कार्टून- डेविड लेविन
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यहूदी मूल के महान डच दार्शनिक स्पिनोज़ा (२४ नवम्बर १६३२ : २१
फ़रवरी १६७७) की कृतियों का हिन्दी में समुचित अनुवाद हो और सम्बन्धित दार्शनिक
प्रत्ययों पर उचित चर्चा हो, समालोचन पर ही प्रचण्ड प्रवीर के लेख बारुक स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ को कैसे पढ़ें? की चर्चा के दरमियाँ यह बात निकली
थी.
बहुआयामी प्रतिभा के धनी प्रत्यूष पुष्कर ने इसकी शुरुआत कर दी है. उनका लेख
तथा ‘थिओलोजिकल एंड पोलिटिकल ट्रीटी’ और ‘ईथिका ऑर्डिन
जियोमेट्रिको डेमोंसत्राता’ जिसे एथिक्स के नाम जाना जाता के कुछ अनुवाद भी यहाँ
दिए जा रहे हैं.
दर्शन पर गम्भीरता से संवाद की उम्मीद के साथ .
स्पिनोज़ा
की दार्शनिक अवधारणाएँ
प्रत्यूष पुष्कर
_______________________________
स्पिनोज़ा को पश्चिम के दर्शन का
पहला नास्तिक भी कहा गया है कई जगहों पर, एक ऐसा नास्तिक जिसने ईश
के अनुपस्थिति के बदले, प्रकृति और ईश के एकीकृत
होने की बात कही. स्पिनोज़ा की आलोचना ज्यादातर फ्री विल सिद्धांत के विपक्ष में
होने के कारण भी हुई. प्रख्यात ब्रिटिश लेखक,
जोनाथन
इजराइल ने, जिनका ज्यादातर काम डच इतिहास, रेडिकल एनलाइटनमेंट,
और यूरोपियन
यहूदियों के इर्द गिर्द रहा है, बारुच को रेडिकल
एनलाइटनमेंट का प्रणेता भी माना है.
सोलहंवी शताब्दी के यूरोप दर्शन
काल कों श्रेष्ठतर पुनर्जागरण का काल कहा जाता है. हालाँकि इस काल के दर्शन और
साहित्य दोनों पर धार्मिक अधिष्ठानों का प्रभाव यथावत ही रहा. यही कारण था कि
यहूदियों और ईसाईयों दोनों के द्वारा स्पिनोज़ा का बहिष्कार किया गया.
स्पिनोज़ा ने अपने प्रारंभिक
रचनाओं में ही आत्मा के अमरत्व का खंडन किया,
मीमांसा को
अस्वीकार किया, अब्राहम, आइज़क, जैकब के ईश को अतार्किक
माना, और दावा किया कि सृष्टि के वो
नियम जिनका अनुपालन यहूदी या इसाई करते हैं,
वो
इश्वरप्रदत्त नहीं बल्कि मानव कृत है,
स्पिनोज़ा कों बाइबल के ऐतिहासिक
आलोचना का जनक भी माना गया है. स्पिनोज़ा ने ही पहली बार बाइबल की
भाषावैज्ञानिक-ऐतिहासिक व्याख्या भी की. सन 1670 में अज्ञात रूप से
प्रकाशित अपनी किताब ‘थिओलोजिकल-पोलिटिकल
ट्रीटीज़’ में स्पिनोज़ा ने सीधे तौर पर
मानवीय संवाद और ईश्वरीय संवाद कों पृथक किया, और
मानव की उस इच्छा पर जहाँ पर वह ईश से अपनी भाषानुगत संवाद की आकांक्षा रखता है, प्रश्न खड़े किये. कहा कि अगर ईश का कोई संवाद है भी तो वह
केवल किसी अन्योक्ति सा विवेचनीय है, और मानवीय भाषाई समीकरणों
से मुक्त है. स्पिनोज़ा ने कहा कि ईश प्रकृति के मूल समीकरणों से अलग नहीं है, और अगर मानव कों ईश की खोज करनी हो तो वह ईश कों प्रकृति
में ढूंढें, रुढ़िवादी धार्मिक ग्रंथों में
नहीं.
