सहजि - सहजि गुन रमैं : शंभु यादव

पेटिग : Salvador Dali




शंभु यादव सामंती समाज और पूंजीवादी संस्कृति पर अपनी कविताओं से चोट करते हैं. 
यह खट खट देर तक गूंजती रहती है. 
वे ख़ास के बरक्स आम की असहायता को देखते हैं और अक्सर उसे अभिधा में कहते हैं. 
जन की विनोदप्रियता और प्रतिकूल स्थिति में भी जीवन का उजास इन कविताओं में है.






नाकामयाब

वो खूब हंसे मुझ पर 
फब्तियाँ भी कसी
और एक ने कह ही दिया आखिरकार -
लगता है भईया
किसी गुजरे ज़माने से आये हो

यह तब की बात है 
जब मैं एक शॉपिंग प्लाजा में
अपनी एक पुरानी बुशर्ट के छेद को
बंद कराने की इच्छा में ढूंढ रहा था
एक अदद रफ़ूगर.



वे तीन जन

एक आया था पहाड़ पार करके
दूसरा रेत के टीलों से  
तीसरे के यहाँ हरे-भरे मैदान और बहुत से तालाब
तालाबों में मछलियाँ

तीनों खडे़ हैं मज़दूर मंडी में

एक सुरती खाता है
दूसरा फूँकता है बीड़ी
तीसरा नाक के पास नसवार ले जाकर
जोर से खींचता है साँस

आपस के सुख-दुख
एक का बच्चा पाँचवी पास कर गया है
गाँव में प्राइमरी से आगे स्कूल नहीं
आगे की क्लास के लिए चार कोस दूर जाना होगा

दूसरे की बिटिया के बेटा हुआ है
बड़ा खर्चा आन पड़ा है

तीसरे की माँ के पेट की रसौली का
दर्द मिटता ही नहीं

उनकी बातों में 
सूखे, बारिश और फसल का 
अपने-अपने यहाँ के स्वाद और रंग का
जेठ की गर्मी और पाले का जिक्र होता है

तीनों जब-जब अपने गाँव जाते हैं
बसकर वहीं रह जाना चाहते हैं 

परन्तु काम न चल पाता है मनरेगा से भी
तीनों फिर वापस आ लगते हैं महानगर


रोज़ कोई न कोई दुकान
तबदील होती हुई शो रूम में
सड़कें अघायी गाड़ियों की कतारों से

ये तीन जन
तीन दिन से बगैर काम के
आज पिछले दिनों से भी कम दाम पर
बिकने को तैयार हैं.



 जीने का एक नियम

मेरे बेड के सिरहाने में बने रैक पर बिखरी किताबें

मैं लेटा था बेड के बीचों-बीच
बंद आँखों के पटल पर
कभी दाएं तो कभी बाएं
कभी ऊपर तो कभी नीचे
उभर रहे थे झिलमिल-झिलमिल बहुत से रंग
बाएं ओर का लाल रंग सबसे उदीयमान था
वाम-वाम लिखा आया कुछ उजला-सा
और अवचेतन से भी एक छवि 
आँख के पर्दे पर चस्पां हुई- 
शिव की बांयी जंघा पर विराजमान पार्वती...
मैंने अपनी अर्द्धांगिनी से ऐसा ही कुछ करने को कहा
इतने नाहर ना बनो,
सूकड़े आदमी
कहीं हड्डी चटक गई तो
सब कुछ मुझे ही झेलना पड़ेगा
मेरी पत्नी ने जवाब मारा
मैं चुप...  

घर के बाहर जाते एक बैल की पूँछ मरोड़ने लगा
मैं ऐसा करते हुए निश्चिंत था
क्योंकि मैं जानता था कि
बैल मरखना नहीं  है
बैल परेशानी और डर में दौड़ने लगा
पैरों को तेजी से ऊपर-नीचे मारता
मुझसे पीछा छुड़वाने की कोशिश करना 
उसका  ध्येय बना
मैं और अधिक ज़ोर से
उसकी पूंछ मरोड़ता आनंद  में था
एकदम से बैल रुका, अधिक डरा लगा
मैंने देखा
हमारे सामने कुछ दूरी पर
एक भारी भरकम साँड खड़ा था
बैल वापस पलटा और भागा 
मुझे चुनौती देता-सा
हिम्मत है तो इसकी पूँछ मरोड़ो.

मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम
मैं जानता था
साँड मुझे धर  देगा
मैं उससे डर
वापस खिसक आया
ऐसी परिस्थितियाँ बनने पर खिसकना 
जीवन जीने का एक नियम बना.


 अभाव

पक्षी गायब हो रहे हैं दिन-ब-दिन, क्यों?
एक केले पर कई बंदरों की झड़प

काम से निकाले गए आदमी के परिवार की पीड़ा
और उस क्षण का संभावना बनने की उम्मीद में एक कैमरा
कि यह परिवार आत्महत्या करने की सोच ले

बरती जानेवाली चीज़ों का बरकत से बरतना 
वीकली बाज़ारों के पते
देर रात सब्जी की ढेरी पर बोली लगाना
चोर बाजार की राह 

उधार मांगने पर पड़ोस की दुकान से
अपमानित होने का भय
अभाव में 
बाजार की लुभावन चीजों पर
और भी ललचा उठती हैं आंखें

मुफ़लिस के गले में पड़ी रस्सी का मर्म
कैसे समझेगा देश का शासन.


 पानी व जीवन की साँस की कहानी       
       
यह सभ्यता के विकास के सबसे शुरुआती जमाने की बात है. स्थाई बस्तियां बसने लगी थीं. पानी के वास्ते आदमी ने पहला कुआं खोदा. पानी के वास्ते जमीन खोदता आदमी पाताल को. खोद में एक बौना प्रकट हुआ. मेमने-सा मुलायम बौना. आदम हवा पाते ही मर गया. बौने की मृत देह का संस्कार किया. पानी भर आया कुएं में. सबसे मीठा पानी. कहावत विकसित हुई धरती के नीचे एक लोक है-पाताल लोक. पाताल लोक में बौनों का वास.

यह बात अच्छी तरह समझ ली सबलों ने और वे जब भी धरती के जिस भी हिस्से को कब्जाते, वहां खोदते कुआं तो खुदते गड्डे में  अपने घुड़सवार सैनिकों को पाताल लोक में दौड़ा देते ताकि बौने हाथ लग जाएं. जितने ज्यादा बौनों की आहुति, उतना ही ज्यादा पानी और सबसे मीठा. सबल उसको जी-भरकर भोगते यह सिलसिला चलता रहा युगों युगों तक. और एक दिन ऐसा आया उन्होंने सारी पृथ्वी को कब्जा लिया और पाताल का चप्पा-चप्पा रौंध डाला. बौने मिलना बंद. कुओं में अब सिर्फ गाद मिलती थी. आदम की नई नस्ल ने बेचारी बुढ़ियाती नदियों में तेजाब भर दिया. धरती के रो-रो आँसू सूख गए‐‐‐‐‐‐‐‐

ऊपर लिखा हुआ
उस फिल्म की कहानी में
फ्लैश बैक का एक हिस्सा है
जिसको देखते हुए मैं
भविष्य की एक बस्ती में था 
समाज वहां का लगभग एकदम अराजक 
सूखा मौसम, हवा में पारा गर्म 
आसमान का रंग कुछ ऐसा था जैसे
उड़ती रेत के बीच डूबते सूरज की शाम में होता है
धूल घरों, सड़कों और सीन के सभी हिस्सों में जमी थी
और सभी चेहरों पर भी
सभी पात्र बगैर नहाए प्रतीत होते थे
कोई उजला कपड़ा किसी शरीर को नहीं पहने था
सभी गहरे रंग के अधिकार में समाए थे
मानवों के होंठ या तो सूख चूके थे या
सूखने के कगार पर .......
एक बुढ़िया की जीभ उसके मरने से पहले 
लगभग छः मिनट तक उसके सूखे होठों पर फिरती दिखाई गई
एकदम क्लोज-अप में...

