शायर शकेब जलाली
उत्तर-प्रदेश के बदायूं के रहने वाले थे, विभाजन में पाकिस्तान चले गए जहाँ १९६४ में उन्होंने आत्महत्या कर ली. उनका एक शेर
है –
काँटों की बाड़ फांद
गया था मगर शकेब
रस्ता न मिल सका
मुझे फूलों की बास में.
हर जगह निर्वासन का
यही दर्द है. टर्की
के पास डूबे सीरियाई बच्चे ‘आलैन’ ने पूरे
विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा. उसके लिए
चित्र बनाये गए, कविताएँ लिखी गयीं. विष्णु खरे की ‘आलैन’ पर लिखी मार्मिक कविता की एक पंक्ति है – ‘जहाँ कहा गया
था तेरे बहुत सारे नए दोस्त तेरा इन्तिज़ार कर रहे हैं’.
हमारे
आसपास विस्थापितों का एक हहराता समुद्र है. ओम निश्चल का यह वृतान्त केवल तथ्यों का पहाड़ नहीं खड़ा करता इसमें दर्द और पीड़ा
का महासागर भी है.
‘हमने जितने ज्यादा जूते नही बदले उससे
ज्यादा मुल्क बदले’
बेघरी
का आलम और दर-बदर मनुष्यता
ओम निश्चल
देखा हो
तो मुझे भी उसका पता दें
न देखा हो
तो मैं आपको भी
सहानुभूति तो दे ही सकता हूँ
मानव हो कर भी हम-आप
अब ऐसे घरों में नहीं रह सकते
जो प्रकाश के घेरे में हैं
पर हम बेघरों की परस्पर हमदर्दी के
घेरे में तो रह ही सकते हैं.
तुम जो इस सैलाब से उबर कर निकल आए हो
जिसमें हम डूब गए
याद रखना जब हमारी विफलताओं पर बात करना
तो उस अंधेरे समय के बारे में बात करना मत
भूलना
जिससे तुम बच कर निकल आए हो
हमने जितने ज्यादा जूते नहीं बदले
उससे ज्यादा मुल्क बदले
युद्धों और हताशाओं से गुजरते हुए
जहां केवल अन्याय था और कहीं कोई
प्रतिकार नहीं.
(टू दोज़ बार्न लेटर, बेख्त, बर्तोल्त ब्रेख्त:
पोयम्स, 1913-1956)
ब्रेख्त की कविताएं पढ़ते हुए लगता है यह
एक कवि की पीड़ा नहीं है, यह समूची मनुष्यता की पीड़ा है जो दुनिया में
अपनी रिहाइश की तलाश में दर ब दर हो रही है. यों तो कहने को पूरी दुनिया मनुष्यों
का ही घर है किन्तु समस्त मानवाधिकारों पर विमर्श के बावजूद लाखों करोड़ों लोग
पूरी जिंदगी एक घर की तलाश में बिता देते हैं. वे अपनी जड़ों से उखड़ते हैं या
इसके लिए बाध्य किए जाते हैं तो फिर किसी दूसरे मुल्क में शरण खोजते हैं और वे
वहां जा पहुंचते हैं जहां दाना पानी लिखा होता है. ऐसी स्थिति में जरा उनकी सोचिए
जो किसी न किसी कारणवश अपने ही मुल्क से खदेड़ दिए जाते हैं और किसी अन्य मुल्क
में शरण ले लेते हैं. बेघर होने की पीड़ा या पराये मुल्क में जिस तरह का व्यवहार
उनके साथ किया जाता है, वह कितना त्रासद होता है, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. यहां से गिरमिटिया मजदूर बन कर
जो लोग फीजी, सूरीनाम, गयाना, त्रिनीदाद आदि मुल्कों में ले जाए गए वे अपने देश और संस्कृति से
छिन्नमूल होकर वहां बसे. वहां की ज़मीन को उर्वर बनाया. पर जहां तक अधिकारों का
प्रश्न है, वहां के मूल नागरिकों की तरह वे स्वीकार नहीं
किए जाते. इससे भी बदतर स्थिति यह है कि जहां जहां जिन मुल्कों में अंग्रेज, फ्रेंच या अन्य शासकों के उपनिवेश बने, वहां उन मुल्कों
के मूल नागरिकों से गुलामों की तरह व्यवहार किया जाता था. अविकसित या अल्पविकसित
राष्ट्रों ने गुलामी की जंजीरों को निकट से महसूस किया है.
भारत में लंबे अरसे तक मुगल व अंग्रेज
शासकों का आधिपत्य रहा. लिहाजा यहां के नागरिकों को गुलामी की कितनी लंबी यातना
से गुजरना पड़ा. ब्रिटिश उपनिवेश से पार पाने में यहां के देशवासियों व स्वतंत्रता
सेनानियों को लंबा संघर्ष करना पड़ा है. अफ्रीका भी सुदीर्घ समय तक विदेशियों का
उपनिवेश रहा है जिसका फल यह हुआ कि दक्षिण अफ्रीका को आजादी कितनी देर से मिली.
दक्षिण अफ्रीका के गांधी कहे जाने वाले नेल्सन मंडेला ने लगभग आधी से ज्यादा
जिंदगी जेलों में गुजार दी. यह आजादी मांगने का प्रतिफल था. अफ्रीकी नेशनल
कांग्रेस का एक लंबा संघर्ष चला. रंगभेद की निंदा दुनिया के तमाम प्रगतिशील मुल्कों
ने की फिर भी दक्षिण अफ्रीका को आजाद होने में लंबा समय लगा. अफ्रीकी कविताओं को
पढने से वहां के मूल निवासियों की पीड़ा का अनुमान लगता है. जिन दिनों अफ्रीका में
रंगभेद चरम पर था, वहां के कवि डान मातेरा को पढ़ने का अवसर
मिला. उसकी कविता में अश्वेत चेतना की अभिव्यक्ति देखें.
मैंने जब रोटी मांगी
उन्होंने मुझे गेहूं के खेते दिए
और कहा कि वे मुझे प्यार करते हैं
मैंने पानी मॉंगा और
उन्होंने मुझे कुऑं ही दे दिया
यह कहते हुए कि उन्हें मुझसे सहानुभूति
है.
क्योंकि मैंने उनकी मोहब्बत पर यकीन
किया
क्योंकि मैंने उनकी सहानुभूति को यथार्थ
माना
इसलिए एक दिन मैंने उनसे अपनी आजादी चाही.
तब उन्होंने गेहूँ का खेत छीन लिया
और मुझे कुऍं से वंचित कर दिया
उन्होंने मुझे भारी भरकम सींकचों में कैद
कर दिया
और मुझसे कहा कि
बहुत ज्यादा मांग रहा हूँ. (ए बुक आफ
अफ्रीकन वर्स)
सच है, पराधीन सपनेहुं सुख नाही. पर बेघरी का आलम यह
कि रोजी रोटी के निमित्त अपना मुल्क छोड़ कर दीगर मुल्कों में बसना ही पड़ता है
और वहां की विपदाओं को सहना ही पड़ता है. यह भी दूसरे शब्दों में विस्थापन ही है.
दुनिया में विस्थापितों की बड़ी तादाद है. विस्थापन के मुद्दे पर चिन्मय मिश्र
कहते हैं कि 'यूरोप को अपने कल-कारख़ानों के लिए कच्चे माल की
आवश्यकता थी इसलिए सारी दुनिया की खनिज संपदा पर उनकी निगाह पड़ी. इस तरह ज़मीन के
नीचे दबे खनिजों को बड़े पैमाने पर निकालने के लिए उन पर बसे आदिवासियों को
खदेड़ने की जो शुरुआत तीन शताब्दियों पूर्व हुई थी वह आज भी जारी है. सिर्फ नाम
बदल गए हैं पहले उनमें से एक ईस्ट इंडिया कंपनी थी, अब वेदांता है और यह अजीब सा
दुर्योग है कि दोनों के मुख्यालय लंदन में ही हैं.'
