सबद भेद : कविता क्या है : अच्युतानंद मिश्र










अच्युतानंद मिश्र कवि हैं और सैद्धांतिक आलोचना के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं. आधार प्रकाशन से उनकी किताब ‘बाज़ार के अरण्य में’ इस वर्ष प्रकाशित हुई है. 


कविता क्या है ? यह जिज्ञासा पुरानी है. कवियों आलोचकों ने इसे तरह–तरह से समझा है. अच्युतानंद मिश्र मानते हैं कि वह मनुष्यता के स्पंदन का जीवित इतिहास है






कविता मनुष्यता के स्पंदन का जीवित इतिहास है              
अच्युतानंद मिश्र



गर हम आरम्भ से शुरू करें तो उसके अंत तक पहुँच सकेंगे. बहुत हुआ तो मध्य के आरम्भ तक पहुँच पायेंगे. बात इसके आगे नहीं बढ़ पाएगी.किसी चीज़ के आगे बढ़ने के लिए यह जरुरी है कि अंत दूर हो, लेकिन अगर अंत पास आ जाये तो आगे बढ़ना मुमकिन न होगा. ऐसी स्थिति में बेहतर यही होगा कि हम आरम्भ, मध्य और अंत के सपाट विभाजन को दरकिनार कर थोड़ा-थोड़ा सबको मिलाकर कहीं बीच में पहुँचने की कोशिश करें. कविता इसमें हमारी मदद कर सकती है. वह मनुष्यता के आरम्भ से आज तक साथ रही है.


बीसवीं सदी के अधिकांश दार्शनिकों का संकट यह था कि वे उन्नीसवीं सदी से शुरू कर बीसवीं सदी तक समाप्त करना चाहते थे.वे खुद को अंत के बेहद करीब महसूस कर रहे थे जाहिर है ऐसे में उनके लिए बहुत आगे बढ़ना मुमकिन नहीं था. ऐसे में जिस दार्शनिक आपाधापी का वे शिकार हुए उसमें कविता का प्रश्न थोड़ा पीछे छूटता गया. एडोर्नो से लेकर बौद्रिया तक कविता की उम्मीद खो चुके थे. लेकिन कवितायेँ लिखी जा रही थी और कवि गर्म दिनों की कल्पना में भीतर और बाहर एक शीतयुद्ध लड़ रहे थे.


यह अनायास नहीं है कि अंत की घोषणा करनेवाले बहुत से चिंतकों ने इक्कीसवीं सदी में फिर से आरम्भ करने पर बल दिया. पहले वे पाठ और पाठक के अंत की बात कर चुके थे अब वे पाठ किस तरह करें, इस पर पुनर्विचार करने लगे. बीसवीं सदी विचार के अंत और पुनर्विचार के प्रारंभ दोनों के सह-अस्तित्व की सदी रही. इन तमाम अंत और शुरुवात के बीच बीसवीं सदी की कविता सतत प्रवाहमान रही.हालाँकि, कविता के अंत की घोषणाएं भी किन्हीं और संदर्भों और अर्थों में होती ही रही. ऐसे में यह जरुरी हो उठता है कि कविता के संदर्भ में हम आरम्भ, मध्य और अंत को ओझल करते हुए समाज में कविता की भूमिका और प्रासंगिकता पर बात करें .


चीजें जब टूटती हैं या टूटने की प्रक्रिया में होती हैं तो उनका वस्तुपक्ष अधिक प्रभावी नज़र आने लगता है. कविता इसका निषेध करती है. हम सबका आत्म एक मुक्कमिल कविता है, जिसकी जड़ें हमारे सुदूर अतीत में फैली है. जहाँ हम अपने आत्म के द्वारा सीमाओं का लगातार अतिक्रमण करते रहते हैं, वहीँ वस्तुगतता उसे एक पुख्ता ज्यामितिक सीमा में बदल देना चाहती है. कविता अपने स्वरूप में, अपनी चेतना में, अपने अर्थ ग्रहण में मूर्तन का अतिक्रमण करती है औरअमूर्तन का निषेध. अभिव्यक्ति का कोई भी स्वरुप अंततः अमूर्तन से संघर्ष ही है.


हम भक्तिकाल की श्रेष्ठ कविताओं को देखें तो उनके विश्लेषण में यह बात शिद्दत से महसूस की जा सकती है कि जिसे हम निर्गुण समझ रहे होते हैं वह हमारी चेतना में एक सगुण उपस्थिति दर्ज़ करती है और इसी तरह सगुण के विस्तार को समझने के लिए हम निर्गुण के रास्ते अप्रकट संभावनाओं पर विचार करते हैं. ऐसे में यह स्पष्ट है कि कविता वस्तुकरण की समस्त प्रक्रियाओं को चुनौती देती है.


