2013 का पुस्तक परिदृश्य
शब्दों
से गपशप और कसौटी पर शब्द
ओम
निश्चल
____________________
हिंदी की दुनिया जितनी बड़ी है, उतना बड़ा हिंदी-लेखन का घेरा नहीं है. तो भी साल भर में तकरीबन हजारों पुस्तकें छपती हैं. कविता,कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, डायरी, रिपोर्ताज,जीवनियों के अलावा हिंदी ने अब सामाजिक आर्थिक क्षेत्र के एक बड़े दायरे में भी प्रवेश किया है. हिंदी पुस्तकों की दुनिया निरंतर बड़ी और वैविध्यपूर्ण हो रही है. अभी अभी जारी ‘शुक्रवार’ की साहित्य वार्षिकी, 2014 में सुपरिचित कवि-समीक्षक डॉ.ओम निश्चल ने साल 2013 के पुस्तक परिदृश्य पर एक लंबा आलेख लिखा है जो समालोचन के पाठकों के लिए प्रस्तुत है.
इसी
आलोक में आइए देखते हैं 2013 का पुस्तक परिदृश्य कैसा रहा ?
परिदृश्य में कविता: अपारे काव्यसंसारे
साल
की पहली बड़ी शुरुआत सुपरिचित कवि ज्ञानेन्द्रपति की स्त्रीविषयक एवं
प्रेम कविताओं के संग्रह' मनु को बनाती मनई' से हुई. एक वक्त 'ट्राम
में एक याद'
जैसी रोमैंटिक मिजाज की कविता से चर्चा में आए ज्ञानेंद्रपति की कविताऍं समय और
समस्याओं की तेज धूप में सँवलाती गयीं. अरसे बाद प्रेम कविताओं की बारिश के दौर
में आया उनका यह संग्रह उन लोगों के लिए राहत की तरह है जो उन्हें ऐसी ही कविताओं
के कवि के रूप में यादों में बसाए हुए हैं. अक्सर स्त्री कविता के अवसादग्रस्त पाठ के मद्देनज़र स्त्री के उत्फुल्ल
भावसंसार को सामने रखते हुए यहां ज्ञानेंद्रपति यह पूछते हैं कि ‘स्त्री पर
लिखी जाने वाली हर कविता का हश्र शोकगीत हो जाना ही क्यों हो जबकि आनंद उसकी आत्मा
की आभा है’ और इसी मुक्त भाव से उन्होंने स्त्री के सख्य, वात्सल्य, ममत्व, स्वत्व और जीवन
के जद्दोजेहद से गुजरती स्त्रियों के वैविध्यपूर्ण जीवन को उकेरने की कोशिश की
है: 'उसके होठ प्रेमिका
के होठ हैं/उसकी छातियां मॉं की छातियां हैं/उसके हाथ मजदूर के हाथ हैं.' इन पंक्तियों में ही मनु को बनाती मनई
का सारांश निहित है. ‘पै अपना रथ हम जोते रहे’ की धुन के धनी अशोक
वाजपेयी का संग्रह 'कहीं कोई दरवाज़ा' भी चर्चा में रहा है. फ्रांस के एक शहर
नान्त के नीरव एकांत और लोआर नदी के सान्निध्य में लिखी गई ये कविताऍं उत्तरजीवन की उत्तरदायी अभिव्यक्ति के रूप में सामने हैं. यहां देह और गेह के आकर्षण बिल्कुल नहीं हैं. बल्कि यहॉं वे एक बुजुर्ग की-सी नसीहत देते हुए दिखते हैं : 'अपने हाथो उठाओ पृथ्वी कि सूख रही नदियों, अकालनग्न होते पर्वतों के बावजूद इसकी वत्सलता कभी चुकने वाली नही है; कि अभी भी यह तुम्हारे गुनाहों को विस्मृति के क्षमादानों में फेंकती जा रही है.'
नान्त के नीरव एकांत और लोआर नदी के सान्निध्य में लिखी गई ये कविताऍं उत्तरजीवन की उत्तरदायी अभिव्यक्ति के रूप में सामने हैं. यहां देह और गेह के आकर्षण बिल्कुल नहीं हैं. बल्कि यहॉं वे एक बुजुर्ग की-सी नसीहत देते हुए दिखते हैं : 'अपने हाथो उठाओ पृथ्वी कि सूख रही नदियों, अकालनग्न होते पर्वतों के बावजूद इसकी वत्सलता कभी चुकने वाली नही है; कि अभी भी यह तुम्हारे गुनाहों को विस्मृति के क्षमादानों में फेंकती जा रही है.'
वर्ष
के मध्य तक आए मंगलेश डबराल व लीलाधर जगूड़ी के कविता संग्रहों ने
भी कविता के माहौल को एक सम्यक् संतुलन दिया है. मंगलेश डबराल का संग्रह 'नए
युग में शत्रु' प्रतीकात्मक रूप से बाज़ार, भूमंडलीकरण और
उदारतावाद की व्याधियों को अपनी संवेदना में व्यापक जगह देता है तथापि कविता में
मंगलेशियत की रंगत पर अपनी सुपरिचित मुहर भी दर्ज करता है. यह अवश्य है कि अवसाद,
नाउमीदी और विफलताओं को अपनी धमनियों में बसाये मंगलेश की सुगठित कविताऍं वैविध्य
का जोखिम मोल नहीं लेतीं. तथापि समय की पीठ पर पड़ते कोड़ों के निशान यहॉं बखूबी
देखे व महसूस किए जा सकते हैं. आज के यथार्थ ने मनुष्य का किस किस तरह आखेट किया
है,
बाज़ार ने मनुष्य की बुनियादी जरूरतों को कैसे उपभोक्तावाद और उत्पाद के टूल्स
में बदल दिया है, मंगलेश की कविताऍं इस समय के मलिन अंत:करण का विक्षुब्ध
निर्वचन हैं.
कविता
लिखने को एक तकनीक की हद तक साधने वाले लीलाधर जगूड़ी जैसे बड़े कवि कभी
कभी पाठकों के धैर्य का इम्तहान लेते हुए दिखते हैं. 'जितने लोग उतने प्रेम'
उनके इसी कौशल का प्रमाण है जिसमें संवेदना का लुब्रीकेशन कम, तार्किकता का घटाटोप
ज्यादा है जब कि भाषा, कथ्य और रीति की किसी भी रीतिबद्धता से अलग हट कर
चलने का कौशल जितना जगूड़ी में है और रहा है, उतना कम कवियों में
देखा जाता है. फिर भी 'प्यार में प्रत्येक प्रश्न अनिवार्य है'
कहने वाले कवि जगूड़ी अपनी ही कविता के बीहड़ प्रदेश में उतरते हुए यह बात भूल
जाते हैं और कविता कहीं न कहीं असाध्यवीणा-सी बनती जाती है. नंदकिशोर आचार्य
कविता की समकालीनता से अलग भाषा का अध्यात्म रचने वाले कवियों में हैं. आचार्य
के संग्रह 'छीलते
हुए अपने को'
देखते हुए कहा जा सकता है कि हालांकि भाषा के अध्यात्म पर कब्जा सदैव अशोक
वाजपेयी का रहा है पर अजाने ढंग से आचार्य ने पिछले कई वर्षों से अपनी आत्मानुभूतियों
को छोटी छोटी कविताओं में इस तरह सिरजा है कि उनके शब्दचित्र महुए के फूल की तरह
झरते प्रतीत होते हैं. हालांकि एक सीमा तक पहुंच कर वे अपना एक प्रोटोटाइप भी
विकसित
कर लेते हैं. कविता में स्त्री संवेदना को मूर्त करने वाली सविता सिंह के संग्रह 'स्वप्न समय' ने कविता के गंभीर पाठकों को वह खुराक दी है जिसकी जरूरत आज के समय में सबसे ज्यादा है. अच्छी बात यह कि स्त्री विमर्श का तेजोदीप्त पाठ यहां मंद है---स्त्री प्रजाति के जीवनानुभव ज्यादा प्रबल हैं. यहां हम पाते हैं कि स्त्री-जीवन के सुनसान में प्रेम की आहट आती भी है तो घाटियों-पठारों पर बजने वाली वीरानियों -जैसी. सविता सिंह की कविताओं का मिजाज़ अवसाद और विषण्ण्ता के धूसर रंग से रंजित है. उनकी कविताओं को पढना आधुनिक मध्यवर्ग की स्त्रियों के अलक्षित संसार से गुज़रना है. ऋतुराज की स्त्री विषयक कविताओं का चयन 'स्त्रीवग्ग' भी स्त्री विमर्श की काव्यात्मक परिणति का एक उल्लेखनीय उदाहरण है. प्रभात त्रिपाठी के संग्रह 'कुछ सच कुछ सपने' को भले ही चर्चा न मिली हो पर उसकी जटिल संवेदना को देखते हुए इस बात से मन क्षुब्ध होता है कि कविता के अंत:करण में उतरने के बजाय आलोचना सबसे पहले उसमें विचारधारा खोजती है.
कर लेते हैं. कविता में स्त्री संवेदना को मूर्त करने वाली सविता सिंह के संग्रह 'स्वप्न समय' ने कविता के गंभीर पाठकों को वह खुराक दी है जिसकी जरूरत आज के समय में सबसे ज्यादा है. अच्छी बात यह कि स्त्री विमर्श का तेजोदीप्त पाठ यहां मंद है---स्त्री प्रजाति के जीवनानुभव ज्यादा प्रबल हैं. यहां हम पाते हैं कि स्त्री-जीवन के सुनसान में प्रेम की आहट आती भी है तो घाटियों-पठारों पर बजने वाली वीरानियों -जैसी. सविता सिंह की कविताओं का मिजाज़ अवसाद और विषण्ण्ता के धूसर रंग से रंजित है. उनकी कविताओं को पढना आधुनिक मध्यवर्ग की स्त्रियों के अलक्षित संसार से गुज़रना है. ऋतुराज की स्त्री विषयक कविताओं का चयन 'स्त्रीवग्ग' भी स्त्री विमर्श की काव्यात्मक परिणति का एक उल्लेखनीय उदाहरण है. प्रभात त्रिपाठी के संग्रह 'कुछ सच कुछ सपने' को भले ही चर्चा न मिली हो पर उसकी जटिल संवेदना को देखते हुए इस बात से मन क्षुब्ध होता है कि कविता के अंत:करण में उतरने के बजाय आलोचना सबसे पहले उसमें विचारधारा खोजती है.
