'विकी डोनर' और 'मद्रास कैफे' के बाद शूजीत सरकार की
फिल्म 'पीकू' राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी हुई है. इस संवेदनशील
फ़िल्म की बारीकियों से आपका परिचय करा रहे हैं फ़िल्म समीक्षक सारंग उपाध्याय. यह फ़िल्म भारतीय परिवार के बीच एक बूढ़े व्यक्ति
की व्यथा-कथा के समानांतर तमाम रोचक उपकथाएं भी साथ –साथ लिए चलती है.
बूढ़ी देह के बालमन की कहानी : पीकू
सारंग उपाध्याय
हां, फिल्म को लेकर नई बात यह है कि इसने इंटरनेशनल बॉक्स
ऑफिस पर कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं जबकि भारत में भी पहले हफ्ते में अच्छा
धन कमाया है. जो कमाई के हिसाब से फिल्म देखने का शौक रखते हैं, वे इसकी जानकारी नेट से निकाल सकते हैं. स्वस्थ, स्वच्छ
और सुंदर सिनेमा के मानक केवल कलात्मक होते हैं, जो
बहुआयामी हो सकते हैं.
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बचपन के फूल बालमन के आंगन में ही नहीं
बल्कि बूढ़ी और बीमार देह के भीतर भी खिलते हैं. वृद्धावस्था दुखों की त्रिवेणी
होती है, जहां जीवन के समानांतर चलती आधि, व्याधि और उपाधि
की स्वाभाविक दुख धाराएं मिलती हैं. उम्र के इसी घाट से जीवन के अनंत की
महायात्रा शुरू होती है. घर, परिवार के बड़े बूढ़े यात्री होते
हैं, वे अतीत की गठरी में जीवन समेटते हैं और यात्रा शुरू
होने से पहले बूढ़ी और जर्जर देह के भीतर बैठे मन से बचपन के झूले में झूलते हैं,
लड़कपन की पतंगें उड़ातें है और दुनिया को ठेंगा दिखा कर अपने बच्चों
को चिढ़ाते हैं. निर्देशक शूजीत सरकार की फिल्म 'पीकू'
वृद्धावस्था के घाट पर जीवन की धूप-छांव देखे एक बूढ़े बाल मन की
ऐसी ही कहानी है.
'विकी डोनर', 'मद्रास कैफे' के बाद फिल्म 'पीकू'
शूजीत सरकार का हिंदी सिनेमा को तीसरा सर्वाधिक सुंदर और अप्रतिम
उपहार है. यह फिल्म हमारे परिवारों में हर बूढ़े, अधेड़,
जवान और बालमन के भीतर चल रही रिश्तों की भावात्मक नोंक-झोंक का
प्रेममय चित्रण है. जिन्होंने शूजीत सरकार की फिल्म 'मद्रास
कैफे' देखी होगी, वे निश्चित ही 'पीकू' देख कर इस बात पर यकीं नहीं कर पाएंगे कि एक
निर्देशक युद्ध और हिंसा के विभत्स दृश्यों और त्रासदियों के लैंडस्कैपों से
कैमरे को निकाल कर, महज दृश्यों और संवादों से सिनेमा बुन
सकता है.
सिनेमा की समझ रखने वाले जानते हैं कि
कैमरा दृश्यों से कहानी बुन लेता है, उसे दृश्यों के भीतर कहानी की जरूरत नहीं होती. 'पीकू' फिल्म कलात्मक रूप से बेहद समृद्ध स्क्रीन
प्ले और आधुनिक होते हिंदी सिनेमा के भीतर बेहतरीन निर्देशन कला की शानदार बानगी
है.
ये फिल्म पर्दे पर हिंदी कथा साहित्य की
कुछ बेहद सुंदर कहानियों के भीतर होने का सुखद अहसास पैदा करती है. आप इसे देखते
हुए 'फेंस
के इधर और उधर' प्रवेश कर सकते हैं, या
फिर उस 'पिता' से कम से कम एक बार तो
बतिया ही सकते हैं, जो खाट पर देर रात बेचैन होता है और अपने
भीतर एक शून्य जीता है.