पर इसकी वजह से आदिवासियों का जिस व्यापक पैमाने पर विस्थापन हुआ, उन्हें उनके ही इलाकों से खदेड़ा गया वह त्रासद है.
कहा जाता है उड़ीसा की नियमगिरि पहाड़ी से एल्यूमिनियम निकालने के लिए वेदांता
के आने से वहां निवास करने वाली डोंगरिया कोंध जनजाति विस्थापित की भारी विभीषिका झेल
रही है. इन आदिवासियों का कहना है कि जब नियमराजा ने हमें खाने-पीने की सारी चीजें
जमीन के ऊपर दे रखी हैं तो हम पहाड़ को उत्खनित क्यों करें.
आए दिन कभी बांध,
चांदमारी, यूरेनियम की खान या बिजली
परियोजनाओं के लिए लोगों को विस्थापित होना पड़ता है और दर बदर की ठोकरें खानी
पड़ती हैं. विकास की कीमत पर प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यता जिस तरह
के उजाड़ और विस्थापन से गुजर के दौर से रही है,
उसकी कीमत भी मनुष्य को उठानी पड़ रही है. पर न बांध से हमने सबक लिए न खनन
परियोजनाओं से. टिहरी और हरसूद जैसे हादसे इसके प्रमाण हैं. उत्तराखंड की तबाही
और चेन्नई में असमय बारिश का कहर वे चेतावनियां हैं जिन्हें हमने अब तक अनुसना
कर रखा है. विकास और आधुनिकता की होड़ ने मानवीय जीवन को कितना जटिल और निरीह बना
दिया है. पारिस्थितिकी के असंतुलन ने पर्यावरण की चूलें हिला दी हैं. इसका दुष्परिणाम
यह है कि किसी भी इलाके में ऐसी आपदाएं आती हैं भूकंप,
सुनामी, बाढ. या भूस्खलन---इससे हजारों लाखों
लोग विस्थापन का शिकार होते हैं. घर से दर-ब-दर होते हैं. पिछले बरस दक्षिण
अफ्रीकाके कुछ शहरों में जाना हुआ.
दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी के बीस साल पूरे होने पर
वहां होने वाले साहित्योत्सव के साहित्यिक दल में शामिल होकर अच्छा लगा. यह
जानकर और भी कि यही वह देश है, जहॉं कभी महात्मा गॉंधी आए थे.
यहॉं रहकर उन्होंने भारतीय नागरिकों को सम्मान दिलाने और उनकी सम्मानजनक रिहाइश
के लिए महत्वपूर्ण कार्य किए. जिस अफ्रीका में वहॉं के अपने नागरिकों की ही सुनवाई
न हो, वहॉं भारत जैसे राष्ट्र के लोगों की क्या स्थिति
होगी, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. वहॉं
भारतीयसमुदाय के लोगोंको देखकर यह अवश्य लगा कि वे वहॉं अपने-अपने रोज़गार में
संलग्न हैं और उनके पास जीविका के सम्मानजनक संसाधन भी हैं पर फिर भी उन्हें
वहॉं रहते हुए हर वक्त यह अहसास अवश्य होता है कि वे अपने देश मे नहीं, हज़ारों किलोमीटर दूर,
एक पराए देश में रह रहे हैं, जहां
खोजने पर आम का पौधा बड़ी मुश्किल से मिलता है. तुलसी के पौधे भी किसी विरल
धर्मपरायण व्यक्ति के ऑंगन में ही मिलेंगे किंतु इन भारतीयों के बीच जोड़ने वाली एक
कड़ी ऐसी है जो सबको परस्परता में बॉंधे रहती है. जिस रंगभेद के विरुत्द्ध भारत ने
पूरे मन से अफ्रीकियों का साथ दिया, उसी दक्षिण अफ्रीका में आज
अफ्रीकी नागरिक भारतीय समुदायों पर हमलावर हो उठते हैं. यहॉं तक कि जिन इलाकों में
कभी भारतीयों की बस्ती सघन हुआ करती थी, वहॉं से इसी भय के कारण उजड़कर
भारतीय समुदायों ने अपने घर, अपने समुदायों के बीच बना लिए
हैं. कभी इस बारे में विस्तार से बातचीत कीजिए तो भारतीय परिवारों का यह दर्द छिपा
नहीं रहता कि जिन अफ्रीकियों के साथ भारतीयों ने राजनैतिक तौर पर अपनत्व-भरा रिश्ता
निभाया है, वे औपनिवेशिक शासकों के अलावा भारतीयों को भी लगभग उपेक्षा
की नज़र से देखते हैं.
ब्रिटेन: परायेपन के अहसास के साथ नेपाली
बेघर होने और एक पराई संस्कृति के बीच अपनी जड़ें
जमाने में समय लगता है. कोई व्यक्ति या समुदाय ऐसे किसी पराए देश में अंत तक अपने
को छिन्नमूल ही समझता है, जहॉं वह पैदा नहीं हुआ, भले
ही उस समाज में उसकी तालीम और परवरिश हुई हो लेकिन हर जगह उसे लगता है कि वह दोयम
दर्जे की नागरिकता का शिकार है. उसे विदेशी मिट्टी अपनी नहीं लगती. वहां की
बोली-बानी हर वक्त पराएपन का अहसास कराती है. ब्रिटेन में ही बसे नेपालियों को लें
तो हम देखते हैं कि ब्रिटेन में प्रवासी नेपालियों की तादाद बहुत है. वहॉं पाकिस्तानी
लगभग 1.2 मिलियन, बांग्लादेशी लगभग 560,000, भारतीय 1.4 मिलियन और श्रीलंकाई
अनुमानत:500000 की संख्यामें होंगे. ब्रिटेन के 2001 की जनगणना के मुताबिक मात्र
5943 व्यक्ति थे जो नेपाल में पैदा हुए थे लेकिन 2004 की शुरुआत में बड़ी संख्या
में नेपाली वहॉं आए और कुछ ही वर्षों में ब्रिटेन में इनकी तादाद बढ़ने लगी. अनेक ब्रिटिश
नगरों में नेपाली रेस्तरॉं खुले, जिनके नाम गुरखा अथवा एवरेस्ट
हुआ करते. उन्हें स्वयंभ, अथवा देवी कुमारी के पोस्टरों से
सजाया गया होता और वहॉं उत्तर भारतीय भोजन उपलब्ध होता.
