मनीषा कुलश्रेष्ठ
26 अगस्त 1967, जोधपुर
एम. फिल. (हिन्दी साहित्य), विशारद ( कथक)
पाँच कहानी संग्रह (बौनी होती परछांई, कठपुतलियाँ, कुछ भी तो रूमानी नहीं, केयर ऑफ स्वात घाटी, गंधर्व – गाथा)
एम. फिल. (हिन्दी साहित्य), विशारद ( कथक)
पाँच कहानी संग्रह (बौनी होती परछांई, कठपुतलियाँ, कुछ भी तो रूमानी नहीं, केयर ऑफ स्वात घाटी, गंधर्व – गाथा)
दो उपन्यास ( शिगाफ़, शालभंजिका)
अनुवाद – माया एँजलू की आत्मकथा ‘ वाय केज्ड बर्ड सिंग’ के अंश, लातिन अमरीकी लेखक मामाडे के उपन्यास ‘हाउस मेड ऑफ डॉन’ के अंश, बोर्हेस की कहानियों का अनुवाद
अनुवाद – माया एँजलू की आत्मकथा ‘ वाय केज्ड बर्ड सिंग’ के अंश, लातिन अमरीकी लेखक मामाडे के उपन्यास ‘हाउस मेड ऑफ डॉन’ के अंश, बोर्हेस की कहानियों का अनुवाद
पुरस्कार व सम्मान : चन्द्रदेव शर्मा
पुरस्कार – वर्ष 1989 (
राजस्थान साहित्य अकादमी), कृष्ण बलदेव वैद फैलोशिप –2007, डॉ. घासीराम वर्मा सम्मान – 2009,रांगेय राघव पुरस्कार वर्ष
-2010 ( राजस्थान साहित्य अकादमी), कृष्ण प्रताप कथा
सम्मान – 2012
शिगाफ़’ का हायडलबर्ग (जर्मनी) के साउथ एशियन मॉडर्न लैंग्वेजेज़ सेंटर में वाचन
शिगाफ़’ का हायडलबर्ग (जर्मनी) के साउथ एशियन मॉडर्न लैंग्वेजेज़ सेंटर में वाचन
स्वतंत्र लेखन और हिन्दी
वेबपत्रिका ‘हिन्दीनेस्ट’ का दस वर्षों
से संपादन.
______________________________
______________________________
समकालीन कथा साहित्य में मनीषा कुलश्रेष्ठ स्थापित नाम है. उनके पांच कहानी संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हैं. प्रस्तुत है उनकी कहानी, गंधर्व - गाथा, जो प्रेम को उसकी सघनता और संवेदनशीलता के साथ उतनी ही आत्मीय शैली में रचती है.
गंधर्व – गाथा
मनीषा कुलश्रेष्ठ
कहीं पढा था, कहाँ...यह
तो ठीक से याद नहीं कि – ‘चेतन के लिए
थोड़ा भी बहुत है और जड़ क़े लिए बहुत भी कुछ नहीं.’ उस दोपहर में
जो कुछ थोड़ा - सा था, वह
मेरे सजग अवचेतन के लिए बहुत साबित हुआ. उस
दोपहर में ऐसा क्या था? एक
बेहद उदास दोपहर थी वह, बमुश्किल
बीतती. एक मरते - झरते
दिन की ठिठकी सी, गर्म
दोपहर. याद रखने जैसा कम अज कम उस पल तो
कुछ नहीं लगा था. साल - दर - साल
हजारों अरचनात्मक, सुप्त
दोपहरों की - सी ही एक दोपहर थी वह !
हैरानी की बात तो यह है कि एक ही पैटर्न की बनी दो
पेंटिंगों की तरह वह हम दोनों के मन में दूर - दूर
टंगी रही, अरसे
तक बहुत चमकीली याद की तरह तो नहीं, मगर अवचेतन में एक गर्दभरे सैलोफैन पेपर
से ढकी पेंटिंग सी, कुछ – कुछ! वह
दोपहर, दांत
में फंसे रेशे सी, लम्बे
वक्त तक फंसी रही, फिर आदत बन गई. या
फिर यूं कहूं कि वह दोपहर एक पीडा भरी उंसास - सी
फेफड़ों में देर तक बनी रही, फिर उच्छवास के साथ स्वत: ही
निकल गई. एक उनींदी, धूल भरी दरी - सी
दोपहर जिसे शाम ढलने से पहले लपेट दिया गया हो. जिसमें
जीवन की एक जरूरी करवट अनजाने छूट गई थी. एक
शरणार्थी दोपहर जिस पर बबूल के पीले फूलों के पीछे झांकते कांटों की छाया लगातार
पड रही थी. मैं तो इतना जानती हूँ कि जब उस
दोपहर को मैं ने सरकाया था, बासी
अखबार की तरह बाकि पुरानी दोपहरों के बासी बण्डल में तो वो एकदम निस्तेज थी.
