विष्णु खरे : ‘भारत’-भक्ति को एक और ईनाम की बलि













इस वर्ष का दादा साहब फालके पुरस्कार अभिनेता और निर्माता-निर्देशक मनोज कुमार को दिया गया है. क्या उन्हें अभिनय के लिए यह सम्मान मिला है या फिर निर्देशन के लिए या ‘मनोज कुमार स्टाइल देशभक्ति’ के लिए? आलोचक विष्णु खरे ने बड़े तीखे सवाल उठाये हैं. 
इस आलेख को अलग से देशभक्ति और देशद्रोह पर चल रहे विवादों के सन्दर्भ में भी पढ़ा जाना चाहिए.

  
‘भारत’-भक्ति को एक और ईनाम की बलि                                           
विष्णु खरे 


मानना होगा कि उन्होंने यह कभी नहीं छिपाया कि वह ‘’खुदा-ए-अदाकारी’’ दिलीप कुमार से एक मानसिक बीमारी या प्रेत-बाधा की तरह ग्रस्त हैं और बेशक़ इसमें एक वजह ‘मिड’ और ‘लॉन्ग शॉट’ में उनके अपने आराध्य की शक्ल-ओ-सूरत से मिलने की भी थी. दिलीप  कुमार की समूची भंगिमा और शैली की खूब नक़ल हुई है. मैं राजकुमार को भी आख़िरकार दिलीप-मैथड-स्कूल का एक्टर मानता हूँ. राजेन्द्र कुमार ने दिलीप-स्टाइल और उनके रिजेक्टेड माल को अपना कर जुबिली कुमार का उपनाम और करोड़ों कमाए. यदि दिलीप की बेपनाह कामयाबियों से अस्सी फ़ीसद सीखते हुए उन्हें कोई आगे ले जा सका है तो वह अमिताभ बच्चन ही हैं. बेचारा अपना अमन वर्मा कास्टिंग काउच अभियान में न फँस गया होता तो वह भी दिलीप की ताज़ातरीन बुरी कॉपी न था. लेकिन अगर उनका जीना मुहाल किया तो फ़क़त मनोज कुमार ने. मुझे तो शक़ है कि युसुफ़भाई सुबह से ही इसलिए व्हील-चेयर पकड़ लेते हैं कि कहीं मनोज कुमार मँडराता आता न हो.

लुब्बेलुबाब यह है कि मनोज कुमार मनसा वाचा कर्मणा कभी भी मौलिक अभिनेता नहीं रहे. जुर्म का इकबाल करने से मुआफी तो मिल नहीं जाती, कुछ रियायत अलबत्ता हो सकती है. लेकिन मनोज कुमार ने तो हद कर दी थी. सितम यह था कि वह बज़ाते-ख़ुद बेहद खराब एक्टर और नक्काल थे और उन्होंने दिलीप-शैली को ही एक हास्यास्पद पैरोडी, स्वाँग या भड़ैती में बदल दिया. वह दिलीप की नक़ल करते थे और लोग उनकी उन ‘अदाओं’ पर हँसते थे.एक ऐसा वक़्त आता है जब एक्टिंग या किसी भी सांस्कृतिक क्षेत्र का कोई-न-कोई छोटा-बड़ा ईनाम-सम्मान किसी को देना ही पड़ता है – उसके कई कारण होते हैं, पानेवाले की क़ाबिलियत ही नहीं. बुज़ुर्गियत के मारे-काटे अपने भारतीय समाज में लम्बी उम्र इसमें बहुत मददगार साबित होती है.

हम कह सकते हैं कि अगर मनोज कुमार को उत्कृष्ट अभिनय के लिए इस बार का दादासाहब फालके पुरस्कार दिया गया है तो वह एक भारी भूल’,अन्याय और पक्षपात  है क्योंकि शायद वह स्वयं वास्तविक विनम्रता से मानेंगे कि उन्होंने खुल्लमखुल्ला क़र्ज़ की अदाकारी पर अपना कैरियर बनाया और गुज़ार दिया. यूँ तो कोई भी ऐसा पुरस्कार विवाद से परे या समर्थन का मोहताज नहीं होता फिर भी कुल मिलाकर मनोज कुमार को कभी अल्प-मत से भी काबिल-इ-ज़िक्र अदाकार नहीं माना गया.

