विमल कुमार से बातचीत :
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अभी – अभी २०१४ का विश्व पुस्तक मेला सम्पन्न हुआ है - हिंदी का परिदृश्य कैसा लगा ? कुछ नए रचनाकारों के संकलन आये हैं - इसमें
कच्चे-पक्के सब हैं - क्या हिंदी में प्रकाशन तक पहुँच बढ़ने से रचनाकारों को मंच मिल रहा है ? क्या
यह साहित्य में आम रचनाकारों की आमद है ?
विश्व पुस्तक मेले में इस बार कहानी, कविता और उपन्यास की
कई किताबें आयीं, खासकर नए
लेखकों की. एक दृष्टी से
ये अच्छी बात है कि हिन्दी में रचनाशीलता बढ़ी है. मुझे ८०- ८२ का दौर याद है जब
मंगलेश जी, उदय जी, अरुण कमल, राजेश जोशी, इब्बार रब्बी, असद जैदी,
विष्णु नगर जैसे अनेक लेखकों की किताबें आयी थी. अब ३२ सालों में बहुत सारे नए
लेखकों की किताबें आयीं
हैं. एक तरफ तो प्रकाशक कहते हैं कि
कविता की किताबें नहीं बिकती पर वे हर साल ३० या ३५ किताबें कविता की छापते जरुर
हैं- इनमे कितने अल्पज्ञात कवि भी शामिल हैं. बोधि प्रकाशन ने तो १० रूपए में
कविता की किताबें छापी. उससे पहले परिकल्पना प्रकाशन ने भी पेपर बैक निकाले. विकास
नारायण राय ने भी कुछ पेपर
बैक निकाले हैं, अंतिका और मेधा ने भी.
राजकमल और वाणी भी छाप ही रहें हैं. आधार प्रकाशन ने तो ९२ में
१४ कवियों की किताबें निकाली थीं. ज्ञानपीठ ने भी आप लोगों की पीढी के कवियों का
सेट निकला. इस तरह देखा जाये तो पिछले २० सालों में कम से कम १०० स्थापित
संग्रह कविता के आये होंगे, लेकिन सवाल ये है
कि क्या वे सभी अच्छे संग्रह थे, क्या उनके पीछे
कोई चयन दृष्टि थी. बोधि प्रकाशन से हमे उम्मीद थी की वे अच्छी
किताबें निकालेंगे. शुरू में उन्होंने अच्छी भी निकाली पर बाद में उन्होंने बहुत खराब
किताबें निकाली. यह भी सुनने में आया कि कुछ
लोगों ने पैसे देकर किताबें प्रकाशित करायी हैं. पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है
पर ये किताबें सस्ती थी तो
पाठकों ने खरीदे. बाज़ार के आने के बाद mass उत्पादन का
सिलसिला शुरू हो गया है. इतने स्कूल कॉलेज, इतने अखबार, इतने चैनल, इतनी फ़िल्में
सब जगह तादाद बढ़ी है पर गुणवत्ता प्रभावित हुई है.
यह कहकर मै यह नहीं कहना चाहता कि अतीत में सब अच्छा ही था. बुरी कविता हर दौर में
थी. लेकिन बुरी कविता अधिक छपने से अच्छी कविता दब रही है. इसलिए संपादकों और
प्रकाशकों की जिम्मेदारी बनती
है कि वे अच्छी किताबें छापें. संख्या बढ़ाने से कोई फायदा नहीं, लेकिन पुस्तकालयों में खरीद के कारण बुरी
किताबें अधिक छपती हैं. इस पूरे धंधे में कुछ बड़े लेखक, नौकरशाह और हिन्दी विभाग
के लोग शामिल हैं. इसलिए हिन्दी का बड़ा लेखक कभी उनके खिलाफ नहीं बोलता.
विष्णु खरे ने जरूर आवाज़ उठायी
पर तब जब उनके वाणी से रिश्ते ख़राब हुए पहले तो
वह उन्हें लन्दन भी ले गया.
वाणी ने उनकी कोई किताब फर्जी
प्रकाशन से छाप कर बेच दी. इस से दोनों के रिश्ते बिगड़े.
