आज यह सवाल किया जा रहा है कि विगत की घटनाओं के विरोध में साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार या सम्मान क्यों नहीं लौटाएं. इतिहास गवाह है कि जब-जब मनुष्यता पर हमला हुआ है, साहित्यकारों ने कलम के अलावा विरोध के और भी रास्ते अख्तियार किये हैं. महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर को ब्रिटिश शासकों ने ‘नाइटहुड’ की पदवी दी थी. १९१९ में जलियांवाला हत्या कांड के विरोध में उन्होंने ‘सर’ की इस पदवी को वापस लौटते हुए एक खत लिखा, इसका अनुवाद. बेहद प्रासंगिक .
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कलकत्ता
31 मई, 1919
महामहिम
सरकार ने पंजाब के स्थानीय उपद्रवों को दबाने के लिए बड़े पैमाने पर जिन उपायों का इस्तेमाल किया है वह हमारे लिए क्रूर सदमे की तरह है और ब्रिटिश शासन के अधीनस्थ हम भारतीयों की बेबसी और स्थिति को भी बयान करता है.
हमें विश्वास हो गया है कि जिस बेतुकेपन और सख्तियों से
बदकिस्मत लोगों को दंड दिया गया है और जिस
तरीके से इसे किया गया है वह दूर-दराज़ तक किसी विशिष्ट अपवाद के रूप में भी इतिहास की सभ्य सरकारों के अनुरूप नहीं. जिस
सत्ता का डील डौल ही मानव जीवन की ध्वंस लीला में भीषण रूप से दक्ष है, उसके द्वारा निहत्थे और साधन विहीन लोगों के
साथ किये गए इस बर्ताव को देखते हुए हम दृढ़तापूर्वक ये कह सकते हैं कि इनसे किसी
तरह के राजनैतिक मुनाफे का दावा नहीं किया जा सकता और नैतिक समर्थन की तो उम्मीद
भी नहीं की जा सकती. पंजाब में हमारे भाइयों के साथ हुए अपमान और कष्टों का
लेखा-जोखा धीरे-धीरे इन चुप्पियों से रिसने लगा है और भारत के हर कोने में पहुँच
गया है. इस विश्वव्यापी व्यथा से हमारे
लोगों में जागा हुआ आक्रोश शासकों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया है – संभवतः वे
इसे हितकारी पाठ मानकर स्वयं को बधाई दे रहे हैं. अधिकांश एंग्लो-इंडियन पत्रिकाओं ने इस
निर्दयता की प्रशंसा की है और कुछ इस हद तक क्रूर हो गईं कि हमारी त्रासदियों का
तमाशा बन गया है. सत्ता ने लगातार इस बात का ख़ास ख्याल रखा है कि कैसे हमारी
दर्दभरी चीखों और उन तमाम अभिव्यक्तियों का जो हमारे अंग-अंग से व्यंजित होती हैं,
गला घोंट दिया जाए.
हम जानते हैं कि हमारी सभी अपीलें व्यर्थ चली गई हैं और
प्रतिशोध की आग ने हमारी सरकार की कुलीन शासन-कला को अँधा बना दिया है जबकि वह
यथोचित ताकत और नैतिक परम्पराओं के साथ रहते हुए उदारमना हो सकती थी. मैं अपने देश
के लिए कम से कम इतना कर सकता हूँ कि तमाम
नतीजों की ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने लाखों देशवासियों की आवाज़ बन सकूं जो यंत्रणा
की इस दहशत में हैरान और आवाक हैं. यह ऐसा समय है जबकि शर्मिंदगी और अपमान के बीच
सम्मान के चमचमाते इन पदकों को मैं असंगत पाता हूँ, और अब मैं खुद को सभी विशिष्ट पदवियों से अलग करते हुए,
अपने देशवासियों के साथ खड़ा होना चाहता हूँ,
जो अपनी तथाकथित निरर्थकताओं के कारण अपमान को
झेलने के लिए मजबूर हैं और जिन्हें मनुष्य कहलाने लायक भी नहीं समझा जाता.
इन्ही कारणों ने मुझे कष्टपूर्वक महामहिम से यथोचित सन्दर्भ
और खेद के साथ यह कहने पर मजबूर किया है कि आप मुझे नाइट की पदवी से भारमुक्त कर दीजिये, जिसे मैंने आपके
पूर्वजों के हाथों कभी स्वीकार किया था और जिनकी सज्जनता की अभी भी मैं सत्कारपूर्वक प्रशंसा करता हूँ.
प्रासंगिक
जवाब देंहटाएंबेहद संयम और गरिमा के साथ ब्रिटिश राज की कठोर आलोचना की गयी है...हमारे लिए बङे गौरव की बात है....
जवाब देंहटाएंस्नेहा को बधाई. प्रासंगिक और जरूरी.
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, कॉल ड्राप पर मिलेगा हर्जाना - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंइस अनुवाद को करते समय तुमने अतीत के उन प्रसंगों को आज भी जिंदा महसूस किया होगा जो इन दिनों हमारे लिए जरूरी हो चले हैं. जिस देश का बुद्धिजीवी व्यापक विज़न और स्वप्न लेकर चलता हो, उस देश में बुरा समय भी अधिक समय तक नहीं टिकता. तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य की कामना सहित ..अपर्णा
जवाब देंहटाएंआज इस समय में इस अनुवाद की बहुत ज़रुरत थी ,
जवाब देंहटाएंआज इसकी बहुत जरुरत थी। आभार स्नेहा।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मर्मस्पर्शी पात्र लिखा था उन्होंने. धन्य हो तुम राष्ट्रकवि
जवाब देंहटाएंsahi
जवाब देंहटाएंयह ऐसा समय है जबकि शर्मिंदगी और अपमान के बीच सम्मान के चमचमाते इन पदकों को मैं असंगत पाता हूँ, और अब मैं खुद को सभी विशिष्ट पदवियों से अलग करते हुए, अपने देशवासियों के साथ खड़ा होना चाहता हूँ, जो अपनी तथाकथित निरर्थकताओं के कारण अपमान को झेलने के लिए मजबूर हैं और जिन्हें मनुष्य कहलाने लायक भी नहीं समझा जाता. behtarin
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