परख : प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता (लवली गोस्वामी) : संजय जोठे











मिथकों और पुराशिल्पों के अध्ययन और विश्लेषण पर दामोदर धर्मानंद कोसंबी (१९०७-१९६६) ने बेहतरीन कार्य किया है. उनके लिखे शोध निबन्धों की संख्या १०० से भी अधिक हैं. अंग्रेजी में लिखे इन निबन्धों में से कुछ का हिंदी में अनुवाद भी हुआ है


लवली गोस्वमी की यह किताब वर्तमान सन्दर्भों से पुरा-काव्य-शिल्प को देखती परखती है और इसमें एक नारीवादी नजरिया हमेशा सक्रिय रहता है. संजय जोठे की समीक्षा. 




समीक्षा
पुरुष सत्ता व पित्रसत्ता का अस्तित्वगत प्रतिपक्ष : मातृसत्ता                
संजय जोठे 


ह किताब बहुत-बहुत महत्वपूर्ण है, जिस विषय पर लिखी गयी है और जिस समय में लिखी गयी है उन दोनों बातों से इसका महत्व बढ़ जाता है. हालाँकि यह विषय एकदम नया है, नया इस अर्थ में नहीं कि इससे जुड़ा मनोविज्ञान या प्रक्रियाएं हमारे लिए विजातीय हैं, बल्कि इसलिए कि इस मनोविज्ञान और इन प्रक्रियाओं को ऐतिहासिक रूप में एवं समाजशास्त्रीय और मानवशास्त्रीय ढंग से देखना हमें ठीक से सिखाया नहीं गया है. हमारी शिक्षा और संस्कृति दोनों ने ही हमारी सामूहिक चेतना के विकास क्रम में जिन आवश्यक चीजों से हमें वंचित किया है उनमे से मिथकों का मनोविज्ञान और उस मनोविज्ञान का समाजशास्त्रीय व मानवशास्त्रीय अर्थ में उसकी डीकोडिंग करने की क्षमता प्रमुख चीजें हैं. आजकल के संस्कृति-रक्षक इतिहास को मटियामेट करने का जो आरोप विदेशी आक्रान्ताओं पर लगा रहे हैं वह आरोप गहराई से उन्ही की संस्कृति और धर्म पर लगता है. इस बात को समझना कठिन है, खासकर आज की इन्टरनेट पीढी के लिए जबकि अधिकाँश लोग विज्ञान विषयों को ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण समझते हैं और समाजशास्त्र, भाषा, साहित्य, दर्शन, इतिहास या अन्य विषयों से परिचित नहीं हो पाते, वे लोग न केवल इन बातों से वंचित हैं बल्कि वे चाहकर भी इन्हें समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं. ऐसे लोगों के लिए इस समय इन विषयों पर लिखना अपने आप में एक चुनौती है.
लवली गोस्वामी

अपने केन्द्रीय विषय मातृसत्ता और यौनिकता के आपसी संबंधों का गहराई से विश्लेषण करने वाली यह किताब बहुत वैज्ञानिक ढंग से और जीव वैज्ञानिक तथ्यों से भरी भूमिका से शुरू होती है और एक तार्किक क्रम में विषय प्रवेश करवाती है. स्त्री और यौनिकता से जुड़े हुए सामाजिक धार्मिक नियमों नियंत्रणों के पीछे असल समाजशास्त्रीय, मानवशास्त्रीय और धार्मिक प्रतिबन्ध या पुरस्कार क्या रहे हैं और उन्होंने समाज के एतिहासिक उद्विकास की यात्रा में कैसे विभिन्न असुरक्षाओं को आकार देते हुए और उन असुरक्षाओं का निवारण करते हुए स्वयं स्त्री को ही असुरक्षित बना दिया है - इस बात को इस किताब के पूरे विस्तार में देखा और समझा जा सकता है, यह एक गहन और जटिल विषय है जिसमे धर्म और रहस्यवाद के कई उल्लेखों में फिसल जाने का भय रहता है लेकिन मार्क्सवादी दृष्टि में रची बसी लेखिका ने इस भय और प्रलोभन दोनों से स्वयं को बखूबी बचाया है.