लेकिन अधिकतर लेखक चुप. नये लेखकों की मजबूरी है, इसलिए वे सबसे पंगा नहीं ले सकते. पर कुछ नये लोगों
ने आवाज़ भी बुलंद की. देवीप्रसाद मिश्र, संजीव, क्षितिज और संजय चतुर्वेदी जैसे लोग तो प्रकाशकों के इर्द-गिर्द चक्कर
नहीं लगाते. लेखिकाओं के साथ भी ये प्रकाशक बदतमीजी से पेश आतें हैं. मुझसे कई
लेखिकाओं ने बताया कि उनकी पांडुलिपियाँ दो-दो साल तक रखने के बाद लौटा दी
गयीं. एक प्रकाशक अपनी पत्रिका में लेखकों से जरूर पूछता है कि उससे उनके रिश्ते
कैसे हैं? तो किसी लेखक ने यह नहीं कहा कि प्रकाशक भी शोषण करतें हैं.
रचना – विचार परिदृश्य
में क्या कुछ मुख्य प्रवृतियाँ काम कर रहीं हैं ? इधर कहानीकारों ने भी ध्यान
खींचा है. कहानीकारों की एक नई पीढ़ी एकदम सामने है.
साहित्य में शुरू से ही दो तरह की प्रवृतियाँ दिखाई देती
रही हैं. तुलसीदास और कबीर इनके प्रतीक हैं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने तो
दूसरी परम्परा में नाथों और सिद्धों के साहित्य के माध्यम से इस परम्परा को देखा है.
आधुनिक हिंदी साहित्य में भी प्रेमचंद और प्रसाद इन दो प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्त्व करतें हैं. प्रेमचंद की ही परम्परा में निराला,
शिवपूजन सहाय, बेनीपुरी,
अमरकांत, भैरवप्रसाद गुप्त, मार्कंडेय, रेणु, नागार्जुन, यशपाल, मुक्तिबोध, भीष्म साहनी, हृदयेश, रमाकांत जी जैसे लोग हैं तो प्रसाद की परम्परा में जैनेन्द्र,
अज्ञेय, भगवती चरण वर्मा, निर्मल वर्मा, रमेशचंद्र शाह, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक
वाजपेयी, कृष्ण बलदेव वैद जैसे लोग हैं. ये बात मै मोटे तौर पर कह रहा हूँ. कहने
का मतलब ये है कि कुछ लेखक शिल्प-भाषा पर अधिक जोर देते रहे कथ्य पर कम. उनमे से
कई प्रकांतर से वाम विरोधी भी
रहे. वाम का अर्थ केवल कम्युनिस्ट पार्टियाँ नहीं हैं. दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो
गंगा जमुनी संस्कृति के पैरोकार रहे, प्रगतिशील
मूल्यों से जुड़े रहे, ग्रामीण चेतना के वाहक रहे, उनके लिए कथ्य अधिक
महत्वपूर्ण रहा. हालाँकि इसमें भी अपवाद हैं. इन धाराओं में भी कई उप धाराएं हैं. आधुनिकता
और राष्ट्रवाद की भी एक धारा इसमें है. लेकिन अंतर्विरोध दोनों धाराओं में खोजे जा सकते हैं. लिहाज़ा हिन्दी में जो लिखा जा रहा उसमे ये प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं.
