प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल प्रखर आलोचक विचारक है. इधर सृजनात्मक लेखन में उनका उदय सुखद है और साहित्य को समृद्ध करने वाला भी. कविता पहले से ही लिख रहे हैं, कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं, और उपन्यास आने वाला है. इधर प्रकाशित यात्रा संस्मरण ‘हिन्दी सराय: अस्त्राखान वाया येरेवान’ चर्चा का केन्द्र बना हुआ है. जैसा कि युवा अध्येयता आनन्द पाण्डेय ने लक्ष्य किया है कि यह यात्रा संस्मरण ‘रास्ता संस्मरण नहीं है. वोल्गा के किनारे बसे रूस के शहर अस्त्राखान और आरमीनिया की राजधानी येरेवान की यह यात्रा भारत से आए अपने पूर्वजों की जड़ों की तलाश में भटकते एक अन्वेषक की यात्रा है, जो भारत में आधुनिकता की यूरोपीय देन पर भी प्रश्न खड़ा करता है.
विवरण,
विचार, अन्वेषण और भाव की सहयात्रा
आनन्द
पाण्डेय
हिन्दी सराय: अस्त्राखान वाया येरेवान’ चर्चित आलोचक पुरूषोत्तम अग्रवाल का यात्रा-वृत्तांत है. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह दो देशों के दो शहरों- आरमीनिया की राजधानी येरेवान और वोल्गा के किनारे बसा रूस का शहर अस्त्राखान- की यात्राओं का भावपूर्ण वैचारिक वृत्तांत है. शायद इसीलिए किताब दो खंडों में है- ‘बयान येरेवान’ और ‘बयान अस्त्राखान’.
मनुष्य
के स्वभाव में ही ऐसा कुछ होता है जो उसे अनजान से अनजान व्यक्तियों और देशों के
लोगों से सहज ही जोड़ देता है. मानवीय राग का पसारा ही यह संसार है. एक लेखक के लिए
यह रागात्मक स्वभाव तो एक शर्त की तरह है. इसी मानवीय राग से रचनाएँ जन्म लेती हैं.
यही साहित्यकार के लिए व्यवहृत ‘परकाया प्रवेश’ की प्रक्रिया को संभव बनाता है. यात्रा-वृत्तांत को इस परकाया प्रवेश
की कसौटी कहा जा सकता है. क्योंकि अनजान देशों और संस्कृतियों की यात्राओं का
वृत्तांत परकाया के साथ-साथ परसंस्कृति प्रवेश भी होता है. वृत्तांतकार को ऐसे
व्यक्तियों के हृदय और मस्तिष्क में प्रवेश करना होता है जिन्हें वह नहीं जानता,
जो उसके लिए अजनबी हैं. यह एक दृष्कर कार्य है. इसलिए यात्रा
वृत्तांत-लेखन को साहित्यकार की रागात्मकता की कसौटी कहा जा सकता है.
यात्रा
का उद्देश्य उसके वृत्तांत के प्रतिपाद्य को निर्धारित करता है. पुरुषोत्तम
अग्रवाल की यात्रा का उद्देश्य था- शोध. लेखक के शब्दों में, ‘‘यह यात्रा बुनियादी तौर से शोध के लिए की गई यात्रा थी, जिसमें अपने शोध सम्बन्धी सवालों में से कुछ के जवाब तो मिले ही,
बहुत कुछ और भी मिला.’’ इसलिए ‘हिन्दी सराय’ शोधपरक
है. शोध से प्राप्त नये तथ्यों के आलोक में सहज रूप से विचार और आलोचना तो है ही
लेकिन जो ‘बहुत कुछ और मिला’ वह
इस पुस्तक को अधिक रचनात्मक और साहित्यिक बनाता है. कहना न होगा यहाँ यात्रा का
उद्देश्य यात्रा-वृत्तांत के प्रतिपाद्य को आक्रांत नहीं कर पाता है.
