(फोटो मिहिर पंड्या के कैमरे से)
प्रभात रंजन
३
नवम्बर १९७०, सीतामढी (बिहार)
कथाकार, अनुवादक,
संपादक, पत्रकार
दिल्ली
विश्वविद्यालय से मनोहर श्याम जोशी और उत्तर आधुनिकता पर पीएच.डी.
जानकी पुल (कहानी संग्रह)
मार्केस की कहानी
धारावाहिक नीम का पेड़ का उपन्यास के रूप में रूपांतरण
धारावाहिक नीम का पेड़ का उपन्यास के रूप में रूपांतरण
स्वछंद (सुमित्रानंदन की कविताओं का संचयन), टेलीविजन
लेखन, एंकर रिपोर्टर, रचनात्मक
लेखन आदि पुस्तकों के सह लेखक
श्रीनगर का षडयंत्र (विक्रम चन्द्रा
के उपन्यास का अनुवाद)
एन फ्रेंक की डायरी (अनुवाद)
बहुवचन, हिंदी, आलोचना और दैनिक जनसत्ता के संपादन से जुड़े रहे हैं
सहारा समय कथा सम्मान (जानकी पुल के लिए)
प्रेमचन्द कथा सम्मान (जानकी
पुल के लिए)
चर्चित
जानकी पुल वेब पत्रिका का संपादन
ज़ाकिर
हुसैन सांध्य कालेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में अध्यापन
ई
पता :prabhatranja@gmail.com
प्रभात रंजन प्रतिनिधि हिंदी युवा कथाकार
हैं. हिंदी कहानी को एकरेखीय स्थूलता से मुक्त करके उसे अपने समय और संकट से
जोड़ने का जो उपक्रम इधर युवा रचनाशीलता में दिखता है उसकी एक सफल और सार्थक
परिणति प्रभात की कहानियाँ हैं. प्रभात रचना के मर्म की पहचान और उसकी
अस्मिता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं, उनकी कहानियाँ किसी ख़ास विचारधारा की कायल नहीं, उनमें पंच तन्त्र की शैली से लेकर जादुई यथार्थवाद तक के प्रयोग हैं.
प्रस्तुत कहानी में एक स्थनीय पत्रकार को
नक्सलवादी बता कर इसलिए वध कर दिया जाता है कि एस. पी. अकूत पैसा कमाने के बाद अब
नाम कमाना चाहता है. तन्त्र के तिलिस्म में एक साधारण आदमी की जो अंतिम दुर्गति हो
सकती है वह इस कहानी में है. पठनीय और ‘सोचनीय’
भी.
Jehangir Sabavala
अनुवाद की गलती
प्रभात
रंजन
मुझसे अनुवाद करने में गलती हो गई थी. अंग्रेजी में लिखा था - इट मे हैपेन इन नियर फ्यूचर, मैंने गलती से इसका अनुवाद कर दिया आने
वाले मई में इसके घटित होने की संभावना है जबकि सही अनुवाद होना चाहिए था- निकट भविष्य में ऐसी किसी घटना के घटित
होने की संभावना है. समाचार संपादक महोदय
ने बाद में मेरा ध्यान इस ओर दिलाया था.
अक्सर
गलत अनुवाद के बाद मुझे इस बात का पता चलता मुझसे गलती हो गई है.
छह साल से पत्रकारिता कर रहा हूं. दो साल से तो आपके प्रतिष्ठित
समाचारपत्र से जुड़ा रहा हूं. मैं यह स्वीकार करता
हूं कि अंग्रेजी भाषा मैं उतनी अच्छी तरह नहीं समझ पाता हूं. विशेषकर जब भाषा मुहावरेदार हो जाती है
तो मेरे लिए उसको समझ पाना बहुत मुश्किल हो जाता है.
आप चाहें तो मुख्य कॉपी संपादक
रश्मिकांतजी से भी पूछ सकते हैं. कई बार अनुवाद की
गलतियों के लिए मुझे टोक चुके हैं. एक बार तो सबके सामने
उन्होंने मुझे बुरी तरह डांटा था. मेरे प्रिय गायक
मुकेश के पोते और नितिन मुकेश के बेटे नील नितिन मुकेश की पहली फिल्म आई थी- जॉनी गद्दार. उसके बारे में एजेंसी की एक खबर आई थी, अंग्रेजी में. शीर्षक था- जॉनी गद्दार स्टिल्स द शो इन मुंबई. मुझसे अनुवाद हो गया जॉनी गद्दार का
मुंबई में चोरी-छिपे प्रदर्शन. डेस्क के सब लोगों को मेरी कॉपी दिखाई
थी उस दिन उन्होंने. सबके सामने उसका सही
अनुवाद बताते हुए इतना जलील किया कि आज तक उस कॉपी को मैंने संभालकर रखा है. मेल के साथ उसकी छायाप्रति की स्कैन
कॉपी संलग्न कर रहा हूं.
अपनी एक और गलती की याद मुझे आ रही है
जिसका पता मुझे रश्मिकांत जी के माध्यम से ही चला था. अंग्रेजी में बहुत छोटा-सा वाक्य था- आई हार्डली नो हिम. मैंने अनुवाद कर दिया था मैं उसको
कड़े ढंग से जानता हूँ. मैंने उस दिन रश्मिकांतजी से कहा था, अगर इस तरह की भयानक गलतियां मुझसे हो
जाती हैं तो मुझे पत्रकारिता करने का कोई हक नहीं है. मैं यह नौकरी छोड़ना चाहता हूं. वे नहीं माने. कहने लगे, तुम कम से कम अनुवाद तो कर लेते हो, बस मुहावरेदार भाषा में चक्कर खा जाते हो, यहां तो ऐसे पत्रकार भी बड़ी मुश्किल से
मिलते हैं जो अंग्रेजी पढ़ भी पाते हों.
वैसे, एक बात कहूं, रश्मिकांत जी के कभी-कभी आने वाले इस खतरनाक गुस्से को
नजरंदाज कर दें तो वे बहुत अच्छे आदमी हैं.
मुझे सचमुच इस बात का कोई अंदाजा नहीं
था मई के महीने में ऐसी कोई घटना घटित होने वाली है उसी तरह जैसे किसी को भी इस
बात का अंदाज़ नहीं था. पुलिस-प्रशासन को भी नहीं.
आप अनुवाद की इस गलती के बारे में चाहें
तो ऑफिस में किसी से भी पूछ सकते हैं.
आपका विश्वासी,
ओम प्रभाकर उर्फ ओम प्रकाश राय
(नोट- आप शायद इस नाम से मुझे नहीं पहचान
पायें तो आपको बताना चाहता हूँ पिछले दो साल से अनुवादक की बाइलाइन से छपने वाले
ज़्यादातर अनुवाद इसी खाकसार ने किए हैं.)
ओम प्रभाकर का लैपटॉप शहर के सीमांत के एक नए बनते धूल-धूल मोहल्ले
भूषणगंज के तिवारी लॉज के उसके कमरे से बरामद हुआ था. उसके
ईमेल अकाउंट में भेजे गए मेल के खाते में यह ईमेल मिला था जो 20 मई को भेजा गया था यानी घटना के अगले दिन. यह
संपादक, दैनिक सूर्योदय को संबोधित था.