वह दोपहर होंठ भींचे अपनी कोख में कितना कुछ रखे थी उस पल
किसे पता था. किसे पता था गर्द भरे सेलोफेन के
नीचे से जो पेंटिंग निकलेगी उसके रंग रखे - रखे
भी इतने गाढे और चमकीले निकलेंगे. किसे
पता था उस धूसर दरी में बीस बरसों तक लिपटी एक नन्ही अनकही चाह सोती रह गई होगी और
अचानक एक परिपक्व और जिरह को आतुर प्रेम बन कर सामने आ खडी होगी. रह - रह
कर सवाल दर सवाल पूछे जाऐगी. यह
भी कहाँ पता था कि उस बासी अखबार - सी
दोपहर में एक चौंकाऊ खबर बन्द होगी. मैं
अनजान थी कि उस दोपहर के आंगन में एक शर्मीला पारिजात झरता रहा था, इस खुली - बेबाक
दुनिया से झिझकता.
देखो न, आज
अचानक मई की वह दोपहर, एक
कोयल की तरह दिसम्बर की इस खासी ठण्डी सुबह में, सामने
ठिठुरते पीपल की फुनगी पर आ बैठी है और बेमौसम कूके जा रही है. मैं
स्मृतियों के बीहड क़े इस पार हूँ मुझे जरा भी अन्दाज नहीं है, नियति
के शतरंज का. बस इतना पता है यह नियति एक
शातिर खिलाडी है. मेरे सामने पसरा है स्मृतियों का
धुंधलाता बीहड. और वह दोपहर स्मृतियों के बीहड
क़े अंतहीन सिरों के बीच लगे सीमा द्वार पर एक प्रवेश पत्र - सी
खडी है. मेरी हैरानी बढाने के लिए उस तरफ
तुम आ खडे हुए हो, निर्मम शोर के बीच सुमधुर मौन - से. अपने
पुराने अंदाज में एक हाथ जेब में डाले माथे पर सीधे और घने काले बालों का गिरता
हुआ गुच्छा लिये. अँ, रुको
जरा - वो
बाल अब भी हैं तो उतने ही घने मगर पूरे काले नहीं रहे. 'साल्ट
एण्ड पैपर'.
पहले, जब
तुम इसी अदा में दाखिल होते थे, मेरे
घर में उसके साथ अपना स्टेथस्कोप दबाएतो मेरा चेहरा खिल जाता था. उसके
लिए नहीं, तुम्हारे
लिए..........फिर जब बहुत आहिस्ता से तुम नब्ज
थामते और अपना आला मेरे सीने पर लगाते थे, बहुत
सजग और सौम्य होकरचेहरे पर घनघोर डॉक्टरी भाव ओढ क़र तो मैं कनखियों की एक नजर तुम
पर डाल कर मुंह फेर लिया करती थी. लाल
रंग के कतरे मेरे गालों पे छितरते देखे तुमने कभी ? क्या
हल्की - सी, मीठी
आह भी कभी तुमने सुनी थी?
तब तुम उससे कहा करते थे -- '' चिन्ता
मत कर यार, कोई
खास बात नहीं है, मौसमी बुखार है.''
मैं उसी शाम ठीक हो जाती थी. कितनी
बार तो मैं बेवजह नाटक करती थी. मेरे
प्रति तुम्हारे कोमल व्यवहार ने मुझे अतिसंवेदनशील बना दिया था, बिनबोले, बिनछुए
मुझे तुम्हारी उपस्थिति गहन आनंद दे जाती थी. जैसा
कोई स्वप्न में महसूस करता है.
हम दोनों में वह तुम हो, जिसे
हमारी पहली मुलाकात याद रही, सण्डे
बाजार में फुटपाथ से 'मिल्स एण्ड बून' के
नॉवल खरीदती हुई एक पन्द्रह साल की लड़की, दो
पॉनीटेल्स झुलाती हुई. तुम्हारा मेडिकल कॉलेज में फाईनल
ईयर था शायद.
माना कि यह मिथक है फिर भी कभी - कभी
मैं खुद से पूछती हूं-- वे मेरे पहले श्रुतुस्नान के दिन तो
नहीं थे, जब
मैं ने पहले - पहल तुम्हें देखा होगा और गढ
ग़या होगा मेरे कोमल मन पर तुम्हारा वह गंधर्व स्वरूप ! हमारे
शास्त्र ऐसा ही कुछ कहते हैं, किसी
किशोरी के प्रथम श्रुतुस्नान के दौरान जिस किसी पुरूष की छाया उस पर पड़ती है, वह
जीवन भर उसके आकर्षण की प्रेतबाधा से ग्रस्त रहती है.
स्मृतियों के ये बीहड बेहद बेतरतीब हैं. बार - बार
भटक जाती हूं मैं. इतना तय है कि...तुम
मेरे कोई नहीं थे. उस एक के बड़े भाई के दोस्त थे, जिसके
साथ मेरा नाम जोड़ क़र लोग फुसफुसाते थे. वो
अलग बात है कि तुम्हारी सगाई वाले दिन मेरा फोनेटिक्स का पेपर था और बिगड़ ग़या था. मुझे
उस दिन की अपनी उदासी प्रीमेन्स्ट्रुअल सिण्ड्रोम से ज्यादा कुछ नहीं लगी थी.