2011 की जनगणना में
इंग्लैंड और वेल्स में नेपालियों की तादाद 60,202
दर्जकी गई. बहुत थोड़े समय में ब्रिटेन में नेपालियों ने लगभग 400 संगठनों का गठन
किया है. इन समूहों का जुड़ाव नेपाल से है, किंतु
ये हुड़ाव कितना सघन है, यह इससे जुड़ी शख्सियतों पर निर्भर करता है. निस्संदेह इन
सूत्रों ने हाल के वर्षों में सोशल मीडिया का लाभ उठाया है. कुछ ब्रिटेन केंद्रित
समूह नेपाल में चेरिटी अथवा निवेश के लिए पर्याप्त राशियां भी जुटाते हैं. यहॉं हिंदू, बौद्ध, किरंत, बौन
एवं ईसाई धार्मिक संगठन हैं, गोरंग, तमू, मगर, तवांग, शेरपा, नेवार, छेत्री, थकाली, लिंबू एवंराय जैसे संगठन भी हैं. कुछ गुरखा संगठन भी बने हैं
जो गुरखा सैनिकों के समूहों को एक मंच प्रदान करते हैं, उन्हें
बुनियादी प्रशिक्षण देते हैं और गुरखा अधिकारों एवं गुरखा कल्याणकारी गतिविधियों
के सहयोग के लिए अभियान भी चलाते हैं. इनके साहित्यिक,
सांगीतिक,खेल-कूद और
युवा संघ भी हैं,डॉक्टरों, नर्सों, इंजीनियरों, कारोबारियों और मीडिया प्रोफेशनल्स
के संगठन भी हैं और मुद्दा आधारित एवं नेपाल के राजनैतिक दलों से संबंधित राजनैतिक
संगठन भी. यहां कुछ अंतर्राष्ट्रीय नेपाली संगठन और धर्मादा संस्थाएं भी हैं जो
सभी नेपालियों को एकसूत्र में जोड़ने का प्रयास करती हैं और नेपाल में विकास कार्य
अथवा शिक्षा हेतु सहयोग उपलब्ध कराते हैं.
अधिकांश संगठन कम-से-कम
एक ग्रीष्म समारोह और वार्षिक उत्सव अथवा आम बैठक का आायोजन करते हैं. वार्षिक
नेपाली मेले के दौरान तमाम समूह एकत्रित होते हैं और गतिविधियों में हिस्सा लेते
हैं. उदाहरण के लिए किरात राय याओक्ख, ब्रिटेन देश भर में सभी रायों को एक मंच पर लाता है तथा
मिल-जुलकर मई में शनिवार के दिन सकेलाऊ भावली त्योहार मनाता है.नेपालियों ने यहां
पर अपनी संस्कृतियों को महफ़ूज़ रखा है. आपस में नाच-गाना, मिलना-जुलना चलता रहताहै. इनके खेलकूद समारोह
होते रहते हैं. सामूहकिता के बावजूद लोग बिना किसी आर्थिक उपार्जन के सांप्रदायिक सौहार्द के लिए काम
करते हैं. पर सब कुछ गुलाबी गुलाबी ही नहीं है. संगठनों में तनाव भी पैदा होते हैं
पर वे सुलझा भी लिए जातेहैं.
ऐसा नहीं कि सब कुछ
बहुत आसान था नेपालियों के लिए ब्रिटेन में. अपनी रिहाइश अपने सम्मान के लिए उन्हें
खासा संघर्ष करना पड़ा है. स्थानीय जनता के साथ कुछ नोंकझोंक भी होती रही है.
अनेक गुरखा सैनिक जो वहां जा बसे, बहुत बुजुर्ग थे, कम बोलते थे, अंग्रेजी नही जानते थे, सीधे गांव से ब्रिटेन आए थे. उन्हें यूके में बसने का अधिकार
तो मिल गया था ; केवल पेंशनयाफ्ता थे जिनकी पेंशन
नेपाल के अनुसार तो पर्याप्त थी पर यूके के लिहाज से बेहद कम. अचानक नेपालियो की
तादाद बढते देख जनवरी 11 में वहां के स्थानीय सांसद जेरल्ड हावर्थ ने प्रधान मंत्री को खुला खत लिखा और
कहा कि स्थानीय अधिकारियों व इसके नेता के लिए यह चिंता का विषय है कि इस भीड़ के
कारण उनकी सेवाएं खतरे में हैं. इससे समुदाय के भीतर तनाव पैदा हो रहा है तथा खास
कर नेपालियों की अल्प साक्षरता व अंग्रेजी की सीमित समझ के कारण उन्हें एक व्यवस्थित
समुदाय में एकीकृत करने में बाधा आ रही है.
भीड़ की बात को
नेपाली समुदाय के स्थानीय नेताओं द्वारा भड़काऊ माना गया पर सांसद निश्चय
मतदाताओं की भावनाओं को टटोल रहे थे. वे प्रभात फेरी के नेपाली रीति रिवाज से
अनभिज्ञ थे और समूह में नेपालियों के इकट्ठे होने को खतरा मानते थे. नेपालियों से
बीमारी फैल सकती है, कालरा हो सकता है, इस तरह की बातें भी फैलाई गयीं. नेपालियों, टीबी और कालरा के बीच पारस्परिक सूत्र भी जोड़े गए. सांसद के
पत्र से दुष्प्रेरित होकर उस वक्त पापुलर ब्रिटिश मीडिया में यह बात लिखी गयी कि
बूढे पूर्व गुरखा यहां रह रहे हैं ओर वे जोआन्ना लूम्ली पर दोषारोपण कर रहे हैं
जिसने गुरखा बंदोबस्त अधिकारों की लड़ाई जीतने का अभियान चलाया और झूठे वायदों पर
उन्हें ब्रिटेन लाए. बाद में जब एक औरत को डाक्टर का अपाइंटमेंट नहीं मिल सका तो
उसके पति सैम फिलिप्स ने उस इलाके में रहने वाले नेपालियों को केंद्र में
रखते हुए लूम्ली की वसीयत नामक फेसबुक पेज बनाया. इस पर काफी बहस चली और एक मिशन
स्टेटमेंट जारी किया गया कि जाति-नस्लवादी पोस्टें मिटा दी जाएंगी तथा इसके लिए
उत्तरदायी माने गए सदस्यों को समूह से निकाल दिया जाएगा. बाद में अपनी अलग राय
रखने वालों ने इस समूह से हटाए जाने के बाद कुछ दूसरे छोटे-छोटे समूह बना लिए और
फेसबुक पेज बंद कर दिया और गैर जातीय इरादों के बावजूद लूम्ली की वसीयत इस तरह की
चिंताओं को लेकर जारी रही. बाद में स्थानीय लेबर कौसिंलर के सुझाव पर एक अलग
फेसबुक पेज भी बनाया गया --- वी लव द गुरखाज़ नाम से ताकि नकारात्मक
प्रचार से निपटा जा सके.
जब युवा लोगों का
गुस्सा फूटा तो कहीं अनिष्ट न हो जाए इसलिए पुलिस और कम्युनिटी कामगारों ने बीच
बचाव किया. इसके बाद 4 फरवरी 2012 को एल्डरशाट में किंग्स सेंटर में एक बड़ा
आयोजन किया गया : बेस्ट आफ बोथ, जिसमें गेरल्ड हावर्थ व ब्रिटिश
गुरखा वेलफेयर सोसाइटी के चेयरमैन टिकेंद्र दीवान, व
ग्रेटर रशमूर नेपाली सोसाइटी के प्रेसीडेंट शामिल हुए. वहां गुरखा सैनिक चैरिटीज़, रशमूर बोरो कौंसिल स्थानीय
पुलिस व नेपाल में काम कर रही चैरिटीज के काम को प्रदर्शित करने वाले स्टाल लगाए
गए . नेपाली और स्थानीय ब्रिटिश युवकों
की एक नई फुटबाल टीम गठित की गयी और यह सारा आयोजन लुम्लीज़ लेगेसी फेसबुक फोरम
की ओर से सैम फिलिप्स ने किया. हालांकि कुछ
सीमा तक शांति बहाल हुई और हिंसा को रोका जा सका पर वर्तमान सामुदायिक
संबंध बहुत दुरुस्त नहीं कहे जा सकते. ब्रिटेन के बहुपठित अखबार 'द डेली मेल' ने इस दुखद प्रकरण पर कई आन लाइन लेख
प्रकाशित किए.
