‘लाख
के घर बनाकर
लेखक
को
बुलावा
भेजते हैं.’
हिंदी के सह्रदय पाठक दूसरी भाषाओँ के कच्चे-पक्के अनुवादों से भारतीय
कविता के परिदृश्य को देखते –समझते रहते हैं. मराठी साहित्य प्रारम्भ से ही हिंदी साहित्य
को प्रेरणा देता रहा है. हिंदी ने अपने आरम्भ में मराठी और बांग्ला भाषा से बहुत कुछ
ग्रहण किया है. मराठी के प्रसिद्ध कवि प्रफुल्ल शिलेदार की कविताओं को प्रस्तुत करते
हुए समालोचन यह बलपूर्वक कहना चाहता है कि भाषाओँ के पुल किसी भी सभ्यता के सबसे मजबूत
रिश्ते होते हैं.
किताबों के इति और वर्तमान पर यह २० हिस्से स्थायी महत्व के हैं और
सहेज लेने लायक हैं. पूरी दुनिया में किताबों का इतिहास ज्ञान और विवेक का भी इतिहास
है. किताबों को कभी धर्म ग्रन्थ बना डाला गया तो कभी प्रतिबंधित कर जला डाला गया. कभी
लिखने पर पुरस्कृत किया गया तो कभी लेखक के मृत्यु के फरमान जारी किये गए.
प्रफुल्ल शिलेदार ने स्वयं इन कविताओं का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया
है.
प्रफुल्ल
शिलेदार की कविताएँ
लेखक की आत्मकथा से किताबों के बारे में कुछ टिप्पणियाँ
१.
किताबें
मुझे ढूंढती चली आती हैं
भीतर
से आस रहती है उन्हें
मुझ से
मिलने की
पुराने
दोस्त की तरह
मुझे
ढूंढने की
बहुत
कोशिश करती रहती हैं
किसी
पल आखिरकार मेरा पता पाकर
सामने
आकर ख़ड़ी होकर
इत्मिनान
से ताकती रहती हैं
मै
उन्हें कब पढूंगा
इसकी
राह देखती हैं
उन्हें
पढ़े जाने की
कोई
जल्दी नहीं होती
कभी
कभार मैं
हैरानी
से
उनकी
ओर देखता हूँ
बस
यही काफी होता है उनके लिए
हाथ
में लेता हूँ
तो
दिल धड़कने लगता है किताबों का
आँखों
में चमक सी छा जाती है
पढ़ने
लगता हूँ तो
साँसे
थाम लेती हैं
मेरी
एकाग्रता
भंग
होने नहीं देतीं
आधा
पढ़कर रख देता हूँ
फिर
भी मायूस न होकर
मैं
उन्हें फिर से कब उठा लूँगा
इस
की राह देखती हैं
पूरी
पढ़ी जाने के बाद
किताबें
थक जाती हैं
भीतर
ही भीतर सिमटकर
सोचती
रहती हैं
मुझ
पर
क्या
असर हुआ होगा
२.
जैसे
भेस बदलना
बस
वैसे ही
भाषा
बदल कर
किताबें
दुनियाभर
की सैर करती रहती हैं
कई
सारी लिपियों के अक्षर
अपने
बदन पर
गोदती हैं
सारी
सीमाएं लाँघ कर
हवा
के झोंके जैसी
मस्ती
में
चारो
ओर घूमती रहती हैं
३.
किताबों
का
अपना
रूप होता है
बंद
आँखों से भी
छूने
के बाद
उसका
अहसास होता है
गंध
होती है
उनके
आने से पहले
वह
महकती चली आती है
मुखपृष्ठ
के मुखौटे
चहरे
पर रख कर
किताबें
आया करती हैं
हर
पन्ने का दरवाजा
खुला
रखती हैं
कहीं
से भी
किताबों
में
प्रवेश
किया जा सकता है
४.
