कभी के बाद अभी (विनोद कुमार शुक्ल), मैं वो शंख महाशंख (अरुण कमल), अमीरी रेखा (कुमार अम्बुज) और खत्म नहीं होती बात (बोधिसत्व) की समीक्षा के बहाने वरिष्ठ समीक्षक ओम निश्चल ने समकालीन हिंदी कविता के पूरे वितान पर गंभीर दृष्टि डाली है, प्रवृत्तियों की पहचान की है और कविता की भूमिका को रेखांकित किया है.
कविता संप्रति : पीढ़ियों की जुगलबंदी
ओम निश्चल
मनुष्य का जन्म किसी भी कविता के जन्म से बड़ा है
(न हि मानुषात् श्रेष्ठतरंहि किंचित् )
हिंदी में उपलब्ध तमाम कवियों में एक कवि ऐसा भी है जो अपनी प्रकृति, अपनी समझ, अपनी भाषा और कविता की संरचना में बरते जाने वाले उपकरणों तथा कल्पना व यथार्थ के सुविनियोग में बहुत विरल है. उसे समझना आसान नहीं. पर इसमें संशय नहीं कि वह उत्कट ऐंद्रियसंवेद्य कवि है. उस पर बहुतों ने लिखा है, पर क्या वे सब उस कवि की अनुभव-छायाओं को पकड़ पाए हैं? शायद नहीं, क्योंकि हर अच्छा कवि अनुभव और संवेदना की पकड़ से बार बार कुछ न कुछ छूट-सा जाता है. वह पूरी तार्किकता और अनुभवगम्य विविधताओं के साथ कविताओं में अपने जीवनानुभवों की एक अलग दुनिया निर्मित करता है. विनोद कुमार शुक्ल ऐसे ही कवि हैं, जिन्हें पढ़ने का एक धीरज भरा सलीका चाहिए और यह भी कि उन्हें पढ़ते हुए आपके और उनकी कविता के अलावा पूरा एकांत हो.
कथा संसार की ही तरह कविता में भी विनोद कुमार शुक्ल ने सदैव
अपना अलग रास्ता अख्तियार किया है. वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहन कर विचार
की तरह के साथ ही विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविता को चालू कविता की आबोहवा
से बचा कर रखा है. उनके कविता संग्रहों सब कुछ होना बचा रहेगा और अतिरिक्त
नहीं के साथ उनके ताजा संग्रह कभी
के बाद अभी में भी
उनका यही तेवर बरकरार है. वे सीधे सादे वाक्यों से कविता की शुरुआत अवश्य करते
हैं किन्तु आगे चल कर वह एक ऐसे तार्किक और चिंतनशील विन्यास में खो जाती है कि
हम ‘ज्यों चतुरन की बात में बात बात में बात’ जैसी मुग्धमयता के मुरीद हो उठते हैं. किन्तु अनभ्यस्त
पाठक के लिए उनकी कविताऍं कोई इतनी मेड इजी भी नहीं हैं. उनकी कविताओं का
आनंद वही ले सकता है, वाक्य की इकाइयों से बनने वाली अर्थ संरचना पर जिसकी बखूबी
पकड़ हो. जो अव्ययों, विशेषणों, क्रियाओं और योजक पदों तक से कविता की प्रतीति संभव कर सकता
हो. विनोद जी कविता की सृष्टि को खेल की तरह लेते हैं और वाक्यों की व्याकरणिक
संघटना से अपने अनुभवों को एक नई काव्यभाषा के पैरहन में बदल देते हैं. उनकी
कविता उनके अचूक और सावधान चिंतन का परिणाम लगती है. वे अपने अवलोकन से किसी भी
क्रिया को स्वाभाविक रूप से घटता हुआ नहीं देखते, उस घटना के पीछे घटती हुई अन्य चीजों को बार बार घटने के
लिए एक उत्प्रेरक तत्व की तरह उकसाते हुए भी पेश आते हैं. उनकी कविता की बानगी
उन्हीं के शब्दों में:
एक अच्छी घटना
तुम घटने पर रहना
बल्कि घट जाना
बार बार घट जाना
प्रत्येक मनुष्य का जीवन
हर क्षण अच्छा मुहूर्त है
सुख की घटना के लिए.
एक अच्छी घटना
तुम घटने पर रहना
बल्कि घट जाना
बार बार घट जाना
प्रत्येक मनुष्य का जीवन
हर क्षण अच्छा मुहूर्त है
सुख की घटना के लिए.
आरंभ से ही विनोद कुमार शुक्ल का यही मिजाज़ रहा है कि अक्सर
वे चालू भाषा और जानी पहचानी काव्य युक्तियों से काम नहीं लेते. इसीलिए उनके
जैसा कवि परिदृश्य में और नही है जो ऐसे प्रयोगों का जोखिम उठाए . किसी भी
लोकप्रियता और उद्धरणीयता के मोह में पड़े बिना वे एक तरफ अपनी कविता को भाषा, तर्क और नई उपपत्तियों से जोड़ते हैं तो दूसरी तरफ वे कविता
की प्रयोजनीयता की ओर से भी मुँह फेरे नही रहते. आखिर वे ही हैं जिन्होंने लिखा
है, ‘जो सबकी घड़ी में बज रहा है, वह सबके हिस्से का समय नही है.‘ या ‘झुकने से जैसे जेब से सिक्का गिर जाता है/हृदय से मनुष्यता
गिर जाती है.‘ वे पृथ्वी के
संसाधनों पर पहला हक उनका समझते हैं जो इसके मूल निवासी हैं. तभी वे कहते हैं: जो
प्रकृति के सबसे निकट हैं/जंगल उनका है. पर विनोद कुमार शुक्ल की कविता वैसे
नहीं पहचानी जा सकती जैसे उनके अन्य समकालीनों की . वह एक सपाट पाठ की तरह पठनीय
या व्याख्येय नही है, बल्कि अपने स्थापत्य में अनूठी और विरल है. वे लिखते हैं:
मैं उनसे नहीं कहता जो निर्णय लेते हैं/ क्योंकि वे निर्णय ले चुके होतेहैं. ‘मृत्यु के बाद’ की पंक्तियॉं हैं: ‘ मृत्यु कभी भी हो/परन्तु अंतिम सॉंस लेने के लिए/मेरे पास
हमेशा समय रहेगा.‘ या ‘ बाहर
झरे चंपा के फूल को मैं उठा लेता हूँ और एक ‘अतिम नहीं सॉंस’ लेता हूँ.‘ उनकी कविता संरचना
में यह ‘नहीं सॉंस’ जैसा अटपटापन प्रूफ शोधकों को कितनी बाधा पहुँचाता होगा जो
कवि की ही तरह चौकस और सावधान न हों.पर यही तो उनकी विशेषता है जो उनके काव्य और
कथासंसार में गद्य को अपनी तरह से बरतने से संभव हुई है.
आखिर इतने अटपटेपन से वे कविता में क्या कहना चाहते हैं? कविता के बारे में एक कविता में वे कहते हैं :’ कविता जानबूझ कर लिखता हूँ/जानबूझ कर कौन सी कविता/यह अंत तक
पता नहीं होता/यानी शुरू से/ परन्तु एक स्थिति में कविता/स्वयं होने के लिए
आपसे सहयोग करने लगती है/ यानी अंत तक/ यद्यपि कविता का अंत नहीं होता.‘ याद रहे कि मुक्तिबोध
ने भी कहा था ‘खत्म नहीं होती कविता’. परन्तु शुक्ल का अंदाजेबयॉं अलग है. मुक्तिबोध के गहरे
सान्निध्य में रहते हुए भी उनकी कविता उनसे कितनी अप्रभावित रही है, यह देखने की बात है जबकि मलय को मुक्तिबोध के प्रभावों में
अवलोकित आकलित करने का चलन हो चला है. मुक्तिबोध, मलय और शुक्ल तीनों की कविताऍं दुर्बोध हैं. पर विनोद कुमार
शुक्ल के यहॉं यह दुर्बोधता कुछ अलग किस्म की है. यह
जानबूझ कर पैदा की गयी दुर्बोधता है--- जीवन के आसान से दिखने वाले पहलुओं में कुछ
अलक्षित अर्थ उपजा लेने की सयत्न कोशिश. इसीलिए वे न तो मुक्तिबोध से कम चिंतनशील कवि है न उनसे कम
दुर्बोध. वे अपनी सरलता को व्यंजित करने
की कोशिश करते भी नहीं दीखते. जैसे वे चाहते हों कि यदि कविता के शहदीले पाठ तक
पहुँचना है तो इस दुर्बोधता के कॉंटे के बीच से गुजरना लाजिमी है.
विनोद कुमार शुक्ल अपनी ही तरह के अंदाजेबयॉं के पहले और
अंतिम प्रयोक्ता हैं. स्वभाव से ही मितभाषी और अमूर्तनों के अभ्यासी शुक्ल अब
अपनी ही उपजाई इस कला के व्यामोह में गिरफ्तार से हो गए लगते हैं. बेशक, कविता का यह सर्वथा एक नया सौंदर्यबोध है जो इसके अंत:पुर
में प्रवेश करने और रम जाने पर एक सात्विक से आस्वाद का सृजन करता है. यही वजह
है कि विष्णु खरे उन्हीं के एक पद के हवाले से अपना मत प्रकट करते हुए कहते हैं
कि उनकी कविता वह जलप्रपात है जिसमें सब आवाजों का कोरस समाया हुआ है तथा उनका कवि
ऐसे रोमांचक आयाम उद्घाटित कर रहा है जो नितांत अप्रत्याशित थे. अक्सर दूसरों के
हिंदुत्ववादी पद-प्रत्ययों की गहरी आलोचना करने वाले खरे उन्हें यह क्लीन चिट
भी देते हैं कि उनकी कविताओं में प्रयुक्त ये प्रत्यय उनकी निजी आस्था और एक
आध्यात्मिक सांस्कृतिक कलात्मक परंपरा विशेष का पर्याय हैं जिसका लेना-देना
किसी मनुवादी हिंदुत्व से नहीं है. इस संग्रह में भी जीवन-मृत्यु, राजिम के आठवीं शती के मंदिर, मृत्यु के बाद, हुमा मंदिर के सामने जैसी कविताओं तक में उनकी निजी आस्था
में कहीं भी उनकी हिंदुत्ववादी आस्था बलवती होती नहीं दिखती.
उनकी
कविता किसी मूल्य या संदेश का संधान नही है. वह वाक् में,
शब्द में,
अर्थ में, रस
में, ध्वनि में,
रीति में,
वक्रोक्ति में,
उक्तिवैचित्र्य मे—
यहॉं तक कि किसी असंभवता में भी कुछ खोजने बीनने और रचने से उद्वेलित है. वह जीवन
को अच्छी उम्मीदों के साथ जीने का जतन सिखाती है. ‘जीवन को मैंने पाया इसे भूला नहीं’---वे कहते हैं. ‘अच्छे से एक दिन रहूँ तब तक अमर रहूँ’ में एक भी दिन को अच्छी तरह से जीना उम्मीद और आश्वस्ति
के साथ जीना है. उनकी इन कविताओं में दंगे, कर्फ्यू, आदिवासी, जंगल, विस्थापनानुभूति, पड़ोस, पड़ोसी और पड़ोस-भाव पर तो कविताऍं हैं ही, अलगाववादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध यह ख्वाहिश भी है : ‘सिर उठा कर मैं बहु जातीय नहीं,सब जातीय/बहु संख्यक नहीं/ सब संख्यक होकर/ एक मनुष्य खर्च
होना चाहता हूँ/एक मुश्त.‘(लोगों और जगहों में, पृ.15) वे दंगे की दहशत में भी मरने के लिए इस इसरार के साथ
उद्यत दिखते हैं ताकि किसी मुसलमान के हाथों मरें तो उन्हें हिंदू न समझा जाए और
किसी हिंदू के हाथो मरें तो उन्हें मुसलमान न समझा जाए. वे अगली कविता में यह भी
कहते हैं कि ‘हत्यारा अगर हिंदू हुआ तो अपनी जान हिन्दू कह कर न
बचाऊँ/मुसलमान कहूँ/ अगर मुसलमान हुआ तो अपनी जान मुसलमान कह कर न बचाऊँ/हिंदू
कहूँ.‘(अगर रोज कर्फ्यू के दिन हों)
स्थानिकता का वैश्विकता से क्या रिश्ता है, यह विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं को पढ़ कर जाना जा सकता है.
