वरिष्ठ कथाकार और रंगकर्मी हृषीकेश सुलभ ने आज अपने सक्रिय जीवन के साठ वर्ष पूरे किये हैं. इसी वर्ष उनका नया कहानी संग्रह भी प्रकशित हुआ है. इस संग्रह की छह कहानियों में उनके अपने जीवन की ही तरह विविधता और रचनात्मकता है. इस संग्रह पर विस्तार से कथा-आलोचक राकेश बिहारी ने लिखा है. समालोचन की ओर से जन्म दिन की बहुत बधाई.
स्वप्नों के स्थगन से संकल्पों के उत्सव तक
राकेश बिहारी
एक ऐसे समय में जब विधा के तौर पर कहानी की
केन्द्रीयता लगातार बनी हुई है और कथाकारों की एक नई पीढ़ी अपनी स्पष्ट पहचान
अर्जित कर चुकी है, किसी वरिष्ठ कथाकार के नए संग्रह का प्रकाशित होना जहां पाठकों
को कई तरह की उत्सुकताओं-उम्मीदों से भर देता है, वहीं ‘अपने’ समय के यथार्थ और
उसके साथ होनेवाली रचनात्मक अभिक्रियाओं की परिसीमा से बाहर निकल कर समय के
समकालीन बहाव की अंतर्धाराओं के साथ एक युगीन संगति बैठाना खुद लेखक के लिए भी बड़ी
चुनौती होती है. सुखद है कि ‘वधस्थल से छलांग’, ‘वसंत के हत्यारे’ और ‘हवि’ जैसी कई अन्य
बहुमूल्य कहानियों के शिल्पी हृषीकेश सुलभ के नए कहानी-संग्रह ‘हलंत’ की कहानियाँ न
सिर्फ इन चुनौतियों का मजबूत प्रतिपक्ष रचते हुये अपना विकास दर्ज कराती हैं बल्कि
अपनी समग्रता में नए कहानीकारों के लिए किसी प्रभावी कार्यशाला की तरह भी उपस्थित
होती हैं.
यह संग्रह जीवन-लय के आरोह-अवरोहों का जीवंत दस्तावेज
है. लय दो क्रियाओं के बीच का अंतराल है, जिसमें गति और विश्रांति दोनों ही परस्पर
आबद्ध होते हैं. इस संग्रह की कहानियाँ गति और विश्रांति के इन्हीं दो छोरों के
बीच रचनात्मक सेतु की विनिर्मिति का व्यावहारिक व्याकरण रचती हैं. बहाव और ठहराव
के अंतर्संबंधों को विश्लेषित करते इस संग्रह की कुल छः कहानियाँ किसी इकहरे
मूल्यबोध की प्रतिष्ठा नहीं करतीं बल्कि परस्पर विपरीतधर्मी यथार्थों के साथ संगत करते
विविधवर्णी मूल्यों की टकराहटों से उत्पन्न अंतर्ध्वनियों को एक सधी हुई कलात्मकता
के साथ दर्ज करती चलती हैं.
परंपरा और आधुनिकता के बहुश्रुत रचनात्मक द्वंद्व
से दो कदम आगे आधुनिक चेतना की विभिन्न छवियों के बीच फैले संवेदना के भूगोल को
बिना वाचाल हुये स्वीकृति और अस्वीकृति की गहरी लकीर से अलग कर देना हृषीकेश सुलभ
के कथाकार की बड़ी विशेषता है. भाषा और शिल्प के प्रयोगों का कोई आडंबर किए बिना यथार्थ
की अलग-अलग अर्थ-छवियों और उनके बहुवर्णी राग-रंग को मर्मभेदी विस्तार देते हुये ये
कहानियाँ जिस तरह रचनाशीलता के कई बने बनाए घेरों का अतिक्रमण करती हैं वह इन्हें
कहानियों की भीड़ में अलग और विशिष्ट पहचान देता है. दृश्य को संवाद में बदल देने
का अद्भुत कौशल हो या संगीत की शब्दावलियों से संवेदना की नई संदर्भ-छवियों का
उकेरा जाना, कला की विभिन्न विधाओं का रचनात्मक उपयोग इन कहानियों में सहज ही
महसूस किया जा सकता है. साहित्येतर अनुशासन की बारीकियों के उपयोग की यह खूबसूरती
तब और बढ़ जाती है जब एक सामान्य पाठक के आस्वादन में इस कारण कोई अवरोध या व्यवधान
उत्पन्न नहीं होता. हाँ, यदि पाठक को उस अनुशासन की उन बारीकियों की जानकारी हो तो
वह उन्हीं संदर्भों का एक अलग पाठ भी ग्रहण कर सकता है.