पहली
बार हाथ में आयी
नयी किताब
बाद
में घुल मिल जाती है
इस
हाथ से उस हाथ में
घूमते
भटकते
छीजती
जाती है
पहले
तो
उसके
शुरुआत के पन्ने
गल
जाते हैं
बाद
में
आखिरी
पन्ने झड जाते हैं
और अंत में
और अंत में
तो
वह किताब ही
कहीं
गुम हो जाती है
नई
पुस्तक खरीदने के बावजूद
उस
प्रति की यादें
मन
से हटती नहीं
किताबें
बूढ़ी होती जाती हैं
डंठल
से उनके पत्ते
छूटने
लगते हैं
तब
उन्हें
नर्मदिली
से
उठाकर
रखना पड़ता है
बूढ़े
बाप जैसा
सम्हालना
पड़ता है
५.
आंखे
मूंदकर
किसी
किताब की
मन
में इच्छा धरना
और
आंखे खोलने के बाद
तुरंत
उस किताब का
आँखों
के सामने होना
ऐसा
तो आजकल कई बार होते रहता है
लेकिन
पहले किताबें
सिर्फ
दुर्लभ ही नहीं
कीमती
जवाहिरों जैसी होती थीं
अभी
अभी चार शताब्दियाँ पहले
होमिलीज
की एक प्रति खरीदने के किये
दो
सौ बकरियां और दो बोरे अनाज
देने पड़ते थे
किताबों
को पास में रखना
किसी
ऐरे गैरे का
काम
नहीं था
उधर
किताबें
सरदार
उमराव
रईसों
अमीरों के पास
या
फिर किसी मठ में या
पीठ
में होती थीं
और
इधर तो
सर
पर पक्की चोटी बांधकर
वज्रासन
में बैठती थीं
बहुत
करीब जाने पर
बदले
में सीधे अंगूठा काटकर
मांगती थीं
६.
किताबें
लिखी
जा रही हैं
सदियों
से
कौन
जाने कब से
ये
छपती जा रही हैं
नौवी
सदी में
वांग
चे की छापी हुई किताब
अब
भी है ब्रिटिश म्यूजियम में
पंद्रहवी
सदी का ग्युटेनबर्ग बाइबल
मैंने
अपनी आँखों से देखा है
एलिज़ाबेथियन
मेज पर
बंद
कांच की संदूक में रखा हुआ
लायब्ररी
ऑफ़ कांग्रेस में
मृग
शावक की
या
पशु भ्रूण की
कोमल
महीन चमड़ी को
गुलाबी
जामुनी पीले नीले हरे
रंग
से सिझाकर बने वत्स पत्रों पर
लिखीं गईं किताबों को
दूसरे
हेनरी की रॉयल लाइब्ररी से
लाइब्ररी
ऑफ़ पेरिस में
देखकर
हैरान हो गया
७.
किताबें
लिखी गई
कपडे
पर
पेड़
की छाल पर
रेशीम
वस्त्रों पर
सींगों
पर
सीप
पर
चावल
के दाने पर
गोद
ली पूरे बदन पर
खरोंच
दी
कारागार
की दीवारों पर
पांच
सहस्राब्दियां पहले
अपौरुषेय
पुस्तके
आवाज
के खम्बों ने थामें
बरामदे
में रहती थीं
वैशम्पायन
की अंजुली से
याज्ञवल्क्य के हाथों में
नवजात
बालक की तरह
सौपी गईं
किताबें
सीसें की थीं
पक्की
भुनी हुई ईटों की थीं
नाइल
के किनारे पाए जानेवाले
पपायरस
पर भी
लिखी गईं किताबें
पपायरस
न मिलने पर
चर्मपटों
पर
लिखी गईं किताबें
काल
के
किसी
भी ज्ञात कोने में
कोई
किताब
मिल
ही जाती है
असल
में
किसी
किताब के कारण ही
वह
कोना
उजाला
हुआ होता है
८.
डर
जितना आदिम है
उतनी
ही आदिम होगी
किताबें
आग
पर
काबू
पाने का आनंद
इन्सान
ने
लिख
कर ही
अभिव्यक्त
किया होगा
पत्थर
से पत्थर पर
आग
ही नहीं
संकेत
चिन्ह भी
बनाये
जा सकते हैं
इस
बात का पता
उसे
उसी वक्त लगा होगा
९.
किताबें
पहली
बार
धर्मग्रंथों
के रूप में आईं
क्या
इसीलिए
किताबों
के बारे मे अभी भी
मन
में इतना सम्मान है
सभी
पवित्र कथन
किताबों
से आये हैं
पर
सभी किताबें
उन
वचनों जैसी
पवित्र
नहीं होतीं
धर्म
के
विचारों
के
इंसानियत
के भी
खिलाफ
होने का विष
उनमे
उबलता दिखता है
तब
किताबे
परायी
सी लगती है
१०.
