मधुकर भारती
की कविताएँ आपको बेचैन करती हैं, अलहदा काव्य-स्वाद से समृद्ध करती हैं. इस बात पर
विस्मय होता है कि कैसे हिंदी साहित्य
उन्हें अबतक पहचानने और मानने से इंकार करता रहा. उनकी कविताओं में अनुभव और
अभिव्यक्ति के दुर्गम शिखर मौजूद हैं. २ मई २०१५ को इस प्यारे कवि का ह्रदयघात से निधन हो गया.
उनकी कुछ
कवितायेँ और कवि अनूप सेठी की
टिप्पणी.
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मधुकर भारती का जन्म हिमाचल प्रदेश के शिमला
जिला के गांव रावग में 1950 में हुआ. कविता संग्रह शरदकामिनी 1985 में छपा. अनियमित साहित्यिक पत्रिका सर्जक का
संपादन प्रकाशन. अधिकांशत: ठियोग कस्बे में रहते हुए सर्जक संस्था के माध्यम से
युवा साहित्यकारों को प्रश्रय. युवा पीढ़ी में बेहद लोकप्रिय. सत्ता और सफलता के
प्रति उदासीन और साहित्य के प्रति उत्साह से सदैव लबालब. 2 मई
2015 को
हृदयाघात से निधन.
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मधुकर भारती
की कवितायेँ
जीवनयात्रा में भविष्य
बच्चा रो रहा था
भीड़ भरी बस में उस स्त्री ने
एक हाथ से कमर पर बच्चा सम्भाला
हुआ था
दूसरे से लोहे की छड़ पकड़ रखी थी
ताकि हिचखोले खाती बस में खड़े रहकर
ठीक से यात्रा कर सके
खड़े हुए सहयात्रियों के धक्कों से
बच्चा परेशान था जैसे कह रहा हो:
किस दुनिया में ले आई मां मुझे
यहां सांस भी कठिनता से मिलती है
इसलिए बच्चा रो रहा था
स्त्री के पास कोई चारा न था
सीट पर बैठे किसी यात्री ने
उस बच्चे के लिए जगह नहीं बनाई
भविष्य के उस नागरिक की असुविधा
किसी के लिए चिन्तनीय नहीं थी
उनके लिए उसका रोना यात्रा मे खलल था
बच्चा लगातार रो रहा था
पुचकार प्यार दुलार कुछ काम न आ रहा था
बच्चा रो रहा था
हर क्षण उसका रोना बढ़ रहा था
बच्चे की पीड़ा का ताव न सह पाने के कारण
अचानक उस स्त्री ने उसे
पास बैठे एक सज्जन पुरुष की गोद में रख दिया
ऊंचा हो गया उसका रोना
कर्कश हो गई उसकी चिल्लाहट
अजनबी पुरुष की आरामदायक गोद
उसके लिए अधिक पीड़ादायक थी
तभी पास बैठी एक अन्य स्त्री ने
बच्चे को अपनी गोद दे दी कोमल
हाथों की थाप दे दी
बच्चा सुबकने लगा, आवाज क्षीण हो गई
वह अजनबी स्त्री के चेहरे को
एकटक देखने लगा
उसका रोना लगभग बन्द हो गया
दुनिया की हिचकोले खाती भीड़ भरी बस
चली जा रही है जीवनयात्रा खलल के
बिना
स्त्री और बच्चा ...
