भाष्य : ब्रूनों की बेटियां : कुमार मुकुल



हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि आलोक धन्वा की उतनी ही महत्वपूर्ण कविता ‘ब्रूनों की बेटियां’ पर कवि समीक्षक कुमार मुकुल का भाष्य. कुमार मुकुल ने इस कविता को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखते हुए न केवल इसका राजनीतिक मन्तव्य खोला है बल्कि इस कविता की खासियत और इसके कला पक्ष पर भी उनकी दृष्टि है.  




 आलोक धन्वा :: ब्रूनो की बेटियां    







ज्योर्दानों फ़िलिप्पों ब्रूनो सोलहवीं सदी के महान इतालवी वैज्ञानिक और दार्शनिक थे. उन्होंने गिरजे के वर्चस्व और धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती देते हुए कोपरनिक्स की इस स्थापना का समर्थन किया कि ब्रह्मांड के केन्द्र में सूर्य है और हमारी पृथ्वी के अलावा और भी पृथ्वियाँ हैं. सन 1600 में ईसाई धर्म न्यायालय के आदेश पर उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया. बाद में महान वैज्ञानिक गैलीलियो ने इसी वैज्ञानिक सिद्धांत का विकास किया.





वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थीं
उनकी माताएँ थीं
और वे ख़ुद माताएँ थीं.

उनके नाम थे
जिन्हें बचपन से ही पुकारा गया
हत्या के दिन तक
उनकी आवाज़ में भी
जिन्होंने उनकी हत्या की !

उनके चेहरे थे
शरीर थे, केश थे
और उनकी परछाइयाँ थी धूप में.

गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के
और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी !
जैसे देखना पड़ा पूरी पृथ्वी को
गैलीलियो की दूरबीन से !

वे राख और झूठ नहीं थीं
माताएँ थीं
और कौन कहता है? कौन? कौन वहशी?
कि उन्होंने बगैर किसी इच्छा के जन्म दिया?

उदासीनता नहीं थी उनका गर्भ
ग़लती नहीं थी उनका गर्भ
आदत नहीं थी उनका गर्भ
कोई नशा-
कोई नशा कोई हमला नहीं था उनका गर्भ

कौन कहता है?
कौन अर्थशास्त्री?

उनके सनम थे
उनमें झंकार थी

वे माताएँ थीं
उनके भी नौ महीने थे
किसी व्हेल के भीतर नहीं-पूरी दुनिया में
पूरी दुनिया के नौ महीने !

दुनिया तो पूरी की पूरी है हर जगह
अटूट है
कहीं से भी अलग-थलग की ही नहीं जा सकती
फिर यह निर्जन शिकार मातृत्व का?

तुम कभी नहीं चाहते कि
पूरी दुनिया उस गाँव में आये
जहाँ उन मज़दूर औरतों की हत्या की गयी?

किस देश की नागरिक होती हैं वे
जब उनके अस्तित्व के सारे सबूत मिटाये जाते हैं?
कल शाम तक और
कल आधी रात तक
वे पृथ्वी की आबादी में थीं
जैसे ख़ुद पृथ्वी
जैसे ख़ुद हत्यारे 
लेकिन आज की सुबह?
जबकि कल रात उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया !

क्या सिर्फ़ जीवित आदमियों पर ही टिकी है
जीवित आदमियों की दुनिया?

आज की सुबह भी वे पृथ्वी की आबादी में हैं

उनकी सहेलियाँ हैं
उनके कवि हैं
उनकी असफलताएँ
जिनसे प्रभावित हुआ है भारतीय समय
सिर्फ़ उनका वर्ग ही उनका समय नहीं है !

कल शाम तक यह जली हुई ज़मीन
कच्ची मिट्टी के दिये की तरह लौ देगी
और 
अपने नये बाशिंदों को बुलायेगी.

वे ख़ानाबदोश नहीं थीं
कुएँ के जगत पर उनके घड़ों के निशान हैं
उनकी कुल्हाड़ियों के दाग़
शीशम के उस सफेद तने पर

बाँध की ढलान पर उतरने के लिए
टिकाये गये उनके पत्थर
उनके रोज़-रोज़ से रास्ते बने हैं मिट्टी के ऊपर

वे अचानक कहीं से नहीं
बल्कि नील के किनारे-किनारे चलकर
पहुँची थी यहाँ तक.