उस दोपहर बात कुछ और थी. उस
दोपहर जब मेरा सब कुछ खत्म हो रहा था........तुमने
सोते में मेरा सर सहलाया था. उसके
अगले ही पल मैं एक लम्बे सपने से बाहर, पूरे
होश में खडी थी. एकदम अकेली ...बिखरी
हुई जिन्दगी के साथ. वहां कोई नहीं था और मुझे बाईस
साल की उम्र में बिखर चुकी अपनी जिन्दगी को समेटना था. वह
घर मेरा नहीं था. उसका भी नहीं था जिस एक के लिए
कर्फ्यू में भी अपना शहर छोड आई थी. यह
घर तुम्हारा था. उसे मेरे साथ ही यहां पहुंचना था
मगर वह आया ही नहीं था. मेरे
लिए शहर नया था, इस
शहर में तुम अपनी पहली नौकरी पर आए थे. यह
शरणार्थी - सी दोपहर वही थी, जिसकी सुबह
तुम अपनी नवेली पत्नी के साथ रसोई में नाश्ता बना रहे थे. मैं
लम्बे अरसे से तुम्हें जानने के बावजूद अटपटा महसूस कर रही थी. तुम
नितान्त अजनबी लग रहे थे.
उस दोपहर तुम्हारी पत्नी अपनी नौकरी पर चली गई थी, तुम्हारा ऑफ
था.
रात भर के सफर की थकान, तनाव
और दोपहर के खाने के बाद मैं तुम्हारे छोटे से घर के इकलौते बेडरूम में जा लेटी थी. मैं
पलंग पर एक किनारे सोई थी पैर समेटे. सर
पर पंखा घूम रहा था. कमरे में मोटे परदे डले थे. बहुत
असहाय और ठगा हुआ महसूस कर रही थी. आत्महत्या
का ख्याल, नन बन जाने
का ख्याल पता नहीं.....क्या
- क्या मन में घर कर रहा था. न
जाने कब हल्की नींद के बुलबुले में मैं कैद हो गई थी. उनींदे
ही मैं ने स्पर्श की सरसराहट सुनी, मेरी भारी पलकें खुलतीं उसके पहले एक हाथ
मेरे बालों पर था.
दरअसल पलंग का एक छोर मेरा था दूसरे छोर पर बैठे तुम
किताबें पलट रहे थे. तुम्हारे स्पर्शों से बुलबुला
फूटा था, तुम बालों पर
हाथ फेर रहे थे. चेहरे
पर कुछ खास भाव नहीं......मुझे
हल्का सा अजीब लगा मगर कुछ गलत नहीं लगा.
''कोई
खबर उसकी?'' मैं
ने स्कर्ट ठीक करते हुए पूरी आंखें खोल कर पूछा.
''.................'' तुमने
सिर हिला दिया था. मैं उठ कर पत्रिका पलटने लगी. कोई
मेडिकल जरनल था. मेरी समझ से परे, फिर भी पलटती
रही. तुम उठकर बाहर चले गए. बस! इतना
ही. वह आखिरी दोपहर थी, जब तुमसे
मिली.
नियति के खेल समझ नहीं आते. मैं
तो सब कुछ ठीक ही छोड क़र आई थी उस दोपहर. मेरे
लिए तो, तुम्हारी
शादी हो चुकी थी, सब कुछ प्यारा और सही था. फिर
ऐसा क्या हुआ कि तुम्हारा सब कुछ बिखर गया, तुम
अकेले रह गए. तुम्हारे उदास एकान्त ने मुझे कल
ट्रेन में पूरी रात जगाया है. रोष
होता रहा था अपनी अभिशप्त कलम पर कि , क्या मेरा लिखा ही तुम्हारे भाग्य की
व्यंग्य - छाया बन बन गया!!
हाँ , मैं ने देखा है, कई बार अनजाने में अपनी ही कलम से प्रयोग किए गए शब्दों पर मुझे प्र्रायश्चित करना पडा है. गंधर्व या देवपुरूष तक तो ठीक था 'श्राप ग्रस्त' विशेषण क्यों दिया था? हाँ , उन लिजलिजे भावुक दिनों में मैं ने उस एक पर लिखी दर्जनों कविताओं के बीच तुम पर भी एक कविता लिखी थी, उस लाल डायरी में.
''उसका
और मेरा तो
बहुत क्षीण सा संबन्ध है
एक हंसी का झरना
जो तुमसी महानद से होकर
मुझ तक बहता है
जब उसकी और मेरी कल्पना
एक हो जाती है तो
हम दोनों के बीच यह निर्झर
अकसर फूट पडता है
हंसते वक्त उसकी आंखें मुंद जाती हैं
और उसे देख, मेरे
नेत्र अप्रतिभ!
इस यांत्रिक युग में
इस सरल, निश्छल, हासरचित
युवक को
देखकर लगता है
कोई श्रापगस्त गंधर्व
मृत्युलोक में आ गया है.
