मीमांसा : क्या कुछ भी नया घटित नहीं हो रहा











रिचर्ड लेवन्टिन (तुलनात्मक जीव विज्ञान) और रिचर्ड लेविनास (जनसंख्या विज्ञान) हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं. संयुक्त रूप से लिखे गए Biology under the Influence (२००८) नामक अपनी पुस्तक में लेखक द्वय ने आनुवंशिकी, सामाजिक असमानता, प्रकृति से अलगाव, विकास आदि मुद्दे को बड़े परिप्रक्ष्य में देखा है. युवा कवि और अनुवादक मनोज कुमार झा ने इस पुस्तक के एक हिस्से का अनुवाद किया है.    



क्या कुछ भी नया घटित नहीं हो रहा            


ईसा पूर्व दूसरी या तीसरी शताब्दी की किताब एक्लेससिएटिस के  थक चुके और हतोत्साहित लेखक ने दर्ज किया था कि ‘‘इस धरा पर नया कुछ भी नहीं है और सब कुछ मिथ्याभिमान है’’. बहुत समय नहीं बीता जब फ्रांसिस फुकोयामा ने कहा था कि पहले नई चीजें शायद घटित हो लिया करती थी पर अब इतिहास का अंत हो चुका है. इन दोनों के बीच की अवधि में चातुर्यपूर्ण भाषा में अनेकों बार यह दुहराया गया कि आप मानवीय स्वभाव को नहीं बदल सकते. यह दावा कि कोई परिघटना मूलगामी रूप से नई है या कुल जमा वही पुरनी दास्तान है, यह किसी सामान्य विचारधारा से जन्म नहीं लेती बल्कि हर मामले में कुछ विशिष्ट काम करती है.  कुछ मामलों में जो लोग परिवर्तन नहीं होने को श्रेयस्कर समझते हैं या कुछ लोग जो परिवर्तन के पक्ष में सिर्फ इसलिए होते हैं कि प्रयासों की निष्फल होते देखें, ऐसे लोग अलग-अलग समय के ऐसे पहलुओं के तलाश में रहते हैं जो सामान दिखे ताकि ये फर्क को झुठला सकें. मसलन इस बात को सिद्ध करने के लिए कि उद्यमिता मानवीय स्वभाव का मूलभूत एंव अपरिवर्तनीय गुण है, ये लोग वस्तुओं के किसी तरह के आदान-प्रदान को व्यापारकह बैठते हैं और सभी तरह के व्यापार को पूंजीवदी विनिमय मान लेते हैं. इस तरह आल्पस पर्वत पर किसी नरकंकाल के पास उसकी जरूरत की तुलना में ज्यादा चकमक पत्थर को मिल जाने को या दो क्यूबाई नागरिकों के द्वारा राशन से मिले सामानों को अपनी जरूरत के हिसाब से अदल-बदल लेने को व्यापार के प्रति मनुष्य की सार्वभौमिक प्रवृत्ति से जोड़ दिया जाता है. (मैं यह भी अनुमानित करना चाहूँगा कि इसके लिए जीन के उसी क्रोमोजोम को दोषी ठहराया जाएगा, जिसको परीक्षा में चोरी करने या अजनबियों पर अविश्वास करने के लिए दोषी ठहराया जाएगा!) इस परिप्रेक्ष्य में सोवियत रूस और कुछ नहीं था, यह जार के साम्राज्य की निरंतरता में ही था, और सारी क्रांतियाँ बराबर होती है क्योंकि वो शासको के एक समूह को दूसरे समूह के द्वारा पदच्युत करती है. फिर भी यह प्रतीत होता है कि बुर्जुआ मंडनकर्ताओं ने अपनी विचारधारा के बरखिलाफ यह बात स्वीकार किया है कि पूंजीवाद क्रांतिकारी परिवर्तन से गुजर चुका है जिसके तहत प्रबंधकीय क्रांति के प्रतिफल के रूप में पूंजी के मालिकों को टेक्नोक्रेटों के द्वारा पदच्युत कर दिया गया है.


बेशक, यह हमेशा संभव है कि परिघटनाओं के बीच समरूपता या असमानता में से क्या देखा जाए. डार्विन के उद्विकास का सिद्धान्तीकरण इन दोनों के आधार पर होता है जहाँ समरूपता एक समान पूर्वज परंपरा को प्रगट करती है एवं उन सीमाओं को निर्धारित करती है जिसके भीतर विभेदन संभव हुआ वहीं असमानता ऐतिहासिक फर्क को व्यक्त करती हैं.


यदि केवल भिन्नताएं ही रहती और सभी जीव इतने अलग होते कि कोई भी सामान्य लक्षण नहीं दिखते तो निरीक्षणों के परिणामस्वरूप उद्विकास की अवधारणा के बजाय विशिष्ट सृष्टिकी अवधारणा पुष्ट होती.