स्पिनोज़ा ने यह भी कहा कि इश्वर
प्रकृति का कोई निर्देशक नहीं जो प्रकृति की यात्रा को किसी नाटक की तरह एक
निर्धारित अंत तक पहुंचाने के लिए हो. सीधे तौर पर उस ‘विधि के विधान’ को खारिज किया जिससे मानव
अपने दिशा निर्धारण या दिशा निर्धारण में मदद की उम्मीद रखता हो.
उन्होंने इजरेलियों की उस अवधारणा
को हास्यास्पद बताया जो यह मानता है कि प्राचीन इजरायली किसी विशेष ध्येय से
पृथ्वी पर प्रकट हुए थे.
स्पिनोज़ा के सपनों का समाज एक ईश
के भय से मुक्त, तर्काधारित, धर्मनिरपेक्ष समाज था जो अपने क्रमागत विकास की हर सीढ़ी पर
प्रकृति से एक अन्तरंग सम्बन्ध रखता, और प्रकृति में हुए आंशिक
परिवर्तनों में भी अपने ईश का कथ, व्यक्त ढूंढता.
स्पिनोज़ा ने हालाँकि ‘धर्म’ के अस्तितिव का खंडन नहीं
किया कभी, माना कि ज्यादातर जिसे हम धर्म
कहते है मूलत: अंधविश्वास है. स्पिनोज़ा ने सर्वदा इन अन्ध्विश्वासों कों इंगित
किया और इनपर तीखे प्रहार किये.
‘धारयति इति धर्म:’ और धारण करने योग्य वह हो
जो कारण, तर्क, और शोध के बाद सामने आया हो.
‘थिओलोजिकल-पोलिटिकल ट्रीटीज़’ में
स्पिनोज़ा ने धर्म और अन्धविश्वास को समझने को पृथक करने के लिए उन्हीं साधनों का
इस्तेमाल किया, जो साधन आगे चलकर मनोविज्ञान और
समजिकविज्ञान का अभिन्न अंग बने. स्पिनोज़ा ने भी धर्म की अवधारणा को सबसे पहले
व्यक्ति की निजी मनोवस्था से जोड़कर यह समझाने की कोशिश की जिसे हम धर्म कहते है, वो उस व्यक्ति के, जो आशाओं और अपने
प्रागैतिहासिक भय के कारकों के बीच कहीं झूलता हो, साथ
किये अन्य चालाक व्यक्ति या किसी समूह के छलप्रयोजन का नतीजा है, कि बाइबल मोज़ेज को नभ से उतरे किसी ने हाथ में नहीं धरा
बल्कि अलग अलग जगहों पर अलग अलग समय में
अलग अलग लोगों ने उसे लिखा, संयोजित किया, और फिर प्रयोजनमुखी सम्पादन के बाद जनसाधारण तक पहुँचाया.
स्पिनोज़ा ने मोज़ेज कों एक
राजनैतिक नेता के रूप में देखा जिसके पास यथोचित अनुभव और जानकारियाँ थी. स्पिनोज़ा
ने यहूदी धर्म कों कल्पना की परिणति बताया और कहा कि यहूदी धर्म कों अन्धविश्वास
से पृथक तभी किया जा सकता है जब इसकी तमाम अवधारणाओं को आधुनिक विज्ञान के नजरिये
से देखा जा सके, और चमत्कारों की जगह, शोधपरक उत्तरों की आकांक्षा की जा सके.
स्पिनोज़ा ने ब्रह्माण्ड के बारे
में जो धारणा सबके सामने राखी वो एक निर्धारित या डेटरमाइंड किस्म की विचारधारा
थी. ईश एक ब्रह्मतत्व और यह ब्रह्माण्ड उस ईश का एक डेरीवेटिव. स्पिनोज़ा के ईश कों
हालांकि ब्रह्म भी कहा जा सकता है, लेकिन ईश कों स्पिनोज़ा ने
चूँकि के धर्म के सन्दर्भ में भी रखा है, और इनमें से कई धर्म है
जो ब्रह्म की अवधारणा पर एकमत नहीं रखते.
