नरेंद्र पुंडरीक की कविताएँ





कवि नरेंद्र पुंडरीक के कवि-कर्म  पर सुशील कुमार की टिप्पणी और साथ में कुछ नई कविताएँ. 




नरेंद्र पुंडरीक नब्बे के दशक और इक्कीसवीं सदी के एक ऐसे ही वरिष्ठ लोकधर्मी कवि हैं जिनकी कविताओं के लोक का द्वन्द्व और संघर्ष उनके सच्चे "इतिहास-बोध" से पैदा हुआ है. वे केदार बाबू की धरती बांदा (ऊ प्र) के रहने वाले हैं. उन्होंने न केवल केदार बाबू की काव्य परम्परा को एक नई शगल और शिल्प दिया है, बल्कि उसका बहुत प्रसन्न विकास भी किया है.
कविता में बिना इतिहास-बोध के लोकचेतना आ नहीं सकती। तब वह लोक के बजाए फोक (folk) की चेतना हो जाती है. इतिहास-बोध ही कवि के अंदर वर्तमान परिवेश के प्रति द्वन्द्व को जन्म देता है. वर्तमान और भूत के इन्हीं अनुभवों का संस्कार नरेंद्र पुंडरीक की कविताओं में पाया जाता है.

रेंद्र पुंडरीक की कविताओं का इतिहास बोध उसकी इतिवृत्तात्मकता से मिलकर एक अपूर्व नाटकीय संवेग (मोमेंटम) पैदा करता है. यह लोकचेतना का नवीन आयाम है जिसे उनकी प्रायः हर कविता में शिद्दत से महसूस किया जा सकता है.

कवि जब कविता में कोई कथाक्रम रचता है तो वहां इतिहास-बोध की बहुत जरूरत होती है. यही इतिहास-बोध उसे युगबोध में बदलता है वरना कविता केवल समय का बयान भर बनकर रह जाती है. इस फन में नरेंद्र का कवि बहुत माहिर हैं.

नरेंद्र पुंडरीक की कविताएँ अपने समय का जो लोक रच रही हैं, वह बाजार के विरुद्ध खड़ी है और जन के पक्ष में वकालत करती है, उसमें कला या फैटेसी का कोई आग्रह नहीं। कवि से कला का जो क्षण अनजाने में छूट जाता है, वह ही उनकी कविता में कला के रूप में प्रकट होता है. इसे ही हम कलाहीन कला (artless art) कहते हैं जो जनवादी कविता को द्युति प्रदान करती है.”
सुशील कुमार 








रेखांकन : लाल रत्नाकर

नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएँ  
                           






मेरे पढे़ लिखे में
                  
मैं लिखनें में लगा रहता हूं
पत्नी आकर धीरे से
चाय रख जाती है,

मैं पढ़ने में लगा रहता हूं
पत्नी आती है.
स्टूल खिसका कर धीरे से
रख देती है नाश्ते की प्लेट ,

मेरे नाश्ता खत्म करते करते
पत्नी आती है लेकर
पानी का गिलास
धीरे से कहती है
खानें में क्या लेंगें ,

मैं कहता हूं
जो मन कहे बना लेना
लेकिन थेडा़ सा खाउंगा
पत्नी बिना कुछ कहे चली जाती है ,

मैं लिखे पन्नों को उठाता हूं
लिखे को पढ़ता हूं
पढे़ को लिखता हूं
मेरे पढे़ लिखे में
कहीं नहीं दिखती
आती जाती
नाश्ता पानी लाती पत्नी .




पिता की डायरी

पिता रोज अपने होनें की डायरी लिखते थे
डायरी में पिता के साथ
होती थी गांव की सुदी बदी

पिता की डायरी पिता के साथ
गांव की इबारत थी
जिसमें नदी ,पहाड़, खेत
बाग,बन सब होते थे
होते थे गाय, बेंल भैस ,लेरु, पडेरु ,

डायरी में दर्ज होते थे
सोवर -शुदक ,जमा और कर्ज
डायरी में लिखा था दशहरे की छुटटी के बाद
आज स्कूल खुले
जगदीश ,किरन , नारायण स्कूल पढ़नें गये
रात में भूरी भैंस पडिया बियायी
सुबह भौनिया दीक्षित नहीं रहे
दोपहर में खेली त्रिवेदी और चुन्नी लाल के बीच
फौजदारी हुई चुन्नी लाल घायल हुये
बिल्लर तिवारी के पोता हुआ
आज दिन भर गाते में जुताई हुई
आधा खेत अभी बाकी रहा
गैदी केवट छावनी हार की बाकी
पैंसठ रुपये दे गया
भोला तिवारी के यहां से
दो मन गेहूं सवाई पर लाया
बुल्ला अहीर आज काम पर नहीं आया ,

पिता की डायरी के पन्नें
पिता के जीवन की सलवटें थी
जिन्हें मैं अक्सर अकेले में
पढ़ा और गिना करता था
जो पिता के चेहरे में मुझे
कभी नहीं दिखाई देती थी ,

पिता कीडायरी पिता की आत्मकथा नहीं थी
वह कथा थी उनकी
जिनके जीवन की कोई कथा नही होती
जिनके जीनें मरनें का
कोई लेखा नहीं होता दुनियां में
उनकां  लेखा थी पिता की डायरी ,

हर साल बदलती पिता की डायरी के
खाली रह गये पन्नों को हम
हसरत से देखते थे
क्योंकि हमें पढ़ाई के लिए अक्सर
खाली पन्नों का टोटा रहता था

क्या समय था वह जब
शब्द कागज में उतरनें के लिए व्याकुल रहते थे
तो कागज नहीं थे इतने
आज जब कागज की ही माया है
तो शब्द नहीं हैं
कागज में उतरनें को तैयार .