इस
दृष्टि से पुरुषोत्तम अग्रवाल का यात्रा-वृत्तांत एक उल्लेखनीय रचना है. इस
वृत्तांत में यह मानवीय राग आद्यांत अनुभव किया जा सकता है. जिन स्त्री-पुरुषों से
लेखक की मुलाकातें हुईं उनके माध्यम से वह उनकी संस्कृतियों में अपने लिए धड़कने
सुन पाने में सफल होता है. परकाया प्रवेश के साथ-साथ वह परसंस्कृति प्रवेश भी करता
है. इस रचना में व्याप्त मानवीय पहचान की बाहरी परतों को भेदकर अजनबी लोगों के साथ
अपनेपन की अनुभूति की सघनता केवल वैयक्तिक नहीं, बल्कि
साहित्यिक उपलब्धि भी है. मानवीय राग और अनुभूति की सघनता की चरम अभिव्यक्ति किताब
के अंत में देखी जा है. हवाई जहाज की परिचारिका के सिर में लगी मामूली चोट को
सहलाकर, उसे अपनेपन का भाव देकर लेखक ने जो अनुभव किया
वह इस मानवीय राग की अभिव्यक्ति का साक्ष्य है. वृत्तांतकार के शब्दों में,
‘‘दो घंटे की फ्लाइट के बाद उस महिला को कभी नहीं
देखा, देखूँगा भी कहाँ और क्योंकर... सच यह
है कि देखूँ भी तो पहचान नहीं पाऊँगा. वह भी मुझे नहीं पहचान पाएगी. चेहरा नहीं;
याद है तो, केवल
वह दोस्ती-भरी, अधिकार भरी झुकन याद है, केवल वह कृतज्ञ, मुस्कान याद है, और ताउम्र रहेगी. उसके चोटिल सर का स्पर्श याद है. मेरी अँगुलियों के
हल्के दबाव से जो राहत उसे पहुंची होगी, उस
राहत की कल्पना याद है. राहत पहुँचाने की कोशिश और उस कोशिश को लिए जाने की सहजता
का स्पर्श अभी भी अनामिका और मध्यमा पर कौंध जाता है बीच-बीच में.’’ (पृ.130-131.)
मानवीय
सम्बन्धों की सहज रागात्मक अंतर्धारा तमाम ऐतिहासिक तथ्यों, विवरणों
और विचारों के बीच में निरंतर बहती रहती है. अपने सवालों के जवाबों के अलावा लेखक
ने और ‘जो कुछ पाया’ उसे
अंत में इस घटना के वर्णन के माध्यम से रेखांकित किया है. लगता है कि लेखक ने
स्वयं इस घटना के वर्णन और इसके रूपक के माध्यम से अपने यात्रा-वृत्तांत को पढ़ने
के सूत्र और दृष्टि दे दी है.
पूरा
यात्रा-वृत्तांत केवल आठ दिनों का है. इसी में आना-जाना भी शामिल है. अनजान शहरों
की इतने कम समय की यात्रा सहज रूप से वृत्तांत के लिए पर्याप्त नहीं होती है.
क्योंकि इतने कम समय में भाव-लोक और विचार-लोक का वह तादात्म्य नहीं बन पाता है जो
लिखने के लिए आवश्यक होता है लेकिन लेखक परकाया प्रवेश की रागात्मक प्रक्रिया को
जिस संवेदनशीलता और अनुभूति की सघनता के साथ संभव बनाता है उससे समय की कमी कहीं
भी आड़े नहीं आती है. इसके अलावा वह जिन प्रश्नों के संदर्भ में यात्रा करता है,
वे उसके मन में लंबे समय से उठते रहे हैं. कबीर और भक्तिकालीन भारत
के साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास के अपने
अध्ययन और शोध के लंबे समय में उसे वैसे ठोस प्रमाणों की खोज थी जो इतिहास (केवल
भारतीय नही, बल्कि विश्व इतिहास) के बारे में ‘औपनिवेशिक ज्ञानकांड’ का प्रतिकार कर सकें और बेहतर समझ दे
सकें. संभवतः इसी कारण लेखक ने अपने वृत्तांत को विचार-वृत्तांत और शोध-वृत्तांत
भी कहा है. ऐन इसी कारण ‘यात्रा-वृत्तांत’ का प्रचलित शिल्प यहाँ टूटता है और नयी संभावनाओं से लैश होता दिखता
है. भले ही इसे विधागत बाध्यतावश यात्रा-वृत्तांत के खाते में रखा जा रहा है लेकिन
असल में यह मुख्य रूप से यात्राओं का वृत्तांत न होकर शोध और विचारों का ही आत्मीय
वृत्तांत है; एक ऐतिहासिक प्रसंग में कथात्मक सुख और
प्रवाह के साथ.