स्पिनोजा जिस ईश की बात करते हैं
वह सत्व ब्रह्म सा तब लगने लगता है जब स्पिनोज़ा इंट्यूशन या अंत:प्रज्ञा को ज्ञान
का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताते है, हालाँकि उसे भी एक
निर्धारित संरचना के भीतर ही रखते हैं और किसी अन्य तत्व के अस्तित्व कों
संदेहास्पद ही बताते है . जिस तरीके से स्पिनोज़ा ईश की बात करते है, वह कोई चेतन-ब्रह्म लगता है. प्लेटो के आईडियलिस्म का वह हिस्सा
जो यह कहता है कि ‘आल मैटर इस अ डेरीवेटिव ऑफ़
कांशसनेस’, तो स्पिनोज़ा का ईश उसी कांशसनेस
या चेतना की तरह लगने लगता है. हालाँकि स्पिनोज़ा के हिसाब से यह चेतना बाइनरी है, निर्धारणात्मक है. एक सार्वभौमिक सत्व. जो ईश भी है, प्रकृति भी, ब्रह्म भी.
एथिक्स के की अपने प्रस्ताव ११
में स्पिनोज़ा यह बात रखते हैं कि अगर कुछ अस्तित्व में नहीं है, या नहीं रहा है तो इसके पीछे कारण और स्पष्टीकरण का होना तय
है कि वह क्यूँ नहीं है. इसके पीछे के कारण या तो उस चीज़ की अपनी प्रवृत्ति हो
सकती है, या कुछ बाह्य कारकों का योगदान
भी. जैसे हज़ार मील चौड़ी झील के खो जाने का कारण झील के बाहर से आता है, जो कोई भूवैज्ञानिक कारण हो सकता है. लेकिन किसी तत्व के
अस्तित्वहीनता के के के कारण भी हो सकते हैं,
और इनमें से
सब बाह्य हो ऐसा ज़रूरी नहीं. हो सकता है अंतर और बाह्य के समन्वय के समीकरणों में
बदलाव एक संयुक्त कारण भी हो. इस अंत: और बाह्य के समीरकण को जब स्पिनोज़ा समझाते
है तो वहां एक विवाद उत्पन्न होता है. जिसकी चर्चा हम, ‘स्पिनोज़ा के तत्व की आलोचना में पढेंगे’
एक बड़े पटल पर फिर वो धर्म की
पड़ताल भी कुछ यूँ ही करते है. हालाँकि स्पिनोज़ा के काम का अधूरापन आधुनिक दर्शन
में के जगहों पर उनके वाद को कमजोर करता दिखता है, जिससे
उनकी महत्ता पर कोई विशेष प्रभाव पड़ता नही दिखता लेकिन उसकी असम्पूर्णता एक शोध का
विषय बन जाती है.
थिओलोजिकल पोलिटिकल ट्रीटीज़ में
कई जगहों पर स्पिनोज़ा के वाद में त्रुटियाँ या असम्पूर्णता दिखती है, जैसे जब वह यह राजनैतिक अधिकारों की व्याख्या करते हुए यह
कह देते हैं कि सरकारों के पास धर्म के अधिकार या अभिव्यक्ति क्षेत्र में
हस्तक्षेप करने की शक्ति नहीं हो, यहाँ पर कहीं ना कहीं
स्पिनोज़ा स्वयं अपने प्रारंभिक विचारों के विरुद्ध खड़े मालूम होतेहै. कई आधुनिक
दार्शनिकों ने इसका खंडन करते हुए यह वाद रखा कि धर्म के ऊपर एक धर्मनिरपेक्ष
सरकार का अंकुश होना आवश्यक है. जैसा हम किसी भी धार्मिक तौर पर उन्मादित
प्रजातंत्र या राजतंत्र में देख सकते है. और फिर यह भी कि स्पिनोज़ा जिस शासक वर्ग
की कल्पना करते हैं ना उस वर्ग के अधिकारों और कर्तव्यों कों स्पष्टता से रख पाते
हैं, ना उस शासक के अधीनस्थ जीवन वहां
करते व्यक्ति की ही. वो शासक के अधिकार और कर्तव्यों कों कहीं ना कहीं उसकी
विवेकशीलता पर छोड़ देते हैं, और ज्यादातर जगहों पर
स्पिनोज़ा के शासक या सरकार, प्लेटो के ‘दार्शनिक राजाओं’ की तरह लगने लगते है, और दोनों में से कोई भी एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र
में नहीं अपनाये जा सकते.
