मीमांसा : आजादी, धर्म, देशभक्ति और राष्ट्रवाद : संजय जोठे






हिंदी के कवि धूमिल ने कभी पूछा था-

“क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?

आज़ादी ही नहीं धर्म और राष्ट्र को लेकर भी ऐसे प्रश्न पैदा हो रहे हैं. आधुनिकता की कोख से निकली ये पवित्र मान ली गयीं अवधारणाए आज के ‘दलाल पूंजीवाद’ और ‘साम्प्रदायिकता’ के उभार के दौर में कितनी कलुषित हो गयीं हैं इसे आसानी से समझा जा सकता है. संजय जोठे का  समीचीन और विचारोत्तेजक आलेख.


आजादी, धर्म, देशभक्ति और राष्ट्रवाद                                    
संजय जोठे


भारत में इस राजनीतिक परिवर्तन के बाद बहुत अर्थों में देशभक्ति की परिभाषाएं बदलने का प्रयास हो रहा है. किसी एक सांस्कृतिक आग्रह से जन्मी अंतर्दृष्टि से अब सार्वजनिक जीवन व राष्ट्रीय जीवन के हर आयाम को रंगने का प्रयास चल निकला है. अब बहुत जोर-शोर के साथ एक ख़ास ढंग का राष्ट्रवाद अमल में लाने की तैयारी हो रही है. इस प्रष्ठभूमि में देशभक्ति को नए अर्थ में समझा और समझाया जाएगा. इन परिभाषाओं से सहमति और असहमतियों के अपने अपने परिणाम होने वाले हैं, इन परिणामों को भी धीरे धीरे प्रचारित किया जाने लगा है. इन परिवर्तनों को ठीक से तभी समझा जा सकता है जब हम स्वयं आजादी और देशभक्ति को उनके मौलिक अर्थों में समझें. विशेष रूप से उस अर्थ में जिस अर्थ में ये शब्द आजकल के नए राष्ट्रवादियों द्वारा समझे और समझाए जाते हैं. चूँकि यह नया राष्ट्रवाद एक धर्म विशेष के आग्रहों से संचालित है इसलिए धर्म और संस्कृति की खोल में देशभक्ति और आजादी का क्या स्वरुप है इसे जानना बहुत जरुरी है.

धर्म और संस्कृति के आग्रहों से जन्मी आजादी और देशभक्ति की प्रचलित धारणाएं बहुत ही हवाई किस्म की होती हैं. कम से कम इस मुल्क में तो वे ऐसी ही रही हैं. यह संयोग नहीं है बल्कि बहुत बारीक तरीके से बुना गया षड्यंत्र है. हवाई किस्म की धारणा से मेरा आशय है ऐसी धारणा जिसमे आपरेशनलाइज़ करने को कुछ न हो सिर्फ भावनात्मक ज्वार हो जो सिर्फ झाग बिखेरकर लौट जाता. और यह ज्वार भी धर्म के धक्के से ही पैदा होता है. देशभक्ति असल में धर्म भक्ति का ही एक घटिया संस्करण है. उतना ही मारक लेकिन देखने में खूबसूरत. सभी समाजों में यह बराबर देखने को मिलेगा. भारत में प्रचलित देशभक्ति को लीजिये यहाँ अफगानों, मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक ने बार-बार जाहिर किया है कि इस देश के लोग लड़ना नहीं बल्कि मरना जानते हैं, मतलब ये कि विजय या कौशल से बड़ी बात है वीरगति. लड़ने मरने और देशभक्ति का एक संस्करण अरब और यूरोप में भी रहा है. वहां भी प्रचलित धारणा में शहीद होना साधक या नमाजी होने से भी बड़ा पुण्य है. इसी तरह ईसाईयों के टेम्पलार और क्रुसेडर्स रहे हैं. ये धर्म की वार मशीने थीं इनकी धमनियों में धर्म का बुखार लहू बनके बहता था.