हमें जो काम करना है उस आधार पर उपयुक्त सिद्ध होता है कि हम समरूपता या परिवर्तन में से किस पर बल दें. हम समकालीन पूंजीवाद पर गौर करते हैं तो शोषण एवं लाभ के दोहन का तथा उत्पादन के साधनों को बदलने को संपत्ति निर्माण का मुख्य स्रोत पाते हैं एवं सर्वत्र वस्तु-विनिमयमूलक सम्बन्ध की व्याप्ति देखते हैं. पूरी व्यवस्था को चुनौती देने के परिप्रेक्ष्य में देखें तो निरंतरता के ये तत्त्व घटित हो रही नई घटनाओं से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. नई घटित हो रही घटनाओं में सूचन उद्यांग का उत्थन एवं पाररष्ट्रीय निगमों का उद्भव आदि है. लेकिन जब हम रणनीतियाँ तैयार करेंगे तो हमें अपने विस्तार-कौशल को बढ़ाना होगा एवं संगठन निर्माण के नए अभिलक्षणों पर ध्यान देना होगा जैसे कि सीमाओं के आर-पार एकात्मकता की आवश्यकता को ध्यान में रखना होगा. साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि अमेरिका का कमजोर हो रही आर्थिक शक्ति किंतु प्रथम स्थान रखने वली सैन्य शक्ति है जो इस समस्या से जूझ रही है कि अपनी सैन्य शक्ति को अपनी अर्थव्यवस्था की सेवा में कैसे इस्तेमाल करे.


यह दावा कि कुछ नया घटित नहीं हो रहा है, सामाजिक एवं राजनैतिक कारवाई के विरोध में इस्तेमाल किए जाने बाली सामान्य युक्ति है. इसके तहत कहा जाता है कि वर्तमन स्थिति प्रकृति का नहीं बदलने वाला तत्त्व है या फिर यह कहा जाता है कि किसी कारवाई की आवश्यकता नहीं है क्योंकि चीजें उससे भौतिक रूप से अलग नहीं हुई है जैसा कि वे पहले थी. इन सकीर्णतावादी खयालों का सबसे सक्रिय असर इन दो क्षेत्रों में देखा जा सकता है, जिसके बारे में जनता की चेतना क्रांतिकारी ढ़ंग से बढ़ रही हैं. ये दो हैं- समाजिक असमानता और पर्यावरण की क्षति. असमानता की समस्या फ्रेंच क्रांति के समय से ही बुर्जुआ जीवन विधि से उत्पन्न असल समाजिक वेदना का श्रोत रहा है. इसके प्रतिपक्ष में उठए जानेवाले माँगों को बुर्जुआ समाज असंभव करता आ रहा है और दावा करता रहा है कि नए ढ़ंग के समाजिक संबंध जैविक रूप से असंभव है क्योंकि मनुष्य का स्वभाव ही प्रतियोगिता मूलक, आक्रामक एवं आत्मकेन्द्रित रहा है जो कि इसने उद्विकास के क्रम में मानवेत्तर पूर्वजों से प्राप्त किया है.

ये दावा करते हैं कि मानव जाति के उद्विकास के दौरान कुछ भी नया नहीं घटा. वे तब भी कहते हैं कि कुछ भी नया नहीं हो रहा है, जब हम इस पर चिंता जाहिर करते हैं कि जिस रूप में और जिस पैमाने पर संसाधनों का दोहन हो रहा है वह भविष्य में मानव जति के लिए भौतिक रूप से उपयुक्त जीवन को असंभव बना देगा. और ये ऐसा मनुष्य के लिए ही नहीं कहते हैं. इनके द्वारा कहा जाता है कि दूसरी स्पेशीज भी अपने जीवन के लिए आवश्यक संसाधनों का उपयोग करते हैं, सभी जीव वज्र्य पदार्थ उत्पादित करते हैं जो कि इनके लिए घातक होता है. और फिर विलोप को लेकर इतना शोर-शराबा क्यों ? आखिर जीवों की इस पृथ्वी पर उपस्थित 99.99 प्रतिशत स्पेशीज विलुप्त हो चुकी है और अंततः सभी को विलुप्त हो जाना है.

तर्कों की ये दोनों श्रृंखलाएं उन कुछ आधारभूत ताकतों के वर्तमान क्रियाकलाप पर अतिरिक्त बल देती है जो कि विगत इतिहास के भी चालक तत्त्व रही हैं और अतीत के साथ वर्तमान के सातत्य को रेखांकित करती हैं. इन बातों को जोर देकर कहने के क्रम में उन गतिशील व्यवस्थाओं के सारभूत लक्षणों को भुला दिया जाता है जो कि सातत्य एवं अंतर्निहित समरूपता के बाबजूद नवीनताओं की घटने की संभावना को अक्षुण्ण रखती है. माना सभी स्पेशीज संसाधनों का उपयोग करते हैं, लेकिन मनुष्य का वंश इस रूप में अलग है कि इसके उपभोग के केन्द्र में ऐसे ईंधन और खनिज हैं जो एक बार उपभुक्त हो जाने के बाद पुनः मूलरूप में नहीं आ सकते. यहाँ यह कहना होगा कि आजकल जीवन जगत के उन क्षेत्रों को भी शामिल किया जा रहा है जो अबतक अछूते थे जीवन जगत के वे क्षेत्र जो कभी संपर्क में नहीं आए थे वे भी मनुष्य के द्वारा एक दूसरे के सम्मुख रख दिए जाते हैं एवं अंर्तक्रिया करते हैं.