घर से दूर ब्रिटेन
में रहने का अर्थ आज भी नेपालियों के लिए बहुत सम्मानजनक नहीं प्रतीत होता. बड़े
बुजुर्ग नेपाली निचले स्तर के दुर्व्यवहार को जिसमें गाली गलौज भी शामिल है, आज भी महसूस करते हैं. गोरे लोगों को एल्डरशाट में उनकी
मौजूदगी पसंद नहीं है. किन्तु कई कम्युनिटी समूह जैसे 'मदद
समूह' व 'नया
युवा' नवागत औरतों की मदद करते हैं व दोनों
समुदायों में फूट डालने की कार्रवाई का विरोध करते हैं.
जैसा कि डेविड एल
गेलनर का कहना है, नेपाल सांस्कृतिक विविधता का अगुवा
है. यह विविधता ब्रिटेन में देखने को मिलती है इस एक अपवाद के साथ कि मधेसी और
मुसलमान मुश्किल से ही उपस्थित होते हैं. दलितों की उपस्थिति भी कम दिखती है.
मित्र पैरियार ने जैसा दिखाया है, जो दलित यूके आए उन्हें भी नेपाल के
शहरी इलाकों में उन्हीं समस्याओं से गुजरना पड़ा. किराये पर मकान देने से इन्कार
करना, किचन शेयर करने से इन्कार ओर अन्य अपमानजनक टिप्पणियों से
गुजरना. यह विचार कि यूके में जाति को लेकर कोई पूर्वग्रह नही है एक विशफुल थिंकिंग
है जैसा कि भारतीय पृष्ठभूमि के यूके में रह रहे दलितों ने भी ऐसा महसूस किया है.
ऐसा माना जाता है कि
यूके में नेपालियों की आबाद दुनिया के इर्द गिर्द अन्य नेपाली प्रवासी समुदायों
की तुलना में असामान्य है. ब्रिटेन के नेपालियों की दो तिहाई आबादी या तो गुरखा
सैनिकों की है या उनके सगे संबंधियों की. इसके मायने यह कि वे जातीय समूह जिन्हें
ब्रिटिश गुरखा रेजीमेंटों में भर्ती किया गया --जैसे मगर, गुरुंग, राय, लिम्बू आदि, वे यूके में ज्यादातर संख्या में
हैं बनिस्बत अन्य जगहों या नेपाल के. एक अनुमान के मुताबिक गुरंग जो तमु के नाम
से भी जाने जाते हैं, नेपाल की आबादी के केवल 1.9 प्रतिशत
हैं किन्तु यूके में यह 22 प्रतिशत के लगभग हैं और एक बड़ा नेपाली समूह है. लिम्बू
नेपाल में केवल 1.5 प्रतिशत हैं पर यूके में नेपाली आबादी के 9.6 फीसदी हैं. मगर, गुरुंग, राय एवं लिम्बू को मिला कर यह आबादी
12 फीसदी के लगभग हे जो कि यूके के नेपाली जनसंख्या की दो तिहाई से ज्यादा है.
गुरखा इतिहास उनके रिहाइशी पैटर्न में
झलकता है. यूके में या जैसे भारत में भी, जहां मिलिट्री बेस है, वहां आसपास पूर्व गुरखा सैनिकों की रिहाइश मिलेगी. रशमोर बोरो, नार्थ ईस्ट हैम्पशायर में नेपालियों की जबर्दस्त मौजूदगी है जहां
कई मिलिट्री बेस हैं. हैम्पशायर काउंटी में लंदन के बाद नेपालियों की जनसंख्या
सर्वाधिक है. तीसरी सबसे ज्यादा जनसंख्या केंट, ऐशफोर्ड, वेल्स, यार्कशायर ओर एसेक्स में है. पश्चिमी लंदन में
जहां मिलिटी सूत्र नही हैं वहां भी पर्याप्त संख्या में नेपाली रहते हैं.
नेपालियों ने अपने धार्मिक विश्वासों का
पुनर्गठन भी किया है. इससे धार्मिक फैब्रिक बदला है. नेपाल में हिंदुत्व के प्रति
आकर्षण प्रवासी नेपालियो में नहीं दिखता. यद्यपि नेपाल दुनिया का एकमात्र हिंदू
राष्ट्र नही हैं और अपने को सेक्युलर संघीय गणराज्य मानता है, तथापि यहां 81 फीसदी आबादी हिंदू के रूप में दर्ज है. पर यूके के
नेपाली समूहों में यह घट कर 40 से 64 फीसदी ही है. यानी धार्मिक विश्वासों में
विविधता और स्वतंत्रता है. धार्मिक सहिष्णुता या सहअस्तित्व इस अनुमान से उलट
यह दर्शाता है कि आधुनिक राष्ट्र प्राय: लोगों को एक विश्वास, एक जातीय समूह, एक धर्म से जुड़ने को प्राथमिकता देते
हैं. पर जहां तक धर्म का ताल्लुक है, केवल एक धर्म की
अनुमति है और कोई हाईब्रिड विकल्प नहीं, क्योंकि धर्म आधुनिकतावादी शुद्धता का
अंतिम शरण्य है. बहुत पहले लोग इस बात के अभ्यस्त न थे कि कोई उनसे पूछे, आपका धर्म क्या है? आज नेपाली प्राय: इस सवालसे रू-ब-रू होते
हैं और कुछ जातीय संगठन जैसे 'नेपाल मगर समाज' उनके धर्म को बौद्ध
मानने का अभियान भी चलाता है; चाहे अपने दैनंदिन के व्यवहार में वे
कतई बौद्ध न हों.
आज बहुविकल्पीय धार्मिक पहचानों की बात
करें तो कुछ नेपाली परिवारों के सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि वे पहला विकल्प तो
बेशक बौद्ध चुनते हैं पर बहुविकल्प का अवसर देने पर वे हिंदू + बौद्ध, किरांती + हिंदू, किरांती + बौद्ध एवं यहां तक
कि किरांती+ बौद्ध + हिंदू भी होना स्वीकार
करते हैं. पर यदि एक बार उन्हें हिंदू एवं बौद्ध दोनों स्वीकार करने का विकल्प दिया जाए तो यह उन्हें ज्यादा
सुविधाजनक लगता है. ऐसा अवसर दिये जाने पर जिसने पहले केवल बौद्ध धर्म का विकल्प दिया था, उसके लिए बाद में
हिंदू + बौद्ध होना ज्यादा सुकूनदेह लगा.
पुरानी पीढी के नेपाली अपने बच्चों के
बारे में इस बात से चिंतित दिखते हैं कि वे नेपाली बोल या पढ पाएंगे कि नहीं. क्या
वे ब्रिटेन में शैक्षिक अवसरों का लाभ उठा पाएंगे. क्या वे अपने मा पिता की इच्छाओं
की उपेक्षा करेंगे, अलग रहेंगे या मा पिता की तरह कठोर श्रम करेंगे.
क्या वे नेपाल से इसी तरह जुड़े रह सकेंगे. यकीनन नई पीढी ब्रिटेन में सुविधाजनक
महसूस करती है. हालांकि गुरखाओं के लिए समान पेशंन एवं दोहरी
नागरिकता की चिंताएं उन्हें नहीं सतातीं. वे अपने को व्रिटिश पापुलर कल्चर के ज्यादा
निकट महसूस करते है. धीरे धीरे शुद्धता
एवं जाति की पारंपरिक चिंताएं निष्प्रभ पड़ती जाएंगी. पर साथ ही युवा
नेपालियों ने ब्रिटेन में सामाजिक कार्यों में बढत ली है तथा वे नेपाल में चैरिटी
प्रयोजनों के धन संग्रह करते हैं. यह ब्रिटेन के नेपाली डायस्पोरा के भविष्य के
लिए एक सुखद संकेत है.