एक दृश्य में लूट का प्रोग्राम बनाने में लगा था एक गिरोह
उसके सभी सदस्य हथियारों सें लैस थे
उन हथियारों की बनावट आजकल के हथियारों से अलग थी
वह पहुँच गए  पानी के राशन की दुकान पर
वहाँ मरगले आम आदमी की लाइन लगी थी 
जैसी लाइन घासलेट के लिए देखी जाती रही है हमारे यहाँ 

पानी की दूकान का मालिक या कहें  लाला 
काकेशियन मंगोलियन मिक्स ब्रीड शक्ल में 
अपने सिर पर अंकल सैमवाला हैट पहने था
फिल्म में दिखलाया था कि वह पानी का बहुत बड़ा ब्लैक-मार्केटियर है
उसके चेहरे पर उभरती कुटिलता 
कन्हैयालाल अभिनीत कुटिलता से कहीं ज्यादा भयानक थी
लाला के लठैत पानी के लिए सुरक्षाकर्मी
उनके हाथों  में गिरोह के लोगों जैसे ही हथियार 
दोंनो ओर से लेजर-किरणों का आदान-प्रदान शुरु हो गया, फिचक्-फिचक्
शरीरों को भेदता हुआ
लेजर किरणें उन टैंकरों से भी जा टकराई, जो बेशकीमती पानी से भरे थे
फूट गए छेदों में से पानी की धाराएं बह निकलीं
बूंद बूंद उछलता पानी
सफेद हीरे हवा में नाच रहें हो जैसे
और उनको पा लेने के लिए
आसमान को लपकती अतृप्त आम आदमी की जीभें
हासिल हो हिस्से कुछ सुख
बीथोवन की नाइन बैक-ग्राउंड में बजती

लाला की पिस्टल से निकली लेजर-किरणें 
एक के बाद एक आम आदमी के शरीरों को भेदने लगी
शरीर ढेर हो रहे थे एक के ऊपर एक 
यह सब कुछ एकदम स्लो-मोशन में था 
अचानक एक पुराना खंजर लाला के सीने में घुस गया
बचे आम आदमी ने संतुष्टि  की सांस ली

असद खाँ साहब की रुद्रवीणा से निकला
जीवन का गहरा नाद यह साँस... 


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शंभु यादव : 
11 मार्च  1965 (जैसा कि स्कूल के मास्टर जी ने लिखा)
बड़कौदा (जिला महेंद्रगढ़ ), हरियाणा.
बी. काम.एम.ए. (हिंदी) 
कुलवक्ती कवि, जीवन यापन के लिए पत्नी पर निर्भर  
कुछ कविताएँ 'कल के लिए' 'आवर्त' 'वसुधा'  'अनभै सांचा' 'नया पथ' पत्रिकाओं कें छपी हैं.
'जानकी पुल' 'उड़ान अंतर मन की' 'असुविधा ' आदि पर भी  
ई पता : shambhuyadav65@gmail.com/ 09968074515  

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  1. "नाक़ामयाब", "अभाव" और "वे तीन जन" अच्छी लगीं. दैनंदिन जीवनानुभवों को सीधे-साफ़ ढंग से बयान किया है, शंभु यादव ने. इधर उनकी कविताएं जगह-जगह दिखने लगी हैं, यह सुखद है.

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  2. शंभु यादव हमारे समय के बेहद ज़रूरी कवि हैं। उनकी काव्‍य चिंताओं का संसार हमारी अपनी चिंताओं का संसार है। एक ठेठ हिंदुस्‍तानी आदमी इस भूमंडलीकृत समय में कितना निरीह और लाचार है कि जिसकी चिंता किसी सरकार को नहीं है और कवि उसके पीछे भागे जा रहा है... उसके दुख, दर्द और तकलीफों के ग़म में पगलाया हुआ अपने समय के सच को बयान करने की कोशिश करता हुआ... अकलात्‍मक होने के सारे ख़तरे उठाता हुआ... मेरी पसंद की कविताएं हैं ये... बधाई शंभु भाई को और आभार समालोचन का...