कविता और समाज के सम्बन्धों पर बात करने का अर्थ यह है कि अव्वल हम इस पर ध्यान केन्द्रित करें कि कविता क्या इंगित करती है? उसका लक्ष्य कौन है?वह व्यक्ति और समाज के मध्य किन अंतरालों से होकर गुजरती है? सबसे अहम् यह कि अगर किसी समाज में कविता की संभावना न रह जाये तो उस समाज के विषय में हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं? द्वितीय विश्वयुद्ध ने मनुष्यता के समक्ष जो चुनौती प्रस्तुत की थी उसके आलोक में कविता और मनुष्यता के अस्तित्व का संकट अलग अलग नहीं रह गया था.




कविता भाषा की वांछित शक्ति है

कविता भाषा का सबसे अधिक प्रभावी रूप है. भाषा के मूर्त और अमूर्त दोनों तरह के प्रभावों को कविता अपने में समाहित किये रहती है. इसलिए वह भाषा के उस उच्च शिखर की तरह है जहाँ हर वक्ता जाने की आकांक्षा रखता है. यही वह आदिम चेतना है कि दुनिया का हर मनुष्य कलाकार के रूप में कभी न कभी कवि होने की आकांक्षा रखता है.


जब हम यह कहते हैं कि ‘मुझे वह पुस्तक लाकर दो’ तो भाषा का मूर्त उद्देश्य उसमें अंतर्निहित होता है, जो श्रोता के समक्ष प्रकट होता है. श्रोता इसे सुनकर क्रियाशील हो जाता है. वह अपने विवेक अनुसार तय करता है कि उसे क्या करना है. उसके पास दो विकल्प रह जाते हैं. दोनों ही एक तरह से क्रिया हैं. स्पष्ट है कि भाषा का यह रूप हमें प्रकट रूप से क्रियाशील बनाता है. यहाँ वक्ता और श्रोता दोनों मिलकर एक द्वैत का निर्माण करते हैं. लेकिन संवाद या भाषा के इस रूप की एक सीमा है. वह इस द्वैत के परे अर्थ का निर्वाह नहीं करती. यानि तीसरे या चौथे की उपस्थिति पर यह प्रभाव नहीं डालती. इस अर्थ में देखें तो कविता का दायरा इस द्वैत का अतिक्रमण करता है.


तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता


ऐसे में यह दिलचस्प है कि कविता की भाषा व्यक्तिगत संवाद की संभावनाओं को विस्तृत कर उसे सामाजिक संवाद में बदल देती है. कविता में यह सब किस तरह होता है? कविता की भाषा निजता से आरम्भ होकर निजता के परे किस तरह चली जाती है? वह किसी एक को संबोधित होकर भी हर किसी को संबोधित होती है. उदाहरण के लिए टी.वी पर समाचार पढ़ती उस स्त्री से हम चाहे जो भी कोण बनायें, हम पायेंगे कि वह हमें ही देखकर समाचार पढ़ रही है. यही बात कविता पर भी लागू होती है. उदाहरण के तौर पर हम निराला की बेहद चर्चित कविता तोड़ती पत्थर को लें


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर


स्पष्ट है कि इस कविता के आरम्भ की ये पंक्तियाँ हमें इस बात से वाकिफ कराती हैं कि कवि इलाहबाद की सड़कों पर है, दिन गर्मी का है और वह एक श्रमशील स्त्री को देखता है. कविता का बाह्य इन्हीं छवियों से निर्मित है .यह दरअसल कविता का प्रवेश द्वार है. कोई भी पाठक किसी भी शहर, सभ्यता, संस्कृति और समय से सम्बद्ध क्यों न हो, वह इस दरवाजे से प्रवेश कर सकता है.  इस प्रवेश के पश्चात भाषा की जिस आरंभिक क्रियाशीलता की बात हमने की वह समाप्त हो जाती है. कविता में आगे बढ़ने से पूर्व हर पाठक अपनी कल्पना और चेतना के संधि स्थल से निर्मित इलाहाबाद शहर की सड़कों पर पहुँच जाता है. जिसने सिर्फ चंडीगढ़ देखा हो उसके लिए इलाहाबाद चंडीगढ़नुमा हो जाएगा,दरभंगा में रहने वाला पाठक इसे दरभंगा में बदल देगा. इस तरह हर पाठक अपने-अपने शहर के रास्ते इलाहाबाद में पहुँच जाएगा. यहाँ ध्यान देने की जरुरत है कि कविता निजता के दायरे का अतिक्रमण कर एक विस्तृत सामाजिक संवाद में बदल चुकी है. जो भी इन पंक्तियों से गुजरेगा उसकी चेतना उसी अनुरूप क्रियाशील होगी. वह स्वयं को इन पंक्तियों का संबोध्य मानकर व्यवहार करेगा. एक बार जब पाठक इस दरवाजे से प्रवेश कर लेगा फिर वह इन वस्तुगत स्थितियों को एक आत्मगत परिस्थितियों में बदलता हुआ महसूस करने लगता है.दुःख, करुणा और विषाद के स्थायी मूल्य हमारी चेतना को घेरने लगते हैं.


देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खाई रोई नहीं


वह स्त्री कवि को देखती है. इस तरह नहीं कि वह महज उसे देख रही हो. वह इस तरह देखती है कि उसके देखने में एक कहना है. एक भाषिक संवाद.इसके उपरांत वह उस भवन की ओर देखती है. लेकिन क्या यह देखना सिर्फ उस स्त्री का अकेले का देखना है. इसबार उसके देखने में कवि भी शामिल है और इस तरह शामिल है कि वह स्त्री की निगाह से उस भवन की ओर देखता है. यह जो पंक्तियाँ है यह काव्यभाषा की उपलब्धि है. जब भी पाठक  इस कविता को पढ़ता है वह कवि के स्थान पर खुद को पाता है. उसकी चेतना में पहले से मौज़ूद दुःख करुणा और विषाद कविता की स्त्री की दुःख, करुणा और विषाद से जा मिलते हैं. यही मिलना एक काव्यात्मक प्रतिक्रिया है. कविता यही करती है.वह हमें बदलती है. कविता का उद्देश्य यही है. हर महान कविता अपनी वस्तुगतता का अतिक्रमण कर पाठक की आत्मगतता को विस्तृत करती है. कविता हमें अधिक मनुष्य बना देती है. 


इस कविता को पढने के बाद हमारा आत्म बदल जाता है. हमारे भीतर पहले से मौजूद संवेदना पुनर्जीवित हो उठती है. फलस्वरूप हम कुछ बेहतर मानवीय क्रियाओं की ओर उन्मुख होने लगते है जैसे यह संभव है कि इसे पढने के बाद कोई व्यक्ति बस से उतरने में किसी बूढ़े व्यक्ति की मदद करने लगे, कोई किसी को पानी का बोतल थमा दे आदि आदि. यहाँ यह देखना कठिन नहीं है कि कविता में भाषिक संवादपरकता वस्तुगत स्थितियों को आत्मगत स्थितयों में बदल देती है. इस तरह कविता का एक उद्देश्य यह होता है कि वह हमें आत्मविस्तार की ओर उन्मुख करती है. कहने का तात्पर्य यह कि कविता के मूल में एक बेहतर समाज की परिकल्पना अंतर्निहित होती है. संवाद का यह काव्यात्मक स्वरुप भाषा की संभावनाओं को विस्तार देता है फलस्वरूप भाषा अपनी भौतिक संभावनाओं का अतिक्रमण करती हैं. काव्य भाषा का यह अतिरिक्त भाषा के नये दरवाजे खोलता है. कविता में ध्वनि ,क्रिया आदि के साथ- साथ यह जो सतत आत्मविस्तार की बात अंतर्निहित होती है, वह कविता को हर दौर में समाज के लिए अनिवार्य बनाती है. इस तरह कविता के रास्ते हम मनुष्यता की नई संभावनाओं का संधान करते हैं .





कविता सभ्यता का आलोचनात्मक विवेक है

जो है, कविता उसके विरुद्ध है. वह सत्ता के विरुद्ध है. वह शक्ति के विरुद्ध है. वह स्थापित चेतना के विरुद्ध है. जब कोई कविता पढता है, वह जाने-अनजाने सत्ता के विरुद्ध षडयंत्र में शामिल हो जाता है. कविता ठहराव और गति दोनों को चुनौती देती है. 
नीत्से ने कहा था जब हम धीरे-धीरे कविता पढ़ते हैं तो हम आधुनिकता को चुनौती दे रहे होते हैं. यांत्रिकता एकायामी गति को ही सर्वोच्च समझती है.इस गति में जिससे भी और जिस तरह भी व्यवधान हो वह सभ्यता के लिए चुनौती है. कविता यही करती है.

अगर हम आरम्भ की ओर नज़र डालें तो हम देख सकते हैं कि ग़ुलामों को युद्धों द्वारा जीता जाता था और मुक्त किया जाता था. लेकिन स्वतंत्र व्यक्ति को वाक्पटुता (rhetoric) मुक्त करती थी. भाषा का महत्व सर्वोपरि था. कविता, मनुष्य और प्रक्रति के मध्य संवाद की भाषा थी. लेकिन प्रकृति के साथ मनुष्य का यह संवाद एकायामी था. प्रकृति को वह अपने भीतर, अपने बाहर दोनों ही जगह महसूस करता था. वह भिन्न मुद्राओं, संकेतों और रूपों के द्वारा इस अंतः बाह्य प्रकृति को संबोधित करता था.परन्तु यह एक आयामी संवाद ही था, इसीलिए अरस्तु इसे द्वंद्व के समानांतर स्वीकार करते हैं. अरस्तु के अनुसार रेटोरिक मनुष्य और प्रकृति के मध्य द्वंद्व का आदिम रूप है. यहाँ यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि आरम्भ में रेटोरिक भाषा के महज़ ध्वन्यात्मक स्वरुप तक महदूद नहीं था, बल्कि वह भाषा की सभी संभावनाओं में मौजूद था और इसलिए कविता मनुष्य के जीवन के हर व्यापार में शामिल थी.


