व्योमकेश का आकाश : पल्लव

(रमेश प्रजापति की फेसबुक वाल से साभार)









भारतीय ज्ञानपीठ का २८ वां मूर्तिदेवी पुरस्कार प्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की आख्यानपरक कृति व्योमकेश दरवेश को दिया गया है जो आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जीवन पर आधारित है. इस कृति की विशेषताओं पर  प्रकाश डाल रहे हैं - संपादक समीक्षक पल्लव.







व्योमकेश का आकाश
पल्लव

मैंने एक मुलाक़ात में विश्वनाथ त्रिपाठी जी से कहा कि आपकी किताब 'व्योमकेश दरवेश' से यह लाभ हुआ कि पाठक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को ठीक से जानने लग गए. त्रिपाठी जी मुस्कुराए और तत्क्षण बोले- 'जानते सब हैं मानता कोई नहीं ...अगर इस किताब से मानें तो किताब का कोई अर्थ होगा.' मैं समझ रहा हूँ कि यह अपने गुरु की शैली में कहा गया यह वाक्य केवल एक वाक्य नहीं था. तो क्या हिन्दी समाज अपने प्रिय उपन्यासकार, निबंधकार और अध्यापक को ठीक से नहीं जानता? यदि जानता होता तभी मानता भी न. शायद ऐसा ही हो. 

मैं फिर से उस किताब को पढने लगा जिसके ऊपर लिखा था- व्योमकेश दरवेश. समस्या यह है कि इसको जीवनी कहना चाहिए या आलोचना? संस्मरण या रेखाचित्र ? या उपन्यास ही कह दिया जाए तो क्या गलत है? हिन्दी में जीवनी लिखने का चलन प्राय: नहीं है. इसे दूसरी कोटि का लेखन समझा जाता है. अगर भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की 'आधुनिक भारत के निर्माता' श्रृंखला न होती तो शायद ही हिन्दी में जीवनियाँ लिखी जातीं. साहित्य अकादमी की मोनोग्राफ प्रकाशन श्रृंखला में भी लेखक पर छपी पुस्तक में कुल अस्सी-सौ पृष्ठों में लेखक के जीवन पर महज पांच या सात पृष्ठ होते हैं. अंगरेजी को देखें या किसी विश्व भाषा को, हिन्दी के प्रारंभिक दौर में भी ऐसा नहीं था अपितु बाद तक भी बढ़िया जीवनियाँ लिखी गईं. अमृत राय ने प्रेमचंद की जीवनी कलम का सिपाही लिखी तो विष्णु प्रभाकर ने शरत चन्द्र पर आवारा मसीहा. आगे यह सिलसिला लगभग बंद हो गया. फिर किसी राजनेता या बड़े फिल्मकार का मामला हो तो ठीक, भला एक शिक्षक पर कौन पूरी किताब लिखे

मैं प्राथमिक रूप से इस किताब को एक शिक्षक की जीवनी मानने का पक्षधर हूँ क्योंकि विश्वनाथ त्रिपाठी सबसे पहले और सबसे अंत में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को पाठक के समक्ष अपने गुरु यानी एक शिक्षक के रूप में ही चित्रित करते हैं. यह और बात है कि बड़े केनवास पर बनाये गए इस चित्र का फलक इतना व्यापक है कि गुरु, शिक्षक, प्रशासक,लेखक, आलोचक और ज़माने भर की  आ मिलीं हैं और इन सबके आ जाने से चित्र भटक भी नहीं गया है.  साढ़े चार सौ से ज्यादा पृष्ठों की इस किताब के महत्त्व को समझने की पहली कुंजी यह है कि जिस मनोयोग से अपने गुरु के व्यक्तिव के सभी पक्षों पर त्रिपाठी जी ने लिखा है वैसा अब लगभग दुर्लभ है. इसके लिए निजी संस्मरणों को याद करने के साथ उन्होंने जरूरत लगने पर शोध भी किया है. इस तरह की एक ही किताब याद आती है -निराला की साहित्य साधना, जिसे तीन वृहद् खण्डों में रामविलास शर्मा ने लिखा था.  ध्यान देने की बात यह है कि रामविलासजी निराला के शिष्य नहीं थे और न निराला अध्यापक. इस तरह से यह किताब हिन्दी में किसी हिन्दी अध्यापक के यशस्वी अध्यापन का श्रद्धापूर्वक स्मरण करती हुई पहली किताब है. 