यही है दुनिया, यही है जीना
सर्जक की एक शाम
सामने के राष्ट्रपथ पर
आधुनिक प्रौद्योगिकी मोटरें
धूल उड़ा रही है धूल
आगे दौड़ती को पीछे छोड़ देने को आकुल
कि अप्रासंगिक हो चिन्तन बोध
कि वही है नयी खोज
रेडीमेड कपड़ों की दुकान में
अपनी कमीज का कॉलर ऊंचा करते हुए
आ रहा है एक नेपाली युवक
कि सजा धजा दिखना चाहिए कम पैसावाला भी
सुनील, धूल झाड़
इठलाया खड़ा है पेट्रोल-पम्प का मेगामार्ट
अहंकार खींच लाया एक आदमी को
काऊंटर पर्सन की तरह
सीधे तन गई टंगी हुई वस्तुएं
की स्पर्श करे उपभोक्ता उसे भी
सराहे उसकी सुन्दरता
कोई मोल भाव नहीं, हुआ सो हुआ
हम किसी खेत की मूलियां नहीं
कि हमारी बहसों से ठीक हो व्यवस्था
अन्ना हजारे की ऊर्जा हमसे नहीं
येचूरी हमसे प्रेरित नही
अडवाणी का रथ हमने नहीं सजाया
ईरोम को हमारे अस्तित्व का पता
नहीं
नेपाली किशोर को क्या पता
कि कितनी गहराई से पढ़ा है हमने उसे
माऊंट एवरेस्ट से हिन्दमहासागर
तक
अरूणांचल पर्वत से आबसागर तक
विस्तार है हमारी विचार भूमि का
हमने नहीं रटे राष्ट्रभक्ति के
खोखले गीत
दूध पीया है हमने जननी का
इस मिट्टी की सुगन्ध से इस शरीर
की लय है
सुवासित पवन द्वारा कोरियोग्राफ
किए गए
इस भूमि की समस्त वनस्पतियों के सामूहिक नृत्य
मुग्ध करते हैं हमारी पुतलियों को
यह सुवास संचालित करती है
हमारी धमनियों की रक्तलय
हमारे जीवन की मधुर शैली विकसित
हुई यहीं से
हम बाहर से गम्भीर रहते हैं
अन्दर से आकाश ताकते कोमल शिशु
हमारे मन में स्कूली बच्चो का
सुरीले समवेत गान से पगा लुभावना
नृत्य
'मेरे माणछा' की आह्लादित करती लोकधुन
मेगामार्ट मे अंकल सैम की आत्मा
का बेसुरा राग
कुर्सी पर धंसे किसी मन्त्री का
अहंकार
किसी बड़े बागवान के छोटे लड़के की
स्कार्पियों की ठक से ब्रेक
तारहॉल में पढ़ती किसी छात्रा के मन में
धक धक करती ॠतु बेरियां अनेक
डिम्पी कोई साहित्यिक शैलीगत बहस
छेड़
अभी किसी सूती टोपी पर छूट जाएंगे बीस रूपये
खुशी-खुशी जाएगा नेपाली युवक पेंट सम्भालता हुआ
हम रचनात्मक विस्फोट के लिए
सूत्रबटन खोज रहे हैं
जिसमें डिस्कस होंगे दुनियाभर के क्लासिक्स
श्रद्धांजली पाएंगे जगजीत सिंह
प्रशंसा निंदा फाज़ली की झोली में
गिरेगी
वो मंजर दिखेगा गूंगे-बहरे और अन्धे की दोस्ती में
कि संबंधों की
ऊष्मा शब्दों की दासी नहीं रहेगी
सांसो की आवाजाही और हस्तसंकेतों
की लिपी भी
रचेगी नया संसार
क्या हुआ कोई क्लासिक रचना नहीं
आ रही
जो जिया जा रहा है जीवन
जो गले मिलन हो रहा है राष्ट्रपथ
पर
वो अहसास जमा होंगे ओजोनपरत के बैकयार्ड में
जो विमर्श पल रहे हैं नुक्कड़ों में
जो बज रही है व्योम गुंजारित करती तालियां
वो ध्वनियां अन्तरिक्ष के काले अन्धे खोल में जमा होंगी
नई शताब्दियों की विलक्षण
प्रौद्योगिकियां
खींच लाएंगी उन्हे आदमी के पास
एहसास और संवेदना से भरपूर घरों
में
आदमी मिलेंगे जरूर
तोय्डने मेगामार्टों का गठर
नेपाल के किसी गांव में बतिया
रहे होंगे युवक
पइसा क्या है, इन्सानियत खोजने गये थे
हम भारत में
यहां थी वहां छोड़ आए, वहां की यहां ले आए
इस और खुलती चली गई बहसें
तर्कों पर तर्क उछल रहे थे वकील
कंवर के
जैसे श्रीश्री* की कविताओं में
बिम्ब उलझते रहते हैं परस्पर
देर हो रही है डा. सन्दीप वर्मा
को.