उनके दरवाज़े थे

जिनसे दिखते थे पालने
केश बाँधने के रंगीन फ़ीते
पपीते के पेड़
ताज़ा कटी घास और
तम्बाकू के पत्ते-
जो धीरे धीरे सूख रहे थे
और साँप मारने वाली बर्छी भी.

वे धब्बा और शोर नहीं थीं
उनके चिराग़ थे
जानवर थे
घर थे

उनके घर थे
जहाँ आग पर देर तक चने की दाल सीझती थी
आटा गूँधा जाता था
वहाँ मिट्टी के बर्तन में नमक था
जो रिसता था बारिश के दिनों में
उनके घर थे
जो पड़ते थे बिल्लियों के रास्तों में.

वहाँ रात ढलती थी
चाँद गोल बनता था

दीवारें थीं
उनके आँगन थे
जहाँ तिनके उड़ कर आते थे
जिन्हें चिड़ियाँ पकड़ लेती थीं हवा में ही. 

वहाँ कल्पना थी
वहाँ स्मृति थी.

वहाँ दीवारें थीं
जिन पर मेघ और सींग के निशान थे
दीवारें थीं
जो रोकती थीं झाड़ियों को
आँगन में जाने से.

घर की दीवारें
बसने की ठोस इच्छाएँ
उन्हें मिट्टी के गीले लोंदों से बनाया था उन्होंने
साही के काँटों से नहीं
भालू के नाखुन से नहीं

कौन मक्कार उन्हें जंगल की तरह दिखाता है
और कैमरों से रंगीन पर्दों पर 
वे मिट्टी की दीवारों थीं
प्राचीन चट्टानें नहीं
उन पर हर साल नयी मिट्टी
चढ़ाई जाती थी !
वे उनके घर थे-इन्तज़ार नहीं.
पेड़ केे कोटर नहीं
उड़ रही चील के पंजों में
दबोचे हुए चूहे नहीं.

सिंह के जबड़े में नहीं थे उनके घर
पूरी दुनिया के नक्शे में थे एक जगह
पूरे के पूरे

वे इतनी सुबह आती थीं
वे कहाँ आती थीं? वे कहाँ आती थीं?
वे क्यों आती थीं इतनी सुबह
किस देश के लिए आती थीं इतनी सुबह?

क्या वे सिर्फ़ मालिकों के लिए
आती थीं इतनी सुबह
क्या मेरे लिए नहीं?
क्या तुम्हारे लिए नहीं?

क्या उनका इतनी सुबह आना
सिर्फ़ अपने परिवारो का पेट पालना था?

कैसे देखते हो तुम इस श्रम को?
भारतीय समुद्र में तेल का जो कुआँ खोदा
जा रहा है
क्या वह मेरी ज़िन्दगी से बाहर है?
क्या वह सिर्फ़ एक सरकारी काम है?

कैसे देखते हो तुम श्रम को !

शहरों को उन्होंने धोखा और
जाल नहीं कहा

शहर सिर्फ़ जेल और हारे हुए मुक़दमे
नहीं थे उनके लिए

उन्होंने शहरों को देखा था
किसी जंगली जानवर की आँख से नहीं !

शहर उनकी ज़िन्दगी में आते-जाते थे
सिर्फ़ सामान और क़ानून बनकर नहीं
सबसे अधिक उनके बेटों के साथ-साथ
जो इस समय भी वहाँ
चिमनियों के चारों ओर
दिखाई दे रहे हैं !

उनकी हत्या की गयी
उन्होंने आत्महत्या नहीं की
इस बात का महत्त्व और उत्सव
कभी धूमिल नहीं होगा कविता में !

वह क्या था उनके होने में 
जिसके चलते उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया?
बीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षो. में
एक ऐसे देश के सामने
जहाँ संसद लगती है?

वह क्या था उनके होने में
जिसे ख़रीदा नहीं जा सका
जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका

जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा
वह भी आधी रात में कायरों की तरह
बंदूकों के घेरे में?

बातें बार-बार दुहरा रहा हूँ मैं
एक साधारण-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूँ !

मेरा सब कुछ निर्भर करता है
इस साधारण-सी बात पर !

वह क्या था उनके होने में 
जिसे जला कर भी
नष्ट नहीं किया जा सकता !

पागल तलवारें नहीं थरं उनकी राहें
उनकी आबादी मिट नहीं गयी राजाओं की तरह !
पागल हाथियों और अन्धी तोपों के मालिक
जीते जी फ़ॉसिल बन गये
लेकिन हेकड़ी का हल चलाने वाले
चल रहे हैं

रानियाँ मिट गयीं
जंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं
रह गयी उनकी याद की

रानियाँ मिट गयीं
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही
औरतें
फ़सल काट रहीं हैं.



I                                                                                                 I


कुमार मुकुल                 

लीलाधर जगूड़ी की 'मंदिर लेन ' और आलोक धन्वा की 'ब्रूनो की बेटियाँ ' हिन्दी की चर्चित कविताओं में हैं. श्रीकांत वर्मा की ऐतिहासिक-राजनीतिक कविताओं के बाद रघुवीर सहाय की समकालीन राजनीतिक कविताओं ने साहित्य की दुनिया को काफी प्रभावित किया. सहाय की राजनीतिक कविताओं में जो राजनीतिक संदर्भ बिखरे पड़े हैं, वे जैसे जगूड़ी की 'मंदिर लेन में संगठित होकर उसे धारदार बनाते हैं. 'ब्रूनो की बेटियाँ के संदर्भ भी राजनीतिक ही हैं, पर वह अपेक्षाकृत घटना केंदि्रत कविता है. 'मंदिर लेन की धार जहाँ तलवार की धार है, 'ब्रूनो की बेटियाँ की धार एक पंखुड़ी की धार है.

दोनों कविताएँ मानव जीवन की मार्मिक विडंबनाओं पर आधारित हैं. जगूड़ी के यहाँ यथार्थ का तीखापन है, तो आलोक के यहाँ करुणा की नमनीयता है. 'ब्रूनो की बेटियाँ शीर्षक से ही कविता के मूल स्वर ध्‍वनित होते हैं. ब्रूनो को उसकी वैज्ञानिक खोज के लिए सत्ता के कोप का शिकार होना पड़ता है. अपनी सच्चाइयों के लिए जिंदा जला दी जाने वाली स्त्रिओं को कवि ब्रूनो की बेटियों के रूप में देखता है. कवि जानना चाहता है कि क्या सत्य के उदघाटन के लिए ब्रूनो, गैलीलियो से इन स्त्रिओं तक के लिए आज भी सत्ता प्रतिष्ठान की क्रूरता वैसी ही पूर्ववत है. क्या आदिम साम्यवाद से राजतंत्रा और इस उदार लोकतंत्रा तक सब सभ्यता के मुखौटे हैं. सवाल नया नहीं है. धूमिल ने भी यह सवाल उठाया था. आलोक भी उस तीसरे आदमी की ही बात करते हैं. जो रोटी से खेलता है, स्त्रिओं के अस्तित्व से खेलता है. यह खेल बीसवीं सदी में आज भी जारी है, उस देश के सामने जहाँ संसद लगती है. सच के साथ उसके उदघाटनकर्ता को बचा लेने की बेचैनी से ही यह कविता पैदा होती है. कविता में संवेदना की मार्मिकता की बनावट रूसी कवि आंद्रे बोजनेसकी की स्त्री संबंधी कविता की याद दिलाती है. वहाँ भी कोई एक स्‍त्री को बूटों से कुचल रहा है. वहाँ दर्द गहरा है, आलोक के यहाँ एक रोमान है, जो मर्म को उत्सवी बना देता है. 'पतंग कविता में भी वह इसी तरह क्रांतिकारी रोमान की शरण लेते दिखते हैं, जब वे लिखते हैं कि बच्चों को मारनेवाले शासको, तुम्हें बर्फ में फेंक दिया जाएगा और तुम्हारी बंदूकें भी बर्फ में गल जाएँगी. बेचैनी जब बढ़ती है और हल नहीं मिलता, तब आलोक रोमान की शरण लेते हैं. ऐसा रोमानी वृत्ति और यथार्थ से दूरी के कारण भी होता है. बच्चों और स्त्रिओं से नजदीकी संबंधों का अभाव भी यह रोमानी प्रवृत्ति दर्शाता है.