हिंदी सिनेमा में मैं अब तक डरते-डरते श्याम बेनेगल, आशा भोसले, हृषीकेश मुखर्जी, बी.आर.चोपड़ा, दिलीप कुमार, लता मंगेशकर, अशोक कुमार, राज कपूर, वी.शांताराम, दुर्गा खोटे, पृथ्वीराज कपूर. नौशाद और सोहराब मोदी को ही फालके-योग्य मान पाया हूँ और पूछता रहा हूँ कि बलराज साहनी, ख्वाज़ा अहमद अब्बास, बिमल रॉय, गुरुदत्त, अमिताभ बच्चन, मुहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, हेमंत कुमार, शम्मी कपूर, जॉनी वॉकर, मोतीलाल, अमरीश पुरी, सईद जाफ़री को वह क्यों नहीं दिया गया और कामिनी कौशल, नूतन, मीना कुमारी, मधुबाला, नर्गिस, वहीदा रहमान जैसी महान अभिनेत्रियों को क्यों नज़रअंदाज़ किया गया ? बेशक़ इस नाइंसाफ़ी में मनोज कुमार का कोई हाथ नहीं रहा और न मैं किसी तरह की असहिष्णुता के प्रतिवाद में उन्हें उसे लौटाने के लिए उकसाऊँगा लेकिन यह ज़रूर याचना करूँगा कि अब वह मुफ़स्सिल अख़बारों में बजरंगबली के किसी चमत्कारी बाजूबंद के इश्तहार में बाबाजी की तरह आने पर पुनर्विचार करें.

लेकिन असली सवाल अभी-भी अपनी जगह पर है – अगर मनोज कुमार को दिलीपकुमार की नक़ल के लिए दादासाहेब नहीं मिला तो क्या पिक्चर बनाने और डायरेक्ट करने के लिए दिया गया? अपने सक्रिय बत्तीस वर्षों में उन्होंने जो फ़िल्में बनाई हैं वह ज़्यादा नहीं हैं – ‘उपकार’ (1967), ’पूरब और पश्चिम’(1970), ‘शोर’ (1972) ,’रोटी कपड़ा और मकान’ (1974), ‘क्रांति’ (1981), ’पेन्टर बाबू’ (1983),’क्लर्क’ (1989) और ‘जयहिंद’ (1999) .इनमें ‘शोर’,’पेंटर बाबू’,’क्लर्क’ और ‘जयहिंद’ फ्लॉप से लेकर सुपर-फ्लॉप तक मानी गई हैं और अंतिम तीन को लेकर मनोज कुमार का खूब मज़ाक़ भी बनाया गया, जबकि बाक़ी चार ने बढ़िया बिज़नेस किया और आराध्य-गुरु दिलीप कुमार की शुभ उपस्थिति वाली ‘क्रांति’ ने तो आज के क़रीब सौ करोड़ रूपए के बराबर कमाई की.

अफ़वाह चली आती  है कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री ने मनोज कुमार अभिनीत भगत सिंह की जीवनी-फिल्म ‘शहीद’ देखकर उनसे कहा था कि वह देशभक्ति से लबरेज़ सिनेमा ही बनाएँ. ताशकंद में अत्यंत रहस्यमय एकांत मृत्यु को प्राप्त होने से पहले शास्त्रीजी इतने नाईव आदर्शवादी  थे कि ‘जय जवान जय किसान’ के साथ-साथ ऐसा भी कह सकते थे. इससे प्रेरित हमारे नायक ने सबसे पहले अपने महदोन्माद (मेगालोमैनिया) में स्वयं को राष्ट्र का प्रतीक बना कर अपनी फिल्मों में अपने चरित्र का नाम ‘भारत’ या ‘भारत कुमार’ रखना शुरू कर दिया और हमारे अधिकांश फिल्म मीडिया ने, जो तब भी जाहिल था, उसे कुछ संजीदगी कुछ शरारत से हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों में चला दिया और पुराने विचित्र सिक्कों या नोटों की तरह अब भी उसे बक्से से निकाल कर याद कर लिया जाता है.