जब स्पिनोज़ा ज्यादातर लोगों कों
तर्कहीन या विवेकरहित मानते ही हैं तो वो कैसे उन्हीं के द्वारा चुने गए
प्रतिनिधियों से ऐसी विवेकशीलता की उम्मीद कर सकते है यह भी वाद का विषय है.
स्पिनोज़ा कहीं कहीं अधिकार और
शक्ति को एक सा मानते हुए भी दिख जाते है,
और जब
अधिकार का निर्धारण शक्ति से या शक्ति का निर्धारण अधिकारों से करने की बात करते
हैं तो वहां भी विवाद उत्पन्न होता है, जिसके बारे में हम अगले
आलेख में पढेंगे.
स्पिनोज़ा दर्शन के मील के पत्थरों
में से एक हैं, और उन्हें समझने का सबसे सही
तरीका, उनके वादों पर प्रश्न खड़ा करना ही
लगता है, क्यूंकि जिस यहूदी सिनेगोग से
स्पिनोज़ा कों बहिष्कृत किया गया था, वहां से वो केवल प्रश्न लेकर
निकले थे, और आज भी, वो प्रश्न समसामयिक है और आने वाले समय में भी रहेंगे. आशा
है कि हम भी उन वाद-विवादों में सम्मिलित हो सकेंगे और इस आलेख के बाद भी स्पिनोज़ा
को पढ़ा जायेगा, और उनका अनुवाद किया जाएगा.
अनुवाद
थिओलोजिकल एंड पोलिटिकल
ट्रीटीज़
प्रत्यूष पुष्कर
____
स्पिनोज़ा की थिओलोजिकल एंड पोलिटिकल ट्रीटीज़
(अंग्रेजी में अनुवाद जोनाथन इजराइल और माइकल सिल्वरथोर्न, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस) के अध्याय ‘ऑन मिरेकल्स’ (चमत्कारों के बारे में) के हिंदी में अनुवाद का एक अंश.
“...जैसा कि लोग आदतन हर उस सूचना या ज्ञान को आसानी से ‘देवीय’ की संज्ञा दे देते है जो
उनकी समझ और तर्क से परे है, ठीक वैसे ही वो घटनाएँ
जिनका कारण अनभिज्ञ है, साधारण लोगों के द्वारा ‘दिव्य’ या इश्वर के काम के रूप में वर्गीकृत कर दी जाती हैं. आम
लोगों के लिए ईश्वरीय शक्ति और विधान तब जाकर और सुदृढ़ और स्पष्ट हो जाते है जब वो
सामान्य से विपरीत कुछ होता हुआ देख लें, प्रकृति को अपने अभ्यस्त
विचारों से इतर कार्य करता हुआ देख ले, खासकर तब और ज्यादा जब ये
बदलाव उनके समर्थन और फायदे में हुआ हो.
वो ये भी मान लेते है कि
ईश के अस्तित्व का सबसे स्पष्ट प्रमाण प्रकृति के गाहे बगाहे अपने प्रकृतिस्थ पथ से भटक जाना है. इसी कारण
से वो यह भी मान लेते है कि जो भी ऐसी घटनाओं या ‘चमत्कारों’ का प्राकृतिक कारणों से व्याख्या करने का प्रयत्न करते है, वो ईश या विधि के विधान कों जबरन खारिज करने का प्रयत्न
करते है.