अशोक वाजपेयी जब अपने मनपसंद कवियों का नाम लेते हैं तो उसमे कुमार
विकल, वेणु गोपाल. अलोक धन्वा, गोरख पाण्डेय
नहीं होते
इब्बार रब्बी, देवीप्रसाद मिश्र,
कुमार अम्बुज, अष्टभुजा शुक्ल भी नहीं होते. लेकिन गगन गिल, उदयन वाजपेयी, तेजी ग्रोवर,
व्योमेश शुक्ल जैसे लोग होते हैं. मेरे कहने का अर्थ यह है कि हिन्दी कहानी- कविता में शिल्प और भाषा की
चमक की अधिक चर्चा है- मसलन उदयप्रकाश की चर्चा अधिक स्वयंप्रकाश की
चर्चा कम. चन्दन पाण्डेय, कुणाल,
मनीषा की चर्चा अधिक पर निलय उपाध्याय,
हरेप्रकाश उपाध्याय या शशिभूषण
द्विवेदी जैसे लोगों की
काम. दो धड़ साफ़ साफ़ दिखाई देता है. हिन्दी में एक तरफ शहरी मध्यवर्ग की कहानियां
हैं तो दूसरी और ग्रामीण परिवेश की कहानिया. एक में नायक रोजी रोटी के लिए संघर्ष
कर रहा है दूसरे में नायक नायिकाएं प्रेम और देह सुख की खोज में हैं, उनके लिए कोई
आर्थिक संकट नहीं है. लेखिकाओं में भी दो वर्ग नजर आ रहा है : एक – -मनीषा, प्रत्यक्षा, जयश्री रॉय, गीता श्री का वर्ग तो दूसरा- अल्पना मिश्र, वंदना राग, कविता , ज्योति चावला आदि का का वर्ग, मैं फ़िलहाल दो तरह की प्रवृत्तियों की बात कर
रहा हूँ मोटे तौर पर एक दूसरे को कमतर नहीं बता रहा. और ये कोई अंतिम राय नहीं,ये दो लक्षण दिखाई दे रहे हैं. गीत चतुर्वेदी और हरेप्रकाश में भी अंतर है, गौरव सोलंकी और उमाशंकर चौधरी में भी अंतर. असल में
जो लेखक जिस सामाजिक आर्थिक और शैक्षिणक पृष्ठ भूमि से आता है, उसका असर रचना
में भी दीखता है. रेणु, नागार्जुन और निर्मल वर्मा की पृष्ठभूमि में
अंतर तो साफ़ है.
कुछ लेखकों की राजनितिक दृष्टि साफ़ नहीं वे सत्ता के इर्द
गिर्द दिखाई देते हैं पर कुछ उसके विरोधी हैं. हिन्दी साहित्य मोटे तौर पर सेक्युलर, व्यस्था विरोधी, बाज़ार विरोधी,
और भ्रष्टाचार का विरोधी रहा है. मुझे कोई लेखक मोदी या अडवानी का समर्थक नज़र
नहीं आता लेकिन मीडिया में काफी समर्थक दिखाई देंगे. हिन्दी के अच्छे लेखक राहुल
गाँधी के भी समर्थक नहीं पर कुछ लोग मोदी की तुलना में उसका साथ दे देंगे. इतना ही
नही केजरीवाल के समर्थक हिन्दी लेखक भी निरंतर उनकी सीमा को समझते हैं. मोटे तौर
पर हिन्दी साहित्य प्रतिरोध का साहित्य है और हिंदी मीडिया से अधिक विवेकवान, दृष्टिवान
तथा प्रतिबद्ध भी.
हिन्दी में काफी नए लेखक २० साल में आये हैं. देवीप्रसाद,
बद्री, कुमार अम्बुज के बाद कविता में २५ नए कवि आये तो कहानी में भी अखिलेश,
हरी भटनागर और राजेंद्र दानी के बाद ३० कहानीकार आये, इसी तरह आलोचना में भी
करीब १५ लोग आये..कुल मिलाकर
करीब ६० लोग सक्रिय हैं. इनमे से अधिकांश की किताबें आ चुकी हैं. उपन्यास भी लिखे
जा रहे हैं. किताबें इतनी तादाद में आ रही हैं कि उन्हें पढना मुश्किल. लेकिन अच्छे
बुरे लेखन की पहचान नहीं हो पा
रही है. ये बाज़ार का युग है. Mass
production काफी हो रहा है. लेकिन कुछ नए पाठक भी आये. आप देखिये कि ५ साल
में करीब १० करोड़ नए मतदाता आ गए. मुल्क में समृद्धि आयी तो गरीबी भी बढी है. हिन्दी
क्षेत्र में मध्यवर्ग का विस्तार भी हुआ पर वो अंगरेजी की तरफ भाग
रहा है..कारपोरेटीकरण भी अधिक हुआ है. नए प्रलोभन भी बढे. उपभोक्ता संस्कृति भी बढी.