‘उसने यह ईमेल
एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया था. दैनिक
सूर्योदय के साथ अपने संबंधों को वैधता प्रदान करने के लिए. मेल
का कोई जवाब उसे मिला हो ऐसा तो नहीं लगता’, ओम प्रभाकर
के नाम से शहर नयानगर में रह रहा असल में वही ‘विभूति’
नामक शख्स था जिसकी तलाश भारत-नेपाल सीमा के
तीन जिलों की पुलिस कर रही थी.
हां, 22 मई को राजधानी से प्रकाशित होनेवाले उस अखबार में एक
विज्ञापन प्रकाशित हुआ. लिखा था- पाटलिपुत्र
टाइम्स समाचारपत्र समूह का ओम प्रभाकर नामक व्यक्ति से किसी प्रकार का औपचारिक
संबंध कभी नहीं रहा है. हमारे अखबार में ‘अनुवादक’ के नाम से जितने अनुवाद छपे हैं पिछले ४
साल से रश्मिकांत जी करते रहे हैं. वे हमारे अखबार के ही नहीं उत्तर बिहार के सबसे प्रतिष्ठित पत्रकारों में
गिने जाते हैं. उनके अपने रेकॉर्ड में उनमें से अधिकतर
अनुवादों की हस्तलिखित प्रतियाँ आज भी मौजूद हैं.
ओम प्रकाश राय (शिक्षा संबंधी समस्त प्रमाणपत्रों में उसका यही नाम दर्ज है.
यहां तक कि मैट्रिक के प्रमाणपत्र में भी) वल्द
रामबचन राय, निवासी- ग्राम- शाहपुर पटोरी, पोस्ट- राजा
परसौनी, जिला- शिवहर के कमरे से लैपटॉप
मिलना और उसमें घटना से जुड़े कई सुरागों का, कई योजनाओं का
मिलना, वह भी घटना के महज तीन दिनों के अंदर, हमारे विभाग की बड़ी सफलता है.
करीब साल भर सशस्त्र सुरक्षा बल के साथ मिलकर काम करने के बाद हमें इस बात के
सबूत मिलने लगे थे कि नेपाल के माओवादी संगठन के साथ नयानगर जिले के कुछ भूमिगत
संगठन भी मिलकर काम कर रहे हैं. ऐसे ही का भूमिगत संगठन ‘भारत मुक्ति मोर्चा’ से इसका संबंध था. नेपाल के माओवादियों के साथ मिलकर देश में बड़े पैमाने पर गडबडी फैलाने की
इनकी योजना थी. वहां मिली सामग्री से इस बात का खुलासा हो
जाता है कि 19 मई की रात समाहरणालय में हुई आगजनी और
गोलाबारी के पीछे इसका ही हाथ था. उस रात हमलावरों के साथ यह
वहां मौजूद था और सभी हमलावर इसके ही निर्देशों का पालन कर रहे थे. यह उनका नेता था. एक उस दुर्भाग्यपूर्ण रात की
वह शातिराना कार्रवाई उसी के खुराफाती दिमाग से उपजी थी. 12 पुलिसवाले
मारे गए मगर अफ़सोस सभी हमलावर वहां से भागने में सफल रहे.
घटना के बाद किसी विभूति के हस्ताक्षर से जो पोस्टर वहां चिपकाए गए थे वैसे
हज़ारों पोस्टर उसके कमरे से मिले हैं. जिले के कम से कम चार प्रखंडों के
अठारह पंचायतों के बत्तीस गाँवों में पिछले दिनों इस प्रकार के पोस्टर चिपकाये
जाने की सूचना मिली थी. बहुत सम्भावना है कि विभूति इसी का
छद्म नाम रहा हो. क्योंकि इसके कंप्यूटर से इस बात के पक्के
प्रमाण मिले हैं कि यह विभूति नाम से एक ईमेल अकाउंट को नियमित तौर पर लॉग इन करता
था.
भारत मुक्ति मोर्चा की योजना बड़े पैमाने पर इस तरह की घटनाओं को अंजाम देकर
प्रदेश में तबाही मचाने की थी. इस बरामदगी से ज़ाहिर है उनके मंसूबों
को बड़ा भारी झटका लगा है. अभी जांच के आरंभ में हम इस संबंध
में कुछ ज्यादा नहीं कहना चाहते. इतना जरूर है कि नक्सलवाद
की पैठ समाज में आतंकवाद से भी गहरे हो चुकी है. जल्दी ही सब
कुछ पता चल जाएगा. हम केस को क्रैक करने के बहुत करीब आ चुके
हैं. इतनी बड़ी बरामदगी के बाद
इस बात की उम्मीद बढ़ जाती है कि आनेवाले समय में हम जिले में माओवादियों के फैलते
जाल को छिन्न-भिन्न कर देंगे- टीवी
कैमरों की चमकती रोशनी के बीच जिले के एसपी अनमोल कुमार जी घटना के चार दिन बाद
प्रेस कांफ्रेंस में बता रहे थे.
उधर एक समाचारपत्र ने बड़ी प्रमुखता से समाहरणालय कांड के बारे में छापा था- क्या समाहरणालय
कांड विदेशी षड्यंत्र था?
लिखा था कि असल में सब कुछ चीन के इशारे पर हो रहा था. बड़े विस्तार
से लिखा हुआ था कि किस तरह चीन नेपाल के माओवादियों के माध्यम से भारत में माओवाद
के नाम पर हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा दे रहा था. ओम प्रकाश
राय उर्फ ओम प्रकाश राय उर्फ विभूति नामक करीब 35 साल के उस
युवा के बारे में विस्तार से लिखा गया था कि किस तरह से नेपाल के रास्ते चीन गया
था. वहीं से उसने राजनीतिक और हिंसक ट्रेनिंग हासिल की थी.
वापस नयानगर आकर उसने संगठन तैयार करना शुरु कर दिया था. यह उसके संगठन की पहली धमक थी. काठमांडू से किसी
विशेष संवाददाता की बाइलाइन से छपी इस रिपोर्ट में लिखा गया था कि नेपाल के रास्ते
सीमावर्ती जिलों के युवा बड़ी तादाद में चीन ट्रेनिंग पाने जा रहे हैं और वहां से
नेपाल के रास्ते वापस लौटकर देश में गडबडी फैलाने के लिए काम कर रहे हैं. नयानगर का समाहरणालय कांड तो बस पहली झांकी है.
राजधानी के एक और अखबार बुलंद आवाज़ ने इस घटना को विस्तार देते हुए लिखा था
कि नेपाल के माओवादी बिहार के सीमावर्ती जिलों में अपनी पैठ बना रहे हैं. किस तरह गाँव-कस्बों तक उनका नेटवर्क फ़ैल रहा है इसका पता फर्जी पत्रकार ओम प्रभाकर की
गिरफ्तारी से चलता है. पूछताछ में यह पता चला है कि पिछले
कुछ बरसों में उसने नेपाल में काफी संपत्ति बेनामी खरीदी थी. बीरगंज के बाज़ार में उसकी दो दुकानें भी चलती हैं चाइनीज इलेक्ट्रानिक
आइटम्स की और खिलौनों की.
