय और पथ्य हों हे कृष्ण
लेकिन तुम्हारा ध्यान उनके जीवन पर भी अवश्य जाये
जिनमें पत्ते, फूल, फल या रस कुछ भी नहीं है.


 गृहाण हे कृष्ण नवार्थसंभृतां
                         रसानुकूलाक्षरसुन्दरीं स्तुतिम्। 
        तथाऽतथासुन्दरवर्णवर्णितां
                                           कथामुरीकुर्वथ मामिकामपि॥


नये नये अर्थों से भरी हुई
रस के अनुकूल
शब्दोंअक्षरों के प्रयोग से मनोहर लगने वाली इस स्तुति को स्वीकार कीजिये हे कृष्ण
और रूखे और फीके वर्णनों  के कारण
वितृष्णाजनक मेरी इस जीवन कथा को भी.



(तीन)
वयं केऽपि कवय
(कवि और शास्त्रज्ञ)
                   

वयं ते कस्तूरीहरिणगृहिणां वंशविभवाः
समन्तात् सीव्यन्तः स्वपरिमलसूत्रैर्दशदिशम्।
गुणानां नो येषां दिविजकुसुमैस्तोलनविधौ
भवन्तस्त्वन्योन्यं विदधति विवादाननुदिनम्॥


हम कस्तूरी हिरनों के वे वंशधर हैं
जो अपने सुगन्ध के सूत्रों से दसों दिशाओं को एक में सी देते हैं
और उन्हीं  सुगन्ध के गुणों की तुलना स्वर्ग के फूलों से करते हुए
आप लोग परस्पर एक दूसरे से रात दिन वादविवाद करते रहते हैं.


भवन्तो वाग्देवीनयनपतितापाङ्गपृषतस्
       तृषावन्तो वृष्ट्यै निबिडितकरा याचनपराः।
वयं धन्याः स्तन्यामृतरससमार्द्राधरपटा
स्तदुत्सङ्गे स्थित्वा विविधविधिभिः क्रीडनकृतौ॥

आप लोग वाग्देवी सरस्वती के नेत्रों से
छलकने वाले कटाक्ष की बूँद की याचना में हाथ बाँधे प्यासे खड़े रहते हैं
और हम धन्य लोग उसके अमृत जैसे दुग्ध से परितृप्त होकर
उसकी गोद में रहकर विभिन्न प्रकार की आनन्द केलियाँ करते रहते हैं.

वयं ते ये वागध्युषितरसना रस्यवचसां
वदामो यद्भङ्गीः कतिचन कवित्वामृतमयीः।
चिरं ताभ्यः काव्याभरणरुचिभिर्भूषणतया
विकल्पाः कल्प्यन्ते कविकुलसमारूढसमयाः॥

सरस्वती के निवास स्थान हमारी जिह्वा पर जब
कवितामृत से पगी कुछ उक्तियाँ आती हैं
तो उसे सौन्दर्यशास्त्री कविसमुदाय में स्वीकृत काव्यशास्त्र की रूढियों में
चिरकाल तक के लिये सम्मिलित कर लेते हैं.
 
यदा वाचां देवी विगलितपदास्मद्वदनतो
बहिष्क्रोडं पुत्रीवदिह तनुते चङ्क्रमविधिम्।
तदा तं सौन्दर्योल्लसितमतयः पिङ्गलविदो
दधत्यन्तःशास्त्रं विषमचरणेषु प्रथमतः॥

वाग्देवी सरस्वती हमारे मुखों से वैसे ही लड़खड़ाती हुई निकलती है
जैसे पिता के गोद से पुत्री के पैर डगमगाते हुए बाहर आते हैं
तब उसके सौन्दर्य से उल्लसित बुद्धिवाले छन्द शास्त्र के ज्ञाता
उस चरण की विषमता को अपने शास्त्र के विषमचरण छन्दों में पहला स्थान देते हैं.

