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Avishek Sen |
युवा चर्चित कथाकार तरुण भटनागर की कहानिओं में आदिम सभ्यता में आधुनिक कही जाती संस्कृति की घुसपैठ की कथा मिलती है. और एक बड़ा सवाल भी कि आख़िरकार ‘मार्डन’ होना होता क्या है और इसकी कितनी बड़ी सज़ा अधीन समुदायों को उठानी पड़ी है, पडती है. प्रकृति के दोहन और दहन का मसला भी इससे जुड़ा है. शिल्प और भाषा में तरुण ने एक उम्मीद जगाती सहजता हासिल की है.
बाहरी दुनिया का फालतू
तरुण भटनागर
हमारे घर
से थोड़ी दूर एक पुरानी कच्ची-पक्की कुठरिया थी. जिसे रोड बनाते समय बाहर के
मुलाजिम ने ठीक-ठाक कराया था. उस कुठरिया में ट्रकों में भर कर आया सीमेंट रखा गया.
जब रोड बननी चालू हुई तो रोज बैलगाड़ी में लादकर सीमेंट के बोरे रोड की तरफ ले जाये
जाते. सीमेण्ट से कुछ पुराने-धुराने पुल ठीक किये जा रहे थे. रोज सीमेंट जाता.
बाहरी
दुनिया का मुलाजिम कभी-कभी आता. कुठरिया के भीतर कमर पर हाथ रख खड़ा होता. आंखों से
सीमेंट की बोरियां गिनता. मुलाजिम को जंगल का पता नहीं था. बुजुर्ग आदमी को बाहर
की दुनिया का पता था. बुजुर्ग मुलाजिम के साथ काम करता था. बुजुर्ग ने एक दिन
मुलाजिम को बताया कि जंगल में चोरी नहीं होती. जंगल बहुत पिछड़े हुए हैं. यहाँ
अपराध नहीं होते. जंगल इतने पिछडे हैं कि, अगर किसी को किसी की
गर्दन काटनी है तो वह गर्दन काट ही देगा उसी तरह जैसे वह नीलगाय या बकरे की बलि
देते समय करता है. फिर गांव की थानागुढ़ी में उस आदमी के कटे सिर को ला कर रख देगा.
यह फिर जंगल के लोगों की मर्जी है कि वे उसे सजा दें या छोड़ दें. बुजुर्ग ने उसे
बताया कि इसे यहां अपराध नहीं जानते हैं. उसने बताया कि जंगल इतने अविकसित हैं,
कि जंगल में हत्या एक प्रकृति है. इंसानी फितरत. इतने अपढ़ हैं,
कि जंगल में हत्या एक हादसा भर है.
कुठरिया
में रखे बोरे गिनना समय की बरर्बादी है. इंसान के साढ़े चार लाख साल के इतिहास में
बस्तर के जंगलों में कभी चोरी नहीं हुई. पूरा जंगल तो खुला पड़ा है. खुले हैं झरने.
खुले जंगली जानवर. खुले फल. कितनी तो खुली-खुली हवा और आकाश. खुले बेफिक्र बेलौस
जिस्म. जंगल का आदमी अगर इसमें से किसी चीज को उठा ले और अपने साथ ले जाये तो उसे
भला चोरी कहेंगे क्या?.....मुलाजिम को बुजुर्ग
की बात सही लगी. उसने कुठरिया की बोरियां गिनना बन्द कर दिया. फिर उसने कुठरिया
आना भी बन्द कर दिया. कुठरिया अब पूरी तरह से बुजुर्ग के जिम्मे थी.
गांव में
जो एकमात्र दुकान थी वह जंगल के लोगों को मुफ्त में कपड़े बांटती थी. वह दुकान हर
चीज की दुकान थी. नून, तेल, लकडी से लेकर कपडे तक. दुकान के बोर्ड में छोटे-छोटे अक्षरों में बहुत कुछ
लिखा था. वह एक अनमना, बेतुका सा बोर्ड था, क्योंकी उसे पढ़ने वाला वहां कोई नहीं था. जंगल की संततियां उसे देखतीं.