सबसे धमाकेदार खबर तो छपी थी स्थानीय नयानगर संचार में. मैं उन दिनों
वहीं था इसलिए वह समाचार भी मेरी आँखों से गुज़रा था. लिखा
था कि समाचारपत्र को अपने विश्वस्त सूत्रों से कुछ ऐसे सुराग मिले हैं कि पुलिस
अधीक्षक अनमोल कुमार ने अपने प्रेस कॉन्फ्रेंस में जिस बरामदगी की बात की थी उसमें
बड़े पैमाने पर आपत्तिजनक पुस्तकें भी हैं. आश्चर्य की बात
है कि चीन के नेता माओ की जीवनी, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी
से जुड़ी कई किताबों के हिंदी अनुवाद ओम प्रभाकर नामक उस तथाकथित पत्रकार के कमरे
से बरामद हुए हैं. दिलचस्प यह है कि सभी के अनुवादक के रूप
में विभूति का नाम लिखा है. उसी के आधार पर जिला एस.पी. ने इतने विश्वास से उसके विभूति होने के बारे
में पुष्टि की थी.
न ओम प्रभाकर ने सोचा होगा न किसी और ने विभूति के छद्म नाम से किए गए यही अनुवाद
उसके माओवादी होने के सबसे बड़े प्रमाण माने जा रहे थे. उसके खिलाफ
सबसे बड़े सबूत बनने वाले थे... कोई यह नहीं कह रहा था कि इन
किताबों के अनुवाद होते रहे हैं, देश के तमाम पुस्तकालयों
में ऐसी किताबें भरी पड़ी हैं. किताबों के अनुवाद करना
माओवादी होना नहीं होता, लेकिन...
ओम प्रभाकर उर्फ ओम प्रकाश राय उर्फ विभूति ने अनुवाद की गलती कर दी थी. नयानगर इससे
पहले शायद ही कभी चर्चाओं के केंद्र में रहा हो. अति पिछड़ा
समझा जाने वाला जिला चर्चाओं में काम से कम अव्वल बन गया था. क्या शहर, क्या देहात, जहां दो-चार लोग मिलते-बैठते चर्चा इसी बात को लेकर चल पड़ती,
समाहरणालय कांड, पत्रकार ओम प्रभाकर...
::
बिहार के एक पिछड़े जिले में शुमार होने वाला नयानगर पहुंचना इतना आसान नहीं
था. रोड पिछले काम से कम पन्द्रह बरसों से खराब था. पिछले दो चुनावों में हारने-जीतने वाले नेताओं ने
दावा किया था कि वे जिले को राज्य की राजधानी से जोड़ने वाली सड़क को सबसे पहले
बनवाएंगे. लेकिन होता कुछ नहीं था. सड़क
राज्य की ऐसी सड़कों में आती थी जो केंद्र सरकार की मानी जाती थी. सड़क को लेकर नेता अखबारों में बयान देते, संसद-विधानसभा में सवाल उठाते. आश्वासन मिलते. घोषणा होते-होते चुनाव का समय आ जाता. फिर पिछले वादे दोहराए जाते. काम से कम 15 साल से तो यही चल रहा था. उस साल भयानक बाढ़ आई थी,
मीलों सड़कें डूब गईं, सड़कें बह गईं. उसके बाद से रास्ते गडबड हो गए.
उन्हीं गडबड रास्तों से टीवी वाले कैमरे लादे नयानगर की ओर लपक रहे थे. एकाध बाईट मिल
जाए, कुछ एक्सक्लूसिव हो जाए...
ओम प्रभाकर का गाँव तो जैसे दो-एक दिन तक तीर्थस्थल बना रहा. गाड़ियों की आमदरफ्त इतनी बढ़ गई थी कि गांव में चारों तरफ धूल ही धूल...
उन्ही दिनों रिटायर्ड लांसनायक मान मर्दन सिंह ने यह दोहा रचा था- ऐ नौजवान क्यों होता है परेशान/
बनने जा रहा है अपना देश लंदन, हांगकांग जापान...
वैसे कहने वालों की कमी नहीं थी कि असल में उन्ही दिनों एक ट्रक
गांव में आया था जिसके पीछे यह दोहा लिखा था. फौजी ने याद कर
लिया और अगले ही दिन से अपनी कविता की तरह सुनाने लगा.
किसी को विश्वास नहीं हो रहा था. इतना सीधा-सादा
दिखने वाला ओम प्रकाश और इतना बड़ा कांड... लेकिन आप ही
बताइए महानगरों तक में रोज-ब-रोज कितने
ऐसे कांड होते हैं, किसको यकीन होता है. कब क्या हो जाए, कौन क्या कर जाए क्या भरोसा...
किसी का किसी पर विश्वास नहीं रह गया है.
विश्वास...
किसको विश्वास हो सकता था कलम को अपने जीने का जरिया बनाने वाले ओम प्रभाकर
उर्फ ओमप्रकाश राय ने एक अंधेरी रात में अपने साथियों के साथ मिलकर न केवल जिला
समाहरणालय में आग लगा दी वहां मौजूद दर्ज़न भर पुलिसवालों को भी मार डाला था. किसी को
विश्वास नहीं हो रहा था. धुंधुआते समाहरणालय, खून के बहते परनालों के बीच पर्चे बिखरे हुए थे, पोस्टर
चिपके हुए थे. नीचे जारी करने वाले का नाम लिखा था- विभूति.
‘शासन-प्रशासन सब लूटपाट के गढ़ हैं. आम जनता यहां फ़रियाद
लेकर आती है, लुट-पिटकर बाहर निकलती है.
असली आतंकवादी खाकी वर्दी वाले हैं. आजादी के
साठ सालों का यही हासिल है. तोड़ने ही होंगे सारे मठ,
सारे गढ़...असली आजादी के लिए...नया सवेरा तभी आएगा...अपने शासन, अपने राज के लिए सरकार की दलाली करने वालों को खत्म करना होगा. पुराना सब कुछ मिटाना होगा नया रचने के लिए....’ वगैरह-वगैरह...
इतना सब कुछ और ओम प्रभाकर- फिर भी किसी को विश्वास नहीं हो रहा
था. कोई कैसे मान सकता था.
धरणीधर बाबू का भी यही कहना था. पंथपाकड़ हाईस्कूल के रिटायर्ड
हेडमास्टर धरणीधर बाबू ने पहली बार मिथिला मिहिर टीवी चैनल के कैमरे के सामने साफ
कहा था कि ओमप्रकाश को वे उसके जन्म से जानते हैं. वह तो
इतना डरपोक है कि इतना बड़ा कांड करने की बात तो दूर उसके बारे में वह सोच भी नहीं
सकता.
धरणीधर बाबू को सुनने वाला कौन था...
कांड तो हो गया था...
उनींदे-से कस्बे के एक अखबार से शुरु हुई इस कहानी से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सन्दर्भ जुड़ते जा रहे थे. ओम प्रभाकर
एक मुफस्सिल अखबार में जगह बनाने की कोशिश करने वाला पत्रकार नहीं किसी अंतरराष्ट्रीय
साजिश के एक स्थानीय मोहरे में बदलता जा रहा था...
बी.ए. की पढ़ाई पूरी करके वह कई साल नेपाल
में रहा. कहा जाता है वहीं उसके संबंध माओवादियों से बने.