भूमिका में त्रिपाठी जी ने लिखा है- ' हमारे गुरु पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसा परम मानवीय व्यक्त्तित्व मुझे जीवन में दूसरा नहीं दिखा.' ठीक बात है ऐसा होता है कि जिस पर हमारी श्रद्धा हो हम उसको ही एकमात्र समझें. त्रिपाठी जी किताब में केवल अपने गुरु आचार्य द्विवेदी ही नहीं अपितु उन तमाम अध्यापकों का भी स्मरण करते हैं जिन्होंने द्विवेदी जी के साथ उन्हें पढ़ाया था. इस तरह से हिन्दी अध्यापन की विभिन्न प्रणालियों को जानने के लिए इस किताब को पढना अत्यंत रोचक और ज्ञानवर्धक है. अपने गुरु जन में त्रिपाठी जी ने विजय शंकर मल्लपंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, रूद्र काशिकेय,  डॉ श्रीकृष्ण लाल, डॉ छैलबिहारी गुप्त, पंडित करुणापति त्रिपाठी आदि के अध्यापन के जैसे विवरण दिए हैं, उन्हें पढ़ना समृद्ध अनुभव है. इसका कारण रोचक ढंग से लिखा जाना नहीं है अपितु अध्यापन के आंतरिक तौर-तरीकों पर लेखक की बारीक नजर होना है जो हमें पढ़ाने के रहस्य बताती है.

पहले आचार्य द्विवेदी जी- 'द्विवेदी जी क्लास में, क्लास के बाहर एक ही जैसा बोलते. वे शास्त्रज्ञ तो थे लेकिन उनकी शास्त्रज्ञता लोकोन्मुख थी. किताब की बातें ज्यादातर वे जीवन से जोड़ते. साहित्य की व्याख्या वे जीवन सन्दर्भों में करते. साथ ही यह भी बताते कि साहित्य में रुढियों का कितना बड़ा महत्त्व है.  ....उनके क्लास में हम साहित्य के मायालोक में पहुँच जाते और वहां से अपना जीवन-अनुभव पहचानते. पढ़ाते समय,सभाओं,गोष्ठियों में भाषण देते हुए जैसा ही उनका स्वर या शरीर छंदमय हो जाता. उनकी बाँहें उत्ताल तरंग बनातीं. ....श्लोकों का उच्चारण जब वे अपने मन्द्र स्वर में करते तो प्राचीन साहित्य की गरिमा साक्षात हो जाती. पंडितजी की आवाज में अनेक स्वर शाखाएं सुनाई पडतीं. सब परस्पर सघन-सम्बद्ध जैसे कई धाराओं का जल मिलकर कोई गंभीर प्रवाह सुनाई पड़ रहा हो. उनकी आवाज में आकाश जैसा अवकाश होता. बादल जैसी गंभीरता और सागर जैसी गहराई होती. भोजपुरी की लय, शब्दों के उच्चारण और वाक्य के अनुतान में साफ़ सुनाई पड़ती. भोजपुरी की ले, उनके कथन और भाषण को और आत्मीय बनाती. लेकिन यह सब सहज, अकृत्रिम था, आयासपूर्ण नहीं. आयास की गंध भी मिले तो सहज-सौन्दर्य नष्ट ही नहीं हो जाता, उलटे वितृष्णा पैदा करता है.'  

'द्विवेदी जी की क्लास की हम उत्सुकता से प्रतीक्षा करते. वे पाठ्य-पुस्तक को बैग में लाते. अपने कक्ष से क्लास रूम की ओर धीरे धीरे बढ़ते. कुर्ता-धोती साफ़-सुथरे लेकिन गुचुर-मुचुर. इस्त्री नहीं मालूम पड़ती. कंधे पर उत्तरीय. क्लास में कोट पहने नहीं देखा. कुर्ता ऊनी. ज्यादा जाड़ा में कुर्ते के ऊपर कुर्ता. यों बाहर कोट बंद गले का लंबा पहनते थे. सर ऊपर उठाये मानो आसमान की ओर टाक रहे हों. बैठकर पढ़ाते. कुर्सी  में बैठ जाते तो क्लास भरा-भरा लगता. तन्मयता से पढ़ाते. पाठ्यांश-काव्य-पंक्तियाँ-सुस्पष्ट यथोचित लय से बाँचते.