दुनिया भर के आदिवासी इन दिनों विस्थापन के संकट से गुज़र रहे हैं. इन कविताओं
में भरपूर स्थानिकता है. इतनी कि उन्हें हिंदी के उस अंचल का कवि कहा जा सके
जहॉं बस्तर और दंतेवाड़ा जैसे दुर्गम आदिवासियों के इलाके हैं. जहॉं अभी अभी सलवा
जुडूम का दमनचक्र चल रहा है. राजिम, रायपुर, छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस, बिलासपुर, हबीब तनवीर, रज़ा और राजनंदगॉंव के प्रसंगों के बहाने कवि अपनी स्थानिकता
को तो चरितार्थ करता ही है, वह अपनी कविता को लोगों के सुख-दुख और लोकाचार के निकट भी ले
जाता है. वह यथार्थ के बहुस्तरीय पहलुओं का अनावरण करने की इच्छा रखता हुआ उस
वैश्विक यथार्थ के निकट जाना चाहता है जो ऐसे ही खंड खंड यथार्थों से बना है. ‘गंगातट’ में यही स्थानिकता है जिसमें रमे हुए ज्ञानेन्द्रपति को
वैश्विक संकटों की आहट सुनाई देती है. ऐसी ही आहट शुक्ल को छत्तीसगढ़ की ज्वलंत
सामयिकता से सुनाई देती है. आज छत्तीसगढ़
का दहकता हुआ यथार्थ आदिवासियों के विस्थापन और उन पर होने वाले उत्पीड़नों का
यथार्थ है, प्राकृतिक संसाधनों को खँखोरती सर्वग्रासी पूँजीवादी व्यवस्था
का यथार्थ है. कविता कला की समस्त चुनौतियों को अपने मूड़े-माथे उठाए हुए वे जहॉं
भाषा की शक्ति और सामर्थ्य का पूरा उपयोग करते हैं वहीं अपने इस दायित्व से
मुँह नहीं मोड़ते कि किसी भी कला की प्रयोजनीयता अंतत: उसकी सामाजिक उपयोगिता में
है. इस दृष्टि से विनोदकुमार शुक्ल इस बात के पूरे समर्थक हैं कि आदिवासियों की
बेदखली दरअसल आकाश से चॉंदनी की बेदखली है. वे इस बात से मुतमइन हैं कि आदिवासियों
की तथाकथित हिंसक कार्रवाई दरअसल अपनी जान बचाने की कार्रवाई है. यह अपने को बचाने
के लिए खुद को मार डालने की कार्रवाई है. कवि के शब्दों में यही आदिवासी सच है.
आदिवासियों को हिंसक बताने की मानसिकता पर एक बातचीत में उन्होंने
माना है कि आदिवासियों के पास जो तीर धनुष जैसा हथियार है, ये उनकी अपनी रक्षा के लिए और शिकार से पेट भरने का उनका
अपना साधन हैं. इसको उतना और वैसा ही प्राकृतिक मानना चाहिए जैसे किसी हिरण के
सींग होते हैं, जिससे वह अपना बचाव करता है. लेकिन अगर हिरण एक झुंड में
खड़ा हुआ है और हिरण के सींग का नुकीलापन आकाश की तरफ मुखातिब है, ऐसे में उससे अपने बचाव के लिए हवाई हमले की बात करना कैसी
सोच है? इसी तरह उनकी नजर में विकास की अवधारणा बाजार की आवश्यकता के
अनुरूप बनाई जाती है. उनकी दृष्टि में प्रदूषण के उद्भावक गरीब लोग नहीं, बल्कि कल-कारखाने चलाने वाले अमीर लोग हैं. क्योंकि गरीब
तो कचरा बीनने वाला है, पैदा करने वाला नहीं. यह पश्चिमी सभ्यता-रहन-सहन, उपभोक्तावाद और तकनीक का कचरा है जो अमीर देशों की देन है.
कविताओं में उनकी यही दृष्टि गुँथी हुई दिखती है.
विनोद कुमार शुक्ल की इन कविताओं की मौलिकता उनकी अपनी
उपार्जित मौलिकता है. यदि उनकी रचना में कोई मैनरिज्म या रीतिवाद दिखता भी
है तो वह उसी तरह है जैसे कि हर लेखक का अपना मैनरिज्म होना ही चाहिए. इस
दुनिया को भी वे उसी तरह अपने तरीके से देखते हैं जैसा कि एक कवि को करना चाहिए.
यह मैनरिज्म : यह एक वाक्य में है, रहा शब्द को रेखांकित कर रहा हूँ, पैदल अपने पड़ोस में जा रहा हूँ, गेंद का पड़ोस, जितने सभ्य होते हैं, मेरा दुख गया पड़ोस में, रहा, दूसरों के करीब हूँ और मृत्यु के बाद जैसी कविताओं में स्पष्ट
झलकता है. पर कहा जाए तो यही तो शुक्ल के कवित्व का वैशिष्ट्य भी है. उक्ति
वैचित्र्य से ज्यादा उक्ति वैशिष्ट्य. एक
वाक्य, एक शब्द या एक
मिलते-जुलते भाव से जीवन को देखने की इतनी रीतियॉं विकसित कर लेना उनकी कविता को
सर्वांग सम्पूर्ण बनाता है. उसका सौष्ठव कभी एक शब्द में झलकता है तो कभी एक
भाव में, कभी एक अवधारणा में,
कभी एक क्रियापद में,
योजक शब्द में तो कभी किसी अव्यय तक में भी. यह सौष्ठव उस प्रगीतात्मकता की अनुपस्थिति के बावजूद है
जिसे कविगण प्राय: अपनी लोकप्रियता के अचूक आधार के रूप में अपनाते हैं. जब
उपयोगितावाद की रौ में किसी भी साहित्यिक उत्पाद से कुछ न कुछ संदेश देने की
अपेक्षा की जाती है, उनकी कविता सीधे कोई संदेश जारी करने के बजाय चीजों की
माइक्रो-एनालिसिस में जाती है और लगातार दृश्यमान संसार के मुलम्मे को खुरचती
हुई उसके वास्तविक कथ्य और रूप का अनावरण करती है.
विनोद कुमार शुक्ल की कविता इतने कलात्मक लटके झटकों से बनी
है कि वह किसी भी आसान सी श्रेणी या सॉंचे में फिट नहीं बैठती. हॉं, शमशेर के-से वाक्संयम से बनी बुनी उनकी कविता जीवन के तमाम
नए चित्र हमारे समक्ष रखती है जो कविता में पहली बार देखने को मिलते हैं. इसलिए
सामान्यत: उन्हें कलावादी कहना उस कलात्मकता का तिरस्कार है जो कविता-कला की
पहली और बुनियादी शर्त है और जिसे वे एक जिद की तरह सम्हाले हुए हैं. अनेक नए
बिम्ब हम उनके यहॉं देखते हैं. बाजार होते हुए समय और निष्करुण होती सत्ता के
बारीक से बारीक गठजोड़ की खबर वे हमें देते हैं. हमेशा कम बोलने वाली उनकी कविता अपनी चुप्पी में भी बेहद
मुखर होती है और अनेक वाचाल कवियों के समक्ष एक चुनौती पेश करती है. इसी संग्रह
में एक ‘पड़ोस’ को लेकर ही उनकी बहुमुखी कल्पना बेहद सक्रिय हो उठी है.
उसकी अनेक रंगतें और अर्थच्छायाऍं कई कई कविताओं में दिखती हैं. उन्हें चंद्रमा
पड़ोसी की तरह दिखता है तो जीवन घर से ज्यादा पड़ोस में अनुभव होता है. अकेलापन
इसलिए महसूस होता है कि कवि स्वयं के पड़ोस में नहीं रहा. पड़ोस में नया नया और
पृथ्वी के पड़ोस में होना, स्थगित मृत्यु-जैसे जीवन के पड़ोस में आ धमकने से कितना
भिन्न है, यह शुक्ल की कविताऍं बताती हैं. चुप रहने में भी जीवन की
उम्मीद- भरी धड़कन सुन पड़ती है तो रज़ा के चित्रों को देखना सूर्यवृत्त को
सुबह-सु्बह खिलते हुए देखना है. छत्तीसगढ़ के विभाजन ने भी यहॉं कई कविताऍं दी
हैं. शुक्ल के यहॉं विस्थापन के कई कचोटभरे बिम्ब हैं.अक्सर राजनैतिक विभाजन
को स्वीकार न करने वाला कवि-मन यहॉं मौजूद है. यह सुसंयोग ही है कि एक तरफ कवि 63
का हो रहा है और दूसरी ओर 36गढ़ राज्य बन रहा है. राजिम के आठवी शती के मंदिर में
तो माथा टेकने और चरण स्पर्श से घिस कर चिकनी और सपाट हो चुकी प्रतिमा के पैरों
की उँगलियों की वजह में मन ही मन का चरण स्पर्श और दूर से मत्था टेकना भी वह
शामिल कर लेता है.
कवि के सरोकार बताते हैं कि वह ऐसे फीके रंग का हिमायती है
जिस पर समय की मार पड़ी है. ‘मुझे बिहारियों से प्रेम हो गया’—में बाहर जाकर रोजी कमाते तथा केवल किसी बोली और भाषा विशेष
से पहचान लिए जाने का खतरा उठाते बिहारियों की तरह ही कवि को छत्तीसगढियों के भी
हालात लगते हैं. वह चिंतित है कि एक भाषा में बचाओ दूसरे प्रदेश की भाषा
में जान से मारे जाने का कारण बन जाता है और एक ही प्रांत में होना उस प्रांत का
बंदी जैसा बन जाना, भले, नए राज्य बनने से देश के स्वतंत्र होने जैसी खुशी होती हो.
कहॉ रहे वे नागरिक जिन्हें वह देशवासी कह कर पुकारे. बिहारी हो या छत्तीसगढ़ी, उसका स्थायी पता उससे खो गया है. वह
जैसे कमाने-खाने के लिए भागती हुई प्रजातियों में बदल गया है. इस तरह शुक्ल की कविता परदुखकातर है. वह आदिवासियों को उनके
जन्मजात अधिकारों से बेदखल किये जाने का शोक मनाती है तो उन्हें सभ्यता के
जगमगाते हुए मंच पर बसाने के पीछे की हिंस्र मानसिकता का खुलासा भी करती है. कहना
यह कि शुक्ल की कविता उन आवाजों को अनसुना नही करती जो सताई हुई कौमों की कराह से
आती है तथा अपनी कलात्मक जिद में यह भूल नहीं जाती कि मनुष्य का जन्म किसी भी
कविता के जन्म से बड़ा है. भले ही,
कविता ही मनुष्य को बड़ा बनाती हो.
जटिल जीवन का श्लेष
जिसने सच-सच कह दी अपनी कहानी
उसे कैसे कहूँ कि इसे सजाकर लिखो
जिसके पास कुछ नहीं सिवा इस देह के
उसे कैसे कहूँ आज बाजार का दिन है.
जो खो चुका है घर-परिवार
उसे कैसे कहूँ पानी उबाल कर पियो.
(हिचक, पृष्ठ 87)
अरुण कमल के संग्रह मैं
वो शंख महाशंख की यह कविता देख कर कहना पड़ता है कि विचारधारा को शिरोधार्य कर
चलने वाले कवियों में अनेक ऐसे हैं जिनसे विचारधारा तो सध जाती है, कविता नहीं सधती. लगता है, विचारधारा कवि के सर पर चढ़ कर बोल रही
है. इनसे उलट अरुण कमल ने कविता की रचना में विचारधारा का हस्तक्षेप उतना ही स्वीकार
किया है जिस सीमा तक वह कविता के अंतस्तत्वों को ओझल न होने दे. तभी वे एक कविता
में कहते हैं: सितारा बनने से अच्छा है गंदी गली का लैम्पपोस्ट बनना. उनकी
कविता गरीबों, मजलूमों और करोडों
नागरिकों की ओर से बोलती है तो इसलिए कि कवि के स्वर में लोक की पूरी समावेशिता
है. इन कविताओं का भले ही कोई स्पष्ट राजनीतिक एजेंडा न हो, किन्तु हर कविता अपने आप में एक
राजनीतिक पाठ भी है जिसे कविता की अस्थिमज्जा में गूँथने का अरुण कमल का अपना
सलीका है. वे कविता लिखते हुए राजनीतिक होने के दर्प से परिचालित नहीं होते बल्कि
विश्वसनीयता खोती राजनीति को कवि की अंतर्दृष्टि से निरखते-परखते हैं. तभी उनकी
कविता राजनीतिक पाठ बनने के बजाय मनुष्य की संवेदना में समाते छल-कपट, अमीरों और अभिजात को पोसती व्यवस्था और
जीवन का उपहास उड़ाती सत्ता का भाष्य बनती है. किसी सरकारी जनगणना के लहजे में
नहीं बल्कि गिनती से छूट गए और कृपाकोर से छिटके हुए लोगों के जद्दोजहद को अपनी
संवेदना, अनुभूति और अभिव्यक्ति
का माध्यम बनाने वाले अरुण कमल ने यह गुण किसी समकालीनता के मुहावरे में सेंध लगा
कर नहीं, बल्कि अपने स्वयं
के कविता कौशल से आयत्त किया है.
उदारीकरण, भूमंडलीकरण और पूँजी के प्रभुत्व के
चलते निरन्तर अकेले और निरुपाय होते जीवन को 'निर्बल के गीत' में पढा जा सकता
है तो जिसके वास्ते अदहन में न तो चावल
पड़ने वाला है न चूल्हे में रोटी पकने वाली है, उस बेहिसाब विषण्ण जीवन की गरबीली गरीबी का ग्राफ भी 'जनगणना' जैसी कविता मे देखा जा सकता है. दाई से जैसे पेट का हाल नहीं छिपता, कवि की ऑंखों से भूमंडलीकृत समय का कोई
कोना अदेखा नहीं छूटता. यह वही अरुण कमल हैं जो लिख चुके हैं: 'जैसे ही कौर उठाता हूँ, कोई आवाज देता है'. यह आवाज़ उस शख्स की है,
जिसकी नाव डूब रही है, घर गिर रहा है, जो सिक्के-सा धूल में दब गया है, जो बेआसरा और बेसहारा हो चुका है, पंख झड़ते पक्षी की तरह --टूटी हुई सड़क
की तरह---एक सूखी नदी की तरह. लेकिन जिसकी आवाज बेसुनी हो चुकी है. केवल कवि है
उसकी वेदना पर कान लगाए कविता से गायब होते छंद और खबरों में समाते छंद के आशयों
को उलटता पलटता. वह इस मत पर पहुँचता है कि जब कविता की देह से उतरे अलंकार
अखबारों में शोभा बढ़ाने लगें तो कविता को और ज्यादा सपाट हो जाना चाहिए ताकि
सचाई को किसी भी अलंकार और शोभाधायक निर्वचनों से ढँका न जा सके.