यहाँ गौर करने की बात है कि सभी धर्मों में मृत्यु और आत्मबलिदान स्वयं में एक स्वतंत्र मूल्य की तरह स्थापित होते जा रहे हैं. ये गुण कबीलाई या आदिम समाज में आजाद होने या आजादी की रक्षा करने के लिए साधन की तरह उपयोगी रहे है, इसी क्रम में इनका उपकरण की तरह निर्माण और इस्तेमाल हुआ है. लेकिन युद्धखोर समाजों की प्रेरणाओं में जब धर्म की हवस भी शामिल हो जाती है तब मरने मारने वालों की मांग बहुत बढ़ जाती है. धर्म की भूख भयानक है और लगातार बनी रहती है. सामान्य कबीलाई समाज में और घुमंतू समाज में युद्ध कभी इतने लम्बे और भयानक नहीं होते जितने तथाकथित धर्मप्राण समाजों में या राष्ट्रों में हुआ करते हैं. इस अर्थ में संगठित धर्म एक अंतहीन व भयानक युद्ध लड़ने की स्वचालित मशीन है. धर्म के आते ही बहुत बड़ी संख्या में लोग चाहिए होते हैं जो लगातार शहीदों की सप्लाई बनाए रखें. ये सप्लाई बनी रहे इसके लिए जरुरी है कि जीत के बाद के लौकिक और शारीरिक सुखों के आश्वासनों को जमीन से लेकर स्वर्ग तक फैला दिया जाए.

अब चुंकी शहीद जिस समाज में या जिस समाज से लड रहा है उस समाज का ढंग ढोल देखकर उसे भी डर तो लगता ही है कि ये समाज जो अभी ही मुझे दो रोटी और चैन की नींद नहीं दे पा रहा है जीतने के बाद क्या ख़ाक दे सकेगा? उसके इसी भय का इलाज स्वर्ग की तस्वीर खींचकर किया जाता है. मतलब कि विजय और पराजय दोनों के ठोस लौकिक पक्षों सफलता या असफलता - पर आलौकिक आश्वासन की फफूंद चढ़ाई जाती है. इसी काम के लिए एक सबसे मारक आविष्कार किया गया है और वो है - स्वयं शहादत और मृत्यु में ही दिव्यता का आरोपण करके उसे महानतम मूल्य साबित करना. अब मरना कोई आनंद का विषय तो है नहींइसलिए मृत्यु के बाद आनंद के आश्वासन बनाए जाते हैं, और बलिदान उसकी एकमात्र शर्त बनाई जाती है. फिर आपका जीवन बहुत अभाव और दमन में गुजरता है तो आपके लिए बहत्तर हूरें खड़ी की जायेंगी और अगर आप दुसरे तरह के अंधविश्वासों में दीक्षित किये गए हैं तो आपके लिए मुक्ति मोक्ष या अगले बेहतर जन्म के पुरस्कारों का वादा किया जाता है.

इस तरह समय के साथ बढ़ते हुए धर्म बहुत षड्यंत्र पूर्वक मृत्यु और बलिदान को स्वयं में ही एक स्वतंत्र मूल्य बना डालता है और उसके प्रति सम्मोहन भी बढाता जाता है. अब यहाँ एक बात बहुत गहराई से नोट करिए, धर्म के पास इस लौकिक जीवन में देने को कुछ नहीं है, हो भी नहीं सकता. जो कुछ है वो सब आसमान में है. इसलिए इस शहादत या बलिदान का लौकिक प्राप्य परिभाषित ही नहीं किया जा सकता. बहुत कोशिश करके बस इतना ही बतलाया जा सकता है कि तुम्हारे बलिदान से तुम्हारे बच्चों का भविष्य सुरक्षित होगा. अब यह फिर से समय और परिस्थिति की अनंत अनिश्चितता में लटका हुआ एक हवाई आश्वासन है, हो न हो. यह मरने वाला भी जानता है. इसीलिये उसके दिमाग में शहादत का सम्मान भी ठूंसा जाता है और उसके नाम पर बैंड बाजे बजाये जाते हैं. शहीद की मृत्यु या उसकी अंतिम क्रिया को एक समारोह का रूप देकर अगले शहीदों को निमंत्रण दिया जाता है. सभी धर्म यही करते रहे हैं, आज भी करते हैं.