काला धन और भ्रष्टाचार भी बढ़ा है, लेकिन हिन्दी साहित्य में उतनी गूंज इसकी नहीं है. लेखन की समझ
का महत्व नहीं रहा. सत्ता और सरकार ने इसे
तरजीह नहीं दी. हमारे देश के नेताओं का लेखकों से रिश्ते नहीं रहे. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री अम्बानी या वर्ल्ड बैंक से रिश्ते रखते हैं. आप देखिये कि
कांग्रेस, बी.जे.पी. या जनता दल यू. या
आर.जे.डी. या बसपा या सपा के लोगों में साहित्य से कोई वास्ता है. जनेश्वर
मिश्र भी इलाहाबाद के लेखकों को जानते थे. सोनिया या मायावती या लालू या
मोदी का कोई रिश्ता अगर साहित्य से होता तो वे इस तरह की राजनीति नहीं करती, कुछ संवेदनशीलता होती, पर उनके रिश्ते ताक़तवर
लोगों से जरूर है. इसलिए आज जो लिख रहा है वो इस समाज से कही न कही परेशान है. इसलिए
हिन्दी में इतने नए लेखक आये हैं तो इसका मतलब समाज के भीतर बेचैनी और खलबली
है..
लेकिन इतने लेखकों के लिए अच्छे संपादक नहीं. रचनाकारों को कोई सही दिशा
देनेवाला नेतृत्व भी नहीं. कुछ नेतृत्व राजेंद्र यादव ने दिया. कुछ
ज्ञानरंजन ने, कुछ कालिया जी ने पर लेखकों को चढ़ाया अधिक, अपनी फौज
बनाई. पहल के पिछले अंक में एक युवा कहानीकार की बहुत ख़राब कहानी छापी. नए
अंक में एक कवयित्री का नाम ही गलत. फिर भी नए लोग आये. ज्ञानपीठ ने
नए लोगों कि किताबें प्रकाशित की लेकिन कहानी कविता में सम्पादन की जरूरत पर ध्यान
नहीं दिया गया. ख़राब रचनाएँ भी खूब छपी. किसी कहानी की शुरुआत कैसे हो, अंत कैसे
हो शीर्षक क्या हो. इन सारे बातों पर विमर्श होना चाहिए. लेखकों में आपसी संवाद कम,
पीढ़ियों के बीच भी संवाद
कम. संस्थान और प्रतिष्ठान अपने हिसाब से चल रहें हैं. मेरे कहने का अर्थ यह नहीं
कि सब कुछ ख़राब ही चल रहा है..कई अच्छे कवि कहानीकार और आलोचक भी सामने आयें
हैं. लेकिन अब उनके संचयन सामने आने चाहिए ताकि पता चले कि इन २५ सालों में क्या श्रेष्ठ
लिखा गया.
आलोचना परिदृश्य पर कुछ बातें - नामवर जी अभी भी सक्रिय हैं
– प्रो. मैनेजर पाण्डेय की पांच किताबे आयी हैं - पिछले साल पुरुषोत्तम जी की कबीर
पर किताब आयी.
आपने नामवर सिंह की सक्रियता की चर्ची की है. ये सही है कि
वे ८५ साल की उम्र में समारोहों में जाते हैं पुस्तकों का लोकार्पण करते हैं, उद्घाटन करते हैं
पर यह भी सच है कि वे बाहुबलियों की किताब का भी लोकार्पण कर देते हैं. किसी अफसर लेखक को बड़ा लेखक बता
देते हैं. वे जितने
प्रतिभाशाली थे उसका भरपूर इस्तेमाल उन्होंने नहीं किया. उनकी दो तीन किताबों का मैं कायल रहा हूँ... दूसरी परम्परा की
खोज को एक उपन्यास की तरह एक बैठकी में पढ़ गया था. उनकी
आलोचना की भाषा को मैं बहुत सुन्दर मानता हूँ पर उन्होंने हमे बहुत निराश भी किया.
वे साहित्य में सत्ता विमर्श के प्रतिनिधि भी बने. उनकी आलोचना की ईमानदारी भी
जाती रही. पर ये भी सच है कि वे नए से नए लेखकों को पढ़ते हैं. उनमे समकालीनता,
परम्परा और प्रगतिशीलता,
समाज विज्ञान और विदेशी साहित्य की समझ का अच्छा तालमेल है. हिन्दी में उनका स्थान
कोई ले नहीं सका. मैनेजर पाण्डेय की नयी किताबें अभी नहीं पढ़ पाया हूँ. पुरुषोतम
अग्रवाल की कबीर पर किताब
पढी है वह नए तरह की पुस्तक है हिन्दी में ..दरअसल वह आलोचना कम विमर्श अधिक है. हिन्दी
में इस तरह की किताबों की जरूरत है. पुरुषोत्तम
जी वक्ता अछे हैं. समाजविज्ञान, साहित्य और राजनीति की समझ दुरुस्त है पर वह सत्ता विमर्श में शामिल अधिक हैं. हिंदी
साहित्य उनसे अधिक उम्मीद रखता है पर वे टीवी की बहसों में अधिक
समय दे रहे हैं. यह भी जरूरी हस्तक्षेप है पर इस से वह आलोचना को नहीं समृद्ध कर पा
रहे हैं.. वीर भारत तलवार और
पुरुषोत्तम जी के लिखे में मेरी दिलचस्पी रही पर जनसत्ता में उनके स्तम्भ
की भाषा से मुझे आपत्ति भी
रही है फिर भी उन्हें बोलते, पढ़ते, लिखते देखना अच्छा लगता है.