किताबें
अचानक
कगार
तक
धकेलती
जाती हैं
चाकू
से भी
नुकीली
होती हैं
ठन्डे
दिमाग से
दिमाग
फिरा देती है
फसाद
में
पत्थर
लाठी सांकल सलाखें
बन
जाती हैं
छुरामारी
में
चाकू
का काम करती हैं
दंगे
में
पत्थर
की पाटी होकर
रस्ते
में
गिरे
हुए के
सिर
को
कीचड़
में बदल देती हैं
जलाने
में
पलीता
या
पेट्रोल बम
हो
जाती हैं
चारमिनार
की छाँव में
भरी
राह में
बदन पर
तेजी
से चलने वाले वार
बन
जाती हैं
एके
फोर्टी सेवेन से
हर
मिनट को
छह
सौ राउंड की गति से
छाती
में दागी जाने वाली
आस्तिक
गोलियां बन जाती हैं
दिन
दहाड़े
बाजार
में पकड़कर
सिर
पर टिका
पिस्तौल
हो जाती हैं
बीच
रात
घर
के सामने इकठ्ठा भीड़ से
पत्थर
बन कर
सरसराते
हुए फेंकी जाती हैं
आधी
रात
फोन
पर धमकियाँ देती हैं
रंगमंच
उछाल देने वाला
दीवानगी
भरा प्रेक्षागार बन जाती हैं.
प्रफुल्ल शिलेदार
११.
लोहे
सी दीवार पर
अपनी
नाखूनों से
खरोचने
लगता हूँ तो
निगाहों
की नोक पर
आ
जाता हूँ
खुली
हवा की तलाश में
आते
है कई लोग मेरे पीछे पीछे
सफेद
छोटे से अंगोछे का
पीछा
करने वाला
भरी
भीड़ से
आगे
आता है
पहचान
कर
रिवोल्वर
दाग देता है
महात्मा
मिट जाते हैं
मंडेला
मुक्त होते हैं
धीमी
गति से
बढ़ता
है मुक़दमा
आँखों
के सामने चमकती है
टूटी
हुई निब
काले
कपडे के भीतर
बाहर
आ जाती है जीभ
अपने
आप को खो कर
राह
से दौड़ने लगता हूँ
सांसे
बढती है
तियानमेन
चौराहे पर पहुँच जाता हूँ
बर्फ
जैसा जमने के बजाय
चिंगारी
जैसे सुलगता हूँ
१२.
किताब
छाती से सिमटाकर
मंदिर
मस्जिद के बाहर
क़तार
में
उकंडू
बैठता हूँ
एक
हाथ में किताब थामकर
दूसरे
हाथ में
बिजली
की तार
कस
कर पकड़ता हूँ
किताब
लांघकर जाने के बाद
पागलखाने
में
साँसनली
में अटक जाता है
चावल
का एक दाना
और
रुक जाता
सांसो
का गाना
१३.
किताबें
तो निहत्थी होती हैं
लेकिन
किताबों पर
हथियार
चलाये जाने के
कई
मसले
इतिहास
में हैं
किताबें
लेखक पर
दहशत
का बोझ
लाद
कर
मुल्क
निकासी करवाती हैं
जिंदगी
भर के लिए
जन्म
भूमि से
जलावतन
कर देती हैं
लेखक का
सिर
काटकर लाने पर
इनाम
भी रखा जाता है
दीवानगी
में
किताबें
फाड़
कर
टुकड़े
टुकड़े
किये
जाते हैं
पागलपन
में भी
कभी
कभी
बड़े
संयम के साथ
लेखक
के बजाय
किताबों
को ही
जलाया
जाता है
१४ .