अब इस भूमिका के प्रकाश में देशभक्ति और देश के प्रति कुछ कर गुजरने की उस पुकार को रखकर देखिये जो एक ठोस व् लौकिक नव निर्माण के आश्वासन से नहीं बल्कि शहादत की दिव्यता से आपको सम्मोहित करना चाहती है. सरल ढंग से कहें तो ऐसी देशभक्ति जिसके पास भविष्य का कोई ऑपरेशनल रोडमेप न हो वह न केवल धर्म की अंधभक्ति जैसी ही बाँझ है, बल्कि उससे कहीं अधिक हिंसक भी है. जिस समाज में लौकिक और शारीरिक सुख के आश्वासन हैं वहां लोग मरने से ज्यादा लड़ना पसंद करते हैं. क्योंकि उन्हें पता है कि ज़िंदा रहे तो क्या-क्या भोग सकेंगे. जिन्हें नहीं पता, या जिन्हें उम्मीद ही नहीं है कि यहाँ कुछ भोग सकेंगे वे सीधे स्वर्ग या अगले जन्म में ही खोये रहते हैं, इसीलिये वे हारते रहे हैं.

इसीलिये अरब, मंगोल, और यूरोपीय आक्रमणकारी भारत को इतनी आसानी से हराते रहे हैं. अब इसमें एक दूसरा पेंच भी है. इसी लौकिक अनुमान के साथ एक असुरक्षा भी जुडी है. चूँकि वे ये भी जानते हैं कि युद्ध की पराजय उनसे क्या छीन सकती है इसलिए वे युद्ध से इनकार भी कर सकते हैं. दशकों पूर्व अमेरिका का वियतनाम में फंसना इसी का उदाहरण है जब सुविधाभोगी पीढी ने वहां जाकर लड़ने से इनकार कर दिया था. उसके बाद फिल्मों और विडिओ गेम्स के जरिये देशभक्ति, सैन्य हिंसा, युद्ध और जासूसी ऑपरेशंस को पेंटागन और हालीवूड ने साथ मिलकर महिमामंडित करने का लंबा अभियान चलाया है जो आज भी जारी है.

मतलब ये कि धर्म जो काम शास्त्र लिखकर करता है वही काम राष्ट्र अब फिल्मे और विडिओ गेम्स बनाकर बनाकर करते हैं. इसी के साथ सुविधाभोगी पीढी को मौत से बचाने के लिए टेक्नालाजी पर भयानक खर्च भी करना पड़ता है ताकि दूर बैठकर ही देशों का सफाया किया जा सके, और यही असल में उस तथाकथित स्पेस रिसर्चऔर अक्षय ऊर्जा की खोजकी मूल प्रेरणा है, यूं तो सबको मिसाइल और एटम बम ही बनाने है लेकिन उसे स्पेस रिसर्च या एनर्जी या मेडिकल रिसर्च के नाम से शुरू करते हैं. बाद में स्पेस रिसर्च के लिए बना राकेट धीरे से मिसाइल बन जाता है.