हिन्दी में इन दोनों के बाद अच्छे आलोचक नहीं आये. शम्भुनाथ ने व्याहारिक
आलोचना में दिलचस्पी कम दिखाई, विजय कुमार ने कुछ
अच्छे लेख लिखे, उनसे भी उम्मीद थी. सुधीश पचौरी ने शुरू में कुछ अच्छा लिखा पर वह बहक से गए, विश्वविद्यालय मे फंस गए. मनमोहन और
असद जैदी ने विशेष लिखा नहीं. विष्णु
खरे ने भी अपनी प्रतिभा का सही इस्तेमाल नहीं किया. शुरू में कुछ लिखा फिर वह भी विध्वंस में दिलचस्पी लेने लगे. प्रणय कृष्ण संघठन में ही व्यस्त हैं. इस तरह देखिये तो आलोचना का मैदान खाली है. विनोद
तिवारी. आशुतोष, संजीव, वैभव, गोपेश्वर सिंह में भी मेरी रूचि रही पर ये लोग
खुद इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेते. धूमिल के बाद के साहित्य का अभी मूल्यांकन नहीं हुआ. हिन्दी में भारतेंदु, महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला,
प्रसाद, मुक्तिबोध, अज्ञेय, जैनेन्द्र और रेणु, निर्मल वर्मा की ही चर्चा हुई.
कई लेखकों का तो मूल्यांकन ही नहीं हुआ, ,कई की चर्चा भी कायदे से नहीं हुई. असल में आलोचना मेहनत का
काम है. अकादेमी और प्रतिष्ठान की भी आलोचना
में दिलचस्पी नहीं. ४० साल में नामवर जी
के बाद किसी आलोचक को अकेडमी सम्मान भी नहीं
मिला.
हिंदी पत्रकारिता पर क्या
सोचते हैं आप पत्रकार भी हैं, साहित्यकार भी.
पिछले तीस साल से पत्रकारिता में हूँ लेकिन खुद को मैंने
कभी पत्रकार नहीं कहा जबकि रोज ख़बरों के दुनिया में रहा. १५ साल संसद को करीब से देखा.
मेरा पत्रकारिता से मोहभंग पहले ही हो चुका था. मैंने इसे केवल नौकरी के रूप में
लिया. मेरे लिए यह शब्दों की क्लर्की से
अधिक नहीं. क्योंकि पत्रकारिता का पतन संसद के पतन से अधिक हो गया है. इस पेशे में
संवेदनशीलता नहीं रही. अगर आप अनपढ़ है आपका कोई प्रगतिशील नजरिया नहीं है, किसी की
खुशामद कर सकते हैं, बाज़ार के हिसाब से चलतें हैं, तो सफल पत्रकार हैं. सफलता का
मतलब आपके रिश्ते दागी नेताओं से कैसे हैं. मैं कई सालों से पत्रकारों को करीब से
देखा रहा हूँ. बड़ा से बड़ा तथाकथित पत्रकार सत्ता के सामने झुक जाता है. पत्रकारों की ख्वाहिश राज्य सभा में जाने, विदेश यात्रा करने,
किसी समिति का सदस्य बन जाने की होती है. कोई मोदी का भक्त, कोई आडवानी, कोई
सोनिया, राहुल का भक्त, कोई लालू, नितीश तो कोई अमरसिंह, मुलायम या शरद का भक्त है.