महाकाय
बामियान
बुद्ध को
तोप
से तहस नहस करनेवाले
फैले
है दुनियाभर में
कभी
खुले आम
कभी
बुरका लेकर
रहते हैं
भीतर
से
हमेशा
डरे हुए से
महाकाय
बुद्ध से ही नहीं
कागज
के जीर्ण
टुकड़े
से भी डरते हैं
किताबों
पर ही नहीं
तो
पुरानी
पांडुलिपियों पर
भूर्ज
पत्रों पर
बसन
में लपेटे पोथियों पर
बहियों
पर
रिसालों
पर
तवारीखों
पर
स्मृतियों
पर
संहिताओं
पर
शिला
लेखों पर
ताम्र
पट पर
मुद्राओं
पर
सनदों
पर
दस्तावेजों
पर
वे
झुण्ड से
हल्ला
बोल देते हैं
कब्जे
में आयी हर चीज
फाड़कर
फोड़कर
नष्ट
कर देते हैं
किताबों
का
अवाम
में
ठाठ
खड़े रहना
जेहेन
में बस जाना
सत्ता
को सामने आकर
चुनौती
देना
जिन्हें
खटकता है
वे
किताबों को
नष्ट
करने की
कोशिश
में रहते हैं
लाख
के घर बनाकर
लेखक
को
बुलावा
भेजते हैं
१५.
किताबें
इतिहास
की गूढ़ हंसी
हंसती हैं
जो
इतिहास बदल नहीं सकते
वे
किताबों को बदलते हैं
उनकी
निर्मलता
मलिन
कर देते है
किताबों
के माध्यम से
वे
बरसों तक टिके रहेंगे
ऐसा
मानकर
लिखवा
लेते हैं
मनचाही
किताबें
किताबों
पर अपना झंडा गाड़कर
उनकी
छाती पर
पांव
रखकर
खड़े
रहने से
किताबों
पर
काबू
पा लिया
ऐसा साबित
नहीं होता
१६.
किताबें
अतीत
की
मोटी
चमड़ी फाड़कर
इतिहास
के पेट में छिपी काली अंतड़ी
दिखाती हैं
वह
जिनके लिए
गले
का फंदा बन सक सकती है
वे दूर
भगा देते हैं किताबों को
दरवाजे
खिड़कियाँ
कस कर बंद कर देते है
सीमाओं
पर गश्त बढ़ा देते हैं
नाकाबंदी
संचारबंदी
सब
कुछ अजमाकर देख लेते हैं
उस
वक्त किताबें
तितलियाँ
बनकर
उड़ती
चली आती हैं
लेखक
की कवि की
उँगलियों
पर
हलके
से बैठकर
लाये
हुए पराग कण
उसकी
कलम की स्याही में
घुला
देती हैं
१७.
किताबों
को जब
अवाम
की आवाज
मिल
जाती है
तब
वे समुन्दर की ऊँची लहरों जैसे
गरजती हैं
पहुँच
जाती हैं ऊंचाई पर
और तारों
जैसी
अचल
होकर
चमचमाती हैं
आँखों
को दृष्टी देती हैं
आवाज
को सुर देती हैं
बंधे
हुए हाथ पांव
खोल
देती हैं
तनाव
की काँटों भरी बाड़ को
तोड़ने
के लिए आरा बन जाती हैं
हाथ
पांवों को बंधी रस्सी तोड़ने के लिए
चाकू
बनती हैं
१८.
किताबें
सीप
बनकर
भाषा
सहेजते हैं
उदक
बनकर
अंकुर
उगाते हैं
पेंग्विन
होकर
मीलोंमील
सफ़र करते हैं
चिड़िया
जैसे
घोसला
ही नहीं
कठफोड़वे
जैसे
गहरे
संजीदा
निशान
भी करते हैं
लायब्ररी
के अलमारियों में
बड़े
संयम से
खड़ी किताबें
चील
की नजरों से
कांच
से बाहर
ताकती
रहती हैं
कई
किताबें
चमगादड़
जैसी निश्चिन्त होकर
उलटे लटकती है
उग्र
ऋषी जैसे
तप
करते किताबों को
हाथ
लागने का धैर्य
किसी
एकाध में ही होता है
रंगीन
चिड़ियों जैसी
मुर्गे
या बदक जैसी
गिरोह
में रखी किताबें
चहचहाती हैं
उन्हें
हाथ में लेने वालों को
निहारती
रहती हैं
किताबें
तो
लुगदी
बनकर
कागज
बनी
पेड़
की टहनी
इसीलिए
भटकते पछियों के लिए
होती
है एक जगह अपनी
बन
भी सकते हैं
एक
विराट ओपेरा की
अप्रत्याशित नांदी
१९ .