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  3. आपकी कवितायें अदभुत रूप से सुन्दर और नई तो हैं ही .. यथार्थ से संवेदना के तल पर भी मधुरता से जुड़ी हुई हैं .

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  4. शम्भू यादव की कवितायेँ सीधी बात को खरी जबान में कहती हैं ! आम आदमी के सरोकार कि ये कवितायेँ व्यवस्था से सीधी मुठभेड़ करती हैं ! शम्भू जी को बधाई और अरुण जी का आभार !

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  5. '....ऐसी परिस्थितियां बनने पर खिसकना,
    जीवन जीने का नियम बना '

    बेहद गहराई है आपकी कविताओं में

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  6. कवि शम्भु मेरे मित्र हैं, उनकी वर्गीय प्रतिबद्धता और धारधार प्रतिक्रिया उनके व्यक्तित्व में निहित विनम्रता के साथ मिल कर उसी सौन्दर्य का सृजन करती हैं, जो इन कविताओं में से झिलमिला रहा है. मैं ऐसे सक्षम साहित्यकार और परिवर्तनकामी साथी की मैत्री पर गौरवान्वित हूँ. गिरिजेश

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  7. शंभु यादव जी को सबसे पहले असुविधा में पढ़ा था. सीधी और ज़मीनी कविताओं ने आकर्षित किया था. चिंताओं और सरोकारों से जुड़े इस कवि ने निश्चित रूप से संपादक,लेखक और पाठकवर्ग को प्रभावित किया है. समालोचन पर उनकी कविताएँ पढ़ीं. अच्छी कविताएँ. उनकी रचनाशीलता बनी रहे.. शुभकामनाएँ.

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  8. शंभु जी बहुत सचेत कवि लगते हैं. उन्होंने अपनी कविताओं को सायास चमत्कारिक विम्बों और अति-उक्तियों से बचाया है.यह एक कवि का अपनी संवेदनशीलता पर भरोसा ही है.

    इन अच्छी कविताओं के लिए शंभु जी और अरुण जी को बहुत बधाई.

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  9. शम्भू यादव जी की कविताओं में आम जन और जीवन की ईमानदार अभिव्यक्ति है .
    'नाकामयाब' और 'वे तीन जन' खास पसंद आयी.

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  10. तीनों कवितायें अच्छे भावों और मर्म को सहज सरल ढंग से समझाने मे सक्षम हैं।

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  11. हाल फिलहाल इतना बढ़िया टुकड़ा नहीं पढ़ा कहीं.. मेरे आत्मीय श्री शम्भू यादव अपनी कविताओं में अपने आम सरोकार से शिद्दत से जुड़े नजर आते हैं.. बहुत बहुत स्वागत है कविता के इस स्वर का ..

    वो खूब हंसे मुझ पर
    फब्तियाँ भी कसी
    और एक ने कह ही दिया आखिरकार -
    ‘लगता है भईया
    किसी गुजरे ज़माने से आये हो’

    यह तब की बात है
    जब मैं एक शॉपिंग प्लाजा में
    अपनी एक पुरानी बुशर्ट के छेद को
    बंद कराने की इच्छा में ढूंढ रहा था
    एक अदद रफ़ूगर.

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  12. पहली कविता पढ़कर ही यह कमेन्ट कर रहा हूँ...सब पढने कई बार लौटूंगा

    एक जो मेटाफर ढूंढा है कवि ने रफूगर का वह इस छोटी सी कविता को प्रतिरोध के एक ऐसे बड़े स्वर में बदल रहा है जहाँ यूज एंड थ्रो के बरक्स टूटे सुजन मनाइए की तर्ज़ पर बिगड़े हुए को सुधारकर फिर अपनाने की जिद है...यह पुराने जमाने का आदमी दरअसल एक बेहतर नया ज़माना बनाने की जद्दोजेहद में है...