वो इस विचारधारा पर अडिग
होते है कि जबतक प्रकृति अपने प्रकृतिस्थ रूप से कार्य कर रही होती है तब ईश
निष्क्रिय होते है और जब ईश सक्रिय होते है तो प्रकृति अपने सामान्य पथ से इतर
अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती है और प्रकृति में अतिरेक आता है.
ऐसे ही, वो कल्पना कर लेते हैं दो अलग अलग शक्तियों कि, जो एक दूसरे से भिन्न हो, ईश
की शक्ति, और प्राकृतिक घटकों की शक्ति, और यह कि प्रकृति के शक्तियों का निर्धारण ईश के हाथों में
हैं क्यूंकि उन्हें ये भी लगता है कि मानव का निर्माण प्रकृति ने नहीं बल्कि ईश ने
किया है. लेकिन वो इन शक्तियों में अंतर कर पाने में भी ज्यदातर स्वयं कों अक्षम
पाते है, उन्हें ऐसा लगता है मानो ईश की
शक्ति कोई राजकीय प्राधिकारी के नियंत्रण सा हो, और
प्रकृति कोई बल या संवेग मात्र, जो ईश के शक्ति के अधीन
कार्य करती हो.
ज्यादातर लोग इसीलिए
प्रकृति के असामान्य परिघटनाओं कों ईश का चमत्कार या कार्य मान लेते है और उसके
पीछे के प्राकृतिक कारण कों जानने की मंशा नहीं रखते, जिसके पीछे कारण उनकी निष्ठा और प्रकृति के दर्शन को समझने
की कोशिश करते लोगों का विरोध करने का धुन मात्र हैं.
वो केवल वही सुनना चाहते
हैं जो उन्हें अद्भुत लगता है और सही कारणों से अनभिज्ञ रखता है, ऐसा इसीलिए भी हैं क्यूंकि उनसे केवल इतनी ही अपेक्षा की जा
सकती है कि वो ईश की अराधना करें, और सभी चीज़ों को उसके
निश्चय और नियंत्रण पर मढ़ सकें, प्राकृतिक कारणों की
उपेक्षा कर, प्रकृति के सामान्य पथ से इतर
सबकुछ ईश पर थोपकर, ऐसा बर्ताव करना चाहे मानो
प्रकृति ईश के वशीभूत हो.
इस बर्ताव की शुरुआत ऐसा
लगता है मानो यहूदियों से हुई हो, उन्होंने ही चमत्कारिक
घटनाओं का वर्णन किया था अपने समय के पेगंस से यह मनवाने के लिए कि वो जिन दृश्य
देवताओं की अराधना करते थे, जैसे सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु...आदि, वो ८२ देवता कमजोर, अस्थिर और परिवर्तनशील थे, और
अदृश्य ईश के अधीनस्थ मात्र थे...”
अनुवाद
ईथिका ऑर्डिन जियोमेट्रिको डेमोंसत्राता
प्रत्यूष पुष्कर
स्पिनोज़ा की किताब ‘ईथिका, ऑर्डिन जियोमेट्रिको डेमोंसत्राता’ / एथिक्स / नीतिशास्त्र (अंग्रेजी अनुवाद R.H.M. Elwes) के हिंदी अनुवाद से अंश.
अनुबंध पूर्व :
“...व्यक्ति का अस्तित्व उसका प्रभुत्वसंपन्न प्राकृतिक अधिकार
है, परिणामत:, अपने प्रकृति या जिसे हम चरित्र भी कहते है, से अधीनस्थ होकर वह कार्य करता है, इसी प्रकृति के आधार पर वह सुनिश्चित करता है कि क्या सही
है और क्या गलत है, अपने स्वभावानुसार अपने हितों का
ध्यान रखता है, अपने साथ हुए नाइन्साफियों का
प्रतिशोध लेता है, और उद्यम करता है उसे बचाने की
जिससे वह प्रेम करता है, और उसे नष्ट करने की
जिससे वह घृणा करता है.