वो दोनों भाई ही अकसर कहा करते थे कि तुम एक बेहद खूबसूरत, जहीन
मगर सादादिल इंसान हो. गंधर्व या देवपुरूष ! तुम
सच में ग्रीक स्कल्प्चर के संगेमरमरी ‘एंजल’ दिखते थे या
उस उम्र की रूमानियत का गाढापन मुझे ऐसा दिखाता था.......कह
नहीं सकती. हल्के रंग की कमीजें और हमेशा
घने काले, संवरे
बाल. लम्बी, सतर, कलात्मक
देह, मजबूत बाँहें और खूबसूरत गढ़न
वाले पैर. खिली हुई रंगत और मांसल होंठों
से विस्तार पाकर आंखों तक फैली मुस्कान. तुम
प्राचीन ग्रीक मूर्तिकला की कोई प्रेरणा - से
लगते थे. ग्रीक – एंजल ! मेरा
मन करता कि तुम्हारी कमीज़ उतार कर पंख़ आज़ाद कर दूँ...
मेरे लिए बस तुम्हारी उपस्थिति ही काफी थी. उसमें
ही एक झीना सुख था.....तुम
बिना बोले बोलते थे. तुम और तुम्हारी विद्वता मेरी तो
हिम्मत ही नहीं होती थी कि तुम्हें उस 'ऑरा' की
चमक के चलते तुम्हें पूरा एकबार में देख पाऊं. सूरज
को कौन देख सकता है एकटक?
हँ, हाँ , शायद ! मैं ने
भी तुम्हारे प्रति अपने प्रेम को छुपाया था... क्योंकि
एक समय बाद मुझमें तुम्हारी रोशनी की तरफ देखने की इच्छा नहीं बची थी. मेंरा
प्रेम जंगली मधुमक्खी की गुनगुन की तरह अंत तक रहस्यमय बना रहा मगर यह गुनगुन गीत
मुझे भरमाता रहा ताउम्र. ही
लव्स मी, ही
लव्ज मी नॉट करते हुए मेरे हाथों की पीली डेजी क़ी सारी पंखुरियां झर गई थीं.......और
मुझे कुछ पता ही नहीं चल सका था. उस
दोपहर भी गौरैय्यों के झगडालू शोर और पत्तियों की सरसराहट के पीछे मैं ने अपनी
सिसकियां छिपा कर रख दी थीं. उसके
साथ बीते सात बरस तो मैं ने पूरी तरह भुला दिये थे, लेकिन तुम्हारे साथ बीती वह एक दोपहर
कहाँ दबी रह गई थी? जो
अचानक कहीं से पुराने, पीले
पडे एलबम - सी, किसी
काले टीन के बक्से में से बाहर निकल आई है. हां, ये
मुझसे भी विस्मृत हुए अवशेष साक्षी हैं........कि
मैं निर्जन तट से बंधी प्रतीक्षारत नाव थी तुम्हारे लौट आने की प्रतीक्षा में
हिलती डुलती!
::
हाँ मैं भी ....हैरान
तो हूं कि वह सब तुम्हारे मन से भी बुहारा नहीं गया, वहीं कहीं कालीन के नीचे सरका दिया गया. हाँ, गर्मी
की वह दोपहर खामोश और तटस्थ . उस
दोपहर, मैं
नि:शब्द और बहुत अकेला था. बस
तुम थी. मेरे दिमाग की तत्कालीन सुस्ती
के चलते एक किताब, और तुम !! उपेक्षित
- सी सिरहाने पडी थी.
शिथिल और स्तब्ध वातावरण, आलसी
हवा बहुत दम लगा कर पीपल के पत्ते हिला पा रही थी. धूप
जितनी घनी थी, छायाएं
उतनी गहरी. सपनीली, निंदासी
दोपहर थी जिसमें शांति औंधे मुंह लटकी थी. इस
शांति में अनायास कोई आवाज भटक कर आ जाती तो संगीत के टुकडे का भ्रम देती थी. मैं
माहौल की स्तब्धता में डूबा था.तुम्हारी
उपस्थिति और स्तब्धता का कोई मेल नहीं था. जिस
लड़की को पॉनीटेल्स में गाते - नाचते
देखता आया था. वह अचानक बडी हो गई थी. उदास
होना सीख गई थी.
तुम हमेशा से बातूनी थीं एक जगह टिक ही नहीं सकती थीं. तुम्हारी
ठोढी में गहरा डिंपल था, आंखें
चमकीली. कपडे क़ी पसंद में वक्त से कहीं
आगे......चौडी बेल्ट्स और जीन्स. मैं
ने पहली बार अपने हॉस्टल के गेस्टरूम में देखा था, तुम
उस एक के साथ आईं थी. सब लडक़े मुडक़र तुम्हें देख रहे
थे.