कभी
कभी लीक से अलग कुछ कविता में जुड़ता है तो अच्छा लगता है. अपने सांगीतिक
चिंतन और दार्शनिक अभिवृत्तियों के लिए पहचाने जाने वाले मुकुंद लाठ का
संग्रह 'अनरहनी ही रहने दो' कविता की प्रचलित रूढियों से अलग व कथाकार शेखर
जोशी का संग्रह ‘रुको नहीं शुभा’ अपनी अभिव्यक्ति में कुछ अलग होने से ध्यातव्य
है. मुकुंद लाठ की बेतवा पर एक कविता पढ़ते हुए मैं बैठा हूँ केन किनारे’ के कवि
केदार की याद हो आती है. लाठ कहते हैं: 'फिर अब उसी तेवर / फिर उसी चट्टान बैठा/फिर नदी का ध्यान/
मैं भी बेतवा पर आन/ बैठा हूँ किनारे/नदी का ही ध्यान.' इसी क्रम में कथाकार मार्कण्डेय
का कविता संग्रह 'यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ' इसी साल आया है जिससे
कथाकारों के यहॉं कविता के अलग-से दिखते रसबोध का पता चलता है. अपने वैचारिक
मताग्रहों और समास-5 को दिए लंबे इंटरव्यू में एक खास किस्म का बौद्धिक साहित्य
उपलब्ध कराने के लिए मानवता को अमेरिका और सीआईए का ऋणी बताने से चर्चा में आए कमलेश
का संग्रह 'बसाव'
लगभग उस विवाद की भेंट ही चढ़ गया. यहॉं तक कि 'बसाव' के
बहाने प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष ढंग से कमलेश के कवित्व को प्रागैतिहासिक कह कर
नकारने की कोशिश भी हुई.नरेंद्र गौड़ का तीसरा कविता संग्रह ‘झोले से झांकती
हरी
पत्ती’ भी इस वर्ष का महत्वपूर्ण संग्रह है. नरेंद्र जितने स्थानीय और एकदम भिन्न कवि हिंदी में बहुत नहीं हैं. अब वयस्क हो चलीं किन्तु युवाओं में अधिक लोकप्रिय सुमन केशरी का संग्रह 'मोनालिसा की आंखें' राजधानी में ससमारोह लोकार्पित हुआ तो यह उत्सुकता जागी कि कदाचित यह 'याज्ञवल्क्य से बहस' से आगे जाने वाला संग्रह है. पर इन कविताओं में सुमन ने अपने को अलग तरह से मॉंजा और परिष्कृत किया है. कृष्ण कल्पित की ‘बाग़-ए-बेदिल’ पढ़ते हुए यह संशय होता है कि यह कविता में कटाक्ष है या कटाक्ष में कविता. कुछ जगहों पर पदबंध बेहतरीन ग़ज़लों की शक्ल जरूर अख्तियार करते हैं पर जहॉं उनके निशाने पर कोई व्यक्तिविशेष होता है, उनकी कविता का अंत:करण संकीर्ण हो उठता है. कहने को वह वेशक कहें: ‘मिरे अंदाज़ सब कबीराना’ पर निजी रागद्वेष उन्हें कबीर बनने नहीं देते.
पत्ती’ भी इस वर्ष का महत्वपूर्ण संग्रह है. नरेंद्र जितने स्थानीय और एकदम भिन्न कवि हिंदी में बहुत नहीं हैं. अब वयस्क हो चलीं किन्तु युवाओं में अधिक लोकप्रिय सुमन केशरी का संग्रह 'मोनालिसा की आंखें' राजधानी में ससमारोह लोकार्पित हुआ तो यह उत्सुकता जागी कि कदाचित यह 'याज्ञवल्क्य से बहस' से आगे जाने वाला संग्रह है. पर इन कविताओं में सुमन ने अपने को अलग तरह से मॉंजा और परिष्कृत किया है. कृष्ण कल्पित की ‘बाग़-ए-बेदिल’ पढ़ते हुए यह संशय होता है कि यह कविता में कटाक्ष है या कटाक्ष में कविता. कुछ जगहों पर पदबंध बेहतरीन ग़ज़लों की शक्ल जरूर अख्तियार करते हैं पर जहॉं उनके निशाने पर कोई व्यक्तिविशेष होता है, उनकी कविता का अंत:करण संकीर्ण हो उठता है. कहने को वह वेशक कहें: ‘मिरे अंदाज़ सब कबीराना’ पर निजी रागद्वेष उन्हें कबीर बनने नहीं देते.
.jpg)
'तुम
हो मुझमें' पुष्पिता अवस्थी की प्रेम कविताओं का
विस्तार है जहां लगता है एक स्त्री प्रेम के शीतल एकांत में गुनगुनी धूप का स्वेटर
बुन रही है . युवा कवयित्री सुधा उपाध्याय के संग्रह ‘इसलिए कहूँगी मैं’
के बारे में अजित कुमार ठीक ही कहते हैं कि सुधा की दृष्टि निकट और तत्काल तक
सीमित नहीं है, वह इतिहास और अतीत को भी अपने फलक का हिस्सा बनाती है. अपने कथन,
सहजता तथा लघु आकार के लिए निर्मला तोदी का कविता संग्रह ‘अच्छा लगता है’
पढ़ना भी प्रीतिकर अनुभव है. युवा कवि पीयूष दईया का संग्रह 'चिह्न'
उतना चर्चा नहीं पा सका जिसका कारण उनका मितभाषिता भी हो सकती है जो अपनी गढ़न में
शिरीष ढोबले की याद दिलाती है. इसके अलावा अरुण देव के संग्रह ‘कोई तो जगह हो’ में
पुरुषोत्तम अग्रवाल उनके संयत स्वर तथा संवेदनशील वैचारिकी को महत्वपूर्ण मानते
हैं. अपनी ही तरह की कविता लिखने वाले कैलाश मनहर का संग्रह है ‘ उदास
आंखों में उम्मीद’. साहित्य अकादेमी की नवोदय योजना के अंतर्गत आए राहुल
राजेश के संग्रह 'सिर्फ़ घास नहीं' व मृत्युंजय
प्रभाकर के संग्रह 'जो मेरे भीतर हैं'---में दशाधिक अच्छी
कविताएं हैं; किन्तु इसमें उस ताप-तेजस् का तनिक अभाव दिखता है जो
इसी योजना के अधीन आए कुमार अनुपम के संग्रह 'बारिश मेरा घर है'
में है. तथापि दोनों कवियों में जीवन का राग झिलमिलाता है. उनकी कविता भाषा और
अनुभूति की खिड़कियॉं खुली रखती है. कोलकाता के कवि विमलेश त्रिपाठी का
संग्रह ‘एक
देश और मरे हुए लोग’ भी अभी हाल ही में आया है. युवा कवियों में एक नाम अच्युतानंद
मिश्र का भी आ जुड़ा है जिनका इसी साल छपे संग्रह ‘ऑंख में तिनका’ में
प्रतिकार की भाषा गढ़ने की एक कोशिश दिखती है. यह अच्छी बात है कि युवा कवियों की
कविताओं में किसी नैतिक संदेश का प्रतिकथन गढ़ने की कोशिश तथा भाषाई बंदिशें नहीं
दिखतीं. उनमें पलायन का कारुण्य नहीं,
अस्वीकार की अडिग आस्था है. अपार काव्यसंसार में एक और संग्रह जिसकी कविताऍ अलग
से रेखांकित किये जाने योग्य हैं वह है: पीड़ा, नींद और एक लड़की. कवयित्री
प्रेरणा सारवान कहती हैं, ‘मेरी प्रत्येक कविता जीवन की प्रत्येक सांस का ऋण
चुकाती है.‘ केवल सूत्र सम्मान मिलने से ही नहीं, अपने सहज कथ्य से भी ध्यान
खींचने वाला रेखा चमोली का संग्रह ‘पेड़ बनी स्त्री’ स्त्री- चेतना की
चिन्गारियों से बना बुना है जिसमें स्त्री अपने समय को बखूबी चीन्हती हुई दिखती
है. श्रीकांत पांडेय का संग्रह ‘सांझ की गिरह में धूप’ में भी दशाधिक अच्छी
कविताऍं हैं.
कुछ
और संग्रह जो कविता के परिदृश्य को घना और छायादार बनाते हैं, जिनमें ‘घर के भीतर
घर’ (ब्रज श्रीवास्तव),सूखी हवा की आवाज़(भूपिंदर बराड़), ‘हर
कोशिश है एक बग़ावत’ (राजेंद्र कुमार), ‘ताकि बसंत में खिल सकें फूल’ (कपिलेश
भोज), ‘यहॉं ओज बोलता है’ (शैलेय), एवं ‘असहमति’(हरीशचंद्र पांडेय)
प्रमुख हैं. इस साल आए अन्य संग्रहों में वरिष्ठ कवि माया मृग(जमा हुआ हरापन),
अजेय (इन सपनों को कौन
गाएगा) व फौजदार माली (बुद्ध नहीं हूँ मैं)’सहित
युवा कवियों पद्मजा शर्मा (हारूँगी तो नहीं), वंदना ग्रोवर(मेरे पास
पंख नहीं हैं), मनीषा जैन(रोज़ गूँथती हूँ पहाड़), आख्यान एक नया(शम्भु
यादव), खैर छोड़ो(विश्व दीपक) एवं रजनी भारद्वाज(नेह की बारिशें) के संग्रह भी
चर्चा में हैं.
