सहजि सहजि गुन रमैं : महेश वर्मा















महेश वर्मा : ३० अक्टूबर १९६९, अंबिकापुर (छ्त्तीसगढ)
पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, लेख आदि
रेखांकन भी लगभग सभी पत्रिकाओं में
परस्पर के लिए  संपादन- सहयोग 
ई-पता : maheshverma1@gmail.com


महेश वर्मा की कविताओं ने इधर ध्यान खीचा है. कविता का समकालीन परिधान पास –पड़ोस के रंग–रस से जुड़ कर यहाँ समृद्ध हुआ है. अनेकार्थक बिम्बों वाली संरचनाओं के भीतर पूर्वज कवि रास्ता दिखाते दिख जाते हैं. विसंगति से जूझती इन कविताओं में संत्रास का एक अजब रसायन है.


राम कुमार



इसी के आलोक में


एक रिसता हुआ घाव है मेरी आत्मा
छिदने और जलने के विरूद्ध रचे गए वाक्यों
और उनके पवित्र वलय से भी बाहर की कोई चीज़

एक निष्ठुर ईश्वर से अलग
आंसुओं की है इसकी भाषा और
यही इसका हर्ष

कहां रख पाएगी कोई देह इसको मेरे बाद
यह मेरा ही स्वप्न है, मेरी ही कविता,
मेरा ही प्रेम है और इसीलिए
मेरा ही दुःख.

इसी के आलोक में रचता हूँ मैं यह संसार

मेरे ही रक्त में  गूंजती इसकी हर पुकार
मेरी ही कोशिका में खिल सकता
इसका स्पंदन.


फिर लौटकर

घूमकर वापस आती है ऋतुएँ,
पागल हवाएँ, बीमार चांद और नदियों की याद
वापस आते हैं घूमकर
घूमकर आता है वही भीगा हुआ गीत
जहां अब भी झर रहे हैं पारिजात के फूल

घूमकर याद आती है कोई बुझी हुई सी जगह
चमकने लगतीं सभ्यताएं
हटाकर पुरातत्व की चादर

घूमकर लौट आता है मृत्यु का ठंडा स्पर्श,
स्नायुओं का उन्माद और कोई निर्लज्ज झूठ

घूमकर वापस आती है पृथ्वी हाथ की रेखाओं में,
लौटकर अस्त होता सूर्य अक्सर पुतलियों में,
अभी-अभी तो लौटा है सांसों में आकाश,
घूमकर वापस लौटता ही होगा कोई
जीवन कण अनंत से.


यहां

इसी  से तो ले आए थे उन्हें यहां इस डूबते से मैदान पर,
हम चाहते थे कि दूसरों से हमेशा
एक धीमे बुखार में तपते दिखाई दें- हमारे सुंदर दुःख
कठिन और अनेकार्थक बिम्बों वाली संरचनाओं के भीतर
रखकर अपना गोपन प्रेम, हम लौट आए थे अपने समकाल में
यहीं सजे हैं हमारे दिव्य पराभव और सोने का पानी चढ़ी सफलताएँ

काफी समय तक जिसें हम समझते रहे अपनी भाषा
फिर घिसकर दिखने लगा था नीचे का-सस्ता सा धात्विक

एक ओस भीगी टहनी पर जल्दी से रखकर अपने आंसू
हमने पहन लिये नज़र के चश्मे

और जो मांगते रहे एकांत सूर्य से, स्त्री से और संसार से
और जो मांगते रहे एकांत अरण्य से, पुस्तक से और अंधकार से
क्या करते उसका?

कुछ शब्द थे जिन्हें बदल दिया हमने ठीक उनकी नाक के नीचे
बड़ी मुश्किल थे उठाकर यहां तक लाया जा सका उन्हें, इतने
जर्जर थे कुछ सपने कि उनसे झरती ही जा रही थी राख़
यहीं हमसे टकरा जाते थे हमारे पूर्वज कवि
छड़ी के सहारे टटोलते हुए रास्ता,
प्रायः वे ही मांग लेते थे पहले माफ़ी

यहां कोई नहीं करता था नींद की बातें,
इतने नज़दीक से भी पहचान नहीं पा रहे थे अपने ही बच्चे को,
यहीं दिखाते रहे वो सारी भंगिमाएँ
कि जिससे वाज़िब मान लिया जाता था हमारा ख़ून

एक नुची-चिथी कपड़े की गेंद सी वह पड़ी हुई है किनारे-
हमारी आत्मा


कुर्सी

सर्दी, पानी, धूप-घाम के बीच
बाहर में पेड़ के नीचे
किसी तरह से छूट गयी है कुर्सी
उजड़ चुका पुराना रंग,
जंग लगे कीलों से जुड़े जोड़ों में,
धीमे-धीमे जमा हो गई हैं चरमराहटें
एक दिन शेष हो जाएँगे
इस पर बैठने वाले का संस्मरण सुनाते अंतिम लोग
नये और अपरिचित लोगों के बीच
जब खुल जाएँगी इसकी संधियाँ.
बताना मुश्किल होगा इसकी अस्थियों से
इसका विगत विन्यास,

इससे पहले ही किसी शिशिर में शायद
एकमत हो जाएँ कुछ लोग
दहकाने को इससे
एक सांझ का अलाव.


