मैं कहता आँखिन देखी : राजेन्द्र यादव


कहानी संवाद है               राजेन्द्र यादव 


राजेन्द्र यादव अपने लेखन के कारण प्रशंसित, संपादन के कारण चर्चित और अपने जीवन के कारण विवादित रहे हैं. आप उनके प्रशंसक हो सकते हैं, निंदक हो सकते हैं पर आप उनके प्रभाव से बच नहीं सकते. समकालीन हिंदी साहित्य को राजेन्द्र यादव ने कई तरह से प्रभावित किया है.
युवा समीक्षक पुखराज जाँगिड़ ने राजेन्द्र यादव से  समकालीन कहानी पर बातचीत की है.



यथार्थ के चित्रण को जो तरीका का प्रेमचंद के समय प्रचलित था आज वैसा नहीं रह गया है. समय-दर-समय उसमें परिवर्तन हुआ है और यह परिवर्तन प्रेमचंद का स्वाभाविक विकास है. समकालीन कहानी में यथार्थ को रुपक’, ‘फेंटेंसीऔर जादुई यथार्थके माध्यम से कहा जा रहा है. सामाजिक बदलाव के हथियार अब बदल चुके है इसलिए लेखक ज्यादा बारिकी से चीजों के प्रति लोगों की मानसिकता को बदलने का काम करते है. चेखव के शब्दों में कहूँ तो दुनिया में बहुत से दार्शनिक हुए है जो असफल कथाकार थे लेकिन बिना जीवनदर्शन के कोई अच्छी चीज नहीं लिखी गई. इस तरह हर लेखक का जीवनदर्शन उसके अपने जीवन के अनुभवों के निचोड़ से निकलता है. अगर लेखक जीवन से जुड़ा नहीं है तो वह केवल दर्शन या राजनीति की किताबें पढकर कहानी नहीं लिख सकता. सामाजिक संबंधों में हो रहे नित नए बदलावों का वास्तविक चित्रण वह सामाजिक जीवन से जुड़कर ही कर कर सकता है. समाज को देखने-समझने-निरीक्षण के कहानी के मूल आधार भी यही है. इसलिए अपने समय की समझ और बदलती मानसिकताओं को पकड़ने की क्षमता और भाषा के आधार पर कहानी की विषयवस्तु और उसका रूप बदलता रहा है और आगे भी बदलेगा.

आज की कहानी में विस्तार ज्यादा है उसमें गाँव, कस्बा, शहर और महानगर सभी कुछ है. वह इनमें हो रहे बदलाव की, बदलते हुए समाज से जुड़ी, उसी की बात करती है. वह गाँव में घुसे बाजार की पड़ताल करती है. टेकना है तो टेक न तो गो’ (नीलाक्षी सिंह) कहानी बाजार के खिलाफ, उसके प्रतिरोध में लिखी कहानी है. इसमें पति पहले मिठाई की एक दुकान करता था. लेकिन अब उसने दुकान की जगह एक बड़ा सा मिष्ठान भंडार बना लिया है और वह चाहता है कि उसकी पत्नी भी उसके साथ काम में हाथ बटाए. लेकिन पत्नी गर्व और स्वाभिमान के साथ वहीं रहकर अपना काम करती है और ग्राहकों से स्पष्ट कहती है कि टेकना है तो टेक न तो गोयानी सामान लेना है तो ले, नहीं तो जा. आज बाजार पर अधिकार के लिए पति-पत्नी आपस में प्रतिस्पर्धा कर रहे है. इसी तरह बाजार के प्रभाव में आजकल हिंदी में भी अर्थशास्त्र और राजनीतिविज्ञान की भाषा को जबरन चलाया जा रहा है और यह सही नहीं है. जहाँ तक कहानियों के बदलने की बात है तो वह सामाजिक संबंधों में, स्त्री-पुरूष संबंधों में आए बदलावों से बदलती है. वह न तो तारिखों से बदलती है और न घटनाओं का उनपर सीधा प्रभाव पडता है. वह उन विचारों से बदलती है जो उसे लेखन के लिए प्रेरित करते है. कहानी अपने शुरूआती काल से आदमी और आदमी के बीच के संवाद की विधा रही है और जब तक आदमी है, तब तक संवादबना रहेगा, ‘कहानीबनी रहेगी.