हिन्दी
में ऐसे वृत्तांतों की कमी नहीं है जो असल में यात्रा-वृत्तांत के नाम पर ‘रास्ता-वृत्तांत’ होते हैं, लेकिन
यहाँ कोई रास्ता-वृत्तांत नहीं है. आमतौर पर ऐसे वृत्तांत कार्यक्रम बनने की प्रक्रिया
से लेकर टिकट बुकिंग तक की प्रक्रिया और समय तथा यात्रा स्थलों के कालक्रमानुसार
विवरण से भरे होते हैं और यात्रा के पड़ावों में आने वाले दर्शनीय स्थलों और भवनों
का परिचय देते हैं और पाठकों के सूचना-कोश को समृद्ध करते हैं. लेकिन जो
यात्रा-वृत्तांत यात्रा के विवरणों से ज्यादा विचारों और शोधों का विचारोत्तेजक
वृत्तांत हो, वह न केवल यात्रा-वृत्तांत की विधा को
तोड़ता है बल्कि इसके उपयोग के द्वारा विचार एवं शोध की संभावनाओं के नये द्वार भी
खोलता है. इस दृष्टि से पुरूषोत्तम अग्रवाल की यह किताब यात्रा-वृत्तांत के शिल्प
में एक नया प्रयोग है क्योंकि यात्रा-वृत्तांत की प्रचलित पद्धति इसकी पद्धति नहीं
है, क्योंकि कथ्य केवल यात्रा का वृत्तांत नहीं है.
इसका कथ्य है इतिहास, धर्म, पुराण,
कविता, संस्कृति और औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि
इत्यादि विषयों का शोध और आलोचना. इसलिए यात्रा-वृत्तांत के कथात्मक सूत्र में
वस्तुतः शोध और आलोचना की पुस्तक है. लेखकीय सफलता यह है कि यात्रा-वृत्तांत की
रोचकता और कथात्मक प्रवाह में कहीं भी कोई कमी नहीं अखरती है. पुस्तक की शुरूआत ही
होती है येरेवान के कवि चारेंत्स के साहित्यिक और वैचारिक मूल्यांकन
से. यहाँ लेखक का आलोचकीय व्यक्तित्व खूब निखरता है. शीर्षक ही इतना मार्मिक है कि
कोई भी इसे पढ़ने से अपने को रोक नहीं सकता-‘मैं रक्त रंजित अनाथ कवि.’ इसलिए
कहना न होगा, यह पुस्तक यात्रा-वृत्तांत की प्रविधि
का शोध, विचार-विवेचन और आलोचना के लिए किए गए रचनात्मक
प्रयोग का प्रमाण है. विचार, शोध और आलोचना की संवेदना की घुलावट की
वजह से यह एक रोचक साहित्यिक रचना है.