(*श्रीनिवास
श्रीकांत, शिमला के कवि )
विचित्र अनुभव
कार्तिक दुपहरी के कर्मप्रिय समय
में
कयारा खड्ड की विनम्र सड़क पर पैदल चल रहा हूं
बहती हवा से वातावरण में तैर रही
है
मिट्टी से उठती हुई मीठी-मीठी
सुगन्ध
लोगों की कर्णानुकूल चपर-शपर
वाहनों की चलती-फिरती शंगपंग
देखता हूं चहचहाते पक्षियों की
व्योम तैराकी
करयाली वन वृक्षों में शाखाओं और पत्तियों की
झूलती हुई सरसराहट सुनता हूं
अनुभव करता
हूं विश्रान्ति, आह, सन्तुष्टि
यहीं रावल पुल के नीचे एक रुका हुआ पानी है
जो देखने में वैसा ही लगता है
जैसा यह है
उसमें एक कंकड़ डालता हूं
छप्प से उभरती है पानी की छोटी-छोटी लहरें जो
रुकावट की
नाभि से निकलकर
फैलते हुए बाहर जाती है
वे इतना फैलती
हैं इतना फैलती जाती हैं
कि फैलते-फैलते ही किनारे पर
जाकर
अपना अस्तित्व मिटा डालती हैं
रूका हुआ पानी पूर्ववत शांत और स्निग्ध दिखता है
इस अनुभव का क्या करुं ?
लोकदेवता के द्वार पर पटक दूं
कि यह वरदान है या अभिशाप ?
प्राथमिक पाठशाला की जर्जर इमारत
पर तान दूं
कि बच्चे
आशान्वित हैं या निराश ?
शाम की आहट पर लाद दूं
कि करता रहूं शान्ति और
स्निग्धता के
मन्त्र का निरन्तर जाप ?
इस हृदयालाप से सड़क पर जैसे
सबकुछ थम-सा गया है, हवा बन्द है
अतिचैतन्य के इस निष्ठुर क्षण में
शाखाएं और पत्ते जम-से गए हैं
पक्षियों की चोंचे अवाक् और पंख बन्द हो गए हैं
मिट्टी की सुगन्ध हो गई है पानी
जैसी रंगहीन
चपर-शपर और शंग-पंग पर सर्वत्र
ओढ़ा दी गई है एक असाधारण चुप्पी
जैसे मैंने अपने को बिल्कुल खाली कर दिया
है
या मैं एक बहुत बड़े खालीपन में हूं
या बहुत बड़ा खालीपलन मेरे अन्दर भर गया है
या मैं स्वयं ही एक बहुत बड़ा खालीपन हूं
इस विचित्र अनुभव के बावजूद
आप सब की साक्षी में
मैं उपस्थित हूं यहां पर
ठीक इसी समय चुप्पी तोड़ता हुआ ...
दृश्य और पुकार
घटना का समय और स्थान याद नहीं
है
इतना भर याद है
कि एक-एक कर उतारे थे उसने सारे
कपड़े
अपने जन्म की प्राकृतिक अवस्था में जैसे
आया था उस प्रहरीनुमा दीवार पर
फिर धीरे से उतरा था
नीचे फैले विस्तार पर
और सीधा खड़ा हो गया था पहलवानी मुद्रा में
पास ही मिट्टी का एक बड़ा ढेर था
तभी दिवार पर दिखे थे कई लोग
उसे देखते हुए निरुद्देश्य
उनकी आंखों में घृणा, तिरस्कार और ईर्ष्या
अपनी झेंप और लाज और मर्यादा
बचाने को
वह बैठ गया था मिट्टी के ढेर पर
अपने दोनों हाथों से उलीचते हुए
मिट्टी
ढक दिया था अपने पूरे बदन को
भांवली मिट्टी में दब गया था वह
गले तक
ऊपर दिवार पर सबलोग अभी भी
मुस्तैदी से इधर उधर चक्कर लगा
रहे हैं
घृणा तिरस्कार और ईर्ष्या को जज्ब करती हुई
भांवली मिट्टी उसके तनबदन को
लपेटे हुए है
सम्भाले हुए है उसकी झेंप लाज और
मर्यादा
ओ, मां, पृथ्वी, काव्य-भूमि
तुम्हें चिरन्तन बने रहने का
आशीर्वाद प्राप्त है न.