सूत्रों की मानें तो नेपाल के माओवादी संगठन से उसके रिश्ते कितने
प्रगाढ़ हो गए थे इसका अंदाजा इस बात से लगाया कि पिछले दिनों उसने भारत के बड़े
माओवादी नेताओं की नेपाल के बड़े नेताओं के साथ बैठक उत्तरांचल के एक गुप्त जंगली
ठिकाने पर करवाई थी. कहते हैं दो दिनों तक चली उस बैठक में
दोनों देशों के चरमपंथी संगठनों ने भविष्य में साथ मिलकर कुछ बड़ी कार्रवाई करने
की योजना बनाई... इस संदर्भ में ओम प्रभाकर के छद्म नाम से
रह रहे इस बहुरुपिए की गिरफ्तारी से आने वाले समय में कुछ बड़े खुलासे हो सकते हैं.
उसी अखबार ने उसके पिता यह बयान भी छापा था कि अगर उनका बेटा देश के कानून के
अनुसार अपराधी साबित होता है तो उसे अवश्य सजा मिलनी चाहिए.
एक अखबार ने उसके पिता द्वारा सरकार को लिखे एक पत्र का जिक्र किया जिसमें
सरकार से उसने प्रार्थना करते हुए लिखा था कि उसके घर में ओम प्रकाश के अलावा कोई
कमानेवाला नहीं है. उसके बूढ़े माता-पिता को देखनेवाला कोई
नहीं है. वही लिख-पढ़ कर कुछ कमा लेता
था जिससे घर को खर्चा चलता था. उसके इस प्रार्थनापत्र पर
सहानुभूतिपूर्वक विचार करते हुए उनकी देखभाल करने के लिए सरकार कुछ मदद करे.
वे जांच में पूरी तरह सहयेाग करेंगे...
ओम प्रभाकर खबरों में ऐसा छाया हुआ था कि उसकी असली कहानी गुम होती जा रही थी. उसे जानता ही
कौन था. पिछले कई साल से वह अलग-अलग
गैर-सरकारी संगठनों, समाचारपत्रों आदि
के लिए अनियमित तौर पर लेखन, विशेषकर अनुवाद का काम करता था.
पिछले सालों में वहां की पौराणिकता के नाम पर शोध करने के नाम पर,
खेती के नए तौर-तरीकों के प्रचार के नाम पर,
शिक्षा के नाम पर, महिला सशक्तीकरण के नाम पर
कई एनजीओ खुले. रोजगार के नए-नए रास्ते
यहां भी खुलने लगे थे.
ओम प्रभाकर की लेखनी में ऐसा जोर था कि वह उनके लिए स्वतंत्र रूप से लेखन करता. अखबार में नाम
छपने से बाहर काम मिलने में आसानी हो गई. उसका नाम देखकर
एनजीओ वाले, दूसरे अखबार वाले, विज्ञापन
वाले जरूरत पड़ने पर उससे कुछ लिखवा लेते. बंका बाज़ार के
व्यापारियों के लिए-लिए वह नए साल पर, दीवाली
पर क्लाइंट्स के लिए शुभकामना सन्देश लिखता, भगवा राज में नव-संवत्सर सन्देश लिखने का चलन भी शुरु हो गया था. उसकी
कलम अच्छी चलने लगी थी, बड़े-बूढ़े सेठ
उससे लिखवाते. पैसा भले कम देते आशीर्वाद भरपूर देते.
बढ़िया चल रहा था.
राजधानी के अखबार में जब नियमित काम मिलने लगा तो उसने तय किया दिल्ली जाकर
पत्रकारिता नहीं करेगा. पढता रहता था क्षेत्रीय पत्रकारिता
की संभावनाएं अनंत होती जा रही हैं. अब हिंदी के अखबार
दिल्ली में नहीं छोटे-छोटे कस्बों में खुल रहे थे.
फिर माता-पिता, खेत-खलिहान...
कौन था उसके सिवा सब का.
फिर अपने इलाके में पत्रकार बना रहेगा तो थोड़ी-बहुत समाज में पूछ भी बनी रहेगी,
मौके-बेमौके लोगों के काम आ सकेगा, किसी को चीनी मिल की पुर्जी दिलवा देगा, थाने में
किसी कि पैरवी कर देगा... एस.डी.ओ. साहब के ऑफिस में फ़ाइल आगे बढ़वा देगा...
रास्ता में दो लोग देखेंगे तो पहचान लेंगे. बाकी
बड़े-बड़े शहरों में कौन किसको पहचानता है...
यहीं उसने गलती कर दी. जब गांव-शहरों
से लड़के दिल्ली, बंगलोर भागने के जुगाड़ में लगे रहते थे तो
उसने दिल्ली से वापस लौटने की गलती कर दी, उसके साथ स्कूल से
लेकर बीए तक पढ़ने वाले गजेंदर ने खुद मुझसे कहा था. ‘वह
अपने समाज की खुशहाली के लिए कुछ करना चाहता था... यहीं उसने
गलती कर दी.’’
आज उसकी पैरवी करने वाला कोई नहीं था.
मानवाधिकार आयोग से जाँच की मांग को लेकर कुछ गैर-सरकारी संगठनों
द्वारा जो याचिका दायर की गई थी उसमें इस ओर इशारा किया गया था कि वह समय-समय पर स्थानीय पुलिस के दमन के खिलाफ एक स्थानीय अखबार में लिखता था,
प्रशासन के भ्रष्टाचार को ज्ञात तौर पर उसने दो बार उजागर करने का
काम किया था. वह मूलतः एक सामाजिक कार्यकर्ता था जो धीरे-धीरे नयानगर में गलत काम करने वालों के लिए खतरा बनता जा रहा था. पुलिस ने मौका देखकर उसको फंसा दिया.
जवाब में पुलिस ने उसकी एक तस्वीर जारी की जिसमें वह नेपाल के एक माओवादी नेता
के साथ खड़ा था.
सब अख़बारों में छप रहा था. इतनी बड़ी घटना घटी थी, इतना बड़ा कांड हुआ था...
उसके नाते-रिश्तेदारों का कहना था कि नेपाल के धनुषा अंचल के लोहना गांव
में उसके मामा की ससुराल है. अपनी मामी के साथ बचपन में उसका
वहां काफी समय बीता था क्योंकि उसकी माँ को पीलिया हो गया था.
वह वहाँ जाता रहता था. और तस्वीर में जो आदमी उसके साथ
दिखाई दे रहा है वह असल में उसी लोहना गांव का रहनेवाला है. तस्वीर
उसके मामी के भाई की शादी की है, जनकपुर के प्रसिद्ध ममता
स्टुडियो के फोटोग्राफर को शादी में फोटो खींचने का सट्टा मिला था.
एक बड़ी ‘स्टोरी’ बन गई थी. टीवी
पर तो बड़ी-बड़ी चीज़ें पीछे छूटती जा रही थीं उत्तर बिहार
को हिला कर रख देने वाला यह ‘समाहरणालय कांड’ भी पीछे छूट गया. मगर अख़बारों में तो खूब चली
पत्रकार ओम प्रभाकर की कहानी, माओवादी कांड की कहानी...,
षड्यंत्र की कहानी, विध्वंस की कहानी...
खूब चली.
उलझती जा रही थी. किसी ने लिखा था- कुछ नहीं, सब एसपी अनमोल कुमार और उसके विश्वस्त अफसरों की सोची-समझी योजना के तहत हुआ था. मेडल, ईनाम, प्रोन्नति, ताम-झाम सब एक झटके में ही पाने की बनी-बनाई योजना थी
उनकी.
