कविता में बारिश
प्रेमचंद गांधी
ऋतुएं हमारी काव्य-परम्परा के विषय और आलम्बन दोनों रहे हैं. कवि प्रेमचंद गांधी ने इन कविताओं में बारिश को अनके रंगों और संवेदनाओं से भर दिया है. इसकी नमी और सुरभि को इसे पढ़ते हुए आप बखूबी महसूस कर सकते हैं.
बारिश के दिनों एक घर
व्यर्थ समझ कर फेंक दिए
गए
मलबे और चूने से बना था
आंगन
मिट्टी-पत्थर-ईंट के
भानुमती कुनबे ने रची थीं दीवारें
जबकि छत नाम की चीज़
जिस सामग्री से बनी थी
उसकी सूची काफ़ी लंबी है
कहना चाहिए कि
लंबाई-चौड़ाई और मज़बूती में
जो भी उपयुक्त हो सकता था
वह सब छत की प्रॉपर्टी थी
यूं तीनों ऋतुएं उस घर पर
आशीर्वाद बरसाती थीं
लेकिन बारिश सबसे ज़्यादा
मेहरबान थी
वर्षा आते ही पूरा घर जुट
जाता था घर की रक्षा में
बावजूद तमाम कोशिशों के
बर्तन कम पड़ जाते थे
आंगन में बर्तनों के बीच बैठना
भी मुहाल होता था
सोने के लिए वर्षा रानी की
विदाई की कामना की जाती
उसके जाने के बाद बरसाती
गंध में डूबे
नमी बाले बिस्तर यानी
गुदडि़यां इत्यादि
गीले फर्श पर बिछ जाते
एक आशंकित नींद में सोया
रहता घर
बच्चे नींद में ‘अल्लाह
मेघ दे’ गीत पर
प्रश्नाकुल सपने देखते
दिन में मां-बाप से पूछते
जो गांव की याद कर निरुत्तर
हो जाते.
बाहर बारिश भीतर हम
बाहर बारिश थी
और भीतर हम
शायद गा रहे थे बारिश
भीतर भी थी एक बारिश
हमारे संवाद की लय में
यह दो रूहों का मिलना था
जिसमें देह एक भाषा थी
संवाद की किसी भी भाषा की
तरह
हमने कहा ओस और
सृष्टि में कहीं
दो जोड़ी होंठ कांपे
हमने कहा आकाश
संसार में कहीं दो जन गले
मिले
हमने कहा धरती
कुछ बच्चों की किलकारियां
गूंजी
हमने एक साथ कहा सृष्टि
हम उठे और
चल पड़े एक अनंत डगर पर.
भंवरे
को कमल में क़ैद होते
मैंने
नहीं देखा
एक
अद्भुत लय और ताल में बरसती बारिश
और
धरती के बीच
तुम्हारा-मेरा
होना
जैसे
समूचे ब्रह्माण्ड के
इस
अलौकिक उत्सव में शामिल होना
हमारी
तमाम इंद्रियों को झंकृत करता
यह
बरखा-संगीत
गुनगुना
रही है वनस्पति
हवा
के होठों पर
बूंदों
की ताल पर
रच
रहा है क़ुदरत की हर शै में
हमारे
सिर पर आसमान
पैरों
में पहाड़
बरसता
जल हमारे रोम-रोम से गुज़रता
पहाड़
से नदी, नदी से सागर जायेगा
अगले
बरस हमें फिर नहलायेगा
आओ
अब
सम पर आ चुकी है बारिश
हम
कामना करें
अगले
बरस जब बरसे पानी तो
उसमें
आंसुओं का खारापन न हो
और
न हो ऐसी बारिश
जो
आंखों से भी बहती देखी जा सके
लो
अब रवींद्र संगीत में
डूबती
जा रही है बारिश
‘ध्वनिल आह्वान मधुर गम्भीर
प्रभात-अम्बर माझे
दिके
दिगन्तरे भुवनमन्दिरे शांति-संगीत बाजे.‘ *
*
कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर की काव्य-पंक्तियां
अनन्त में हैं हम
एक
ऊंचाई पर बैठकर
सिर्फ़
तुम्हें सोचना
बारिश
की हल्की-हल्की बूंदों में
अगाध
श्रद्धा से भीगते हुए
सिर्फ़
तुम्हारा ही ख़याल करना
हमारी
प्रेम-कथा का दिव्य क्षण है
यह
जानते हुए कि इन दिनों तुम
ख़ासी
ख़फ़ा हो मुझसे
लेकिन
हमारा प्रेम
कभी
नहीं होता ख़फ़ा हमसे
दूर
क्षितिज पर जोरों से बरस रही है बारिश
मैं
उस क्षितिज पर हम दोनों की कल्पना करता हूं
एक
अनन्त में हैं हम
और
अनन्त है समय
अनन्त
हैं बादल
अनन्त
है बरसता पानी
एक
अनन्त में नहाते हुए हम
अपनी
प्रेम-कथा के अनन्त होने की कामना करते हैं.