जो ईमानदार पत्रकार हैं वे हाशिये पर हैं. राजेंद्र माथुर अंतिम पत्रकार थे जिन्होंने गरिमा बरक़रार रही. राजकिशोर, विष्णु नागर, भारत डोगरा जैसे पत्रकार
कम हैं, जो सत्ता के गलियारे में नहीं घूमते हैं. आज नाम आलोक मेहता जैसे लोगों का है. ओम
थानवी जैसे भी कम संपादक हैं जो बाज़ार को तरजीह नहीं देते. हिन्दी के
पत्रकारों में समाजविज्ञान, इतिहास, साहित्य, कला की जानकारी कम होती है. इस पेशे
में आदमी के पास वक़्त कम रहता है और वो अनपढ़ हो जाता है.
अंगरेजी के पत्रकारों की दृष्टि भारतीय और देशी नहीं, उनकी तनख्वाह अधिक, उनकी
पृष्ठभूमि अलग इसलिए उनकी पढ़ाई अधिक पर उनमे भी
गिरावट है. हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस को छोड़ दें तो सब बेकार हैं.
लेकिन वह भी इलीट अधिक हैं- नयी आर्थिक नीति के पैरोकार अमेरिका परस्त, पॉवर के
पीछे भागनेवाले, मूलतः प्रगतिशीलता के विरोधी, बाज़ार के समर्थक. मेरा मानना है प्रेस की आज़ादी दरअसल मालिकों और संपादकों की
आजादी है. आप देखिए मीडिया अब नेताओं को सम्मानित कर रहा है. पंचसितारा होटल में Cconclave जिसमे बड़े साहित्यकार,
लेखक या समाजविज्ञानी नहीं बल्कि सितारे और नेता बुलाये जाते हैं, क्रिकेट के
खिलाड़ी. इस से बड़ा मानसिक दिवालियापान और
क्या हो सकता है. ८० प्रतिशत पत्रकार कॉन्ट्रैक्ट के हैं. वेतन आयोग तो लागू होता
नहीं. यूनियन नहीं हैं. श्रमकानूनों का उल्लघंन. चराग तले अँधेरा, पर दूर से सब
सुहाना. चैनलों में कब नौकरी से निकल दिए जाएँ- पता नहीं. प्रॉपर्टी डीलर और बिल्डर मालिक हैं. ऐसे में
क्या कहा जाये. कुछ साल और कट जाये ज़िन्दगी के..
जहाँ तक प्रेम का सवाल है, यह बहुत जटिल मामला है. जिस
तरह भारतीय समाज में वर्गीय ढांचा है, खाई
है, जाति-पाति है, कई तरह की असमानतायें
हैं, पूर्वाग्रह हैं, उसमे प्रेम ढूंढना
बहुत मुश्किल है. हिन्दी साहित्य में भी प्रेम की पेचिद्गीयों पर अच्छी चीजें कम
लिखी गयी. प्रेम का महिमाँमंडन खूब हुआ. उसके सिद्धांतों पर भी खूब लिखा गया. उसके
उदात्त रूप और आध्यात्मिक रूप की चर्चा रचनाओं में हुई. पर उसके व्यावहारिक रूप को
कम देखा गया. हिन्दी में शेखर एक जीवनी, चित्रलेखा, गुनाहों का देवता, मुझे
चाँद चाहिए, तीसरी कसम, उसने कहा था जैसी कृतियों की ही मुख्य रूप से चर्चा
होती रही. उसे रूमानियत या आध्यात्मिकता के रूप में या फिर देह के धरातल पर देखा
गया. हम जिस समाज में रह रहें है उसमे इतनी भागदौड़ मची है कि प्रेम खोजना मुश्किल है. बाज़ार और राजनीति ने इसे और चौपट
कर दिया. सत्ता विमर्श से भी प्रेम हर दम प्रभावित रहा है. प्रेम एक मानसिक अवस्था
ही है. यह कोई स्थायी भाव नहीं है. जब जीवन ही क्षणभंगुर है तो यह अमर
कैसे. पर यह भी सच है कि लोग प्रेम खोजते हैं अपने जीवन में. प्रेम एक तरह का passion
है. तन या मन पर अधिकार या निज को लूटना, अपने अहम् से ऊपर
उठाना. प्रेम करना बहुत मुश्किल काम है, कहना आसन है. प्रेम को सफलता या असफलता के रूप
में नहीं देखा जा सकता. विवाह करना या देह पाना उसका अंतिम लक्ष्य नहीं. मै प्रेम
को एक रचनात्मक मानवीय पारदर्शी विनम्र ईमानदार क्रिया के रूप में देखता हूँ. प्रेम
दरअसल जीवन की पुकार है. एक पल में कई पल जीने की ललक. पिछले पांच वर्ष में करीब
२०० सौ से ऊपर प्रेम कवितायेँ लिखी मैंने. समाज के ढांचे के भीतर और मनुष्य के
अहम् के बरअक्स प्रेम का अपमान का भी
सामना करना पड़ता है. मुझे लगता है प्रेम को प्रकट
नहीं किया जाये तो बेहतर है. निराला, शमशेर, अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर,धर्मवीर भारती. केदारनाथ
अग्रवाल, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, प्रयाग शुक्ल उदयप्रकाश से लेकर कुछ कवयित्रियों ने
प्रेम कवितायेँ लिखी हैं. इसी तरह हिंदी की कहानियों में भी इसकी चर्चा हुई है लेकिन
सबके लिए प्रेम के अलग रंग हैं.