प्रवासी तिब्बती : नव उदार अर्थव्यवस्था की पैदाइश
उत्तरी अमेरिका में प्रवासी तिब्बतियों के अध्ययन से यह बात
सामने आई है कि वे सीमा पर घुसपैठ करते हुए पूछने पर यही बताते हैं कि वे अपने देश
से निष्कासित हैं तथा अमरीका में शरण चाहते हैं. पहले तिब्बतियों की सुविधाजनक
रिहाइश भारत या नेपाल हुआ करती थी पर अब हालात बदले हैं. तिब्बती कूच कर रहे हैं और
उत्तरी अमरीका उनका वांछित गंतव्य है. चाहे इसके लिए वैध या अवैध कोई रास्ता क्यों
न अख्तियार करना पडे. एक बार 1990 में अमेरिकी कांग्रेस ने 1000 तिब्बतियों के
पुनर्वास की अनुमति देते हुए उन्हें अपने परिवार भी लाने की अनुमति दी थी पर तब
से रातोरात अमरीका में तिब्बतियों की संख्या कुछ सौ से बढ कर हजारों में हो गयी. यों तो इसका कोई सुनिश्चित आंकड़ा नही है पर
अनुमानत: बीस हजार से ज्यादा तिब्बती आज अमरीका में होंगे.
प्राय: गत दो दशकों से सभी नेपाली नेपाल या भारत से उत्तरी
अमरीका पहुंचे हैं . पहले वे अकेले पहुंचते हैं फिर एक बार व्यवस्थित होने के
बाद अपने पूरे कुनबे को भी बुला लेते हैं. आज टोरंटों एवं न्यूयार्क जैसी जगहों
पर तिब्बती समुदायों के एन्क्लेव देखने मे आते हैं. इन इलाकों में तिब्बती
रेस्तरां पाए जाते हैं तथा यहां की गलियों व सार्वजनिक परिवहन में इनकी आवाजें
सुनी जा सकती है. अब तक तिब्ब्ती समुदाय नेपाल अथवा भारत में सामान्यत: स्थायी
पुनर्वास एवं एक सौहार्दपूर्ण माहौल में
रहते आए हैं. धर्मशाला केंद्रित केंद्रीय तिब्बती प्रशासन ने इनके लिए बेहतरीन
शैक्षिक संसाधन भी मुहैया कराया है. किन्तु अब इनके सपनों में सुदूर उत्तरी
अमेरिका जैसी जगहें हैं जहां वे खानाबदोश होकर भी अपने लिए बेहतर संसाधन जुटा सकते
हैं.
पर पश्चिमी देशों में प्रवास ने तिब्बतियों के समक्ष नए अवसर व
चुनौतियां दोनो पैदा की हैं. वे ग्लोबल डायस्पोरा का हिस्सा एवं बहुराष्ट्रीय
नव उदार अर्थव्यवस्था के अंग हैं. इससे विकसित अर्थव्यवस्थाओं को सस्ता श्रम
भी उपलब्ध होता है. डायस्पोरा
निर्वासन या प्रवास से अलग है. यह
भूमंडल के दो बिंदुओं के बीच संचरण है. आज तिब्बतियों का वांछित गंतव्य उत्तरी
अमरीका अथवा यूरोप है. इसलिए तिब्बती प्रवासी आर्थिक अवसरों एवं बेहतर जिंदगी की
तलाश में लगे अन्य प्रवासियों से कतई अलग नहीं है. हालत यह है कि तिब्बती भारत में रहते हुए
भारतीय संस्कृति से इतना सुपरिचित होते हुए भी भारतीय उत्सवों में हिस्सा नहीं लेते
जबकि अमरीकी पापुलर कल्चर में भाग लेते हैं. यही कारण है कि वहां तिब्बती परिवार
अपने बच्चों में तिब्बती जागरूकता अथवा तिब्बती भावना के अभाव का रोना रोते हैं.
हालांकि अभी अपने देश के प्रति चेतना तिब्बतियों में जिंदा है तथा उत्तरी अमरीका
में तिब्बती समुदाय दलाईलामा का जन्मदिवस और 10 मार्च को तिब्बती नववर्ष मनाते
हैं. पर हो सकता है कि समय के साथ ये परंपराएं क्षीण पड़ती जाएं.
तिब्बती प्रवासियों के लिए अब मातृभूमि के प्रति विचार बदल रहा
है जहां मूल उदगम स्थल के लिए एक नास्टैल्जिक
इच्छा या भाव तिब्बत की मिथकीय भूमि और नेपाल अथवा भारत के भौतिक प्रतीक में बदल
रहा है. ज्यादातर तिब्बतियों के द्वारा उनके रिमिटेंसेज भारत या नेपाल में ही
भेजे जाते है, तिब्बत में नहीं और उनके परिवारों के ताल्लुकात
ल्हासा की अपेक्षा दिल्ली या काठमांडू से ज्यादा मजबूत हैं. तिब्बत के बारे मे
खबरें हिंदुस्तान व नेपाल के माध्यम से होकर मिलती हैं और राजनीति का अर्थ उनके
लिए दक्षिण एशिया में तिब्बती डायस्पोरा की राजनीति है.
सुदूर राष्ट्रवाद : पहचान का संकट
प्रवासियों की पहचान प्राय: सुदूर राष्ट्रवाद से जोड कर देखी
जाती है. अमेरिका में तिब्बती वाशिंगटन डीसी में इकट्ठा होते हैं और अपने
सीनेटरों के लिए लाबींग करते हैं; वे तिब्बती अमेरिकन के रूप में हैं.
टोरंटो में तिब्बती समुदाय ने टोरंटो स्कूल बोर्ड का बाध्य किया कि वह बीजिंग
सरकार द्वारा प्रायोजित कन्फ्यूसियस संस्थानों के साथ गठबंधन निरस्त करे. जबकि
नेपाल या भारत में इसका सवाल ही नही उठता कि तिब्बती यहां की स्थानीय राजनीति
में दखल दें. उत्तरी अमरीका में तिब्बती आसानी से हाइब्रिड आइडेंटिटी
अंगीकार कर लेते हैं या कनैडियन तिब्बती
अथवा तिब्बती अमेरिकन के रुप में , किन्तु
उन्हें इंडियन तिब्बती अथवा नेपाली तिब्बती कहा जाना स्वीकार नहीं. भारत की
नागरिकता उन्हें स्वीकार्य नही है पर पश्चिमी मुल्कों की नागरिकता को स्टेटस
से जोड कर देखा जाता है. भारत या नेपाल से सामूहिक माइग्रेशन ने उप महाद्वीप में
तिब्बतियों के जीवन को बदल दिया है. वे वहां बेहतर रिहाइश रखते हैं. यहां 2007 में
दलाई लामा ने कनाडियन प्राधिकारियों से अनुरोध किया था कि वह अरुणाचल प्रदेश के
1000 तिब्बतियों को पुनर्वास दे जहां तिब्बती शरणार्थी बहुत असुविधाजनक स्थिति
में हैं.यहां किसी रिश्तेदार या मित्र को बुलाना प्रतिष्ठा का विषय माना जाता है.
जो अपने सभी नाते रिश्तेदारों को ला पाने में सफल हो गया उसे बहुत ही सक्षम व साधनसंपन्न
माना जाता है.