प्रकृति मनुष्य को भी स्वतंत्र सत्ता के रूप में चिन्हित करती थी. कविता मनुष्य की स्वतंत्र चेतना का परिचायक थी. सत्ता को कविता की यह स्वतंत्रता चुनौती देती थी .कविता का यह आदिम रूप मनुष्य की स्वतंत्र सत्ता और चेतना को इंगित करता था.


मध्यकाल तक आते-आते यह रेटोरिक जीवन व्यापर से दूर जाता गया. संस्थाओं के उदय ने जीवन को अधिक औपचारिकताओं में बदल दिया. ऐसे में संस्थाओं ने भाषा, जीवन और साहित्य बोध के बीच फांक पैदा कर दी. वेद और वेदों की ब्राह्मणवादी व्याख्याएं और उनकी समाज अनुकूलित परिभाषाएं दरअसल इसी फांक को उजागर करती हैं.वास्तविक जीवन- व्यापार से कविता को बाहर कर उसे कर्मकांड से जोड़ दिया गया. हमारे आदि ग्रन्थों को, उनकी भाषा को नये अर्थों और नये संदर्भों के साथ जोड़ा गया. धीरे-धीरे समाज उनके अनुकूलित होता गया. इस अनुकूलन का बड़ा परिणाम था काव्यभाषा बनाम सामाजिक व्यवहार की भाषा के बीच फांक. जिन संस्थाओं ने इस फर्क को विकसित किया, वे ही साहित्य के स्वरुप औरउसके शास्त्र की रचना भी करने लगे. सामान्य तर्क , व्यवहारिकता ,कार्यकुशलता ने जीवन विवेक को आच्छादित करना आरम्भ कर दिया.मध्य काल से पुनर्जागरण के युग तक यह बात देखी जा सकती है.


रेटोरिक पूरी तरह कविता और कलाओं में इस्तेमाल होने वाली चीज़ बनकर रह गयीऔर कविता जीवन से बाहर. यह देखना कठिन न होगा कि जीवन में इस तरह साहित्य और कलाओं की स्वाभाविकता को नष्ट कर, उसे विशेष परिस्थितियों और समयों के अनुकूल बनाया गया. गीतों के लिए अवसर निर्धारित किये गये. इस तरह उनकी सहजता और स्वाभाविकता नष्ट होती गयी.


युद्धों के युग में एक बार फिर विस्तारवाद का वर्चस्व बढ़ा. प्रभावशाली राजनीतिक एवं ओजपूर्ण वक्ताओं की भूमिका बढ़ी. उन्हें धीरे-धीरे जनता के अस्वाभाविक मनोविज्ञान का हिस्सा बनाया गया. लोगों को यह समझ में आने लगा कि कविता या काव्य भाषा किन्हीं विशेष घटनाओं और परिस्थितियों के लिए होती है. उन परिस्थितियों से बाहर उनके जीवन में कविता की भूमिका लगभग नहीं रही. जाहिर है यह कविता को और काव्य विवेक को जीवन विवेक से अलगाने की बेहद धीमी मगर ऐतिहासिक प्रक्रिया का निर्णायक मोड़ रहा. जीवन यथार्थ और काव्यात्मक यथार्थ में धीरे-धीरे दूरी बढ़ने लगी. आरम्भ में कविता, जीवन संस्कार से जुडी हुयी थी. जीवन में कविता और धर्म के बीच अलगाव इस तरह का नहीं था. धर्म के उद्दात भावों का दूसरा नाम कविता था. इसलिए धर्म के रास्ते साहित्य बोध जीवन में गहरे तक धंसा था. इस बात को बहुत से आरंभिक ग्रंथों की सामाजिक भूमिका से पुष्ट किया जा सकता है. लेकिन ज्यों-ज्यों जीवन और कविता के बीच दूरी बढती गयी ,काव्यात्मक उपकरण इजाद होने लगे. प्रतीकों और बिम्बों में कविता की जटिलता, जीवन की वास्तविक जटिलता से अलग राह इख़्तियार करने लगी. काव्यात्मक विवेक का जीवन विवेक से अलग होना मनुष्यता के इतिहास की बड़ी परिघटना थी.