यदास्मद्वाग्ब्रूते सकिलिकिलितं पञ्चषपदा
न्यपूर्वं पूर्वेषामपि नवनवानीति विदितम्।
तदा मन्ये सज्जीभवति भगवान् पाणिनिमुनिः
पुनः स्रष्टुं सूत्रं कुशकरपुटः प्राग्वदनवान्॥

छोटी सी बालिका की तरह हमारी वाणी जब
किलकिलाहट से भरे पाँचछः ऐसे अद्भुत शब्दों का उच्चारण करती है
जो पुराने विद्वानों को भी नये नये लगते हैं
तब उनको सही ठहराने के लिये महावैयाकरण पाणिनि  हाथ में कुश लेकर
पूर्वाभिमुख होकर मानों फिर नये सूत्रों को रचने के लिये तैयार होने लगते हैं.
 
विधातुर्दायादाः नवनवजगत्सर्गनिपुणाः
सरस्वत्याः स्निग्धप्रणयितदृशा प्राणितदृशः।
रसज्ञैराराध्या धनिकनिकरैरीर्ष्यितगुणा
                  वयं लोकालोकोल्लसितमतयः केऽपि कवयः॥

नित नूतन संसार को रचने में कुशल हम
सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के विरासतदार हैं,
सरस्वती के कोमल प्रेम पूर्ण कटाक्षों से हमारी आँखें जीवित हो उठी हैं
हम हैं रसिकों के आराध्य
धनिकों की ईर्ष्या के पात्र, बाह्य और आन्तर जगत् से उल्लसित बुद्धि वाले, हम हैं कवि.



(चार) 
मञ्जुभाषिणी
(पेंटिग : Kumaraswamy B)

मधुराधरामलसुपल्लवोद्गतां हसितप्रसूननिकुरम्बसौन्दरीम् ।
नयनेन हस्तयुगलेन भूरिशो रदनच्छदेन विचिनोमि सुन्दरि!

मधुर अधर के निर्मल पल्लवों पर खिली हुई तुम्हारी हँसी के सुन्दर पुष्पगुच्छों को
हे सुन्दरी
मैं अपनी आँखों से
हाथों से और होठों से बार बार चुनता हूँ.

तव नेत्रयोर्लसदपाङ्गपङ्कजप्रकरावनद्धमनुरागसन्धितम् ।
जयमाल्यमेष रुचिरे! चिरादहं भुवनत्रयस्य विजयीव धारये ॥

प्रेम के धागों से गुँथी
तुम्हारी दोनों आँखों में सुशोभित होते हुए कटाक्षों से बनी इस जयमाला को
हे रुचिरे
मैं तीनों लोकों के विजेता की तरह धारण करता हूँ.

शतकोटितीक्ष्णकरवालभीषणे निशितभ्रु! ते भ्रुयुगले ससाहसम्। 
अपि वारितं मम तु मञ्जुभाषिणि! कुरुते पदानि हृदयं स्खलत्पदम्॥


वज्र की तरह तीखे 
तलवार की तरह खतरनाक तुम्हारे भौंहों पर
मेरा दुःसाहसी मन बार बार लड़खड़ाता हुआ
मेरे बार बार रोकने पर भी अपने क़दम रख ही देता है.

स्मरणे तव स्मररणानुजीवने सुरवाटिकाविहरणानुहारिणि ।
हृदयं मदीयहृदयाधिनायिके! रमणाय मे स्पृहयते निरन्तरम् ॥

हे हृदयेश्वरी
मेरा हृदय निरन्तर तुम्हारी यादों में रमण करना चाहता है
वे यादें जो काम के पौरुष को उज्जीवित करने वाली हैं
और जिनके साथ रहना मानों स्वर्ग की वाटिका में रहना है.

विरहव्यथाऽनिशविकासवासिता हृदये, तव स्थिरतया कदर्थिता।
पतति प्रगेऽश्रुभिरधो विलोचनात् कलपारिजातकुसुमावलिर्यथा॥

तुम्हारा विरह सारी रात खिलकर महकता है
लेकिन तुम्हारी कठोरता से कुण्ठित होने के कारण
प्रातः काल आँसू बन कर आँखों से हर सिंगार के फूल की तरह
गिर पड़ता है.