ताकतीं. उन्हें बोर्ड और दुकान में कोई सूत्र समझ नहीं आता. बोर्ड खराब होता रहा. शब्द
उखडते सीमेण्ट और जंग में खत्म होते गये. दुकान चलती रही . शब्द खत्म होते गये और जंगल
को पता चलता गया कि दुकान में क्या-क्या है. उन दिनों दुकान में एक मुलाजिम अक्सर
आता था, हफ्ते में तीन से चार बार.
वह
मुलाजिम किराने वाले को उन कपड़ों की कीमत अदा करता था, जो वह जंगल के लोगों को दे देता था. सरकार का हुक्म था. हुक्म था, कि जंगल की संततियों को कपडे़ बांटे जायें. सरकार पैसे देगी. जंगल की
संततियों को कपड़ा मुफ्त में दिया जाय. कहते हैं एक दिन उसने किराने वाले को हड़काकर
कहा था कि अगर एक भी नंगा आदमी दीखा तो वह उसे जेल में डाल देगा. किराने वाला डर
गया. जंगल में इतने कपड़े जाने के बाद भी नंगे-अधनंगे शरीर कभी-कभी दीख जाते थे. जब
भी कोई नंगा आदमी दीखता वह उसे अपनी दुकान ले आता और दो-चार जोड़ी कपड़ा थमा देता.
जंगल के
आदमी को अब ठण्ड लगने लगी थी. जैसे-जैसे कपड़े आते गये उसको लगने वाली ठण्ड बढ़ती गई.
वही आकाश, वही जंगल, वही
सूरज, वही चांद.....जाने कहां से तो यह ठण्ड आ रही थी. जंगल
का आदमी अब कपड़े बिछाता, कपड़े ओढ़ता, कपड़े
पहरता तब जाकर ठण्ड खत्म होती.......कपड़े ठण्ड बढ़ा रहे थे. कपड़ों के कारण जंगल की
ठण्ड विकट होती जा रही थी.
किराना
वाला तैलंगाना से आया था. एक दिन किराने वाले के तैलंगाना के गांव में बड़ी भयानक दुर्घटना
घटी. वह अपनी दुकान बन्द कर अपने गांव चला गया. कहते हैं उस दुर्घटना में उसके
परिवार के लोग मारे गये. तो कोई कुछ और बताता. किराने वाला फिर नहीं लौटा. किराने
की दुकान पुरानी होकर जार-जार होने लगी.
जिन
बैलगाड़ियों से लदकर सीमेण्ट जाता था, उसमें जंगल के एक किशोर
को काम पर लगाया गया था. जंगल के किशोर का काम था, गोदाम के
बोरे उठाकर बैलगाड़ी में लादना. वह अपने पास गिट्टियां रखता था. छोटी चिकनी
गिट्टियां. जितनी बोरी बैलगाडी में लदती, उतनी चिकनी
गिट्टियां वह अपने दूसरे हाथ में रख लेता. पूरे रास्ते बैलगाडी में बोरों के ऊपर
बैठा रहता. मुठ्ठियों में चिकनी गिट्टी भींचे रहता. जब बैलगाडी मुकाम पर पहुंचती
वह उन गिट्टियों को वहां के छोटे मुलाजिम को दे देता. छोटा मुलाजिम उन गिट्टियों
को गिनता और बोरों को गिनता और फिर कागजों में लिख लेता. जितनी गिट्टी, उतने बोरे. मिलान हमेशा सही रहता. सारे हिसाब किशोर की मुट्ठिी में भिंची गिट्टी से तय होते. छोटा
मुलाजिम अक्सर किशोर को चेताता. किशोरर सतर्क रहता. वह ठीक से मिलान कर चिकनी
गिट्टियों को हाथ में भींच लेता. पसीने से भीगी मुठ्ठी में वे इस तरह भिंची रहतीं,
कि कभी न गिरें.