दिल्ली के सीआर पार्क के बंगाली एन्क्लेव
में 70
वर्षीय भास्कर भट्टाचार्य (अमिताभ बच्चन) बेटी पीकू (दीपिका पादुकोण) का जीवन,
उत्तर भारत के इस महानगर में कोलकाता के अतीत के साथ रचा-बसा है.
घर के भीतर ड्राइंग रूम में दीवारों पर लगी रामकृष्ण परमहंस, मां शारदामणि और सत्यजीत रे की तस्वीर, आधुनिक साज
सज्जा के बीच ही पारंपरिक सजावट में बंगाली खाना-पान की खुश्बू से भरा हुआ
ड्राइंग रूम. दिल्ली के मिजाज के बीच बात-बात में कानों में एक बंगाली बूढ़े की
सुबह-सुबह की चिढ़चिढ़ाहट, ऑफिस के लिए लेट हो रही, बेटी पीकू की पिता पर झल्लाहट, बीच-बीच में अपनी
हाजिरी लगाता नौकर. यह फिल्म का पहला दृश्य है. शूजीत फिल्म के पहले ही दृश्य
में पूरे सिनेमा की लाइन खींच देते हैं. जैसा की पहले कहा, यह
फिल्म बेहद छोटे, सुंदर और भीतर तक उतर जाने वाले दृश्यों
की खूबसूरत लड़ियां हैं.
एक लाइन में कहूं तो इस फिल्म की कोई
कहानी नहीं है, न मैं सुनाना चाहूंगा, सिवाय इसके कि कब्ज के रोग
को फोबिया मानकर दिनरात उसी में डूबे, हाईब्लड प्रेशर की
चिंता में घुले जा रहे और बेटी को देखभाल के लिए येन केन प्रकारेण घर बुला लेने
वाले एक वृद्ध ने अपने आसपास जो दुनिया खड़ी की है, यह उसी
दुनिया के दृश्यों का बोलता कोलाज है. वृद्ध जो व्याधि के डर में आधि में घुला
जा रहा है और बेटी सहित आसपास की दुनिया के लिए उपाधि बन गया है. बेटी जो पिता की
बूढ़ी देह के भीतर बैठे, बाल हठ को प्यार में डूबी मजबूरी के
साथ संभाल रही है. और राणा चौधरी नाम का एक युवा है, जो
परिस्थितिवश इनके जीवन में शामिल हुआ है और उनके पारिवारिक जीवन में पिता की
बायलॉजी समझते हुए, पिता-पुत्री की कैमेस्ट्री का शिकार हो
गया है.
निश्चित ही यह फिल्म शब्दों से परे दृश्यों
की खूबसूरत श्रृंखला हैं, जिसके भीतर एक बंगाली पिता-पुत्री, छौबी मौसी (मौसी जी के नाम में भूल हो सकती है) (मौसमी चटर्जी) , (इरफान खान) राणा चौधरी, टैक्सी एजेंसी मालिक उनके
आसपास जी रहे पात्र और चरित्र जीवन के सुंदर और बेहतरीन लम्हों के साथ आपके सामने
हैं.
फिल्मी दृष्टि से कई लोग इसमें संभव हो
नायक गढ़ लेंगे, गढ़े भी जा सकते हैं, लेकिन कहूंगा कि फिल्म का कोई
नायक नहीं, कोई नायिका नहीं है. जैसा की कहा, ये एक जीवन की दृश्यात्मक कहानी है, जिसे पटकथा
लेखिका जूही चतुर्वेदी ने स्वाभाविक, महीन और हम सब के जीवन
से चुराए गए पलों से स्क्रीन प्ले में कैद कर लिया है, बेहद
खूबसूरती के साथ बुन लिया है. निर्देशक शूजीत सरकार जीवंत दृश्यों के चितेरे हैं.