एक अन्य बहुत सुंदर बात जो इस किताब की रचना के मनोविज्ञान में झलकती है वो है इसके विमर्श की दिशा. इस किताब का विमर्श आदिम मानवीय समाज से कबीलाई समाज और कृषिप्रधान समाज से लेकर नगरों व राज्यों में रहने वाले समाज के मनोविज्ञान को उसकी समग्रता में छूता है. क्रम विकास की इन अवस्थाओं में इन समाजों में स्त्री के शरीर और उसकी यौन सम्भावनाओं से उपजी असुरक्षाओं के मद्देनजर परिवार और संपत्ति को किस प्रकार सुरक्षित रखा जाए, यह एक बड़ा प्रश्न रहा है. इस चिंता का उत्तर ढूँढने की तडप में ही विभिन्न मिथकों और धर्माज्ञाओ का निर्माण करते हुए इन समाजों की मौलिक प्रेरणाओं ने आकार लिया है. इस प्रक्रिया में जहां आदिम कबीलाई समाज एक मात्रसत्तात्मक और बाद में पितृसत्तात्मक और पूंजीवादी समाज में विकसित होता है वहीं परिवार का स्वरुप भी बदलता जाता है. समाज, परिवार और स्त्री पुरुष के यौन व्यवहार सहित स्वयं यौन ऊर्जा और मानव शरीर व मन से उसके संबंध से जुड़े हुए मिथक खुद भी समय के साथ विकसित होते जाते हैं. इस विकास यात्रा में ये मिथक खुद एक तरह से झरोखा बन जाते हैं जिसके जरिये इंसानी समाज के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक उद्विकास को समझना संभव है. इसी संभावना को विस्तार देता हुआ एक विमर्श है जो अपने केंद्र में स्त्री, मातृसत्ता और स्त्री के यौन को एकसाथ स्थान देता है. भारत में तन्त्र की लंबी और समृद्ध परम्परा इसे सदियों सदियों तक सुरक्षित रखती आई है. साथ ही नगरीय, ग्रामीण और वनवासी समाज ने भी अपने धार्मिक कर्मकांडों और रीति रिवाजों सहित लोक कताओं व गीतों में इन तत्वों को न केवल सुरक्षित रखा है, बल्कि उन्हें समय के साथ विकसित भी किया है. यह एक अलिखित दस्तावेज है जो समय के विस्तार में फैला हुआ है और इस देश व संस्कृति के प्रचलित पक्ष का लुप्त हो चुका प्रतिपक्ष उपलब्ध कराता है. हर अध्याय में यह किताब इस प्रतिपक्ष को उघाडती चलती है, यही इस किताब का वास्तविक सौंदर्य है.

सामाजिक उद्विकास की इस प्रक्रिया को स्त्री की यौनिकता के चश्मे से देखना इस किताब को और अधिक महत्वपूर्ण और सुंदर बनाता है, क्योंकि असल में स्त्री पक्ष स्वयं ही पुरुषप्रधान समाज का तार्किक और अस्तित्वगत प्रतिपक्ष है जो अब तक ठीक से देखा ही नहीं गया है. स्त्री - जो एक कृषिप्रधान दौर में केन्द्रीय भूमिका में थी और स्वयं कृषि कर्म की जननी भी मानी गयी है - उसकी भूमिका का परिवार और कबीले में घटते जाना एक बड़ा प्रश्न है. यह किस भाँती हुआ और स्त्री सहित मानव मात्र की यौनिकता के विभिन्न आयामों से भयों और प्रलोभनों ने इसमें क्या भूमिका निभाई है, इस बात की पड़ताल करते हुए पुरुष सत्तात्मक परिवार और समाज कैसे आकार लेता है यह इस किताब का केन्द्रीय विषय बन जाता है. 