प्रबोधन के युग में काव्य भाषा का अलग स्वरुप विकसित होने लगा. वह संवादपरक और जीवन संवेदना में पगी भाषा नहीं रह गयी. वह जीवन बोध से इतर एक नये रेटोरिक में ढलने लगी. व्यवहार-वादियों और तर्क-वादियों ने इस बात पर बल दिया कि भाषिक सक्रियता हमें वास्तविक सक्रियता से अलग करती है .यह वह युग था जब सिद्धांत और व्यवहार का संघर्ष दर्शन में तीव्र हो चला था. कहना न होगा कि कविता को दर्शन के खाते में जगह दी जा रही थी. इस अलगाव के बावजूद यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि कविता जीवन से पूरी तरह बाहर नहीं हुयी थी. वस्तुतः यह अलगाव कविता और सामाजिक विवेक का ही अलगाव था और यह प्रक्रिया आज तक जारी है. आधुनिकता-जनित यांत्रिकता ने मनुष्य के काव्यात्मक विवेक को ही निशाना बनाना आरम्भ कर दिया. ऐसे में कविता का संघर्ष मनुष्यता के संघर्ष से बाहर नहीं रह गया था.





कविता संगीत और सामाजिकता के आधुनिक आयाम

बीसवीं सदी की काव्य-चेतना पर बात करने के क्रम में यह जरुरी है कि मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के साथ हम कविता के सम्बन्धों पर, खासकर कविता की रचना प्रक्रिया पर विचार करें.किसी कवि के मन में यह विचार किस तरह आता है कि वह अमुक विषय पर कविता लिखे? बाह्य सत्य या परिघटनाएं काव्यात्मक संवेदना में किस तरह बदलती हैं? कविता की अंतर्वस्तु और बाह्य दुनिया के अन्तर्सम्बन्धों को हमारा चेतन किस तरह अलगाता है? कल्पनाशीलता के विविध आयाम काव्यात्मक कल्पनाशीलता में किस तरह बदलते हैं? हम यह तो मानेंगे ही कि हर मनुष्य स्वप्न देखता है, हर मनुष्य कल्पनाएँ करता है, फिर उसकी कल्पना या स्वप्न को हम कविता के रूप में स्वीकार नहीं करते तो ऐसा किस तरह होता है? आधुनिक कविता पर बात करने का अर्थ इन प्रश्नों से होकर गुजरना है. ये प्रश्न कविता के संदर्भ में किसी वस्तुगत बोध से नहीं बल्कि व्यापक आत्मगत बोध से जुड़े हैं. इसलिए इन प्रश्नों के उत्तर सही और गलत के बजाय विश्लेषण के विविध दायरों का एक समुच्चय हो सकते हैं.


कविता की वस्तु महज़ व्यक्तिगत आवेग और अनुभव को इंगित नहीं करती. कोई चीज़ कविता की वस्तु तब बनती है, जब वह किसी सार्वभौमिक प्रवृत्ति का हिस्सा बनकर सौन्दर्यात्मक बोध को उजागर करे. हालाँकि यह तो तय है कि हर पाठक अपने जाग्रत विवेकानुसार ही उस काव्य बोध को  ग्रहण करेगा. किसी कविता के संदर्भ हर पाठक अपनी स्वतंत्र राय कायम करता है. ऐसी स्वतंत्रता मनुष्य प्रकृति के संसर्ग में ही पाता है. काव्यबोध की यह भिन्नता कविता को संवाद की एकायामी प्रक्रिया से अलगाती है. कविता इस अर्थ में भी बहु-आयामी होती है. कविता व्यक्तिगत अनुभव में मौजूद सार्वभौमिक तत्वों को उजागर करती है. यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि कविता का संवाद से अभिन्न सम्बन्ध है लेकिन वह एक ऐसी संवाद प्रक्रिया है जो एक साथ बहुतों को लक्षित करती है. ऐसे में कविता की इस संवाद प्रक्रिया के विश्लेषण से हम कविता की रचना प्रक्रिया के पहलुओं को समझ सकते हैं. कविता अपने आरंभिक स्वरुप में आत्म संवाद की प्रक्रिया से होकर गुजरती है. आत्म संवाद कविता की रचना प्रक्रिया का वह क्षण है जब कवि विषय को अपने भीतर आरोपित करता है.


एडोर्नो के अनुसार कविता जिस सार्वभौमिकता का निर्माण करती है ,वह मनुष्य के अन्तःकरण का भावात्मक और आध्यात्मिक पहलू होता है. समाज से उसके सम्बन्ध और अस्तित्व के प्रश्न, व्यक्ति को लगातार काव्यात्मक अभिव्यक्ति की ओर आकृष्ट करते हैं.काव्यात्मक विवेक के भीतर छद्म सार्वभौमिकताओं का निषेध भी अंतर्निहित होता है. इसी काव्य चेतना के समानांतर सौन्दर्यबोध के श्रोत भी हमारी चेतना में सक्रिय रहते हैं. रचना प्रक्रिया के मूल श्रोतों को समझने के क्रम में यह जरुरी है कि हम सौंदर्य-अनुभूति  की प्रक्रिया को समझें.


