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साहित्य और राजनीति :
गोपाल प्रधान
अगर
इतिहास देखें तो साहित्य और राजनीति की यह पारस्परिकता नई नहीं है. संस्कृत साहित्य
से परिचित लोग जानते हैं कि वाणभट्ट की कादंबरी में शुकनासोपदेश राजनीति के
बारे में एक गंभीर उपदेश है. प्रसिद्ध ग्रंथ पंचतंत्र की रचना ही राजकुमारों
को राजनीति की शिक्षा देने के लिए हुई थी. कालिदास ने भी अपनी रचनाओं में राजनीति पर
टिप्पणी की है. शूद्रक के मृच्छकटिकम (मिट्टी
की गाड़ी)और विशाख के मुद्राराक्षस की
बात ही क्या, ये तो शुद्ध रूप से राजनीतिक नाटक
थे. आखिर क्यों साहित्य से राजनीति के जुड़ाव की यह दीर्घ परंपरा है
? इसका कारण है कि साहित्य समूचे समाज से जुड़ा हुआ है जिसका एक अनिवार्य
अंग राजनीति है इसलिए राजनीति से उसकी दूरी ही अस्वाभाविक है. तुलसीदास के रामराज्य
की यूटोपिया को भी हम एक आदर्श राज्य का सपना मान सकते हैं उनके आदर्श की आलोचना के
बावजूद. इस सुदीर्घ परंपरा ने ही वह जगह दी जहाँ से प्रगतिशील लेखकों ने राजनीतिक साहित्य
लिखना शुरू किया था.
सवाल
है कि जब राजनीतिक साहित्य की यह विशाल परंपरा थी ही तो प्रगतिशील लेखकों पर यह तोहमत
क्यों कि उन्होंने साहित्य को उसके मूल धर्म से विलग कर दिया ?
मुक्तिबोध ने ठीक ही इसकी जड़ें अमेरिका के नेतृत्व
में संचालित सोवियत रूस और वामपंथ विरोधी शीत युद्ध के वैचारिक माहौल में देखीं. हम
इसमें स्वतंत्रता के बाद सत्तासीन शासक समुदाय की यह मानसिकता भी तलाश सकते हैं जिसके
कारण उसे विरोध की कोई भी आवाज नागवार गुजरने लगी थी. खासकर मार्क्सवाद का प्रभाव उसे
खासा खतरनाक प्रतीत हो रहा था. स्वतंत्रता के पहले से ही जारी तेलंगाना विद्रोह
के आवेग को साहित्य की क्रांतिकारी धारा से ऊर्जा प्राप्त हो रही थी और समूचे बौद्धिक
माहौल पर मार्क्सवाद का असर तारी था. शासन तंत्र के लिए जरूरी था कि बुद्धिजीवियों
में अराजनीतिक माहौल पैदा किया जाए और व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा साहित्य की स्वायत्तता
जैसे नारे उसी जरूरत के तहत दिए गए.
लेकिन
इस प्रचार के बावजूद प्रतिरोधी साहित्यिक धारा का लेखन बंद नहीं हुआ जो बहुत हद तक
राजनीतिक लेखन ही रहा. नागार्जुन को हम इस तरह के लेखन का पितामह कह सकते हैं.
नागार्जुन ने इसका खतरा उठाया कि उनके लेखन को घटिया कहा जा सकता है. उनके लेखन को
तुच्छ मानने की आदत गुणीजन में है लेकिन इसकी शक्ति यह है कि स्वतंत्रता के बाद का
भरोसेमंद राजनीतिक सामाजिक इतिहास इसके बगैर लिखना असंभव है. अंतिम काव्य संग्रह तक
उनकी यह विशेषता बनी रही. नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक और समाजवाद की स्थापना से लेकर
उसके ध्वंस तक का समूचा भारतीय राजनीतिक मानस नागार्जुन की कविताओं में बोलता है.
विशेषज्ञतापूर्ण
इतिहास लेखन के मुकाबले जनता की स्थिति और चेतना के अधिक प्रामाणिक चित्र नागार्जुन
के यहाँ हैं. उन्हीं के साथी मुक्तिबोध ने राजनीतिक साहित्य को गंभीर बनाया.