कहानी का मतलब है अनुभवों का साझा. यानी जब तक आदमी एक-दूसरे से अनुभवों का साझा करता रहेगा तब तक कहानी बनती रहेगी. इसकी भाषा, स्वरूप और तकनीक बदल सकती है पर इसकी मूल चेतना या आत्मा जोकि संवादहै, नहीं बदल सकता. कहानी की यही संवादधर्मिता उसे समाज को देखने, समझने और परखने की शक्ति देती है. इसलिए कहानी के रूप में जो परिवर्तन हो रहे है उसे लेकर परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है. यह अंतर वैसा ही है जैसा फोटोग्राफी और फिल्म में होता है. फोटोग्राफी अपने आप में एक संपूर्ण विधा है और एक तस्वीर अपने आप में एक वक्तव्य है. जबकि फिल्म में वह सब एक प्रवाहमें होता है इसलिए अंतर गतिशीलताका है. इसी तरह उपन्यास प्रवाह में चलता है और बड़े फ्रेम का हिस्सा है. उसमें कहानी के अनुभव और घटनाएँ भी आती है लेकिन इससे कहानी लुप्त तो नहीं हो जाती. वह एक स्वतंत्र विधा है न कि उपन्यास का पूर्वाभ्यास. बाजार के प्रभाव में कहानी को उपन्यास का पूर्वाभ्यास कहना ठीक वैसा ही है जैसा यह कहना कि जो लोग नाटक या फोटोग्राफी का अभ्यास करते है वे आगे चलकर फिल्म में चले जाते है. हालांकि फिल्म छा जाने वालीविधा (डोमिनेंट मीडीयम) है इसलिए व्यावसायिक कारणों से कोई उसमें जा सकता है.

दरअसल कभी-कभी बाजार कुछ चीजों को उठा तो लेता है लेकिन वे जिंदा अपनी भीतरी जिजीविषा से ही रहती है और हम इसे नकार नहीं सकते. इसलिए कहानी और उपन्यास अपनी भीतरी जिजीविषा से जिंदा है. पहले कभी किसी कहानी या उपन्यास पर फिल्म बन जाती थी पर अब इसकी गुँजाइश नहीं है. अब तो वह पत्रिकाओं के रविवारीय पन्नों पर एक पेज की चीज बनकर रह गई है और इसके बावजूद एक से बढकर एक खूबसूरत कहानी आ रही है. वह ज्यादा से ज्यादा पठनीय बनाई जा रही है. लेखक पर बाजार के प्रभाव को जहाँ तक मैं समझता हूँ वह यह है कि वह कहानी को अधिक से अधिक पठनीयबनाता है और यह कहानी की मूलभूत जरूरत भी है. इसलिए इसे केवल बाजार का प्रभाव न कहकर कहानी की आधारभूत जरूरत या अंतर्भुक्त गुण कहा जाना चाहिए. कहानी मूलरूप से संवाद की विधा है और अगर वह पाठक से संवाद करने में, उसे बाँधकर रखने में असमर्थ है तो फिर उसका कोई मतलब नहीं है. अगर मेरी कहानी आपको बाँधकर नहीं रख सकती तो मैं क्यों और किसके लिए लिख रहा हूँ? इसी तरह कभी-कभी व्यावसायिक कारणों से भी कहानी को फैला-फुलाकर उपन्यास बना दिया जाता है. अल्बेयर कामू का अजनबीकेवल पृष्ठ संख्या के कारण उपन्यास है वरना उसकी पूरी संकल्पना और गठन कहानी का ही है. क्या यह कहानी और कहानीकार पर बाजार का दबाव नहीं है, जिसमें विधाओं की दीवारें टूट रही है.
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पुखराज जाँगिड़
साहित्य और सिनेमा पर शोध कार्य
भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू.
ई पता - pukhraj.jnu@gmail.com

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  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति अरुण जी. कितनी सुलझी हुई बात है कि, "लेखक पर बाजार के प्रभाव को जहाँ तक मैं समझता हूँ वह यह है कि वह कहानी को ‘अधिक से अधिक पठनीय’ बनाता है और यह कहानी की मूलभूत जरूरत भी है. इसलिए इसे केवल बाजार का प्रभाव न कहकर कहानी की आधारभूत जरूरत या अंतर्भुक्त गुण कहा जाना चाहिए." पुखराज भाई को बधाई एवं धन्यवाद...

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  2. जब तक आदमी एक-दूसरे से अनुभवों का साझा करता रहेगा तब तक कहानी बनती रहेगी. इसकी भाषा, स्वरूप और तकनीक बदल सकती है पर इसकी मूल चेतना या आत्मा जोकि ‘संवाद’ है, नहीं बदल सकता. कहानी की यही संवादधर्मिता उसे समाज को देखने, समझने और परखने की शक्ति देती है...सुंदर विचारों का समवेश आज के लेखन और लेखनी की परिस्थित पर सटीक व्याख्या भी !!!Nirmal Paneri

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  3. दरअसल कभी-कभी बाजार कुछ चीजों को उठा तो लेता है लेकिन वे जिंदा अपनी भीतरी जिजीविषा से ही रहती है और हम इसे नकार नहीं सकते. इसलिए कहानी और उपन्यास अपनी भीतरी जिजीविषा से जिंदा है...
    kahani..katha ..ya any vidhaen isi jijvisha se zinda hain.
    pukhraj ji ko badhai aur arun aapki mehanat ko salaam.