हर कहीं होता है थोड़ा थोड़ा
                         
डी.ए.वी. कालेज की कक्षाओं में जहां
एक दिन पहले लगी
मेज कुर्सियों में पढ़ रहे थे पढ़ेरी
वहां बिछी हैं चारपाइयां
एक में बैठे हैं तकिया का कुछ सहारा लेकर
कुछ टिके से विश्वनाथ त्रिपाठी
सुन कर बार बार
कृष्ण मुरारी की कविता
‘‘पूज्य पिता पानी ले आये
मां ने सौपी अपनी माटी ’’
गद् गद् हो रहे है ,

उनके ही बगल में
कुछ अन्तर से चारपाई में
उकडू से बैठे
शिवकुमार मिश्र और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
सुन रहे हैं ध्यान से
त्रिलोचन शास्त्री की भाषाई झप्प ,

कुबेरदत्त डाईरेक्टर  दूर दर्शन ठहरे हैं
यहां से पांच कि0 मीटर दूर
भूरागढ़ के गेस्ट हाउस में
सरकारी गाड़ी से कर रहे हैं आवा जाही ,

रामविलास शर्मा तो आगये थे
आज से आठ दिन पहले
केदारनाथ अग्रवाल के यहां
खा रहे हैं सरसों का साग
और हथपोई रोटियां ,

इस शहर के लोगों को नहीं मालूम था कि
केदार नाथ अग्रवाल इतने बडे कवि हैं
लोग दौडे़ चले आ रहे
देश के हर कोनें कतरे से
शहर के लोगों को बस मालूम थाकि
केदार बाबू एक वकील हैं
जो बस अडडे् के पीछे रहते हैं और
मुवक्किलों के पीछे नहीं भागते ,

बस इतना काफी था उनका जानना
वह यह खूब जानते थे कि
वकालत का ईमानदारी से
कोई  मतलब नहीं होता क्योंकि
ईमानदार का अलग से अपना कोई
घर नहीं होता दुनियां में
दुनियां ही होती है उसका घर
हर कहीं होता है वह थेड़ा थेड़ा
यही थेड़ी सी कमाई थी
जो दिख रही थी आज
इस छोटे से  शहर में ,

रात को हुये कविता पाठ में
अदम गोड़वीं और रमेश रंजक को सुन
बहुत खुश हुये थे शहर के लोग
पहली बार उन्हें लगा था कि
कविता हमारे लिये कुछ कर रही हे ,

अदम गोंड़वी तो अभी तक
अलटते पलटते रहे
रमेश रंजक तो यहा से जाते ही
खाली कर दिये थे मैंदान
जो अब तक वैसे ही खाली पड़ा है
कविता के बिना .





प्रेम की अनन्त कथा
                         
यह कोई 1963-64 की बात होगी
मैं छठी - सातवीं में पढ़ रहा था
चीन के युध्द की झांई चेहरों में छाई हुयी थी
मन को लगता था कि
इस सबसे अपने को उबारनें के लिए
पढ़ना ही एक सही रास्ता है
सो रात में देर से सोनें और
सुबह पढ़ते हुये उठनें की आदत बन चुकी थी
चूंकि दिन में बचे हुये समय में
बंटानें पड़ते थे पिता के हाथ
मां को देना होता था
सहारे का बोध ,

रात में अक्सर जब पुस्तकों के
अधूरे पाठ को बीच में रोक कर
सुबह जल्दी जगनें के वायदे के साथ
सोंनें की कर रहे होते थे तैयारी
अचानक आनें लगती थी पिछवाडे़ से
पीर भरी आवाजें
जो गाते गाते रोतीं थी
और रोते रोते गाती थी
इस रोनें और गानें के बीच
और कोई नहीं
हमेशा एक औरत होती थी
जिसे एक रोते रोते गाता था
दूसरा हुकारी भरते हुये रोता था ,

मुश्किल से लगी बडे़ दादा की नींद
इस रोनें और गानें के बीच
अक्सर खुल जाती थी
वे लेटे लेटे चिल्ला उठते थे
अरे भिखुवा सोनें दे रे
दिन में ससुरे मेहरियों की डन्डा बाजी करतें हैं
रात में उन्हीं मेहरियों के लिए धार धार रोते हैं
भिखुवा कहता बस महराज
मिलन करवा  दूं नही तो यह
रात भर तड़पेंगे
हमका भी नींद नहीं आयेगी ,

यह प्रेम की अनन्त कथा
जहां से टूटती थी
दूसरे दिन रात में
फिर वहीं से बिना भूले हुये
बढ़ जाती थी आगे .
___________________________
नरेन्द्र पुण्डरीक
(15 जनवरी1958) 
कविता संग्रह : नगे पांव का रास्तासातों आकाशों की लाडलीइन्हें देखने दो इतनी ही दुनिया,इस पृथ्वी की विराटता में आदि


सचिव : केदार शोध पीठ न्यास, (बाँदा) 
मो. 8948647444
pundriknarendr549k@gmail.com

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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल jbfवार (27-08-2017) को "सच्चा सौदा कि झूठा सौदा" (चर्चा अंक 2709) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुन्दर कविताएँ

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  3. नरेंद्र जी की कविताओं में जीवन की मामूली घटनाये किस तरह कविता में घटित होती है। यह देखना दिल चस्प होगा । कवि का रचनालोक अलग होता है । जिसमे वह रचता है । इन्ही कारणों से नरेंद्र जी भिन्न दिखते है । उन्हें बधाई ।

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  4. बधाई पुण्डरीक जी ! बहुत बढ़िया कविता लिखी !

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