किताब के पहले अध्याय में टोटेम को समझाने का प्रयास किया गया है. टोटेम एक खालिस समाजशास्त्रीय पारिभाषिक शब्द है, विभिन्न समाजों और संस्कृतियों में टोटेम जीव जो पशु पक्षी या पेड़ भी हो सकता है, के जरिये प्रकृति की अदृश्य शक्ति या जीवन के असुरक्षित आयाम के प्रति समाजों के भय और समर्पण को उसके पूरे विस्तार में उकेरा गया है. टोटेम से जुड़ा आचारशास्त्र, भय और मनोविज्ञान ही कालान्तर में धर्म बन जाता है, इस बात को रेखांकित करती हुयी यह किताब अगले अध्यायों में टोटेम को यौन और उससे जुडी वर्जनाओं के स्त्रोत के रूप में देखती है. इस तरह यह किताब टोटेम के एकसार्वभौमिक चश्मे से दुनिया भर के सभी समाजों के सांस्कृतिक और समाज मनोवैज्ञानिक विकास के प्रस्थान बिन्दुओं को इकठ्ठा ही पकड़ लेती है और आगे चलकर मानवीय यौनिकता के अध्याय में टोटेम से जुडी वर्जनाओं को परिवार और रक्त सम्बन्धियों में आपस में यौन व्यवहार से जुड़े निषेधों या नियंत्रणों के विकास की प्रेरणा के रूप में निरूपित करती है. एक समाजशास्त्रीय एवं समाज मनोवैज्ञानिक अर्थ में यह क्रम और यह दिशा आसानी से समझ में आती है, यहाँ कहीं भी न तो क्रमटूटता है न ही विवरणों का विस्तार अपने विषय से बाहर जाता है.

दूसरा अध्याय स्वयं भी पहले अध्याय की तरह आगे आने वाले केन्द्रीय विमर्श की भूमिका बनाता चलता है. समाज की सामूहिक चेतना का यौन से क्या सम्बन्ध है और एक विकसित होता हुआ समाज मनुष्य के और खासकर स्त्री के यौन को किस अर्थ में नियंत्रित करना चाहता है, यह इस अध्याय में जाहिर होता है. बहुत द्रढता और स्पष्टता से लेखिका यह बतलाती हैं कि सभी वर्चस्ववादी समाज अपने नागरिकों के यौन को कुंठित बनाने का काम बड़े ही योजनापूर्वक करते हैं ताकि उनकी जीवन ऊर्जा और चेतना की त्वरा मंद हो जाए और जीवन के सृजनात्मक आयामों में गति करते हुए वे समाज के ठेकेदारों के लिए चुनौती पैदा न करे. यह बहुत महत्वपूर्ण बिंदु है, आज के जेंडर विमर्श में इसे स्त्री के पंख कतरने की प्रक्रिया के रूप में समझा जा सकता है. स्त्री की काम ऊर्जा और उसकी यौन स्वतंत्रता की ह्त्या करके उसे एक अनुत्पादक और कुंठित मन में कैद रखा जाता है ताकि वह पित्रसत्तात्मक समाज में संतान पैदा करने और सम्पत्ति सहित समाज की व्यवस्था को पिता से पुत्र तक ट्रांसफर करने की एक मशीन बनकर जीवित रहे, और अपने जीवन में यौन के आनंद के साथ साथ अपनी स्वतन्त्रता के संभावित पुरस्कारों की संभावना के प्रति पीढी दर पीढी मूर्च्छित बनी रहे.

अगले अध्याय में भारतीय मिथक साहित्य में प्रचलित उर्वशी और पुरुरवा के आख्यान को आधार बनाते हुए जो विश्लेषण और विवरण दिया गया है वह प्राचीन भारत में स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण करने की प्रक्रिया और उसके पीछे छुपे पुरुषवादी मनोविज्ञान को उजागर करता है. पुरुरवा के प्रेम में डूबी उर्वशी नाम की अप्सरा क्यों धरती पर आकर उसे वरण नहीं कर सकती और क्यों ऐसा करने की आंशिक स्वतंत्रता के बावजूद उसे पुत्र/ संतान होने पर वापस अपने प्रेम को त्याग देना होगा – इस आख्यान की अपनी बुनाई में ही बहुत सारे सूत्र बिखरे हुए हैं जिन्हें लेखिका ने बहुत सावधानी से आज की ज़िंदा बहस के साथ खडा करने की कोशिश की है. हालाँकि जितने विस्तार में इस बहस और विश्लेषण को ले जाना आवश्यक है उतना विस्तार यहाँ संभव न हो सका है. स्थान और विस्तार सहित सरल भाषा में प्रस्तुति का अभाव इस पूरी किताब की कमजोरी बनाकर उभरता है.