'ब्रूनो की बेटियाँ का महत्त्व न तो इसकी मार्मिकता को लेकर है, न लय को लेकर, इसकी अहमियत इस मानी में है कि यह कविता पहली बार स्‍त्री के श्रम और सामर्थ्य को उसकी विकासमानता में प्रस्तुत करती है. रघुवीर सहाय के यहाँ स्‍त्री का फुटकर दर्द है, तो गगन गिल, असद के यहाँ विगलित रोमानी करुणा; विमल कुमार के यहाँ यह सब रहस्य के झीने आवरण में छिपा है, पर आलोक के यहाँ उसके सामर्थ्य का सौंदर्यबोध है.

कविता की शुरुआत जीवन में स्‍त्री के उपेक्ष्य श्रम की भूमिका और उसके अस्तित्व के विडंबित अस्वीकार से होती है. आखिर क्या मजबूरी थी कि हत्यारों को अपने सहज संबंधों को ही जला देना पड़ा. कैसे तुच्छ हित थे उनके. सभ्यता के इस पड़ाव पर भी हम स्‍त्री श्रम की स्वतंत्रा भूमिका क्यों नहीं स्वीकारते. उनके श्रम की कीमत गैलीलियो की दूरबीन की कीमत क्यों हो जाती है.

श्रम के कालातीत सौंदर्य की ऐसी सहज, नम अभिव्यकित हिंदी कविता में कम ही मिलती है. परंपरा में शमशेर और केदारनाथ सिंह ही इसे साध पाते हैं. आगे कविता में घटना का विवरण मिलता है, जिसे रेटारिक के इस्तेमाल से रोचक बनाया गया है. पहले कवि मातृत्व के निर्जन शिकार पर द्रवित होता है, फिर समाज के वहशी व अर्थशास्त्रिओं से सवाल करता है. उन्हें चुप करा देता है. असल में वह वहशी व अर्थशास्‍त्री कवि के भीतर भी छिपे हैं, जिनसे एकालाप कर वह उन्हें आसानी से चुप करा देता है. मुक्तिबोध  की तरह कविता के बाहर हर मोरचे पर उनसे लोहा लेना सबके लिए संभव नहीं. ऐसे में कविता के सौंदर्य तत्व के नष्ट होने का भी भय होता है. जीवन के अंधेरों में जाने का खतरा कौन उठाता है. अंधेरे का अपना तिलिस्म होता है, अपनी घुटन होती है. उसे तोड़ने में आदमी टूट जाता है. उसके सिजोफ्रेनिया जनित मनोविकार के शिकार होने का भय होता है. 'ब्रूनो की बेटियाँ में एक उजाला है, टूटन की कुंठा यहाँ नहीं है. मुकितबोध की तरह कुंठा को भी सौंदर्यबोध के घेरे में अभी शामिल नहीं किया जा सका है. जीवन की कचोट और कुंठाओं से रघुवीर सहाय भी खुद को अमीर बनाते हैं. पर उसे उसकी आत्मवक्तव्यता से मुक्त कराकर सहज, सच्चे ढंग से मात्रा शमशेर ही अभिव्यक्त कर पाते हैं. अभाव के व्यंग्य से जूता चबाते कुत्ते के रूप में अपने हवार्इ नुकीले दाँत मात्रा वही दिखा पाते हैं. इस सबके बावजूद वे सौंदर्यबोध बचाए रख सके हैं. आलोक के यहाँ दर्द तुरंत उत्सवता में बदल जाता है. वह अपने हवाई नुकीले दाँत छुपा ले जाते हैं.