साजिश के तार एक दिल्ली-रिटर्न पत्रकार से जोड़ना- सुनने में बड़ा नाटकीय लगता है न. सच में, लिखते हुए मुझे भी नाटकीय लग रहा है.
वैसे आप ही बताइए क्या हम रोज और भी नाटकीय होते जा रहे समय में नहीं जी रहे...
सब कुछ नाटक लग रहा था. एक ऐसा नाटक जिसके लिखने वाले का वही
हाल था कि जितने मुंह उतनी बातें. उसके बारे में तो पता नहीं
चल पा रहा था पर नाटक में रोज नए-नए अध्याय जुड़ते जा रहे थे.
कुछ-कुछ त्रासद भी. सोचिये तो बड़ी रूमानी
त्रासदी लगने लगती है ओम प्रभाकर की कहानी.
एक छोटा-मोटा(सचमुच में) पत्रकार,
जो शायद ‘बुनियाद’ धारावाहिक
के कथानायक की तरह अपनी कलम से इन्कलाब लाना चाहता था, अपनी
कलम की ताकत पर जिसे इतना भरोसा था कि उसके सहारे अपने कस्बे नयानगर में जीने का
ख्वाब देखता था, बल्कि जीने लगा था.
उसके बारे में अचानक यह पता चले या चलिए पत्रकारिता की भाषा में लिखते हैं: कथित तौर पर
पता चले कि असल में वह एक माओवादी है, जिसे सरकारें आतंकवादी
से कम नहीं मानती. कि उसके संबंध अंतरराष्ट्रीय माओवादियों
से हैं. कि वह एक ऐसी वारदात का मास्टरमाइंड था जिसकी गूँज
दिल्ली तक सुनाई दे रही थी. कि उसने विभूति नाम से माओवादी
साहित्य का बड़े पैमाने पर अनुवाद किया था. जिसके माध्यम से
सीमावर्ती जिलों में चोरी-छिपे माओवादी चेतना का प्रचार किया
जा रहा था...
लग रही है न रहस्य-रोमांच से भरी एक ट्रेजिक कहानी...
वैसे सबसे बड़ा रहस्य यह था कि जिस ओम प्रभाकर का नाम लाखों-करोड़ों लोगों
के लिए अख़बारों के माध्यम से प्रातःस्मरणीय हो गया है. वह
आखिर है कहां? क्या पुलिस ने उसे पकड़ लिया है, किसी गुप्त ठिकाने पर उसे छिपाकर रखा गया है. कि
छुपकर उससे राज़ उगलवा रही है.
कांड के कुछ ही दिनों बाद एक दिन उसके माता-पिता भी गायब हो गए. कयास लगाये जा रहे थे कि मौका देखकर उनको भी बेटे ने नेपाल में अपने
सुरक्षित ठिकाने पर बुला लिया. हालाँकि ऐसा मानने वाले कम ही
थे. लोगों का तो यह भी मानना था कि मीडिया की नज़रों से
छिपाने के लिए पुलिस ने ही उन लोगों को कहीं छुपा दिया था. क्या
जाने... सब मान बैठे थे कि जिले के तमाम बड़े-बड़े अपराधियों की तरह ओम भी घटना के बाद नेपाल भाग गया, जहां से आज तक किसी अपराधी का कोई पता नहीं चल पाया.
यह तो महज एक कहानी थी.
एक ऐसी कहानी जिसे अख़बारों ने अपनी ‘स्टोरी’ के
माध्यम से बड़ी खूबसूरती से गढा था.
कुछ कहानियां और थीं, नयानगर में जब दो-चार लोग मिलते-बैठते तो उनकी चर्चा कर लेते.
ओम प्रभाकर के गायब होने को लेकर सबसे पहले एक कहानी यह आई कि वह वारदात
की रात ही नेपाल निकल गया. उसे वहां किसी सुदूर इलाके में
फिलहाल माओवादियों ने छिपा रखा है. जब हल्ला शांत हो जायेगा
तो उसे कहीं और भेज देंगे, किसी और योजना को अंजाम देने,
किसी और रूप में, किसी और नाम से..
एक अखबार में किसी शानदार घर की तस्वीर छपी थी. लिखा था काठमांडू शहर में ओम प्रभाकर
का घर. उस अखबार में जो लिखा था वह तो उस ओम प्रभाकर के जीवन
से मेल नहीं खाता था जो अपनी कलम की मेहनत से कमाता था, जिसके
माता-पिता उसके गायब होने के बाद सरकार से मदद की गुहार कर
रहे थे, उसका ऐसा आलीशान घर. सो भी
काठमांडू में.
पुलिस का कहना था, आजकल काठमांडू में माओवादियों के ही
आलीशान घर होते हैं. उनके लिए सबसे निरापद जगह हो गई है
काठमांडू. वारदात की रात ही जब तक खबर कुछ और फैलती वह निकल
गया था. ट्रेन पकड़ कर पहले बैरगिनिया पहुंचा, वहां से पैदल नेपाल के सीमावर्ती गौर बाजार, वहां से
बस पकडकर सीधा काठमांडू. इसी मकान में रह रहा था. जब तक यहां नयानगर पुलिस को इसका पता
चलता, जब तक वह वहां की पुलिस से संपर्क करने की कोशिश करती,
वह गायब हो चुका था. ‘समाहरणालय कांड’
का वांछित आतंकवादी गायब हो चुका था.
धरनीधर बाबू जैसे लोग थे जिनका खुलेआम कहना था, पुलिस वालों ने ओम प्रभाकर को आँख पर
चढ़ा लिया था. ग्राम पंचायत के चुनाव के समय उसने पुलिस के
जोर-जुर्म के बारे में लिख दिया था. उसने
अपनी एक रपट में राजधानी के ‘दैनिक गंगा टाइम्स’
में लिखा था, ‘पुलिस चुनाव के दौरान किस तरह
पक्षपात कर रही थी, आम जनता पर कितना जुल्म कर रही थी इसका
एक नज़ारा खडका पंचायत के बूथ नम्बर 4 पर देखने को मिला.
पुलिस की एक गाड़ी वहां रुकी, सब इन्स्पेक्टर
सुरेन्द्र कुमार वहां उतरा, और उतरते ही बिना किसी कारण के
उसने लाइन में खड़े लोगों पर डंडे बरसाने शुरु कर दिए. बताते
हैं कि वह मकेशर साह नामक मुखिया पद के एक दबंग प्रत्याशी से मिला हुआ था. उसे खबर मिली थी कि बूथ नंबर 4 लोग बड़ी तादाद में
वोट देने आये थे और सभी उसके विपक्ष में ही वोट दे रहे थे. इस
तरह की घटना से पता चलता है कि किस तरह ग्रामीण इलाकों में विकेन्द्रीकरण हो गया
हो लेकिन निरंकुशता अब भी वैसी ही है. पुलिस-प्रशासन का रोब अब भी चल रहा है.’
अधिक नहीं तो इतना हुआ कि सुरेन्द्र कुमार को डुमरा के पास के पुलिस लाइन में
भेज दिया गया था. जहाँ प्राकृतिक सुंदरता और ऐसी शांति थी जो किसी पुलिस अफसर
के रोब-दाब से मेल नहीं खाती थी. कहते
हैं दिल्ली विश्वविद्यालय रिटर्न उसी सुरेन्द्र कुमार ने सारा खेल रचा था ओम
प्रभाकर को फंसाने का. एस.पी साहब भी
तमगे, मेडल के चक्कर में शायद आ गए हों. एक ऐसा खेल जिसमें सब रस ले रहे थे.