युवा मित्र के नाम
(एक)
प्रिय मित्र, जैसे जैसे तुम इसे पढ़ते जाओगे .
तुम्हारी नाक
घूमेंगी चारों ओर
कुछ जल रहा
है: एक आदमी या जीवन
तुम्हारी
आँखें घूम जाएंगी
और टिक जाएंगी
एक कुर्सी पर
जहां बैठा है
एक आदमी
अपने सामने से
कागज़ पर कागज़ सरकाता
कलम से धकेलता
वर्तमान सुनता है कमरे से उठती आवाज़ें
एक से एक
खुशामदी, फरयादी, याचक
एक से एक चपल, मित्रवत अनुरागी
मुस्कराता, चाय मँगवाता
हर प्याले से
चूसता जीवन की मिठास
और हलक से
उतारता जीवन की मिठास
और हलक से
उतारता समाज का जहर
उसके नथुनों
से बाहर निकलता केवल धुआँ
वह खोलता है
खिड़की
फ़िज़ा में घुल जाए धुआँ
तुम शायद
सोचने लगे
कि घृणा और
हिंसा और तृष्णा के इस वायुमण्डल में
क्षमा, क्षमा और क्षमा का धुआँ फैले तो ?
सोचो, कुछ भी सोचो
(2)
देखो उस खड्ड
के किनारे
रास्ते के छोर
को बूटों तले दबाए
भारी थैला लिए
एक आदमी खड़ा है
एकटक देख रहा
सामने का पहाड़
लांघकर जिसे
अपने गाँव पहुंचाना है
बिछे पड़े हैं
खेत और घासनियाँ
सीमाओं पर
कतारबद्ध बैठे हैं गिद्ध
एक-एक कदम
अंदर सरकते
प्रतीक्षा
कराते उस आदमी की
ताकि कह सकें ‘किस्मत वाले हो,
हम पूरा ध्यान
जमाए हैं
तुम्हारे लिए
देख रहे हैं कागज
सीमाएं
सुरक्षित हैं
केवल
विवादग्रस्त हैं वास्तविक नियंत्रण-रेखाएँ
तुम्हारे होते
विवादों के समाधान
कहाँ भागे जा
रहे हैं, हम यहाँ हैं
कौटिल्य की इस
महानीति को
बांधा है
वृद्ध युगल ने
जो बेटे के घर
न आने पर
उड़ेलता परस्पर
खीझ
अपने भविष्य
के लिए उम्रभर करता रहा प्रार्थना
रखता रहा
गिरवी अपना सम्मान
उन्हें क्या
मालूम भविष्य और ईश्वर
या तो सदा है
सब जगह
या कभी नहीं
है, कहीं भी
दुनिया की
आँखों में
दोनों का एक
निश्चित आकार है
लेकिन दोनों
हैं
निराकार
उनके भविष्य
और उनके ईश्वर के
घर न पहुँचने
पर खीझ उड़ेलता है वृद्ध युगल
बेटे के सामने
जो पहाड़ सी चुनौती है
उस रास्ते के
कुंडल में छटपटाती
जो उसके कदमों
तले हैं
तुम शायद
सोचने लगे
कि परंपरा ही
वह रास्ता है
जिसपर चलने की
चुनौती है उम्रभर की
और अपना भारी
थैला संभाले
सधे हुए कदमों
से आगे बढ़ रहा है वह आदमी
सोचो, सोचना कौनसा माना है .