मुक्तिबोध की उपस्थिति साहित्य में वैचारिक तीव्रता के लिए ही मानी जाती है.
रघुवीर
सहाय और धूमिल द्वारा राजनीतिक प्रतिष्ठान की गहन आलोचना के उदाहरण रघुवीर
सहाय की कविता अधिनायक और धूमिल का समूचा काव्य संग्रह संसद से सड़क तक
है . इसी धारा में हम इमर्जेंसी के बाद लोकप्रिय कवि के रूप में उभरे गोरख पांडेय
को भी रख सकते हैं. गोरख पांडेय की खासियत यह थी कि उन्होंने क्रांतिकारी राजनीतिक
लेखन को कलात्मक ऊँचाई तो दी ही उसे दार्शनिक गहराई भी दी. यह धारा अदम गोंडवी
से लेकर बल्ली सिंह चीमा तक चली आती है. इस लेखन की एक बड़ी खूबी इसका शासन तंत्र
के विरोध में खड़ा होना है. साहित्य का यह स्वाभाविक धर्म है क्योंकि साहित्यकार किन्हीं
स्थितियों से व्यथित होकर और उन्हें बदलने की इच्छा से ही रचना कर्म में प्रवृत्त होता
है. अन्यथा वह भी सबकी तरह मस्त जीवन बिताता. साहित्य का लेखन ही एक तरह की परिवर्तनेच्छा
का सूचक है. इसीलिए प्रेमचंद ने उसी भाषण में कहा था कि साहित्यकार स्वभावतः प्रगतिशील
होता है.
आइए
प्रेमचंद के मूल कथन को देखें ताकि बात साफ़ हो सके. उनका कहना है -‘वह (साहित्य) देश भक्ति
और राजनीति के पीछे चलने सच्चाई भी नहीं, बल्कि
उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है .’
आखिर इसका संदर्भ क्या है ? साफ़
तौर पर यह उस समय की राजनीति की सीमाओं के पार जाने की माँग साहित्य से करता है. खुद
प्रेमचंद का साहित्य इसका प्रमाण है. कांग्रेस का समर्थक होने के बावजूद वे जमींदारों
का समर्थन करते हुए देखकर कांग्रेसी नेताओं की निर्मम आलोचना करने में नहीं हिचकते.
उनका उपरोक्त कथन न सिर्फ़ उनके दौर की राष्ट्रवादी राजनीति की आलोचना करता है बल्कि
आज भी हमसे अंधराष्ट्रवाद के विरुद्ध खड़ा होने की माँग करता है. यहीं प्रगतिशील लेखन
की एक और विशेषता का महत्व और प्रासंगिकता का पता चलता है. ध्यान दें तो सभी प्रगतिशील
लेखकों के लेखन का एक अंतरराष्ट्रीय संदर्भ उजागर होता है. शमशेर बहादुर सिंह की कविता
‘अमन का राग’
तो
विश्व शांति अभियान का मानो घोषणापत्र है. नागार्जुन और मुक्तिबोध तथा त्रिलोचन की
कविताओं में सारी दुनिया के मानवतावादी साहित्यकारों के साथ साझा दिखता है. दुनिया
भर में चल रहे जनता के अधिकारों और समानता के आंदोलनों के साथ यह जुड़ाव हमारे वर्तमान
शासकों की अमेरिकापरस्ती के मुकाबले कितना स्वागत योग्य है
!
सत्ताएं सिर्फ दमन और शक्ति का है प्रयोग नहीं करती , वे बौद्धिक चालाकी और कायिआपन को भी एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती है , जिससे उनका खेल चलता रहे...यह भी उसी तरह की चालाकी है ...उत्तम आलेख...
जवाब देंहटाएंसाहित्य और राजनीति, समाज से अपने जुड़ाव के कारण निकट आते हैं।
जवाब देंहटाएंसार्थक और उपयोगी आलेख ..
जवाब देंहटाएंजन सरोकारों का होना साहित्य में कितना आवश्यक है.. एक सुन्दर व सारगर्भित लेख.. बधाई..
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत ही सुंदर आलेख है, अतीत के सभी सन्दर्भों को समेटते हुए साहित्यकारों और उनके सामाजिक सरोकारों पर अच्छी चर्चा है.....बधाई गोपल प्रधान जी और समालोचन को.....
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