जिद्दी रेडियो : पंकज मित्र (कहानी संग्रह) राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली
पृष्ठ संख्या - 131 / मूल्य 250 रुपये
समय का सच और सामर्थ्य की सीमा
: राकेश बिहारी
पिछले
पंद्रह-बीस वर्षों में कथाकारों की जो नई पीढ़ी आई है, जिसे मैं ‘भूमंडलोत्तर कथा-पीढ़ी’ कहता हूँ,
पंकज मित्र इसके शुरुआती कथाकारों में से एक हैं. इनकी कहानी ‘पड़ताल’ को मैं इस पीढ़ी की पहली कहानी मानता हूँ, जो रेणु की ‘पंचलाइट’ और संजय खाती की ‘पिंटी का साबुन’ की
अगली कड़ी है जिसमें बाज़ार के क्रूरतम रूप को उसकी पूरी विडंबनाओं के साथ दिखाया
गया है. उसके बाद ‘क्वीज
मास्टर’, ‘बेला का भू’ और ‘हुडुकलुल्लू’ जैसी
यादगार कहानियों के माध्यम से पकज मित्र ने न सिर्फ हिन्दी कहानी में अपनी पहचान
पुख्ता की बल्कि इन कहानियों में हिन्दी कहानी के समकालीन विकास को भी रेखांकित
किया जा सकता है. पंकज मित्र के तीसरे और अद्यतन कहानी संग्रह ‘जिद्दी रेडियो’ पर बात करते हुये इनकी पूर्ववर्ती कहानियों की याद आना सिर्फ इसलिए स्वाभाविक
नहीं है कि इन कहानियों ने पंकज मित्र के कथाकार को एक पहचान दी है, बल्कि ये वो कहानियाँ हैं जो उनके कथाकार के सामने एक चुनौती की तरह भी टंगी हुई हैं.
इसलिए इस संग्रह की समीक्षा के क्रम में उन कहानियों को याद करके हम बतौर कथाकार पंकज
मित्र की विकास-यात्रा की भी पड़ताल कर सकते हैं.
आर्थिक
उदारीकरण के एजेंडे को लागू किए जाने के बाद हमारे समाज में आए बदलावों की भूमिका
और उसके ढांचागत प्रभावों का बारीक विश्लेषण ही अमूमन पंकज मित्र की कहानियों में एक रोचक कथा प्रसंग की तरह उपस्थित होता है.
विश्वग्राम की अवधारणा और उसे मूर्त किए जाने के प्रयासों को किसी शहर होते कस्बे
या बदलते गांव के सीमान से देखना हो तो हमें पंकज मित्र की कहानियाँ पढनी चाहिए.
भाषा और मुहावरे की स्थानीयता से लबरेज
इनकी कहानियाँ आर्थिक नवाचारों से उत्पन्न सामाजिक जटिलताओं और वैयक्तिक
महत्वाकांक्षाओं की दुरभिसंधि का न सिर्फ मुआयना करती हैं बल्कि उन पर एक सार्थक
टिप्पणी करते हुये प्रतिरोध का एक प्रतिसंसार भी रचना चाहती हैं. यहाँ हम भाषा के
जिस स्थानीय मुहावरे और आस्वाद की बात कर
रहे हैं दरअसल यह पंकज मित्र के कथा-भूगोल का वह केंद्रीय हिस्सा है जहां कथानक का
मर्म बसता है.
रूढ़ियों
और मिथक से संपोषित कुछ ऐसे धार्मिक अनुष्ठान जो अपनी अपराजेय उपस्थिती के कारण कई
बार हमारी जड़ों की पहचान होने का दावा करते-से दिखते हैं, के औचित्य पर हँसते-खेलते उंगली उठाने की जो सामर्थ्य पंकज मित्र की कहानियों
में है, उसका बहुत बड़ा श्रेय उनकी ग्राम्यगंधी
भाषा और जीवंत मुहावरेदारी के साथ वहाँ के जन-जीवन में व्याप्त बारीकियों को पकड़ने
की उनकी सधी हुई सलाहियत को जाता है. उदाहरण के लिए संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी
‘बिलौती महतो की उधार-फिकिर’ का एक अंश देखा जा सकता है. प्रसंग बस इतना
है कि गाँव के कुछ बच्चे अड़तालीस घंटे के अष्टयाम कीर्तन के लिए चन्दा मांगने बिलौती
महतो के पास आए हैं, जो स्वभाव से निरा कंजूस है. इस प्रकरण में चन्दा न देने की
मंशा को तार्किकता के जिस आवरण में लपेट कर बिलौती महतो प्रस्तुत करता है, वह दिलचस्प है –
“कोनची के चँदवा हौ बाबू.” –बिलौती ने मुस्कुराकर पूछा. जिस मुस्कुराहट के बारे में प्रसिद्ध था कि इस मुस्कान
का मतलब होता है – ‘गयी भइस पानी में.‘
“वही अष्टयाम कीर्तन के. पूरा अड़तालीस घंटा तक नान-स्टौप चलतौ
रामधुन “lलड़कों ने धर्मभावुक होकर कहा
था.