एस. पी. अनमोल कुमार के बारे में भी कहने
वाले कहते थे कि साहब उतने घूसखोर नहीं थे, जो सहज भाव से आ
जाए उसी से काम चला लेते थे. पटना में पत्नी स्त्री-सशक्तिकरण की एक पत्रिका निकलती थी. सरकारी महकमों
से विज्ञापन मिल जाते. पत्रिका की कुछ प्रतियाँ छपवाकर बंटवा
दिया. काम खत्म. जब से एन.जी.ओ. के काम को लोग संदेह की
निगाह से देखने लगे थे तब से साहब लोगों ने यह नया धंधा शुरु किया था, पत्रिका निकलने का, विज्ञापन के नाम पर पैसा बनाने
का.
जीवन खुशी-खुशी चल रहा था. एस.पी. साहब की दिलचस्पी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छा जाने में अधिक थी. कोई
बड़ा पुरस्कार मिल जाए, अमेरिका में छपने वाली किसी बड़ी
पत्रिका के कवर पर फोटो छप जाए. जीवन सफल हो जाए. पैसा तो बहुत कमा लिया, और कमा लेंगे.
दबी आवाज में इस बात की भी चर्चा थी कि उन्होंने नयानगर जैसे पिछड़े जिले का
तबादला लिया ही अपने इसी ख्वाब को पूरा करने के लिए था. हाल में ही
जिले को नक्सल प्रभावित जिले के रूप में चिह्नित किया गया था. उनकी दिलचस्पी इसमें अधिक नहीं थी कि समाहरणालय कांड के असली अपराधी पकड़े
जाएँ इसमें अधिक थी कोई ऐसा पकड़ा जाए, कुछ ऐसा हो जाए कि
उनका नाम अमर हो जाए...
समाहरणालय कांड की असलियत उजागर करने में किसी की रूचि नहीं रह गई थी. अधिक रूचि उस
नक्सली को जिन्दा या मुर्दा पकडना था जो एक तरह से इलाके में बढ़ती नक्सली
गतिविधियों का सबसे बड़ा जिम्मेदार था. पुलिस का यही मानना
था, प्रशासन का यही मानना था. पुलिस-प्रशासन से मिली सूचनाओं के आधार पर खबर बनाने वाली मीडिया का यही मानना
था. जब समाज के इतने सारे जिम्मेदार लोगों का ऐसा मानना था
तो जनता भी यही मानने लगी थी- ओम प्रभाकर उर्फ ओम प्रकाश राय
उर्फ विभूति एक खूंखार नक्सली था.
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उन्हीं दिनों जब मुंबई के एक फिल्म-निर्देशक दोस्त ने किसी कहानी का
आइडिया माँगा था तो मैंने उसे ‘वन लाइनर’ भेजा भी था- अनुवादक और सीधा-सादा
फ्रीलांसर पत्रकार ओम प्रभाकर जिसके बारे में अचानक एक दिन पता चलता है कि वह तो
असल में एक खूंखार नक्सली है. उसने जवाब में एस.एम.एस. किया- आइडिया अच्छा है, डेवलप करो. मैं
तभी से कहानी के सूत्रों को जोड़ने की कोशिश में लगा हूं...
ओम प्रभाकर ख़बरों में बना रहा. फिर हर खबर की तरह गायब हो गया.
लोगों की दिलचस्पी इस बात में कम होती गई कि आखिर ओम प्रभाकर कहां
गायब हो गया? बड़े-बड़े कांड करने वाले
जब गायब हो जाते हैं वह तो छोटा-सा पत्रकार था.
क्या हुआ?
महीनों बीत गए. जब ऐसा लगने लगा कि सब उसको यानी ओम प्रभाकर को, समाहरणालय कांड को भूल चुके हैं कि कुछ ऐसा हुआ जिससे सबको सब कुछ याद आ
गया. खबर भिट्ठा मोड़ बॉर्डर से आई थी. ‘सीतामढ़ी समाचार’ ने खबर ब्रेक करते हुए लिखा था
कि दीवाली से दो दिन पहले खेत के रास्ते कुछ लोग बॉर्डर पार कर रहे थे. पर्व-त्यौहार के मौके पर वैसे ही बॉर्डर पर गश्त तेज
कर दी जाती थी. नेपाल से आने वाले वे लोग गश्ती दल को पहली
नजर में ही संदिग्ध लगे. पुलिस ने उनको रुकने के लिए जैसे ही
कहा, सब भागने लगे, भागते हुए गोली
चलाने लगे. जवाब में पुलिस ने भी फायरिंग की.
दो लोग मरे गए. एक मरने वाले की पहचान ओम प्रकाश राय उर्फ ओम प्रभाकर के रूप
में की गई है. माओवादी कांड का यह मुख्य अभियुक्त दोबारा
सीमा पार करने की कोशिश कर रहा था. शायद किसी बड़ी घटना को
अंजाम देने की योजना रही हो. पुलिस की चुस्ती ने इस बार
माओवादियों की चाल को नाकाम कर दिया.
उसके मरने के साथ समाहरणालय कांड के राज हमेशा हमेशा के लिए दफ़न हो गए, उसी समाचार में
पुलिस की ओर से कहा गया था.
राज तो कई और थे जो उसके साथ दफ़न हो गए. सबसे बड़ा राज यह कि आखिर इतने महीने
वह जिले में ऐसे किस स्थान पर था कि जहाँ उसे कोई भी नहीं देख पाया? किसी को उसके होने की भनक नहीं हो पाई?
जब कुछ नहीं पता चल पाता तो कहानियां चल पड़ती हैं. ओम प्रभाकर के
गायब होने को लेकर सबसे ज्यादा जो कहानी चली उसका संबंध पुलिस से था. कहा गया पुलिस ने उसे पहले तो छुपाये रखा, फिर मौका
लगते ही सीमा पर ले जाकर मार डाला. बहुत दिनों तक यह कहानी
भी चलती रही कि असल में ओम प्रभाकर नामक वह माओवादी किसी बड़ी वारदात की तैयारी कर
रहा था. उसी कारण सीमा के इस पार उस पार आना-जाना लगा रहता था. एक रात पुलिस के हत्थे चढ़ गया.
बस इतना संयोग था.
हाँ, इस सब के बीच मैं यह बताना तो भूल ही गया कि ओम प्रभाकर की
लाश के पास पुलिस ने एक बैग भी बरामद किया था जिसमें बड़ी मात्रा में अनूदित
माओवादी साहित्य था. किसी चे ग्वेवारा की ‘मोटरसाइकिल डायरी’ नामक पुस्तक का हिंदी अनुवाद
भी था. अनुवादक का नाम था वही- विभूति.
पुलिस का कहना था कि अब इसमें कोई संदेह रह ही नहीं गया था कि
विभूति के नाम से अनुवाद करने वाला वही ओम प्रभाकर था.
एस. पी. अनमोल कुमार ने एक पत्रकार वार्ता
में कहा था, उसने अनुवाद की गलती वाला ईमेल इसीलिए किया था
ताकि इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाए कि विभूति नाम से वही माओवादी साहित्य का
अनुवाद करके युवाओं के बीच बाँट रहा था, नई पीढ़ी को
दिग्भ्रमित कर रहा था.