उनके पास निर्देशन की एक अद्भुत कलात्मक कूची है. उन्होंने संवादों के बीच दृश्य
खड़े किए हैं, और दृश्यों के बीच कहानी बुन दी है. हर एक
दृश्य एक संपूर्ण कहानी है और हर कहानी के बीच से कई कविताएं निकल कर आपके मन में
फूल की तरह खिल जाने वाली है.
यह फिल्म लेखन की कई विधाओं का कोलाज है.
दृश्यों के भीतर से संस्मरण निकलते हैं, और आपको आपके सुखद अतीत की पगडंडियों पर दूर तक लिये
चलते हैं, या फिर आपको उसी क्षण घर लौटा लाते हैं, जहां आपके भी घर बैठा एक वृद्ध दुखों के त्रिवेणी घाट पर बैठकर आपसे उसके
बचपने को समझने के लिए कह रहा है. यह आपके जीवन का कोई गुदगुदाता यात्रा वृतांत हो
सकता है. मन के किसी खूबसूरत कोने के भीतर आज भी सुगंध बिखेर रहे डायरी के कुछ
आत्मिक सौंदर्य में लिपटे हिस्से हो सकते हैं.
जी हां, इस फिल्म में सबकुछ है. दिल्ली से कोलकाता तक का
रास्ता, सिंघासनी कुर्सी, हाइवे और उस
पर बने ढाबे, शौचालय, बनारस की रात,
गंगा का घाट, होटल, नींद,
कब्ज पर डिसकर्शन, मनमुटाव, बाल हठ और युवा मन की खीज, कोलकाता की तंग गलियां,
ट्रांप, विक्टोरिया मैमोरियल, हुबली के किनारे बूढ़ा होता अतीत, साइकिल पर घूमता
समय, कब्ज, टिल्लू पंप और एक स्वभाविक
लय में चलता जीवन और बंगाली संवादों के बीच बंगाली संस्कृति और पंरपरा में डूबे
आप और हम. जूही और शूजीत के पास से आप जो चुरा लाएं, घटनाएं,
रिपोतार्ज, कविताएं, कहानियां
या फिर कहीं कोई फिल्म का टुकड़ा. आपके लिए यहां आगत या विगत की संभावानाओं के बीच
घट रहा जीवन है और जीवन के बीच बीत रहा एक समय है, जिसमें एक
परिवार है और हम सब हैं.
फिल्म के रूप में यह एक किताब है, जिसे आपको पढ़ना होगा,
यह किसी आंखों में यह एक बार में उतरकर स्मृति का हिस्सा नहीं हो
सकती. सुझाव यही है कि सरल, सहज, आत्मीय
भावना में डूबे और रिश्तों के बीच 2 घंटे 15 मिनिट की इस कहानी को आंखों से पढ़ लीजिए और ता उम्र इसे सहेज कर रखिए.
फिल्म देखते हुए आपको त्रषिकेश मुखर्जी
की फिल्मी धारा में एक बार फिर लौटने का अहसास होगा. याद आएगी 'खूबसूरत', 'बावर्ची', 'नरम-गरम' 'खट्टा-मीठा'
जैसी फिल्में और उनका दौर. लेकिन याद रखिए, यहां
आपको शूजीत सरकार और जूही चतुर्वैदी का वो कॉम्बिनेशन मिलेगा, जहां सबकुछ नया है. कहानी से परे विषय की प्रधानता है. विषय है, कब्ज और उसके
ईद-गिर्द बिखरा रिश्तों और भावनाओं का जाल. परिवार के सदस्य की चुंटीली बातचीत,
संवाद और बातों ही बातों में एक दूसरे को सरल रूप में काटते चरित्र.
यहां प्यार का नमक मिलेगा, जिसे घर ले जाकर आप अपने परिवार
में प्रेम का जायका बढ़ा सकते हैं.