अब, अगर व्यक्ति तर्क के नेतृत्व में अपना जीवन वहन करे, तब भी उसके अधिकार उसी के रहेंगे, और वह अपने पर्यावरण और पड़ोसियों कों चोट भी नहीं पहुचायेगा, लेकिन व्यक्ति चूँकि ज्यादातर अपने भावनाओं के अधीनस्थ ही
रहता है, और ये भावनाएं या उसकी मनोदशा, मानव शक्ति और मानवीय गुणों को ज्यादातर दरकिनार कर देती है, इसीलिए वो अलग अलग दिशाओं में भटक जाता है, एक दूसरे से विलग लेकिन एक दूसरे के मदद की आस में जीता है.
लोगों के एक साथ एक
समरसता में रहने के लिए और एक दूसरे की अप्रायोजित सहायता कर सकने के लिए, यह ज़रूरी है कि वो अपने प्राकृतिक अधिकारों को परिष्कृत
करें, उनमें से कुछ का त्याग करें, और केवल सुरक्षा के
नाम पर उन सभी कार्यों से विरत रहें जो उनके साथियों कों किसी भी तरह से चोट
पहुंचाता हो...”
अनुबंध १ :
“मैंने अबतक यह दिखाने की
कोशिश की है कि ब्रह्म है, एक है, एक सत्व है, और वह केवल अपने प्रकृति
की आवश्यकतानुसार कार्य करता है, वह सभी चीज़ों के पीछे का
एक मुक्त कारण सा है, और सभी चीज़ें उस ब्रह्म
में समावेशित है, उसपर निर्भर है, और बगैर उसके ना किसी चीज़ का अस्तित्व है, ना कल्पना ही, आखिरकार, सभी चीज़े उसी ब्रह्म के द्वारा पूर्वनिर्धारित हैं, इसके पीछे ब्रह्म की कोई स्वेच्छा या उसके किसी हुक्मनामे
जैसा कुछ भी नहीं, केवल उसकी प्रकृति है, और उसकी अनंत शक्ति.
आगे बढ़ते हुए मैंने, जिन जिन अवसरों पर आवश्यकता हुई है, मैंने किसी भी तरह के पूर्वाग्रह को हटाने की भरसक कोशिश की
है, जो मेरे प्रतिपादित सिद्धांतो को
उनके मूलस्वरूप में समझ पाने में अड़चन का काम करें, लेकिन
फिर भी कुछ गलतफहमियां है, जो जैसा मैंने समझाने या
श्रृंखलाबद्ध करने की कोशिश की है, उसमें बाधा बन सकें.
इसीलिए मैंने प्रयत्न कर इन सभी गलतफहमियों और भ्रांतियों कों एक तर्क के घेरे में
लाकर समझाने की कोशिश की है.”
“ये भ्रांतियां इसीलिए भी पैदा होती है क्यूंकि हम साधारणत:
यह मान लेते है कि प्रकृति में सब कुछ ठीक वैसे ही बर्ताव करता है जैसे मनुष्य, एक अंत कों दिमाग में रखकर. ऐसा आसानी से निश्चित मान लिया
जाता है कि कोई ईश स्वयं सभी घटनाओं कों एक निर्धारित अंत तक पहुँचाने का कार्य
करता है (और चूँकि ईश ने सभी साधनों का निर्माण किया है मनुष्य के लिए, तो एवज में मनुष्य उसकी अराधना करता है). इसीलिए मैं, इस विचारधारा को ध्यान में रखकर, सबसे पहले यह प्रश्न खड़ा करूँगा कि यह सोच कैसे एक साधारण
दृढ विश्वास सा बन जाता है, और क्यूँ सभी मनुष्य
प्राकृतिक रूप से इसको अपनाने पर बाध्य हो जाते है.