मनुष्य के द्वारा संचालित अधिकांश रसायनिक प्रक्रियाएँ पहले घटित नहीं हुई थी क्योंकि प्रतिक्रियाओं में भाग लेने वाले अभिकारक पहले संपर्क में नहीं आए थे. फिर गतिशील व्यवस्थाएं एक खास बिन्दु के बाद उस अवस्था के प्राप्त कर लेती है जहाँ सामान्य नियम बदल जाते हैं. जैसे कि एक छड़ी पर लगाए जाने वाले बल को लगातार बढ़या जाए तो पहले तो मुड़ेगी लेकिन बाद में टूट जाएगी. इसलिए नवीकरणीय संसाधन भी उत्पादन और उपभोग के निम्न दर पर व्यवस्था के संतुलन को बनाए रख सकती है लेकिन अत्यधिक उपयोग विनाश को जन्म दे सकता है. वैसे कभी-कभी क्रांतिक विन्दु पर घटने वाली घटनायें रोचक नवोन्मेषों को भी जन्म देती हैं जैसे कि हमारे प्राकमानवी पूर्वजों के केन्द्रीय स्नायुतंत्र में लगातार वृद्धि होती गयी और स्नायुतंत्र का जाल और सघन होता गया तो मस्तिष्क कुछ नए कार्य करने में सक्षम हुए जैसे कि वे भाषाई क्रियाकलाप भी करने लगे जो हमारे मानवेत्तर पूर्वजों को हासिल नहीं था.

कहा जाता है कि जब गैलीलियो को अभियोग लगानेवालों के समक्ष लाया गया तो उन्होंने धीरे से बुदबुदाया कि पृथ्वी अब भी घूमती है. पता नहीं उसने वास्तव में ऐसा कहा या नहीं, या ऐसा मानना प्रगतिशील परिवर्तन की गाथा को बल देता है. द्वंद्वात्मकतावादी बेहतर जानते हैं.
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मनोज  कुमार झा
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित
चाम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक आदि के लेखों का अनुवाद  
एजाज अहमद की किताब रिफ्लेक्शन आन आवर टाइम्सका हिन्दी अनुवाद  
सराय / सी. एस. डी. एस. के लिए विक्षिप्तों की दिखनपर शोध 
ई पता : jhamanoj01@yahoo.com

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  1. मनोज जी को अच्छे अनुवाद के लिए बधाई.

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  2. Biology under the Influence जैसी पुस्तक के अंश का अनुवाद आसान नहीं है. पारिभाषिक शब्दावली का हिंदी में अभी भी अभाव है. और कई शब्द जिनका लिप्यान्तरण हुआ है वे बहुत दुरूह हैं..ऐसे में अनुवाद अपनेआप में चुनौती हो जाता है. मनोज जी ने इसे सफलतापूर्वक पाठकों तक पहुँचाया है. अरुण आपका तो हर बार आभार..

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  3. जय शंकर तिवारी21 अक्तू॰ 2012, 6:17:00 pm

    मनोज जी को साधुवाद ,इसलिए कि उन्होने हिन्दी मे विश्व ज्ञान की हवा आने के लिए छोटी ही सही खिड़की खोलने का प्रयत्न किया है

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  4. शरीर, मन, समाज, राजनीति, अर्थशास्‍त्र और कई अन्‍य विषय-संदर्भों को लक्ष्‍य कर लिखी विस्‍तृत रचना को यहां इस तरह अत्‍यंत अल्‍प-अधूरे अंश में पढ़कर कदाचित् क्‍लेश ही हुआ। कोई व्‍याख्‍या अपने आधार-कोण तक नहीं खोल पा रही। मेरा आग्रह है, बड़े संदर्भ की सामग्री दी जाए, तो यथेष्‍ट परिमाण की स्‍वाभाविक और प्राय: अनिवार्य अपेक्षा भी पूरी की जाए। ..दुनि‍या के दूसरे हिस्‍सों में साहित्‍येतर जगत में चल रहे विमर्श को हिन्‍दी में प्रस्‍तुत करने के 'समालोचन' के लक्ष्‍य, ललक और दृष्टिकोण बेशक प्रशंसनीय हैं , किंतु मेरे ख्‍याल से यह काम अभी कुछ और उद्यम-प्रबंध की मांग कर रहा है। आशा है, अन्‍यथा नहीं लेंगे। अनंत शुभकामनाएं..

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  5. मनोज अपने अनुवादों में मौलिकता-की-सी आभा पैदा करने के लिए सतत सन्‍नद्ध रहते हैं। हमारी बधाई ऐसे नेक काम के लिए।

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  6. यह किताब का एक पूरा लेख है।यहाँ किसी तरह की अंतिम बात कहने के बजाय लेखकोँ ने सोचने के एक खास ढंग के साथ जीवविग्यान से लेकर समाजशास्त्र तक के भू-वैशिष्टय के साथ यात्रा की है ,मेरी नजर मेँ यही इन लेखकोँ की सफलता है।

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