इस देश में भी इसरो इसीलिये बनाया गया था. भरोसा न हो तो ISRO और DRDO के मधुर संबंधों को आप देख सकते हैं. इसीलिये आप देख पायेंगे कि जितना खर्च जीवन बचाने की रिसर्च में होता है उससे कई गुना ज्यादा वार टेक्नालाजी विकसित करने पर होता है. इसे समझने के लिए सभी देशो का चिकित्सा/शिक्षा बजट और प्रतिरक्षा विकास बजट उठाकर देखे जा सकते हैं, उनकी प्राथमिकताएं स्पष्ट हो जायेंगी. यह संयोग नहीं है, यह एक सुविचारित प्रक्रिया है. इस अर्थ में धर्म की भक्ति और देशभक्ति में बहुत अंतर नहीं है. दोनों को लंबे समय तक शहीदों की सप्लाई चाहिए. इसलिए दोनों के लिए शहादत परम मूल्य बन जाता है.

अब आते हैं आजादी पर. आजादी भी शहादत की तरह सिर्फ एक हवाई मूल्य है. यह एक स्थितिया एक मुकाम की तरह समझाई जाती है. और इसके पीछे भी संगठित धर्म का षड्यंत्र ही है. ये समझना थोड़ा कठिन है लेकिन बहुत मजेदार है. लगभग सभी समाज आजादी को एक प्रक्रिया या मार्ग की तरह नहीं बल्कि स्वयं में एक मंजिल की तरह पेश करते हैं. ये बिलकुल एक मुश्त जन्नत वाला मामला ही है. हालाँकि ये एक मनोवैज्ञानिक जरूरत है कि आप को किसी गुलाम को आजादी के एक ही पैकेट में सब कुछ दिखाना पड़ता है. यही मजबूरी धर्म के साथ है. उसे स्वर्ग के एक ही पैकेट में सभी प्रोडक्ट ठूंसकर दिखाने होते हैं. लेकिन यहाँ एक अंतर है. धर्म के साथ चूँकि आलौकिक जुडा है इसलिए उस आयाम में पुरस्कार का मिलना न मिलना नजर नहीं आता है.

लेकिन देश के लिए मरने के बाद बच्चों को क्या मिलेगा ? पेंशन और सुरक्षा मिलेगी या नहीं मिलेगी? बीबी या माँ बाप का क्या होगा? ये शहीद को नहीं लेकिन उसके जाने के बाद दूसरों को बहुत साफ़ दिखाई देता है. इसलिए कम ही लोग सैनिक बनना पसंद करते हैं. आज भी आप किसी सैनिक से पूछ लीजिये उसकी मौत के बाद वो अपने परिवार की सुरक्षा और खुशहाली के लिए कितना आश्वस्त है. उसका उत्तर बहुत सकारात्मक नहीं होगा. इस तरह वह अपने लिए या देश के भविष्य के लिए या अपने परिवार के भविष्य के लिए एक बेहतर भविष्य का आश्वासन नहीं ढूंढ पा रहा है. इसीलिये मृत्यु उसके लिए एक अंतिम छलांग है उसके बाद वो अनंत सुख और बेहतर जन्म का झुनझुना बजाएगा है.

अब गहराई से गौर करिए धर्म और देशभक्ति और आजादी तीनों के लिए इस ठोस लौकिक व शारीरिक आयाम में (अपने लिए या परिवार के लिए) कोई आश्वासन नहीं है. कोई गारंटी नहीं है. आजादी की ऐसी कोई प्रक्रियात्मक व्याख्यानहीं है जिसको किसी ठोस भविष्य के निर्माण के लिए ओप्रेशनलाइजकिया जा सके. एक अन्धविश्वासी, धर्मभीरु, विभाजित और गरीब समाज में ऐसी कोई सुविधा नहीं है कि बेहतर जीवन, समरस जीवन और साझी खुशियों की कल्पना की जा सके अर्थात देशभक्ति या आजादी की कल्पना किसी अन्यतर या वृहत्तर शुभ के लिए मार्ग नही बन सकती. इसलिए देशभक्ति और आजादी को खुद में ही एक मंजिल बना दिया जाता है. ये एक बहुत गहरी और बहुत भयानक बात है.