ग़ज़लें और नज्में अब हिंदी के
कुलगोत्र में शामिल-सी हो गयी लगती हैं . इस साल सुरेंद्र चतुर्वेदी के
ग़ज़ल के दो संग्रह आए तो नज्मों व ग़जलों की प्रमोद शाह नफीस की एक किताब
जुस्तजू नाम से आई है.सुरेंद्र अपने फ़न में कामयाब शायर हैं तो प्रमोद
शाह भी कुछ कम नहीं हैं. नज्में चाहे जैसी हों पर कुछ ग़ज़लें दिल में उतर जाती
हैं. एक यादगार शेर: 'दास्तां जो है
तेरी, है वही कि़स्सा ए
नफी़स/ सच तो यह है कि अलग कोई फ़साना ही नहीं.'
यद्यपि
इस साल कई सामूहिक चयन-संचयन सामने आए हैं,जिनमें काबिले गौर निरंजन श्रोत्रिय-संपादित
‘युवा द्वाद्वश’ व राज्यवर्धन-संपादित ‘स्वर एकादश’ ही हैं, पर इनके पीछे
कोई बड़ी सैद्धांतिकी काम कर रही हो, ऐसा नहीं लगता. छापे की आसानियों ने कविता
संग्रहों के प्रकाशन का रास्ता बहुत आसान कर दिया है. फेसबुक टाइम लाइन,
ब्लॉग और वेब पत्रिकाओं के रास्ते चर्चा में आए अनेक युवा कवियों के संग्रह इधर
देखने को मिल रहे हैं. इस विपुल वसुधा में अब न तो किसी समानधर्मा पाठक की
खोज में वक्त जाया करना है, न किसी एकांत रचना चर्या में गुमशुदा होकर रह जाना है.
जयपुर के एक प्रकाशन गृह ने इस साल लगभग 80 से ज्यादा कविता संग्रह निकालकर इस
मिथक को ध्वस्त कर दिया है कि कविता का कोई बाज़ार नहीं है.---हॉं,
गीतों की दुनिया अवश्य अब जैसे सूनी हो
चली है. सालों गुजर जाते हैं और एक भी प्राणवान गीत संग्रह सामने नहीं आता. संयोग
से इस साल एक वक्त के जाने माने नवगीतकार ओम प्रभाकर(यह जगह धड़कती है) और
बुद्धिनाथ मिश्र(ऋतुराज एक पल का) और अनूप अशेष(इन वसंत मोड़ों पर)के संग्रह कुछ
उल्लेखनीय लगे हैं, यद्यपि इनके यहॉं भी अभिभूत कर देने वाले गीत-नवगीत इने
गिने ही हैं.
कहानी और उपन्यासों की दुनिया
कहानी
और उपन्यासों की दुनिया भी इस साल कम समृद्ध नहीं कही जा सकती.फणीश्वरनाथ
रेणु के
दो अचर्चित उपन्यास अभी हाल ही में आए हैं—‘कितने चौराहे’ और 'पल्टूबाबू
रोड जो अभी तक हिंदी की दुनिया से अलक्षित ही रहे हैं. ‘कितने चौराहे’ में 1942 के
आस-पास का पूर्णिया का परिदृश्य है. इसी तरह इस साल राही मासूम रज़ा के दो
अनूदित उपन्यास ‘क़यामत’ और ‘कारोबारे तमन्ना’ आए हैं जो बेशक राही के कद्दावर
उपन्यासों ‘आधागॉंव’ जैसी हैसियत नहीं रखते फिर भी राही की किस्सागोई पुरलुत्फ
है. कभी शाहिद अख़्तर व आफ़ाक हैदर के नाम से लिखे गए उपन्यास ‘कारोबारे तमन्ना’
की पृष्ठभूमि में वेश्यावृत्ति का ज्वलंत मुद्दा और निचले तबके के मुसलिम समाज
की आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि है तो ‘क़यामत’ में विभाजन की संवेदनशील ज़मीन है
. राजनीतिक वर्चस्व और नरभक्षियों की जुगलबंदी को एक बड़े आख्यान में समेटते हुए
गंगाप्रसाद विमल ने एक पृथुलकाय उपन्यास ‘मानुषखोर’ हिंदी संसार को दिया
है तो अरसे से कहानी में रमे-जमे हीरा लाल नागर का उपन्यास – ‘डेक पर
अंधेरा’ भारतीय सेना की अंदरूनी दुनिया और समकालीन यथार्थ से जोड़ने वाला है. सेना
की ही पृष्ठभूमि पर सैनिकों के जीवन संघर्ष को मधु कांकरिया ने सूखते चिनार
में कुछ कुछ राष्ट्रवादी नज़रिये और निजी भावनाओं से आबद्ध होकर देखा है तो सेना
से जुड़े रहे हीरालाल नागर ने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों को इस समरगाथा में
ख़ूबसूरती से रचा है. गोविंद मिश्र ने अपने नए उपन्यास ‘अरण्य तंत्र’
में ब्यूरोक्रेसी के गतिरोध dksको शब्दबद्ध किया है जिसमें उन्होंने पंचतंत्र की कथाप्रविधि
का अनुकरण करते हुए इंसानों की कथा कहने के लिए पशुचरित्रों को प्रतीक के तौर पर
बरता है. परन्तु इस उपन्यास में वे कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर शिथिल नज़र
आते हैं. धर्मक्षेत्र (राजकुमार राकेश) एवं मुट्ठी में बादल(हरियश
राय)भी इस साल आए पठनीय उपन्यासों में हैं. बटरोही का उपन्यास गर्भगृह
में नैनीताल अरसे बाद आया है. सामाजिक परिवर्तनों के सवालों से भरा कपिल
ईसापुरी का उपन्यास ‘फरिश्ता’ भी चर्चा में है.
मृदुला
गर्ग
का उपन्यास 'मैं और मैं', उषा प्रियंवदा का उपन्यास ‘नदी’,
तथा कुसुम
खेमानी का उपन्यास 'लावण्यदेवी' उपन्यास की महिमा को समृद्ध करने वाले हैं. कवि एकांत श्रीवास्तव ने भी ‘पानी भीतर फूल’ के साथ उपन्यास की दुनिया में पहली बार प्रवेश किया है, गो कि इसका मंथर गद्य प्रवाह इसे निर्बाध किस्सागोई में बदलने में बाधा पैदा करता है. कला और बाजार की जुगलबंदी पर अशोक भौमिक की पकड़ के लोग कायल रहे हैं. उन्होंने इस दुनिया के अलक्षित सत्यों का उदघाटन अपनी कृतियों में किया है. कला और बाज़ार की अंतरंग दुनिया की एक विरल किस्सागोई कला समीक्षक विनोद भारद्वाज ने ‘सेप्पुकु’ में दर्ज की है जिसमें बूढे होते कलाकारों की जिंदगी में आने वाली सुंदर स्त्रियों के फलस्वरूप जीवन की भदेस परिणति व कला बाजार की क्रूरताओं का खुलासा किया गया है. राजनीति के दुर्गम प्रदेश में जाने का साहस स्त्रियॉं कम ही करती हैं. पर रजनी गुप्त ने ‘ये आम रास्ता नहीं’ में राजनीति के नए यथार्थ का अन्वेषण किया है. अन्य पठनीय उपन्यासों में तलघर(ज्ञानप्रकाश विवेक), शब्द भी हत्या करते हैं(हृदयेश), व मिस सैम्युअल: एक यहूदी गाथा(शीला रोहेकर) विशेष चर्चा में रहे हैं. खास तौर पर शीला रोहेकर का उपन्यास अपनी विरल थीम के कारण उल्लेखनीय है. हिंदी उपन्यासों की दुनिया में इस साल आ जुड़े उपन्यासों में जो और चर्चा-योग्य उपन्यास आ जुड़े हैं, उनमें तरन्नुम रियाज़ का ‘बर्फ आशना परिंदे’, जयश्री राय का ‘साथ चलते हुए’, रंजना जायसवाल का ‘....और मेघ बरसते रहे’ प्रमुख हैं. जयश्री राय के उपन्यास को पढ़कर लगता है उन्होंने अपनी भाषा पर इधर खासा रियाज किया है.
खेमानी का उपन्यास 'लावण्यदेवी' उपन्यास की महिमा को समृद्ध करने वाले हैं. कवि एकांत श्रीवास्तव ने भी ‘पानी भीतर फूल’ के साथ उपन्यास की दुनिया में पहली बार प्रवेश किया है, गो कि इसका मंथर गद्य प्रवाह इसे निर्बाध किस्सागोई में बदलने में बाधा पैदा करता है. कला और बाजार की जुगलबंदी पर अशोक भौमिक की पकड़ के लोग कायल रहे हैं. उन्होंने इस दुनिया के अलक्षित सत्यों का उदघाटन अपनी कृतियों में किया है. कला और बाज़ार की अंतरंग दुनिया की एक विरल किस्सागोई कला समीक्षक विनोद भारद्वाज ने ‘सेप्पुकु’ में दर्ज की है जिसमें बूढे होते कलाकारों की जिंदगी में आने वाली सुंदर स्त्रियों के फलस्वरूप जीवन की भदेस परिणति व कला बाजार की क्रूरताओं का खुलासा किया गया है. राजनीति के दुर्गम प्रदेश में जाने का साहस स्त्रियॉं कम ही करती हैं. पर रजनी गुप्त ने ‘ये आम रास्ता नहीं’ में राजनीति के नए यथार्थ का अन्वेषण किया है. अन्य पठनीय उपन्यासों में तलघर(ज्ञानप्रकाश विवेक), शब्द भी हत्या करते हैं(हृदयेश), व मिस सैम्युअल: एक यहूदी गाथा(शीला रोहेकर) विशेष चर्चा में रहे हैं. खास तौर पर शीला रोहेकर का उपन्यास अपनी विरल थीम के कारण उल्लेखनीय है. हिंदी उपन्यासों की दुनिया में इस साल आ जुड़े उपन्यासों में जो और चर्चा-योग्य उपन्यास आ जुड़े हैं, उनमें तरन्नुम रियाज़ का ‘बर्फ आशना परिंदे’, जयश्री राय का ‘साथ चलते हुए’, रंजना जायसवाल का ‘....और मेघ बरसते रहे’ प्रमुख हैं. जयश्री राय के उपन्यास को पढ़कर लगता है उन्होंने अपनी भाषा पर इधर खासा रियाज किया है.