तिब्बती शहरी इलाकों में आने के लिए अपने रिश्तेदारों व
मित्रों के नेटवर्क का लाभ लेते हैं पर एक बार सुरक्षित रूप से व्यवस्थित होने के
बाद अपने बच्चों के बेहतर शैक्षिक अवसरों को देखते हुए कौन उपनगरों की ओर रुख
करता है? यहां रहते हुए नेपाली आसानी से कारें खरीद लेते हैं
जबकि भारत में वे इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते. त्सेरिंग शाक्य ने अपने शोध में
पाया है कि उत्तरी अमरीकी विश्विवद्यालयों में उच्च अध्ययन में काफी तिब्बती
महिलाएं हैं और यह संयोग नहीं कि तिब्बती औरतें माचिक एवं स्टूडेंट्स
फार फ्री तिब्बत जैसे तिब्बती समूहों का नेतृत्व कर रही हैं.
इस सबके बावजूद उत्प्रवासित परिवारों को तमाम कठिनाइयां भी
उठानी पडती हैं. जब तक दोनो मां पिता काम न करें वे अपनी गृहस्थी नही चला सकते. पर
इससे वे अपनी संततियों पर नियंत्रण खो बैठते हैं. यह आम प्रवृत्ति देखी जा रही है
कि नेपाल व भारत के तिब्बती समुदायों में पश्चिमी संगीत ज्यादा हिट है. उनकी संस्कृतियां
इस हद तक प्रभावित हो रही या हुई हैं कि
यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि भविष्य में कोई शख्स अपने को जातीय तौर पर
भले ही तिब्बती बताए पर वह सांस्कृतिक तौर पर अमरीकी होगा. तमाम बेहतर चीजों के
बावजूद इस समुदाय के प्रति कभी कभी घृणा का माहौल् भी देखने को मिलता है. जैसे
कुछ साल पहले चार तिब्बतियों को क्रेडिट कार्ड की धोखाधडी के लिए पकडा गया था. पर
तिब्बती वेबसाइट्स और समाचार साइट्स पर ये चीजें छुपाई गयीं. क्येांकि यह तिब्बती
समुदाय के लिए अपमान की बात होती. ऐसा माना जाता है कि तिब्बतियों की छवि एक शांत
बौद्ध की है और इसे बनाए रखने की आवश्यकता भी है. प्रवासी नेपाली संस्कृति को
चित्रित करने वाले कुछ लोकप्रिय कृतियों में प्राजवाल पराजुली की द गुरखाज डाटर
और लैंड व्हेयर आई फ्ली जैसी पुस्तकें लिखी गयी हैं जिनसे गुजरते हुए भारतीय
नेपालियों की मनोभूमि को समझा जा सकता है. इस संदर्भ में किरन देसाई की बुकर पुरस्कार
प्राप्त कृति इनहेरिटेंस आफ लॉस
को भी एक विरल सभ्यता समीक्षा के रूप में देखा जा सकता है.
निर्वासन में कवि : बेघर होने का दर्द
बहुतेरे
कवियों ने भी निर्वासन झेले हैं और वे अक्सर अपने घरों से दूर सत्ता के लिए खौफ
का पर्याय भी बने हैं. एक वक्त नोबल पुरस्कार विजेता कवि वोल सोयिंका को
नाइजीरिया से भागना पड़ा. उन्होंने होम एंड अवे: डायस्पोरा वाइसेज़ में अपने संस्मरण दर्ज किए हैं. हालांकि वे पूछने पर यही कहते
थे, ‘ मैं
निर्वासन में नहीं हूँ, मैं एक राजनीतिक सब्बैटिकल पर घर से
दूर हूँ. मैं निर्वासन में नहीं था क्योंकि निर्वासित महसूस नहीं कर रहा था. हम
महसूस करते हैं इसलिए निर्वासित होते हैं. नहीं करते तो महूसस नहीं होता. यद्यपि
मुझे मालूम था कि मैं निर्वासित हूं पर मैने निर्वासन की स्थितियों को स्वीकार
करने की अनुभूति के विरुद्ध बैरियर्स सेट किए.‘ कवि और
राजनीतिज्ञ दांते को भी पवित्र रोमन सम्राट के समर्थन के लिए फ्लोरेंस से
निर्वासित होना पड़ा. यह निर्वासन दांते आजीवन भुगतते रहे. पर इसका प्रभाव दि डिवाइन कामेडी पर बहुत
पड़ा जो कि एक मास्टरपीस कृति है. यह संरक्षण खोजने के नरक
से गुजरते हुए उनके वास्तविक जीवनानुभवों की समानांतर अभिव्यक्ति है.
जर्मन
कवि बर्तोल्त ब्रेख्त ने तमाम निर्वासन झेले. 1933 में निर्वासित होकर
1941 तक स्कैंडिनेविया में, मुख्यतया डेनमार्ग में रहें, फिर अमरीका में 1941 से 47 तक. जर्मनी में उनकी किताबें जला दी
गयीं और उनकी नागरिकता छीन ली गयी. वे जर्मन थियेटर से कट गए किन्तु 37 से 41 के
बीच उन्होंने अपने अनेक बेहतरीन नाटक लिखे. 47 में उन्होंने अमरीका छोड़ दिया व
एक साल ज्यूरिख में बिताया. 1949 में वे बर्लिन लौटे और अंत तक यहीं रहे. यहां
आकर उन्होंने अपनी कंपनी बर्लिनर इनसेम्बल स्थापित की. उर्दू शायर फैज को जियाउल हक की सरकार ने
देशनिकाला दे दिया था. फलत: उन्हें बेरूत में शरण लेनी पड़ी थी. निर्वासन का दर्द
महमूद दरवेश की कविताओं में भी देखा जा सकता है. अपने बेघर होने का दर्द उन्होंने
किन मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया है:
लेकिन मैं ही निर्वासित हूँ
अपनी आँखों से मुझे मुहरबंद कर दो
तुम जहाँ भी हो मुझे वहाँ ले चलो
ले चलो मुझे जो कुछ भी तुम हो.
लौटा दो मुझे चेहरे का रंग
और देह की ऊष्मा
हृदय और आँख की रोशनी,
रोटी का नमक और लय
पृथ्वी का स्वाद ... मातृभूमि.
छिपा लो मुझे अपनी आँखों में.
उदासी की हवेली का अवशेष मानों मुझे
मेरी त्रासदी की कुछ पंक्तियों के रूप में मुझे देखो
जानो मुझे एक खिलौने जैसा, घर की ईंट जैसा
ताकि हमारी संतानें घर लौटना याद रखें.
अपनी आँखों से मुझे मुहरबंद कर दो
तुम जहाँ भी हो मुझे वहाँ ले चलो
ले चलो मुझे जो कुछ भी तुम हो.
लौटा दो मुझे चेहरे का रंग
और देह की ऊष्मा
हृदय और आँख की रोशनी,
रोटी का नमक और लय
पृथ्वी का स्वाद ... मातृभूमि.
छिपा लो मुझे अपनी आँखों में.
उदासी की हवेली का अवशेष मानों मुझे
मेरी त्रासदी की कुछ पंक्तियों के रूप में मुझे देखो
जानो मुझे एक खिलौने जैसा, घर की ईंट जैसा
ताकि हमारी संतानें घर लौटना याद रखें.
घर
से बेघरों को प्राय: हम निर्वासितों, शरणार्थियों, प्रवासियों, उत्प्रवासियों इत्यादि के रूप में देखते हैं. पर प्रवास जहां
अपनी इच्छा पर निर्भर करता है, निर्वासन
सत्ता के दंड विधान का अंग है. कवियों को उनके सत्ताविरोधी आचरण के लिए दंडित
होना पड़ा है. निर्वासित होना पड़ा है और दीगर मुल्कों में शरण लेनी पड़ी है.