मनोविज्ञान के परम नियम –“निषेध ही आमन्त्रण है” को एक सूत्र की तरह स्वीकार करते हुए लेखिका यहाँ बहुत दुस्साहसी और गहन अंतरदृष्टि से भरी हुई बात कहती हैं. यह बात भारतीय मिथक साहित्य की छुपी हुई प्रेरणाओं को उघाड़ने के लिए आधार बनती है. मिथक कथा में जहां जहां कोई निषेध दिखाया गया है उसी बिंदु पर गहरी खुदाई करनी चाहिए – ऐसा लेखिका का मत है. एक मिथकीय धुंध में खो चुके समाज के धार्मिक, दार्शनिक और सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया को समाजशास्त्रीय व मानवशास्त्रीय उपकरणों से समझने के लिए यह समझ एक गहरा सूत्र देती है.

यह सूत्र एक बहुत महत्वपूर्ण और सार्वभौमिक संक्रमण को उजागर करने में भी सफल होता है जब अगले अध्याय में मातृसत्ता से पितृ-सत्ता की ओर संक्रमण करते हुए मानव समाज की विवशता या कुटिलता का विश्लेषण आरंभ होता है. ग्रीक मिथक में ओरेस्टास और भारतीय मिथक में उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु से जुड़े आख्यान यह बतलाते हैं कि किस तरह मातृसत्ता से पितृ-सत्ता की ओर संक्रमण की इस पूरी प्रक्रिया को एक नैतिक व धार्मिक निषेध की चादर से अदृश्य बना दिया गया है. भारतीय अर्थ में यह अब अकल्पनीय लगता है लेकिन ब्राह्मण ऋषि उद्दालक के घर आये एक अतिथि द्वारा जब रात्रि भर के लिए उद्दालक की पत्नी की मांग की जाती है तो उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु विद्रोह करता है. तब उद्दालक उसे कहता है कि यह अनादी काल से चली आ रही परम्परा है जिसका विरोध करना उचित नहीं है. लेकिन श्वेतकेतु इसे अस्वीकार करता है और बाद में स्त्री की इस स्वतंत्रता को “व्यभिचार” घोषित करके इसपर विराम लगाया जाता है. इसी मार्ग से बाद की शताब्दियों में स्त्री और विशेष रूप से माता की यौन शुचिता और सतीत्व जिस अर्थ में पुरुष-सत्ता या पितृ-सत्ता की सेवा में एक भयानक उपकरण बन जाती है - यह देखना बहुत मजेदार है. इस अर्थ में स्त्री के बहुगामी होने का निषेध असल में उसकी चुनाव की स्वतंत्रता और उसकी स्वतंत्र सत्ता का ही निषेध है. यह तथ्य तब और अधिक गहराई से उभरता है जब स्त्री के बजाय पुरुष को बहुगामी होने की स्वतंत्रता धीरे धीरे बढ़ती जाती है और स्त्री के लिए एक पति का आग्रह पत्थर की लकीर बन जाता है.

अगले अध्याय में इसी क्रम में महाविद्याओं की विशेषताओं में और सामान्य नैतिकता में प्रचलित देवियों की धारणा के बीच पसरे हुए विरोधाभास को आधार बनाकर और ये किताब और अधिक गहराई मेंले जाती है. भारतीय समाज के वर्तमान मुख्य चिन्तन में स्त्री जहां कोमल, रक्षा के योग्य, पतिव्रता और लज्जाशील है वहीं प्राचीन महाविद्याओ में वर्णित स्त्री चरित्र स्वच्छंद, युद्ध को आतुर, महावीभत्स और पतिहंता हैं. तांत्रिक दर्शन में उल्लेखित काली इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं. यह अध्याय बहुत सफलता से निरुपित करता है कि किस प्रकार मात्र-सत्ता से पितृसत्ता की ओर बलात संक्रमण में न केवल स्त्री बल्कि श्रमजीवी और वनवासी समाज का भी पतन होता जाता है. वर्तमान में जिन दलित व मूलनिवासी जातियों को हम देखते हैं वे उसी मात्र-सत्तात्मक अतीत के अवशेष हैं जिनमे आज भी स्त्री चरित्र प्रधान तांत्रिक प्रतीक पूजे जाते हैं.आज के आदिवासी और दलित समाज मुख्य रूप से प्रकृतिपूजक हैं और उनके लिए प्रकृति का सबसे निकटतम प्रतीक माँ ही होती है और उनके सभी रीति रिवाज पित्रसत्तात्मक धर्म की बजाय मात्रसत्तात्मक धर्म के सौंदर्यशास्त्र व प्रतीकशास्त्र से अधिक समानता दिखाते है. 