पीठ

अनंत कदमों भर सामने के विस्तार की ओर से नहीं
पीठ की ओर से ही दिखता हूँ मैं हमेशा जाता हुआ

जाते हुए मेरी पीठ के दृश्य में
पूर्वजों का जाना  दिखता है क्या ?

तीन कदमों में तीन लोक नापने की कथा
रखी हुई है कहीं, पुराने घर के ताखे में
निर्वासन के तीन खुले विकल्पों में से चुनकर
अपना निर्विकल्प,
अब मैं ही था सुनने को
निर्वासन  का मंद्रराग

यदि धूप और दूरियों की बात न करें हम
जाता हुआ मैं सुंदर दिखता हूँ ना ?

19/Post a Comment/Comments

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  1. जाते हुए मेरी पीठ के दृश्य में
    पूर्वजों का जाना दिखता है क्या ?
    वाह..
    सभी कवितायेँ बहुत अच्छी हैं. महेश लगातार बेहतर कर रहे हैं. उनसे बहुत उम्मीदें हैं.

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  2. '...जाते हुए मेरी पीठ के दृश्य में
    पूर्वजों का जाना दिखता है क्या ?...'
    बढ़िया है महेश जी...

    जवाब देंहटाएं
  3. इस बीच यत्र- तत्र पढ़ने को मिलीं महेश वर्मा की कविताओं ने कविता पढ़ने - गुनने का सचमुच का संतोष दिया है। यहाँ भी यह क्रम आगे बढ़ता दिखा है। महेश को बधाई और आपके पति शुक्रिया दिल से!

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  4. कविताएं.. सचमुच बहुत अच्छी हैं... हृदय से बधाई... आरूण भाई आपका आभार....

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  5. एक नुची-चिथी कपड़े की गेंद सी वह पड़ी हुई है किनारे-
    हमारी आत्मा.....ठीक एक अच्छे वक्तव्य सी कविताएं...धन्यवाद अरूण जी

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  6. कविताये वाकई अद्भुत हैं |बेहद सादगी और इत्मीनान से बहुत गंभीर , दुर्बोध , जटिल और क्लिष्ट बातें कह दी गयी हैं | इस बेहद उलझे समय की बेबाक टिप्पणी |

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  7. Mahesh ko badhai .. bahut sundar kavitaen hain .
    कहां रख पाएगी कोई देह इसको मेरे बाद
    यह मेरा ही स्वप्न है, मेरी ही कविता,
    मेरा ही प्रेम है और इसीलिए
    मेरा ही दुःख.

    इसी के आलोक में रचता हूँ मैं यह संसार

    मेरे ही रक्त में गूंजती इसकी हर पुकार
    मेरी ही कोशिका में खिल सकता
    इसका स्पंदन.

    said beautifully ..

    जवाब देंहटाएं
  8. जाते हुए मेरी पीठ के दृश्य में
    पूर्वजों का जाना दिखता है क्या ?

    simply amazing ...

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  9. बहुत ही सुन्दर हैं ये शब्दों के रंग , मानो पिरोए गए हों सांसों के संग । भई वाह! - आशुतोष मिश्र

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  10. is baar mujhe aapki rachnaen adhik achchhi lagin Mahesh ji...badhai..

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  11. Waqayi Arun ji bahut achchi kavitayn hain... aapki paarkhi nazar ki daad deti hun

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  12. "बेहतरीन!!" --- इन कविताओं के वर्णन के लिये और कोई भी शब्द अनुपयुक्त होगा.

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  13. कुछ शब्द थे जिन्हें बदल दिया हमने ठीक उनकी नाक के नीचे
    बड़ी मुश्किल थे उठाकर यहां तक लाया जा सका उन्हें, इतने
    जर्जर थे कुछ सपने कि उनसे झरती ही जा रही थी राख़
    यहीं हमसे टकरा जाते थे हमारे पूर्वज कवि
    छड़ी के सहारे टटोलते हुए रास्ता,
    प्रायः वे ही मांग लेते थे पहले माफ़ी

    बहुत सशक्त पंक्तियां......महेश वर्मा - शानदार डिलेवरी.....
    बंधुवर अरुण.... धन्यवाद.... एक अच्छे कवि की अच्छी कविताएं पढ़वाने के लिए।

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  14. आत्मा को करीब से बहुतसे जानते हैं लेकिन उसकी आखों में आँखे डाल उसके जख्म और ख़ुशी को छूने की सामर्थ्य इन कविताओं का लिखने वाला ही कर सकता है...

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  15. महेश की कविताओं में सबसे अच्छी बात या कहूं ताकत है उनकी भाषा जो मुझे प्रभावित करती है.

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  16. likhane ka dhang prawah antardrishti kamal hai kavita likhi nahi jati wo andar kahin nitya prawahit hoti rahti hai use sahi disha dena hi kavi ka bada gun hai
    badhai behtarin hain

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