उनकी कविताएं जब्ती का शिकार हुई हैं. बांग्लादेश से निष्काषित तस्लीमा नसरीन
आज तक निर्वासन में ही रह रही हैं. सलमान रश्दी भी मुसलमानों के विरुद्ध अपकथन के
कारण निर्वासित रहे हैं. पर इन तमाम रूपों में लेखकों को बेघरी के आलम से तो
गुजरना पड़ा ही है, उस खौफ से भी दो चार होना पड़ा है
जिसके चलते जीवन अनिश्चितता के बिन्दु पर रेंगता है.
शरणगाह खोजते नागरिक
अपने
एक लेख में फिल्मकार पल्लव गोयल लिखते हैं- “अकेले
2013 -14 में कोई पांच करोड बारह लाख लोग अपनी अपनी जगहों से विस्थापित हुए हैं.
इनमें भी आधे से ज्यादा बच्चे हैं. एक जानकारी के अनुसार दुनिया के हर 122 लोगों
में से एक व्यक्ति आज शरणार्थी है. एक जानकारी के मुताबिक पिछले साल कोई 40 लाख
लोग ईराक और सीरिया से बाहर निकले हैं व अफगान से कोई 30लाख लोगों ने अपना घर
छोड़ा है और सोमालिया से कोई 10 लाख लोगों ने. वे कहते हैं, दुनिया में इस समय तीन ऐसे देश हैं जिनमें इस अभागी आबादी की
उपस्थिति बहुत बड़ी संख्या में ळे. इस समय तुर्की में 10 लाख से ज्यादा
शरणार्थी हैं. पाकिस्तान में भी लगभग इतने ही लोग हैं और इसी तरह लेबनान में.
आसपास से उखड़ कर आए हुए कोई 10 हजार लोगों ने ईरान में भी शरण ली है. इथोपिया और
जार्डेन में भी कोई 60-60 हजार शरणार्थी आए हैं. एक समय में भारत में भी बांग्लादेश
से आए शरणार्थियों की संख्या बहुत बढ गयी थी.” (गांधी मार्ग,वर्ष
57, अंक 5) भारत में भी कश्मीर से ही विस्थापित कश्मीरियों का
एक लंबा इतिहास है जिन्हें अपना अधिकांश जीवन शरणार्थी शिविरों में बिताना पड़ा
है. कश्मीरी पंडितों के इस दर्द और विस्थापन की दास्तान अनेक उपन्यासों और
कविताओं में बयान की गयी है. स्वयं कश्मीरी आज संगीनों के साये में जिस तरह रह
रहे हैं उसकी मार्मिक दास्तान वहां के कवि निदा नवाज़ ने हाल ही प्रकाशित
अपनी डायरी ‘’सिसकियां लेता स्वर्ग’’ में दर्ज की है. अपने ही घर में दहशत के माहौल में रहना वाकई
अपने ही घर में नज़रबंद होकर रहने जैसा है.
घर से दूर-- घर की तलाश में गये प्रवासियों की लगभग एक सी पीड़ा
होती है. वे हिंदुस्तानी हों जो मजदूरी के लिए सुदूर सूरीनाम, फिजी, मारीशस, गयाना
गये हों,या नेपाली, तिब्बती, भूटानी
या श्रीलंकाई प्रवासी जो बेहतर रिहाइश या मजदूरी के लिए पश्चिमी देशों या यूरप या
अफ्रीकी देशो में गए, वहां अपनी संस्कृतियां संजो कर रखीं या
उनकी संस्कृतियों में घुल मिल गए. रोजी रोटी का संघर्ष, भाषाई
संघर्ष, सांस्कृतिक सामाजिक संघर्ष से हर प्रवासी समुदाय
को गुजरना ही होता है. हर प्रवासी उस देश का अवांछित मेहमान ही होता है. वहां उसकी
पहचान प्रवासी के तौर पर ही होती है. अपने घर, अपना
देश छोड़ने की पीड़ा हर वक्त सताती है. भले ही वे वहां अपना कम्यून बना कर रहें
या कम्युनिटी किन्तु एक सांस्कृतिक शून्यता के बोध से वे पीड़ित रहते हैं. यह
परायापन उनका आजन्म पीछा करता है. वी एस नयपाल के उपन्यासों में भारतीय
प्रवासियों और अपनी जड़ों से कटने का दर्द मिलता है. सलमान रुश्दी, अमिताव
घोष और झुम्पा लहिड़ी की कृतियों में भी इंडियन डायस्पोरा की विसंगतियों का
चित्रण मिलता है. अज्ञेय का एक संग्रह है ‘ऐसा कोई
घर आपने देखा है?’. घर का हमारे लिए क्या अर्थ है, अज्ञेय
अपनी घर शीर्षक कविता के आखिरी पद में स्पष्ट करते हैं:
घर
मेरा कोई है नहीं,
घर मुझे चाहिए :
घर के भीतर प्रकाश हो
इसकी भी मुझे चिन्ता नहीं है;
प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो-
इसी की मुझे तलाश है.
ऐसा कोई घर आपने देखा है?
मेरा कोई है नहीं,
घर मुझे चाहिए :
घर के भीतर प्रकाश हो
इसकी भी मुझे चिन्ता नहीं है;
प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो-
इसी की मुझे तलाश है.
ऐसा कोई घर आपने देखा है?
देखा हो
तो मुझे भी उसका पता दें
न देखा हो
तो मैं आपको भी
सहानुभूति तो दे ही सकता हूँ
मानव हो कर भी हम-आप
अब ऐसे घरों में नहीं रह सकते
जो प्रकाश के घेरे में हैं
पर हम बेघरों की परस्पर हमदर्दी के
घेरे में तो रह ही सकते हैं.
जब हम 21वीं शती में घर
की अवधारणा पर विचार कर रहे हैं तो हमें अज्ञेय की ये पंक्तियां नही भूलनी चाहिए.
घर भले कैसा भी हो पर वह बेघरों की परस्पर हमदर्दी के घेरे वाला घर जरूर हो.
हमने घर की तलाश में राष्ट्रीयताएं बदली हैं; विकास के नाम पर हम अपने घरों से विस्थापित हुए
हैं, निर्वासित होकर दूसरे देशो में
शरण ली है, टेंटों और शरणार्थी शिविरों
में विवशतापूर्ण जीवन जिया है और उसे ही अपना घर या नियति मानने पर विवश हुए हैं.
हमने बाढ़, बांधों के निर्माण के कारण या
दैवी आपदाओं की वजह से अपने अपने घर खोए हैं, विभाजन
के नाम पर दर ब दर हुए हैं. हमें अक्सर कातर और दया की निगाह से देखा गया है. क्योंकि
हमने दूसरों की संस्कृतियों में सेंध लगाई है, हमने एक अदद छत और जीविका के लिए सीमाओं पर घुसपैठें
की है. यह सब हमने घर के नाम पर ही किया है. दाना पानी हमें जहां जहां ले गया वहां
वहां हम गए हैं. हम भले ही दुनिया भर की परिक्रमा कर लें, पर न भूलें कि दूसरों के घरों में हमें अपने घर का-सा
अहसास नहीं होता. घर का अहसास तो अपनी कुटिया में ही होता है. अज्ञेय पुन: कहते हैं:
दूसरों के
घरों में
दूसरों के घर
दूसरों के घर हैं.