1965 के भारत-पाक युद्ध से इमर्जेन्सी तक के दस बरस देशभक्ति के भारतीय-हिन्दू ब्रांड के थे. बीच में हम पूर्वी बंगाल को भी ‘बांग्लादेश’ में तब्दील कर पाकिस्तान से आज़ाद करवा चुके थे लेकिन अचानक इंदिरा गाँधी की राय हुई कि मुल्क का वुजूद ख़तरे में है और आपात्काल अनिवार्य है .’रोटी कपड़ा और मकान’ के मुहावरे में उनके सिंडिकेट-विरोधी ‘’समाजवादी समाज’’ के नारों की अनुगूँज भी थी. जवाहरलाल नेहरू के सत्रह वर्षों में कभी राष्ट्रभक्ति या हुब्बे-वतन को इतना राजनीतिक, सामाजिक या साम्प्रदायिक हर्बा-हथियार नहीं बनाया गया था. मनोज कुमार ने भगत सिंह और उनके साथियों  की जुझारू, आत्मबलिदानी, सशस्त्र, सेकुलर, वामपंथी क्रांतिकारी सच्ची देशभक्ति को कभी अपनी फिल्मों का विषय नहीं बनाया. उनके यहाँ देशभक्ति का एक ही मतलब था – पश्चिम, पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का  थोक भंडाफोड़ और प्राचीन से लेकर अर्वाचीन भारतीय (कृपया ‘हिन्दू’ पढ़ें) सभ्यता, इतिहास, संस्कृति, इतिहास की उनकी समझ के संस्करण का सॉफ्ट हिंदुत्व वाला प्रचार. देश-विभाजन के बाद जिस वर्णसंकर फ़िर्क़ापरस्त संस्कृति का विकास हमारे यहाँ हुआ, उसे मनोज कुमार मार्का दोमुँही देशभक्ति बहुत पुसाती थी.

विडम्बना यह है कि देश और देशभक्ति न तो ‘उपकार’ के ज़माने में ही वैसे थे और न आज के ‘नव-देशभक्ति’ (Neo-patriotism) के युग में वैसे हैं जैसा हिंदी सिनेमा बना और दिखा रहा है. सस्ती भावुकता, बहादुरी और सतही सोद्देश्यता से भरी, ’मेरे देश की धरती सोना उगले’ या ‘दुल्हन (पहन) चली  तीन रंग की चोली’ जैसी फूहड़  देशभक्ति आज़ादी के बाद भारत सरीखे देश में धर्म की तरह जनता की अफीम रही है. मनोज कुमार को उसी देशभक्ति का प्रतिनिधि अभिनेता-निर्माता-निदेशक मान कर कुल जमा चार फिल्मों के दयनीय सैंटिमेंटल देशभक्त नास्टैल्जिया पर दादासाहेब फालके सम्मान दे डाला गया है क्योंकि अभी जनता की भावनाओं को किसी भी बाज़ारू और सस्ते स्तर पर उभाड़ना ही है. दुर्योधन की तरह विदेशी तालाब में सुरक्षित ललित मोदी और सांसद मल्य जैसे मगरमच्छों  पर ध्यान नहीं जाना चाहिए. कन्हैया, रोमुला, दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी, काले पैसे, और करोड़ों का जुर्माना भर कर यमुना तट पर नटखट विश्व सांस्कृतिक रास-रचैयों  आदि पर प्रश्न उठानेवाले भी देशद्रोही हैं. हमें अभी ‘’भारत कुमार’’ जैसे देशभक्त चाहिए जो उन पर कभी फ़िल्म न बनाएँगे न बनने देंगे.
______________
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल )



विष्णु खरे 
(9 फरवरी, 1940.छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश)
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

18/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. मनोज कुमार को दादा फालके अवार्ड क्या मिला , कुछ बौद्धिक लोगों को गवारा नहीं हुआ। विष्णु खरेजी ने भी एक लेख लिख दिया । शीर्षक दिया भारत भक्ति को एक और ईनाम की बलि । कोई भी पुरस्कार कसौटियों पर कसा जाना चाहिए। लेकिन लेख में हमारे पूर्वाग्रह भी नहीं झलकने चाहिए। मनोज कुमार बेशक दिलीप कुमार देवानंद राजकपूर बलराज साहनी के स्तर के कलाकार न हो। बेशक गुरुदत्त , सत्यजीत राय, के स्तर पर फिल्म निर्देशक न हों, लेकिन फिल्म जगत को उनकी बड़ी सार्थक सेवाएं है। उपकार, शहीद, शोर हरियाली ओर रास्ता, पूरब पश्चिम जैसी फिल्में हमारी धरोहर हैं।
    मनोज कुमार ने अपनी फिल्मों के लिए बहुत अच्छे गीत लिखवाएं। शंकर जयकिशन और लक्ष्मीकांत प्यारेलालजी से बहुत अच्छा संगीत तैयार करवाया। मेरे देश की धरती, ये मेरे प्यारे वतन, इक प्यार का नगमा है, बोल मेरी तकदीर में क्या है, कस्मे वादे प्यार वफा, मेरा रंग दे बसंती चोला , पानी रे पानी, हे प्रीत जहां की रीत सदा, जिंदगी की न टूटे लड़ी जैसे कई गीत आज भी मन से सुने जाते हैं।
    मनोज कुमार ने अपनी फिल्मों में भारतीयता को संदर्भ बनाया। और वह उसमें सफल रहे। स्वतंत्र हुए भारत में उनकी शहीद, उपकार जैसी फिल्में आना जरूरी था। बिष्णु खरेजी का चाहे अपना जो मूल्यांकन हो। लेकिन देश के दूसरे प्रधानमंत्री ने स्व लाल बहादुर शास्त्रीजी ने भी मनोज कुमार की सराहना की थी। उस मानसिकता का क्या करें जिसमें मेरे देश की धरती सोना उगले जैसे गीत की आलोचना केवल यह कहकर की गई कि रहट की आवाज शहनाई की तरह नहीं होती। वे उस भाव तक नहीं गए कि रहट का भारतीय जीवन में क्या महत्व है और रहट उसे किस तरह शहनाई की आवाज की तरह लग सकती है। रहट का चलना उसके जीवन का चलना है।
    हमारे देश की पत्रकारिता का सबसे खराब पक्ष यही है कि वह वामपंथ और दक्षिणपंथ में सिमट कर रह गई है। इसलिए कई बार यह भी दिखता है कि सेफ अली खान को पद्मश्री मिलने पर जो कलम नहीं चलती वह मनोज कुमार को दादा फालके अर्वाड मिलते ही मुखर हो जाती है। कारण यही है कि केवल मनोज कुमार को सहना नहीं है। यही दक्षिण पंथ में भी है। उनके भी अपने आग्रह होते हैं। मनोज कुमार को अर्वाड मिलने पर जो मन से प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहे हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि एक वर्ष पहले जिन शशि कपूर को अवार्ड मिला, क्या मनोज कुमार उनसे किसी मायने में कम है। लेकिन तब कोई स्वर नहीं उठा। क्योंकि बौद्धिक धारा में दिक्कत शशि कपूरों से नहीं होती, मनोज कुमारों से होती है। हमें इससे बाहर आना चाहिए। विष्णु खरे अतिवाद के शिकार हैं यहां तक कहते हैं कि कन्हैया के खिलाफ बोलने वाले देशद्रोही है।