सावण की डोकरी-सी सड़क
इन गाँवों तक आ तो गई है सड़क
प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कृपा से
पता नहीं कब तक रहेगी यह
एक बारिश भी झेल पायेगी या नहीं
जब राजधानी में ही बह जाती हैं
हर बारिश में सड़कें
इन गाँवों का क्या होगा
नहीं सोचते इन गाँवों के आदिवासी
उनके लिए सड़क का होना न होना बेमानी है
कौनसी कार, जीप या बाइक है उनके पास
जिसके लिए चाहिये सड़क
उनके पास तो साइकिल तक नहीं
और कौनसी बस-मोटर आती है यहाँ
जिसे चलने के लिए चाहिये सड़क
इसलिए यह नई-नवेली ‘पेवर’ सड़क
आजादी के साठ साला जश्न की
एक बीरबहूटी-सी सौगात है इन गाँवों को
अगले सावन पता नहीं
यह डोकरी रहे न रहे
** बीरबहूटी को राजस्थानी
में सावण की डोकरी भी कहा जाता है.
जल
नियोजन
नहीं
हमने नहीं नष्ट की
सिन्धु घाटी सभ्यता
न ही हड़प्पा के अवसान से हमारा कोई लेना-देना है
सरस्वती के लुप्त होने में भी हमारा हाथ नहीं
बस कुछ बड़े शहर, गाँव, कस्बे और घाटियाँ
ही हमारे नाम हैं
वो भी सिर्फ़ टिहरी, नर्मदा और कुछेक इलाकों में
और सच पूछिये तो इन सबका कोई
बहुत बड़ा ऐतिहासिक महत्व नहीं था
यह सही है कि कुछ लोग मरे
और यह भी कि हम नहीं चाहते थे कि वे मरें
पर क्या करें
जिन्हें हम नहीं डुबो सके
टिहरी, नर्मदा और हरसूद में
उन्हें हमने डुबो-डुबो कर मारा
बारिश के पानी में
पानी को लेकर हमारी चिन्ताएँ बहुत गहरी थीं
हम पानी रोकने, बेचने और बरतने के
तमाम इन्तजामात में अव्वल थे
अब तो इतिहास सिद्ध करेगा कि
हमारी नगर नियोजन और जल-प्रबन्ध व्यवस्था बेजोड़
थी
वरना समुद्र का पानी यूं मीठा नहीं होता
दळ बादळी रो पाणी
‘कुण जी खुदाया
कुआ बावड़ी ये
कुण जी खुदाया ये
समद तळाव’
नहीं रहे वो
सेठ-साहूकार
खत्म हो गए राजा-रानी
सब
जो रेत के धोरों
में
प्यासे कण्ठों
के लिए खुदवाते थे
कुए-तालाब-बावडि़यां
अनगिनत
सोने-सा था मोल
पानी का
चातक ने सीख लिया
था
एक बूंद पर जीना
ऊंट जैसे जानवर
तक ने
विकसित कर ली थी
पानी बचाने की
कला
घर-घर में सहेजकर
यूं जमा किया
जाता था पानी
जैसे जोड़नी हो
उम्र में सांसों
की संख्या
मरुधरा का रास्ता
भूल गए
बादलों की तरह
भटक गई हमारी
चेतना
मूंज की जेवड़ी
की तरह बटी हुई
हमारी आदिम
प्रज्ञा
लगातार पानी में
रहने से
गळती ही गई-छीजती
रही
हम भूलते गए पानी
को अवेरना
और सूखते गए तमाम
जलस्रोत
अब भी बरसते हैं
मेघ
लेकिन हम खुद ही
से पूछते हैं
’दळ बादळी रो पाणी
भाया कुण तो भरै?’
लौट आना तुम्हारा
थार
के टीलों ने जैसे
बरसों
बाद किया हो
सावन
की बूंदों का आचमन
लंबे
वक्त तक कैद रहे
परकटे
परिंदे को जैसे
अचानक
कर दिया गया हो आजाद
और
भूलकर परवाज परिंदा
गाने
लगा हो लोरी जैसा कोई गीत
आकाश
मार्ग से जैसे
नीले
समंदर को मिल गई हों
अपनी
बिछुड़ी बूंदें वापस
इन
तीन उपमाओं से पहले
एक
आश्चर्य की तरह घटी क्रिया
उस
विशेषण में बदल गई
जिसमें
वाक्य और अर्थ खो जाते हैं
‘लौटकर आना’ जैसी सहज क्रिया ने
कम
कर दिया सूरज का ताप
बढ़ा
दी वृक्षों में हरियाली
रातों
में चांदनी
गुलजार
हुई उम्मीदों की बगिया.