“बाप के नाम का हौ बाबू?” -एक को पकड़ा था बिलौती ने.
“ बैजू.“
“आर माय के, झुनिया ठीक न?
”हाँ.“ लड़का अकबकाकर साथियों को देखने लगा.
“त बैजू और झुनिया के बीच में बैठा के दस आदमी चारों तरफ से
अड़तालीस घंटा तक चिल्ला-चिल्ला के बैजू-झुनिया, बैजू-झुनिया करतौ तो कि हाल होतौ बप्पा-मैया के. अंय. वैसने लगतौ बाबू! सीता
राम के भी,
दोनों, भाग जैथु.“
प्रकटत:
एक कंजूस व्यक्ति का चन्दा न देने का बहाना दिखता यह संवाद कितनी आसानी से अष्टयाम
और कीर्तन जैसे धार्मिक अनुष्ठानों के औचित्य पर प्रश्न चिह्न खड़ा कर जाता है, वह गौरतलब ही नहीं बहसतलब भी है. संभव है कोई दूसरा कथाकार
इसी प्रश्न को खड़ा करनेके लिए लंबे-लंबे भाषणवेषी अनुच्छेद लिख जाता. लेकिन पंकज
मित्र जिस तरह कथा-रस की जीवंतता को बरकरार रखते हुये सवाल खड़े करते हैं, वह उन्हें विशिष्ट बनाता है.
यह
तो एक उदाहरण था, चुस्त स्थानीय भाषा-बोली
के सहारे लोक और समाज की परम्पराओं व रूढ़ियों में पैठकर समय और सभ्यता के बेहद जरूरी
और प्रासंगिक संदर्भों से टकराने की उस सामर्थ्य का जो पंकज मित्र के कथाकार की
विशेषता है. बहरहाल, इस कहानी के केंद्र
में नई आर्थिक नीतियों के लागू किए जाने के बाद आए सामाजिक और व्यावसायिक बदलावों
की व्यापक पड़ताल है. अब न खेती पहले सी रही न दूसरे व्यवसाय. मानसून और महाजन की
कृपा से कभी तेज तो कभी मद्धम या सुस्त चलने वाली खेती आज बिलकुल नए बाने में
हमारे सामने है. लेकिन संसाधन की जरूरत और किल्लत तथा कृषि उत्पादों की बिक्री और
उनके उचित मूल्य का प्रश्न आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है. धान, गेहूं और अन्य पारंपरिक अन्नों की खेती के समानान्तर
बिलायती और हाइब्रिड टमाटर की खेती तथा बैंको के नवीन लोन-व्यापार के बहाने आधुनिक
आर्थिक संदर्भों की विडंबनाओ की बहुत जरूरी समीक्षा करती है यह कहानी.
भूमंडलीकरण
की शुरुआत के बाद के सामाजिक और आर्थिक बदलावों के एक अलग पक्ष को उद्घाटित करती
कहानी है – ‘बिजुरी महतो की अजीब दास्तान’, जिसमें इस बात को दर्शाया गया है कि अफसरशाही और नौकरशाही
कैसे कुछ खास दलीय और व्यावसायिक घराने के आर्थिक एजेंडों को लागू करने के चक्कर
में न सिर्फ बड़े सामाजिक हितों की अनदेखी करती है बल्कि आमलोगों के बीच छुपी हुई प्रतिभाओं
की भी बली ले लेती है. इस कहानी में कौलेश्वर की त्रासदी हमें बतौर पाठक और उससे
भी ज्यादा बतौर एक जिम्मेदार नागरिक एक अजीब तरह के संवेदनात्मक आघात से भर देती है.
‘बिलौती महतो की उधार-फिकिर’ में बिलौती का माइंड गड़बड़ा जाना हो या ‘बिजुरी महतो की अजीब दास्तान’ में कौलेश्वर का विक्षिप्त हो जाना, दोनों ही स्थितियाँ इस त्रासदी का प्रतीक हैं कि सत्ता और व्यवस्था का रुक्ष
और अवहेलनात्मक व्यवहार कैसे एक सामान्य नागरिक को जीने की तमाम लालसाओं के बीच तिल-तिल कर मरने को छोड़ देता है.