    जवाब देंहटाएं
  2. उम्दा सवालों से पूरित बेहतरीन लेख।पढ़कर बहुत कुछ जाना। धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. विष्णु खरे की यह टिप्पणी बहुत ज़रूरी और समसामयिक है । इस तथाकथित देश - भक्ति के चोंचले को उन्होंने बडे अच्छे तरीके से बेनकाब किया है ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छा और सच्चा लेख

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-03-2016) को "एक और ईनाम की बलि" (चर्चा अंक-2281) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  6. बढ़िया लिखा खरे जी ने। यहाँ उनियाल जी की टिप्पणी भी मुझे सार्थक लगी। जैसे हम प्रायोजित समय में जी रहे हैं।

    जवाब देंहटाएं
  7. प्रज्ञा पाठक13 मार्च 2016, 8:42:00 pm

    जरूरी लेख.बतौर अभिनेता दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मनोज कुमार को दिया जाये या कल अभिनय की दुनिया में प्रवेश करने वाले किसी नौसिखिये को मुझे फर्क नहीं पड़ता .अधिक से अधिक उनके चयन की क्षमता पर बातचीत होती .फर्क पड़ता है तब, जब अभिनय कला और देशभक्ति का घालमेल किया जाता है .देशभक्ति का सारा रूपक दो स्तम्भों के सहारे खड़ा किया जा रहा है - एक ओर वे हैं जिनकी देशभक्ति 15 अगस्त और 26 जनवरी को जागती है और भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान अपने चरम पर पहुँचती है और दूसरी ओर वे जो दूसरे देशों में रह कर जीवनयापन करते हैं ,जो अपने दिमाग का सर्वश्रेष्ठ उन देशों को समर्पित कर चुके होते हैं जहाँ वे काम करते हैं. उनके दिल की नॉस्टॅल्जिक भावनाएं और अपने देश से दूर रहने का दर्द भुना कर सारा वितान रचा जा रहा है.देशभक्ति बनाम देशद्रोह का ये खेल खतरनाक है .

    जवाब देंहटाएं
  8. Manoj Kumar was a mediocre actor, hiding his face from audience all the time. Director? Less said better.

    जवाब देंहटाएं
  9. सार्थक विश्लेषण करने वाला लेख, सच में कितने ज़रूरी कलाकार वंचित रह जाते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  10. मनोज कुमार पर आपका लेख पढ़ा। बहुत शानदार लिखा है। नकली दिलीप कुमार से हिंदी
    जगत का परिचय कराने के लिए बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  11. Manoj ji ka itna satik visshleshan khare sahab nahi likhte agar modi sarkar ne unhe puraskar se navaja na hota dhanyavad khare sahab desh ko asli aajadi gandhi ne dilai bhagat singh aur dusre krantikari to masti ke liye goilyan chalate the .

    जवाब देंहटाएं
  12. कांग्रेस ये पुरस्कार देती तो यह लेख नहीं लिखा जाता।

    जवाब देंहटाएं
  13. आप लोग नाहक़ खोट निकाल रहे हैँ. देशभक्ति को भुनाते भुनाते भारतकुमार ख़ुद भुन गए. उन्हेे भारतरत्न मिलना चाहिए था. दादा फाल्के सम्मान उन के लिए बहुत छोटा है

    जवाब देंहटाएं
  14. पहली बात विष्णु खरे जैसे over smart बुद्धिजीवी की हम हिन्दी भाषी लोगों को कोई ज़रूरत नहीँ है.मुझे लगता है कि इन्होंने उर्दू भाषा का कुछ अध्यन कर लिया है , उसी पर इठलाते हैं , दूसरी इनको सिनेमा की समझ बहुत सीमित है.सिनेमा केवल ज्ञानी (so called intellectual )लोगों के लिये नहीँ बनता , वह आम जनता के लिये बनता है मनोरँजन के लिये . और एक बात , realistic cinema कोई भी technical knowledge वाला बना सकता है लेकिन मनोरंजक सिनेमा बनाना बहुत मुश्किल है.बहुत से realistic cinema बनाने वालों ने मनोरंजक (commercial ) सिनेमा बनाने की कोशिश की लेकिन औंधे मुँह गिरे. खरे जी मनोज जी के लिये कुछ भी बोलने के लायक नहीँ हैं