हमारे बाहर जो दुनिया है, जिसके भौतिक अस्तित्व को हम स्वीकार करते हैं उसकी निर्मिती में एक अद्भुत समरूपता देखी जा सकती है. इस समरूपता को हम सौंदर्य-अनुभूति  के मूल श्रोत के रूप में चिन्हित कर सकते हैं ,लेकिन यहाँ यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि इस भौतिक समरूपता के साथ प्रकृति में मौजूद अमूर्त समरूपतायें भी होती हैं. सौंदर्य-अनुभूतिकी प्रक्रियामें ये दोनों मौजूद होते हैं. जिसे हम सौंदर्य-अनुभूति कहते हैं वह कोई स्थूल या जड़ वस्तु नहीं होती बल्कि वह सतत गतिमान होती है. उसकी गातिशिलता के सम्बन्ध की तलाश कर ही उसे मुक्कमल तौर पर समझा जा सकता है. इस गतिशीलता के मूल में है मनुष्य की सतत जिज्ञासा. उसके भीतर का कौतुहल. मनुष्य की जिज्ञासा और कौतुहल उसे सौंदर्य-अनुभूति को पुनर्रचना के लिए प्रेरित करती है. लेकिन यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि सौंदर्य-अनुभूति हर किसी के लिए एक सी नहीं होती. 



हर कोई अलग स्थितियों में अपनी चेतना निर्मित करता है. ऐसे में एक सी स्थिति पर वह भिन्न भिन्न रूप से प्रतिक्रिया करता है. सहज रूपों में यह भिन्नता सूक्ष्म होती है. इस व्यापक अनुभूति से जो समग्र चेतना निर्मित होती है, वही काव्य आस्वाद की प्रक्रिया निर्मित करती है. काव्यानुभव हमारे मन:स्थितियों से बाहर निकलकर हमारे सामाजिक विवेक और संवेदना के सहचर बन जाते हैं. जैसे कि रात. रात सुहावनी भी हो सकती है और डरावनी भी.यह भिन्न प्रतिक्रिया ही सौन्दर्य के प्रतिमानों को मानवीय संवेदना से एवं जीवन अनुभूतियों से संपृक्त करती है. लेकिन चांदनी रात का सौंदर्य हमारे मन:स्थितियों के साथ-साथ हमारे सामाजिक विवेक और संवेदना के अनुकूल ही सौन्दर्य निर्मित करता है.



कविता मनुष्य के सौन्दर्यबोध का सर्वाधिक सहज एवं निश्चल रुप है. साथ ही यह अनिश्चयात्मकता ही मनुष्य को कल्पनाशील एवं स्वप्नजीवी बनाती है. दृष्टि का वैविध्य एवं देखने सोचने के ऐतिहासिक अनुभवों का समुच्चय हमारी काव्य चेतना बनती है. इस अर्थ में कहें तो कविता में मौजूद कल्पनाशीलता एवं उसकी अनिश्चयात्मकता मनुष्य के विवेक का सर्वाधिक उर्वर अंश है. 


ज्ञान का जो रास्ता निश्चयात्मकता की ओर मुड़ता है, उसे हम वैज्ञानिक बोध कह सकते हैं. विज्ञान प्रकृति के नियमों की व्याख्या करता है. वह सौन्दर्य को एक स्थिर अवधारणा में बदलता है. विज्ञान प्रकृति की व्याख्या करता है पर उसे बदलता नहीं. 


कविता मनुष्य की अन्तः प्रकृति का निर्माण भी करती है और उसे सतत बदलती भी है. इसलिए कविता क्या है,जैसे प्रश्नों की बजाय कविता क्या नहीं है जैसे प्रश्न अधिक संगत जान पड़ते हैं. फिर भी अगर सरलीकरण का सहारा लिया जाये, तो हम यह कह सकते हैं कि कविता में जो सौन्दर्यात्मक पहलू हैं जो कि उसकी वस्तु से अभिन्न हैं, वे मूलतः मनुष्य के आंतरिक संसार का सामाजिक पक्ष है. यानि हमारे अन्तः करण में समाज का जो अंश मौजूद है, उसका सौन्दर्यात्मक पक्ष कविता है. इस पूरी व्याख्या में सौन्दर्यात्मकता और कविता के बीच कोई लकीर खींचने की बजाय भाषा में मौजूद उनके विभाजन को अपर्याप्त मानने की चेतना ही प्रमुख जान पड़ती है. ऐसे में अगर वे एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त हों, तो वह भाषा और चिंतन के अमूर्त पक्षों की व्याख्या से जुड़ी समस्या है.