(3)
दृष्टि घुमाओ
मित्र इस ओर
खुले द्वार पर
खड़ा है एक आदमी
हाथ में बोतल
थामे एक शराबी
घुसा चला जा
रहा है अंदर
वह आदमी उसे
रोकने की भरसक कोशिश में है
आ रहे हैं कुछ
और लोग
जीवन की ठंड
या कडक धूप से
तनिक राहत
पाने के लिए
यहा कमरा गरम
है या ठंडा ?
इस आदमी के हर
काम में विघ्न हैं
विघ्न हैं
बच्चों के चंचल विनोद में
गृहणी के
मानसिक सन्नाटे में विघ्न हैं
बंद हो जाते
हैं खुले पृष्ठ
जम्हाई लेता
है लंबा खाली समय
दीवार पर टंगे
नक्शे में
साईबेरिया
दिखता है या बीकानेर
हर इबारत बन
जाते अंत्याक्षरी
भीगी हुई हर
वस्तु
अभिव्यक्त
नहीं कर पाती अपने को
फागू से थपेड़
खाकर लौटी हुई
आक्रामक हवाएँ
किवाड़ खटखटाती हैं
‘हाँ जी’ ‘हाँ जी’
करते
लपकती हैं
विवशताएँ और सुन्न हो जाती हैं|
तुम शायद सोच
रहे हो
समय की घनेरी
रात और लुटेरी दुनिया में
कहीं तो कुछ
को आश्रय मिले
सोचो, सोचने में कुछ तो भला है!
(4)
इधर भी डालो
एक नज़र
ज़मीन की ओर
देखता हुआ
एक आदमी चला
जा रहा है
इस देह में एक
ब्रह्माण्ड है
जिसमें
जीवनदायी सूर्यों के अतिरिक्त
एक सागर है मन
का
उसमें
उठतीं-डूबतीं मछलियाँ हैं|
यह आदमी
स्मृति में सँजोकर रखना चाहता है
एक-एक कर इन
मछलियों को
मछलियों में
उछलकूद रहे हैं
जीवनानुभव और
जीवन-सौन्दर्य
कहीं तो कोई
सलीका बने
सलामत रहे
जीवन का वैविध्य और वैभव
क्षणिक हैं
मछलियों की छपाकें
पकड़ में नहीं
आता वह क्षण
और पारदर्शी
जल के
कलात्मक
भँवरों में हो जाती गुम
समागम में जा
रहा है यह आदमी
जमीन की ओर
देखते हुए
चर्चा करता
मछलियों की
कौन पकड़ी और
कौन सी छूटी
तमाम
प्रक्रिया पर विचार व्यक्त करता है
अनसुना करता
है हतप्रभ समागम!
समागम देखता
है आकाश
नक्षत्रों की
स्थितियाँ, पावन विचार और
किताबी आदर्श
उस आदमी के
यथार्थ पर ढुलकते अश्रु
भीड़ भरे
शालीबाजार में कहाँ खोजें खालीपन ?
कहाँ सार्थक
करें अपने होने को ?
क्यों मर रहे
हैं एक-एक कर लोग?
हर दिन किसी न
किसी इबारत की
सम्पन्न होती
है अंतिम क्रिया
और यह आदमी
केवल ज़मीन देखता है|
जबकि आकाश
शाश्वत पसरा
है दिखने के लिए !
तुम शायद सोच
रहे हो
ज़मीन है तभी
आकाश है
ज़मीन ही पैदा
करेगी यह वैभव
हमारे समय की
सभी गाथाओ को जज़्ब करेंगी
पानी के रूप
में बहाएगी, बनाएगी सागर
जिसमें
मछलियाँ तैरती जीती रहेंगी
आकाश में
शाश्वत रहेगा यह समय
फिलवक्त ज़मीन
की पड़ताल में व्यस्त है यह आदमी
सोचो मित्र
निर्भय और
निर्द्वंद्व होकर सोचो !