पंकज
मित्र उन कथाकारों में से हैं जिन्हें कहानी की तलाश में न तो किसी सुदूर प्रदेश
की यात्रा करनी होती है और ना हीं सूचना प्रौद्योगिकी के सहारे किए गए किसी शोध या
समाचारों का मुखापेक्षी ही होना होता है. अपने आस-पास के जीवन पर एक सतर्क और पैनी
नज़र तथा दिन प्रति दिन जीवन जगत में घटित
हो रहे बदलावों को उसकी तह तक जा कर समझ लेने का कलात्मक हुनर ही उनकी कहानियों का
सामियाना तानते-उतारते हैं. रेडियो पर आने वाले विविध कार्यक्रम हों या फिर कोर्ट
कचहरी में प्रयुक्त होने वाले टाइप राइटर की खटखट (जिद्दी रेडियो), हमारी दैनंदिन का हिस्सा बन चुके कमर्शियल फिल्मों के
लोकप्रिय गीत हों (कस्बे की एक लोककथा बतर्ज बनती और बबली) या कि योग से योगा बन
कर नाई महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के सफर पर निकले बावा वेषधारियों के नए कारोबार
(जोगड़ा), सब के सब जिस तरह अपनी प्रस्तुति में साधारण
दिखते हुये भी कहानी को रचनात्मक असाधारणता की ऊंचाई तक ले जाते हैं, वह पंकज मित्र को अपने साथ के अन्य कथाकारों से अलग खड़ा कर देता है.
अपना
घर होना ‘रोटी,कपड़ा और मकान’ की न्यूनतम बुनियादी
जरूरतों में से एक है. लेकिन यह सपना कितना कठिन और दुष्कर होता है वह हम में से
अधिकांश अपने-अपने अनुभवों में झांक कर समझ सकते हैं. दूसरी जरूरतों से काट-काट कर बचाए गए थोड़े से
पैसे, बैंक और अन्य वित्तीय संस्थाओं
से लिए गए ऋण, ई एम आई काटने के बाद हाथ में बची रह गई
हर महीने की तनख्वाह का एक छोटा-सा हिस्सा जो हमेशा ही चौकी की अनुपात में छोटे पड़ने
वाले चादर की तरह ही होता है, भू
माफियाओं की गिद्ध-दृष्टि,
कोर्ट कचहरी के छोटे-बड़े दलाल आदि के बीच एक सामान्य आदमी के घर का सपना कैसे
क्षत-विक्षत हो जाता है, ‘प्रो.
अनिकेत का निकेतन’ मे बहुत बारीकी से
समझा जा सकता है. उल्लेखनीय है कि इस कहानी का प्रमुख पात्र अनिकेत है. अनिकेत-
यानी जिसका घर नहीं होता. अनिकेत के पिता को उनके शुभचिंतकों ने मना किया था यह
नाम रखने से लेकिन उन्होने किसी की नहीं सुनी. लेकिन कहानी की विडम्बना देखिये, बहुत जतन से ईंट-ईंट जोड़ कर बनाए गए घर को छोड कर एक दिन
अनिकेत को फिर से किराये के घर में जाना पड़ता है. कहानी व्यवस्था के एक बड़े सच को
उजागर करती है, लेकिन पात्र के नाम का अनिकेत रखा जाना
कहीं उस मिथ को भी पुष्ट नहीं करता कि अनिकेत के बेघर रह जाने का कारण उसके नाम में
है? कहने की जरूरत नहीं कि आज भी
हमारे समाज का एक बड़ा तबका समस्या के सही कारणों को नहीं जानने के कारण रूढ़ियों और
मिथकों से उलझता हुआ दुख और अभाव में जीने को अभिशप्त है. बेहतर होता कथाकार ने इस
स्थिति का काट खोजने की भी कोई कथायुक्ति यहाँ निकाली होती.
संग्रह
की आखिरी कहानी ‘सेंदरा’ कई कारणों से महत्वपूर्ण है. विस्थापन और मुआवजा एक ही
सिक्के के दो पहलू हैं. या यू कहें कि एक की बात करते हुये दूसरे की चर्चा
अनिवार्यत: आवश्यक हो जाती है. विकास के
नाम पर सरकार द्वारा आदिवासियों की जमीन का खरीदा जाना और खरीद-बिक्री की इस पूरी
प्रक्रिया के दौरान मुआवजे और पुनर्वास की सरकारी योजनाओं को लेकर लोगों के बीच पनपते
असंतोष आदि को जिस प्रामाणिकता के साथ यह कहानी अभिव्यक्त करती है वह आदिवासी
जनजीवन पर इधर लिखी गई कहानियों में इसे महत्वपूर्ण बनाता है.
समकालीन
कहानी से अक्सर यह शिकायत की जाती है कि अब अच्छी प्रेम कहानियाँ नहीं लिखी जातीं .