निर्बलों के पक्ष
में अरुण कमल अपनी आवाज शुरु से ही उठाते रहे हैं. वे तप रहे ब्रह्मांड की वेदना
और तलवे जलाती रेत से निकली धाह की थाह लेने वाले कवि हैं. वे अपनी ही परंपरा की
रूढ़ियों का समादर करने वाले,
श्राद्ध के अन्न को कठिनाई से निगल पाने की पीड़ा से भरे और फल्गु नदी के अभिशप्त
जल में तर्पण से अतृप्त चूल्हे की राख
में अपना पिंड ढ़ूढ़ते पितरों की संवेदना को शब्द देते हैं. वह जीवन के
कर्मकांड के महज द्रष्टा नहीं,
कर्मकांड के अनुष्ठानों को महज एक क्रिया में बदलते हुए देखने वाले कवि हैं जब
अंतिम संस्कार के वक्त भी बंधु-बांधव हँसी मजाक में डूबे होते हैं, शव के स्वभाव पर मसखरी करते हैं, खैनी ठोंकना स्थगित नहीं करते और अंत
में कानी उँगली से तप्त भूमि पर राम नाम लिख कर गंगा जल माथे पर छिड़क कर वापस चल
पड़ते हैं. यही अवलोकन 'अंत्येष्टि' में है यही 'शोभायात्रा' में जहां हनुमान
के नाम पर पैसा उगाहने का अभियान चलाया जा रहा है. ऐसे में एक सच्चा भक्त
गर्भगृह की चौखट तक लगे दानकर्ताओं के नामपट्ट को देख हतप्रभ है कि ‘यह कैसी भक्ति है कैसा विनय कि तुम्हारे ही दिये को देकर दानी बन रहे?’ इस तरह अरुण कमल की कविता केवल
राजनीतिकों की किये धरे की ही आलोचना नही करती, कर्मकांडों, अंधविश्वासों और
धर्म के नाम पर अपकर्म में लगे लोगों की निंदा भी करती है.
अरुण कमल ने कभी
शब्दों की शोभायात्रा नहीं सजाई. भारी भरकम शब्दों से सदैव परहेज किया. जन कवि न
सही, जनता की पीड़ा को
महसूस करने वाले कवि के तौर पर ही,
तद्भव, अपभ्रंश, होठों पर आ धमकने वाले शब्दों की पूरी
आवभगत उनके यहॉं दिखती है. भोजपुरी इलाके की आबोहवा उनकी कविता की निर्मिति में इस
तरह गुँथी दिखती है कि वह अपनी बंकिम भंगिमा से दूर से ही पहचानी जा सकती है.
गॉंव-देस के गठीले पद-प्रत्ययों से उनकी प्रीति पुरानी है. स्त्री को धान की
बाली और जवा कुसुम से उपमेय मानते,
पके जामुन की गंध से उसकी उपमा देते,
आँख के कोवे-सी गंगा की चमक निहारते और पेड़ की देह की छूटी हुई छाल में एक वृद्धा
की छाया अगोरते अरुण कमल भोजपुरी जन-जीवन के शब्दों, मुहावरों को लाने की कभी सयत्न कोशिश करते नही दीखते बल्कि सॉंसों की
सहज आवाजाही की तरह वे अपनी कविता की पूरी मिट्टी ही जैसे इस आबोहवा से नम रखते
हैं.
अचरज नहीं कि उनकी
कविता में वंचितों, ठगे हुए लोगों, निरुपाय बच्चों और स्त्रियों के सबसे ज्यादा
मार्मिक वृत्तांत हैं. 'चॉंपा' ऐसे ही अभागे बच्चों की कहानी है जो
चोखा बनाने के लिए तेल लेकर लौटते हुए तेज भागते ट्रक की चपेट में आ गया है. कवि
मान बहादुर सिंह की नृशंस हत्या पर एक मार्मिक कविता है यहॉं. एक कविता में खेत, जेवर सब कुछ गँवा चुके गरीबों और अभागों
को देख कवि अचरज करता है कि अब कोई नहीं पूछता यह दुनिया ऐसी क्यों है बेबस
कंगालों और बर्बर अमीरों में बँटी हुई. यही वह विडंबना है जो उन्हें छत्तीसगढ़, मणिपुर या कश्मीर में मारे जाते किसी
शख्स और विदर्भ में जान देने वाले किसानों के लिए शोकार्त करती है, बजट की आलंकारिक खबरों में दबी सचाई से
बाखबर करती है. उन्हें यह संसार एक निगेटिव फोटो सा दिखता है.
अरुण कमल अपनी
कविता में एक ऐसा अलबम सजाते हैं जहॉं किसी दृश्य में पालथी मारे त्रिलोचन हैं
कहीं पॉंव मोड़ बैठे केदारनाथ अग्रवाल,
कहीं केशों, बरौनियों से
बुहारे हुए रास्ते पर आते हुए दिनकर,
कहीं विजेन्द्र एक पीले फूल को देख उसका नाम पूछते, घनी मूछों के पीछे मुस्कराते सुदीप बैनर्जी और कहीं समूह चित्र में
उनके अनेक प्रिय लेखक-कवि. नामवर जी पर एक अलग ही कविता है यहॉं---'आलोचना पर निबंध' जिसके फ्रेम में नामवर जी की पूरी शख्सियत जैसे एक निगेटिव फोटो की तरह
चमक उठती है. वे दिखते हैं यह कहते हुए: 'सबसे कठिन है कविता से प्यार. उससे भी कठिन उस कविता के पक्ष में
संग्राम.' यह है प्रगतिशील
कवि का अपना कुलगोत्र---जहॉं वह एक अर्द्धाली में कविता के शहद की टोह लेता हुआ यह
चुटकी लेने से नहीं चूकता कि 'कितनी
कम है कला कलावादियों में अलि!'
जैसा कि ऊपर कहा
गया है, अरुण शब्दों की
शोभायात्रा के कवि नहीं हैं. उनकी कवि चिंता से ऐसी कोई चीज परे नहीं है जो किसी
एक का भी रोयॉं दुखाती हो. ‘सरकार और भारत के लोग’ कविता सरकार की उस हर कारगुजारी पर एक सटीक टिप्पणी है जहॉं कोई भी चीज
अपनी धुरी पर मुकम्मल नहीं है. एक जुगाड़ जैसी चीज में तब्दील होते गए सरकारी
तंत्र का यह हाल है कि अस्पताल अस्पताल नहीं रहे, स्कूलों में बच्चों के पास पढ़ने के
अलावा दीगर सारे काम हैं---राशन की दुकानों में राशन, घासलेट की दुकान पर घासलेट, नलों में पानी--- सब कुछ नदारद. हर दो मील
पर रंगदार—मौत जहॉं एक संभावना भर नहीं, दुश्चिंता का दूसरा नाम है, जिसकी जद से कोई भी बाहर नहीं है और सरकारी तंत्र को विफलता के चरम बिन्दु
तक ले जाकर सारे दुधारू कल कारखाने बेचने पर तुली व्यवस्था. ----कवि की अकेली यह
कविता और ‘मैं किसकी ओर से
बोल रहा हूँ’ जैसी कविता हमारे
आधुनिक होते लोकतंत्र के पीछे हमारे रुढ़िवादी चिंतन की कलई खोलती है. ‘संधिपत्र’ जीवन में समाए दोगलेपन की कहानी है तो ‘इच्छा थी’ एक ऐसे अकिंचन नागरिक का यथास्थितिशीलता
में जीवन बिता देने का नियतिवादी आख्यान है जब –इतना कट गया, बाकी भी गुज़र
जाएगा—जैसी मस्ती कवि के
स्वरों में बोल रही हो तो आम नागरिक की भला क्या बिसात. ‘मैं वो शंख महाशंख’ इसी आम नागरिक
की जीवन चर्या का
विह्वल कर देने वाला कवित्त है जिसकी अनुगूँज में जीवन का वह छंद सुनाई देता है
जो हर तरफ छल-छंद से भरा है.
अरुण कमल अपने हर
नए कविता संग्रह में अपने पिछले संग्रहों से आगे बढ़ते हैं. अपनी केवल धार, सबूत, नए इलाके में और ‘पुतली
में संसार’ से होते हुए इस
संग्रह में उन्होंने फिर कविता का एक वैविध्यपूर्ण संसार रचा है. उनकी कविता दीन
दुखियों के ऑंसू पोछती है तो सम्मुख दीखती दुनिया के भीतर चलते हाहाकार की खबर भी
लेती है. भाषा के सीधे सादे स्थापत्य में वे अकसर ऐसी बातें कह जाते हैं जो
अलंकरणों से लदी फँदी कविता नहीं कह पाती. अभिधा को अगर अभिव्यक्ति की एक बड़ी
ताकत के रूप में देखा जाए तो उनके यहॉं इसका सौष्ठव देखते ही बनता है. गौरतलब यह
कि अब वे इकहरी संवेदना को लॉंघ कर अभिधा की उस ऊँचाई पर आ गए हैं जहॉं पहुँच कर
ही इस जटिल जीवन के श्लेष को व्यक्त किया जा सकता है.
इस
निर्माण में शामिल है हमारी भी कुछ मिट्टी
'रात के सिरहाने अपना पुराना कंबल रखते हुए
कवि कहता है इस दुनिया का मैं भी छोटा सा कारीगर हूँ
मेरे पास भी एक रंदा है,
एक छैनी, एक फावड़ा
लेकिन तुम अपने मुखौटों की छीलन देखते हो
और उन्हें इज्जत की एक रोटी भी नहीं देते.'
हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि कुमार अम्बुज की
हाल में ही आई किताब 'अमीरी
रेखा' की 'पूर्वजों की लिपि' शीर्षक
कविता की ये पंक्तियॉं इस बात की साखी हैं कि इस देश के निर्माण में लगे कारीगरों,मजदूरों, किसानों,कलाकारों, कवियों की आज कोई हैसियत नहीं है. सारी की सारी व्यवस्था
इस मुहिम पर लगी है कि कैसे इनकी जुबान बंद की जाए. उसके लेखे, देश का नव निर्माण तो वे लोग कर रहे हैं जो किसानों की
जोत को औने पौने दामों खरीद कर लोगों की रिहाइश के नाम पर इनकी रोजी रोटी छीन रहे
हैं. 'कहीं कोई ज़मीन नहीं' कविता बिल्डरों की इन्हीं कारगुजारियों पर केंद्रित
है : 'फसलें
जला दी गयी हैं /सल्फास खा चुके हैं किसान/और बचे खुचे लोग बिल्डरों से ही रोजी
मॉंग रहे हैं/पृथ्वी बिल्डर की डायनिंग टेबल पर रखा एक अधखाया फल.'
इन दो उदाहरणों से यह बात साबित हो जाती है कि अब 'गरीबी रेखा'
पर बहसें बहुत हो चुकीं, यह अमीरों के बारे में सोचने का दौर है और आज वही चल
रहा है : गरीबी उन्मूलन के नाम पर गरीबों
का उन्मूलन. आज हालात ये हैं कि किसानों को खेती की लागत भी वसूल नहीं हो पा रही,
बुनकरों के हथकरघे ठप हैं, कारपोरेट घरानों के सामानों की कीमत पहुँच से बाहर है
और बिल्डरों की निगाह किसानों की ज़मीन पर है. लिहाजा किसानों के पास सल्फास
खाकर आत्महत्या करने के अलावा क्या विकल्प बचा है ?
‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’ और ‘अतिक्रमण’ के
बाद ‘अमीरी
रेखा’ का प्रकाशन वास्तव में हमारे समय
के निरंतर स्खलित होते मान-मूल्यों की पड़ताल करती कविता का पुनर्भव है. हमेशा
से जिरह और संवेदना के नाजुक तारों को मिलाती हुई कुमार अम्बुज की कविता मनुष्यता
के उत्तरोत्तर अधोपतन से लेकर राजनीतिक और नैतिक उच्चादर्शों के भीतरी विचलनों
पर एक कवि के अचूक अवलोकनों का साक्ष्य उपलब्ध कराती है. 'अमीरी रेखा' के बहाने वैभव और
ऐश्वर्य के स्रोतों पर काबिज धनाढ्यों की हृदयहीनता पर सवाल उठाते हुए कवि का यह
कहना कि : 'तुम्हें यह देखने के लिए जीवित रहना पड़ सकता है /कि सिर्फ अपनी जान बचाने
की खातिर/तुम कितनी तरह का जीवन जी सकते हो'-- आज के समय का एक
अबोला यथार्थ है
.
.
विडंबना है कि गये बरसों में हमारे
देश में 'गरीबी-रेखा' पर
तमाम बहसें हुई हैं और आज भी चल रही हैं लेकिन 'अमीरी
रेखा' पर कोई बहस आज तक नहीं हुई.
अमीरी रेखा पर कोई लगाम नही है. कौन नहीं जानता कि जिन लोगों की मेहनत और काबिलियत
से अमीरी का सूचकांक उत्तरोत्तर बढ़ा है,
उन्हें रोटी तो क्या, नमक भी ठीक से नसीब नहीं है.