इसका बहुत गहरा अर्थ है. इसका मतलब ये हुआ कि देशभक्ति और आजादी अपने आप में सब कुछ बन जाती है. आजाद होकर या देशभक्त होकर हम क्या हासिल कर लेंगे इसका कोई अनुमान नहीं है. यहीं बात आती है FREEDOM FROM और FREEDOM FOR के अंतर की. मतलब ये कि आजादी आपके लिए क्या है? क्या किसी सेआजाद होना आपके लिए महत्वपूर्ण है? या किसी (लक्ष्य) के लिएआजाद होना आपके लिए महत्वपूर्ण है? मतलब आजादी को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करके आप क्या हासिल करना चाहते है? क्या वाकई आपको अपने समाज से उम्मीद है कि यहाँ की सामाजिक संरचना में आपको या आपके परिवार को भौतिक (आसमानी नहीं) सुख मिल सकेंगे? अगर आपके पास ये स्पष्ट अनुमान है तो आप आजादी का अर्थ समझते हैं और उसका ठीक सम्मान व इस्तेमाल दोनों कर सकेंगे. अगर ये अनुमान नहीं है तो आप सिर्फ नारेबाजी करेंगे और देशभक्ति के गीत गाने और शहादत पर ढोल बजाने को ही अपना एकमात्र कर्त्तव्य मानेंगे.

अब थोड़ा और गहरे चलिए. जिस समाज की मौलिक संरचना इतनी जड़ और विभाजित हो कि उसमे आजाद होकर भी कुछ नहीं मिलने वाला उसपर विचार कीजिये. ऐसे भयानक रूप से निराश समाज को आप कैसे ज़िंदा रखेंगे और कैसे युद्ध या दंगों के लिए तैयार करेंगे? मतलब कि ठोस लौकिक और शारीरिक सुखों को समाज के विभाजन ही छीनकर ले गए, न आप पढ़ सकते हैं न मनमर्जी का रोजगार कर सकते हैं. तब आपको ज़िंदा बनाए रखने और देशभक्त बनाए रखने के लिए कोई क्या करेगा? निश्चित ही तब पूरा जोर आलौकिक (धर्म) पर होगा और भविष्य के स्वर्ण युग की बजाय अतीत के स्वर्णयुग पर जोर होगा. क्योंकि भविष्य में आप समाज की व शोषण की हीयरार्की तोड़ने का सपना देख सकते हैं जो धर्म को बिलकुल बर्दाश्त नहीं होगा, इसलिए वो भविष्य का नहीं अतीत का गुणगान करते हैं.

अब इतना पढने के बाद आप सब देशों में शुरू हुए सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या धार्मिक सत्तावाद को समझने की कोशिश कीजिये. आप आसानी से समझ पायेंगे कि की इनकी मौलिक प्रेरणा क्या है और ये किस लक्ष्य का संधान करते हैं.

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संजय जोठे  university of sussex से अंतर-राष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
sanjayjothe@gmail.com

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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (03-10-2015) को "तलाश आम आदमी की" (चर्चा अंक-2117) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जैसे धर्म की दुकान किसी व्यक्ति या प्रतिक पर सजाई जाती है राष्ट्र भी कुछ हस्तियों की लाशों पर स्थापित किया जाता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और धार्मिक सत्तावाद दोनों एक दूसरे में समाहित हो चुके हैं। अलग-अलग समझना मुश्किल हैं। हाँ इसे नए नाम से बेहतर समझ सकते हैं और वह है "पूंजीवाद" और जिसकी अभियक्ति है "आतंकवाद"।
    अच्छा लेख हैं!
    साधुवाद

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  3. जबरदस्त लिखे है .बहुत तार्किक विवेचन

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  4. धार्मिक हिंसा, आतंकवाद और वर्चस्व की अभिलाषा का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण। अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख।

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  5. निश्चित रूप से जिन ट्रेजेक्ट्रीज़ से हमारा समय घिरा है, वह इतिहास की इस धारा में हमें पीछे धकेल रहा है। जरूरी आलेख।

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