दरअसल इस तरह की शिकायत करते हुये या तो हम इधर लिखी जा रही प्रेम कहानियों को
ठीक-ठीक पहचानते नहीं या फिर हमारे लिए प्रेम समय और समाज से कटी हुई कोई चीज़ होती
है. इस संग्रह की एक महत्वपूर्ण कहानी ‘पप्पू कांट लव सा...’ प्रेम करने के सपने और प्रेम न कर पाने की विवशता के बीच आर्थिक विपन्नता की
भूमिका को रेखांकित करती है. एक मैकेनिक का बेटा पप्पू कॉम्पीटीशन पास करने के
बावज़ूद न तो इंजीनीयर बन पाया और न ही तमाम कोमल भावनाओं और एकात्म समर्पण के
बावज़ूद उसे सुवि शर्मा का प्यार ही मिला. इन दोनों ही परिणतियों के मूल में बस एक
ही कारण है उसका गरीब बाप का बेटा होना. गरीबी, एक
ऐसा अभिशाप,
जिसके कारण एक तरफ बैंक एजुकेशन लोन देने से बिदक जाता है
और दूसरी तरफ शमीमा, सुवि शर्मा बनकर उसे अपने एस एम एस से न
सिर्फ परेशान करती है बल्कि प्रेम का एक भ्रमजाल रचकर उसकी ज़िंदगी तबाह कर जाती
है. पप्पू की विडंबना तब और त्रासद हो जाती है जब सुवि शर्मा के प्रति उसके एकतरफा
प्रेम को,
जिसके मूल में शमीमा की क्रूर हरकतें छिपी है, ऊंची जाति के लड़के सच मान बैठते है और उसके किये की सजा उसे वैलेंटाइन डे को
उसकी बुरी तरह पिटाई करके देते हैं. यह कहानी जिस तरह प्रेम के बहाने समाज में व्याप्त आर्थिक खाइयों
की सामाजिक परिणति को हमारे सामने खड़ा करती है वह कई आर्थिक-सामाजिक हकीकतों से
पर्दे हटाता है. इस तरह यह कहानी बिना
प्रेम के घटित हुये भी पूंजी और बाज़ार के गठजोड़ से उत्पन्न संक्रमणकाल की उन
विडंबनाओं को उजागर कर जाती है जो आये दिन न जाने कितने संभावित प्रेमों की बली
लेता फिरता है.
भाषा
की स्थानीयता और हर रोज बदल रहे गांव-कस्बों में दिख रहे आर्थिक बदलावों की
पृष्ठभूमि के अतिरिक्त पंकज मित्र की इन कहानियों से गुजरते हये जो दो अन्य मुख्य
बातें ध्यान खींचती हैं, वे
हैं- इनका लगभग अनिवार्यत: दुखांत होना और लगभग हर दूसरी कहानी में जेनेरेशन गैप के
कारण उत्पन्न पीढ़ियों की टकराहट. ये सारी बातें हमारे समय का सच हैं, इससे भला किसे इंकार हो सकता है, लेकिन पंकज मित्र जैसे समर्थ कहानीकार की लगभग हर कहानी में यदि यही रेसिपी
बार-बार दुहराई जाये तो यह संशय सहज ही उत्पन्न होता है कि कहीं उनकी समर्थताएं जो
उनकी विशिष्टताएं भी रही हैं, शनै:-शनै:
उनकी कहानियों का रूढ फ्रेम तो नहीं बनती जा रही हैं? ‘राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाये सहज संभाव्य है ‘की तर्ज पर यह चौखटा पंकज मित्र के लिए एक स्थाई सुरक्षित क्षेत्र की तरह
विकसित हो गया है जहां सहज रूप से एक कहानी तैयार हो जाती है. अपनी आगामी कहानियों
में पंकज मित्र को इस चौखटे को तोड़ने का जोखिम उठाना होगा ताकि भविष्य में हम इनके
कथाकार के उत्तरोत्तर विकास को भी रेखांकित कर सकें.
(पाखी, सितंबर 2014 में प्रकाशित)
राकेश बिहारी : संपर्क: एन एच 3 / सी 76, एन टी पी सी, विन्ध्यनगर, जिला -
सिंगरौली 486 885 (म.प्र.) फोन - 09425823033
हमेशा की तरह बढ़िया समीक्षा। अच्छी सीरीज़ है। राकेश जी बधाई।
जवाब देंहटाएंस्पष्ट! तर्कपूर्ण! बढ़िया मूल्यांकन। बधाई!
जवाब देंहटाएंप्रभावपूर्ण और साफ़ समीक्षा। लिखे के मिजाज को खोलती हुई।
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