कवि प्रकृति की निर्मिती के समानांतर अपने अन्तःकरण में सामाजिक छवियों का निरूपण करता है. कविता हमारी अन्तः चेतना के इसी सौन्दर्यात्मक पहलू का नाम है. स्पष्ट है कि ऐसे में यह स्वीकार करना चाहिए कि कविता तो हर मनुष्य के भीतर होगी ही लेकिन उस भीतरी सौन्दर्यबोध को बाह्य अभिव्यक्तियों में बदलने का काम कवि को करना होता है. यहाँ स्पष्ट रूप से कवि की दो भूमिकायें नज़र आती हैं. पहला वह जिसमें उसे अपने सौन्दर्यात्मक पहलुओं का निर्माण करना होता है.दूसराजिसमें उन पहलुओं को बाह्य अभिव्यक्ति में बदलना होता है. उदाहारण के लिए हम संगीत को देख सकते हैं. संगीत की आवश्यकता हर किसी को होती है. हर कोई संगीत को अपने जीवन में महसूस करता है.हमारे अन्तः करण में संगीत मौजूद रहता है लेकिन संगीतकार उसे अभिव्यक्ति में बदलकर गायन में बदलता है.



सौन्दर्यात्मक बोध के ये दो पहलू हैं. एक वह जो बाह्य संरचना के समानांतर एक भीतरी संरचना की निर्मिती करता है. जो कि कहीं न कहीं प्रकृति में मौजूद समरूपता द्वारा विकसित होती रही है. यह अनायास नहीं है कि मनुष्य अपनी कल्पना में, अपने स्वप्नों में इसी दुनिया में देखी गयी छवियों, घटनाओं, परिघटनाओं का पुनर्निर्माण करता है. मनुष्य का सौन्दर्यात्मक बोध सिर्फ इन बाह्य छवियों द्वारा ही नहीं निर्मित होता है, वह अपने इन्द्रियानुभव से प्रकृति की सूक्ष्म छवियों की कल्पना भी विकसित करता है. सौन्दर्यबोध का दूसरा पहलू वह है, जिसके तहत वह इन छवियों को अपने विवेकानुसार बाह्य अभिव्यक्ति में शब्दों ,रेखाओं आदि चिन्हों द्वारा अंकित करता है. सामान्य तौर पर पाठक, कविता के इस दूसरे पहलू पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं. संरचनावाद की मूल समझ कविता की सौन्दर्यात्मकता के इसी पक्ष से टकराती है. ऐसे में वह काव्य अनुभव के व्यापक दायरे से अलग हो जाती है.



संगीत और कविता लम्बे समय तक मनुष्य के बोध में एक साथ रहे होंगे. उनके बीच का अलगाव इधर की परिघटना है. आधुनिक  समाज में संगीत और कविता के इस अलगाव को औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप समझा जा सकता है. संगीत की मूल प्रवृत्ति हमारे चेतन को बाह्य समरुपों से जोड़ने की होती है. जैसे झरने का संगीत. हम देखेंगे कि इसमें निश्चित अन्तराल के बाद दुहराव है. दुहराव संगीत सुनने की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग होता जाता है.यह सुनना हमे बदलता है. संगीत की यह चेतना हमें बाह्य प्रकृति की समरूपता का सतत बोध कराती है. जैसे निश्चित अवधि पर दिन और रात का दुहराव. मौसमों के बदलाव. लेकिन समाज और जीवन की इन बाह्य कोटियों से इतर सौन्दर्यात्मकताका दूसरा पहलू ज्यादा सूक्ष्म है. वह निश्चयात्मकता और अनिश्चयात्मकता के द्वंद्व से निर्मित है. वहां दुहराव की बाह्य परिघटना के अतिरिक्त सूक्ष्मता का ऊबड़-खाबड़पन भी है. 


कविता की अन्तः लय इसी द्वंद्व से निर्मित होती है. आरम्भ में बाह्य और अन्तः के बीच का फासला इतना अधिक नहीं रहा होगा. कविता और संगीत एक दूसरे के पूरक थे. लेकिन औद्योगिक क्रांति ने समाज को एक जटिलता में बदल दिया. यांत्रिक दुहराव ने समाज में संगीत और कविता की भूमिका को अलग कर दिया. उसने प्रकृति के समानांतर एक नई समरूपता का विश्व बना दिया. अनुभव और गति दोनों ही अर्थों में. सवाल है कि नये समकालीन विश्व और उसकी गैर-प्राकृतिक समरूपता के साथ हमारे आत्म का तादात्म्य किस तरह हो. यांत्रिकीकरण की प्रक्रिया ने हमारे इर्द गिर्द को पूरी तरह निर्जीव और स्पंदनहीन वस्तुओं से भर दिया है. कविता की मुख्य भूमिका इसी के विरुद्ध है. यही वजह है कि तमाम कलाओं के मध्य कविता की भूमिका अधिक सामाजिक है. उसका मुख्य संघर्ष समाज की छद्म चेतना से है. यही भूमिका कविता को विचारधारा से अलग करती है. विचारधारा जहाँ समाज को एक निश्चित दायरे में व्याख्यायित करने पर बल देतेहैं,वहीँ कविता समाज की विविध भूमिकाओं के अन्तः सूत्रों को तलाशती है. वह समाज को अधिक उन्मुक्त और स्वछन्द करती है.