इसीलिए जब सत्ता के नियामक बत्तीस रुपये में भरपेट भोजन की उपलब्धता का शंखनाद
करते हैं तो यह प्रसंग साहिर की शायरी 'हम
गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मजाक' की तरह हास्यास्पद और मर्मभेदी
हो उठता है. आज कमाई के स्रोतों को कुछ कारपोरेट घरानों, बिल्डरों, ठेकेदारों, बिचौलियों के
हवाले करने और जरूरी मदों के लिए दी जाने वाली सब्सिडी खत्म किए जाने की जो
राजनीतिक कवायद चल रही है, उससे अचरज नहीं कि विदर्भ के किसानों की तरह आम
आदमी, मजदूरों,कारीगरों के लिए एक
दिन आत्महत्या के अलावा रास्ता न बचे. इस घनीभूत पीड़ा को हृदयहीन राजनीतिज्ञ
नहीं, अर्थशास्त्री और
समाजशास्त्री भी नहीं, केवल कवि ही समझता है. वह राजनीतिज्ञों की तरह जनता से दूर नहीं, बल्कि उसके
सुख-दुख से उसका गहरा वास्ता है. वही सबसे ज्यादा जानता है कि 'हर चीज का उत्तर
फूल नही हो सकते हालॉंकि वे खूबसूरत हैं और यहीं पास में उगे हुए हैं.' वह यह कहने में नहीं चूकता कि : 'अगर हमारे जीवन में
जोखिम नहीं/तो तय है वह हमारे बच्चों के जीवन में होगा/सिर्फ संपत्तियॉं उत्तराधिकार
में नहीं मिलेंगी/ गलतियों का हिसाब भी हिस्से में आएगा' (-रचनाप्रक्रिया,पृष्ठ 17). कुमार
अम्बुज की कविता में चीख नहीं, आत्मा के सबसे गहरे तलघर की पुकार सुनायी देती
है. यह और बात है कि वे लिखते हैं : 'जीवन में अगर चीख है तो क्या
बुरा है कि वह कविता में सुनायी दे.'
अरुण कमल कहते हैं, 'ऐसे समय जब देश में पूँजी का कोई वास्तविक विपक्ष बचे ही नहीं, कविता जीवन का अंतिम मोर्चा , अंतिम चौकी है.' कुमार अम्बुज की कविता यही काम
करती है. वह पूँजी के प्रभुत्व से आतंकित नही होती. वह हत्यारों को हमेशा सवालों
की नोक पर रखती है और मनुष्य की कोमल इच्छाओं पर कुंडली मार कर बैठी ताकतों से यह कहती है कि : 'मुझे हमेशा हक चाहिए,
मुआवजे नहीं.' उसे पता है धर्म
की पताका फहराने वालों को मेहनतकश,
किसान, मजदूर, कामगार नही दिखते, जो अपना हिंदू-मुसलमान होना भूल कर जीवन
की चक्की में जुते हैं. उन्हें कहॉं फुर्सत कि वे धर्म के नाम पर लामबंद हों, वे तो हारी-उधारी में पड़े ठंडे फर्श पर पड़े निरगुनिया गाते गाते सो जाते हैं.
कुमार अम्बुज जानते हैं कि चीजों को देखने का नजरिया काफी बदल चुका है. हमारे लिए
जो सुंदर और सराह्य है, वह किसी और के द्वारा वेध्य भी है. 'सब तुम्हें नही कर
सकते प्यार' में कुमार यही
तो कहते हैं-- 'जीवन में तुम रंगीन चिड़िया की
तरफ देखो/जो किसी का मन मोह लेती है/और ठीक उसी वक्त /एक दूसरा उसे देखता
है/शिकार की तरह' यानी सारी की सारी सुंदर चीजों को हम लगातार नष्ट होते हुए देख रहे हैं.
एक वक्त सोने की चिड़िया कहे जाने वाले इस देश पर भी क्या शिकारियों की निगाह नहीं है ?
अम्बुज अपने तल्ख
और तार्किक तेवर के अलावा कुछ भिन्न मिजाज की कविताऍं भी लिखते हैं. मसलन, 'स्वांत: सुखाय' जिसे हम लगभग एक अहिंसक किस्म के विशेषण के रूप में इस्तेमाल करते आए
हैं, अम्बुज उसके
दूसरे पहलू को सामने लाते हैं. यानी जिसमें केवल अपना ही सुख साध्य हो, ऐसा कृत्य स्वांत:सुखाय की श्रेणी में
आता है. बकौल कवि: 'जो स्वांत:सुखाय
था/उसकी सबसे बड़ी कमी यह नही थी/कि उसे दूसरों के सुख की कोई फिक्र न थी/बल्कि
यह थी कि वह अक्सर ही/दूसरों के सुख को /निगलता हुआ चला जाता था'(स्वांत:सुखाय,पृष्ठ31) अम्बुज की कविता में यह खासियत है कि वह हमेशा चीजों को उनके
नए आयाम में देखती है, हमें नए अनुभव से
सम्पन्न करती है. 'पियानो' को ही लें तो कवि उसे भिन्न रूप में
देखता है. वे कहते हैं पियानो उस राजा की तरह है जो संगीत के पक्ष में अपना राजपाट
ठुकरा कर यहॉं आ गया है-- और उसकी यह जो धीर-गंभीर आवाज़ है वह भीतर के चिंघाड़, विलाप और क्रोध की सांगीतिक परिणति है.
पर पियानो को साध सकना आसान नहीं. कवि के लेखे: 'उसके संगीत को वही जगा सकता है/जिसे कुछ अंदाजा हो जीवन
की मुश्किलों का/जो रात का गाढ़ापन, तारों की झिलमिल/और चाँद का एकांत याद रखता है'(-पियानो 79). जाने अनजाने इस साध सकने की मुश्किल को हम एक कवि की रचनात्मक मुश्किलों
के बरक्स रख कर भी देख सकते हैं. इनके अलावा, 'जिन्हें
तुम धन्यवाद देना चाहते हो', 'तानाशाह की पत्रकार वार्ता','पत्थर हूँ', 'शरणस्थली
और कत्लगाह', 'हासिल', 'स्मरण', 'था बेसुरा लेकिन जीवन तो था', और 'बचाव'
आदि तमाम कविताऍं अलग से ध्यान खींचने वाली कविताऍं हैं. पिताओं के बारे में अम्बुज
की एक कविता अज्ञेय की पिता के बारे में ज़रा भिन्न तरीके से लिखी कविता की याद
दिलाती है तो 'खाना बनाती स्त्रियॉं' पढ़ते हुए हरिओम
राजोरिया की 'गाने वाली औरतें' और 'रुदन'
कविता की अनायास याद हो आती है. जैसे खाना बनाने से स्त्री को मुक्ति नहीं,
गाने और रोने से भी उसका शाश्वत रिश्ता है. अम्बुज राजोरिया के भावात्मक संसार
से उठ कर तार्किक निष्कर्षों की परिणति तक जाते हैं. 'खाते पीते आदमियों का यकीन' कविता आश्चर्यजनक ढंग
से गरीबों के बारे में बंद वातानुकूलित कमरों में चल रहे चिंतन की पोल खोलती है तो
कभी कभी 'था
बेसुरा लेकिन जीवन तो था' कविता पढ़ते हुए धनिये की खुशबू-भर से बेसुरेपन में भी
जीवन का अहसास होता है. गरज यह कि अम्बुज की कविता जितना हमारे सामने खुलती है
उतना ही वह अपना पट बंद भी रखती है. एक कविता में कवि जब कहता है कि 'मुझे
खोलना उतना आसान नहीं, मैं इतना चुप जितना हजारों गम खाया इंसान',
तो लगता है यह स्वयं कहीं न कहीं अम्बुज की कविता की खासियत भी है.
ये
कविताऍं बताती है कि अम्बुज ने जीवन को बहुत करीब से देखा है. स्त्री पर बिना
किसी अतिरिक्त चीख पुकार के उन्होंने जो कविता लिखी है वह 'स्त्री
विमर्श'
के मचान पर बैठे बिगुल बजाते विमर्शकारों से जयादा संजीदा है. अम्बुज ने ट्रेड
यूनियन की लड़ाइयॉं भी लड़ी हैं और उसकी चुनौतियॉं भी झेली हैं किन्तु एक कामगार
की-सी निष्कंप स्वाभिमानी चेतना से प्रतिश्रुत होते हुए दरबारे-खास में मत्था
नही टेका. यही वजह है कि इन कविताओं में एक जुझारू कवि का आत्मसंघर्ष बोलता है.
तानाशाह को लेकर हिंदी में कविता लिखने का खूब चलन रहा है. बहुत उबाऊ किस्म की
बयानबाजी से लेकर जनवादी लटके झटकों वाली कविताओं तक--- किन्तु अम्बुज की 'तानाशाह
की पत्रकार वार्ता' का मिजाज बिल्कुल अलग है. उसे हू बहू उद्धृत करना अम्बुज
की उस हिकमत की थाह लेना है जो अभिधा की ताकत से पैदा हुई है:
वह
हत्या मानवता के लिए थी
और
यह सुंदरता के लिए
वह
हत्या अहिंसा के लिए थी
और
यह इस महाद्वीप में शांति के लिए
वह
हत्या अवज्ञाकारी नागरिक की थी
और
यह जरूरी थी हमारे आत्मविश्वास के लिए
परसों
की हत्या तो उसने खुद आमंत्रित की थी
और
आज सुबह आत्मरक्षा के लिए करनी पड़ी
और
यह अभी ठीक आपके सामने
उदाहरण
के लिए
कुमार
अम्बुज की कविता सोचती हुई कविता है. वह हमारे समाज का जस का तस आईना नही है,
वह उम्मीदों, प्रार्थनाओं और हताशाओं से बनी है. वह भाषा के फलदार
वृक्ष के लिए उद्विग्न रहने वाली कविता है, जिसकी डालियॉं छूने भर
से झुकने को आतुर दिखती हैं. उसके हृदय की अविरल गहराइयों में जंगल,नींद,तारे,
सफलताओं,
विफलताओं,
सभी के लिए जगह है. वह बेजान चीजों से भी कुछ जरूरी कहने का रास्ता निकाल लेती है.
गिरते उड़ते पत्ते, पत्थर हूँ, संग्रहालय, और 'राख' में उनकी यही कोशिश दिखती है. सहनशीलता,
कृतज्ञता,
संस्कार,
सभ्यता,
स्मृति और मानव-स्वभाव की पेचीदगियों से अपनी इन सोचती हुई कविताओं के जरिए अम्बुज
ने हिंदी के काव्यास्वाद को फिर एक नया उत्कर्ष दिया है और मुश्किलों में भी
जीवन की खोज को वरीयता दी है. राजेश जोशी और मंगलेश डबराल की पीढ़ी के बाद के
कवियों में कुमार अम्बुज ने न केवल अपनी पहचान निर्मित की है,
बल्कि भाषा और शिल्प की सलवटों को बारीकी से सँवारा है. 'स्मरण'
में वे कहते हैं: 'घोंघा भी चलता है तो रेत में, धूल में/उसका निशान
बनता है/ फिर मैं तो एक मनुष्य हूँ.' हिंदी कविता को शाइस्तगी से आगे बढाते हुए वे वहॉं तक
ले आए हैं जहॉं पहुँच कर खुद उनकी कविता यह याद दिलाना नही भूलती कि :
इस निर्माण में शामिल है हमारी भी कुछ
मिट्टी
हमने भी डाला है कुछ पानी
इस चेहरे के शिल्प में एक सलवट है
हमारे चेहरे की भी.
समय
के चेहरे की सलवटों को बारीकी से पढ़ने के लिए अम्बुज की कविता को अब एक बड़े
मोड़ की जरूरत है.
किसका
है भारत यह किसकी है भारती ?
'भारत ललित ललाम यार है/ भारत घोड़े पर
सवार है............' अष्टभुजा शुक्ल
ने भारत की जो तस्वीर अपनी कविता('दु:स्वप्न
भी आते हैं' में संकलित) में
खींची है उससे बहु विज्ञापित शाइनिंग इंडिया या अतुल्य भारत का असली चेहरा नजर
आता है. अष्टभुजा शुक्ल की कविताओं में वक्रता और कटाक्ष की जैसी जुगलबंदी है वह
उन्हें अनायास नागार्जुन और त्रिलोचन के बगल खड़ा करती है. बोधिसत्व में भी यह
ऑंच कम नही है. 'भारत भारती' कविता में भीख के लिए रिरियाती स्त्री
को देख उनका यह पूछना कि 'किसका भारत और
किसकी यह भारती है'---लगभग विकास की
दरों को लॉंघते देश की दुर्दशा पर व्यंग्यबोधक सवाल है. बोधिसत्व का
कविता संग्रह 'खत्म नहीं होती
बात' देश के हालात पर
तज्किरा है. वे बरसों से मुम्बई में हैं पर उनकी कविता आज भी सुरियावॉं, भदोही और इलाहाबाद के अक्षांश और देशांतर
पर बुनी जा रही है. वे मुम्बई जाकर अपना गॉंव, कस्बा और शहर नहीं भूल बैठे, बल्कि हर छोटी से
छोटी बात कविता में लाना चाहते हैं, यहॉं तक कि अपनी
लघुता के बयान के लिए भी वे कविता का मंच ही मुफीद समझते हैं. सच तो यह है कि कविता
में स्थानीयता दिनों दिन गायब हो रही है. कविता कवि की चरितगाथा है, ऐसा माना जाता है. पर आज के तमाम कवि ऐसी
कविताएं लिख रहे हैं जिससे उनका लोकेल पता नहीं चलता. पर क्या ऐसा ज्ञानेन्द्रपति
के यहॉं है, वीरेन डंगवाल के
यहॉं है, लीलाधर मंडलोई के
यहॉं है, लीलाधर जगूड़ी के
यहॉं है, अरुण कमल के यहॉं
है? शायद नहीं. उनकी
कविताऍं पढ़ते हुए यह दावे से कहा जा सकता है कि कवि किस जगह से बोल रहा है. अपनी
बोली बानी की धमक से लेकर उस इलाके की अपनी खुशबू उनकी कविताओं में मिल सकती है. ज्ञानेन्द्रपति
के यहां हम बनारस और गॉंगेय छवियों का कोलाज देख सकते हैं तो वीरेन डंगवाल की भाषा
से अनुमान लगता है कि वे किस जगह की आबोहवा में रम कर कविता लिख रहे हैं. आखिर
उनकी ‘फ्यूँली’(वसंत के मौसम में पहाड़ी झाड़ियों में
दिखता एक पीला फूल) और 'गंगा-स्तवन' पढ़ कर किसे उनका पता ढूढ़ने की जरूरत
होगी. मंडलोई भले दिल्ली में रहते हों,
उनकी कविता में आप बस्तर, जगदलपुर, छतरपुर और वहॉं के मजदूरों, कामगारों तथा कोयला खदानों में जुते जन
जीवन तक की टोह ले सकते हैं. जगूड़ी के यहॉं कविता की तार्किक और बौद्धिक
परिणतियों में भी पहाड़ की मेहनतकश जनता का कोई न कोई बिम्ब आपको उनकी स्थानीयता
का पता बता देगा. माली की ‘माली
हालत’ पर रोशनी डालते
हुए वे एक साथ देश और दुनिया के दैन्य को रूपायित करते हैं तथा उन सब ठिकानों पर
उनकी कविता एक छापापार कार्रवाई करती प्रतीत होती है जहॉं भी अन्याय का आलम है.