(5)
जिधर भी
घुमाओगे दृष्टि
किसी न किसी
अवस्था में
कोई न कोई
अजीब ऊहापोह में दिखेगा
रोज़ी-रोटी के
संघर्ष में हाँफता
दौड़ता अज्ञात
लक्ष्य की ओर
बतियाता अनवरत
अनथक
जीवन-नृत्य में लीन
झेलता अपने
प्रमाद और उन्माद
अपने पागलपन
और विषाद
खोजने पर भी
नहीं मिलेगा कोई,
मौन, स्थिर और निर्विकार!
मेरे कलम में
स्याही सूखी रहती है, मित्र
वर्षों-
वर्षों तक वह बंद पड़ा रहता है यूं ही
बस तुम्हारी
मैत्री की तरलता में
लिखा गया है.
________________
आप सब की साक्षी में मैं उपस्थित हूं यहां पर
अनूप सेठी
आज जब लिखने बैठा हूं तो मन परसों जैसा नहीं है.
थोड़ा स्थिर है. परसों सुबह सुबह सोलन से अजेय ने फोन पर बुरी खबर सुनाई कि मधुकर
भारती नहीं रहे. मैं जब यह बात सुमनिका को बताने लगा तो जोर से रुलाई फूट गई. फिर
कई मित्रों को फोन किए. जब भी बात करता, मन कच्चा हुआ जा रहा था. भावना का यह बांध पता नहीं कब से रुका पड़ा था,
जो अजेय के फोन से ढह गया. मधुकर के न रहने की खबर ने मुझे तरल बना
दिया था. डांवाडोल. इसी फरवरी में माँ गुजरीं, तब भी मैं खुद
को कड़ा किए रहा. लेकिन उस दिन मधुकर का जिक्र भर जैसे पानी की सतह को दोलाएमान
किए दे रहा था.
ऐसा क्या था मधुकर भारती में जो मुझे भावुक
बनाए दे रहा था ? असल में मधुकर मेरे लेखन के शुरुआती दौर में मुझे मिला था. मैं तब
धर्मशाला कालेज में पढ़ रहा था. एक बार शायद हिमप्रस्थ में मेरी कविता छपी. लोअर
शाम नगर धर्मशाला का पता देख कर उसने मुझे ढूंढ़ निकाला. शायद एक साझे दोस्त
जोगिंदर के जरिए जो मेरा सहपाठी था और कचहरी अड्डे पर अपने पिता की पान की दुकान
पर बैठता था. सिगरेट और साहित्य का शौकीन मधुकर उस दुकान पर आता था. पता चला कि
वह मेरे पड़ोस में ही डेरा ले कर रहता है. मुझे और क्या चाहिए था. जैसे भूखे को
रोटी. मधुकर तब भी परिपक्व ही था. उसने मुझे कभी यह एहसास नहीं होने दिया कि मैं
नौसिखिया हूं.
यूं नौसिखियों के साथ मधुकर की जिंदगी भर गहरी
छनती रही. इसका सबसे बड़ा उदाहरण ठियोग नामक शहर और सर्जक नामक संस्था है. नौकरी
करते करते मधुकर एक तरह से ठियोग में ही जम गया. वहां पर नए लेखकों को ढूंढ़ा और
अपने काफिले में शामिल किया. इस काम में प्रोत्साहित करने या अगुआई करने जैसी सत्ताधारियों
की शब्दावली मधुकर की नहीं थी. वह तो हमराही बना लेता था. मोहन साहिल, प्रकाश बादल, ओम भारद्वाज, सुरेश शांडिल्य, सुनील ग्रोवर, अश्विनी रमेश, रत्न
निर्झर जैस और भी कई लोग मधुकरमय हो गए. ठियोग में ही सर्जक का जन्म हुआ. पत्रिका
के रूप में तो ज्यादा अंक नहीं निकल पाए, पर साहित्यिक
सांस्कृतिक आयोजनों में सर्जक खूब सक्रिय और सफल रहा.