नीति और राजनीति
नयी आर्थिक नीतियों के बाद से मुल्क में काफी परिवर्तन हर
हैं. सूचना क्रांति ने भी देश को काफी बदला है. भारतीय समाज अब वह नहीं रहा जो २५
साल पहले हुआ करता था. विधायिका, मीडिया,
न्यायपालिका, कार्यपालिका यहाँ तक कि
साहत्य और कलाओं की दुनिया में भी परिवर्तन हुए हैं, कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ध्वस्त
हुई है. वह अब जनता का खुद दमनकर रहा है. अब केवल राज्य से ही लड़ना नहीं
बल्कि बाज़ार और मीडिया से भी लड़ना हैं क्योंकि झूठ को दिखानेवाला तंत्र और मज़बूत
हुआ है . ये तीनतरफा लडाई है, इसलिए साहित्य में चुनौतियाँ पहले से बड़ी हैं विरोध
करनेवाली शक्तियां एक जुट नहीं हैं. वाम आन्दोलन पहले से कमजोर हुआ है नक्सलवाद तेजी से फैला है. समाज
में लूट -खसोट मची हुई है. विकास की चमक ऊपर है पर समाज भीतर से खोखला हो चुका है, अस्मिता
की राजनीति इस बीच बढ़ी है –पिछड़ों, दलितों में उभार आया पर उनके नेताओं ने अवसरवाद बहुत दिखाया है-
चाहे मायावती हों या पासवान या लालू. दूसरी तरफ हिन्दुत्ववादियों का भी उभार हुआ है
इसके लिए कांग्रेस जिम्मेदार है. उसके कुशासन ने समाज में असंतोष पैदा किया है- इससे
संघ परिवार और बीजेपी ने फायदा उठाया. नरेन्द्र मोदी जैसे लोग अगर प्रधानमंत्री बने तो देश का दुर्भाग्य
होगा.
इस बीच अरविन्द केजरीवाल जैसे लोग सामने आये तो हैं पर उनमे भी
वो परिपक्वता नहीं, एक तरह की हडबडी उनमे दिखाई देती है. बैगलोर में डिनर करना,
गुल पनाग को टिकेट देना ये सब बाज़ार के gimmick हैं जो केजरीवाल अपना रहे. उन्हें तीसरे मोर्चे के साथ होना
चाहिए था, पर यह भी सही कि तीसरा मोर्चा
भीतर से खुद दरका हुआ है. मुलायम, जयललिता की विश्वसनीयता खतरे में है. कुल मिलाकर
हालत बदत्तर हैं. महंगाई, बेरोजगारी भयानक है. किसानों मजदूरों की हालत ख़राब. पूरी दुनिया
में क्रोनी कैपिटलिज्म छाया है. समाज में संवेदनशीलता
इंसानियत की क़द्र कम हुई है, ईमानदार लोगों को बेईमान भ्रष्टों ने पीछे धकेल दिया
है. एक अजीब सी होड़ मची है. कुछ पाने की हासिल करने की. चारो तरफ सत्ता विमर्श दिखाई
दे रहा है. साहित्य में भी रचना पर कम व्यक्ति पर अधिक बातचीत है. सत्य की भूमिका
तो सीमित ही होती है. असली चीज है राजनीति. आज जरूरत है कि भारतीय नागरिक अपनी
जिम्मेदारी और सही राजनीतक दृष्टि का परिचय दे.