यह
सब कुछ संभव होता है भाषा में. सर्जनात्मक गद्य की इस रचना में विवरण, आलोचना, विचार, विवेचन,
वृत्तांत, इतिहास, पुराण,
संस्मरण सब कुछ एक संवेदना में घुले हुए हैं. यात्रा
क्रिया-प्रक्रिया के अलावा एक प्रतीक भी होती है-प्रवाह का. संवेदना और विचार का
प्रवाह इसीलिए प्रवहमान भाषा यात्रा-वृत्तांत की एक अनिवार्य शर्त-सी है. इस
दृष्टि से अपनी प्रवहमान भाषा की वजह से भी इस वृत्तांत से गुजरना एक सुखद अनुभव
है. भाषा के कई रूप हैं इसमें. कहीं पाठक को भावुक करने वाली काव्यात्मक भाषा,
कहीं दुरूह-से विचार को संक्षेप में कह देने वाली भाषा. किताब का
आरंभ एक समर्थ आलोचना-भाषा का उदाहरण है तो अंत एक काव्यात्मक और बिंबधर्मी भाषा
का प्रमाण. सैकड़ों ऐसी पंक्तियाँ हैं, जो भाषा की
सर्जनात्मकता को ऊँचाई पर ले जाती हैं. हवाई जहाज की खिड़की से लेखक सूर्यास्त का
जो वर्णन-चित्रण करता है वह रंग और बिंब के सहारे एक लैंडस्केप बनाता है, ‘‘हवाई जहाज की खिड़की से सूर्यास्त कुछ अलग दिखता है. लगता है जैसे आप
यहाँ दौड़ रहे हैं और कुछ दूर दौड़ रहा है कोई दोस्त सारी दीवार पर केसरिया रंग करता
हुआ. सूरज का रंग किसी एक जगह डूबता हुआ लगता ही नहीं, एक लंबी सी लकीर के समानांतर चले जाते हैं आप.’’ (पृ. 128.) डूबता हुआ सूरज लेखक को छुट्टी कर घर की तरफ
जाता हुआ व्यक्ति लगता है-‘‘बैठ
ही रहा था कि मेरी नजर एकाएक बाहर की ओर गई, सूरज
छुट्टी कर धीरे-धीरे घर जाने के मूड में....’’ (पृ.
128.) आखिरी पंक्ति शहरी मध्यवर्गीय जीवन के न जाने
कितने पक्षों के रूप हमारे सामने पेश कर देती है. और, यह
पंक्ति तो जैसे एक कविता ही हो-
‘‘वह चेहरा जो वैसे याद में नहीं है, इन जुगनू पलों में अपनी याद आप रच लेता है; अँधेरा कुछ कम लगता है. मन करता है इन उंगलियों पर, इन हाथों पर इन यादों में; ऐसे और भी जुगनू झिलमिलाएँ.’’ (पृ. 131.) ‘जुगनू-पल’ जैसे रूपक भाषा की सामर्थ्य में वृद्धि करते हैं.यह वृत्तांत शब्दों के माध्यम से कहा गया है तो उसी के समानांतर तस्वीरों के माध्यम से भी. इस वृत्तांत में तस्वीरों के लिए अहम स्थान है. इनको वृत्तांतकार ने स्वयं ही अपने कैमरे से खींचा है. तस्वीरों से न केवल हिंदी सराय की और उसके निवासियों की झाँकी मिलती है बल्कि येरेवान और अस्त्राखान के धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन, स्थापत्य कला और इतिहास के कई पहलुओं की प्रामाणिक सूचना भी मिलती है. ‘अस्त्राखान के आसमान में दो-दो चाँद’, ’सेवान झील’, ‘वोल्गा की धार और बीच में द्वीप’ और ‘वोल्गा की साँवली देह पर चाँदनी की चादर’ नामक तस्वीरें यहाँ के प्रकृति-पक्ष से हमारा परिचय कराती हैं.
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इस यात्रा संस्मरण का एक हिस्सा यहाँ पढ़ा जा सकता है
‘‘वह चेहरा जो वैसे याद में नहीं है, इन जुगनू पलों में अपनी याद आप रच लेता है; अँधेरा कुछ कम लगता है. मन करता है इन उंगलियों पर, इन हाथों पर इन यादों में; ऐसे और भी जुगनू झिलमिलाएँ.’’ (पृ. 131.) ‘जुगनू-पल’ जैसे रूपक भाषा की सामर्थ्य में वृद्धि करते हैं.यह वृत्तांत शब्दों के माध्यम से कहा गया है तो उसी के समानांतर तस्वीरों के माध्यम से भी. इस वृत्तांत में तस्वीरों के लिए अहम स्थान है. इनको वृत्तांतकार ने स्वयं ही अपने कैमरे से खींचा है. तस्वीरों से न केवल हिंदी सराय की और उसके निवासियों की झाँकी मिलती है बल्कि येरेवान और अस्त्राखान के धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन, स्थापत्य कला और इतिहास के कई पहलुओं की प्रामाणिक सूचना भी मिलती है. ‘अस्त्राखान के आसमान में दो-दो चाँद’, ’सेवान झील’, ‘वोल्गा की धार और बीच में द्वीप’ और ‘वोल्गा की साँवली देह पर चाँदनी की चादर’ नामक तस्वीरें यहाँ के प्रकृति-पक्ष से हमारा परिचय कराती हैं.