कभी वक्त था कि मैं तुम्हारी हंसी सुनकर सुख से भर जाया
करता था, जब मैं आता
था तुम्हारा चेहरा चंपा के फूल की तरह खिल जाता था. तुम
मेरे स्टेथस्कोप को देखतीं और जब मैं उसे तुम्हारे नन्हें सीनों के करीब लाता था
तो तुम बहुत बारीक मुस्कान के साथ मुंह फेर लेती थीं. कौन
जानता था कि अपने भीतर की खलबली को मैं कितनी मुश्किलों से छिपाता था, ढेर सारी
उदासीनता ओढ क़र. मुझे
पता नहीं था कि वह रहस्यनुमा भाव क्या था. मैं
अपने मन में धुंधले तौर पर भी यह स्वीकार नहीं कर पाता था कि यह परस्पर प्रेम है. क्योंकि
तुम तो उस एक के प्रेम में थीं...
'' यकीन
मानो. उस दोपहर तुम्हारा उत्साह चुका
हुआ था. मैं जिसे जानता था, जिसे कहीं
भीतर पसंद करता था, वह
लड़की उदास मुद्रा में मेरी बगल में उधर मुंह करके लेटी थी. ताजा
नहाई हुई, नम. पैर
मोडे, स्क़र्ट
को टखनों तक खींच कर ढके. एकदम
मेरे बगल में. सांसों की लहरों में हल्के - हल्के
तैरती - सी. पंखे
की हवा से हिलते पर्दे को छका कर भीतर घुस आए धूप के शैतान टुकडे तुम्हारे गाल और
गर्दन की सुनहरी जिल्द पर खेल रहे थे. उसी
पल तुम्हारी काली टी शर्ट कमर से थोड़ा उठ गई थी. क्यूपिड
के धनुष का कोई मांसल चाप बनता हुआ मिट गया था, तुम्हारी
करवट में. तुम्हारी
स्कर्ट की तरफ देखे बिना ही मैं उत्तेजना महसूस कर रहा था.
मुझे उस दोपहर पाब्लो नेरूदा की कविता 'नेकेड' याद
आ गई.
नेकेड, यू
आर सिंपल एज ए हैण्ड
स्मूद अर्दी, स्मालट्रांसपेरेन्ट, राउण्ड
यू हैव मून लाइन्स एण्ड एपल पाथ्स
नेकेड यू आर स्लैन्डर एज द व्हीट
नेकेड क्यूबन ब्लू मिडनाइट इज योर कलर
नेकेड आई ट्रेस द स्टार्स एण्ड वाइन्स इन योर हेयर
नेकेड यू आर स्पेशियस एण्ड यलो
एज ए समर्स होलनेस इन गोल्डन चर्च
मैं जानता था तुम सोयी नहीं हो. तुम्हारा
मन उदास है. तुम चंपा के मुरझाए फूल की तरह उस
दोपहर मेरे पलंग पर पडी थीं. मन
किया कि जगा कर बातें करूं या सहला दूं प्यार से. सहलाने
का ख्याल कूद कर फेन्स पार कर गया....मन
किया कि सीधे तुम्हें सीने से लगा कर पूछूं कि इतना उदास क्यों हो? फिर
हल्की उत्तेजना तारी होने लगी . एकाएक
लगा कि हौले से अपनी तरफ पलटा लूं. एक
हल्की आंच में मन से होकर देह की कोर सुलगने लगी .....मैं
तुम्हें छूना चाहता था, पूछना
चाहता था, कुछ
ऐसा करना चाहता था....जो कि ....मुझे
खुद अस्पष्ट था. मुझे नहीं पता मैं ने तुम्हें
छुआ कि नहीं. मेरे ख्याल से उस दोपहर मैं ने
तुम्हें नहीं छुआ था. तुम कहती हो कि छुआ था ! हल्का
- सा बालों को छुआ था. जो
भी हो......तुमने
अपनी दूध धुली, कुंवारी
आंखों से मुझे जरूर पलट कर मुझे देखा था. ढेर
से सवाल उफन रहे थे वहां. फिर
अपनी आंखों को लम्बी-लम्बी बांहों से ढक लिया था. मैं
आतंकित हो गया था. शायद अविवाहित लडक़ियां अपनी 'वर्जिनिटी' को
लेकर बहुत सजग होती हैं. मैं
तुम्हें बिनछुए, प्रेम को मन में कहीं कोने में जल्दी से बुहार कर चुपचाप वहां से उठ गया था. मैं
उठा था. मैं ने कॉफी बनाई थी, बेहद
मीठी और भूरी. तुम्हारी तरह.
तुम कहती हो तो सच होगा, उठे
होंगे मेरे विवश हाथ....फिर बालों पर ठहर कर लौट आए
होंगे.
तुमने कुछ पूछा था बुदबुदा कर, जिसका उत्तर
मेरे पास नहीं था. मैं
अनायास चुपचाप तुम्हारे पास से उठ आया था. पसीने
की एक बूंद पेशानी से ढलक कर भौंह पर टिक गई थी. दरअसल
प्रेम में पडने से ज्यादा चुपचाप और अनायास कुछ नहीं हो सकता और प्रेम को खोने से
ज्यादा चुपचाप और अनायास तो कुछ ही नहीं होता है. वह
दोपहर, सतत, छिने
जाते पल का सुख थी. वह अज्ञेय की कविता की 'सोने
की कणी' सा
पल था जो अंजलि भर रेत में से धोकर अलग करने की चेष्टा में मुट्ठियों से फिसल कर
नदी में जा बहा था.