अरुण कमल की कविता में भोजपुरी का भाषिक असर तो दिखेगा ही, बिहार का दैन्य भी कवि से ओझल नहीं होता. 'सरकार और भारत के लोग'
और 'नदी और नाला' जैसी कविताओं का वृत्तांत अरुण कमल की
कवि चिंता के साथ साथ उनके अनुभव की केंद्रीयता का साक्षी भी है. बोधिसत्व कविता की
इस जरूरत को समझते हैं. मुम्बई उनकी रोजी रोटी का शहर है पर कविता की जगह तो
इलाहाबाद और सुरियावाँ ही है जहॉं की मिट्टी में बचपन बीता है, अनुभवों ने गिर गिर कर सँभलना सीखा है.
गलत नहीं कहते अष्टभुजा शुक्ल जी: दिल्ली है कविता का नैहर तो बस्ती ससुराल.
यानी दिल्ली कविता का नैहर भले हो,
उसकी ससुराल बस्ती जैसे जनपद ही हैं क्योंकि जीवन भर कविता का निबाह तो ससुराल
में ही होना है. बोधिसत्व की कविताओं में ऐसा ही विश्वास दीखता है.
बोधिसत्व के इस
संग्रह में देशज अनुभवों की दुनिया है. खेत में झर गए गेहूँ और गौरैया के रिश्ते
की दुनिया है. यह दुनिया भिखारी रामपुर से होते हुए सुरियावॉं, भदोही और इलाहाबाद की भी है. यह उस आदमी की कविता लगती है जो गॉंवों कस्बों
से जुड़ा है या कम से कम जिसका कवि मन अभी ऐसे ही देसी अनुभवों में विश्रांति पाता
है. वह कविता लिखते हुए पाता है कि कोई ग्रामवधू आनने वाले के पीछे चली जा रही है
हर तरह की थकान को पीछे छोड़ते हुए. वह ऐसे जा रही है कि उसे जाना ही है पुरुष के
पीछे पीछे. यह गॉंव का एक प्रचलित दृश्य है. एक कविता 'हम दोनो' में पिता के साथ
खेत सींचने का वर्णन है. पर खेती किसानी का यह सबक सीखने के बाद एक दिन पुत्र गॉंव
से निकल भागता है और पिता भी नहीं रहे. तब से खेत परती पड़े हैं कौन जोते बोए. यह
एक भयानक दृश्य उकेरा है बोधिसत्व ने. गॉंवों के प्राय: संयुक्त परिवार बिखर
चुके हैं. जिसे भी निकल भागने की सुविधा है वही गांवों से भाग रहा है. आधुनिक सभ्यता
ने सबको शहरी बना दिया है. एक एक कर लोग भाग रहे हैं, पंजाब की ओर, मुम्बई या अन्य
शहरों महानगरों की ओर. तालीमयाफ्ता लोगों ने शहरों में ठिकाना खोज लिया है. गांव के गांव खाली पड़े हैं. कोई
वृद्धा जरूर अपने जीते जी दिया बाती करने के लिए घर की रखवाली करती पड़ी होगी. यही
आम दृश्य है गांवों का.
अनियंत्रित विकास
ने गॉंव के लोगों को पलायन पर मजबूर कर दिया है. खेती में बसर नही होता अब. ऐसी ही
एक कविता है ‘लाल भात’. एक भयानक खबर की तरह यह कविता दूर तक
हमारे भीतर के अस्तित्व को हिला देतीहै. ‘लाल भात’ किसी जमाने में
गरीब के खाने का एक मात्र भोजन हुआ करता था. देसी चावल जो माड़ ज्यादा छोड़ता था
पर मिठास गजब की होती थी. फिर धीरे धीरे तमाम अन्य अन्नों की तरह लाल भात वाले
धान उपजाने बंद हो गए. उनकी जगह महक वाले धानों ने ले ली. वे खेत खलिहान, तीज त्योहार सब जगह से विदा हो गए.
कविता का अंत एक भयानक अफसोस के साथ यह बताता है कि केवल लाल भात ही नहीं, सब कुछ जो देसी है, कम उपजाऊ या लाभकारी है सब कुछ धीरे धीरे
बिला गया. देसी बैल, देसी गाऍं, देसी भैंसें, देसी कुत्ते, देसी बीज सब कुछ
के खत्म किए जाने का दौर है यह. एक मुहिम के तहत उन्नत नस्ल के जानवर और उत्तम
किस्म के बीज लाए जा रहे हैं,
जो भी देसी है उसे धीरे धीरे खत्म होना है. हालॉंकि बोधिसत्व की यह चिंता कोई नई
नहीं है, ज्ञानेन्द्रपति
की कविता ‘बीज व्यथा’ इसी कुटिल षडयंत्र पर बहुत पहले
प्रहार कर चुकी है. एक योजनाबद्ध तरीके से देसी बीजों पर प्रतिबंध लगाकर विदेशी
बीजों को भारत में लाया जा रहा है. एक तरह से उन बीजों के पेटेंटीकरण से देसी
बीजों के बोने पर भी प्रतिबंध लगाए जाने की नौबत आ गई है. इस मुहिम ने देसी स्वादों
वाले अनेक मौलिक बीजों को जैसे खेत खलिहानों से खदेड़ दिया है. हमारी स्मृति में
भी वे देसी स्वाद वाले अन्न नही रह गए हैं अब. ज्ञानेन्द्रपति ने ‘संशयात्मा’ की कई कविताओं : खेसारी दाल की तरह निंदित, लुप्त होती प्रजातियों के अंतिम वंशधर, एक शोकाकुल स्वागत,
दिनांत पर आलू आदि में विलुप्त होती वस्तुओं, प्रजातियों की व्यथा का निरूपण किया है. राजेश जोशी की सुपरिचित कविता ‘विलुप्त प्रजातियॉं (चॉंद की वर्तनी)
भी इस विलोपन का ही जैसे शोकगीत हो. बोधिसत्व की चिंता भी गौरतलब है: ‘जो बचे हैं देसी उन्हें खत्म होना है/
जैसे लाल भात गया थाली से/ अदहन रसोई से/ कोठिला से, खेत से.... नव ब्याहताओं दुल्हनों के कोंछ से भी. ‘(लाल भात)
बोधिसत्व की काव्यभाषा
ने अपने पूर्ववर्तियों से बहुत कुछ सीखा है. इसी संग्रह में निराला और त्रिलोचन पर
उनकी कविताएं इस बात का परिचायक हैं कि उनका अपने पूर्वज कवियों के प्रति आदर का
बोध है. हाल में प्रकाशित उनकी ‘स्वाहा’ कविता पढ़ कर नागार्जुन के प्रति उनकी
प्रणति प्रमाणित होती है तो त्रिलोचन की कविता कला से भी उन्होंने सीखने की कोशिश
की है. और तो और, त्रिलोचन की आलोचना
तक से वे विचलित हो उठते हैं जिसका तीखा प्रत्याख्यान उनकी एक कविता में देखा जा
सकता है. उम्र के आखिरी छोर पर आ पहुँचे त्रिलोचन यदा कदा होश खो बैठते थे और वे
अपनी पुत्रवधू की देखरेख में थे. हिंदी जगत में इसे लेकर कुछ जब कुछ अनर्गल प्रलाप
किए जाने लगे तो बोधिसत्व के कवि ने मर्माहत होकर इसकी खबर इन शब्दों में ली: --
उस पर विचार के नाम पर
दुर दुर करो,कहो वाम पर
धब्बा है त्रिलोचन
कहो त्रिलोचन कलंक है.
भूल जाओ कि वह जनपद का कवि है
गूँज रहा है उसके स्वर से दिग-दिगंत है.
मरने दो उसको दूर देश में पतझड़ में
तुम सब चहको भड़ुओ तुम्हारा तो
हर दिन बसन्त है.
बोधिसत्व की इन
कविताओं में एक घरेलूपन है. संबंधों की कद्र करते हैं वे. संग्रह की पहली ही कविता
नाना की याद में है तो अन्यत्र नानी को भी याद किया है उन्होंने. दीदी पर एक अलग
ही कविता है. अल्लापुर के गली मुहल्लों में रहने वाली लड़कियों में सब का हाल
चाल लेते हुए वे अब तक अविवाहित रह गयी ममता की चर्चा किए बिना नहीं रहते. वे यहॉं
पिता को याद करते हैं. उनका न होना तो उन्हें दुख पहुंचाता ही है, यह बात और पीड़ित करती है कि उनके न रहते
ही उनकी सारी चीजें भला कहॉं बिला गयीं ? न कुर्ते रहे न चुनौटियॉं, न सरौते, न गमछे, न पोथियॉं, न डायरी, न कलमें, न जूते, न घड़ी, न टोपियॉं----जैसे किसी साजिश के तहत तुम्हारी चीजों को मिटा दिया गया
हो, कवि कहता है. गॉव
की औरतें उन्हें याद आती हैं तो कुछ इस तरह कि वे कभी एक खास तरह की मिट्टी से
अपने बाल धुला करती थीं. यह अपनी बहनों को याद करने के बहाने गॉंव की गरीबी का ही
एक खाका खींचने जैसा है. एक कविता तो उन्होंने राजा दशरथ की बेटी शांता को लेकर
लिखी है. उसके बारे में कहते हैं कि जब वह पैदा हुई तो अयोध्या में बारह वर्षो तक
अकाल पड़ा. तब दशरथ ने पंडितों की सलाह पर उसे श्रृंग ऋषि को दान में दे दिया. उसी
ऋषि के पुण्य प्रताप से वे बाद में चार संतानों के पिता बने पर बड़े होकर राम
लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न कभी भी उस बहन से मिलने श्रृंग ऋषि के आश्रम नहीं गए. एक
बहन के प्रति यह दृष्टि संबंधों को महत्व देने वाले कवि में ही मिल सकती है. वह
मिथक से भी मोती खोज लाता है. बोधिसत्व बहुत कैलकुलेटिव कवि और उत्तरदायी कवि
हैं. उनके यहॉं कलावादी कवियों की कवायद नहीं दिखती. वे चाहते हैं कि उनकी कविता
लोगों तक पहुँचे. इसके तईं वे कुछ कविताओं में छंदों का विधान भी रचते हैं. कल
की बात, बिटिया का कहना, किसकी दिल्ली, कब तक जिन्दा है हाथी, नया खेत और गॉंव की बात ऐसी ही कविताऍं
हैं. यह कहीं न कहीं अपने को उन कवियों की परंपरा से जोड़ना है जिन्होंने कविता
में छंद को कभी अलगाववादी दृष्टि से नहीं देखा क्योंकि वह सदैव उसकी सन्निधि में
ही पली बढ़ी है. इस सबके बावजूद बोधिसत्व की छवि मेरे मन में उनके दूसरे संग्रह हम
जो नदियों का संगम हैं तथा दुख तंत्र से ही बनती है. शायद इसीलिए, उतने ऊँचे आसन पर इसे प्रतिष्ठित कर
पाने में मुझे असुविधा हो रही है.
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संप्रति जो कविताऍं लिखी जा रही हैं, जिनका दीदार कभी कभी ब्लाग एवं
बेवसाइटों पर भी हो जाता है, उनमें से अधिकांश को देख कर लगता है कवियों को अपने
पाठकों की कोई फिक्र नहीं है. वे कुछ भी वृत्तांत जैसा बुन कर कविता की प्रतीति
करा देना चाहते हैं. अक्सर युवा कवियों के नैरेटिव में गांव देहात या शहरों के
गलीकूचों के ब्यौरे मिलते हैं, अक्सर लड़कियॉं मिलती हैं और उन लड़कियों के बारे
में अपने अनुभव साझा करने का मनोविज्ञान प्रबल दिखता है. प्रेम कविता की हर
चौहद्दी तोड़ने के लिए आतुर आज की युवा पीढ़ी के लिए वर्जनाओं की कोई वजह नहीं है.