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विमल कुमार:(९-१२-१९६०) गंगाढ़ी, बक्सर
तीन कविता संग्रह प्रकाशित- सपने में एक औरत से बातचीत (१९९२), यह मुखौटा किसका है (२००२) और पानी का दुखड़ा(२००९) भारत भूषण अग्रवाल(१९८७), बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान,शरद बिल्लौरे सम्मान ,हिंदी अकादमी सम्मान सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित. रचनाओं के अंग्रेजी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद.
कहानी संग्रह कालगर्ल (२०१०)
एक उपन्यास चाँद @आसमान.काम.प्रकाशित
लेख संग्रह सत्ता समाज और बाज़ार (२००७)
व्यंग्य चोर पुराण (२००७)
पत्रकारिता.फिलहाल, यूनीवार्ता में विशेष संवाददाता/ vimalchorpuran @gmail.com
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विमल कुमार:(९-१२-१९६०) गंगाढ़ी, बक्सर
तीन कविता संग्रह प्रकाशित- सपने में एक औरत से बातचीत (१९९२), यह मुखौटा किसका है (२००२) और पानी का दुखड़ा(२००९) भारत भूषण अग्रवाल(१९८७), बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान,शरद बिल्लौरे सम्मान ,हिंदी अकादमी सम्मान सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित. रचनाओं के अंग्रेजी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद.
कहानी संग्रह कालगर्ल (२०१०)
एक उपन्यास चाँद @आसमान.काम.प्रकाशित
लेख संग्रह सत्ता समाज और बाज़ार (२००७)
व्यंग्य चोर पुराण (२००७)
पत्रकारिता.फिलहाल, यूनीवार्ता में विशेष संवाददाता/ vimalchorpuran
पूरा साक्षात्कार पढ़ा। पूरी सच्चायी और ईमानदारी से बेबाक बात कही है आपने। और आज के साहित्यिक परिदृश्य का खाका एकदम साफ़ साफ़ है। सच्ची बातें सुनकर जानकार अच्छा लगता है।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ब्लॉग-बुलेटिन का बसंती चोला - 800 वीं पोस्ट मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
मैं विमल कुमार से 50 प्रतिशत इत्तेफ़ाक रखता हूं... हिन्दी कविता प्रतिरोध की कविता है... कहानी और उपन्यास में इसके अतिरिक्त बहुत कुछ दिखाई देता है.... शायद इसीलिये कविता पाठकों से कट कर रह गई है..... जबकि किसी ज़माने में कविता दिल से लिखी जाती थी और दिल तक पहुंचती थी... आजकल....
जवाब देंहटाएंबेबाक टिप्पडी
जवाब देंहटाएंकुछ जरूरी कवियों का नाम नहीं लिया .ज्ञानेन्द्रपति जैसेे .बाकी कुछ हीं ठीक
जवाब देंहटाएंविमल ने अपनी इस बतकही में जरूरी सवाल उठाये हैं.उन पर बाजाफ्ता चर्चा होनी चाहिये .विमल दिल्ली में होकर भी दिल्ली के कवि नही है। उनका गोत्र अलग है.इसलिये वे मुझे बह्त पसंद है। उनकी कवितायें..हमे नये आस्वाद से परिचित कराती है। हालाकि वे कम लिखते है .और उससे कम छपते है। वे आज की घुडदौड में शामिल नही है.दिल्ली में किले तो रोज ही फतह होते है। साहित्य और सियासत का वहां अपूर्व संगम है। एक छोटे से शहर में दिल्ली के दिलचश्प खेल देख कर बडा मजा आता है.\ दिली अश्वमेघों का शहर है ।विमल ने इससे आपको अलग रक्खा है ।यह बात हमे तसल्ली देती है ।
जवाब देंहटाएंbadhia sakshaatkaar
जवाब देंहटाएंविमल कुमार जी से बातचीत में उनहोने सभी मुद्दो पर प्रकाश डाला.
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख !
जवाब देंहटाएंAchchi baatcheet
जवाब देंहटाएंaaj vimal ki kavitayen padh ek naye dharatal ka bodh hua. sadhuvad!
जवाब देंहटाएंविमल कुमार विश्लेषक अच्छे हैं।
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