जूही चतुर्वेदी और शूजीत सरकार की कामकाजी
रिश्ता काफी पुराना है. कई बार यह अच्छा लगता है कि दो रचनात्मक लोग निर्देशक
और पटकथा लेखक, साथ में मिले और दोनों पहले लंबे समय तक साथ में काम कर चुके हैं, तो आपको पर्दै पर सृजन की खूबसूरती कई रंगों में दिखाई पड़ती है. जूही ने
पीकू का स्क्रीन प्ले रचा है, तो उसमें शूजीत ने निर्देशन
की कूची से रंग भरे हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया लखनऊ में फ्री लांसर के
तौर पर अपना कॅरियर शुरू करने वाली जूही का सफर दिल्ली की विज्ञापन एजेंसी से
होता हुआ, मुंबई पहुंचकर शूजीत से जा मिला. जिन्होंने फिल्म 'विकी डोनर' देखी होगी, वह जूही
की प्रतिभा को जानते हैं, सो परिचय की नहीं, संवादों और पटकथा की तारीफ की जरूरत समझते होंगे. जाहिर है, इस बार जूही ने बहुत ही आगे जाकर काम किया और महज पटकथा के आधार एक फिल्म
रच दी है.
क्षमा चाहूंगा, लेकिन दोहरा रहा हूं,
जिन्होंने मद्रास कैफे देखी होगी, उन्हें
महज दृश्यों के जरिये कहानी देखनी पड़ी होगी, लेकिन शूजीत
यहां से आगे बढ़ गए हैं. उन्होंने एक बार फिर स्थितियों, घटनाओं
और प्रसंगों के बीच गुजरते जीवन के बीच संवादों से निर्देशन किया है. आप जानते हैं
कि संवाद जूही के हैं.
परिवार में मनमुटाव, झगड़े, बात-बात पर टकराव, और नोंक-झोंक यही सब हमारे रिश्तों
में प्यार की हरियाली है. फिर मौसी जैसा रिश्ता पिता की साली का भी बन जाता है
तो सब कुछ हरा होता ही है. मौसमी चटर्जी की मुस्कुराहट लंबे समय बाद पर्दे पर
दिखाई दी है. वे लंबे समय से अभिनय से दूर थीं. 62 साल की इस
मोहक और बेहद सुंदर अभिनेत्री की आखिरी हिंदी फिल्म 'जिंदगी
रॉक्स' थी, जो 2006 में आई थी. इंडस्ट्री में रोल देने की वादा खिलाफी से थोड़ी आहत मौसमी इस
फिल्म की सबसे खूबसूरत पात्र हैं. अनुभव का अभिनय पात्र को अमर बना देता है.
चुंटीली, चुलबुली मौसी इस फिल्म के एक कोने से आपकी स्मृति
में कब एक रिश्ता बुन देगी आपको पता ही नहीं चलेगा.
अमिताभ बच्चन नाम के हिंदी सिनेमा के
किसी सदी के महायनायक ने इस फिल्म मे काम नहीं किया. एक बूढ़ा है जिसका नाम भास्कर
बनर्जी है, जो अभिनय करते हुए कुछ कुछ अमिताभ जैसा दिखता है.
मैं पहले ही कह चुका हूं कि इरफान अपने
होने मात्र से अभिनय रचते हैं. वे अभिनेता के रूप में अनुपस्थित रहते हैं और
पात्र व चरित्र में उपस्थित. वे अभिनेता नहीं रहते बल्कि पात्र हो जाते हैं, उनके वास्तविक चरित्र के
लक्षण किरदार की फ्रेम में ढूँढना असंभव रहता है. खामोशी में संवाद, कनखियों की नजर, क्रियान्वित रहते हुए शरीर की भाषा,
परिवेश का इस्तेमाल,वस्तुओं से जीवंत संबंध
और किरदार से तादात्मय, यह अभिनेता अभिनय के सागर में विलीन
हो जाने वाला कलाकार है.
पता नहीं आपने दीपिका को आखिरी फिल्म में
कब देखा होगा. जैसे भी और जिस भी पात्र में देखा हो, लेकिन वे पीकू के किरदार में आपको हमेशा याद आएंगी.
उनके अभिनय और खूबसूरती दोनों में ही निखार आया है. रघुवीर यादव की उपस्थिति आपको
जरूरी लगेगी. यह पात्र हिंदी सिनेमा की मुख्य अभिनय धारा का निनाद है.