आर्थिक उदारतावाद की तरह यौन आकांक्षाओं के भाषाई इज़हार में भी उनकी उदारता
सीमाऍं नहीं देखती. स्त्री को समझने की एकाधिकारवादी
प्रवृत्ति के चलते ही ‘प्यार में डूबी हुई मॉं’, और 'बहन का प्रेमी' जैसी कविताओं
के फार्मूले भी ईजाद किए गए जो कविता के बाजार में कुछ दिन चले भी. पर वे आम
संवेदना का हिस्सा नहीं बन सके. यह ‘स्त्री मेरे
भीतर’ की पुरुषवाची समझ थी जो ‘स्त्री के भीतर स्त्री’ को पढ़ने के बजाय खुद के मनोविज्ञान को आरोपित करने
वाली थी. जिस अटपटेपन को कविता का नवाचार कह कर परोसा जा रहा है उसके भी प्रस्तावक
हैं, प्रशंसक हैं. चाहे थोड़े ही सही, पर कदाचित वे इन्हीं थोड़े लोगों
के लिए लिख रहे हों . उनकी भाषा अटपटी और न बरती हुई-सी लगती है. पर उसमें
संयम कम है, अतिरेक ज्यादा. यह भाषा जैसे भाषा-शोधन यंत्रों से
निकल कर आ रही है जो हमारी प्राणवायु के लिए स्वास्थ्यकर नहीं है. इन
रिफाइनरियों से भाषा का धुआं ज्यादा निकल रहा है, भाषा का निहितार्थ कम.एक प्रच्छन्न
कलावाद का पुनर्भव है यह.
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किन्तु इस
प्रायोगिक अतिरेकों के बावजूद कुछ कवियों को देख पढ़ कर लगता है, भाषा अब भी
गॉंवों, कस्बों, गली कूचों, कामगारों, किसानों,
आदिवासियों और मलिन बस्तियों के बीच ढल रही है. वह भले ही वैयाकरणों की कसौटियों
पर कमतर नजर आती हो, उसी में हमारी अभिव्यक्ति की क्वॉरी सॉंसें बसी हैं. हमने भाषा को इतना बरता और भोगा है कि कुछ भी पढ़ते हुए
लगता है इसे कहा जा चुका है. इस कहे जा चुके को जब कोई इस तरह कहे कि वह पहली बार
कहे जैसा लगे और उतना ही प्राणवंत तो लगता है हॉं हॉं यहीं कहीं हमारे मन की बात
है जो अब तक अदीठ थी. शहराती भावबोध ने हमारी भाषा की मासूमियत छीन ली है. आशुतोष
दुबे, प्रेमरंजन अनिमेष, एकांत
श्रीवास्तव, गीत चर्तुवेदी, तुषार धवल और पंकज राग जैसा लिखने वाले आज भी कम हैं. युवा कवियों में कोलाहल ज्यादा
है, अपनी पहचान
बनाने की हड़बड़ी भी. कविता की पदावलियों में दूर की कौड़ियों को सहेजने की
प्रवृत्ति संप्रेषणीयता में अवरोधक बनी है. बोधिसत्व ने ‘दुखतंत्र’ में अपनी एक निजी
कविता-प्रविधि खोजी थी: स्त्री को जानने का एक नया तरीका ईजाद किया था, उसे सफलता भी
बेशक मिली. एकांत श्रीवास्तव की कविता जैसी लोक-लय की अनुगूँज अन्यत्र
दुर्लभ है. अंशु मालवीय ने 'दक्खिन टोला' से उम्मीद की जिस आमद का आभास कराया था,वह अभी नि:शेष नहीं हुई है. अनुज लुगुन ने कविता
परिदृश्य में अचानक हस्तक्षेप से यह सिद्ध किया है कि बिना किसी सार्थक मुद्दे
के कविता अंत:करण का समर्थन नहीं जुटा सकती. उनके साथ आदिवासियों के अभावों और शोषण
को संज्ञान में लेने वाली एक नई काव्यात्मक भाषा ने जन्म लिया है. यह कविता
में कुलीनतावाद से होड़ लेती कविता है. नए कवियों में प्रभात, अरुण देव, अंशुल त्रिपाठी, कुमार अनुपम और विमलेश
त्रिपाठी के यहॉं ध्यानाकर्षण के अनेक तत्व हैं. नीलोत्पल और
शिरीष कुमार मौर्य ने कविता में एक बड़ी हद तक मौलिकता का उत्खनन किया है. अमित
कल्ला के यहॉं (होने न होने के परे)आत्म-अनात्म की सुखद व्यंजनाऍं हैं. सौमित्र
ने कविता की छोटी छोटी इकाइयों में जीवन के स्फुलिंगों का संधान किया है. गिरिराज
किराड़ू की कविता में गतानुगतिकता को लॉंघने की व्यापक संभावनाऍं हैं बशर्ते
निज के ऊहापोहों से उबर कर वह जीवन और समाज की समस्याओं में भी दिलचस्पी लेना
आरंभ करे. व्योमेश शुक्ल ने भाषा और संवेदना की अपनी प्रयोगशाला में काफी
काम किया है, मनोज कुमार झा ने भी ; इधर ‘सबद’ पर जारी अंबर रंजना पांडेय की
कुछ कविताओं में भी एक खास तरह का नयापन नजर आता है, पर अनेक अच्छी कविताओं के साथ
इनके यहॉं भी भाषा की तोड़फोड़ कम नहीं है. यह सब कविता को भाषा और संवेदना के
नवाचारों की कविता बनाने की नीयत से ही हो रहा है. गए सालों में देवीप्रसाद
मिश्र ने भी लंबी कविताओं के कई बेहतर प्रयोग किए हैं. कविता की फंतासी में
धँसते हुए उन्होंने आज के यथार्थ के दुर्वह निहितार्थ को रचने की कोशिश की तो उसे
लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाऍं हुईं. व्योमेश शुक्ल के कविता-शिल्प
ने भी आलोचकों के समक्ष काफी चुनौतियॉं खड़ी की हैं पर हम यह देखें कि आज लिख रहे
केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण,लीलाधर मंडलोई और खुद लीलाधर
जगूड़ी तक जो प्रयोगों के आविष्कर्ता समझे जाते हैं, उनके यहॉं ऐसे अटपटे प्रयोगों वाली
कविताऍं नहीं है.
कविता पर वैसे ही
आरोप कम नहीं हैं कि उसने उत्तरोत्तर अपने पाठक खोए हैं, वाचिक गुणवत्ता गँवाई है, और सर्कुलेशन खो
चुकी भाषा के सहारे कविता का साम्राज्य खड़ा करने की कोशिशें हो रही हैं. लोग कविता का मर्सिया पढ़ने को तैयार बैठे हैं. एक वक्त जार्ज सेफरीज़ ने यह कहा
था कि उन्हें काव्य पाठ के लिए ज्यादा लोगों की दरकार नहीं है. क्या आज के युवा कवि भी यही सोचते
हैं कि उन्हें पाठकों और श्रोताओं की जरूरत नहीं है. वे अपने एक सीमित और विशिष्ट
काव्यास्वाद वाले कुनबे के बीच लिख कर खुश हैं. यदि ऐसा है तो सदियों से स्मृति
में रची बसी आ रही कविता के लिए यह खतरे की घंटी है.
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संदर्भित पुस्तकें:
संदर्भित पुस्तकें:
कभी के बाद अभी/विनोद कुमार शुक्ल, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. ,नई दिल्ली-110002,मूल्य: 200रुपयेमैं वो शंख महाशंख/अरुण कमल, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि.,1 बी, नई दिल्ली-110002,मूल्य: 150 रुपयेअमीरी रेखा / कुमार अम्बुज, राजकमल प्रकाशन, प्रा.लि.,नई दिल्ली-110059, मूल्य 150 रुपयेखत्म नहीं होती बात/बोधिसत्व, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., नई दिल्ली-110002, मूल्य 200 रूपयेओम निश्चल का यह लेख 'तद्भव' के मौजूदा अंक(अक्तूबर,2012) में किंचित संपादित रूप में छपा है. उसका अविकल अंश यहॉं दिया जा रहा है.
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फोन: 09696718182,
अच्छी समीक्षा..चारों कवियों की रचना प्रक्रिया से मुखातिब कराती..
जवाब देंहटाएंसाथ में समकालीन कवियों की बात भी करती है..पर यहाँ कुछ नाम ..यानी स्त्री नाम समीक्षक से छूट गए या छोड़ दिए गए ...
अनुज की बात करते में क्या निर्मला पुतुल को यहाँ नहीं होना चाहिए.. कात्यायनी जी, अनामिका जी ..कोई एक स्त्री नाम यहाँ नहीं. पुरुषवादी समीक्षा..अपने वर्चस्व की बात करती हुई..खुद को स्थापित करती हुई.
इस आलेख में युवा कविता पर बहुत ही चलताऊ ढंग से बात की गयी है . इससे पता चलता है कि समीक्षक इधर लिखी जा रही युवा कविता से कितना कम परिचित है और युवा कविता को कितने हल्के में लेता है.फेसबुक और ब्लोग्स से बाहर भी बहुत सरे युवा रचनारत हैं.उनकी कवितायेँ पढ़े बिना युवा कविता पर कोई बात कह देना एक गैरजिम्मेदाराना रवैया है साथ ही ख़राब समीक्षा का प्रमाण . इससे आज की युवा कविता का कोई चेहरा बनता नहीं दिखाई देता है. इसमें आज के दौर में लिख रहे तमाम महत्वपूर्ण युवा कवियों का उल्लेख तो नहीं ही हुआ है साथ ही जिन कवियों का उल्लेख किया गया वह भी निपटाने वाले अंदाज में, जैसे कि भाई बंदी निभाने के लिए नामोल्लेख कर दिया हो. स्त्री कवियों की जिस तरह उपेक्षा की गयी उस सन्दर्भ में अपर्णा मनोज का आरोप बिलकुल सही है. जिस दौर में युवा कवियों की एक बड़ी संख्या रचनारत हो उनके बारे में क्या दो-ढाई अनुच्छेद में कोई बात कही जा सकती है भला ? आज यदि ख़राब कविता लिखी जा रही है तो उसके लिए इस तरह की ख़राब आलोचना कम जिम्मेदार नहीं है.मेरे समझ में यह नहीं आया कि चार कविता संग्रहों कि समीक्षा करते हुए समीक्षक के सामने युवा कविता पर इस तरह का स्वीपिंग बयान देने की मजबूरी आन पढ़ी?
जवाब देंहटाएंलगता यह है कि चार स्वतंत्र रूप से लिखी गई समीक्षाओं को मिलाकर यह आलेख बनाया गया है, और क़ायदे से इसे चौथी यानि बोधिसत्त्व के कविता संग्रह की समीक्षा पर ही खत्म हो जाना चाहिए था. बाद के दो अनुच्छेद पूरी तरह से अवांछित हैं यहां, और खुद ओम निश्चल भी ध्यान से देखें तो पाएंगे कि इनसे समीक्षाओं की गंभीरता पर भी आघात लगा है. समूची कविता को आवेष्टित करने के मोह ने इसे समग्रतः कमजोर किया है, और टाले जा सकने वाले विवाद को जन्म दिया है, सो अलग.
जवाब देंहटाएंअपर्णा मनोज और महेश पुनेठा ने वाजिब सवाल उठाए हैं. उन्हें चलताऊ ढंग से नहीं सिलटाया जा सकता है. ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी थी कि एक-दो वाक्यों में प्रत्येक नामित कवि को "घर बैठाकर" अपने काम की इतिश्री कर लेना बेहतर समझा गया. इन दिनों लिखी जा रही कविता के बारे में ओम निश्चल की जो भी राय हो, इस पर प्रामाणिक और विश्वसनीय टीप करने के लिए कहीं अधिक तैयारी की ज़रूरत थी, जो यहां नहीं दिख रही. स्त्री कवियों का गुस्सा पूरी तरह जायज़ है. ढेर सारी अच्छी कविता नए कवियों की ओर से आ रही है, उसकी अनदेखी किसी भी तरह से उचित नहीं है. मात्र नामोल्लेख या नाम-निष्कासन के बूते पर अच्छी समीक्षात्मक टिप्पणी की नींव नहीं रखी जा सकती. दुखद है कि यह बात मुझे ओम निश्चल जैसे अनुभवी और मंजे हुए समीक्षक के संबंध में कहनी पड़ रही है. समीक्षक ने जो सदाशयता चार कवियों के प्रसंग में दिखाई है उसका सौवां हिस्सा भी इन दिनों लिखी जा रही कविता के हिस्से में नहीं आया. और फिर कात्यायनी और अनामिका जैसे नाम तो "इन दिनों" से पहले के भी हैं. चौथी समीक्षा से आगे बढ़ने के लोभ का संवरण कर लिया गया होता तो यहां सिर्फ़ प्रशंसात्मक टिप्पणियां ही आ रही होतीं.
समीक्षक को निशांत , पूनम तुषामड़, रमाशंकर यादव 'विद्रोही', विमलेश त्रिपाठी, ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस जैसे रचनाकारों को भी एक बार पढ़ ज़रूर लेना चाहिए। मैं महेश पुनेठा जी की बात से सहमत हूँ। हालाँकि ये समीक्षा , दोस्ताना समीक्षा का ज़बरदस्त उदाहरण है। इस मामले में ऐतिहासिक होने का दावा भी कर सकती है।
जवाब देंहटाएंमैं श्रोत्रिय जी की बात से सहमत हूं... कायदे से यह आलेख बोधिसत्व के संग्रह की समीक्षा के साथ ही समाप्ति की मांग करता है। समकालीन कवि-कविता वाली आधी-अधूरी टिप्पणियां, मैं उन्हें मैं टिप्पणियां ही कहना उचित समझता हूं क्योंकि आलेख में उठाए समकालीन कवि-कविता विषय सम्बंधी परख दृष्टि,गहराई और प्रामाणिक तुलनात्मक विश्लेषण की अपेक्षा मोम जी जैसे आलोचक से थी, वह यहां सिरे से ही नदारद है.