केवल
काव्यों और महाकाव्यों ही नहीं, उपन्यासों के लिए भी हमारे आदिग्रंथ और ऐतिहासिक
प्रसंग उपजीव्य और फलप्रदायक माने जाते हैं. रामकथा बहुतों ने कही है,
नरेंद्र कोहली आज भी अपने उपन्यासों में रामकथा कह रहे हैं---उपन्यासकारों की एक
ऐसी दुनिया है जिसके यहां यह अंतर्धारा प्रवाहित ही रहती है. ऐतिहासिक उपन्यासों
की कड़ी में भी यों तो अनेक उपन्यास लिखे जा चुके हैं, किंतु प्रख्यात चौरीचौरा
कांड पर संभवत: पहला बड़ा उपन्यास ‘जो भुला दिए गए’ आया है, जिसे कवि,
कथाकार व ‘उन्नयन’ के संपादक श्रीप्रकाश मिश्र ने लिखा है. सुधाकर अदीब का उपन्यास ‘शाने
तारीख़’ भी इतिहास की गली से गुजरता हुआ शेरशाह सूरी के जीवन को औपन्यासिक
इतिवृत्त में ढालता है.
हिंदी
कहानी के शिल्प और कथ्य में इधर काफी बदलाव आया है. नए कहानीकारों को बेहतर लेखन
का मंच देने में ‘हंस’ ‘नया ज्ञानोदय’, ‘कथादेश’, 'तद्भव', 'पहल'
व 'लमही'
आदि पत्रिकाओं ने एक बड़ी भूमिका निभाई है, जिसके फलस्वरूप इधर 'केंद्र
में कहानी'
जैसी अवधारणा को बल मिला है. अपनी कहानियों से ख्याति अर्जित करने वाले राजू
शर्मा का नया संग्रह ‘नहर में बहती लाशें’ उनकी कुछ चुनिंदा कहानियों का बेहतरीन
संकलन है, जिससे गुज़रते हुए नेहरूवियन मॉडल के सत्ता तंत्र से मोह भंग का
परिदृश्य उजागर होता है. इसमें अभिव्यक्ति और शिल्प का नुकीलापन है, जिसे नए
कथाकारों—कुणाल सिंह, चंदन पांडेय, विमल चंद्र पांडेय, गीत चतुर्वेदी व अजय
नावरिया ने सहज ही अर्जित किया है. हिंदी कहानी को ये कथाकार एक नई शक्ल दे
रहे हैं. युवा कथाकारों विमल चन्द्र पाण्डेय
(मस्तूलों के इर्द गिर्द ) उमाशंकर
चौधरी (कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां ),व कैलाश वानखेड़े ( सत्यापन ) के कहानी संग्रहों ने इधर विशेष ध्यानाकर्षण किया है. इसके
अलावा 2013 में इतवार नहीं(कुणाल सिंह)व जंक्शन (चंदन पांडेय) भी
ध्यानाकर्षी कहानी संग्रह हैं. अन्य कहानी संग्रहों में सूर्यनाथ सिंह का कहानी संग्रह ‘धधक
धुआं-धुआं',
कुसुम भट्ट का संग्रह ‘खिलता है बुरांश’ हरियश राय का संग्रह वजूद
के लिए व जयनंदन का संग्रह ‘सेराज बैंड-बाजा’ पठनीय संग्रहों में हैं तो ज्योति
कुमारी का औसत कहानी संग्रह ‘दस्तख़त और अन्य कहानियॉं’ केवल अपने नाटकीय
लोकार्पण व योजनाबद्ध तरीके से बेस्ट सेलर घोषित किए जाने के कारण चर्चा में रहा
है. गीताश्री के कहानी संग्रह 'प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियॉं' के चर्चा में होने की वजह यह नहीं कि
किस्सागोई की पारंपरिक संरचना में ये कहानियॉं कोई तोड़फोड़ करती हैं, बल्कि यह कि अब पुरुषों की तरह स्त्रियॉं
भी सेक्स, लिव इन और यौन स्वतंत्रता
को लेकर निर्णायक हुई हैं जिन्हें उसी बोल्डनेस से लेखिका ने परोसने की चेष्टा
भी की है. पर सवाल यह है कि कहॉं हमने शिवमूर्ति जैसे कथाकारों के स्त्री
चरित्रों को देखा है कहॉं गीताश्री के स्त्री चरित्र जिनके सामने स्त्री के स्वत्व
और अस्तित्व की कोई बड़ी लड़ाई न होकर,
बस देह और दुपट्टे की आजादी अहम है. कहानी में इधर उभरी महिला कथाकार वंदना
शुक्ल ने अपने पहले ही संग्रह ‘’उड़ानों के सारांश’’ में बेहतरीन
कहानियां सँजोई हैं. वे इधर की चुनिंदा युवा कथाकारों में हैं जो अपने नैरेटिव को
किस्सागोई की जद से परे नहीं जाने देतीं. रामकुमार तिवारी ने कविता के बाद
‘कुतुब एक्सप्रेस’ के साथ कहानी की ओर रुख किया है.
वरिष्ठ कथाकारों में ओमप्रकाश वाल्मीकि का संग्रह 'छतरी',
सूरज प्रकाश का संग्रह 'मर्द रोते नहीं' और ‘छोटे नवाब बड़े
नवाब’ तथा रमेश
दवे का भी एक कहानी
संग्रह ‘प्रश्नयुग’ इसी साल आया है.
कहानी में एक ऐसी
पीढ़ी भी दाखिल हो रही है जो सोशल मीडिया से सीधे प्रकाशन में उतरी है. इसलिए वह
कहानी के स्थापित अनुशासन से भी नावाकिफ़ है. दिव्य प्रकाश दुबे का टर्म्स
एंड कंडीशन्स अप्लाई और निखिल सचान का नमक स्वादानुसार ऐसे ही
कहानी संग्रह हैं. बिना किसी पत्रिका में छपे और हिंग्लिश के लबो लहजे में लिखी
दिव्यप्रकाश की यह किताब ऑनलाइन पोर्टलों पर 2013 की सर्वाधिक लोकप्रिय और बिकने
वाली किताब रही है. एक बड़ी वेबसाइट 'योरस्टोरी.इन' ने दिव्य
की लोकप्रियता को अंग्रेज़ी में चेतन भगत के फिनोमिना से जोड़ा है. नमक स्वादानुसार
का लेखक भी आईआईएम के परिसर से निकला कथाकार है, जहाँ हिंदी में लिखना और बोलना वर्जित माना जाता है. फिर भी आम
बोलचाल शैली में लिखी कहानियों की इस किताब को इंटरनेट के हिंदी पाठकों का शानदार
रिस्पांस मिला है. हैरत की बात यह कि इससे पहले निखिल की भी कोई कहानी किसी भी पत्र-पत्रिका में नहीं छपी है. केवल
नमक ही नहीं, इसकी भाषा भी आज की पीढ़ी के स्वादानुसार है.
आलोचना : समय के सम्मुख
लेखकों
को अपने समय की आलोचना से सदैव शिकायत होती है. इसलिए जहॉं रचना भी अपने कार्यभार
से विरत दिखती है, आलोचना भी अपने समय को पीठ दिखाती हुई दिखती है. परन्तु
जाते जाते हर साल ऐसा कुछ दे जाता है कि वह आगामी समय के लिये यादगार बन जाता है.
इस साल नामवर सिंह की प्रांरभिक रचनाएं एक जिल्द में आईं जिन्हें
देख कर लगा अपने प्रांरभिक दिनों में भी उनकी तैयारी कितनी संजीदा हुआ करती थी.
दूसरे नामवर सिंह की आलोचना शोभाधायक गद्य की तरह जड़ाऊ नहीं,
वह पढने में एक अलग रस का आभास कराती है. यद्यपि इसमें नामवर सिंह की कविताएं व गीत भी समाहित हैं, पर बकलम खुद के दौर की लिखी कुछ
रम्य रचनाओं व आलोचनात्मक निबंधों में उनके गद्य का तेवर अनूठा है और इसी तेवर
ने नामवर सिंह को एक सधे हुए आलोचक के रूप में गढ़ा है.
इसी
साल आया कुंवर नारायण का गद्य संग्रह शब्द और देशकाल सदैव की भॉंति
उनके संयत साहित्यिक चिंतन और विवेचन का प्रमाण है. वे कम लिखते हैं किन्तु
मूलत:कवि होते हुए भी अपने विचारों से ऐसे सूत्र उद्घाटित करते हैं जो आलोचना
को भी नई दिशा देते हैं. दूधनाथ सिंह
ने इस साल मुक्तिबोध: साहित्य में नई प्रवृत्तियॉं का लेखन किया तो भारत
यायावर ने आलोचना की दो ध्यातव्य पुस्तकें हिंदी संसार को दीं. रेणु का है
अंदाजेबयॉं और व नामवर सिंह का आलोचना कर्म. काशीनाथ सिंह अपने पुराने-नए
निबंधों के साथ ‘लेखक की छेड़छाड़’ में सामने आए हैं जो आलोचना ही रचना है
का ही संवर्धित संस्करण है तो रमेश कुंतल मेघ 'हमारा लक्ष्य: लाने हैं
लीलाकमल'
में अपनी उसी द्युति और टेक पर टिके दिखते हैं जैसे वे 'अथातो सौंदर्य जिज्ञासा'
में दिखा करते रहे हैं. 'समय के रंग' में वरिष्ठ कवि मलय की आलोचना और
लेखकीय विवेक का परिचय मिलता है. यहॉं उन्होंने
मुक्तिबोध और अपने कुछ समकालीनों पर सहृदयता के साथ लिखा है.
