रीझि कर एक कहा प्रसंग : अजय जनमेजय























बच्चों को सुनाने के लिए हम ‘बड़ों’ के पास एक गीत तक नहीं है. हमारी हिंदी कविता ने तो अपने प्रक्षेत्र से बच्चों को निर्वासित ही कर दिया है.  बच्चे कविता में आते हैं पर कविता बच्चों  तक नहीं जाती. शिशु गीत लिखना चुनौती है. इस महती जिम्मेदारी को जिस मेधा ने गम्भीरता से अपने कन्धों पर उठा रखा है, उसका नाम है डॉ. अजय जनमेजय. अजय पेशे से शिशु रोग विशेषज्ञ (चिकित्सक) हैं. 

शिशुओं में वह जिस तरह से अपना कायांतरण कर उनके मन के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करते हैं – देखते बनता है. अजय शिशु ध्वनियों को पकड़ते हैं, मनमाफिक बनाते हैं और  उसमें नीति- संदेश रखते हैं. डॉ. अजय ने बच्चों के लिए कहानी, नाटक, गजलें और लोरिया लिखीं हैं, उनके दसियों संग्रह प्रकाशित हैं, उन्हें अब तक बीसियों सम्मान मिल चुके  हैं.  

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खरगोश

मस्त बहुत रहते खरगोश
व्यस्त बहुत रहते खरगोश

गाजर मूली खा कर देखो
स्वस्थ बहुत रहते खरगोश.




बूंद

बैठ गई नन्हे पत्तों पर
आसमान से आकर बूंद

हवा चली तो झूम रही है
जाने क्या – क्या गाकर बूंद

मोह रही हैं मन बच्चों का
इन्द्रधनुष दिखलाकर बूंद

थककर आकर लेट गई है
कोमल घास बिछाकर बूंद

बिछुड़ी बादल से, पर खुश है
सबकी प्यास बुझाकर बूंद.





लाई लू

गर्मी आई लाई लू
क्या कर लेंगे मैं और तू

परेशान क्यों मछली है?
नहीं दूर तक बदली है
कारे बदरा अब तो चू

गरम दहकती हवा चले
धरती माने तवा जले
पिल्ला करता कू कू कू

तौबा इतनी गरमी से
गरमी की हठधर्मी से
गीदड़ रोया हू- हू- हू

कैसे खेलें बेचारे
बच्चे गरमी के मारे
दूर – दूर तक पागल लू.






हरा समुंदर  गोपी चंदर

हरा समुंदर 
गोपी चंदर
आँखें खोलों
कुछ मत बोलो
चुप – चुप देखो सारे मंजर

चींटी आई
यूँ गुर्राई
क्यों रे हाथी
कितने साथी घुसे हुए हैं बिल के अंदर.

आजा चूहे
बोली बिल्ली
तुझे दिखाऊँ
चल मैं दिल्ली
देख वो रहा जंतर – मंतर.

बिना जात की
बिना पात की
कितनी प्यारी
ये किलकारी
इससे गूंजे धरती – अम्बर.

जब मन आए
नाचें गाएं
सारे जग को
ये बतलाएं
हम बच्चे हैं मस्त कलंदर.






ल की प्यारी मछली सोई

जल की प्यारी मछली सोई
आसमान की बदली सोई
बहिना तेरी इकली सोई

तू भी सो जा, सो जा, सो जा मुन्ना मेरे

दिनभर नाचा मोर भी सोया
थककर हारा शोर भी सोया
राधा का चितचोर भी सोया

तू भी सो जा, सो जा, सो जा मुन्ना मेरे

तितली के सब पंख भी सोए
राजा सोया रंक भी सोए,
गहरे सागर शंख भी सोए

तू भी सो जा, सो जा, सो जा मुन्ना मेरे




बचपन

इक पल भूलो इस बस्ते को, साथ मेरे तुम आओ तो,
तितली जैसे पंख पसारो, फूलों से बतियाओ तो.

साथ तुम्हारें झूमें नाचें, पौधों का भी मन है ये,
यार जरा तुम पाइप ला कर, पौधों को नहलाओ तो,

बंधकर इस जंजीर में देखो, टामी कितना व्याकुल है,
बंधन खोलो साथ में लेकर, इसको तुम टहलाओ तो.

बच्चों से बचपन मत छीनों, उनको बच्चा रहने दो,
प्यारे बच्चे बात यही तुम, शोर मचा समझाओ तो.

कब से बूंदें टप टप करती, द्वार तुम्हारे आ पहुंची
बाहर निकलो कागज़ वाली, जल में नाव चलाओ तो.   


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डॉ अजय जनमेजय
28 नवम्बर , 1955 हस्तिनापुर,( उत्तर प्रदेश)
417- रामबाग कालोनी, सिविल लाइंस, बिजनौर
९४ १२ २१ ५९ ९२

10/Post a Comment/Comments

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  1. वाह अरूण जी,
    अच्छा लगा। आपको और डाक्टर साहब को बधाई

    तितली जैसे पंख पसारो,
    फूलों से बतियाओ तो.

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  2. सुन्दर मजेदार कवितायेँ. पशु पक्षियों और प्रकृति से हम बचपन में गहराई से जुड़े होते हैं. सरल सहज शैली में दिलचस्प बातें.

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  3. कब से बूंदें टप टप करती, द्वार तुम्हारे आ पहुंची
    बाहर निकलो कागज़ वाली, जल में नाव चलाओ तो.
    बाहर के जीवन को कश्ती करती कविताएँ।
    सुबह -सुबह बच्चों से कविता में मुलाकात अपने बीते टुकड़ों से मुलाकात है।
    समालोचन की यह पहल मनभावन रही।

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  4. Dr.ajay janmejay ko samalochan mai dekhkar sukhAd laga . Ye kahna muskil hai ki wo bado ke liye jyada rochak likhte hain ya bacho ke liye.....

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  5. बेहद ज़रूरी बात की है आपने. ये कविताएँ तो बड़ों के मन में खोये बैठे बच्चों तक भी पहुँच रही हैं. यदि बच्चों की कविताएँ इस ख़ूबसूरती से लिखी जायेंगी तो खिलोनों से पहले हासिल की जायेंगी और हिन्दी साहित्य को उसके सच्चे पाठक मिलेंगे.
    "बिना जात की
    बिना पात की
    कितनी प्यारी
    ये किलकारी"
    बहुत बहुत बधाई अरुण जी आपको और डॉक्टर साहेब को.

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  6. कविताये बहुत पसन्द आयी .

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  7. मुझे लगा कि मैं फिर एक बच्चा बन गयी ।

    मनभावन।

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  8. bahut sundar... apne bachcho ko sikhaaungi....:)

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  9. Bahut achha laga in choti-choti kavitao se gujarna. Dhanyavad Ajay ji.

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  10. बालमन की कवितायें नहीँ आँखों में चमकता बचपन याद आ गया ।हार्दिक बधाई सृजन के लिये

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