गौरतलब है कि ऊपर संग्रह की अलग-अलग कहानियों के
जिन पात्रों का उल्लेख किया गया वे सब की सब न सिर्फ स्त्री हैं बल्कि इन कहानियों
का मुख्य चरित्र भी हैं. कहने की जरूरत
नहीं कि हृषीकेश सुलभ की पीढ़ी और उसके आसपास के पुरुष कथाकारों की स्त्री-दृष्टि बहुधा
कैसी रही है. भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी के अधिकांश पुरुष कथाकारों की कहानियों में
वर्णित कैरियरिस्ट और अपौर्चुनिस्ट स्त्री चरित्रों से भी हम भली-भांति वाकिफ हैं.
ऐसे में बिना किसी शोर-शराबे के बदलावों की नई इबारत लिखनेवाली ये मजबूत स्त्रियाँ
किसी सुखद आश्चर्य की तरह हमें एक नई आश्वस्ति से तो भरती ही हैं हृषीकेश सुलभ को
अपने पूर्ववर्ती, समकालीन और परवर्ती कथाकारों के बीच अलग और विशिष्ट भी बनाती हैं.
बदलते स्त्री-यथार्थ के नाम पर स्त्रियॉं को
सिर्फ ऑब्जेक्ट की तरह ट्रीट करने वाले पुरुष कथाकारों और नाटकीय क्रान्तिधर्मिता
की ध्वजवाहिकाओं या अराजक स्त्री छवि को ही स्त्री अस्मिता का असली चेहरा मानने
वाली स्त्री कथाकारों की कहानियों का सार्थक और दृष्टिसम्मत प्रतिपक्ष भी रचती हैं
ये कहानियाँ.
हृषीकेश सुलभ आधुनिक दृष्टि और चेतना से संपन्न
कथाकार हैं. ये न सिर्फ बदलते यथार्थ की वर्णमाला को चीन्हते-समझते हैं बल्कि
आधुनिक और उत्तरआधुनिक यथार्थों के
अलग-अलग रूपाकारों के अंतर और अंतर्द्वंद्वों पर भी अपनी बारीक नज़र रखते हैं.
स्वीकार और अस्वीकार के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचने की सलाहियत और साहस से भरा
यह कथाकार हर नए को नकार, संशय या हिकारत की छातीकूट दृष्टे से भी नहीं देखता.
युग-संदर्भों के बहाव, ठहराव और दुरभिसंधियों को एक चौकन्नी दृष्टि से देखने की
सलाहियत इन कहानियों की बड़ी ताकत है.
किसी तरह के सूत्र या फार्मूलों
का अनुसरण करने के बजाय उनका अतिक्रमण इन कहानियों की एक और विशेषता है. जैसा कि
मैंने ऊपर कहा है कि ये कहानियाँ साहित्य रचना की कई बनी-बनाई मान्यताओं का
अतिक्रमण भी करती है. उदाहरण के लिए ‘निजता से सामाजिकता तक की यात्रा’ के सूत्र
को लिया जा सकता है. ये कहानियाँ इन अर्थों में भी अलग हैं कि ये ‘व्यष्टि से
समष्टि की ओर’ के सूत्र का किसी अनिवार्य फार्मूले की तरह इस्तेमाल नहीं करतीं
बल्कि निजता और सामाजिकता के बीच आवाजाही का एक बेहद आत्मीय नैरंतर्य कायम करते
हुये निजता और सामाजिकता की चौहद्दियों को
आपस में मिला देती हैं. यही कारण है कि सारी संभावनाओं और आशंकाओं के बावजूद
संग्रह की शीर्षक कहानी ‘हलंत’ क्रांतिकारी कहानी के फार्मूले में न उलझ कर व्यष्टि
और समष्टि की दुरभिसंधि पर भीतर और बाहर के मारक संवाद का रूप ले लेती है.