    जवाब देंहटाएं
  15. समालोचक महोदय का वामपंथी विचारधारायुक्त एक निम्न स्तरीय लेख ........ लेखक अपनी उम्र को याद करे क्योकि अब तो चलने-चलाने की बेला आ चली है........ पर उफ़ ....भारत विरोधी मानसिकता के पोषक जन्तुओ का प्रतिनिधित्व करते करते न जाने कितने बुर्जुग हो गये मर गये पर उनकी आँखों को वो ना दिखा जो वो देखना चाहते थे ....... टुकड़ों में देश को बाटने की चाह रखने वालों ..... जनता तैयार बैठी है ....... साथ मै पप्पू को लो या पोनिया , ओवैसी लो या खुजलीवाल या अन्य कथित खोखले सेकुलर ..... कुछ नहीं कर पाओगे अब .....ख़त्म हो रही है आप सभी की की दुकान...... आमीन

    जवाब देंहटाएं
  16. बहुत समयोचित और सच का बखान.

    जवाब देंहटाएं
  17. मिथिलेश श्रीवास्तव15 मार्च 2016, 10:19:00 am

    समालोचन पर दादा साहेब फाल्के अवार्ड पर विष्णु खरे की टिप्पणी पढ़ी। उनका आलोचकीय दृष्टिकोण, उनकी तीखी भाषा, भाषा की भंगिमा और ख़ौफमुक्त अभिव्यक्ति हमें पसंद हैं । विष्णु खरे हमारे समय के सबसे बड़े कवि, विचारक और संस्कृति और सामाजिक और साहित्यिक आलोचक हैं ।

    जवाब देंहटाएं
  18. सिनेमा का योगदान केवल कलाकार की अभिनय-प्रतिभा पर ही नहीं अपितु समग्रता पर भी आंकी जाती है।यही कारण है कि बिना इसके कभी-कभी मंजे हुए कलाकारों की फिल्में भी असफल होती हैं।सिनेमा का उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ समाज में एक स्वस्थ संदेश देना भी है।मनोज कुमार की फिल्में इस कसौटी पर खरी उतरने में कहीं से भी असफल नहीं दिखती हैं।लेखक को इस में कौन सी बुराई दिखती है अगर एक कलाकार(मंजा हुआ नहीं ही सही)ने देशभक्ति से ओत-प्रोत फिल्में बनाकर दर्शकों का उससे ज्यादा मनोरंजन किया जितना कि किसी उत्कृष्ट कलाकार की औसत या फुहड़ फिल्म कर पाती।उनकी अधिकांश फिल्मों ने न सिर्फ जनमानस के बीच पैठ बनाई बल्कि व्यावसायिक दृष्टि से भी सफल रहीं।आज भी उनकी फिल्मों के गाने सुनकर जोश जागता है जो आज के लब्धप्रतिष्ठ कवियों की कविताओं से नदारद है।सीमाओं की सुरक्षा और देश की अखंडता ऐसी ही भावनाओं से प्रेरित हो महफूज़ रहती हैं।अगर इस भावना को जगाने में मनोज कुमार की फिल्में जरा भी सफल रहीं हैं तो करोड़ों लोगों के लिए यह प्रेरणा का विषय हो सकता है।वर्ना आधा मस्तक कश्मीर और आधी बांह अरूणाचल के रूप में गंवाते हुए यह देश माननीय नेहरू के दूरदर्शी नेतृत्व में देखा है

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.