कक्षा में पढ़ाने वाले अध्यापक को कैसा होना चाहिए? त्रिपाठी जी अपने गुरु आचार्य द्विवेदी को याद करते हुए बताते हैं- 'द्विवेदी जी क्लास में भी अनौपचारिक रहते. शान्तिनिकेतन में आम्रकुंज की छाया में कक्षा का वातावरण स्वभाव में बैठ गया होगा. एकाध बार ऐसा भी हुआ जब पंडितजी ने कहा- यह अर्थ खींच-खांचकर लगा रहा हूँ. अर्थ मुझे स्पष्ट नहीं है. तुम लोग प्रयास करो. कोई विद्यार्थी कभी क्लास में ही उनसे भिन्न दूसरा अर्थ सूझा दे और वह अर्थ पंडितजी को ठीक लगे तो उसकी प्रशंसा करते, यह भी कहते -अरे यह अर्थ तो मुझे सूझा नहीं था. अट्टहास क्लास में भी गूंजता.' यह है निश्छलता.  आकाशधर्मा गुरु ऐसा ही हो सकता है जिसे झूठ बोलने के स्थान पर अपने विद्यार्थियों से स्पष्ट कह देने में हेठी न लगती हो. ऐसे ही सरल स्वभाव में विद्वत्ता का निवास होता है. 'पंडितजी का सप्ताह में एक क्लास ऐसा होता था जिसमे कुछ पाठ्य निर्धारित नहीं होता. जिसके मन में जो आए पूछे. कोई न पूछे तो पंडितजी ही जो मन में आए बोलते. वह उनका सबसे लोकप्रिय, रंजक और ज्ञानवर्धक क्लास होता.

ऐसा नहीं है कि छात्रों में लोकप्रिय और विद्वानों में आदरणीय अध्यापक का विभाग में सदैव आदर हो. आचार्य द्विवेदी के साथ यह तक हुआ कि उन्हें कुचक्रों के कारण बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया. वे यहाँ शांति निकेतन से अध्यापन करने आए थे. इस षड्यंत्र में उन्हीं के विभाग के साथी अध्यापक शामिल थे. उन अध्यापकों के प्रति आचार्य का व्यवहार तो देखिये- 'अपने सहयोगी अध्यापकों का नाम विशेषत: डॉ शर्मा और पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का नाम बहुत आदर से लेते. विभाग के बहार दीर्घा में भेंट होती तो दोनों हाथ जोड़कर काफी झुककर प्रणाम करते.'

अध्यापक और गुरु में क्या कोई अंतर होता है? शायद इसी को समझाने लिए अपने गुरु पर चर्चा करते हुए त्रिपाठी जी एक सूत्र देते हैं . वे पूछते हैं- कारीगर-सहृदय कलाकार कैसे बनता है? स्वयं ही उत्तर देते हैं-कृति में रच-बसकर. समझने की बात यही है कि अपने विषय में डूबकर अपने विद्यार्थियों के साथ घुलकर ही कोई अध्यापक गुरु का दर्जा प्राप्त कर सकता है.

अब पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र को देखें- 'मिश्र जी शब्द क्रीडा के अद्वितीय कौतुकी थे. वे शब्द विलासी थे. .....वे ललकारती लय और मुद्रा में सूत्रों का विश्लेषण करते. अन्तर्ध्वनि यह- और छात्र उसे सगर्व आत्मीयता से अनुभव करते कि ऐसा और कोई नहीं पढ़ा पाएगा. हम विषय के सर्वज्ञ, श्रेष्ठ गुरु से पढ़ रहे हैं-गिरीश का अर्थ शंकर नहीं हिमालय-गिरीणाम ईश: गिरीश:. शंकर का अर्थबोधक शब्द है गिरीश गिरौ शयते स गिर में शयन या निवास करने वाला शंकर.'  यह है शब्द की लीला. इस लीला को विद्यार्थियों के सामने कितने अध्यापक खोल पाते हैं? जो भारतप्रेमी इस बात से दुखी होते रहते हैं कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला उन्हें इस हिन्दी के शब्दों से ऐसा गहरा प्रेम करने और करवाने वाला अध्यापक मिलना चाहिए. 