कबीर
के जरिए वाद-प्रतिवाद उठाने में अग्रणी धर्मवीर की कृति कबीर:खसम खुशी
क्यों होय फिर एक बार सुर्खियों में रहने वाली है. साहित्य और समाजशास्त्र
के रिश्तों की पड़ताल करने वाले आलोचक मैनेजर पांडेय की कई कृतियां इस साल
आई हैं: हिंदी
कविता का अतीत और वर्तमान, आलोचना के सहमति-असहमति, भारतीय लेखन में प्रतिरोध की परंपरा, उपन्यास और लोकतंत्र तथा संवाद और परिसंवाद. रमण सिन्हा ने शमशेर के संसार में सलीके से प्रवेश किया है. अनंत विजय ने विधाओं का विन्यास में अंग्रेजी आत्मकथाओं व उपन्यासों की रोचक पड़ताल की है. युवा आलोचक अजय वर्मा की कृति ‘हिंदी आलोचना का स्वत्व’ भी ध्यातव्य पुस्तकों में है. आलोचक शंभुनाथ की किताब ‘भारतीय अस्मिता और हिंदी’ पढ कर हिंदी के अलक्षित गौरव को देखकर आश्वस्ति होती है. संतोष भदौरिया-संपादित ‘गद्य की पगडंडियॉं’ में केदारनाथ अग्रवाल के गद्य, पत्राचार,तथा कहानी व उपन्यास आदि पर जाने माने समालोचकों के निबंध संग्रहीत हैं जो केदार के गद्य को समझने का एक निष्ठावान प्रयास है. ध्रुव शुक्ल ने ‘जनता की आलोचना’ में सामाजिक सवालों पर बहस के साथ सामने आए हैं. श्रीराम त्रिपाठी ने प्रेमचंद:एक तलाश में प्रेमचंद को नए आलोक में देखने की चेष्टा की है. श्रीचंद्र ने आरसीप्रसाद सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर मोनोग्राफ लिख कर लगभग अलक्षित कवि के साथ न्याय किया है.
कविता का अतीत और वर्तमान, आलोचना के सहमति-असहमति, भारतीय लेखन में प्रतिरोध की परंपरा, उपन्यास और लोकतंत्र तथा संवाद और परिसंवाद. रमण सिन्हा ने शमशेर के संसार में सलीके से प्रवेश किया है. अनंत विजय ने विधाओं का विन्यास में अंग्रेजी आत्मकथाओं व उपन्यासों की रोचक पड़ताल की है. युवा आलोचक अजय वर्मा की कृति ‘हिंदी आलोचना का स्वत्व’ भी ध्यातव्य पुस्तकों में है. आलोचक शंभुनाथ की किताब ‘भारतीय अस्मिता और हिंदी’ पढ कर हिंदी के अलक्षित गौरव को देखकर आश्वस्ति होती है. संतोष भदौरिया-संपादित ‘गद्य की पगडंडियॉं’ में केदारनाथ अग्रवाल के गद्य, पत्राचार,तथा कहानी व उपन्यास आदि पर जाने माने समालोचकों के निबंध संग्रहीत हैं जो केदार के गद्य को समझने का एक निष्ठावान प्रयास है. ध्रुव शुक्ल ने ‘जनता की आलोचना’ में सामाजिक सवालों पर बहस के साथ सामने आए हैं. श्रीराम त्रिपाठी ने प्रेमचंद:एक तलाश में प्रेमचंद को नए आलोक में देखने की चेष्टा की है. श्रीचंद्र ने आरसीप्रसाद सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर मोनोग्राफ लिख कर लगभग अलक्षित कवि के साथ न्याय किया है.
कथा
आलोचना का पलड़ा इस बार काव्यालोचन से भारी रहा है. कथालोचन के क्षेत्र में कहानी
का उत्तर समय(पुष्पपाल सिंह)कहानी : वस्तु,
अंतर्वस्तु, कहानी का उत्तर समय(शंभु गुप्त), केंद्र
में कहानी(राकेश बिहारी), नई कहानी की संरचना(हेमलता) व हिंदी
कथा साहित्य: एक दृष्टि,(सत्यकेतु सांकृत) आदि कृतियॉं प्रमुखता से ध्यान
में आती हैं. वरिष्ठ कथाकार मार्कंडेय की पुस्तक हिंदी कहानी: यथार्थवादी
नज़रिया' भी कहानी की गिरह को खोलने का काम करती है. ललित निबंध एक बीती हुई विधा बनती जा रही है
तथापि इस पर वेदवती राठी का एक विशद अध्ययन 'हिंदी
ललित निबंध: स्वरूप विवेचन' सामने आया है. हिंदी उपन्यासों पर मधुरेश की
पुस्तक ‘समय समाज और उपन्यास’ उनके हाल के लेखन का सारांश है.
हमेशा
की तरह केंद्र में रहने वाली काव्यालोचना की गति इस साल कुछ मंद दिखती है. इस
क्षेत्र में बड़े आलोचकों में केवल नंद किशोर नवल और मैनेजर पांडेय
सक्रिय हैं किंतु उनका काम भी नए लेखन पर कम, पुराने और जमे हुए लेखों पर ज्यादा
है. कभी कभार ही सही साहित्य, संस्कृति, कला व संगीत पर केंद्रीभूत लेखन के लिए
पहचाने जाने वाले अशोक वाजपेयी की आलोचनात्मक टिप्पणियों का संग्रह पुनर्भव
एक लेखक के रुप में उनके कला-संगीत-संस्कृति संबधी समावेशी चिंतन की पुष्टि तो करता
है पर कविता पर एक लंबे अरसे से उनका लिखना स्थगित-सा है. तथापि वैभव सिंह,
पंकज पराशर और पंकज चतुर्वेदी जैसे
लेखकों की आई आलोचनात्मक कृतियों ने आलोचना के परिदृश्य को बहसतलब बनाए रखा है. किंतु
जैसा कि मैंने कहा है—आलोचना में फुटकर लेखन का समूहन एवं समन्वयन ज्यादा प्रबल
दिखता है. किसी एक विषय, प्रवृत्ति या लेखक पर एकाग्र कार्य विरल ही नज़र आते हैं.
इस दृष्टि से वैभव सिंह (शताब्दी का प्रतिपक्ष) पंकज पराशर(पुनर्वाचन)और पंकज
चतुर्वेदी( निराशा में भी सामर्थ्य) अपने कथ्य एवं जिरह के साथ मजबूती से खड़े
दीखते हैं. शताब्दी का प्रतिपक्ष में आलोचना की ऊबाऊ एकरसता, सुदीर्घ वक्तव्यों तथा जड़ीभूत भाषा से
अलग एक वाचिक अदायगी यहॉं दिखती है. भारी भरकम पदावलियों को दूर से ही नमस्कार
करते हुए वैभव सिंह ने आज के रचनात्मक परिदृश्य को प्रभावित करने वाले कुछ ही
लेखकों के बलबूते शताब्दी की उन आवाज़ों का जायज़ा लिया है जो कथ्य, शिल्प और वैचारिक दृष्टि के मोर्चे पर
प्रतिपक्ष की नुमाइंदगी करती हैं. वे 'इतिहास
और राष्ट्रवाद' तथा 'भारतीय उपन्यास और आधुनिकता' के बाद इधर जिस आलोचनात्मक उद्यम के साथ
सामने आए हैं वह उनकी व्यावहारिक आलोचना में गहराती पैठ का परिचायक है. प्रमुखत: कहानी व उपन्यासों के आलोचक वैभव सिंह के पास
कविता को भी बारीकी से पढने का कौशल है जिसका परिचय वे अपनी आलोचना में देते दीख
पड़ते हैं. पुनर्वाचन में हिंदी
कहानी को लेकर पंकज पराशर की तैयारियॉं बताती हैं कि आलोचना को लेकर उनकी चिंताएं गंभीर हैं और
वे ऐसी कोई वजह नहीं देखते जिसके कारण आलोचना को समझौते एवं स्तवन के लिए विनीत
मुद्रा अपनानी पड़े. ज्योतिष जोशी की ‘आलोचना का समय’ उनके हाल के लिखे
कुछ निबंधों का चयनमात्र है. जितेंद्र श्रीवास्तव की पुस्तक ‘विचारधारा,
नए विमर्श और समकालीन कविता’ भी युवा कवियों के साथ न्याय करती दीख पड़ती है.
विदेशी कविता के विशेषज्ञ विजय कुमार की किताब ‘खिडकी के पास कवि’ ने फिर
हिंदी हल्के में एक बार जबर्दस्त चर्चा अर्जित की है. ‘कविता का कैनवस’ के साथ आलोचना
में एक नया नाम पीयूष मिश्र का भी जुड़ गया है.
कथेतर गद्य
हाल
के वर्षों में आत्मकथाओं, संस्मरणों यात्रा वृत्तांतों और डायरी लेखन की धूम
रही है.
इन विधाओं की तमाम कृतियां इस बीच हिंदी में अनूदित भी हुई हैं. तथापि अच्छी आत्मकथाओं, यात्रावृत्तांतों व डायरी का अभाव आज भी हिंदी में विद्यमान है. ऐसा इसलिए कि हिंदी लेखकों का न वैसा वैविध्यपूर्ण जीवनानुभव है न वैसा पठन पाठन. एक निश्चित दायरे में हिंदी वाले आवाजाही करने के अभ्यस्त रहे हैं. इससे न उनकी आत्मकथा अछूती है न उनकी डायरियॉं. लिहाजा, जैसी आत्मकथा पिछले दिनों तुलसी राम ने लिखी, या कभी ओम प्रकाश वाल्मीकि ने, वैसी आत्मकथा हिंदी में विरल ही है.
इन विधाओं की तमाम कृतियां इस बीच हिंदी में अनूदित भी हुई हैं. तथापि अच्छी आत्मकथाओं, यात्रावृत्तांतों व डायरी का अभाव आज भी हिंदी में विद्यमान है. ऐसा इसलिए कि हिंदी लेखकों का न वैसा वैविध्यपूर्ण जीवनानुभव है न वैसा पठन पाठन. एक निश्चित दायरे में हिंदी वाले आवाजाही करने के अभ्यस्त रहे हैं. इससे न उनकी आत्मकथा अछूती है न उनकी डायरियॉं. लिहाजा, जैसी आत्मकथा पिछले दिनों तुलसी राम ने लिखी, या कभी ओम प्रकाश वाल्मीकि ने, वैसी आत्मकथा हिंदी में विरल ही है.