इस अर्थ में यह किताब न केवल स्त्री-सत्ता के पतन का राज खोलती है बल्कि दलित व मूल निवासी विमर्श के एक गहन धार्मिक-दार्शनिक पक्ष को भी सामने लाती है. काली के पूजक संप्रदाय स्त्री के उन्मत्त और स्वच्छंद स्वरुप को पूजते हैं और उसे एक दयामयी माता के रूप में एक आंशिक स्त्री की  बजाय एक काम में उत्सुक व मदमत्त पूर्ण स्त्री की तरह देखते हैं, महाकाली की यह छवि इतनी पूर्णता तक जाती है कि अपनी दार्शनिक पराकाष्ठा पर पहुँचते हुए वह अपने पति शिव को भी पैरों तले रौंद डालती है. यह तांत्रिक प्रतीक स्त्री की अस्मिता की परम अभिव्यक्ति बन जाता है. लेकिन कालान्तर में पुरुषवादी भारतीय धर्म में स्त्री को ममतामयी और पतिव्रता बनाकर उसकी यौन स्वतंत्रता को पूरी तरह नष्ट कर दिया जाता है. भारतीय देवियों में महाविद्याओं के विपरीत जिस शुचिता और सतीत्व का अति आरोपण किया गया है उससे ये साफ़ जाहिर होता है कि यात्रा किस दिशा में और किस कारण से हो रही है. इस विराट अर्थ भारत में स्त्रीयों, शूद्रों और वनवासी समाजों का पतन और दलन एक साथ चलता है. यहाँ आकर ज्योतिबा फूले की उस महान स्थापना का मूल्य समझ में आता है जब उन्होंने स्त्रीयों और दलितों को एक ही पलड़े में रखकर अपने आन्दोलन की बुनाई की थी.

संजय जोठे
अंत में कहना होगा कि इस पूरी किताब से गुजरते हुए मिथकों के दस्तावेजीकरण और उसके अर्थ बतलाने की आवश्यकता बहुत गहराई से उभरती है, यह आवश्यकता एक अर्थ में विवशता सी बन जाती है जो विषय और सामग्री दोनों के सरलीकरण की संभावना को भी कुंद करती जाती है. लेखिका के हार्दिक प्रयास के बावजूद इस एक अस्तित्वगत विवशता के कारण यह किताब एक जटिल विषय पर जटिल किताब बनी रहती है.परस्पर सम्बंधित और निर्भर आयामों की जटिल अन्योन्य क्रियाओं को एकसाथ समेटने के क्रम में न केवल यह विषय बल्कि इसका प्रस्तुतीकरण भी जटिल होने को अभिशप्त नजर आता है.वैसे यह जटिलता भी स्वाभाविक नजर आती है, ऐसे विषय पर इस समय में लिखना स्वयं में एक भयानक निर्णय है जिसके साथ निभा पाने का साहस कम ही लोग जुटा पाते हैं. किताब के पूरे विस्तार से गुजरने पर लगता है कि जिस विषय पर जिस आकार की यह किताब है उससे लगभग तिगुने आकार की किताब इसे होना चाहिए था. एक केप्सूल की तरह यह किताब गहन और जटिल बन पडी है. थाल भर-भर कर भूसा खाने वाली नयी पीढी के लिए बहुत सारे विटामिनों को बड़ी मात्रा में समेटे हुए यह केप्सूल बहुत गरिष्ठ है. कुछ अधिक विस्तार में और अधिक सरल भाषा का प्रयोग करके इसे और अधिक पठनीय बनाया जा सकता था.
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 संजय जोठे  university of sussex से अंतराष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं . संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
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पुस्तक : प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता
लेखिका : लवली गोस्वामी
प्रकाशक : दखल प्रकाशन,  संस्करण: प्रथम 2015/मूल्य 150,प्रष्ठ:128

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  1. ललित विजय15 जुल॰ 2015, 1:47:00 pm

    सबसे पहले तो इस किताब के लिए बधाई,,,समीक्षा भी बेहद सटीक और चुस्त भाषा में लिखा गया है। उद्दालक,,काली,ज्योतिबा का उल्लेख ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि इस रचना को पूर्ण करने में कितने मानसिक कार्यकलापों से गुजरना पड़ा होगा। निषेध ही आमंत्रण है- के मनोविज्ञान को समझना एक विशेष अनुभूती होगा।