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  13. शंभू जी... अपने वक्त की परछाइयां इन कविताओं में कैद हो गयी है.. ये कवितायें इतिहास की तरह पढी और याद रखी जायेंगी.जितना कहूं कम है...आपको और पढ़ना चाहूंगी.

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  14. लीना मल्होत्रा राव21 सित॰ 2012, 9:52:00 am

    ये कवितायें बरबस ही मन की उस मिटटी को कुरेदती हैं जिन्हें संवेदनाओ की नमी की दरकार है रफू करने की कमीज़ का बिम्ब उसी बाजार को आईना दिखा रहा है जिसने गैर ज़रूरी चीजों से हमारे घर को भर दिया है .. बचपन में एक छोटे से बक्से में हमारे कपडे आ जाते थे लेकिन अब अलमारियाँ भी कम पड़ती हैं.. बदलते समय को चिन्हित करती ये कवितायेँ उस आम आदमी की तरफ मुद् जाती हैं जो बाज़ार की चकाचौंध में कम मूल्य पर बिकने को तैयार है.. शम्भू जी को बधाई..

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  15. शम्भू यादव की कविताये यथार्थ का सटीक चित्रण है.इतना आसन नहीं है इनपर कोई चलते -फिरते टिपण्णी करना.जिसने अभाव-भाव को साक्षात् देखा है वाही कुछ कह सकता है.कविताओं को बार-बार पढने और समझने पर कवी का सचाई बयां करता एक एक शब्द सीधे दिल में उतर जाता है......!"समालोचन का आभार ....सुंदर रचनाओं को प्रकाशित करने के लिए.

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  16. मुकम्‍मल बयान सी इन कविताओं से गुजरना विचलित कर देने वाला अनुभव रहा... इस विचलन की बहुत जरूरत है...

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  17. vey teen jan , bahut achi kavita hain. Shambu ji ne apne samay ke yatharth ko khubsurthi se pakda hain

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  18. शम्भू यादव जी की रचनाएँ सीधे दिल से निकलकर दिल तक पँहुचती हैं, उनमे ' ह्रदय ' जैसे शब्दों की भी गुंजाइश नहीं....

    सादर

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  19. नरेंद्र तोमर22 सित॰ 2012, 4:28:00 pm


    भोगे हुए जीवन के व्‍यापक यथार्थ को नए सशक्‍त बिंबों में सामने लातीं और सोचने को उकसाती भडकाती हैं आपकी कविताएं । बहुत बहुत बधाई।

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  20. सरोकारी कवितायेँ !

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  21. शम्भुजि, बहोत अछा लिखा हे. इसबार आपने साधारण लोगो कि असधारण बातो को व्यक्त किया हे, पढ़कर अछालगा. मुजे 'वे तीन जन' ओर 'अभाव' सबसे अछी लगी. मजदूर समुदाय का सहि विवरण अछा लगा, एक लाइन याद आ गई 'गली के हर पेड़ के फल पर अपना नाम होता, हर नालि - नाले ओर नल में शुध् जल होता, वोह तो मज्दुरो का उठ गया भरोसा वरना हर गली में एक 'ताजमहल' होता.

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  22. ये कवितायेँ इस बात का प्रमाण हैं कि जहाँ जीवन कि सघनता होती है वहां कलाबाजी की जरूरत नहीं होती है. ये कविताये जीवनानुभव से पैदा कवितायेँ हैं.बरबस पाठक को लोक जीवन से जोड़ती हैं.

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  23. बेहतरीन कविताएँ ...जीवन और सरोकार जब कविताओं में मिलते हैं , तभी इतनी गहराई आ पाती है ...बधाई आपको

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  24. नाकामयाब, ये तीन जन और आभाव ये तीनो कवितायेँ मुझे काफी पसंद आयी एक आम आदमी की जीवन यापन को लेकर उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों को बडे ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है शम्भू साहब ने

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  25. पहली कविता तो मनमोहन के F D I का पोल खोल रही है .साथ ही उसके सामने प्रश्न भी खड़ा कर रही है

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  26. मैं अपने अग्रजों और साथियों का शुक्रगुज़ार हूँ ....आप सब ने इन कविताओं को इतना सराहा ..मुझे प्रोत्साहित किया ....मैं भविष्य में कुछ अच्छा कर पाऊं , इसके लिए आप सब का मुझ पर स्नेह बना रहे .......बहुत-बहुत आभार ...

