निवेदिता का रंगमंच से जुडाव है. पत्रकारिता का लंबा अनुभव रहा है. महिला मुद्दों पर सक्रिय रहती हैं.
निवेदिता का पहला कविता संग्रह –‘ज़ख़्म जितने थे’ २०१४ में प्रकाशित हुआ था. ‘प्रेम में डर’ इसी वर्ष वाणी से प्रकाशित हुआ है.
प्रेम में डर : निवेदिता
सुनीता गुप्ता
नफरत से खौलते एक ऐसे समय में जब
प्रेम करना अपराध हो गया है और प्रेम की बात करना देशद्रोह, निवेदिता अपनी कविताओं के साथ प्रेम के पक्ष में मजबूती से
खड़ी होती हुई न केवल प्रेम का अनहद राग रचती हैं बल्कि अपने समय से टकराती भी हैं. ऐसे में इसे कबीर
के ढाई आखर का सामयिक विस्तार कह सकते हैं. राजेन्द्र यादव ने एक बार लिखा था कि
हर प्रेम अपने समय से एक विद्रोह है. निवेदिता के नवीनतम कविता संग्रह ‘प्रेम में डर’ की कविताओं को इस संदर्भ में देखते हुए सहज ही इसकी पुष्टि
हो जाती है. स्त्री कविता की परम्परा में
रखते हुए इस धारदार तेवर का सहज ही अभिज्ञान किया जा सकता है. जिस प्रेम के लिए
मीरा लिखती हैं कि ‘जो ऐसा मैं जानती प्रेम
किये दुख होय, नगर ढ़िंढ़ोरा पीटती रे
प्रेम न कीजै कोय’ और जिस प्रेम को महादेवी
वर्मा ‘तुम मुझ में प्रिय फिर परिचय क्या’ कहकर रहस्य के अभेद्य आवरण में छुपा ले जाती हैं, निवेदिता उसीका अकुंठ भाव से गान करती हुई उसे प्रसाद की
तरह ‘मेरे क्षितिज उदार बनो’ की उंचाई तक ले जाती हैं.
‘प्रेम में डर’ निवेदिता का दूसरा कविता संग्रह है. कोई आश्चर्य नहीं कि
प्रेम इस संग्रह का मूल स्वर है जो पूरे संग्रह में परिव्याप्त है. कविता एक
अंतर्मुखी विधा होती है. यह पाठकों से सीधा साक्षात है. यही कारण है कि अपने आपमें
संकुचित स्त्री व्यक्तित्व को इसमें खुलने में वक्त लगा. स्त्री ने कविता में अपने
को व्यक्त करने के लिए कभी भक्ति का आश्रय लिया, कभी
राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का तो कभी प्रकृति का, कविता
में तो वह मुक्त भाव से आयी नब्बे के बाद पर यहां भी वह अपनी सदियों से प्रदत्त
यातना और प्रताड़नाओं के साथ आयी. अपनी अस्मिता की गहन, सांद्र अभिव्यक्ति को निवेदिता की इन कविताओं में देखा जा
सकता है. प्रेम यहां गहन अनुभूति के साथ मांसल और ठोस रूप में उपस्थित होता हुआ
स्त्री कविता में प्रेम को भावलोक से मुक्त करता है. ‘मेरे प्यार’ शीर्षक कविता इसका
श्रेष्ठ उदाहरण है. जगह जगह प्रेम के इस नितांत व्यक्तिगत उद्याम आवेग को महसूस
किया जा सकता है –
‘तुम्हीं थे जिसने
मेरी देह पर मन रख दिया
था
मेरी जिस्म पर बैंगनी फूल
खिले
मेरे तन के कोने कोने से
बहती रही नदी."
पर यह उनकी कविताओं का एक पक्ष है, निवेदिता का प्रेम अपनी सीमाओं में आबद्ध नहीं है. यह प्रेम
है जो उन्हें अपने चतुर्दिक के परिवेश से जोड़ता है और अपने समय को समझने की दृष्टि
और जूझने की ताकत देता है. इसीलिए वे आगे बढकर प्रस्तुत होती हैं –
‘‘उठो मेरे प्रिय
मेरे साथ चलो
कि हम चलें
जहां प्रेम सर झुकाये खड़ा
है
जहां प्रेम डरा है."
कोई आश्चर्य नहीं कि शीर्षक के
अनुरूप संग्रह की कविताएं प्रेम से लबालब हैं, जैसे
स्वयं कवयित्री सराबोर हैं! पर कवयित्री के इस प्रेम को व्यक्तिगत परिधि में कैद
नहीं है. निवेदिता की कविताओं में प्रेम हवा की तरह परिव्याप्त, जल की तरह जीवनदायिनी और घास की तरह उर्वर है –
‘‘प्यार खेतों में धान रोपने की तरह है
प्यार हरी घास है जो हर
भीगी
सतह पर उग आती है.”
प्रेम यहां कई कई रूपों में
उपस्थित होकर जीवन को समृद्ध करता है. निवेदिता इसे परिभाषित करती हुई आगे बढ़ जाती
हैं और फिर वह नवीन रूपों में उपस्थित हो जाता है. कभी प्रेम जीवन के संरक्षक के
रूप में उपस्थित होता हैं- प्रेम ही है, जो बचा लेता है, हमें बार बार , कभी दलदल की
तरह पीड़ा में गहरे धंसा ले जाता है, यह कभी कुआं बन जाता है, कभी ‘लम्बी कविता’ बन जाता है, यह सीमाओं का अतिक्रमण करता है. प्रेम सरहदों के पार जाता है, यह
मौत से भी मुकाबला करता है, अद्भुत है प्रेम, धड़कता है कसाईघर में भी, यह ‘बिखरने से बचाता’ है और ‘धूप की तरह’ खिलना सिखलाता है.