उस दोपहर में आज की पीड़ा का भविष्यफल लिये कोई तोता बैठा
था जो शर्मिन्दा हो रहा था, अपने
उठाए हुए कार्ड पर. उस दोपहर में जो प्रेम, खामोशी
और पीडा थी वह जिन्दगी भर अवचेतन में बनी रही. तब
सोचा ही नहीं था कि कभी दुबारा मिला तो तुमसे क्या कहूंगा? कल
रात भर ट्रेन में बस यही सोच पाया कि कहूंगा_
''हाँ , मैं
ही तुम्हारा मौन हूँ.......वह
मौन जिसका मोल हमने सालों - साल
चुकाया है. वह मौन जो हमारे दिलों में
सुषुप्त रह कर भी, सांस
लेता रहा, बंसी
में बजती, विलम्बित
राग भैरवी - सा.
::
मैं उस गर्म दोपहर में झुलसी कामना की एक अस्पष्ट संकोची
चाह हूं.
और मैं ! पृथ्वी पर तुम्हारी अभिशप्त उपस्थिति का एक अवशेष चिन्ह, अकुला कर यक्ष द्वारा उकेरा गया एक स्वप्न चित्र! मैं ! तुम्हारा बिन गुनगुनाया लम्बा विरह गीत हूं. मैं ! धूल में खोई एक स्वर्ण दोपहर!
और मैं ! पृथ्वी पर तुम्हारी अभिशप्त उपस्थिति का एक अवशेष चिन्ह, अकुला कर यक्ष द्वारा उकेरा गया एक स्वप्न चित्र! मैं ! तुम्हारा बिन गुनगुनाया लम्बा विरह गीत हूं. मैं ! धूल में खोई एक स्वर्ण दोपहर!
और फिर हम ?
हम मिले
सत्य और मिथक की तरह. एक
परी - कथा के फटे पन्ने पर, जहाँ....स्लीपिंग
ब्यूटी को नींद में चूमने कभी कोई राजकुमार नहीं आ सका था..जहां
ठीक बारह बजने पर सिण्ड्रेला रॉयल बॉल से भाग भी नहीं पाई थी कि जादू टूट गया था. हमने
चेहरा उठा कर एक दूसरे को देखा, नमी दोनों तरफ थी. हमने
हमेशा खुद को संयत रखा है मगर अब इस पल नहीं. प्रकृति
की पहेली को सुलझाए बिना निजात कहां थी? परोक्षत: हम
बस यही महसूस कर रहे थे कि जो कुछ, कभी
हमारे बीच घटा था वह असामान्य - सा
था. क्या वह 'असामान्य', प्रेम
था? प्रेम न सही कुछ तो था, जो
बना रहा नेपथ्य में भी सजग. पराजित
होकर भी जीता हुआ सा.
एक छोटे शहर का स्टेशन. आस - पास
अजनबी लोग. हमने दोनों ही ने रिटायरिंग रूम
में पहुंच कर गहरी सांस ली. एकबारगी
एक - दूसरे को देखकर नजरें घुमा लीं. वक्त
ने दोनों ही को थोड़ा तो बदल ही दिया था. फिर
भी बहुत ऐसा था जो वही था. वैसा
का वैसा ही. सवाल होंठों में से, आंखों
की कोर से झांक रहे थे. सवालों
पर बात आती कैसे? अगर
हर सवालों के जवाब होते और अगर सब कुछ कहा जा सकता कह - कहा
कर तो.....भला कोई आंख
किसी आंख में फिर कभी झांकती? आत्माएं....जिस्मों
से मुक्त होतीं और पसलियों के नीचे छिपे मांसल पिण्ड में प्यार छिपा
हम आमने - सामने
बैठे थे, चुप करीब और
करीबतर, जब
तक कि हमारे मोमपंख सत्य से टकरा कर आग ही न हो गए. तब
हमारी आत्माएं मजबूत और सीधी खडी हुईं. उस
दोपहर को डी-कोड करने की जरूरत एकदम आ पडी है. हम
दोनों ही जानना चाह रहे थे.
यह अहसास तो हमें आज भी है कि उस दोपहर पर कोई अव्यक्त, अदृश्य, अस्पृश्य..प्रकंपित
छाया मंडरा रही थी. जिसे हम समझ ही नहीं सके आज तक. अब
डीकोड होना था उस दोपहर को. दोनों
के मन बुरी तरह धडक़ रहे थे मानो कि किसी धूमकेतु के बरसों बाद लौट आने की सी कोई
खगोलीय परिघटना होने को थी.
मैं फुसफुसाई - ''स्वीट
आफ्टरनून लव, स्वीट
ब्राउन लव, टेण्डर
- पेशनेट लव, स्पीचलैस
लव.''