दूसरों के घर
दूसरों के घर हैं.
(डेविड एन गेलन , त्सेरिंग
शाक्य, व एलेन टर्नर द्वारा प्रस्तुत तथ्यों की रोशनी
में विरचित.)
नया ज्ञानोदय के घर-बेघर
विषयक विशेषांक में प्रकाशित/ सभी फोटोग्राफ गूगल से साभार
-----------------------------------------------------------
जी-1/506 ए, उत्तम नगर,
नई दिल्ली-110059
मेल: omnishchal@gmail.com
मोबाइल : 8447289976
मोबाइल : 8447289976
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअनेकानेक तथ्यों का परिचय देता तथा मनुष्यता के धरातल पर स्वत्व की पीड़ा का स्पष्टीकरण करता आलेख अन्यतम है।बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंओंकार जी और सलोनी जी।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया विस्थापन और बेघरी के इस आलेख को पसंद करने के लिए।
स्वैच्छिक या आरोपित,एकांत या सामूहिक,diaspora मानव-जाति के लिए अभिशाप (कम) और वरदान (ज्यादा ) रहा है. उसके बिना अपनी संस्कृति-सभ्यता सहित मानव-मात्र लुप्त हो जाता.यह जानकर एक विचित्र अनुभूति होती है कि आज संसार का सबसे बड़ा डायस्पोरा भारतीयों का ही हो चुका है और बढ़ता जा रहा है.लेकिन यह परम्परा आर्यों के फैलने से जुड़ती है,भले ही वह पूर्व से हुआ हो या पश्चिम से.लेकिन हम भारत के एक त्रासद डायस्पोरा को भूल जाते हैं जो आज से सैकड़ों वर्षों पहले हमारे गुजरात,राजस्थान, और पंजाब के उत्तर-पश्चिमी सीमान्त से हुआ था और अब तक पूरे यूरोप में जीवित है और बहुत अपमान और तकलीफ़ का जीवन बिता रहा है.जटिल ब्यौरों में न जाते हुए कहें तो कभी हमारे डोम भाई किसी तुफैल में भारत के भीतर पूर्व में भागने की जगह भारत के बाहर पश्चिम में पलायन कर गए.धीरे-धीरे,शताब्दियों में,वह अन्य इलाकों के अलावा पूरे स्लाव देशों और यूरोप में फ़ैल गए.वहाँ की मूल जनताओं ने उन्हें कभी अकुंठ रूप से स्वीकार नहीं किया.उन्हें कभी अपने शहरों और गाँवों में बसने नहीं दिया.उन्हें 'रोम','रोमनी','रोमा','सिगान','जिप्सी' आदि हिक़ारत-भरे नाम दिए गए.यह लोग अलबत्ता उनकी संस्कृति,भाषा और कभी-कभी धर्म को भी अपनाते रहे.लेकिन उनकी genes और स्मृति में इस्लाम-पूर्व भारत हमेशा के लिए बसा हुआ है.उन्हें पता नहीं कितने प्राचीन रीति-रिवाज़ और देवता आदि याद हैं.उनकी स्त्रियों को देखकर कलेजा मुँह को आ जाता है कि हमारी यह औरतें यहाँ क्या कर रही हैं.बच्चे बिल्कुल भारतीय दिखते हैं - यह भी सच है कि उनका स्वभाव भी अपने तमाम गुणों-अवगुणों के साथ हमारे जैसा ही है.वह बेहद ज़िन्दादिल और मेहमाननवाज़ हैं और संगीत और नृत्य के वे पूरे यूरोप में माहिर माने जाते हैं - इन दोनों कलाओं को,और साहित्य को भी, उन्होंने वहाँ प्रभावित भी बहुत किया है.लेकिन यूरोप में उन्हें कोई नहीं चाहता,सब उनसे डरते भी हैं.उनके पक्के घर नहीं के बराबर हैं और वह घुमंतू डेरों में भटकते रहते हैं.उनकी भी संस्कृतियाँ कुछ-कुछ अलग हो गई हैं और भाषाएँ भी,लेकिन घोर आश्चर्य यह है कि उनकी मूल मातृभाषा हिंदी है जिसके अपने बीच ''बदले हुए'' ''विकसित'' रूप को वह सब यत्किंचित् समझ लेते हैं.मैंने जर्मनी और हंगरी में उनके बीच अपनी हिंदी से काम चलाया है और उसके बदले उनकी जूठी बोतल से भयानक खट्टी वाइन पी है.यह एक रहस्य है कि इतनी ''खड़ी बोली हिंदी'' 1300 वर्ष पूर्व कहाँ और कैसे उपजी.हिटलर और स्तालीन दोनों ने उन्हें मरवाया भी बहुत है.भारत में,जहाँ आज भी उनके-हमारे दलित भाइयों-बहनों के साथ क्या पाशविक नहीं हो रहा,उनकी ''घर-वापसी'' असंभव है.वह इतने स्वायत्त और आज़ादमिज़ाज़ हैं,इतने गर्वीले हैं,बीफ़ और पोर्क दोनों खाते हैं,प्रेम-विवाह करते हैं, कि यहाँ के हालात देखकर यूरोप की ज़िन्दगी को लौटने में देर नहीं लगाएँगे.
जवाब देंहटाएंविष्णु खरे की इस सुदीर्घ टिप्पणी ने इस लेख को विस्तार दिया है तथा बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी दी है वह भी फर्स्ट हैण्ड. हम अक्सर जिप्सियों के विषय में पढ़ते आते हैं कि उनका भारत से कोई सम्बन्ध है. उम्मीद है कभी वह इस पर विस्तार से लिखेंगे. आभार
जवाब देंहटाएंविष्णु खरे जी ने वाजिब मुद्दों की ओर इशारा किया है। विस्थापितों की बड़ी दुनिया है इस दुनिया में। अपने हीघर सेदरबदर,आस पड़ोस से दरबदर, भारत में अागत बेघर, कश्मीर के विस्थापित, शरणार्थियों की एक अलग कातर दुनिया और उन्हें शरण देने की मुल्कों की अपनी रणनीति। यह एक या दो -चार आलेख का नहीं एक बड़े अनुशीलन का विषय है। यह जो पशुओं की तरह खदेड़े जाते नागरिक हैं, जो रोजी रोटी की तलाश में पश्चिमी देशों या योरोप में रह रहे हैं, जो कालोनाइज्ड व्यवस्था से सांस लेते लोग हैं, जो सामाजिक आर्थिक आजादी गंवा चुके लोग हैं, सदियों पहले तमाम मुल्कों में ले जाए गए यहां के गिरमिटिया मजदूर हैं, उन सबकी पीड़ा का इतिहास लंबा है। मनुष्यता का मखौल उड़ाती व्यवस्था हर जगह ऐसे लोगों से भगोड़ों की तरह व्यवहार करती है चाहे अपने श्रम से इन लोगों ने कर्मठता की मिसाल ही क्यों न पेश की हो। अधीनताओं में जीने रहने को विवश विस्थापितों घुमंतुओं शरण तलाशते लोगों की तादाद करोड़ों में है। खरे जी को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंविस्थापन चाहे स्वेच्छा से हो या मजबूरी में !वो ज़िन्दगी भर सालता रहता है !
जवाब देंहटाएंवाक़ई अपना घर अपना ही होता है !पराई छतें सुरक्षा तो दे देंगी लेकिन अपनत्व नहीं !वो अपनत्व जो रोज़ी रोटी की तरह ही ज़रूरी ख़ुराक है !
बहुत सारगर्भित आलेख !
साधुवाद आपको !
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