दूसरा, मैं इस अवधारणा के छद्म को इंगित करूँगा, और आखिरकार, यह दिखलाने की कोशिश
करूँगा कि कैसे इस अवधारणा ने समाज को पक्षपात से पाट दिया है, जैसे, अच्छा और बुरा, सही और गलत, प्रशंसा और दोष, क्रम और संभ्रम, सुन्दर और वीभत्स आदि.
हालांकि इस पुस्तक में यह वह जगह नहीं है जहाँ इन भ्रांतियों का मनुष्य की
प्रवृत्ति से निगमन किया जाए, यहाँ यही पर्याप्त होगा
अगर मैं सीधा यह मान लूँ, और जो एक सार्वभौमिक घटना
भी है,कि मनुष्य की यह प्राथमिक इच्छा
होती है कि उन चीज़ों कों ढूँढने की जो उसके लिए
उपयोगी हो, वह इस इच्छा के बारे में सचेत तो
होता है लेकिन इसके पीछे के कारण के बारे में ज्यादातर अनभिग्य.”
“पहली बात यह कि लोगों को लगता है कि वो इन इच्छाओं और इन
इच्छाओं के पीछे कार्यरत इच्छाशक्ति में स्वयं स्वतंत्र और सचेत महसूस कर रहें
होते हैं, और वो स्वप्न में भी, अपने अनभिज्ञता से संकुचित होकर, इस इच्छा और इच्छाशक्ति के पीछे कार्यक्रत कारकों के बारे
में नहीं सोचते जो उनकी चेतना में इनका प्रतिपादन करता है.
दूसरी बात यह कि लोग सभी
कार्य एक अंत कों दिमाग में रखकर करते है,
एक ऐसा अंत
जो उनके लिए उपयोगी सिद्ध हो,
और जो वो ढूंढ रहें हो.
इसीलिए सभी घटनाओं से एक ऐसा विचार निकलकर सामने आता है कि लोग केवल घटनाओं के अंत
की जानकारी और केवल उस अंत पीछे के कारण को ढूंढते है, पूरी प्रक्रिया की नहीं, और
जब उन्हें इस अंत का पता चल जाता है, वो संतुष्ट हो जाते है, और इससे आगे या पहले के शंकाओं के प्रति अबोध रह जाते हैं
या अबोध रह जाना चुनते है.
और जब वो इन कारणों के
बारे में बाह्य श्रोत से भी जानकारी नहीं जमा कर पाते तो वह फिर से स्वयं को
केंद्र में रखकर, फिर से घटनाओं के उस अंत के बारे
में सोचना शुरू कर देते है, जिनमें उनका अहम्
समावेशित हो, और इसीलिए वो किसी घटना से जुड़े
दूसरों के चरित्र या प्रकृति का निर्धारण अपने हिसाब से करना शुरू कर देते है.”
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प्रत्यूष पुष्कर
लेखक/कवि. बहुआयामी
कलाकार. संगीतज्ञ.
शिक्षा : जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय
reachingpushkar@gmail.com
प्रचण्ड प्रवीर : बारुक स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ को कैसे पढ़ें?
reachingpushkar@gmail.com
प्रचण्ड प्रवीर : बारुक स्पिनोज़ा के ‘नीतिशास्त्र’ को कैसे पढ़ें?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (06-08-2017) को "जीवन में है मित्रता, पावन और पवित्र" (चर्चा अंक 2688 पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहद अच्छी है यह श्रंखला. धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट पोस्ट।बहुत कुछ नया जानने को मिला।
जवाब देंहटाएंPratyush is really a Genius
जवाब देंहटाएंमाननीय प्रत्युष जी का आलेख बहुत सुंदर है। मुझे आशा है कि स्पिनोज़ा के दर्शन के सम्यक अनुवाद हमें शीघ्र ही देखने को मिलेगा। इस तरह के काम से ही हिन्दी समृद्ध होगी।
जवाब देंहटाएंप्रचण्ड प्रवीर
प्रत्यूष जी के माध्यम से अच्छी जानकारी मिली।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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