वह गुनगुनाया _ 'लव
इन आफ्टरनून' तो
आर्ड्रे हैपबर्न और गैरी कूपर की फिल्म थी.
''मगर
ये पंक्तियां तो मिल्स एण्ड बून सीरीज क़े एक नॉवल 'लवर्स
इन द आफ्टरनून' की
हैं.
“ हिस्श....तुम
अब भी वह क्रेप पढ़ती हो?”
“ नहीं, नहीं
अब नहीं मगर वह याद रह गया..कहीं
अवचेतन में.”
''हां
मुझे भी याद है.....उस
फिल्म में एक डायलॉग था _ लव
इज ए गेम एनी नंबर केन प्ले स्पेशली इन आफ्टरनून.''
''एक
बार मैं आपके घर आई थी. ठहरी
थी दोपहर भर.''
''.........''
'' याद
नहीं?''
''याद
है. तुमने गहरी नीली डेनिम की स्कर्ट
पहनी थीकाला टॉप!
''इतना
तो मुझे याद नहीं.यह याद है कि आपकी नई शादी हुई
थी, नाश्ते के वक्त डायनिंग टेबल पर, खिडक़ी
में लगे बुलबुल के घोंसले को लेकर आप अपनी बीवी से बहस कर रहे थे.वह
घोंसला वह हटा देना चाहती थी और आप उसे सहेजना चाहते थे. उसमें
अन्डे थे.''
'' यह
मुझे याद नहीं. लेकिन हाँ यह याद है कि उस दोपहर
मेरा ऑफ था.''
''
...................''
'' तुम
थक कर गहरी नींद सो रही थीं.''
'' गहरी
नींद तो नहीं सो रही थी मुझे याद है आपने मेरे बालों में हाथ फेरा था. ममता
से.''
''............................''
'' क्या
हुआ?''
'' ऐसा
किया था मैं ने?'' वह
हैरान था कि शर्मिन्दा? समझ
नहीं आया.फिर एक चुप्पी बनी रही हमारे बीच.
''वह
दोपहर तुम्हें खूब याद रही.'' वह
चुप्पी तोडने को हंसा!!! एक हारी हुई, कमज़ोर
हंसी!!!
''आपको
नहीं रही?''
'' बखूबी.''
'' क्या
सच में, ऐसा
हुआ था कि मैंने तुम्हारे बाल या चेहरा छुआ था?''
'' हाँ . इसमें
हैरान होने की बात क्या है तरस आ रहा था आपको.''
'' तरस! तरस
नहीं कामना थी वह.'' उसकी
आवाज बहुत धीमी थी, मगर
शब्द तराशे हुएअलग - अलग.
''............''
'' मुझे
लगा कि शायद तुम भी.''
''इतनी
हताशा और उदासी में कोई कामना कैसे जाग सकती है?''
''फेरोमोन्स. प्रकृति........हताशा
और उदासी में देह इन्हें ज्यादा स्त्रवित करती है.''
हम दोनों ने अपने मन पर टंगी उस जुडवां और एक ही पैटर्न
की पेन्टिंग का सेलोफैन पेपर हटाया. कामना
के शोख रंगों के गहरे स्ट्रोक वहाँथे. हाँ , यह
सच था. यही सच उस दोपहर को चमकाता रहा. बनी
रही थी, मन
के तहखानों में कोई प्रेतकामना.
''और?''
''और
क्या?''
''कुछ
सुनाओ.''
'' तुम
सुनाओ मैं तो सब ठीक ही छोड क़र आई थी फिर उस रोज तुम्हारी पत्नी के साथ तुम्हारी
शादी के एलबम देखे थे. एक फोटो में तुम एक पटे पर पजामे
और बनियान में बैठे थेमुस्कुराते हुए रस्म की हल्दी से पीले और बेहद - बेहद
खुश.'' एक की आंख भर आई थीएक विवश खिडक़ी
के पार देखता रहा.
''मैं
ने क्यों लिखी थी यह कविता?'' एक
काली - डायरी हम दोनों के घुटनों के बीच
टिकी रही. उसका पीला पन्ना फडफ़डाता रहा, दस
अगस्त उन्नीस सौ सतासी.
''बुद्धू, श्रापग्रस्त
न होता तो कोई गंधर्व पृथ्वी पर कैसे आता?'' हम
दोनों हंस दिए.
''...........''
''तुमने
यह कविता मुझे पहले क्यो नहीं दिखाई? मुझे
तुम्हारे चेहरे से यह सब कभी लगा ही नहीं कि. बस
इतना लगा कि तुम मेरे आने से खुश होती थीं.''
'' हाँ .मैं
ने तुम्हें सदा पराजित भाव से चाहा था खोते चले जाते हुए देखने को स्वीकार करते
हुए.''
''मैं सोचता
था, वह तुम्हारे
जीवन में है.''
''हाँ , क्योंकि वह
अभिव्यक्त करना जानता था.''
''तुम
भी तो बातूनी थी.''