विजय शंकर मल्ल को भी देखें- 'मल्ल जी का गद्य-लेखन अद्भुत था. उतना संयत,सटीक गद्य उस समय शायद ही कोई और लिखता हो. लमछर सुन्दर हस्तलिपि. ....उनका अंतिम लेख आलोचना में 'भारतेंदु युग का हँसमुख गद्य' नाम से छपा था. 'हँसमुख गद्य' के नाम से ही आप उनके गद्य-लेखन की क्षमता का अन्दाज़ा लगा सकते हैं.

यह है हिन्दी अध्यापन के पुरोधा आचार्यों की शैलियाँ. तथ्यों के जाल को छोड़ कर देखें तो कायदे से विश्व्वविद्यालयी हिन्दी अध्यापन की शुरुआत बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से माननी चाहिए. डॉ श्यामसुंदर दास और आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे विद्वान अध्यापकों द्वारा जिस विभाग की नींव डाली गई थी वहां के हिन्दी अध्यापन के बारे में इस गहराई से जानना क्या कम महत्त्वपूर्ण है. पुस्तक के एक अध्याय 'अध्यापक-मंडल' का पहला ही वाक्य है-'हिन्दी विभाग के अधिकाँश अध्यापकों का कंठ गंभीर मधुर था. उनका उच्चारण आकर्षक और भाषा-प्रवाह संयत,व्याकरण सम्मत था.' इस बात को लिखने का मतलब क्या है? यदि मतलब खोजा जाए तो यही है कि एक अध्यापक को बहुत अच्छा वक्ता होना ही चाहिए. एक जगह त्रिपाठी जी ने बात बात में जैसे तुलना  करते हुए लिखा है - 'विश्वनाथ जी के क्लास में हम प्रबुद्ध,सजग बने रहते,धरती पर ही रहते, द्विवेदी जी के क्लास में हम साहित्य-लोक में पहुँच जाते. ज्ञान रस बन जाता. ज्ञान की साधना और सेवा दोनों की प्रेरणा मिलती.

ज्ञान रस बन सके ऐसा अध्यापन चाहिए. पढ़ना बोझ न लगे तो पढ़ाई सबसे अच्छी है. साहित्य की पढ़ाई के लिए तो और भी जरूरी है यह रस वर्षा. 

अब ज़रा उस तरफ भी देख लिया जाए जिधर जिधर त्रिपाठी जी किताब में चलते गए हैं.  पुस्तक में एक अध्याय है 'सतीर्थ- मंडल', यहाँ त्रिपाठी जी अपने ऐसे मित्रों का जिक्र करते हैं जो उनके साथ पढ़ रहे थे या बनारस में रह रहे थे जब द्विवेदी जी वहां अध्यक्ष होकर आये थे. इन शिष्यों से मुलाक़ात कर्न्बा यादगार है, क्रमश: ये 'सतीर्थ' हैं- 

केदारनाथ सिंह को अज्ञेय ने खोज निकाला था. वे ससम्मान प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपते थे. सुदर्शन और सुकंठ, सुशील, मृदुभाषी,संस्कारी,फलत:लोकप्रिय. उनकी लोकप्रियता से इर्ष्या होती. 

शिवप्रसाद जी विद्याव्यसनी,संस्कारी, सहृदय, साहित्यकार थे.

रवींद्र भ्रमर मस्तमौला थे. कवि सम्मेलनों में खूब जमते थे. हम लोगों को गीत सुनाते,अनेक साहित्यकारों और 
अध्यापकों की नक़ल उतारते,बहस करते,प्रेम दिखाते और निन्दारस का पान कराते.

शम्भुनाथ सिंह जब गाते थे तो कैसा समां बंधता था, इसे दूसरे के मुंह से सुनकर नहीं जाना जा सकता. जादू का समां होता था. रेशम के छल्लों जैसी स्वर लहरी - शम्भुनाथ जी झूम-झूमकर नहीं लहराकर पढ़ते. आँखें किंचित खुली,किंचित बंद.

त्रिलोचन बहुत सामन्य लगते थे. अभावग्रस्त स्वाभिमानी.
त्रिलोचन संन्यासी लगते थे.
त्रिलोचन जी के भोजन संबंधी कई प्रसंग हैं.
त्रिलोचन कसरती आदमी थे. वे सीधे सादे साफ़गो-चिकनी चुपड़ी न खाने वाले, न बोलने वाले,तंगदस्त रहते.मांगते मैंने उन्हें कभी नहीं पाया. 