यह महज संयोग है मेरे लिए भी. मैंने अखबार में उन दिनों छपी ख़बरों
को काट कर एक फ़ाइल में रख लिया था, अपनी उस फ़िल्मी स्टोरी
को डेवलप करने के चक्कर में. अब आज उनको लिखने लगा तो कहानी
बन गई.
सच बताता हूं मेरी न तो माओवादी विचारधारा में कोई आस्था है, न उस शातिर
पत्रकार ओम प्रभाकर के लिए मेरे मन में कोई सहानुभूति है. बस
एक फ़िल्मी कहानी का चक्कर है... कहानी है कि उलझती ही जा
रही है, कितने सिरे हैं जो जुड़ ही नहीं पा रहे हैं...शायद सच को सच की तरह लिखना कहानी नहीं हो पाता... कल्पना
मिलनी पड़ती है... क्या करूँ! सच
कल्पना से अधिक अविश्वसनीय होता जा रहा है, मेरी कल्पना उससे
आगे नहीं जा पा रही है.
शायद आपकी चली जाए...
अनुवादक हूं. जब भी कुछ अनुवाद के लिए मिलता है पहले पढकर देख लेता हूं-
कहीं कुछ ऐसा तो नहीं जिससे बगावत की बू आती हो.
क्या पता अनुवाद की कोई ऐसी ही गलती कर जाऊं.
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एक बेहद भयावह विषय पर एक खास शिल्प में लिखी गई यह कहानी अलग किस्म की संवेदना की मांग करती है। हमारे समय में ऐसे निर्मम हादसे आये दिन होते रहते हैं, जिनकी अच्छी खबर लेती है यह कहानी। लेकिन मेरे लिये उस पत्रकार के साथ घटित यातनाओं की कल्पना ही दिल दहला देने वाली है, जो कहानी के परिपार्श्व में हैं... कहानी बुनने की कला प्रभात जी के पास अद्भुत है और यहां उन्होंने जो शिल्प अपनाया है वह पाठक को रिलीफ वर्क जैसा लगता है, लेकिन उसके पीछे की रोमांचक दुनिया के बारे में बार-बार सोचने के लिए विवश करता है। प्रभात जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंमहाश्वेता देवी की कहानियों में इस तरह का यथार्थ बोध देखा है .. प्रभात की ये कहानी प्रशासन से आम आदमी तक के जीवन की आयरनी है . शिल्प तो प्रभात की कहनियों में नयापन लिए होता ही है पर समय को साथ लेकर जिस सम्प्रेषणीयता के साथ हर चरित्र और जीवन से जुडी घटनाएं सामने आ रही हैं , वे मर्म को छूती हैं . बधाई प्रभात और अरुण देव ..आभार समालोचन .
जवाब देंहटाएंइधर के नये कथा-लेखन में जहां घटनाओं और कथानक के ब्यौरे गैर-जरूरी मानकर महज मनोवेगों, कलात्मक भाषिक उक्तियों और दिलचस्प पाठ की बुनावट को कथा-शिल्प की अन्यतम उपलब्धि माना जा रहा है, ऐसे में प्रभात की यह कहानी पढ़ना एक अलग तरह का अनुभव लग सकती है। यहां एक रोमांचक कथा के वे तमाम ब्यौरे हैं, घटनाएं सीधे बेशक न घटती दीख रही हों, लेकिन जो घट चुका है, उसके लोमहर्षक ब्यौरे बगैर किसी कोण को अपनाए यथावत बयान कर दिये गये हैं, और तो और नैरेटर द्वारा बगैर कोई इन्वाल्वमेंट दिखाए पत्रकार ओम प्रभाकर को एनकाउंटर में मार दिये जाने के अखबारी ब्यौरों और एक अन्य अखबार में प्रकाशित ओम प्रभाकर की उस रपट को, जिसमें उसने स्थानीय पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाया था कि उसने निकाय चुनाव में एक दबंग प्रत्याशी के अनैतिक काम का साथ दिया, जिस निर्लिप्त ढंग से बयान किया है, वह मीडिया में पनपती संवेदनशून्यता की ओर भी इशारा करती है। निश्चय ही यह हमारे समय के निर्मम यथार्थ की न केवल एक बेबाक सचाई बयान करती है, बल्कि ठहरकर सोचने पर विवश करती है। प्रभात को बधाई।
जवाब देंहटाएंकहानी एक भयावह ट्रेज़डी को जिस तरह से दर्ज करती है वह शासन व्यवस्था के तमाम हथकंडो को एक घटिया कामेडी में तब्दील कर देता है. एक ऐसा परिवेश जिसमें कोई अपनी तरक्की के लिए किसी की ज़िंदगी तबाह कर सकता है...सोनी सोरी को एक नक्सलवादी में तब्दील कर सकता है...कहानी उस परिवेश की यंत्रणा को गजब तरीके से दर्ज करती है. हालाँकि कहीं-कहीं कसाव बिखरता सा लगा और कहानी आख्यानात्मक सी बनने लगी, लेकिन कुल मिलाकर मैं इसे प्रतिरोध की एक सशक्त कहानी कहूँगा.
जवाब देंहटाएंहालाँकि प्रस्तुति में 'किसी खास विचारधारा से कायल न होने' वाली बात अलग-अलग लेखकों के लिए बार-बार दुहराया जाना मुझे गैर ज़रूरी लगता है...
यह हमारे इसी समय की, जिसमें हम सब तमाम तरह के खतरों और षडयंत्रों के बीच घिरे हुए हैं, एक ज़रूरी कहानी है. प्रभात रंजन को बधाई...
जवाब देंहटाएंbahut badhiyaan lagaa padhkar.
जवाब देंहटाएंइस कहानी के सूत्र हमारे समाज में इस कदर बिखरे पड़े हैं , कि उन्हें कही से भी उठाकर जोड़ा जा सकता है ...गुजरात , दंतेवाडा , हेमचंद्र पांडे, सोनी सोरी , सीमा आज़ाद जैसे अनगिनत स्थल और नाम इसे पढते हुए हमारे जेहन में कौंधने लगते हैं ..|...यह कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की हत्या के सहारे तमगे बटोर लेने की कहानी नहीं है , वरन उस हत्यारी वव्यवस्था की दास्तान है , जो अपने फेंके टुकडो को उठाने से इंकार करने वालों को न सिर्फ इस दुनिया से उठा देती है , वरन उस उठाने पर गर्व भी कर सकती है ...|...शर्म आती है इसे लोकतंत्र कहते हुए ....|बधाई प्रभात जी को ...
जवाब देंहटाएंइस दौर की 'भयानक खबर' को कहानी में कहने की हर एक रचनात्मक कोशिश का स्वागत होना ही चाहिए .