नवयौवनोदयविलासमाधुरी कविताऽमृताधिकरसा, सुधर्मिता ।
अधुनावधि त्रितयमर्जितं भवे त्वदपाङ्गपातविधये समर्पये ॥


इस जन्म में  मैने अभी तक तीन चीज़े अर्जित की हैं
नव यौवन के विलास का माधुर्य
अमृत के भी रसीली कविता और थोड़ा बहुत धर्माचरण
इन तीनों को मैं तुम्हारे एक कटाक्ष पर निछावर कर दूँगा.

प्रहिता मुदा परमशारदाम्बया बलरामशुक्लरचितासरस्वती ।
जननीव पोषणपरा विदां भवेत् तनुयान् मुदं च तनयेव मानसे ॥

बलराम शुक्ल द्वारा रचित यह कविता
स्वयं पराम्बा सरस्वती द्वारा प्रेषित है यह माता की तरह रसिक जनों का पोषण करे और पुत्री की तरह उनके हृदय को हर्षित करे.

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डा. बलराम शुक्ल : (19 जनवरी 1982, गोरखपुर) 

संस्कृत और फारसी के अध्येता  बा̆न विश्वविद्यालय जर्मनी द्वारा पोस्ट डा̆क्टोरल के लिये चयनित, राष्ट्रपति द्वारा युवा संस्कृतविद्वान् के रूप में बादरायण व्यास पुरस्कारसे सम्मानित, द्वितीय ईरान विश्वकवि सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने हेतु तेहरान तथा शीराज में आमन्त्रित. संस्कृत कविता संकलन परीवाहःतथा “लघुसन्देशम्का प्रकाशन.
मुहतशम काशानी के फ़ारसी मर्सिये का हिन्दी पद्यानुवादरामपुर रज़ा लाइब्रेरी, आदि आदि
सम्प्रति : सहायक प्रोफेसर
संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली ११०००७
ईमेल संकेतshuklabalram82@gmail.com/ / मो. ०९८१८१४७९०३

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  1. (मेरी) संस्कृत कविता को स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद अरुण जी।

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  2. मन को मथ देने के साथ मनोरम कवितायेँ भी

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  3. चकित-विस्मित करने वाली संस्कृत कविताएं|भारतीय मनीषा से ओतप्रोत परंपरा और प्रतिभा का मणिकांचन संयोग|इस सत्प्रयास के लिए साधुवाद|

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  4. संस्कृत कविता की दूसरी परम्परा में जुड़ती कविताएँ. राधावल्लभ त्रिपाठी जी के महत्त्वपूर्ण काम की स्मृति जगाती हुईं.

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  5. जितेन्द्र मिश्र31 मार्च 2016, 3:01:00 pm

    इस गरिमामय प्रस्तुतीकरण के लिए कोटिश: साधुवाद. न ऐसी कविताएँ पढ़ी हैं न इतना उल्लास से भरा यह ऐसा कहीं देखा. आप दोनों को बहुत बधाई.

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  6. बलराम शुक्ल संस्कृत कविता की नई संभावना हैं। कविताएँ और उनके अनुवाद पढ़ते पढ़ते लगा जैसे उगते हुए सूर्य की किरणों ने छुआ।

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  7. क्या सुन्दर कवितायेँ हैं। मुझे ऐसी चीज़ें देख-पढ़कर हमेशा समालोचना से ईर्ष्या होती है।यह ईर्ष्या कायम रहे इसके लिए अरुण जी आप बलराम जी जैसे लोगों से लिखवाते रहिये।

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  8. Great achievement for a practicing poet of the Sanskrit language. Heartiest congratulations!!!