जंगल में
गिनती नहीं, जंगल के हिसाब में जोड नहीं,
घटाना नहीं, नहीं हैं अंक ही और इस तरह वह कभी
गलत नहीं होता. जंगल की चेतना बताती है, कि अंक और नंबर
हिसाब को गड़बड़ करने के लिए हैं.
एक रात
किशोर घोटुल के सामने बैठा था. आग जल रही थी. घोटुल का बुजुर्ग जमीन पर बैठा कांप
रहा था. बरसों पहले किराने वाले ने जो चादर उसे दी थी, वह तार-तार हो गई थी. गांव में अब कपड़ा नहीं मिलता था. दुकान बंद हुए
अर्सा बीत गया था. किशोर ने उस बुजुर्ग को एक युक्ति सुझाई, बुजुर्ग
तैयार हो गया.
अगली देर
रात किशोर और बुजुर्ग सीमेण्ट के गोदाम की तरफ़ गये. वह अंधेरी रात थी. पहले
बुजुर्ग ने कहा था, कि दिन में ही चलेंगे. पर किशोर
ने कहा कि यह काम दिन में नहीं किया जा सकता है. उसे पता था, कि बाहर की दुनिया में यह काम रात को ही किया जाता है. देर रात को. गोदाम
के पीछे एक खिड़की थी जिसे ठोक-पीटकर ठीक किया गया था. चारों ओर अंधेरा था. दूर-दूर
तक कोई भी नहीं था.
किशोर ने
कुल्हाड़ी के एक ही वार से खिड़की तोड़ दी. खिड़की औंधे मुंह ज़मीन पर गिर गई. किशोर और
बुजुर्ग गोदाम के अंदर घुस गये. किशोर सीमेण्ट के बोरों की सिलाई कुल्हाड़ी की धार
से काटता जाता. बुजुर्ग सीमेण्ट के बोरे से सीमेण्ट झाड़कर बोरों को अलग से एक तरफ़
इकट्ठा करता जाता. फिर जब पांच बोरे हो गये, तो उसमें से दो बोरा
किशोर और तीन बोरा बुजुर्ग ले गया. बुजुर्ग और किशोर उन बोरों को पहरते, ओढ़ते, उन पर सोते. ठण्ड गायब हो गई.
अगले दिन
सुबह गोदाम पर हड़कम्प मच गया.
गोदाम के
आसपास पाँच छह लोग जमा थे. ये वे लोग थे, जो रोड बनते समय मुलाजिम
के पीछे-पीछे घूमा करते थे. मुलाजिम ज़मीन
पर मुँह के बल पड़ी खिड़की को देखता और गोदाम के बुजुर्ग को डाँटता. अगले दिन शाम
होते-होते पुलिस का एक आदमी भी वहां आ गया. वह बहुत दूर के किसी पुलिस थाने से आया
था. मुलाजिम ने एक आदमी को सुबह-सुबह ही साइकिल पर थाने भेजा था और वह देर रात
पहुंचकर सारा किस्सा वहां के दरोगा को बता आया था. पुलिस का आदमी कभी गोदाम के भीतर जाता, तो कभी बाहर और बाहर आकर एक मोटी सी किताब को बार-बार पलटता. मुलाजिम उस
गोदाम के दरवाजे के पास रखे एकमात्र स्टूल पर सर पकड़े बैठा था. उसने बुजुर्ग को
इतना डांटा कि बुजुर्ग रुआंसा हो गया.
‘हैड साहब. चोर हर हाल में पकड़ा जाना चाहिए.’
वह
बार-बार पुलिस को उंगली दिखा-दिखाकर कह रहा था. पुलिस बार-बार किताब पलट रही थी.
मुलाजिम पुलिस पर झुंझला गया.
तुम्हें
मेरी बात सुनाई नहीं दे रही है क्या?’
‘सर मैं यह देख रहा था कि क्या इसे चोरी कह सकते हैं.’
‘मतलब?’