सौभाग्य
से इस साल यात्रावृत्तांत की कोटि में आई पुरुषोत्तम अग्रवाल की
कृति ‘हिंदी सराय: अस्त्राखान वाया येरेवान’—ध्यानाकर्षी रही है. यद्यपि वे कवि
नहीं है तो उनका गद्य भी काव्यात्मक नहीं है तथापि अनेक जगहों पर वे काव्यात्मक
भी हुए हैं. अपनी संक्षिप्त यात्रा को उन्होंने इतिहास के पन्नों में दबे एक
ऐसे यथार्थ के उत्खनन में बदल दिया है जिससे हिंदी की व्यापक व्यापारिक दुनिया
के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र हमें हासिल होते हैं. यायावरी का यह बौद्धिक वृत्तांत
इतिहासकारों के लिए चाहे जो मायने रखे,
रूस में कभी अस्तित्व में रहे हिंदी सराय के जरिए भारतीय व्यापारियों के जीवन व
रहन-सहन को समझने की यह धुन हिंदी को उस विरल यायावरी से संपन्न करती है जिसका
अभाव आज भी हिंदी में सबसे ज्यादा महसूस किया जाता है.
देवेंद्र
मेवाड़ी ने ‘मेरी यादों का पहाड़’ लिख कर पहाड़ के जन जीवन इस तरह रचा
है कि पाठक की भी एक मनोयात्रा जैसे संपन्न हो जाती है. विष्ण्ुा चंद्र
शर्मा ने ‘मन का देश, सब कुछ हुआ विदेश’ में फ्रांस, अमेरिका,
मेक्सिको, जर्मनी व स्काटलैंड आदि के वृत्तांत संजोए हैं. पंकज विष्ट
का ‘खरामा खरामा’ और असगर वजाहत का वृत्तांत ‘पाकिस्तान का मतलब क्या’,
उनकी पूर्व कृति ‘साथ चलते तो अच्छा था’ की तरह ही पठनीय है. फूलचंद
मानव का यात्रावृत्तांत ‘मोहाली से मेलबर्न’ और रविशंकर पांडेय का
यात्रा वृत्तांत ‘आह अमेरिका, वाह अमेरिका’ भी पुरलुत्फ अंदाज में लिखा गया है.
देसी यात्राओं का सुख प्रताप सहगल के वृत्तांत ‘हर बार मुसाफिर होता हूँ’
में भी उठाया जा सकता है.
डायरियों
में सबसे उम्दा कुंवर नारायण जी की डायरी है: दिशाओं का खुला आकाश. कहना न
होगा कि हिंदी में डायरी
लेखन के सन्नाटे को कुंवर नारायण 'दिशाओं
का खुला आकाश' में तोड़ते हैं. हर समय लेखकों के सिरहाने रखी जाने वाली पुस्तक जिसमें
कवि का एक प्रशस्त अध्ययन बोलता है. यह कहना उनकी विनम्रता ही है कि ‘तमाम
तरहों से कम होता जा रहा हूँ दिन ब दिन. मेरी कमियों को दरगुजर करना मेरे आसपास
वालो. उसे स्वीकार करना, जो मैं अभी भी बचा
हूँ---ज़रा-सा कवि, ज़रा-सा मनुष्य.‘
कोई बेस्टसेलर सफलता का फौरी फार्मूला तो दे सकती है, ऐसा चिरंतन चिंतन नहीं जो दशकों के
जीवनानुभवों से संभव होता है.
जाबिर
हुसैन की डायरी ‘जि़ंदा होने का सुबूत’ भी पठनीय डायरियों में है. आज
और अभी रमेशचंद शाह की बौद्धिक डायरी है जिसमें उनका समालोचक विवेक ओझल नहीं
होता. वैसे कई वर्ष पूर्व विष्णु नागर का लेख-निबंध संग्रह इसी शीर्षक से छपा था,
इसे शायद शाह भूल गए. यशवंत सिंह की जेल डायरी 'जानेमन
जेल' एक बेहद दिलचस्प किताब है.
हिंदी में जेल-जीवन का इतना जीवंत,
सरस और
सकारात्मक वर्णन शायद ही कहीं उपलबध हो. बिहार के एक गाँव 'तरियानी छपरा' को केंद्र में रखकर लिखी गई राकेश
कुमार सिंह की किताब ‘बम संकर टन गनेस’ भी एक ऐसा ग्राम्यवृत्त
है जिसमें राकेश ने अपने गाँव का सजीव चित्र खींचा है जो शोषण, भेदभाव, अभाव और
पिछड़ेपन के नरक से जूझते हुए भविष्य की राह तय कर रहा है. इस ग्राम्यवृत्त की
खासियत यह कि इसमें कई विधाऍं एक साथ सिमट आई हैं. पत्र संवाद के अंतर्गत रमेशचंद्र
शाह व नंदकिशोर आचार्य के साथ अज्ञेय के पत्राचार पठनीय हैं. विश्वनाथप्रसाद
तिवारी-संपादित अज्ञेय पत्रावली हमारे लिए एक धरोहर है जिसे पढते हुए
साफ लगता है कि जिस पर व्यक्तिवादी होने के इतने आरोप लगते रहे हैं, उसकी निजता का घेरा कितना बड़ा था. कुमार
अम्बुज के निबंधों का संग्रह क्षीण संभावनाओं की कौंध उनके दृढ़ वैचारिक सोच का
पर्याय है.
आत्मकथा
फैशन के वशीभूत होकर नहीं, आपद्धर्म के तौर पर लिखी जाती है--- इस अपरिहार्य बोध
के साथ कि ऐसा आखिर क्या है, जिसे लिखे बिना नहीं रहा जा सकता और जिसमें आपबीती
के साथ जगबीती भी दर्ज हो. कभी ज्ञानपीठ से अप्पा कोरबे की आत्मकथा मी तो
ठहरा हम्माल हिंदी में आई थी जो अपनी लघुता में भी मनुष्य की विराटता को
संबोधित थी. इधर एक निम्न तबके के मुसलिम परिवार की सदस्या आशा आपराद की
आत्मकथा ‘दर्द जो सहा मैंने’ मराठी से अनूदित होकर प्रकाशित हुई है, जिसके ब्यौरे
यूँ तो किसी भी सताई हुई स्त्री के आत्म वृत्तांत में मिल सकते हैं पर एक कट्टरपंथी
धार्मिक व्यवस्था में स्त्री की आज़ादी किस कदर जकड़बंदियों में रहती है, आशा
इस तंत्र को आत्मकथा में मार्मिकता से उद्घाटित करती हैं. ज़ोहरा सहगल की
आत्मकथा ‘करीब से’ ने भी इस साल विशेष चर्चा पाई है. उर्दू शायरी के मकबूल शायर मुनव्वर
राणा के तीन संस्मरण—‘ढलान से उतरते हुए’, ‘बग़ैर नक्शे का मकान’ व ‘फुन्नक
ताल’ शीर्षक से आए हैं जहॉं एक शायर का संवेदी गद्य पढ़ा जा सकता है. शैलेंद्र
सागर ने भी ‘फिर मुझे राहगुज़र याद आया’ में अपने दौर को खंगाला है. राजी
सेठ के संस्मरण ‘जहॉं से उजास’ में भाषा का मद्धिम संगीत सुन पड़ता है.
नरेन्द्र मोहन की आत्मकथा ‘कमबख्त निंदर’ को एक किस्सागोई की तरह पढ़ा जा
सकता है. कथाकार बलराम
ने इरादतन 'माफ करना यार' से आत्मकथा सीरीज़ लिखने की जरूर ठानी
थी, पर ‘धीमी धीमी
आंच’ तक आकर आत्मकथा की आंच मंद पड़ती गई और चर्चा व सोहबतों के ब्यौरे ही
ज्यादा सघन होते गए हैं. कमर मेवाड़ी ने ‘मैं और मेरी यादें’ में
समकालीनों की यादों को समाहित किया है. अपनी कहानियों में ब्यौरों को सघनता से
बांधने वाले विमल चंद्र पांडेय के संस्मरण ‘ई इलाहाब्बाद है भय्या’ का
भाषाई लहजा उनकी कहानियों की तरह ही मजेदार है.
बातों
मुलाकातों की यों तो अनेक पुस्तकें आती ही रहती हैं—‘मेरे साक्षात्कार’
की लोकप्रिय सीरीज में इस बार चंद्रकांत देवताले व शिवमूर्ति जुड़े
हैं तो ‘अकथ’ में मनीष पुष्कले ने अशोक वाजपेयी से बातचीत की है और प्रेम
कुमार ने ‘बातों-मुलाकातों में’ शहरयार से. ‘गपोड़ी से गपशप’ में काशीनाथ
सिंह से की गयी वार्ताऍं हैं. राजी सेठ के साक्षात्कारों की किताब ‘पगडंडियों पर पॉंव’ भी बातचीत की
अच्छी पुस्तकों में गिनी जाएगी. किन्तु ’पूछो
परसाई से’ का जवाब नहीं, जहॉं हरिशंकर परसाई लेखकों से नहीं, पाठकों से
मुखातिब होते हैं और उत्तर देने वाले परसाई हों तो उनकी हाजिरजवाबी का कहना ही क्या ?
स्त्री
विमर्श और दलित विमर्श का दायरा उत्तरोत्तर बढ़ रहा है. स्त्री उत्पीड़न
के बढ़ते मामलों ने स्त्री विमर्श की प्रक्रिया तीव्र की है. ‘नारी : अस्तित्व
की पहचान’, ‘स्त्री चिंतन की चुनौतिया’, व ‘अबलाओं का इंसाफ’ में स्त्री चिंतन
को नया आयाम मिला है. संयोग से राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ के अपने अंतिम संपादकीय को
स्त्री विमर्श की जिस अकिंचन कृति को समर्पित किया है वह है स्फुरना देवी
की आत्मकथा: ‘अबलाओं का इंसाफ’. एक लंबी, गहरी और विचलित करने वाली भूमिका
के साथ वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इस आत्मकथा से गुजरना साक्षात् नरक से
गुज़रना है. उन्होंने हिंदी की पहली स्त्री कथा ‘सीमंतनी उपदेश’ के बाद स्फुरना
देवी की इस आत्मकथा को स्त्री के दारुण जीवन की महागाथा कहा है. ‘स्त्री संघर्ष के
सौ वर्ष’ में कुसुम त्रिपाठी का शोधश्रम झलकता है. इसी तरह
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कृति ‘दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष और यथार्थ’
दलित विमर्श की सकारात्मक सोच को आगे बढ़ाती है. किन्तु इस दिशा में एक बड़ा काम
मोहनदास नैमिशराय ने किया है चार खंडों में ‘भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास’
लिखकर जो दूर तक दलित विमर्श को रोशनी देता रहेगा. स्त्री विमर्श की दुनिया में
एक नया हस्तक्षेप शिक्षाविद् कृष्ण कुमार की नई पुस्तक ‘चूड़ी बाज़ार
में लड़की’ है जो शिक्षा और संस्कृति के विशेष परिप्रेक्ष्य में स्त्री की जगह,
प्रकृति और भूमिका की पड़ताल करती है.