ऐसे ही एक सज्जन सुरेश त्रिपाठी को देखिये- मनमौजी,तरंगी, रसिक थे. कभी कभी सकर्मक रसिकता करते, मुझ पर स्नेह था. उनकी स्नेहपात्रता संकटग्रस्त कर देती. मुझे जीवन-रहस्य समझाने का प्रयास करते. एक बार बोले-चलो तुम्हें काशी विश्वनाथ की गली में ले चलें. गली संकरी है-चहल पहल खूब रहती है. ठेलमेल,भीडभाड़. मैं पसीना पसीना. हाथ छुड़ाकर मैं भगा और हफ़्तों उनके दर्शन से वंचित रहा.

यहाँ विद्यासागर नौटियालपी के गांगुली, जमादार सिंह, अजित कुमार सिंह जैसे अनेक और भी व्यक्तित्व हैं जिनसे मिलना बहुत रोचक है. ये सारे लोग पुस्तक में क्यों हैं? क्या यह बताने के लिए की उन दिनों बनारस कितना समृद्ध था? या गुरु की महिमा का वर्णन है कि उनके प्रताप से ये लोग भी आगे जाकर अपने क्षेत्रों में महान काम करने वाले हुए? जो भी हो इनकी उपस्थिति पुस्तक को और रंगीन बनाती है. विश्वभारती की अनेक घटनाओं का वर्णन करते हुए जिस एक घटना को पाठक भूल नहीं सकता वह है एक पेड़ की रक्षा. प्रचंड आंधी में एक नीम का पेड़ गिर रहा है और एक व्यक्ति अपने बच्चों के साथ रस्सी का जोर लगाते हुए हर संभव कोशिश करता है कि यह पेड़ न गिरे ...पेड़ तो गिर गया लेकिन विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने अपने गुरु की स्मृति में इस पुस्तक वृक्ष की छाया देर तक पाठकों को पुलकित करेगी. ऐसा ही एक प्रसंग आया है जब उन्हें अपने दूसरे गुरु (और गुरु मित्र भी) नामवर सिंह का उल्लेख करना पडा है. एक अप्रिय प्रसंग में वे काशीनाथ सिंह को तब कैसे याद करते हैं ज़रा देखिये तो- ''काशी विश्वविद्यालय में रहते,भोजपुरी के लोकप्रिय कवि राहगीर ने क्षुब्ध होते हुए पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी से कहा-'पं.जी आपको अध्यक्षता से इस्तीफा दे देना चाहिए.'

द्विवेदी जी ने असहाय निरीहता से कहा- 'ए बचवा इस्तीफा देइ क हमहूँ कभू -कभू सोचत बानी. लेकिन ई सात बचवन के और बूढ़े माँ-बाप का लइके कहाँ जाई ई नाहीं बुझात.'

काशीनाथ सिंह अगर एक संस्मरण-'सहारा आफिस में नामवर सिंह' लिखने का प्रयास करते तो ये सब बातें उन्हें सूझतीं.'होलकर हाउस में द्विवेदी जी' तटस्थ और निष्पक्ष है,यह तो पहले लिख चुका हूँ. दिल्ली के 'राहगीर' उसी तरह नामवर जी को भी इस्तीफा देने की राय देते रहते थे.'' ज्ञातव्य है कि 'होलकर हाउस में द्विवेदी जी' काशीनाथ जी का संस्मरण है जिसमें उन्होंने द्विवेदी जी के कुछ कमजोर पक्षों पर तटस्थता से विचार किया है. पुस्तक में ऐसे अनेक प्रसंग आये हैं जो देर तक याद रह जाते हैं. कभी हमारी सूचनाओं में इजाफा करते हैं तो कभी समझ को दुरुस्त करने वाले हैं. जैसे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का द्विवेदी जी द्वारा शांति निकेतन में निर्मित हिन्दी भवन की स्थापना पर कहा गया यह कथन आज भी कितनी शक्ति देने वाला है- 