मुलाजिम
की भृकुटियां तन गईं. पुलिस वाला मुलाजिम को समझाने लगा कि देखिए वे सीमेण्ट तो
यहीं छोड़ गये. वे सीमेण्ट तो नहीं ले गये न. यह सीमेण्ट का ही तो गोदाम है, बोरों का थोड़े है. सीमेण्ट के गोदाम से अगर कोई सीमेण्ट ले जाता तो मामला
बनता. पुलिस वाला जिस थाने में था, उस थाने में वह बहुत दूर
से आया था. जंगल के बहुत बाहर की किसी दुनिया से. वह हतप्रभ था.
‘ऐसी चोरी पहली बार देखी, कि चोर बोरा ले जाये और सीमेण्ट छोड जाये .’
वह फिर
से किताब पलटने लगा. किताब बेहद मोटी थी. किताब में जंगल के कायदे नहीं लिखे
थे दुनिया की किसी भी किताब में जंगल के कायदे
नहीं. जंगल की सोच. जंगली नैतिकता. असभ्य कायदे . बीहड नियम....जिनकी किसी किताब
को दरकार नहीं.
‘ठण्ड न होती तो क्या वे बोरे ले जाते.... नहीं न . जाने दीजिए साहेब.
कितनी भयंकर ठण्ड है. ठण्ड को
बचाने...पाँच बोरे ही तो ले गये न...सिर्फ पाँच.’‘
‘पर चोरी
तो चोरी है.’
‘जो सीमेण्ट छोड जाये वह काहे का चोर साहब ....’
‘आप तो शिकायत दर्ज कीजिये. अपना काम कीजिये .’
‘यह चोरी नहीं है. आप समझिये तो. इतनी ठण्ड में सिर्फ बोरे की शिकायत....आप
खुद सोचिये, बोरे की शिकायत लिखना कितना गलत है.....कितना नृशंस.
बेहद अमानवीय.’
मुलाज़िम ने जंगल की तरफ देखा. कच्चे रास्ते के पार जंगल अनमना सा था. एक पगडण्डी उसमें कहीं जाकर खोती थी. सागौन की धूसर घनी फुनगियों पर आखरी शाम की सिंदूरी आभा ठिठकी थी. वहां कोई आवाज नहीं थी. बहुत ध्यान से सुनने पर कहीं बहुत भीतर से किसी जंगली पंक्षी के किर्राने की आवाज़ आ रही थी. उसने उसके आसपास जमा उन चार-पाँच अर्धनग्न देहों को देखा. वे भावहीन थे. उन्हें उन बातों का ठीक-ठीक पता नहीं था, जो उनके सामने घटित हो रही थीं. पूरी बात के दौरान मुलाजिम बीच-बीच में उनकी तरफ देखता, पर जैसे वे पत्थर के बुत हों, प्रतिक्रयाविहीन. जंगल को चोरी का ठीक-ठीक पता चलने में अभी लंबा समय बीत जाना था. यह अत्यंत अन्यायपूर्ण था कि वह तय करे कि उसे बोरे चाहिए या सीमेण्ट. पर कानून बन चुका था. बाहर की दुनिया की एक किताब भारतीय दण्ड संहिता में लिखा था, कि चोरी अपराध है. हर किस्म की चोरी. बाहर की दुनिया का यह कायदा जंगल पर भी लागू होता था.
‘जाने दीजिये न साहब .’
पुलिस
वाले ने आहिस्ते से कहा .
‘ठीक है .’
साहब के
चेहरे पर एक हताषा, एक हार उतर आई . बुजुर्ग आदमी
साहब के पैर पकड़े गिड़गिड़ा रहा था-
‘हुजूर अब तो हैड साहेब ने भी मान लिया कि यह चोरी नहीं है. मुझे नौकरी से
मत निकालिए. मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं.’