फिल्म का बैनर एमएसएम मोशन पिक्चर्स, सरस्वती एंटरटेनमेंट,
राइजिंग सन फिल्म्स प्रोडक्शन्स है जबकि निर्माता एनपी सिंह,
रॉनी लहरी, स्नेहा राजानी हैं. इन सभी को एक
बेहतरीन सिनेमाई उपहार देने के लिए बधाई. कलाकारों के बारे में क्या कहूं?
जाने-पहचाने नाम और मंझा हुआ अभिनय है. मेरे लिए तो नया नाम जीशु
सेनगुप्ता का है, उसे आप पहचान जाएंगे. बाकी अमिताभ बच्चन,
दीपिका पादुकोण, इरफान खान, मौसमी चटर्जी, रघुवीर यादव हैं, उनके बारे में कह चुका हूं औपचारिकता की जरूरत नहीं. इनसे भी ज्यादा
प्रशंसा और बधाई इस बार जूही और शूजीत के लिए.

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सारंग उपाध्याय
उप समाचार संपादक
Network18khabar.ibnlive.in.com,New Delhi
बहुत आत्मीय समीक्षा लिखी है सारंग आपने. देखिए, बेटी से फिल्म को सुनती हूं. पूरी कहानी मेरे अंदर वह डाल देती है. हर दृश्य मेरे भीतर उसने इस तरह बना दिए हैं जैसे बचपन में वो घर की दीवारों पर ड्रॉइंग करती थी. मेरा मन उन दीवारों को हमेशा वैसे ही रखने का था.
जवाब देंहटाएंसारंग पीकू भी इसी तरह मेरे मन में रंगी दीवार हो गई है.
समग्र समीक्षा है.
अभी देख नहीं पाया .... लेकिन इसे जल्दी ही देखने की इच्छा है | इसलिए भी कि अस्सी वर्षीय वृद्ध पिता का बेटा हूँ | एक ऐसे पिता का, जिनकी स्मृतियों ने धीरे-धीरे उनका साथ छोड़ दिया है | मैं इस जीवनं से मिलान करना चाहूंगा कि बालीवुड में इस महत्वपूर्ण विषय पर फिल्म बनाने की संवेदनशीलता है या बस बनाने के लिए इसे बना दिया गया है |
जवाब देंहटाएंमद्रास कैफे इस दिशा में थोड़ी उम्मीद भी जगाती है, तो थोड़ी नाउम्मीद भी | एक अच्छे और संवेदनशील विषय को उठाने के बावजूद उसके निर्वहन में रह गयी कमजोरी अभी भी मुझे खटकती है |
फिलहाल इस लेख के लिए सारंग जी को बधाई और समालोचन का शुक्रिया |
बेहतरीन समीक्षा... देखना बहुत जरूरी है नहीं तो आप पर प्रश्नचिह्न लग सकता है
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा। पीकू यकीनन एक बढ़िया फ़िल्म है। इधर अरसे बाद ऐसी सुन्दर फ़िल्म देखी।
जवाब देंहटाएंअपर्णा जी राम जी आशुतोष, और मालविका आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया...! और हां अपर्णा जी क्या आपकी बेटी का नाम भी पीकू है? :)
जवाब देंहटाएंइस फ़िल्म में एक छुपा हुआ सन्देश है उन parents के लिए जो बच्चों के देखभाल करने केबावजूद ये कहते हैं.. हम अपने आप को संभाल लेंगे .. हमें किसी की जरूरत नहीं... वहीँ दूसरी ओर एक डाइलॉग भास्कर दा चोट करता है.. कि हम तुमको birth दिया और तुम बुढ़ापे में हमारी सेवा करने के बजाय दूसरे के माँ बाप का सेवा करेगा !!!!
जवाब देंहटाएंनेह और स्नेह का अप्रतिम ताना बाना है यह फिल्म ......और एक बहुत मन से मानो भावनाओं की कुची से उकेरी गयी आलोचना के लिए भी साधुवाद !!!