कविता में भाषा और शब्द एक जीवित सत्ता होते हैं. जब हम किसी की आप बीती सुनते हैं तो हमारी चेतना (विवेक और संवेदना) के तार झंकृत होते हैं. हम कह सकते है जीवित व्यक्ति के सम्पर्क में आने पर हमारी चेतना स्पंदित होती है. क्या कविता के सम्पर्क में जब हमआते हैं तो यही स्पन्दन महसूस नहीं करते? कविता संवेदनात्मक विवेक का निर्माण करती है.यह स्वीकार करते हुए कि विवेक एक व्यक्तिगत अवधारणा नहीं है बल्कि वह सामाजिक प्रक्रिया है. कविता के साथ मनुष्य का सम्बन्ध जीवित मनुष्यों की दुनिया से निर्मित सम्बन्ध के समानांतर है.कविता इस अर्थ में हमें जीवित मनुष्य की दुनिया का नागरिक बनाती है.


कविता की विषयपरकता अन्य चीज़ों से इस अर्थ में भिन्न है कि यहाँ विषयपरकता का निर्माण वस्तुपरकता के विरोध में नहीं, बल्कि उसी के रास्ते होता है. कवि किन्हीं खास वस्तुपरक स्थितियों को अपने भीतर संयोजित करता है.वह वस्तु ,उसके आत्म में घुल मिलकर एक नये विषय को रचती है. कवि के समक्ष वस्तुगत यथार्थ कविता में पाठक को किसी नई विषयगत भावभूमि पर ला खड़ा करता है. घटनाएँ, पात्र, स्थितियां, तारीख सब भाषा और संकेतों में धीरे-धीरे घुलकर पाठक के समक्ष एक नई विषयगत स्थितियों का निर्माण करती हैं. यह रूपांतरण ही कविता की शक्ति है. इसलिए जो बात जिस तरह कविता में कही गयी है, वह कविता के बाहर अपना प्रभाव खो देती है. जो बात कविता में कही गयी है, वह अन्य किसी रूप में उसी प्रभाव के साथ नहीं कही जा सकती. तो क्या यह कहना सार्थक न होगा कि कविता में भाषा, संवाद का चरम रूप है?जिससे संवेदित एक या दो व्यक्ति नहीं समूचा समाज होता है.



कवि की वस्तुपरकता भाषा के रास्ते पाठक को रूपांतरित करती है. हर पाठक कविता पढने के बाद बदल जाता है.कविता का मूल लक्ष्य पाठक के आत्मजगत को बदलना ही है. यह आत्मजगत का रूपांतरण बड़ी सामाजिक परिघटनाओं को जन्म देता है. कविता का मुख्य उद्देश्य सामाजिक रूपांतरण है. यहाँ तक कि जिसे हम कविता की राजनीतिक भूमिका कहते हैं, वह भी वास्तव में सामाजिक भूमिका ही है. सामाजिक का अर्थ यहाँ व्यापक है,जिसमें मनुष्यता का इतिहास, संस्कृति, मनोविज्ञान,स्मृति और कल्पनाशीलता सब शामिल हैं.



कविता वास्तव में एक जादू है. वह मनुष्यता का एक उच्च शिखर है. कविता में वह भी शामिल है जो कहीं दर्ज नहीं, जो किसी भाषा में अब तक नहीं ढल सका.  धूप, बादल और मनुष्य ये कविता के ही अलग-अलग नाम हैं.
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(पहल में प्रकाशित)

anmishra27@gmail.com


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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-02-2018) को 'रेप प्रूफ पैंटी' (चर्चा अंक-2876) (चर्चा अंक-2875) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. अर्थपूर्ण और प्रभावी
    सादर

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  3. निबंध पढ़ गया।
    कविता पर बेहतरीन विवेचन।
    कविता की हृदयग्राही व्याख्या।
    निराला की 'तोड़ती पत्थर' कविता का चुनाव बहुत अर्थपूर्ण है।
    प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक
    सारे युगों की एक साथ उपस्थिति
    काव्य-सृजन के सभी वादों, धाराओं, प्रवृत्तियों, इरादों को एकमेक करके देखना भी काव्यन्याय है!
    इस निबंध पर समकाल की छाया नहीं दिखी।

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  4. बहुत ही अच्छा और सुचिंतित आलेख है.

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