जवाब देंहटाएंपिछले छह सात साल से क्राइमबीट देख रहा हूं...इस तरह के वाकये बहुत आम हैं...ऐसी दर्जनों घटनाओं को करीब से देखा है...खाकी और खादी का गठजोड़ ऐसे ही काम करता है...सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे...सच ही कहा है कि सच्ची घटनाओं पर कभी कभी यकीन करना भी मुश्किल हो जाता है लेकिन यही है सुशासन का सच । इस कहानी के लिए प्रभात को बधाई।
जवाब देंहटाएंसमालोचन का आभार क्योंकि उसने इतनी अच्छी तरह मेरी कहानी को प्रस्तुत किया. आप सबका क्योंकि आपने पीठ ठोंकी. नन्द जी, उदय जी, अपर्णा दी, प्रेमचंद भाई, आशुतोष जी, रामजी भाई, सदन, अशोक भाई, राकेश सबकी शाबासी और शिकायतों का शुक्रिया. मुझे खुद लगता है कि ये कहानी अपूर्ण है. लेकिन शायद यही अपूर्णता है जो मुझे बार-बार लिखने के लिए उकसाता है...शायद इस बार कुछ ऐसा लिख जाऊं जो perfect हो जाए... नहीं हो पाता. कुछ मुझे खुद लगता है भाषा कुछ अधिक अखबारी हो गई है. लेकिन इस कहानी का पूरा ताना-बाना रचा ही है मैंने अखबारी ख़बरों, बयानों के जरिये. जिन्हें हम सच मानते हैं असल में वे भी झूठे निकलते हैं. सत्य कुछ नहीं होता, सत्य का आदर्श होता है जिसका कोई मतलब नहीं रह गया है. एक बात उदय प्रकाश जी से, मैंने हमेशा कम से कम कहानियों में उनके ही बताये आदर्शों पर चलने का प्रयास किया. यह अलग बात है कि उन आदर्शों तक पहुँचने में फेल होता रहा. लेकिन ऐसी कहानी लिखना जिसका कोई विजन हो, उनसे ही सीखा. हो सकता है कहानी उस तक पहुँच न पाई हो. लेकिन कोशिश तो की. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंपूरी कहानी एक सांस में पढ़ी, रौंगटे खड़े कर देने वाली हकीकत, इतनी क्रूर कि आम आदमी कानून की बिसात पर व्यवस्था का मात्र मोहरा बन कर रह जाता है, तथाकथित गिरफ्तारियां और एनकाउंटएर्स तो सदा से ही संदेह के घेरे में रहे हैं, प्रभात जी की कहानी ऐसी कई सच्चाइयों से रु-ब-रु कराती है.....प्रभात जी को बधाई और अरुण जी और समालोचन का धन्यवाद् इसे हम तक पहुँचाने के लिए.............
जवाब देंहटाएंइस बुरे, दुस्वप्न-जैसे समय को चित्रांकित करने वाली बड़ी कहानी कह दी है, प्रभात रंजन ने. अखबारी ख़बरों के मुहावरे में रचा जाना इस कानी की सीमा का नहीं, सामर्थ्य का द्योतक है. एक एनकाउंटर अनेक एनकाउंटरों की भयावहता को संप्रेषित करता है, दहशत भी पैदा करता है. लेकिन सतह के नीचे आयरनी की अंतर्धारा भी प्रवाहित होती लगती है. बधाई, प्रभात को.
जवाब देंहटाएंअपने प्रभावशाली कथ्य ही नहीं,कथन-भंगिमा और तेवर के कारण यह एक अविस्मरणीय कहानी है. सही अर्थों में आज के यथार्थ की कहानी. कहानी के अंत में कहा गया एक वाक्य, ''सच कल्पना से अधिक अविश्वसनीय होता जा रहा है... मेरी कल्पना उससे आगे नहीं जा पा रही--- शायद आपकी चली जाय...'' हमारे समय को शब्द देने के लिए इससे बेहतर अभिव्यक्ति और क्या हो सकती है. इन दिनों जो कहानियां प्रकाशित हो रही हैं, 'कथा-गाथा' निश्चय ही उस परंपरा का सार्थक विस्तार है... मनोहरश्याम जोशी, पंकज बिष्ट, उदय प्रकाश, प्रत्यक्षा, सोनाली सिंह, अशोक कुमार पाण्डे, कविता आदि की कहानियों का विस्तार. बहुत-बहुत बधाई.
जवाब देंहटाएंएक खास शिल्प में ढालकर आपने जो यह कथा बांची है, उसमें तेवर है। एकदम स्क्रीप्टनुमा। अखबार जीवन, अनुवादी वक्त और व्यवस्था को लेकर एकदम सटीक कहानी। मैं इसे छायांकन भी कहना चाहूंगा। शुक्रिया
जवाब देंहटाएंmihir ki li hui shaandaar foto ke saath ek jaandaar kahaani ke liye saadhuwaad! Uday bhaiji aur Joshi kakka ke asar se to ham bach nahin sakte, aur bachna bhi nahin chaahiye. Bhaiji ki tarah satta tantra ka khauf aur diwangat kakka ki tarah kahaanion ke banne ki kahaani. Gazab ki cheez bani hai. ek baar fir saadhuwaad! par chhapne se pahle agar maine padhi hoti to kahta ki abhi do din kursi par pichhwaara tika ke kaam karen. lohaar waala saara kaam ho chuka hai, thoda sonar waala rahta hai. (socho, janwaadi hokar kaisi maang kar raha hoon!)--sanjeev
जवाब देंहटाएंmeri taraf se bhi bhadhai sir jee.
जवाब देंहटाएंआज के दौर में इंसान का जीवन ट्रेजेडी में तब्दील हो रहा है उसका साक्षात् प्रमाण प्रस्तुत करती है प्रभात जी यह नई कहानी. उनकी इस उल्लेखनीय कहानी को समालोचन में प्रकाशित करने के लिये अरुण देव जी का शुक्रिया
जवाब देंहटाएंएक बेहतरीन कहानी. प्रभात जी को बधाई.
जवाब देंहटाएंकुछ ऐसी ही कहानी हेमचन्द्र कि थी. वे भी नई दुनिया में लिखते थे. बाद में जब नक्सलवादी कहकर उनका एन्कोउन्टर किया गया तो नई दुनिया ने लिखा कि इस आदमी से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं. प्रभात ने कहानी में कही अपनी तरफ से नहीं कहा कि ओम प्रभाकर नक्सली था या नहीं. बस हालात अपनी कहानी खुद कह जाते हैं, यही इसकी खूबसूरती है.
जवाब देंहटाएंहमारे समय के यथार्थ को परत-दर-परत खोलती एक अच्छी कहानी। प्रभात भाई को बहुत-बहुत बधाई....
जवाब देंहटाएंमैं अखबारों की खबरों पर बहुत विश्वास रखता था ,पर इस कहानी को पढ़ कर लगा की जरुरी नहीं की जो वहाँ लिखा जा रहा है वही सच है | हो सकता है कि वह सच प्रायोजित हो | प्रशासन और पत्रकारिता अगर मिल जाये तो किसी को आबाद और बरबाद कर सकती है अपने हितों के लिये | इस कहानी से मेरी समझ में थोडा बहुत इजाफा हुआ ,ऐसा महसूस हो रहा है | बहुत बधाई प्रभात सर ......
जवाब देंहटाएंआज के समय की वास्तविकता को प्रभात जी ने बहुत ही मंझे हुए अंदाज़ में इस कहानी में गढ़ दिया है, प्रसाशन का सच यही है, ऊपर कुछ भीतर कुछ। प्रभात जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंप्रभात रंजन की यह कहानी कहानी से ज़्यादा आज का भयावह यथार्थ है। इस सच्चाई को निडरता के साथ लिखने के लिए मैं प्रभात रंजन के सामने नतमस्तक हूँ। वे एक अच्छे कहानीकार हैं।
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