फोटोग्राफ गूगल से साभार.
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प्रेमचंद गांधी
जयपुर में 26 मार्च, 1967 को जन्म. एक कविता संग्रह ‘इस सिंफनी में’
और एक निबंध संग्रह ‘संस्कृति का समकाल’ प्रकाशित.
समसामयिक और कला, संस्कृति के सवालों पर निरंतर लेखन. कई नियमित स्तंभ लिखे. सभी
पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. कविता के लिए लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्मान. अनुवाद, सिनेमा और सभी कलाओं में गहरी रूचि.
विभिन्न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी. कुछ नाटक भी लिखे. टीवी और सिनेमा
के लिए भी काम किया. दो बार पाकिस्तान की सांस्कृतिक यात्रा.
प्रेमचंद जी मैंने पहले भी आपको पढ़ा है ,बहुत ही सुंदर लाजवाब लिखते हैं आप |धन्यवाद
जवाब देंहटाएंइन कविताओं में मानवीय संवेदनाएं बारिश की बूंदों की शीतल और आभायुक्त भाषा में बड़ी सुन्दरता से पिरोयी गयी हैं \ साथी प्रेमचंद को हार्दिक बधाई \
जवाब देंहटाएंअहा पढ़ने का आनन्द इसे कहते हैं, पानी की फुहारों को हर प्रकार से समेट लिया है शब्दों में।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कवितायेँ है प्रेम चंद , बारिश पर अब तक पता नहीं कितनी कवितायेँ लिखी जा चुकी है, किन्तु इस दृष्टि से बारिश को देखना पहले नहीं देखा.
जवाब देंहटाएंबारिश है , बारिश में प्रेम और अनुभूति भी, मानवीय सम्वेदनाओं की अदभुत प्रस्तुति ...बहुत सुंदर रचनाये एक दम बारिश की तरह
जवाब देंहटाएं-एन. गायेन
barish mein ruk ruk kar bhigoti kavitayen !
जवाब देंहटाएंAnupama Tiwari
बहुत खूब प्रेम भाई बढ़िया कविताएं विशेषकर पहली कविता ....... बधाई
जवाब देंहटाएंप्रेम जी की कविताओं में लोक जीवन की महक ख़ास आकर्षित कर रही है .सावन की डोकरी ...बीरबहूटी और मेड़ता के धोरे याद आये .सावन की कविताएँ यदि ये राजस्थान से आ रही हैं तो सावन एक ख़ास तरह से आएगा ...मरुप्रदेश या रागिस्तान ..विषमताओं में भी इस प्रदेश की जिजीविषा ने मुझे सींचा है .प्रेम जी की कविताएँ उसी जिजीविषा से भरपूर हैं .
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह संवेदनशील और मारक | बधाई आपको मित्र
जवाब देंहटाएंप्रेम भाई की कविता के दृश्य बिम्ब मुझे भाते हैं उनकी दृश्य निर्माण क्षमता' बीर बहूटी-सी सौगात' अपने आसपास, अपने लोक 'बरसाती गंध में डूबे नमी वाले बिस्तर यानि गुदड़ियाँ '..को व्यापक सामाजिक सरोकारों के साथ कविता की भाव भूमि बनाती है ' सोने का था मोल पानी का \चातक ने सीख लिया\एक बूंद पर जीना' विकसित कर ली पानी को बचाने की कला'. ऐसा ही जतन यह कवि इस कविता विरोधी माहौल में अपनी शब्द साधना में 'सहेजकर' कविता को बचाने के लिए कर रहा है. भटकी हुई चेतना के बीच ,उम्र में साँसों की संख्या जोड़ने का जतन....
जवाब देंहटाएंइन दिनों युवाओं में कौन कौन से युवा कवि कविता के उभरते मान हैं. उनके नाम गिनाने का दौर बड़े जोर-शोर से चल रहा है.लेकिन वहां प्रेमचंद गांधी का नाम नदारद है , शंका पैदा करता है , क्या इसके पीछे कोई साज़िश है.....या अपने अपने समूह ....या साहित्य में आगे बढे क्षेत्रों का आत्म मोह ? खैर ! ' अब तो इतिहास सिद्ध करेगा कि\हमारी नगर नियोजन और जल-प्रबधन योजना बेजोड़ थी\ वरना समुद्र का पानी यूँ ही मीठा नहीं होता'.
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