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  4. अचंम्भित हूं बातचीत का यह स्वरूप देखकर! इसमें पुखराज जी कहां है? कौन सा वक्तव्य राजेंद्र जी का है और कौन सा पुखराज जी का..?

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  5. कहानी मूलरूप से संवाद की विधा है और अगर वह पाठक से संवाद करने में, उसे बाँधकर रखने में असमर्थ है तो फिर उसका कोई मतलब नहीं है. अगर मेरी कहानी आपको बाँधकर नहीं रख सकती तो मैं क्यों और किसके लिए लिख रहा हूँ? ...

    पुखराज जी को बधाई एक सार्थक चर्चा के लियें
    और अरुण जी आपका आभार...

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  6. कहानी का मतलब है अनुभवों का साझा. यानी जब तक आदमी एक-दूसरे से अनुभवों का साझा करता रहेगा तब तक कहानी बनती रहेगी. इसकी भाषा, स्वरूप और तकनीक बदल सकती है पर इसकी मूल चेतना या आत्मा जोकि ‘संवाद’ है, नहीं बदल सकता. कहानी की यही संवादधर्मिता उसे समाज को देखने, समझने और परखने की शक्ति देती है. इसलिए कहानी के रूप में जो परिवर्तन हो रहे है उसे लेकर परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है''सार्थक और सकारात्मक.

    ''.

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  7. यह एक आभिजात्य सत्य है कि राजेंद्र जी के निंदक ज्यादा हैं; यही वज़ह है कि उन पर हर बात घुमा-फिराकर इसी या इसी तरह की रीति-रिवाज़ से शुरू की जाती है - "आप उनके प्रशंसक हो सकते हैं, निंदक हो सकते हैं पर आप उनके प्रभाव से बच नहीं सकते"।।

    उनके विवादित होने को कुछ इस तरह फैलाया गया है कि वह राजेंद्रविरोधी शिविर का सांस्कृतिक सौंदर्य बन गया है। दरअसल उनके विवादित होने का प्रचार अश्लील विरोध किस्म का है। ऐसा विरोध जो बड़े सस्ते में उन्हें हिन्दी साहित्य का खलनायक तक घोषित कर देता है। इतना बुज़ुर्ग लेखक हमारे समय में उपस्थित है- इसे महत्वहीन बनाने के सुख में क्या उनके साथी और क्या उनके सामने बच्चे सभी श्रेणी के लेखक शामिल हैं। उनके संपादक व्यक्तित्व को सार्वजनिक क्रोध का शिकार इसलिए बनाया जाता है क्योंकि वह हाशिए का विमर्श छेड़ता है। अतीतजीविता का विरोध करता है जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बरख़िलाफ़ जाता है। उनके छद्म विरोधियों को शहरी खुलेपन के जीवन में स्त्री-पुरुष संबंधों के भीतर चलती गूढ़ कथाओं का कथाकार राजेंद्र भाता है; लेकिन थोड़ा बदलाव चाहने वाला एक्टिविस्ट राजेंद्र हरगिज़ नहीं।

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  8. hindi sahitya ke dedipyaman hastakshar shri rajendra yadva ji ko padhane aur sochane kebad yahi lagata hai ki nirarthak chhut jate hain pichhe,shri yadav badh jate hain aage / virodhiyon ki jamat jo aaj bhi hindi ko virudavali ki atm-pravanchana ka hi ksheta ghoshit kare rakhana chahate hain ,vo apna to vikas avarudhkar hi rahe hain bhasha ka & desh ka bhi . mukharata ,prakharata vaishvik -pratispardha ,kitani aavshyak hai ,yah batane ki jarurat shayad nahin padegi . sarthak samvad .kritagyata ,shri yadav ji & aapke prati .

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  9. यादव जी हंस के संपादकि‍यों में जि‍तने दबंग और कभी कभी बेहद खतरनाम दि‍खते हैं वे स्‍वभाव से उतने ही मीठे और सहज हैं। बडे लेखक की यही पहचान होती है

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  10. It's 100 times better..I mean ..this pic..without churoot..Sir, u are looking very cool & dignified...

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  11. अभिजात्य सत्य तो नहीं क्योंकि यादव जि अभिजात्यपने की निंदा करते रहते हैं ,दीगर है की स्वयं भी अभिजात्य से कुछ कम बने नहीं रहना चाहते हैं .ये ठीक है की राजेंद्र जि संवाद के लिए आमंत्रित करते हैं ,चाहे वह उनके विपक्ष में हो या पक्ष में ,आधुनिक हिन्दी खलनायक हैं यादव जी

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