यह टिप्पणी अधूरी होगी यदि इन कहानियों में मौजूद
ग्राम्यगंधी भाषा-परिवेश की बात न की जाये. बिहार की बोली और परिवेश के जीवन्त
माहौल के बीच स्त्री चेतना की प्रखर अभिव्यक्ति के कारण कुछ अध्येता इनकी कुछ
कहानियों पर रेणु की कहानियों का प्रभाव बताते हैं. लेकिन मेरी दृष्टि में ऐसा
कहना हड़बड़ी का निष्कर्ष है. अव्वल तो यह कि आंचलिकता के आवरण के बावजूद रेणु और
हृषीकेश सुलभ की कहानियों के यथार्थ की जमीन नितांत भिन्न है और फिर आधुनिक चेतना
और अस्मिता बोध की लग-अलग छवियों के बीच स्वीकार और नकार का निर्णयात्मक संघर्ष भी
इन कहानियों को रेणु की कहानियों से बहुत अलग ला खड़ा करता है. उदाहरण के तौर पर ‘अगिन
जो लागी नीर में’ की माधुरी देवी के सुहाग चिह्न मिटाने में रसप्रिया (रेणु) के
इंकार की अनुगूँज सुनाई पड़ सकती है, लेकिन गौर किया जाना चाहिए कि माधुरी देवी की
स्त्री चेतना अपनी ही बेटी सुवन्ती स्नेहा की स्त्री चेतना के अस्वीकार का
प्रकटीकरण है. अस्मिताबोध की दो अलग-अलग चेतनाओं के बीच विभाजन का यह सामाजिक
मनोविज्ञान हृषीकेश सुलभ की जमीन को रेणु की कथा-भूमि से अलग करता है. हाँ, यह
जरूर है कि रेणु की कथा-प्रविधि से अलग होकर भी उनके लोक-संवेदना के युगीन विस्तार
के कारण ऐसी कहानियों को रेणु की परंपरा की कहानियों के विस्तार के रूप में जरूर
देखा जा सकता है. इन अर्थों में हर लेखक कहीं न कहीं तमाम भिन्नताओं के बावजूद अपने
पूर्वज लेखकों की परंपरा का वाहक सह विस्तारक ही होता है.
(हलंत (कहानी-संग्रह) / लेखक – हृषीकेश सुलभ/ प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली / पृष्ठ संख्या – 107 / मूल्य – 250 रुपये)
(हलंत (कहानी-संग्रह) / लेखक – हृषीकेश सुलभ/ प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली / पृष्ठ संख्या – 107 / मूल्य – 250 रुपये)
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राकेश बिहारी :
biharirakesh@rediffmail.com
आज अपने पाठकप्रिय कथाकार Hrishikesh Sulabh जी का जन्मदिन है। Rakesh Bihari जी ने 'समालोचन' पर उनके नए कथा-संग्रह 'हलंत' की समीक्षा की है। मुझे यह बात बहुत अच्छी लगती है कि लेखक के जन्मदिन को उसके लेखन को सेलिब्रेट करने से जोड़ा जाता है। Arun Dev जी और राकेश जी को धन्यवाद और सुलभ जी को जन्मदिन की बधाई दें हम सब.
जवाब देंहटाएंआदणीय भाईया साठ साल के हुए बधाई ।साठा सो पाठा । अभी ओर अभिव्यक्ति अभियान बाकी हैआपकी कलम में । js
जवाब देंहटाएंसुलभजी को जन्म दिन की अशेष शुभकामनाएं। समीक्षा बहुत बढ़िया। सुलभजी की कहानियां पढ़ते हुए इन्हीं अनुभवों से एक पाठक के तौर पर गुज़रती रही हूँ। आज राकेशजी ने उन्हें स्पष्ट कर दिया। बधाई!
जवाब देंहटाएंजन्मदिन की अशेष शुभकामनाएँ आपको . राकेश जी की समीक्षा कहानियों में चाबी और दिए का काम करती है . द्रुत विलंबित को दुबारा पढूंगी तो कई अर्थ छवियाँ खुलेंगी . शुक्रिया समालोचन आज के दिन इस पोस्ट के लिए .
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