''जिस
दिन मैं ने कुछ महसूस किया था, उसी
दिन आपकी सगाई हो रही थी.''
''व्हाट
एन आयरनी.'' उसकी
छल - छल हंसी के तलछट में जमी उदासी
ऊपर तैर गई.
हम बहुत देर चाय के साथ मौन के घूंट पीते रहे. बाहर
स्टेशन का शोर हम तक पहुंचना बन्द हो गया था. हमारे
मन एक दूसरे में मगन कोई नि:शब्द
रूमानी खेल खेल रहे थे, हालांकि
हमारे दिमाग इस खेल को वहीं खत्म करने की चेतावनी बार - बार
दे रहे थे, लेकिन
न जाने कैसा प्रलोभन था कि हाथ आई बाज़ी हममें से कोई खाली नहीं जाने देना चाहता
था. रिटायरिंग रूम की हर दूसरी चीज, प्रक़ाश, लोगों
की फिसलती नजरें, बाहर
का शोर सब हमारे लिए निराकार झुटपुटे में बदल गया था. हम
ऐसी तन्द्रा में थे कि हमें न कुछ सुनाई दे रहा था, न
दिखाई.
''यह
बहुत ट्रेजिक है''
''क्या?''
''किसी
को खोते हुए देखना.......जिसे
तुम प्यार करते हो. भीषण दुखांतिका तो तब है जब उसे
पता ही न हो कि तुम उसे प्यार करते हो. जबकि
इस दुष्ट दुनिया में जहाँ प्रेम बमुश्किल मिलता हो.''
''ऐसा
नहीं है, बातों
के बीच की चुप्पियों में, हंसी
में टूट कर अनसुनी रह गई कराहों में मैं ने इसे पाया है.''
''फिर
भी वो सरल और सार्वकालिक तीन शब्द ? जो ....कभी
फेल नहीं होते प्रेम को अभिव्यक्त करने में.''
''हँ....वही
एक बात, जो
हरेक ने बहुत बार कही - सुनी
है इस संसार में.क्या हुआ जो हमारे बीच हर बार
कही जाने से छूट गई. तुम्हारे जिक़्र में एक खुश्बू
हमेशा रही है.''
मैंने अपने पैर स्टूल पर फैला दिएउसने उन्हें थामते हुए
कहा.
''लाओ, तुम्हारे
पैर दबा दू?''
''क्यों ?''
''दुख
रहे होंगे.''
''तुम्हें
कैसे पता?''
''पिछले
बीस सालों तुम भी तो बेतहाशा भागी हो. अपने
सपनों के पीछे''
हम स्मृतियों के बीहड क़े आर - पार
खडे थे. बीच में दिसम्बर की सुबह का
कोहरा था और हम अपने - अपने हाथों में उस दोपहर का
सुनहरा प्रवेश पत्र लिये खडे थे. रिटायरिंग
रूम में कोहरे को धोखा देकर हल्की धूप चली आई थी, हमने
वहां लगी घडी क़ो गौर से देखा मन की सतह पर असमंजस गाढा - गाढा
जमा था. अभी जाना ही कितना है, अभी
देखा ही क्या है? बस
उतना ही तो जो सतह पर तैरता है या जो परछांइयों पर ठहरता है. जो
परछांइयों में घुला होता है वह देखा? और
वह जो उस दोपहर हम दोनों के देखने से चूक गया?
ई – पता – manisha@hindinest.com
संवेदनशील कथाकार की हृदयस्पर्शी कहानी हम तक पहुँचाने के लिए आभार 'समालोचन'!!
जवाब देंहटाएंएक चूकी हुई दोपहर की प्रेम कहानी ..प्रेम का आकर्षण प्रेतबाधा जैसा..
जवाब देंहटाएंबधाई मनीषा और समालोचन को. अच्छी कहानी.
बधाई मनीषा जी
जवाब देंहटाएंमनीषा कुलश्रेष्ठ की इस कहानी के लिए उन्हें एवं अरुनदेव जी को क्रमशः बधाई,धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंमैंने मनीषा जी की यह पहली कहानी पढ़ी हैं ... बहुत अच्छा लेखन है बिकुल शब्द शब्द जीता गया मैं !
जवाब देंहटाएंसमालोचन को बधाई यह अवसर के लिए !
मनीषा जी. अभी दो बार पढ़ा . बधाई , मुबारक जैसी औपचारिकता की जगह कहना यह चाहूँगा कि साहित्य जगत में जो ठहराव सा आया लगता है, कभी कभी लगता है भरी गिरावट आई है विचार और शिल्प के स्तर पर उसमे आपका योगदान अत्यंत महवपूर्ण है . शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबीस सालों से तुम भी तो भागी हो अपने सपनों के पीछे....नियति?...मजबूरी या कुछ और?....पता नहीं...पर ऐसे भागना ही होता है न....अभी 4-5 दिन पहले ही पढ़ी थी मैंने यह कहानी दुबारा ....खूब अच्छी लगी थी...अभी भी....
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.