गौरतलब है कि ठियोग हिमाचल प्रदेश की राजधानी
शिमला के पिछवाड़े का शहर है. सारे सूबे में साहित्यिक गतिविधि ज्यादातर शिमला
और मंडी में ही चलती है. शिमला को सत्ता के नजदीक होने का लाभ भी मिल जाता है.
मधुकर ने सत्ता की बैसाखियों के बिना जमीनी ढंग से सर्जक को खड़ा किया. एक साहित्यिक
केंद्र के रूप में ठियोग इसी खूबी के कारण जाना जाएगा. यह खूबी है, सत्ता से निर्लिप्त रह कर,
सत्ता के नाक के नीचे निर्ब्याज काम करना.
सत्ता से निर्लिप्त रहना और निर्ब्याज
कर्मरत रहना मधुकर का स्वभाव था. वह चाहता तो शिमला में बस सकता था. शाही
गलियारों में घूम सकता था. चौधराहट कर सकता था. लेकिन रिटायर होने के बाद भी उसने
ठियोग में डेरा रखा. रहता वो अपने गांव रावग में ही था. गांव में लिखने पढ़ने का
माहौल नहीं बन पा रहा था. पर वो साहित्यिक दुनिया के संपर्क में रहता था. मुंबई
के कुशल कुमार ने व्ट्स ऐप पर पहाड़ी पंची नाम का ग्रुप बना रखा है. अन्य लेखकों
कलाकारों के साथ साथ मधुकर भी उसका सदस्य था. कुछ दिन पहले फोन पर बात हुई तो
उसने बताया कि कमेंट भले ही नहीं करता हूं पर पढ़ता सारे संदेश हूं.
हिमाचल मित्र के दौर में भी मधुकर का शुरू से
आखिर तक सक्रिय और भरोसेमंद सहयोग रहा. पत्रिका मुंबई से छपती थी और अधिकांश
सामग्री हिमाचल से जुटाई जाती थी. उन दिनों योजनाएं बनाने और उन्हें पूरा करने के
सिलसिले में मधुकर से फोन पर लंबी चर्चाएं होती थीं. पहाड़ी भाषा पर बीज वक्तव्य
मधुकर भारती का ही था जो हिमाचल मित्र के दूसरे अंक में छपा. दस यक्ष प्रश्नों के
साथ यह बहस अगले कई अंकों तक चली. बाद में मेरी प्रिय कहानी स्तंभ में हरनोट, केशव और रेखा के साथ बातचीत
मधुकर ने ही की. मधुकर बिना तैयारी के बातचीत के लिए तैयार नहीं होते थे. इसलिए
किताबें जुटाने का काम करना पड़ता था. वे लेखक को पूरा पढ़ते, उसके बाद ही बातचीत की तारीख तय होती.
लिखने पढ़ने की मधुकर की लंबी योजनाएं थीं.
ठियोग में डेरा रखने का एक मकसद यह भी था. कविता संग्रह तैयार करना भी इस योजना
में शामिल था. हालांकि कागजों के पुलिंदों में अपनी कविताएं ढूंढ़ना एक भारी काम
था. उसने अपने समकालीन कवियों पर आलोचनात्मक काम करने का मंसूबा भी बांध रखा था.
कुछ कवियों पर उसने पत्र पत्रिकाओं में लिखा था. पर इधर एक दशक के दौरान छपे कविता
संग्रहों पर विधिवत् लिखने की अपनी इच्छा उसने व्यक्त की थी. कोई शक नहीं कि
जितना अच्छा वह कवि था, आलोचक भी उतना ही समर्थ था.
भावना-प्रवण गर्मजोशी मधुकर के स्वभाव में थी.