'तुम्हारी भाषा परम शक्तिशाली है. बड़े-बड़े पदाधिकारी तुमसे कहेंगे कि हिन्दी में कौनसा रिसर्च होगा भला. तुम उनकी बातों में कभी न आना. मुझे भी लोगों ने बँगला में न लिखने का उपदेश दिया था. मैंने बहुत दुनिया देखी है. ऐसी भाषाएँ हैं जो हमारी भाषाओँ से कहीं कमजोर हैं परन्तु उनके बोलने वाले अंग्रेजी विश्वविद्यालय नहीं चलाते. हमारी ही देश में ये लोग परमुखापेक्षी हैं. तुम कभी अपना मन छोटा मत करना; कभी दूसरों की ओर मत ताकना. देखो मैं पके हुए बांसों पर भरोसा नहीं करता. उन्हें झुकाना कठिन है. देशी भाषाओँ को कच्चे युवकों की जरूरत है. लग पड़ोगे तो सब हो जाएगा. हिन्दी के माध्यम से तुम्हें ऊँचे से ऊँचे विचारों को प्रकट करने का प्रयत्न करना होगा. क्यों नहीं होगा. मैं कहता हूँ जरूर होगा.

इस महान कथन के आगे त्रिपाठी जी लिखते हैं- 'द्विवेदी जी ने इसके बाद जोड़ा है - ये (भाव) मेरे दिल पर वज्र लेख की तरह अंकित हो गए हैं.' ऐसे ही पाठक जानते हैं कि द्विवेदी जी को बनारस में बहुत विरोध झेलना पडा था, इसके कारण अज्ञात नहीं हैं फिर भी यह त्रिपाठी जी का अंदाज है कि वे इस बात को भी जिस तरह कहते हैं वह ध्यान देने योग्य है - 'द्विवेदी जी का अपराध यह था कि वे प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष होकर आए थे.' 

त्रिपाठी जी पैदा कहीं भी हुए हों लेकिन हैं बनारसी. कहन का उनका अंदाज बनारस से ही आया है, हंसाते-गुदगुदाते- दूसरों से ज्यादा अपनी खिल्ली उड़ाते इस गद्य की धज निराली है. एक प्रसंग में वे लिखते हैं - निर्मक्षिकत्व की खातिर' अर्थात कोई परेशान न करे ....यह है परम्परा को बढ़ाना. जब कोई लेखक नए शब्द (भले वे नए न हों, अप्रचलित हों) भाषा में ऐसे ला देता है कि वह देर तक पाठक की स्मृति में बना रहे, यह बात भी यहाँ कई जगह देखी जा सकती है. भाषा के इस ठेठ अंदाज से यह मान लेना ठीक नहीं होगा कि हंसी ठिठोली में सारी किताब लिख दी गई है. असल चुनौती यही तो है कि आसानी से कठिन बातें कह दी जाएँ और किताब की भाषा इस बात का प्रमाण है. एक और वाक्य देखिये- 'काशी की घृणास्पदता लाजवाब है. सुनाई पड़ जाए तो कान की लवें सुर्ख होकर चटख जाएं.'  त्रिपाठी जी महान भोजन प्रेमी हैं, यह भोजन प्रेम उनके यहाँ बार बार दिखाई देता है, पुस्तक में आये कुछ वाक्य देखिये -

(Balram Agarwal के फेसबुक की वाल से साभार)
'केडिया जी के यहाँ का भोजन मुझे इतना याद है कि उनके बारे में और कुछ भी नहीं याद है.'
'जीवन में पहली बार और आख़िरी बार डॉ. नगेन्द्र के यहाँ भोजन मिला.'

और यह भी देखिये 'वे मेरे अन्नदाता थे. (यह मैं अंत:करण से आज भी मानता हूँ)' - अर्थात उपमा भी भोजन से ही मिलेगी. इस भोजन प्रेम को किसी निर्धन ब्राह्मण की मामूली और सहज लालसा समझा जा सकता है लेकिन ध्यान से देखा जाए तो यह ब्राह्मण केवल विश्वनाथ त्रिपाठी जी ही नहीं हैं. किताब में आये अनेकानेक प्रसंग स्वयं हजारीप्रसाद द्विवेदी, केदारनाथ सिंह और कई अन्य ऐसे लोगों के इस पक्ष को बताने वाले हैं और तब समझ आता है कि वस्तुत: यह भोजन से कहीं अधिक देसी और गंवई सादगी का पक्ष है जो कैसा भी आडम्बर नहीं जानता. यह वह ठेठ निर्भीकता भी है जो अपनी कैसी भी बात कहने में संकोच नहीं करती. किताब इस निर्भीकता और देसी कहन का दस्तावेज है. ऐसा हुआ है कि कोई प्रसंग,बात या तथ्य एकाधिक बार या बार बार आ रहा है - त्रिपाठी जी उसे रोकते नहीं, दूसरे अंदाज में नहीं कहते,बात नहीं बदलते - दरेरा देते हुए फिर फिर कह देते हैं, बिना परवाह के, आप क्या सोचेंगे