जवाब देंहटाएंकल ही देखी है यह फिल्म...बहुत ही सटीक समीक्षा.....सारंग जी बधाई के पात्र हैं इसके लिए....
जवाब देंहटाएं.बस फिल्म का अंत गले के ऊपरी हिस्से में दर्द दे गया...किसी के भी बाबा को मरना नहीं चाहिए...
सुनीता सनाढ्य पाण्डेय
बेहद खुबसूरत फिल्म--देखकर मन आनन्द से भर गया ---बेहतर समीक्षा के लिए साधुवाद
जवाब देंहटाएंपूरी मूवी को और उसकी भावना और मनोविज्ञान को समेटते हुए एक अच्छी समीक्षा ..कल मैंने भी यह मूवी अपनी बेटी के कहने पर देखी जिसकी शुरुआत motion is emotion के स्लोगन से होती है - 'पीकू' वृद्धावस्था की शारीरिक व्याधियों के साथ उम्र के इस पायदान के मनोविज्ञान का विश्लेषण करती है जहाँ पिता ( अमिताभ बच्चन ) की देखभाल करती बेटी पीकू ( दीपिका ) उनके मोशन के ओबसेशन और लगातार घूमफिर कर हाईब्लड प्रेशर और कब्ज पर जा टिकने वाली उनकी बातों की सुई से झल्लाती है चिढ़ती है वस्तुतः वहीँ वह पिता को मन की गहराइयों से प्यार करती है ... पिता इस उम्र में कुछ ज्यादा सेल्फिश से हो जाते है और पीकू की छोबी मौसी जब जब पीकू को शादी कर लेने का सुझाव देती है तब तब वह छोबी से नाराज होते और विरोध करते दिखते है| वो स्त्री की स्वायत्ता के समर्थक के रूप में खुद को जाहिर करते हैं और जताते है कि वो नहीं चाहते कि शादी के बाद पीकू अपनी अस्मिता खोये| इस तरह पीकू की शादी की बात कही होने नहीं देते जिसकी वजह से पीकू उदास भी है| परिस्थितयों के चक्र में उलझा राणा चौधरी ( इरफ़ान खान ) उनके पिता पुत्री और उनके घरेलू नौकर के तिकड़म में उनके सफ़र का साथ बकौल ड्राइवर के रूप में होता है| जिसमे वह उनके घरेलू हो हल्लो बहसों के बीच में शरीक होता है .. और एक बार वह कड़े शब्दों में आपत्ति भी दर्ज करता है कि पिकू को आप ब्लेकमेल ना करें यह कह कर कि मैं इसके लिए भार हूँ और वह वृद्ध पिता बेटी की परेशानियों को समझता और अपनी तरह से बूझता भी है.... पिता बच्चों की तरह साइकिल चलाते हुए एक दिन घर से बहुत दूर जा कर शहर मोहल्ला देख आते हैं और कचोडी जलेबी खूब एन्जॉय करते है ..घर भी दिल खोल कर लाते है ... वो बहुत खुश है उनका कब्ज भी चला जाता है .और वह सदा के लिए आराम की नींद में चले जाते है
जवाब देंहटाएंकाफी हास्यमय स्तिथिया है मूवी में और इमोशनल भी ... बच्चों को भी जहाँ यह मूवी पसंद आएगी वाही शायद उमरदराज लोगों को भी आये .. और हमने तो लुत्फ़ लिया ही ...पर हां अपने पिता जी की याद पूरी फिल्म में आती रही... पिक्चर कहीं न कहीं हमसे जुड़े इमोशन पर भी लगती थी जो कि पिता पुत्री और पिता का इस उम्र का व्यवहार था ..याद आता है कि पिता जी भी लखनऊ में एक दिन १-२ घंटे के लिए कहीं चले गए . भैया भाभी जी परेशान हुए ..तब उन्होंने बाद में बताया की वो खूब मजे से बाजार घूमें ... ब्रिज के नीचे की लाइफ देखी कोल्ड ड्रिंक ली और अपने पसंद का चुरमुर खाया ... समालोचन को इस समीक्षा के लिए साधुवाद
nice post...
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