पर वह भावुकता या भाववाद में नहीं बहता था. विचारों में वह दक्षिणपंथी तो नहीं था, वाम का घोषित पक्षधर भी नहीं
था. जीवन अनुभवों के ताप ने जो 'जीवन द्रव्य' उसके अंदर भरा था, वह किसी वाम से कम नहीं था. बल्कि
उसे हम देसी सांस्कृतिक वाम कह सकते हैं. मधुकर का सामाजिक और वैचारिक वयक्तित्व
सेल्फ मेड था. वह स्वतंत्र-चेता था, पिछलग्गू नहीं. वह
धौंस जमाने में यकीन नहीं रखता था, लेकिन पिलपिला कतई नहीं
था. उसमें कन्विक्शन था, हेकड़ी नहीं. विनम्रता और दृढ़ता.
खुलापन और स्वीकार. उसके इसी विलक्षण और पारदर्शी स्वभाव ने उसे युवा संस्कृतिकर्मियों
का चहेता बना रखा था.
मधुकर भारती उम्र, अनुभव, और
दृष्टि में मुझसे बड़ा था. पर मेरे प्रति उसका व्यवहार हमेशा आत्मीय मित्रवत्
रहा. मैंने कभी उससे 'तू' कह कर बात
नहीं की. उसके चले जाने के बाद उसकी याद में यह लिखने बैठा तो न जाने क्यों और
कैसे वो मेरे बराबरी के धरातल पर उतर आया. और यह सारी बात 'तू-तू'
कह कर ही लिखी गई. भीतर झांक कर देखता हूं तो उसके जाने का खालीपन
रह रह कर महसूस होता है. ऐसा लगता है जैसे मेरा ही एक अंश मुझसे जुदा हो गया है.
उसकी एक कविता है 'विचित्र अनुभव', जिसमें
वह दृश्यों को फ्रीज होते हुए देखता है, वैसे ही जैसे उसके
साथ बिताए हुए हमारे अनगिनत पल प्रशीतित समय यानी फ्रीज्ड टाइम में बदल गए हैं.
जैसे कोई बीते हुए समय को पत्थर पर उकेर कर अनंत काल के लिए धरोहर में तब्दील कर
देता है.
अनूप सेठी
anupsethi@yahoo.com/09820696684.
अरुण जी आभारी हूं, मधुकर भारती की कविता को समादृत करने के लिए।
जवाब देंहटाएंसहज सरल अभिव्यक्ति. कितने औज़ार लेकर सायास लोग कविताएँ लिख रहे हैं , पर ये कविताएँ स्वतः जीवन -द्रव्य से भरी हैं -काव्य -कोशिका माइटोकोंड्रियन ऊर्जा स्फूर्त करती हुई, कहीं गति में मंथर सा आवेश, कहीं भावों का स्पंदन ..ठियोग के इस कवि को नमन .
जवाब देंहटाएंअनूप जी ने आत्मिक नोट लिखा है.
युवा मित्र के नाम शायद गद्य में था पहले। लेकिन शीर्शक न था । मैं ने इसे एक बार सुना है ठियोग में उन के कमरे में । मैं बाद में अनुरोध करता रहा । क ई बार । पर फिर सुनने का मौका न मिला । इतना कुछ था इस आदमी के पास सुनाने को , पर हमेशा सुना ही ज्यादा । सुनाया बहुत बहुत कम ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविताएँ
जवाब देंहटाएंअनुप जी, हृदय के उद्गार भी मन में कहीं गहर उतर कर 'प्रशीतित' हो जाते हैं। हो गये। स्व. मधुकर जी से कभी मिल तो नहीं पाया, पर आज, यह पढ़ कर इतना अवश्य लगता है कि उनसे मुलाकात हो गई। एक और बात, जो निर्ब्याज काम करते रहे और चपचाप चले गये, तमाम सुनहरे नामों के बीच उन्हीं का तेज अक्षुण्ण रह पाता है, बाकी तो अहं और कामनाओं के बीमार हैं, अपनी डफली बजवा बजवा कर गुम हो जाते हैं। समय के बड़े फलक पर वही सबसे ज्यादा दिखता है, जो कभी दिखता नहीं था !
जवाब देंहटाएंमधुकर जी को प्रेम से श्रद्धांजली अर्पित करता हूँ। यह आदर और प्रेम उनकी आत्मा तक पहुँचे ।
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