जीवन में श्रम की भूमिका और उसका विकास आगे कविता में फिर साधा गया है. यही एक चीज कविता को समय से आगे ले जाती है. उसी तरह जैसे 'मुक्तिप्रसंग का अंतरद्वंद्व, 'मोचीराम का आत्मालोचन और 'मंदिर लेन की तलवार की धार उसे अपने समय से आगे ले जाती है. श्रम संबंधों की जटिलता को उसके बहुआयामों के साथ प्रस्तुत करना, यही इस कविता का दाय है. श्रम की सभ्यता को यह कविता नए सिरे से रेखांकित करती है. और तमाम सभ्यताओं के विरुद्ध इसे आधार देती है. स्‍त्री के श्रम की सभ्यता पर जो दुनिया भर में एक सी है, कविता में ढंग से विचार किया गया है. उसे पहली बार जमीन मिलती है. कवि कुंओं के जगत पर घड़ों के रखने से बने निशान देखता है. बाँध की ढलान पर टिकाए पत्थर देखता है. वह बतलाता है कि वह अचानक कहीं से नहीं, नील के किनारे-किनारे चलकर वहाँ तक पहुँची हैं. उनके घरों में पालने और केश बाँधने के रंगीन फीते हैं, तो साँप मारने की बरछी भी.



ये पंक्तियाँ बताती हैं कि उनके जीवन का भी एक सभ्य क्रम है. वह कोर्इ हड़बड़ी में जी गर्इ आवारा जिंदगी नहीं है. वहाँ जीवन की सरसता, समरसता भी है; जीवन का स्वीकार है, तो विसंगतियों का प्रतिकार भी; उनके आँगन में उड़ते तिनकों को चिडि़या उड़-उड़कर पकड़ती है, तो उनके रास्तों को रूढि़यों की बिल्लियाँ काटती भी हैं. यहाँ कवि पुन: पूछता है कि कौन मक्कार उन्हें जंगल की तरह दिखाता है, कैमरों से रंगीन परदों पर. कवि का अनजानापन यहाँ भी समझ से परे है, कवि मीडिया की अपसंस्‍कृति से अपरिचित हो, ऐसा तो संभव नहीं. पर कुछ बाध्‍यताएँ हैं कवि की, जो जवाब को कवि से सवाल की तरह पेश कराती हैं. अपने भीतर के अंधेरों में कवि झाँके, तो वे मक्कार उसे मिल ही जाएँगे. उन पर तर्जनी कवि नहीं उठाएगा, तो कौन उठाएगा?

विसंगतियों से अनजानेपन की हद तक दूर सुरक्षित कवि एकालाप क्यों कर रहा है. उनसे संलाप किए बगैर श्रम की पुनर्जीवितता का उत्सव क्यों मनाने लगता है. सच का, श्रम का मूल्य माँगने वाला ब्रूनो से उसकी बेटियाँ तक आज भी इसीलिए मारी जा रही हैं, क्योंकि हत्यारों से संलाप की बजाय हम उनसे एकालाप करने लगते हैं.

उदघाटित सच का तो हम अपने लिए उपयोग कर लेते हैं, पर सच के लिए अपना क्रूस ढोने वालों की पीड़ा को उत्सवता के अवलेह में लपेटकर धर्म की तरह उसका विशाल प्रचार करने लगते हैं. कवि की बेचैनी अपने अंदर के अंधेरे व द्वंद्व से निपट न पाने की असफलता से पैदा होती है. इसीलिए कवि का स्वर कभी तो करुणा से विगलित हो जाता है, कभी उत्सवता धारण करता है व कभी आँख मूंद अपनी काल्पनिक विजय को निर्णायक स्वर में प्रस्तुत करता है.

हल न ढूंढ़ पाने की स्थिति में कवि उदात्त प्राचीन प्रतीकों का सहारा लेता है व कविता सरलीकरण का शिकार होती है. इतने मार्मिक सवालों का जवाब कवि समेट लेता है कि जैसे पागल तोपों के मालिक मिट गए, जुल्म भी मिट जाएगा. जबकि 'जिलाधीश कविता में कवि खुद बताता है कि राजा-रानी मिटे नहीं, वे आधुनिक शासकीय पदों में बदल गए हैं. उनकी शातिरी बढ़ गई है. पिछले दिनों रूस में जिस तरह संसद पर टैंकों से हमला किया गया वह राजतंत्रा की ज्यादतियों से कमतर ज्यादतियाँ हैं. क्या संसद को घेर लेने वाली कैथर कला की औरतें ही क्षितिज तक फसल काटती औरतें हैं?