यदि पौने पांच सौ पृष्ठों की यह पोथी पाठक उपन्यास का सा आनंद लेते हुए पढ़ गया है तो इस बतकही के कारण ही, जिसमें सुनने का मजा ऐसा है कि फिर फिर वही सुनने की झुंझलाहट कहीं नहीं आती. द्विवेदी जी पंजाब चले गए हैं तो वहां के लोग, किस्से, घटनाएं एक एक कर ऐसे आती गईं हैं कि ध्यान से पढ़ते चले जाएँ. एक किताब किसी व्यक्ति में ऐसी दिलचस्पी पैदा कर दे, उसके जीवन और साहित्य में आप रमने लगे -डूबने लगे, भला एक जीवनीकार को और क्या करना चाहिए? सौ से भी ज्यादा पृष्ठों में वे द्विवेदी जी की रचनाओं और उनके रचनाकार पक्ष पर विचार करते हैं, उनके निधन पर विभिन्न अखबारों में आई श्रद्धांजलियाँ और उनसे जुडी दूसरी चीजें भी यहाँ हैं. जिस अध्यापकीय आलोचना से हिन्दी रचना जगत त्रस्त होने का भाव दर्शाता है उस अध्यापकीय आलोचना का यह कीर्ति स्तम्भ है जिसे पार करना आसान नहीं होगा. 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को हम जानते भले रहे हों लेकिन उनको आचार्य क्यों माना जाए यह पुस्तक सहज बता देती है. एक अध्यापक का ऐसा गौरव गान किसी भी भाषा भाषी समाज के लिए कितने महत्त्व की बात है,यह कहने की बात नहीं. 
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पल्लव
बनास जन का संपादन
मीरा : एक पुनर्मूल्यांकन, कहानी का लोकतंत्र और लेखकों का संसार आदि पुस्तकें प्रकाशित,भारतीय भाषा परिषद का युवा साहित्य पुरस्कार.
हिन्दू कालेज(दिल्ली विश्वविद्यालय) में सहायक प्रोफेसर 
pallavkidak@gmail.com

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  1. सच्चे लेखन को अच्छा पुरस्कार। बहुत बहुत बधाई।

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  2. पल्लव जी की 'समीक्षा ' तो खैर रूटीन प्रशस्ति भाव से भरी 'हिंदी ' समीक्षा है .उसके पक्ष या विपक्ष में कहने को कुछ नहीं है .किताब के महत्वपूर्ण अंशो का चुनाव और परिचय उन्होंने दिया है .इस चुनाव के लिए उन्हें फिर भी प्रशस्तित किया जा सकता है .त्रिपाठी जी का यह संस्मरण 'निर्धन ब्राह्मणों ' (स भोजन प्रेम को किसी निर्धन ब्राह्मण की मामूली और सहज लालसा समझा जा सकता है लेकिन ध्यान से देखा जाए तो यह ब्राह्मण केवल विश्वनाथ त्रिपाठी जी ही नहीं हैं. किताब में आये अनेकानेक प्रसंग स्वयं हजारीप्रसाद द्विवेदी, केदारनाथ सिंह और कई अन्य ऐसे लोगों के इस पक्ष को बताने वाले हैं और तब समझ आता है कि वस्तुत: यह भोजन से कहीं अधिक देसी और गंवई सादगी का पक्ष है) के खाने पीने के सलीके को समझने में उपयोगी है .

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  3. अच्‍छा और सुचिंतित ेलेख। बधाई पल्‍लव को। कुछ उदाहरणों से किताब जैसे खुल कर हमारे सामने आजाती है।

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  4. विचारोत्तेजक समीक्षा

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