निवेदिता की कविताओं में जब यह ‘भूख और रोटी’ बनकर आता है तो किसी भी
प्रकार की रुमानियता को भंग करता हुआ जीवन की आदिम जरूरत बन धमनियों में प्रवाहित
हो जाता है. कह सकते हैं कि निवेदिता का प्रेम अपारिभाषित है, बार बार परिभाषाओं की परिधि में बांधने के बावजूद कुछ ना
कुछ छूट ही जाता है. निवेदिता का यह प्रेम अपरिभाषित ही नही है, असीमित भी है - कई कई रूपों यह अपनी उपस्थिति दर्ज करता है.
यह जीवन का रसमय तो करता ही है, उसे उर्जावान भी करता है, उसके प्रति मोह भी पैदा करता है और उससे भी बड़ी बात कि यह
जगत के प्रति संवेदनशील बनाता है और उससे भी आगे बढ़कर यह कवयित्री में वह प्रतिरोध
की ताकत भरता है जिसके बूते पर वे हर प्रकार के अन्याय के विरुद्ध साहस के साथ खड़ी
हो पाती हैं. निवेदिता की कविताएं बताती हैं कि साहस के बिना प्रेम व्यर्थ है -
इसके अभाव में हम प्रेम के अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकते. ये कविताएं यह भी
बताती हैं कि प्रेम से भरा हुआ हृदय ही एक सुंदर दुनिया रच सकता है. प्रेम के बल
पर ही यह दुनिया टिकी हुई है –
‘प्रेम है जो बचाता है देश को
लोगों को.'
यह प्रेम ही है जो कवयित्री को
अन्याय के प्रतिवाद में प्राण त्यागने वाले अपने मित्र चन्द्रशेखर के निकट ला खड़ा
करता है, बांग्लादेश के अभिजीत रॉय, सागर किनारे मृत पड़े बच्चे अयलान के माध्यम से हिंसक हो रही
धरती के प्रति चिंता से भर देता है. मारे गये पत्रकारों पर भी निवेदिता की कविता है. ऐसे में दुनिया को
बचाने के लिए वे प्रेम का आह्वान करती हैं.
प्रेम व्यक्ति को संवेदनशील बनाता
है. यह अनायास नहीं है कि कवयित्री जहां कहीं भी कोई अन्याय का शिकार है, उसके पक्ष में खड़ी हो जाती हैं. उनकी संवेदनाओं की परिधि
बहुत विस्तृत है जिसमें हिंसक हो रही धरती,
प्रदूषित हो
रहा पर्यावरण, सूख रही नदी, छूट रहा गांव - बहुत कुछ शामिल है.
निवेदिता का प्रेम एकांगी नहीं है.
वह व्याप्त है धरती से लेकर अम्बर, झीलों, नदी, सागर तक. यही कारण है कि
इन सब पर जहां कहीं खतरा दीखता है तो कवयित्री दुख से भर जाती हैं और उसे बचाने के
लिए गुहार लगाती हैं. निवेदिता की कविताएं प्रेम का राग ही नहीं, एक गुहार भी है जो धरती को बचाने के आर्तनाद से भरी हुई हैं.
यह प्रेम है जो कवयित्री को
विध्वंस के विपक्ष में खड़ा करता है और उनमें अपार साहस बढ़ता है. प्रेम उनकी
कविताओं में उम्मीद बनकर भी आता है. प्रेम यदि जीवन का र्प्याय है तो इस रूप में
कि प्रेम ही सर्जना है और हर ध्वंस के बाद उम्मीद बनकर एक बार फिर जीवन का
पुनःसृजन करता है - कौन अस्वीकार कर सकता है कि शिव के तांडव और लास्य के पीछे यही
प्रेम की शक्ति प्रेरक नहीं थी!
क्हा जा सकता है कि ‘प्रेम में डर’ की कविताएं वह बीज हैं
जिनसे प्रेम का महाकाव्य रचा जा सकता है. प्रेम के विविध आयाम होते हैं. यह बीज
बनकर जीवन को रचता है, वृक्ष बनकर पल्लवित होता
है, पुष्प् के रूप् में सुन्दर बनकर खिलता है और फलों में भविष्य की
नवीन उम्मीद बनता है. निवेदिता की कविताएं प्रेम के इन विविध रूपों को स्पर्श करती
हैं. वे प्रेम की आत्ममुग्धता से बाहर निकलकर अपने समय की विडबनाओं से भी टकराती
हैं. साहस और उम्मीद उनकी कविताओं का मूल स्वर हैं जो कवयित्री के दीप्त
व्यक्तित्व की ही प्रतिछाया हैं. स्त्री अस्मिता की गहन अनुगूंज से निनादित ये
कविताएं स्त्री कविता का नया भाष्य रचती हैं,
इससे इनकार
नहीं किया जा सकता.
नदी का बिम्ब निवेदिता की कविताओं
में बार बार आया है. इस नदी के आधार पर निवेदिता की कविताओं का मनोवैज्ञानिक
विश्लेषण किया जा सकता है. नदी को कवयित्री के अंतर्मन में प्रवाहित उस रस स्रोत
के रूप में देखा जा सकता है जो उनके जीवन के साथ उनकी कविताओं को भी रससिक्त करता
है और जिसकी प्रत्यक्ष और गौण उपस्थिति को पूरे संग्रह में महसूस किया जा सकता है.
नदी की तरह ही अपने ही आवेग से प्रवाहित ये कविताएं जीवन को सींचती हैं.
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सुनीता गुप्ता
मो: 947324299
sunitag67@yahoo.com
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अति सुंदर समीक्षा
जवाब देंहटाएंबधाई, सुनीताजी!आपने अच्छा लिखा है।
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