कविता में श्रम की कीमत तो बखूबी बता देता है कवि, पर श्रम की लूट को नष्ट करने का तरीका नहीं बतलाता. लूट पर सवाल उठा देना ही काफी नहीं है. अभिव्यकित के सवाल उठाने से उसके खतरे उठाने तक तो मुकितबोध ले जाते हैं कविता को. हमें उसे उसके आगे ले जाना होगा. इसीलिए साधारण-सी बात को विशाल प्रचार की जगह जीवन के छोटे-छोटे खतरों से निपटाना ज्यादा जरूरी है. सवाल की एक उम्र होती है. उसके बाद वह जवाब नहीं बनता, तो समय उसे खारिज कर जवाब ढूंढ़ लेता है. रोमान भी एक वक्त के बाद दर्द की तरह दवा नहीं बनता, तो नष्ट हो जाता है.
 
दरअसल कविता यहीं समाप्त हो जाती है. यह बताकर कि उसके बेटे अभी जीवित हैं और आगे की लड़ार्इ वही लड़ेंगे, कवि नहीं.

 

कुमार मुकुल
जन्म : १९६६ आरा, बिहार  
दो कविता संग्रह,  
कविता की आलोचना पर कविता का नीलम आकाश  
पथ नामक साहित्यिक पत्रिका का दो सालों तक संपादन
वर्तमान में मनोवेद त्रैमासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक
ई पता ; kumarmukul07@gmail.com

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  1. एक बृहत् समीक्षा .....प्रासंगिक और बेहतर ....!

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  2. उनके घर थे
    जहाँ आग पर देर तक चने की दाल सीझती थी
    आटा गूँधा जाता था
    वहाँ मिट्टी के बर्तन में नमक था
    जो रिसता था बारिश के दिनों में
    उनके घर थे
    जो पड़ते थे बिल्लियों के रास्तों में.......... जीवन में श्रम की भूमिका और उसका विकास आगे कविता में फिर साधा गया है. यही एक चीज कविता को समय से आगे ले जाती है. उसी तरह जैसे 'मुकितप्रसंग का अंतरद्वंद्व, 'मोचीराम का आत्मालोचन और 'मंदिर लेन की तलवार की धार उसे अपने समय से आगे ले जाती है. श्रम संबंधों की जटिलता को उसके बहुआयामों के साथ प्रस्तुत करना, यही इस कविता का दाय है. श्रम की सभ्यता को यह कविता नए सिरे से रेखांकित करती है

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  3. हमारे समय की नारी और उसके सामर्थ्य पर बोलती एक बहुत महत्त्वपूर्ण कविता और उतनी ही व्यापक समीक्षा .. कविता के साथ , उसके भीतर बहती .. मुकुल जी को बधाई और अरुण जी का आभार !

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  4. मुझे कभी कभी लगता है क़ि मुकुल जी कविता क़ि आलोचना नहीं करते ,सिर्फ उसे बतियाते है ,उसमे उतारते है ,बिना डरे कितनी सुन्दर सहज आलोचना बड़ी आम सी भाषा में मजा आ गया

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  5. aalok ki ye kavita ..un kavitaon me hai jo kabhi purani nahi ho sakti..phir padha..har baar ki tarah utna hi kaavyanand..kumar mukul likhne ke liye acchi kavitaon ka chunav kar rahe hain aur accha likh rahe h..arun-aparna ki sakriyta aur samajh prasann karti hai sabko ek saath pyar..

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  6. आज पूरी कविता पढ़ पाया, पढ़वाने का आभार।

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  7. आलोक जी की यह कविता समय सापेक्ष है । सन्दर्भ में जितने उत्तर दिये जा सकते थे उन्होने दिये हैं । कविता अपनी बात कहीं समाप्त नहीं करती वह हमेशा प्रश्नों को जन्म देती है । उत्तर समाज को ही ढूँढने होते हैं । मुकुल जी की समीक्षा संतोषजनक है । विभिन्न कवियों के सम्बन्ध में दिये गये बयानों को सोदाहरण प्रस्तुत किया जाना चाहिये था ।

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  8. रानियाँ मिट गयीं
    लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही
    औरतें
    फ़सल काट रहीं हैं.......कविता ओर समीक्षा दोनों ही लाजवाब हैं.....पढवाने के लिए धन्यवाद् अरुणजी........