हिंदी
नाटकों की विपन्नता की चर्चा बेशक की जाती रही हो किंतु हिंदी रंगमंच
अपनी तरह से अनुवाद और अडॉप्शन के ज़रिये रंग गतिविधियों में सदैव सक्रिय रहता
आया है. इस साल की एक अच्छी बात यह है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन आक्रोश को एक
सशक्त अभिव्यक्ति में बदलती मन्नू भंडारी की नाट्य कृति ‘उजली नगरी
चतुर राजा’ अपने गठन और अदायगी में भारतेंदु हरिश्चंद्र के वर्षों पूर्व लिखे
‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ की याद दिलाती है.दूसरा बड़ा काम नाटक के क्षेत्र में
प्रख्यात नाटककार सुरेंद्र वर्मा ने किया है : ‘मुगल महाभारत : नाट्य
चतुष्ट्य’ लिखकर. चार भागों में फैली यह नाट्य कृति मुगल सल्तनत की भीतरी
तहों में जाकर एक बड़े ऐतिहासिक समय को हमारे सामने प्रत्यक्ष करती है जो इतिहास
के पन्नों से ज्यादा लेखकीय कल्पना के वितान में प्रतिबिंबित होता है.
व्यंग्य हालांकि
सदैव साहित्य की एक हल्की-फुल्की विधा मानी जाती रही है, फिर भी इसके बिना
पत्र-पत्रिकाओं का काम नहीं चलता. व्यंग्य विधा की नई पुस्तकों में ‘ईश्वर भी
परेशान है’ (विष्णु नागर) ‘बिहार पर मत हँसो’ (गौतम सान्याल), ‘सम्मान फिक्सिंग’
(गिरीश पंकज), ‘परम श्रद्धेय मैं ख़ुद’ (अनुज खरे), ‘सपने में आए तीन परिवार’
(नरेंद्र कोहली), नेताजी का डीएनए(विजय कुमार) व ‘छवि सुधारो कार्यक्रम’ (मंगत
बादल)आदि प्रमुख हैं. व्यंग्य में एक उल्लेखनीय नाम यज्ञ शर्मा का भी है जिनका ‘डेमोक्रेसी
के भगवान’ संग्रह भी इसी साल आया है. कभी परसाई,
शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल और आज ज्ञान चतुर्वेदी के कारण शिखर पर परिगणित की जाने
वाली यह विधा आज पत्र-पत्रिकाओं में मौजूद अवश्य है पर काव्य मंचों और चैनलों पर
परोसे जाने वाले हास्य-व्यंग्य ने व्यंग्यकारों को चुटकुले लिखने पर विवश कर
दिया है जहॉं व्यंग्यकारों की थैलियां भले ही भरी दिखती हों, व्यंग्य विधा का
मैदान खाली दिखता है .
साहित्येतर संसार
कविता
-कहानी- उपन्यास के सीमित परिसर में रहने वाली हिंदी ने समाज,
संस्कृति,
मीडिया,
पत्रकारिता, विश्लेषण, वेब प्रबंधन और
प्रौद्योगिकी के नए क्षेत्रों में प्रवेश किया है. अंग्रेजी की दुनिया में ऐसी तमाम
पुस्तकें लिखी जा रही हैं जिनमें भाषा के व्यावसायिक इस्तेमाल से जुड़े लोगों
को इसके कामकाजी परिप्रेक्ष्य की जानकारी मिल सके. हिंदी लेखन भी इससे सकारात्मक
रूप से प्रभावित हुआ है.
भाषा
और प्रौद्येागिकी के नए आयामों को लेकर सेमिनारों-संगोष्ठियों का सिलसिला बढ़ा है.
लिहाज़ा इस क्षेत्र में नई पुस्तकों की आमद भी बढ़ी है. मीडिया के क्षेत्र में
चरित्र और चेहरे (आलोक मेहता), ‘बनते-बिगड़ते भारत का लेखा-जोखा’ (शशि शेखर), ‘वे
हमें बदल रहे हैं’ (राजेंद्र यादव), ‘समकालीन वैश्विक पत्रकारिता में अख़बार’
(प्रांजल धर), ‘गॉंधी और नेहरू’ (दीपक मलिक), ‘मन रे गा’ (विष्णु राजगढि़या), ‘भारत
: इतिहास संस्कृति और विज्ञान’ (गुणाकर मुले), ‘एक और ब्रह्मांड’ (अरुण माहेश्वरी),
‘मार्जार कोश’ (परशुराम शुक्ल) एवं महाभारत गाथा ‘शाश्वतोSयं’
(प्रभाकर श्रोत्रिय) आदि महत्वपूर्ण पुस्तकें इस साल आई हैं, जिन्होंने हिंदी
के सँकरे रचनात्मक पाट को बृहत्तर करने की कोशिश की है. वेब मीडिया और हिंदी के
वैश्विक परिदृश्य पर मनीष कुमार मिश्र की संपादित पुस्तक व सुनील कुमार लवटे की
किताब हिंदी वेब साहित्य ने आभासी माध्यमों पर हिंदी के फैलते रचना संसार
की व्यापक पड़ताल की है. ‘सपनों में खोई स्त्री’ इंदुप्रकाश कानूनगो की अनूदित विश्व
कहानियों का संग्रह है. अशोक कुमार पांडेय द्वारा अनूदित शांतिमय रे की
पुस्तक ‘आजादी की लड़ाई और भारतीय मुसलमान’ मुसलमानों के एक अलक्षित पहलू का
खुलासा करती है.कुछ प्रकाशकों ने जीवन चरित,व्यक्तित्व प्रबंधन और
विकास व अभिप्रेरक पुस्तकों की झड़ी ही लगा दी है जो ज़ाहिर है, करियर के उत्थान
में सहायक हैं. जीत लो हर शिखर व जाग उठी नारी शक्ति(किरण वेदी), हिंदी सिनेमा के
150 सितारे(विनोद विप्लव),करिश्माई कलाम(पी एम नायर), बफे एंव ग्राहम से
सीखें(आर्यमन डालमिया), आप खुद ही बेस्ट हैं(अनुपम खेर), गुरुदत्त: हिंदी सिनेमा
का एक कवि(नसरीन मुन्नी कबीर), लालबहादुर
शास्त्री(सुनील शास्त्री), बिजनेस कोहिनूर रतन टाटा, बराक ओबामा: नई राहें, नए
इरादे आदि ऐसी पुस्तकों के कुछ नमूने हैं. हालांकि इसी कोटि की एक गंभीर पुस्तक
सामाजिक आर्थिक विषयों के लेखक अरुण माहेश्वरी ने लिखी है: एक और ब्रह्मांड.लेकिन
सच कहें तो आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक जीवन के वैविध्यपूर्ण पहलुओं की पड़ताल
करने वाली और विज्ञान, प्रबंधन, तकनीक एवं प्रौद्योगिकी की मुख्य धारा की विश्लेषणात्मक
पुस्तकों का आज भी अभाव बना हुआ है.
______________________________
बेहद उम्दा विश्लेषण किया है ………आपकी दृष्टि से कुछ नहीं बचा यही तो वास्तविक परख है जिसके लिये आप जाने जाते हैं आपके माध्यम से काफ़ी जानकारी मिली कुछ का पता था और कुछ अब पता चला ………हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंसाल भर में प्रकाशित किताबों का सर्वेक्षण मुश्किल काम है, कई बार उबाऊ भी. आपने जो किया पूरी तन्मयता और संलग्नता से किया. बहुत सारी किताबें मेरी जानकारी में पहली बार आयीं.
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण आलेख| किताबों का सूक्ष्म विश्लेषण |.ओम सर और समालोचन को साधुवाद
जवाब देंहटाएंभाई ओमजी आपका अभिनंदन इतना बढिया आलेख ।पर आप बतायें "कम्युनिकेशन और बाॅडी लैंग्वेज" या "स्व प्रबंधन" या अन्य ऐसी पुस्तकें कहाॅ शामिल होगी ।इस प्रकार के रचना संसार को हम नकार नहीं सकते ।
जवाब देंहटाएंओम जी का यह आलेख बहुत मेहनत से लिखा गया है। उनको बहुत बहुत बधाई और आभार।
जवाब देंहटाएंDhanyavad Om ji
जवाब देंहटाएंNow I am updated.
परिश्रम पूर्वक लिखा गया विश्लेषण परक आलेख!