किशोर करीब दो घण्टे से यह सब देख रहा था. वह काफी पहले ही बैलगाड़ी के साथ आ गया था. वह सिर नीचे किये चिकने पत्थरों को एक हाथ से दूसरे हाथ में उछाल रहा था. वे पत्थर जमीन पर नहीं गिरे. उनका जोड-घटाना कभी कम ज्यादा नहीं हुआ. बस पाँच बोरे, सिर्फ पाँच,...और कुछ भी तो नहीं. किशोर को बाहर की दुनिया का कुछ-कुछ पता था. वह बाहर की दुनिया के लोगों को बातें करते, हंसते, झुंझलाते और हतप्रभ होते देखता रहा था. उनके मायने तलाशता रहा था. वे पांच बोरे कभी भी जंगल के बाहर नहीं आये.
पुलिस वाले ने बाद में मुलाजिम को बताया कि, जंगल में जो चोरी है, वह किसी और की चीज को उठाना या बटोरकर ले जाना नहीं है. उसे यह भी लगा, कि अगर जंगल की सुनो तो कितना तो साफ सुनाई देता है, कि जहां खत्म होते हैं इंसानियत के दावे और साफगोई, उसे चोरी कहते हैं. जहां खत्म होती है बाहें फैलाकर अपना लेने की चाहत, उसे चोरी कहते हैं......उसने कहा कि जंगल में चोरी को चोरी को चोरी नहीं मान सकते.
उस रात चोरी के बाद किशोर और बुजुर्ग जंगल जा रहे थे. किशोर ने बुजुर्ग को बताया कि वे जो छोड आये वह सीमेण्ट था. दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्कुराये. बुजुर्ग ने सिर्फ इतना ही कहा कि, कितनी तो फालतू चीज है सीमेण्ट. बाहर की दुनिया के लोग जाने क्या-क्या फालतू बटोरकर रखते हैं.
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10, सुरेन्द्र स्टेट, चूनाभट्टी,
भोपाल(म.प्र.) 462016
अच्छी कहानी.आपको और तरुणजी को बधाई.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कहानी ..... तरुण जी को बहुत बहुत शुबकामनाएं और आपका आभार अरुण जी ....
जवाब देंहटाएंबस्तर के वनवासियों के मनोविज्ञान का आत्मीय चित्रण कहानी को अर्थपूर्ण और पठनीय बनाता है। अच्छी कहानी है।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंआदिवासी जीवन पर शहर के पाँव ....अच्छी कहानी है .
अच्छी कहानी....ठीक से जंगल और शहर का अंतर बताती....
जवाब देंहटाएंयह कहा्नी मार्क्स के साम्यवाद को बखू्बी बयाँ करती है...ताकत के अनुसार काम करना और जरूरत के अनुसार लेना... यहाँ किसी का कुछ नहीं और सभी का सभी कुछ है... बाकी सब तो दुनियाँ की लफ़्फ़ाजी है...
जवाब देंहटाएंवाह जी बहुत ही सधी हुई कहानी अंत तक मासूम बनी रही और ज्ञान पर करारी चोट कर गयी | हम बाहर वाले सच में बड़े चोर है |
जवाब देंहटाएंसमालोचन का आभार एक अच्छी बेहद अच्छी कहानी के लिये और भटनागर साहब को बधाई उनकी संवेदना को नमन |
तरुण भटनागर की कहानी 'बाहरी दुनिया का फालतू' और इससे पहले समालोचना पर ही पढ़ी उनकी एक और कहानी 'धिबरियों की कब्रगाह' बहुत अच्छी कहानियां हैं, ये दोनों कहानियां आदिवासी जीवन की जीती जागती तसवीरें हैं. ये कहानियां ये दिखाती हैं के हमने उन्हें 'सभ्य' बनाने की कोशिश में उन्हें हर तरह से कितना ख़राब आदमी बनाते जा रहे हैं.
जवाब देंहटाएंतरुण के कहानी कहने का अपना अंदाज़ है. उनकी 'ढिबरियों की कब्रगाह' भी पढ़ी थी. यद्यपि कंटेंट ले लेवल पर मेरी कुछ समस्याएँ हैं दोनों कहानियों से पर फिलहाल केवल बधाई. अपनी समस्याओं पर फिर कभी.
जवाब देंहटाएंwah adbhut katha kahi hai jangal ki badhai tarun
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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