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  9. कविताएं अच्‍छी है ,पर ये मान ली गई है कि संस्‍कृत को नए छंदों की जरूरत नहीं है या फिर बिना छंद के संस्‍कृत संभव ही नहीं है ।

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  10. संस्कृत मेँ दोनोँ तरह की कविताएं सफलतापूर्वक लिखी जा रही हैं।

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  11. इन्हें पढ़ना एकदम नया अनुभव है। क्लासिकल भाषाएँ वर्ना अतीत के फ्रेम में ही पढ़ी-देखी जाती रही हैं। आठवीं कक्षा तक ही हम लोग इसे पढ़ते थे। उन दिनों लगता था कि इस भाषा को या तो पुरातत्ववेत्ता समझ सकता है या हमारे संस्कृत के अध्यापक। हम विद्यार्थी इसे गौरव के आलोक में ही देखा करते थे। पर आज इन कविताओं को पढ़ते वक्त सोच रही हूँ कि क्लासिकल शब्द कितना घातक है और अतीत या गौरव कितने खतरनाक कि एक प्रवाहमान भाषा को अवरुद्ध कर दिया जाता है।
    कविताएँ बेहद सुंदर हैं और समालोचन की टिप्पणी भी उतनी ही सुंदर कि समकालीनता को मैं नए तरह से देख रही हूँ।

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  12. संस्‍कृत की काव्‍यपरंपरा में डा बलराम शुक्‍ल की कविताएं एक नया उन्‍माद पैदा करती हैं। ये कविताएं संस्‍कृत के परंपरागत सौंदर्यबोध को चुनौती देती हुई नए प्रतिमान सामने रखती हैं। हम जानते हैंकि आधुनिक युग में वैसे कवि नहीं रहे पर आज भी प्रो राजेंद्र मिश्र हैं जिन्‍होंने कविता की विभिन्‍न शैलियों -गजल, दोहा, चौपाई, लोकगीत गीत आदि में लिखकर संस्‍कृत कविता को समृद्ध किया है या दिल्‍ली के डा रमाकांत शुक्‍ल जिस रमणीयार्थ प्रतिपादक शब्‍दावली में लिखते हैं तथा भाति मे भारतम् का पाठ करते हैं वह समूचे वातावरण को मंत्राभिषिक्‍त कर देता है। डा बलराम शुक्‍ल ने संस्‍कृत कविता की परंपरा को जनसाधारण की साधारणता से जोड़ा है। एक रिक्‍शेवाले पर जैसी कविता बलराम जी ने लिखी है वह भी कालिदास के सुपरिचित छंद में, वह स्‍पृहणीय है। मुझे इस कविता को पढ कर सुपरिचित गीतकार रामावतार त्‍यागी की मजदूरों पर लिखी कविता याद आती है जिसका एक अंश कवि के सरोकारों को प्रकट कर देता है:

    न गंगाजल न हलाहल न कोई और ही जल हो
    किसी लाचार आंसू काे हमारे भाल पर रखना।

    बलराम शुक्‍ल जी ने कृष्‍ण को भी नए युगालोक में देखा परखा है। सौंदर्य नए मूल्‍यमानों का उद्घाटन किया है। संस्‍कृत साहित्‍य का विद्यार्थी होने के नाते आज भ्‍ाी मानता हूूं कि भाषा का शील और संयम जितना संस्‍कृत में समावेशी है, उतना अन्‍य भाषाओं में नहीं। संस्‍कृत में कुछ प्रतिभावान कवि स्‍फुट श्‍लोकादि तो लिख रहे हैं, पर ऐसी कविताएं जो आज के समय से रुबरू हों, इस दिशा में प्रयत्‍न क्षीण ही नजर आते हैं। अच्‍छा है कि बलराम शुकल जैसे संस्‍कृत के नए कवि आधुनिक हिंदी कविता की तरह अपने कथ्‍य में युगीन समस्‍याओं का वरण कर रहे हैं। प्रो बलराम शुक्‍ल को साधुवाद।

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  13. बहुत ख़ूब । इसे कह सकते हैं , परंपरा का निचोड़ फिर भी नया । समालोचन की पोस्ट पढ़ते हुए हर बार पत्रिका के प्रति आदर बढ़ जाता है।

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  14. समृद्ध अतीत से वर्तमान और भविष्य के बीच पुल जैसी कविताएँ. इनकी मिठास और सम्मोहन का जवाब नहीं.