जवाब देंहटाएंचार कविता संग्रहों के माध्यम से चार कवियों की महत्वपूर्ण समीक्षा अपने आप मेन मुक्कमल और महत्वपूर्ण भी पर,मोहन सर के बातों से भी सभी सहमत होंगे,समीक्षा थोड़ी विषयांतर हो गई है ,बात नए कवियों की नहीं,समीक्षक के चार मनपसंद कवियों की है,इसे ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप में नहीं माना जाना चाहिए,जहां तक समकालीन/ युवा कवियों की बात है,यह निरपेक्ष समीक्षा नहीं|कुछ समकालीन कवियों के नाम यादृछिक रूप से आ गए है,उनमें कोई शृंखला या संबंध नहीं, अपर्णा जी ने सही प्रश्न उठाए है |
जवाब देंहटाएंचार की गिनती में चालीस को शामिल करना भी समीक्षा होता है... बढि़या है ओम जी... निपटाते रहिये ऐसे ही... चार कवि बनाम चार कविता वाले तथा अन्य बहुतेरे कवि-फवि...
जवाब देंहटाएंमित्रों की बातें वाजिब हैं। यहॉं पश्चलेख के रूप में एक विहंगम दृष्टिपात किया गया है। जाहिर है कि इन्हें मैं पसंद करता हूँ। कवयित्रियों के नाम इस विहंगम की बानगी में नही आ सके हैं। पर अनामिका,गगन गिल, अनीता वर्मा, रश्मिरेखा,सविता सिंह, प्रज्ञा रावत,वर्तिका नंदा, सविता भार्गव,नीलेश रघुवंशी,निर्मला गर्ग व निर्मला पुतुल आदि पर लिख चुका हूँ। उनके या बाद की पीढी के नए प्रयत्नों पर हम जरूर लिखना चाहेंगे। यह पश्चलेख निश्चय ही आश्वस्तिपरक जायज़ा नही है,यह तो मानता ही हूँ। पर यह प्रस्तावन(प्रस्तावना न समझें) जरूर है। हमारे पढ़ने की एक सीमा भी है। जाहिर है यह अध्ययन जिसका जितना व्यापक होगा उसके मूल्यांकन परिधि की व्यापकता भी उतनी ही मर्मव्यापी होगी। पर इतने कवि जो यहॉं उल्लिखित है प्रस्तावन के रूप में वे कम नही हैं। विमलेश त्रिपाठी का नाम यदि छूटा है तो असावधानीवश। इस विहंगम को सिंहावलोकन में बदलते समय इसका यथासंभव ध्यान रखा जाएगा।
जवाब देंहटाएंOm Nishchal जी से अनुरोध करूँगा कि समकालीन हिंदी कविता के पूरे परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए एक आलेख लिखें. जिसमे हिंदी कविता के अलग अलग प्रक्षेत्रों में सक्रिय सभी पीढ़ियों और प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व हो सके. वह इस कार्य के लिए सबसे माकूल समीक्षक-लेखक हैं. और उन्हें कविता में समकालीन सक्रियता का पूरा संज्ञान भी है.
जवाब देंहटाएं!
जवाब देंहटाएंअरुण देव जी, मेरी कोशिश होगी कि ऐसा कुछ मुझसे संभव हो सके।
जवाब देंहटाएंओम निश्चतल ने तद्भव के लिए जिन चार हिन्दीध काव्य-संकलनोa की समीक्षाएं कीं, उन पर मित्रों की टिप्पणियां और ओमजी के अपने जवाब पढ़ने के बाद मुझे कुछ बातें कहनी जरूरी लग रही हैं, क्यों कि इन समीक्षाओं में ओमजी ने कुछ दिलचस्प उक्तियां की हैं, जो मुझे इन कवियों की कविता से कम मेल खाती लगती हैं। जैसे विनोदकुमार शुक्लं की कविताओं के बारे में वे कहते हैं –
जवाब देंहटाएं1- ‘वे उत्कट ऐन्द्रियसंवेद्य कवि हैं कि उन्हें समझना आसान नहीं है।‘ जबकि मेरे लिए तो ओमजी के इस ‘ऐन्द्रियसंवेद्य’ शब्द-युग्म को समझना जरूर आसान नहीं है जो दो-दो प्रत्ययों को मिलाकर गढ़ा गया है और इसकी विनोदकुमार शुक्ल की कविता से क्या संगति बैठती है, कहना मुश्किल है।
2- ‘वे सीधे-सादे वाक्यों से शुरूआत करते हैं, किन्तु आगे चलकर उनकी कविता एक ऐसे तार्किक और चिंतनशील विन्यास में खो जाती है कि हम मुग्धमयता के मुरीद हो जाते हैं।'यह कैसी 'मुग्धमयता' है भाई?
3- ‘वे चालू भाषा और जानी-पहचानी काव्य-युक्तियों से काम नहीं लेते।‘ (ऐसा और कौन कवि करता है, यह स्पष्ट नहीं हो पाया।)विनोदजी की कविता पर ऐसी गैरजरूरी टिप्पणी क्या ठीक है?
4- ‘अमूर्तनों के अभ्यासी शुक्ल अब अपनी ही कला के व्यामोह में गिरफ्तार से हो गये लगते हैं।‘ उनकी ऐसी व्याख्या भी संभव है?
ऐसे कई निष्कर्ष विनोदकुमार शुक्लअ की कविता के बारे में अनुपयुक्त-से लगते हैं।
अरुण कमल की कविता पर अपना विवेचन प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं –
1- ‘अरुण कमल ने कविता की रचना में विचारधारा का हस्तक्षेप उतना ही स्वींकार किया है, जिस सीमा तक वह कविता के अन्तस्तत्वों को ओझल न होने दे।‘ अरुण की कविता में विचारधारा और कविता के अन्तस्तत्वों को अलग करके देखना उनके साथ सही न्याय नहीं है। उनकी आन्तरिक अन्विति और एकता ही उसकी ताकत है।
2- ‘उनकी हर कविता अपने आप में एक राजनीतिक पाठ है।' जबकि मेरा मानना है कि अरुण कमल की कविता जीवन और लोक से अपनी उर्जा ग्रहण करती है, उसे किसी राजनीतिक पाठ में सीमित नहीं किया जा सकता।
3- ‘वे तप रहे ब्रह्मांड की वेदना और तलवे जलाती रेत से निकलती दाह की थाह लेने वाले कवि हैं।‘ यह ओमजी का अपना स्वतंत्र अमूर्त विचार हो सकता है, अरुण की कविता से इस उक्ति की कोई संगति नहीं बैठती।
4- फल्गु नदी के अभिशप्ति जल में तर्पण करते अतृप्त चूल्हे की राख में अपना पिंड ढूंढते पितरों की संवेदना को स्वर देते हैं। और इस तरह वे जीवन में कर्मकांड के महज दृष्टा नहीं, अनुष्ठानों को एक क्रिया में बदलते हुए देखने वाले कवि हैं।‘ वाह, क्या विरोधाभासी उलटबासी है और वह भी अरुण कमल जैसे कर्मकांड के विरोधी और विचारशील कवि के संबंध में।
5- 'अरुण शब्दों की शोभायात्रा के कवि नहीं हैं।' (वैसे और कौन हैं इस शोभायात्रा के कवि?)
इसी तरह कुमार अंबुज और बोधिसत्व की कविता के बारे में कई अन्तर्विरोधी बातें कही गई हैं। वे कविता में स्थानीयता के दिनो-दिन कम होने की शिकायत भी करते हैं और इन कवियों या अपने समय के अन्य कवियों के देशजपने और स्थानीयता पर मुग्ध भी दिखाई देते हैं। जिसके लिए वे ज्ञानेन्द्रपति से लेकर अनुज लुगून तक के कई कवियों के हवाले भी देते हैं। बोधसत्व की कविता पर तो उन्होंने पुराने कवियों की कविता से सीखने के नाम पर उनमें ‘तीखा प्रत्याख्यांन’ भी तलाश कर लिया। उनके बारे में यह कहने में भी संकोच नहीं किया कि वे एक ‘केलकुलेटिव’ कवि हैं और उत्तरदायी भी। (वाह दो विरोधी-भाव एक ही कवि में?)
कुल मिलाकर ऐसी समीक्षाएं कई बार समीक्षित कृति का सम्यक मूल्यांकन कम, उसके बहाने जाने-अनजाने अपनी विरोधाभासी उक्तियों का इजहार अधिक कर जाती हैं।
अरुण जी, मनोज जी एवं अन्य प्रियजन, मेरी कोशिश कविता के रस को ग्रहण करने कीसदैव रहीहै। अनेक कवियों की कविताओं गीतों और अन्य काव्यरूपों को अखंड रामायण की तरह पाठ भी करता हूँ। मैं कविता का रसिक हूँ, आलोचक नहीं। आलोचक बन कर शत्रुओं के गॉंव नही बसाना चाहता। दूसरे यह कि मेरी रसास्वादक समीक्षा कोई सामाजिक न्यायकारिता का मंत्रालय नही है जो किसी तुष्टीकरण के वशीभूत होकर काम करता है। यह सच है कि यह चार संग्रहों की समीक्षा के बहाने कविता कहॉं खड़ी है यह देखने की एक कोशिश है। मुद्राराक्षस(लेखक नही, कृति) के हवाले से कहता हूं: नहि सर्व: सर्वम जानाति। मैं भी कविता का अबस जानने का दावा नही करता। पर कहॉं रस है, कहॉं कविता है, कभी कभी पहचान में आ जाती है तो मैं भी लहालोट हो उठता हूँ। दॉंत खटटे करने वाली आलोचना का समय नही है यह। इसलिए अभी इतना ही। अच्छे लेखक कवि मेरी निगाह से बाहर हैं,ऐसा कतई न समझें। पर न तो मुझे सब धान सत्ताईस पसेरी तौलना है न कोई तुष्टीकरण का अभियान चलाना है। मै कविता का लगातार पाठक हूँ, प्रस्तावक हूँ,रसास्वादक हूँ। अभी जीवन शेष है, अभी बहुत कुछ पढ़ना है, लिखना है, समझना है। और यह यात्रा किसी की कभी पूरी नहीं होती।
जवाब देंहटाएंनंद जी, आपकी प्रतिक्रिया पढ़ी। विनोद कुमार शुक्ल जी के संदर्भ में ऐंद्रिय संवेद्य को कृपया इंद्रिय संवेद्य करके पढें । तार्किकता और चिंतनशीलता से क्योंकर मुग्धमयता का रिश्ता नही बनता। कवि के चिंतन से एकात्म होने पर ऐसा अनुभव अस्वाभाविक तो नही। चालू भाषा और काव्ययुक्तियों से वे बचते है यह कहना उनकी भाषा के अकाट्ट ओर सुगठित होने की ओर इशारा करना है। विनोद जी की अपनी कविता शैली रही है। उनके प्रत्ययों,पदों, अमूर्तनों(यह कलात्मक कार्रवाई भी तो है) तथा कथ्य को अपनी तरह से बरतने की कला को अब तक देखते हुए मेरा यही मानना है। कविता को कैसे प्रस्तुत किया जाए यह कवि का अपना मामला है। वैसे ही उसे समझने का अपना तरीका पाठक-रसास्वादक का भी होता है। कभी कभी अपने अमूर्तन के बावजूद कोई कथन विस्मय से हमें भर देता है। यही कवि की ताकत है। मुझे विनोद कुमारशुक्ल के काव्य में ऐसी विशेषताऍं दीख पड़ीं और जाहिर है कि मेरा निष्कर्ष इन विशिष्टताओं के आलोक में देखा जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंअरुण कमल के यहॉ विचारधारा उनके काव्य में ही अनुस्यूत है, यह तो आप भी मानते हैं, वही मेरा भी मानना है। वह कहीं से भी राजनीतिक रूप से लाउड कविता नही कही जा सकती, यद्यपि ऐसा न होते हुए भी उसे अपने समय के एक राजनीतिक पाठ के रूप में भी पढ़ा जा सकता है। पितरों का तर्पण उनके अवलोकनों का हिस्सा है, वहॉ भी उन पर यह आरोप नही है कि वे ऐसे कर्मकांड को समर्थन दे रहे हैं, यह गंगातट के अवलोकन जैसी ही कार्रवाई है। बोधिसत्व युवा कवि हैं--परंपरा से हर कवि सीखता है। कहा है कवि ने कि तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी। तो इसी अर्थ में । लेकिन कवि गतानुगतिक नही होता। वह रुढ़ियों का भंजन भी तो करता है। बोधिसत्व में प्रत्याख्यान क्यों न हो।उन्हे कैलकुलेटिव कहना उन्हें कमतर बताना नहीं, और वैसा होते हुए भी उत्तरदायी बताने के पीछे उनकी कविता के कार्यभार का उचित आकलन करना है। ऐसा कहॉ लिखा है कि कैलकुलेटिव कवि उत्तरदायी न होगा।
विपर्यय, विरोधाभास, पुनरुक्ति, रूढ़ियॉं केवल रचना के दोष ही नही, वे कभी कभी गुणसूत्र बन कर चमकते भी हैं। यह देखने वाले पर निर्भर है कि वह कितना कुछ देख पाता है। कविता गणित नही है, उसके अर्थ का सीमांकन नही किया जा सकता। वह हमेशा व्याख्यातीत होती है। इंद्रियातीत होती है। इसलिए हर आलोचक रसास्वादक का अपना आलोचन और आस्वादन तंत्र होता है। यही कहना है मुझे। आपने मेरे दोषों या विरोधाभासों की ओर इंगित किया इससे मुझे भी अपने भीतर पुन: झाँकने का अवसर दिया। इसके लिए आभार।
