पेंटिग : SOMNATH HORE
प्रेम और मृत्यु कविताओं
के प्रिय पते हैं, ये यहाँ आती - जाती रहती हैं और अक्सर यहीं से पनपती भी हैं.
जीवन इन्हीं के बीच पसरा है. एक जिन्दगी से लगाव का चरम है, एक अ – लगाव का
उत्कर्ष. राग और विराग के बीच के इस विस्तृत संसार में बहुत कवि मिलेंगे पर इन
किनारों को जीने वाले कवि विरले ही होते हैं. अनिरुद्ध उमट
इसी तरह के कवि हैं. जैसे मृत्यु के पास अतिरिक्त नहीं रहता. उसी
तरह इन कविताओं की संरचना में भी शब्दों का अनावश्यक वजन नहीं है.
अनिरुद्ध उमट
की कुछ नई कविताएँ.
अनिरुद्ध उमट की
कविताएँ
स्पर्श
कोयल के कण्ठ से
कूक की शक्ल में
सूर्य ने
तुम्हारे कान के पास
पहला स्पर्श रखा
पूरी देह पर पसरी रात
अचकचाई
भोर पारदर्शी चादर बन
लिपट गयी.
अभी
अभी देखो तो बेंच पर से जाने
वाला रह गया है बेंच कुछ चली गयी है
अभी देखो तो जिस खिड़की पर बैठा
बाहर निहार रहा था वह भीतर नही रहा
अलबम में से हाथ इतना निकला कि
मटकी में डूबता लोटा मध्य ही में थिर हो गया और प्यास डूब गयी
बैठा था जिस दीवार को थामे वह
दीवार ढही सपनों की सूखी पुकारों में
अभी घुटनों में दर्द यूं उठा
जैसे अंतिम मोड़ से पहले गले लग रहा
अभी कोई जल की धार नीचे पत्थर सा
बहता.
जब तुम पते भूल गए हो
जाने किस हवेली में पीतल के
पिंजरे में मिट्ठू रहता था
अँधेरे कमरे में काली साड़ी पहनी
गोरी वृद्धा
दो कमरों के बीच
गोल मेज पर
पीतल का पान-दान अभी महका है
जिसमें लाल हुए होंट दिख रहे हैं
वह पान-दान इस सुबह में तैर रहा
जब तुम पते भूल गए हो
पते तुम्हें
आऊँगा
उसने कहा कोई दिन आऊंगा
आप को लिए जाऊँगा
मैंने नही कहा
आखिरकार मुझे ही चुननी पड़ी
अस्थियां
स्वप्न
पुकार
मैंने नही कहा
आऊंगा
देखा मैंने
वह चुग रहा था
राख में
दन्त
नख
अस्थि
अभी श्मसान में हमने देखी
रागाकुल
लपटों में
स्वाहा होने से इनकार करती
कामना
आया वह
अपनी मृत्यु के बीस साल बाद आया
वह
वैसा ही
हाँ
ठीक वैसा ही
बोला वो उस दुपहर
शिकंजी पीनी रह गई थी बाक़ी
फिर मुझे भी एक गिलास देता बोला
अरे आप ने भी
नहीं पी
और देखिए ये पत्र तब लिखा था
आज आप को
पोस्ट करने जा रहा
रविवार को डाकिया नहीं आता तो
क्या
पत्र तो पोस्ट कर ही सकते हैं
धप्प से लाल डिब्बे में कुछ गिरा
बीस बरस बाद
कोई हिचकी
इस लाल डिब्बे को हिला देगी
बात अबोली
बात करते करते झूल जाएगी
ढीली शाख़ सी गर्दन
बात करते करते दीवार सहारे रखी
निसरनि बिछ जाएगी
बीच आँगन
बात करते करते बात
अबोली रह जाएगी
बात करते करते
हम लौटेंगे
गूँगे
मृत.
भेदिया
हमारी देह को रात के चमकते चूहे
तलाश लेगे. पर भोग नही स्वीकारेंगे. तुम किसी सुरंग में अपनी देह के रहस्य किसी
अंधे साधक को सौंपोगे ...उसकी अन्धता तुम्हारे उजास में दम तोड़ देगी.
अभी जब तकिये में कोई भेदिया नही ....तब
तुम मेरा भेद तकिये की सीवन में रख रही हो. तुम्हारे बालों में एक सर्प मार्ग भूल
गया है.
दीवारों में तुम अपने होंट ईंटो की जगह रख
रही हो.