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  15. वाह ... पढ़ने का सुख क्या होता है वह इन कविताओं को पढ़ते हुए नए सिरे से जाना जा सकता है। बेहतरीन कविताएँ...

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  16. यह अच्छा प्रयोग है. कविता तो पुरानी ही है, मगर संस्कृत के साथ जो मिथक जुड़ा है, इसे तोड़ने के बजाय ये कवितायेँ नई शक्ल देती हैं. मसलन रिक्शे वाले की इस छवि पर सैकड़ों बार अनेक भाषाओँ में लिखा ही गया है, संस्कृत में यह अलग-सी लगती है. बस, इतना ध्यान रक्खें, यह भी कहीं पंडितों का वाग्विलास बनकर न रह जाए. उसके चरित्र आज के सामान्य जन और उसके सरोकार होने चाहिए. नई पीढ़ी को उसके ब्राह्मणों की भाषा वाले मिथक को भी तो तोडना है.

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  17. बलराम शुक्ल की सम सामयिक सँसकृत कविताओँ से परिचित कराने के लिए आप की जितनी प्रशँसा की जाए कम है ।

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  18. बहुत सुंदर. पहले भी यह कहा था. बलराम को बधाई. संस्कृत को पोंगापंथ से बहार निकलना ज़रूरी है.

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  19. संस्कृत साहित्य की परंपरा में जो छंद विधान, अलंकारिता,वाग्मिता,शब्द-भाव की लालित्यता के साथ जो उसके बहुपक्षीय अर्थबोध की अपनी विलक्षणता और गौरव है,सुखद और रोमांचक अनुभव है कि वह सब कुछ नयी भूमि,नए कथ्य और उसके नवोन्मेष के साथ बलराम शुक्ल की प्रस्तुत और विवेच्य कविताओं में हम बड़े संयम,बड़ी विनम्रता और बड़ी अनुभूतिशीलता के साथ एकदम आश्चर्यजनक रूप में पाते हैं।उपमानों,उदाहरणों,प्रतीकों,विंबों और संयमित कथ्य,भाषा और विचारशीलता के साथ अनुभूतियों का ऐसा अकुंठ वर्णन हमारे देखे गए साहित्य में बहुत ही विरल है।सर्वत्र अतियाँ दिखती हैं,बहुत राजनीतिक पक्षधरता और बेवजह करुणा,अति भावुकता और तात्कालिक आक्रोश भी दिखता है पर यहाँ सबकुछ संयमित,संतुलित और सौम्य है पूरी संवेदनशीलता और विचारशीलता के साथ।धन्य-धन्य है।
    आक्रोश भी देखा गया है पर ऐसा संतुलन.

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  20. अद्भुत कविताएँ । रिक्शाचालकों पर तो इतनी मार्मिक कविताएँ हिंदी में भी नहीं हैं । संस्कृत कविता की सूक्तिमयता को बरकरार रखते हुये इनमें हमारे समय को गूंथा गया है । मार्मिक और पठनीय कविताएँ । सलाम !

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  21. बलराम शुक्ल की कवितायें अभी पढ़ी .(मैं कवि से परीचित नहीं था ). रिक्सावाला तो अद्भुत है . शेष भी बहुत खूब . आज कवि का जन्मदिन है . मेरी बधाई . शुभकामनायें .

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  22. श्याम आनंद झा25 सित॰ 2018, 4:31:00 pm

    बलरामजी को जन्मदिवस की शुभकामनाएं। उनसे आग्रह कीजिए कि वे हिंदी में ही लिखें। प्रस्तुत कविताओं में कई कवितांश तो गीतांजलि की कोटि की हैं।
    धन्यवाद।

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  23. मेरे गुरुवर परमादरणीय बलराम सर को जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई

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  24. क्या मैं "रिक्शा" कविता की स्रोत पुस्तक जान सकता हूँ?

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