किताबें
संदेश के लिए भेजे गए
कोरे कागज़ के
पीछे
आती हैं
धारा
में डूब कर भी
किनारे
पर आती हैं
दरवाजा
बंद करने के लिए
टाटी
बन जाती है
रोटी
सेंकते वक्त
अपने
आप
होठों
पर आती हैं
इस
जनम में
लिखना
रह गया
तो
अगले जनम में
कोख
में आती हैं
सात
समुन्दर पार कर के
किताबें
मुझ
से मिलने जब तेज़ी से चली आती हैं
तब समूची
पृथ्वी
लिली
का पीला फूल बनकर
मुस्कुराती
है
२०.
किताबें
स्थितप्रज्ञ
जैसी
स्थितिशील
इंसानों
की दुनिया में
ईश्वर
ने
दखल
अंदाजी करना
वैसी
ही
किताबों
की दुनिया में
इन्सान
आगंतुकी से
दस्तंदाजी
करते रहता है
सामने
के दो पांव
ऊँचे
उठाकर
पिछले
दो पांवों पर
खड़े
होनेवाली
जिराफ
जैसी
गर्दन
लम्बी करनेवाली
बकरियों
को
किताबें
भरपूर
पत्तियाँ
जिन्दगी
भर
चरने
देती है
***
(अनुवाद : स्वयं कवि)
हिंदी-मराठी की मिली-जुली संस्कृति के नगर नागपुर में जन्मे प्रफुल्ल
शिलेदार वरिष्ठता की दहलीज़ पर क़दम रखते हुए मराठी के बहुचर्चित-बहुप्रकाशित
कवि-अनुवादक-समीक्षक हैं. वह पिछले कई वर्षों से हिंदी से मराठी में अनुवाद कर रहे
हैं और विनोदकुमार शुक्ल एवं ज्ञानेंद्रपति जैसे चुनौती-भरे कवियों
के पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित कर चुके हैं जिन्हें मराठी में बहुत सराहा गया है.
स्वयं उनकी कविताओं के अनुवाद हिंदी सहित कई भारतीय तथा अंग्रेज़ी सहित अन्य विदेशी
भाषाओँ में हुए हैं. उनकी कविताओं का हिंदी संकलन ‘पैदल चलूँगा’ शीघ्र
प्रकाश्य है.
ब्रातिस्लावा, स्लोवाकिया
में होनेवाले कविता-समारोह ‘’आर्स
पोएतीका’’ में 2013 में
आमन्त्रित वह पहले भारतीय कवि थे. उन्होंने देश विदेश के कई महत्वपूर्ण साहित्यिक
आयोजनों में काव्यपाठ किया है. उनकी पत्नी सौ.साधना शिलेदार हिन्दुस्तानी
शास्त्रीय संगीत की प्रसिद्द गायिका तथा कुमार गंधर्व की अध्येता हैं.
प्रफुल्ल शिलेदार (मो.09970186702) मुंबई
में रहकर बैंक की नौकरी करते हैं./shiledarprafull @gmail.com
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शानदार प्रस्तुति... प्रफुल्ल जी को पहली बार पढ़ा। पढ़कर विस्मित हूँ, किताबों की एक पूरी दुनिया किस तरह से इन कविताओं में आकर सचमुच की एक ऐसी दुनिया में बदल गई है जहाँ हम रहते हैं... पाठक ही किताबें नहीं चुनते... किताबें भी अपने पाठक चुनती है... यह कविताएँ अपने पाठकों को चुनने वाली कविताएँ हैं... बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंदाखिल और दखल की ये दुनिया कई बुकमार्क छोड़ गई। शुक्रिया समालोचन।
जवाब देंहटाएंExcellent transparent poetry!
जवाब देंहटाएंप्रफुल्ल जी की कविताबरुतपसन्द आई । उन्हें बधाई । आप को धन्यवाद पढ़वाने के लिए।
जवाब देंहटाएंप्रूफ़ की ढेर सारी ग़लतियाँ सम्पादक की ज़िम्मेदारी पर सवाल खड़ा करती हैं। कविताएँ बेहद अच्छी हैं। अनुवाद में कहीं-कहीं भाषा की गड़बड़ है, लेकिन फिर भी अच्छा अनुवाद है।
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