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  9. मुसाफिर बैठा8 फ़र॰ 2012, 8:15:00 pm

    यहाँ मैं चाहूँगा कि इस कविता की पटना में रहने वाले सोशल एक्टिविस्ट एवं विचारक अशोक यादव द्वारा की गयी समीक्षा भी साइड-बाई-साइड रख कर देखा जाए. वह आलोचना कुछ वर्ष पहले पटना से प्रकाशित वैचारिक पत्रिका 'मंडल विचार' में आई थी. मैं वह समीक्षा यथासंभव शीघ्र उपलब्ध करवाने की कोशिश करता हूँ. आपको ये दोनों आलोचनाएं एक दूसरे के बरक्स रख कर देखने में एक अनोखा और विस्मयकारी अनुभव होगा.

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  10. वाह... यादगार रचना का उल्‍लेखनीय विवेचन। बधाई मुकुल जी और आभार अरुणदेव जी..

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  11. बहुत अच्छी कविता ...सटीक भाष्य ...धन्यवाद कुमार मुकुल जी |दरअसल मनुष्य जाति का इतिहास साक्षी है (प्रथम –द्वितीय विश्वयुद्ध की रक्तरंजित क्रूरताओं से लेकर आज तक कि सत्ता (सक्षमता)हमेशा ही क्रूर और स्वार्थी रही है |और ये भी कि उसके लिए तथाकथित गुनाहगार होना ही ज़रूरी नहीं बल्कि बेक़सूर लोग उसके शिकार होते रहे हैं |ब्रूनो को इसलिए भयंकर यातनाएं दी गईं गर्मी से तपती (काल)कोठरी में रखा और प्रताड़ित किया जाता रहा कि वो ‘’प्रथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है ‘’अपनी ताजातरीन खोज जो बाइबल के विरुद्ध थी को नकार दे सिर्फ इसलिए कि वो धर्म ग्रन्थ के विरुद्ध है ,(और धर्मग्रन्थ कभी गलत नहीं होते !!!!!)दरअसल प्रश्न चाहे पुरुष सत्तात्मक्ता का हो या फिर पूंजीवादी विचारधाराओं और व्यवस्थाओं का धर्मग्रंथों और आधुनिक सोच की टकराहट ही इन घटनाओं का प्रमुख कारण है और ब्रूनो ने जब अपने गुरु कोपर्निकस की तरह वहां से पलायन नहीं किया बल्कि लगातार इसे सिद्ध करने और इस प्रयोग को मान्यता दिलाने की कोशिशें करता रहा ‘’कि सूर्य प्रथ्वी का नहीं नहीं बल्कि प्रथ्वी सूर्य का चक्कर लगती है ‘’तो उसे अंतत भरे बाजार में जिंदा जला दिया गया |कहीं २ ये भी माना गया कि उसकी प्रेमिका जो लगातार उसके साथ थी उसके विचारों और मान्यता (खोजों )पर विश्वास था जिसे उसे भी उसके साथ जलाया गया |ज़ाहिर है कि संभवतः यदि ब्रूनो ने ‘’सत्ता’’और धर्मालंबियों की बात मान ली होती तो उसे इन यातनाओं और विडंबनाओं से मुक्ति मिल जाती |लेकिन आज की क्रूरतम स्थितियों के लिए ये मोहलत भी अप्रासंगिक है |शुक्रिया अपर्णा ...

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  12. कविता बहुत अच्छी है फिर भी अधूरी !कुमार मुकुल से सहमति सहित ----
    "कविता में श्रम की कीमत तो बखूबी बता देता है कवि ,पर श्रम की लूट को खत्म करने का तरीका नहीं बतलाता !"---- कविता को डिफ़ेंसिव बनाता है जो आज के संदर्भ में जब कि आम जनता पर चारों तरफ से पूंजी के हमले हो रहे हैं ,गैर जरूरी ही नही बल्कि एक जरूरी कर्तव्य से आँख मूँद लेना ही कहा जा सकता है ! हमारा बचाव ही उनकी आक्रामकता के आगे एक सड़क बिछा देता है !

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