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इस यात्रा संस्मरण का एक हिस्सा यहाँ पढ़ा जा सकता है
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आनंद
पांडेय
अम्बेडकर
नगर, उत्तर
प्रदेश.
जामिया
मिल्लिया इस्लामिया (एम.फिल.) और जे.एन.यू. (पी.एचडी), से उच्च शिक्षा
स्वतंत्र
अनुवादक और राजनीतिक
टिप्पणीकार
छात्र
राजनीति से जुड़े हैं.
अभी कुछ दिनों पहले संभवतः देशबंधु के वरिष्ठ संपादक ललित सुरजन जी ने इस पर संपादकीय पन्ने में लिखा था, तब ज्ञात हुआ था इस वृत्तांत के संबंध में. यहाँ भाई आनंद पाण्डेय नें इस वृत्तांत को कुछ इस तरह से स्पष्ट कर दिया है कि इस पुस्तक को पढ़ने की इच्छा बलवती हो गई.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को कुछ और बड़ा होना चाहिए था. मन को बांधने लगी कि खत्म हो गई. वैसे पाठक को इस पुस्तक की ओर आकृष्ट करने के काम में तो यह इतने भर में भी सफल हो गई. आनंद ने वे सूत्र बखूबी पकड़ लिए हैं जो इस पुस्तक के लिखे जाने की प्रक्रिया के बीज बिंदु हैं. उन्हें बधाई, पुरुषोत्तम अग्रवाल के लेखकीय व्यक्तित्व के एक नए पक्ष को इस विरल मनोयोग के साथ उद्घाटित करने के लिए.
जवाब देंहटाएंहिंदी सराय के लोकार्पण पर मैंने कुछ रोचक अंशों का पाठ पुरुषोत्तम सर से सुना था, यकीनन भाषा शैली जबरदस्त है, यात्रा-वृतांत होते हुए भी सरसता बांधे रखती है, गणेश जी की समीक्षात्मक टिप्पणी भी उतनी ही रोचक है .....बधाई
जवाब देंहटाएंयह टिप्पणी पुस्तक की विशिष्टताओं के सारे गवाक्ष खोलती है। आनंद पांडेय, पुरुषोत्तम जी एवं समालोचन को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंजुगनू पलों की तरह समीक्षा.
जवाब देंहटाएंबुक फेयर जाकर खरीदने वाली लिस्ट में मैंने इसे रख लिया है ...
जवाब देंहटाएंआनंद पाण्डेय ने दोनों यात्रा-वृतान्तों में रचनाकार की रागात्मकता को लक्षित करते हुए अच्छी समीक्षा लिखी है। बधाई।
जवाब देंहटाएंपुस्तक के अनावरण समारोह का साक्षी रहा हूँ ... प्रस्तुत टिप्पड़ी से वो पल फिर ताजे हो गए, पाण्डेय जी ने जो अंत में तस्वीरों का भी जिक्र किया है ...मैं चाहूँगा कि पुस्तक में प्रकाशित तस्वीरों को भी उतना ही महत्त्व दिया जाए जितना उसके कत्थ्य को दिया जा रहा है क्योंकि मेरी राय में वो अद्वितीय हैं | बाकी श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल जी के लेखन पर टिप्पणी करने योग्य खुद को नहीं समझता,अभी उतना पढ़ भी नहीं पाया हूँ जितना पढ़ना चाहिए था, अक्सर उनको सुनने का सौभाग्य मिलता रहता है और जब भी ऐसा होता है एक सम्मोहन से गुजरता रहता हूँ| श्री आनंद जी और समालोचन दोनों के प्रति अलग से कृतज्ञता !
जवाब देंहटाएंमेरे लिए तो, यह पुस्तक बेहतरीन किस्सागोई के साथ अंतस की यात्रा की किताब भी है और इतिहास के प्रति एक बोध को जगाती कोमल थपकार है, ' ऐसे भी लिखते हैं। 'यात्रा' को। कभी कभार में अशोक वाजपेयी जी की टिप्पणी भी यही कहती है, सर जी।
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