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16 - 07 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2038 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  3. पौराणिक आख्यानों को 'सत्य' मान लेना एक प्रकार से उनको स्वीकार्यता प्रदान करना ही है। 'काली' का अभिप्राय वस्तुतः लौह अर्थात शस्त्र के प्रतीक से है न कि किसी स्त्री या महिला से। इसी प्रकार 'शिव' या 'शंकर' का अभिप्राय 'भारत वर्ष' से है न कि किसी पुरुष से। परंतु जब पुस्तक में ब्राह्मणवादी प्रतीकों को स्वीकार कर लिया गया तो फिर विशेषता किस बात की?

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  4. केंद्र और परिधि। ब्रह्म और माया। ब्रह्म और श्री। पुरुष और प्रकृति। वेदों में से कोई टोटेम पढ़ सकते हैं तो ये दो ही प्रमुख हैं। राजस्थान पत्रिका का मालिक गुलाब कोठारी इस विषय पर कई किताबें लिख चुका है।

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  5. मित्रों से निवेदन है कि मुझे ब्राह्मणवादी मानाने से पहले पुस्तक एक बार पढ़ अवश्य लें।

    बाक़ी तो सब मुक्त हैं ही फ़तवे देने के लिए। :-)


    - लवली गोस्वामी.

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  6. यहां तो किसी ने भी आपको ब्राह्मणवादी नहीं कहा है लवली जी. कम से कम कहीं लिखा हुआ नहीं दिख रहा है. एक टिप्पणी ऐसी है जो कहती है कि 'पुस्तक में ब्राह्मणवादी प्रतीकों को स्वीकार कर लिया गया'. इन दोनों बातों में कोई फर्क नहीं है क्या? जिस टिप्पणीकार ने टिप्पणी की है, उसको जवाब दीजिए, लिख कर. प्रमाणित कीजिए कि उसकी राय गलत है. न कि उस पर आपको ब्राह्मणवादी कहने का अतिशयोक्ति भरा ठप्पा लगा दीजिए. आलोचना और सवालों को इस रीति से अवैध ठहराना उचित नहीं है.

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  7. आपका वाक्य कुछ ऐसी प्रतीति दे रहा है महाशय कि लेखक ने ब्राह्मणवादी प्रतीकों को मान लिया है, तो मैंने इसका अर्थ लिया कि लेखक जो ऐसे प्रतीकों को मान्यता दे "ब्राह्मणवादी" है (चैतन्य अथवा अवचेतनिक अवस्था में ), पुस्तक में कोई कथा नही थी न ही इसमें कोई पात्र थे कि मैं यह मानती की वह पात्र के लिए मेरे द्वारा लिखा गया संवाद अथवा उसकी मनोदशा का चित्रण है ... यानि निष्कर्ष नही परिस्थितिजन्य कथन है.

    वैसे आप अगर मुझे ब्राह्मणवादी होने के आरोप से मुक्त कर रहे हैं तो यह आपकी कृपा है। :-)

    रही बात "ब्राह्मणवादी प्रतीकों को स्वीकार करने की " तो मुझे ज्ञात है कि यह वाक्य लिखने वाले ने पुस्तक नही पढ़ी है। अगर पढ़ चुके तो मुझे बताएं ब्राह्मणवाद या उसके तथाकथित प्रतीकों के समर्थन में मैंने कौन सा वाक्य या निष्कर्ष लिखा है ? और यह भी की आपकी दृष्टी में "ब्राह्मणवादी प्रतिक" की क्या परिभाषा है? इन दो सवालों के बाद मैं आपको उत्तर देती हूँ। प्रत्येक अनर्गल फतवे पर व्याख्या देना मेरे लिए सम्भव नही। अगर आप इन दोनों प्रश्नो के विस्तृत उत्तर लिखते हैं "प्रमाण" के साथ तो मैं अवश्य अपना पक्ष रखूंगी। आलोचना और आरोप (वह भी जिसका आधार किसी अन्य स्रोत से लिए गए गद्यांश जिसका सन्दर्भ काट लिया गया हो, हो तब )में फ़र्क़ होता है.

    कृपा का एक बार फिर धन्यवाद।

    लवली गोस्वामी.

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