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  27. भाई शंभु यादव की ये कविताएं इस तथ्य की जीवंत मिसाल हैं कि सादगी और साफगोई, ताजगी और रवानगी सघन जीवन-अनुभवों से ही उपजती हैं. इन कविताओं से गुजरने पर मेरे कई संचित अनुभव फिर सिंचित हो गए... इन कविताओं को मैं बार-बार पढ़ रहा हूँ. भाई अरुण देव को भी धन्यवाद...

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  28. बहुत ही सरल और सहज शब्‍दों में मर्मभेदी बाण की भांति चमक दमक के आवरण में लिपटी बाजार व्‍यवस्‍था के घिनौने कारनामों और हासिए पर जीने वालों पर पडने वाले बुरे परिणामों को यादव शंभु जी की ये कविताएं उद़घाटित करती हैं......उनको और समालोचन दोनों को इतनी अच्‍छी कविताएं पढाने के लिए धन्‍यवाद.

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  29. सरलता , साफगोई और ईमानदारी --इन कविताओं में कविता के तीन सब से कठिन गुणों की झलक है . जहां रूपक का मोह सब से कम है , वहीं कविता की धार सब से तीखी है . जब कभी किसी माल में कदम पड़ेंगे , तय है कि अपनी नज़रें अब हमेशा किसी रफूगर के लिए भटकेंगी .

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  30. शंभू जी से मुलाक़ात बहुत पुरानी नहीं है, न फेसबुक पर, न इन्टरनेट पर और न ही व्यकितगत रूप से. तीनों ही तरीके से मिला हूँ इनसे पर यही कुछ पिछले तीन-चार महीनों में ही. मैं यह इसलिए लिख रहा हूँ कि मैं शंभू यादव को जानने के बाद उनकी कविता तक नहीं पहुँचा अपितु शंभू यादव की कविताएँ पढ़कर शंभू यादव तक पहुँचा. यह किसी भी कवि की कविता की सफलता ही कहलाएगी कि उसका पाठक उसकी कविता को पहले पढ़ता है और कविता पसंद आने पर कवि को ढूंढता है. शंभू जी की कविताएँ, जहाँ तक मुझे याद है, पहली-पहली बार 'जानकिपुल' पर पढ़ी थी और उस पर कुछ टिप्पणी भी दी थी. उससे पहले मैं शंभू यादव को नहीं जानता था. मेरी टिप्पणी के बाद शंभू भाई का मेल आया, शुक्रिये से भरा हुआ और हमारी बात-चीत आगे बढ़ी. किंतु उनसे व्यक्तिगत रूप से हुई मुलाक़ात तो एक सुखद आश्चर्य की तरह हुई. पिछले दिनों बल्ली सिंह चीमा के साठ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 'गाँधी शांति प्रतिष्ठान' में आयोजित कार्यक्रम में वे प्रेमचंद गाँधी भाई के साथ आए. परिचय होते ही जिस सहजता से वे लिपट कर मिले और कार्यक्रम के अंत तक जिस आत्मीयता से बात-चीत करते रहे, मैंने वही सहजता और समाज के शोषित-पीड़ित जन के प्रति वही आत्मीयता उनकी कविताओं में देखी है. ऊपर जो कविताएँ हैं, वे बानगी बहर हैं, आपके पास ऐसी बहुमूल्य कविताओं का खजाना है. यह अच्छी बात है कि अब उनकी कविताएँ जगह-जगह देखने और पढ़ने को मिल रही हैं और आशा है कि यह सिलसिला चलता रहेगा. उन्हें कोटिशः बधाई और शुभकामनाएँ!

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