मेरे आने का दुखद इन्तजार तुम्हें
है...आसमान से एक विलाप में सिंदूरी जीभ मेरी पलको पर मचल रही है.
तुम नीद में बिल्ली की तरह अँधेरे घर में
मुझे दूध की तरह पलके मूंदे पी रही हो.
अनुवाद
तुम्हारी देह
कोई अनुवाद है अगर
मेरे पढ़े का मूल
तुम में
अपने रोम रोम से
खिलता है
मेरे वस्त्रों में तुम्हारे
निज अंगों की
सुवास की मद्धम दहक
तुम्हारे वस्त्र जो अभी मैं धारे
हूँ.
किन्तु
शब्दों के होंठ थे
होठों के शब्द
रमणी का नेहिल अस्वीकार
किन्तु
नमक पान होना था
हुआ
अभिषेक
शयन कक्ष में तुम थीं
हर जतन कक्ष
कहीं न था मैं
आभूषण थे
न होने को
केश थे बिखरने को
अन्तरिक्ष में
तुमने दोनों हाथों
पृथ्वी की तरह
मुझे ग्रहण किया
अभिषेक.
अब
फागुन में तुमने फागुन को
गुन हीन किया
अब सूर्य की किरणे सीधी गिर रही.
जिसने
निज हुआ जाता है
अपने ही हाथों
समर्पित
स्व को जिसने कंचुकी की
गाँठ से भी कस बाँधा।
उत्कीर्ण
अभी रची जा रही है
महावर
जबकि तुम स्वप्नों की देहरी पर
एक एक वसन
मुक्त हो रही हो
अभी मुझ में नख दन्त तुम
उत्कीर्ण कर रही
अपने श्यामल समर्पण को
और ताम्बूल पत्र
तुम में
घुलने को आतुर
अभी पलकें मूंदे
तारों ने
तुम्हारे रोम–रोम में
तनिक झिझकते
झंकृत किये तार कसे.
देह सिक्त
निद्रा में पुकारती है
नाम
जो निद्राहीन है
किसी करवट उच्चारित नाम
अनुच्चार में सधे क़दमों बढ़ता है
गर्दन पर पता अंकित कर
दबे पाँव लौट आता
फिर तुम वसन मुक्त
उस मार्ग
देह सिक्त स्वयं को रख देती
प्रतीक्षा में एक एक पुष्प झरता.
स्पर्श है नाम का
करवट में सपना नहीँ
स्पर्श है
मेरे नाम का
साँस जब बह रही हो
देह को धारा में बहाती
मध्य रात्रि तुम्हे सपने सा
निरावरण करता
फिर तुम अँधेरी रात सी मुझ पर
टांकोगी
तारे
मेरी साँस को किसी प्राण लेवा
सर्पिणी सी
वनस्पति समस्त जगत की
हम में
अपने अंधियारे में बीज फूटते
देखेगी
और हम श्लथ
और हम स्वरों के नाद में
और हम गूंथते आकाश गंगा
और हम अमावस का विलोपित चाँद
एक दूजे में
गोपन अवस्थित.
______
______
अनिरुद्ध उमट
28 अगस्त 1964, बीकानेर, राजस्थान
प्रकाशन
उपन्यास - अंधेरी खिड़कियां, पीठ पीछे का आंगन
कविता संग्रह - कह गया जो आता हूं
अभी, तस्वीरों से जा चुके चेहरे.
कहानी संग्रह - आहटों के सपने
निबन्ध संग्रह - अन्य का अभिज्ञान
आदि
सम्मान-
राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा
उपन्यास- अंधेरी खिड़कियां- को रांगेय राघव सम्मान
कृशनबलदेव वैद फेलोशिप
संस्कृति विभाग, भारत सरकार की
जूनियर फेलोशिप आदि
anirudhumat1964@gmail.com
anirudhumat1964@gmail.com
हमारी कविताएं बौद्धिक विमर्शों और क्रांतिकारी चेतना से बोझिल हो गयी है । ऐसे उमट जैसे कवि की कविताएं राहत देती है । बहुत प्यारी और सहज कविताएं ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (19-07-2017) को "ब्लॉगरों की खबरें" (चर्चा अंक 2671) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
विचारों से
जवाब देंहटाएंबोझिल नहीं;
राग-विराग से
सम्पृक्त -
सुंदर,
मनभावन
कवितायें।
-राहुल राजेश
कोलकाता।
बहुत ही सहज और अंदर तक उतरने वाली कविताएं।
जवाब देंहटाएंस्त्री प्रेम और देह की खूबसूरत व्यंजना
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.