जवाब देंहटाएंवर्ष भर की पुस्तकों के चयन का श्रमसाध्य कार्य आपने इतनी गंभीरता से पूरा किया है, हार्दिक बधाई। मुझ जैसे सामान्य लेखक की ‘मेरी यादों का पहाड़’ भी आपकी नजर से नहीं छूटी, यह मेरे लिए गर्व की बात है। आभार ओम जी।
जवाब देंहटाएं- देवेंद्र मेवाड़ी
लेख बहुत सी किताबों पर आधारित होने की वजह से खासतौर पर अच्छा लगा, बधाई स्वीकार करें ओम् जी
जवाब देंहटाएंअक्षरशः एक-एक शब्द पढ़ा। बात दिल में उतर गई। साहित्य की सुगति और दुर्गति की समीक्षा का निरूपण, जो आप द्वारा किया गया, सचमुच विरल है।
जवाब देंहटाएंसमीक्षक को साधुवाद ।
आपकी समीक्षा समय के साथ गड्ड-मड्ड होते साहित्य के लिये सकारात्मक विकल्प की तलाश है।
जहाँ आत्म-मंथन के बाद बिषय उठाया जाता है वहाँ प्रशंशा में कहने के लिये शब्द नही बचते।
एहसास के उर्वर धरातल पर तमाम रंग स्वतः बिखरने लगते हैं।
चरण स्पर्श ।
ओम जी बधाई , आपने साल भर की किताबों का विस्तृत अवलोकन किया है।इतनी विधायें इतने लेखक कि कुछ किताबें छूट जाएं तो आश्चर्य नहीं पर हिंदी के वरिष्ठतम कवियों में शुमार केदारनाथ सिंह का संग्रह 'सृष्टि पर पहरा' छूट गया तो थोड़ा आश्चर्य हुआ।यद्यपि संग्रह में प्रकाशन वर्ष 2014 छपा है पर हम जानते हैं कि संग्रह 2013 के अंत में आ गया था।इसी तरह अनिता भारती की दलित नारीवाद पर किताब 'समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री सका प्रतिरोध' है।हिंदी पत्रिकाओं के विशेषंकों को भी अगर आप शामिल करते चर्चा में बात पूरी हो जाती।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंउमाकांत जी। हॉं 'सृष्टि पर पहरा' की जानकारी ही नहीं, यह मुझे जब मिली यानी दिसंबर के आखिरी हफते में तब तक यह आलेख उसके भी पचीस दिन पहले छपने जा चुका था। दूसरे यह 2014 का संग्रह है तो इसका जिक्र क्यों किया जाए,यह सोचकर इसे शामिल नही किया। हालांकि इस पर शीघ्र ही लिख रहा हूँ जिसे आप पढ सकेंगे। अनिता भारती जी की किताब मैं देख नही सका। इसे मंगाऊँगा अपने लिए और अपने ज्ञानार्जन में शामिल करूँगा। चयन में सीमाऍं स्वाभाविक हैं। दूसरे हजारों किताबों में कुछ को चुनना हमेशा मुश्किल होता है।
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम मैं ओम निश्चल जी को इतने श्रम साध्य लेख के लिए बधाई देती हूँ ,साहित्य कारों और साहित्य प्रेमियों दोनों के लिए ये संग्रहणीय लेख है पूरे,वर्ष में क्या लिखा गया ,क्या छपा,क्या पठनीय है और क्या जरुर पढ़ा जाना चाहिए बहुत,इसे बहुत सिलसिलेवार ढंग से ओम जी ने इस लेखा में लिखा है .एक बात खटकी मुझे ,बोधि प्रकाशन से प्रकाशित दीपक अरोरा जी के कविता संग्रह का जिक इसमें असावधानी वश छूट गया है ,बोधि की यह किताब भी चर्चा योग्य है जिसकी कविताऍं प्रेम कविता के सन्नाटे को अपनेी आवाज से तोड़ती हैं. इस किताब का ज़िक्र ना करना सुधी पाठकों को एक उत्कृष्ट किताब पढने से वंचित रखना है|
जवाब देंहटाएंशुक्रवार की वार्षिकी 2014 में प्रकाशित ओम निश्चल का यह आलेख पढा। जितने नुकले और सुविस्तृत रूप में उन्होंने हिंदी की पुस्तकों का जायज़ा लिया हे, वह काबिले तारीफ है। ऐसे सर्वेक्षणों को पढ़ कर दूर दराज के लोग पुस्तक पढने और उसे खरीदने का इरादा बनाते हैं । इसलिए जो पुस्तक जेसी हे, उसे एक समीक्षक के रूप में भी ओम निश्चल ने यत्र तत्र रखा है। सारी पुस्तकों की छानबीन कर पढने योग्य पुस्तकों को रेखांकित करना मामूली काम नही है। हालांकि शुक्रवार की यह वार्षिकी अपने संस्मरणों के कारण और तमाम कवियों की बेहतरीन कविताओं से सुसज्जित है फिर भी पुस्तकों पर ओम निश्चल के इस आलेख से अच्छी पुस्तकों के चयन का रास्ता आसान हो जाता है। जब पुस्तक मेले को कुछ दिन बचे हों, इससे एक अपनी अपनी पसंद की सूचियां तो बनाई ही जा सकती हैं । समालोचन और अरुण देव को साधुवाद कि इस आलेख को विश्वव्यापी स्तर पर प्रसारित किया है। .
जवाब देंहटाएंमृदुला जी, आपने ठीक याद दिलाया। आपने दीपक अरोड़ा की कुछ कविताएं हाल में पढवाई हैं। शुक्रिया। यह संग्रह 'वक्त के होठों पर एक प्रेमगीत' मेरी जानकारी में तब आया जब यह आलेख छपने जा चुका था। अब तो अरोड़ा जी शायद इस दुनिया में नहीं है, पर उनके इस संग्रह की कविताओं में जो कशिश है, उसे किन शब्दों में कहूँ। मृदुला जी ने सब कुछ कह दिया है। उनके संग्रह से दो कविताऍं उद्धृत हैं:
जवाब देंहटाएंएक:
खो ही जाता है ,
प्रेम अन्तत ,हाथ में,
बची रह जाती हैं स्मृतियाँ ,
खाई जा चुकी मूंगफलियों के ,
पीछे बचे छिलकों सी ,जिन्हें
जलाकर आप ताप सकते हैं ,
आंच बीते समय की ,कुछ समय
स्मृतियों के लम्बे ,स्याह गलियारों से ,
गुज़रते आप सुन पाते हैं ,
अपने ही क़दमों की ,
डूबती तैरती सी आवाजें ,
जैसे लगे होते हैं ,
कब्रों पर शिलालेख ,
कुछ लोग आपको सदा रहते हैं ,
याद ,जैसे बचे रहते हैं ,
विज्ञानं और इतिहास की किताबों में ,
डायनासोर ,
विनिष्ट अस्तित्वों की गवाही से |
२
प्रेम अक्सर होता है ,
एक बंद गली से गुजरने सा
जिसके आखरी मकान पर लगी नेमप्लेट ,
आपको बता ही देती है ,
वो लोग अब यहाँ नहीं रहते ,
जिन्हें खोजते आप ,
यहाँ आये हैं
३
अब लौटना ही होगा !!
दूसरी कविता:यह शायद उनकी आखिरी कविता है
करीने से जूते उतार रैक में रखने के बाद
मैं जड़ के करीब से काटे गये चीड़ के तने की तरह
अपने बिस्तर पर गिरता हूँ .
बिस्तर कमोबेश तुम्हारी कल्पित प्रेमिका का स्पर्श है,
वह तुम्हें सहता ,सहलाता ,दुलारता है ,और
समेट लेता है तुम्हें किन्ही कल्पित बाँहों की तरह
तकिया ईमानदारी से एक सर को गोद में रखे रहता है .
लेटे हुए तुम अपनी देह छू देखते हो,
पहनी हुई कमीज़ को तुम्हारी हाथ सहलाता है,
सिद्धहस्त कपड़ा बेचने वाले की तरह,
तुम्हारी तर्ज़नी और अंगूठा एक साज़िश रचते हैं,
तुम्हारी उँगलियों के पोरों पर सोये स्पर्श की आँखें खुल जाती हैं ,
एक पीछे छूटा शहर अपनी गंध से तुम्हे भरता है,
आसक्ति और वैराग्य के धागे से बुने पालने में,
देर तक तुम झूलते हो,
प्रकाश और आँसू तुम्हारी आँखों को धुंधला देते हैं ,और
तुम बंद कर देते हो कमरे में जलती ट्यूब लाईट को ,
उसने कहा था ,"पुरुष नहीं रोते ."
छोटे से संशोधन से मैं कहता हूँ ,
"पुरुष प्रकाश में नहीं रोते .
स्मृति एक नीले बैंगनी रंग की मोटी ज़िद्दी मक्खी है,
जो देर तक तुम्हारे कानों में गुनगुनाती है ,
स्मृति ढेरों एक दूसरे से लिपट कर बने रेशों की रस्सी है,
पूरे पुरुषार्थ से भी तुम नहीं खोल सकते सिर्फ एक रेशा .
स्मृतियों में ही कहीं एक छूटा हुआ उदास रेलवे स्टेशन है,
स्मृतियों ही में कहीं है एक रेशा जिस पर लिखा है,
कभी कहा गया एक उदास शब्द "विदा ".
विदा .......शब्दकोष का सबसे रुआंसा शब्द है,
इस अँधेरे कमरे में अब भी तुम्हारी देह भय से कांपती है,
एक दूसरे को कहते हुए विदा ठंडी सुईयां देह में चुभती हैं,
गहरी काली रात का सन्नाटा कपड़े बदलता है,और
बिरहा गाते किसी लोकगायक की हूक में घुल जाता है .
दिन निकल आया है ,
वह आँसू जो आँख में चमकता है ....अब गिरता नहीं .
(दीपक अरोड़ा के कवि को पूरे समादर से याद करते हुए)
Badhai om nishchalji poore varsh ke pustak sangrah ki samiksha ke liye........ shukriya,Achha lagta h kavya sangrah ki achhi tippani ke liye
जवाब देंहटाएंओम निश्लचल जी स्वयं रचना कि पुनर रचना कर देते हैं साहित्य के प्रति उनकी गूढ़ गम्भीर समझ सचमुच अद्भुत है इनके विश्लेषण में जिस तटस्थ संलग्नता के साथ संलग्न तटस्थता देखने को मिली सचमुच सराहनीय है साधुवाद। ....
जवाब देंहटाएंaap kaa kary jitanaa sharmsaadhy hai utnaa hee prasaangik bhee sankhsipt tippnee me bhee jo sargarbhitaa hai usake lie aapki jitanee taarif kee jaaye kam hai .
जवाब देंहटाएंअत्यंत सराहनीय ... मुश्किल है..हरेक के वश की बात नही...नमन ओम सर जी को..आभार समालोचन जिन्होंने इसे प्रसारित कर हम पाठको को लाभ उठाने का मौक़ा दिए...
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.