नंद जी आप कवि और आलोचक दोनों हैं। मैं भी गीत और कविताऍं लिखता रहा हूँ । नई कविता का घोर पाठक हूँ। संस्कृत का विद्यार्थी हूं। अलंकार सर्वस्व दशरूपक, रस गंगाधर मम्मट विश्वनाथ सब हमारे मार्गदर्शक हैं। जब अतिशयोंक्ति को भी हम कविता के अलंकरणों में मान देते है जबकि वैसा होना असंभव ही है तो काव्य हमेशा समझने की चुनौतियॉं खड़ी करता है। सब की कविता नहीं, अच्छे कवियों की कविता को देखते ही पता चल जाता है कि यह कविता कैसी है। इससे हमें किस तरह पेश आना है। क्या इससे चुनना बीनना है। आप जैसे काव्यशास्त्र विनोदी व्यक्ति से ऐसा विनिमय हो, यह मेरा सौभाग्य है। शास्त्रार्थ तो संस्कृत की परंपरा ही रही है। कहा भी गया है, काव्यशास्त्र विनोदेन कालोगच्छति धीमताम्। ऐसी प्रशस्त दुनिया में कोई ऐसा हो जो आपके दोष गिनाए, उससे बेहतर मित्र और कोई नही है। जितनी गहराई में जाकर आपने इन्हें पढ़ा है, मैं नतशिर हूँ उसके लिए। बाकी कवियों की उड़ान का क्षितिज इतना व्यापक होता है कि उसका कहीं ओर छोर नहीं मिलता। माघ में कालिदास में भास में भवभूति में यह उड़ान मैने महसूस की है जब गुरूजन इनके काव्य की व्याख्या करते थे।
जवाब देंहटाएंअशोक वाजपेयी की चाहे लोग भले ही निंदा करें, उनकी कविता, कला संगीत और व्यापक अध्ययानाभिरुचि और तार्किक वक्तृता की सराहना करनी पड़ती है। जब वे लिखते है:
शब्द से भी जागती है देह
जैसे एक पत्ती के आघात से
होता है सबेरा।
तो कितना भली लगती है कवि की यह कल्पना। पर तार्किकता का विनियोग कर देखें तो शब्द से देह तो जागती है बेशक, उसका अनुभव शब्दसंवेद्य हर व्यक्ति को होता है, पर एक पत्ती के आघात से सबेरा भला कैसा होता है। यह नही मालूम । क्या पता अशोक जी के यहॉं इस कल्पना या अवधारण का कोई सार्थक प्रत्युत्तर हो। न भी हो तो कहने की भंगिमा देखिए। अंदाजे बयॉं देखिए।
किं बहुना। मै तो अपने को साहित्य का रसास्वादक ही मानता हूँ। कभी भी खटिया खड़ी करने के भाव से नहीं लिखता । क्योंकि यदि उस भाव से कोई लिखे तो हर चीज खारिज ही हो जाए। पर ऐसी कोई चीज दुनिया में नही बनी जिसकी उपयोगिता न हो, ऐसा कोई शख्स नहीं जिसके प्रशंसक और निंदक न हों। यहॉं तक कि तुलसी और मर्यादा पुरुषोत्तम तक के भी। तो इसमें बुरा मानने की कोई बात ही नहीं है। बाकी मीर ने कह रखा है:
हैं कुछ खराबियॉं मेरी तामीर में जरूर
सौ मरतबा मिटा के बनाया गया हूँ मैं।
जी, ठीक कह रहे हैं। वैसे उपमाओं और दृष्टान्तों को लागू करने की भी अपनी एक सीमा होती है। आस्वाद का विवेक हर मनुष्य में होना ही चाहिये, लेकिन एक सीमा के बाद रसिक भी संदेह के घेरे में आ जाता है। आलोचक की आस्वाद क्षमता गहरी तो हो, लेकिन आलोचन-विरेचन भी उतना ही सम्यक होना आवश्यक है, अन्यथा धारा में बह जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। हमारे पौराणिक आख्यानों में बहुत कुछ अब भी हमारी अमूल्य धरोहर की तरह है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी है जो अब प्रासंगिक नहीं भी रहा। यह परिमार्जन और अपने को अद्यतन करते रहना हमारे समय ओर कला-माध्यम की अपनी आन्तरिक आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंनंद जी, वह तो पुराणमित्येव न साधु सर्वमू्--- कहा ही गया है। पुरातन की प्रासंगिकता की जॉंच सदैव परवर्ती पीढी को करते रहना चाहिए। इसीलिए मिथक काव्य जहॉ पुरातन और अतीत के व्यामोह में घिर जाते हैं वे प्रांसगिकता और समकालीनता के आईने में रचना का पुननिर्माण करने में विफल रहते हैं। आखिर क्या वजह है कि मिथकों पर लिखे गए काव्यों में केवल कुछ ही ---और हाल में कुँवर नारायण का 'वाजश्रवा के बहाने' ही ध्यातव्य है। इसलिए कि कवि अपने समकाल में अवस्थित होकर पीढ़ियों के द्वंद्व से मुक्त पिता के अंत:करण का प्रक्षालन करना चाहता है। वाजश्रवा के बहाने आज के समय को भी देखना चाहता है। तभी तो वह कहता है:
जवाब देंहटाएंमैं तुम्हे हमेशा ही । कुछ जीता हुआ, कुछ बीता हुआ दिखूँगा/किसी भी वर्तमान की सचाइयों में/एक सत्यापित दस्तावेज़ सा उद्धृत।(वाजश्रवा के बहाने) और भी देखें:
अचानक रसातल में डूब जाती है नदी/मरुथल हो जाती है सभ्यता/ विलुप्त हो जाता है समाज/ फिर भी गूँजते रह जाते हैं समय में/ कुछ शब्द-ध्वनियॉं-स्मृतियॉं/भाषा में बह आई फूल मालाऍं। (वही)
साहित्य का लक्ष्य यही है।
और मेरा यही मानना है कि साहित्य के पास, कविता के पास संशयी भाव से नही, खुली सहृदयता से जाना चाहिए।
नंद जी, आपने लिखा है कि '' अब भी लगता है कि हमारी सोच में काफी फर्क है।''------यह फर्क स्वाभाविक है। यह दो पीढ़ियों का फर्क भी है। हर एक के देखने में फर्क होता है। एक ही पदार्थ को देखने का अवबोध हर एक में अलग अलग तरीके से परिलक्षित होता है। इसलिए किसी वस्तु/अंतर्वस्तु का आप द्वारा देखा जाना, मेरे या किसी भी अन्य द्वारा देखा जाना नहीं होता। ऑंखें, मन, दिमाग यानी वही इंद्रियॉं , दिखने वाली चीज वही, पर देखने का यह अंतर सदैव होता है। इसमें संशय नहीं। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर कोपाइ नदी में संतरण पर थे। नौका खे रहे नाविक ने अचानक एक सूँस देखी जो उछल कर जल में ओझल हो गयी। उसने कविवर की ओर मुखातिब होकर कहा , इतने वजन की होगी। कविवर ने उससे उलट देखा कि जैसे वह अस्ताचल की ओर जाते सूर्य को प्रणाम करने के लिए उछली हो और फिर प्रणाम निवेदित कर जल में डूब गयी हो।------यह नाविक ओर एक कवि दृष्टि का अंतर है। यह सौंदर्य सौंदर्य को देखने का अंतर है। तुलसी ने तो कहा ही है: जाकी रही भावना जैसी/प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। कविता हर बार अपने मौलिक रूप में कौंधती है। 'तुमसे जितनी बार मिला हूँ/ पहली पहली बार मिला हूँ'----की तर्ज पर। हर बार दिखने में मौलिक लगना महान कविता की शर्त है। इसलिए आपमें और मेरी सोच में फर्क स्वाभाविक है। यही फर्क नचिकेता और वाजश्रवा में था। वाजश्रवा के द्वारा बूढी जर्जर गायों का दान देकर यश लूटने को वह ठीक नही समझता था, बाकी आगे की कथा आप जानते ही हैं। इसलिए जिसे सोच का आप फर्क बताते हैं, वह व्यक्ति की इनडिविडुआलिटी का सूचक है और यह फर्क होना चाहिए। हमें सोच की रेप्लिकाऍं नहीं गढ़नी चाहिए, सोच में जितना फर्क होगा, देखने की दृष्टियॉं उतनी ही विदग्ध और मौलिक होंगी। अद्वितीय होंगी।
जवाब देंहटाएंआपकी बात से ही अनुप्रेरित होकर सोचा तो ऐसा लगा। आप अन्यथा न लेंगे।
ओम जी ने कुल मिलाकर चार पुस्तकों की अलग-अलग औपचारिक समीक्षाएं ही लिखी हैं, गड़बड़ी यह हुई कि इसे हिन्दी कविता पर एक सम्यक्-नियोजित दृटिपात की तरह पेश या ग्रहण करने की कोशिश की गई। अपर्णा जी व पुनेठा जी की आपत्तियां गौरतलब हैं और नंद जी के सवाल भी गंभीर व विचारणीय। ओम जी की यहां छोटी-छोटी टिप्पणियों से बात नहीं बन पा रही, मेरे ख्याल से उन्हें अब इस पूरे संदर्भ को साफ करने के लिए एक व्यवस्थित लेख लिखने का कष्ट उठाना ही चाहिए। जहां तक विनोद कुमार शुक्ल की बात है, उनके यहां दुर्बोधता और बनावटीपन पाठक को असहज कर देने की हद तक हावी है। वस्तुत: उनका सारा सृजन-उद्यम किसी 'प्रयोग' के बजाय 'दमसाधी प्राणायाम' का अहसास कराता है। भाषा कुल मिलाकर अभिव्यक्ति का माध्यम या साधन है और उसकी कसौटी प्रथमत: और अंतत: सिर्फ और सिर्फ अधिकतम संप्रेषणीयता है। जो भाषा सहज को भी असहज और अस्त-व्यस्त करके उलझा-अटकाकर छोड़ दे, उसे किसी भी तरह सराहना नहीं दी जा सकती। मैं तो कहूं कि विनोद एक ऐसे दर्जी हैं जो कटाव-जुड़ाव वाले अंशों को सीलकर ही नहीं रुकते बल्कि मशीन को धकधकाते हुई कपड़े के चप्पे-चप्पे को सुई से रौंदते हुए-से दिखाई पड़ते हैं। मेरे ख्याल से भाषा की संप्रेषणीयता के प्रवाह को आहत करने वाले किसी भी प्रयास को प्रोत्साहित करना ठीक नहीं। आलोचकों को इस मामले में व्यापक सोच के तहत कदम उठाना और गलत के अस्वीकार का साहस दिखाना चाहिए..
जवाब देंहटाएंश्यामल जी, आपकी बातें पढ़ी। यह सच है कि युवा कवियों के बारे में प्रस्तुत दृष्टिकोण को मेरा प्रस्तावन ही समझा जाना चाहिए,बात इसी आधार पर विस्तार से होगी कभी।प्रासंगिक युवा कवियों पर लगातार लिखता रहा हूँ। जो लोग मुझे लघु या व्यावसायिक पत्रिकाओं में पढ़ते रहे हैं या जिनका अध्ययन व्यापक है,उन्होंने यह लक्ष्य भी किया होगा। कुछ की सूचियॉं गिना चुका हूँ कुछ यहॉं सूचीबद्ध हैं। कुछ आगे भी सूचीबद्ध होंगे,हालॉंकि इन्हीं पर एक व्यवस्थित पड़ताल से युवा कविता का एक व्यापक चेहरा सामने आ सकता है। वेब परिदृश्य के कवियों पर भी मेरी सतत दृष्टि है। इसलिए मेरे उक्त पूर्वोक्त उत्तरों में मेरा लेखन लक्ष्य स्पष्ट है।
जवाब देंहटाएंजहॉं तक श्यामल आपने बात कही है वह ठीक है , जैसा कि बहुधा मित्रों,आ.मोहन श्रोत्रियादि ने कहा भी है कि यह वस्तुत: चार संग्रहों की मुक्त और आबद्ध समीक्षा ही है। बाद के अंश को प्रस्तावन मात्र एवं अनुक्रमणी ही समझें।
जहॉं तक विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की बात है। वे हमारे समय के पेचीदा अनुभवों वाले कवियों में हैं। कविता को बरतने का उनका अपना ढंग है,वे इसके लिए स्वतंत्र भी हैं। अत: चाहिए यही कि उन्हें उनके अंदाजेबयॉं के अनुरूप ही समझा जाए। यही किया है मैंने। यों वे शब्दशक्तियों का बेहतर और बारीक इस्तेमाल करने वाले कवियों में हैं इसलिए उन्हें कतई हल्के ढंग से नही लिया जा सकता। इस संग्रह में वे प्रसंगत: पिछले संग्रहों से ज्यादा खुल कर स्थानीय मसलों में सामने आए हैं। हिंदी में ऐसा और कोई कवि नही है। इसलिए वे हिंदी कविता की एक विरल ताकत हैं और अपने तई कविता की एक नई प्रजाति के प्रस्तावक प्रवर्तक भी हैं। उनकी कविता भीड़ में कहीं गुम नही हो सकती। उसमें पद पद पर उनके हस्ताक्षर हैं। वे शैलीकार कवियों में हैं। और जिसकी अपनी कोई शैली न हो वह मेजर पोयट नहीं हो सकता। श्यामल जी हम आप बैठेंगे तो आपका इस बारे में निश्चय ही मुझसे मतैक्य होगा। मुझे भी वह बहुत कठिन लगते रहे हैं लिहाजा पहली बार इस वयस्क उम्र में कलम उनके लिए उठाई है और प्राय: मलय जैसे कवियों और लोगों ने मेरे विश्लेषण को ठीक ही बताया है। अपर्णा मनोज जी जैसी कवयित्री ने भी यह बात शुरुआत में ही कही और महसूस की है। नंद जी के संशयों का उत्तर मैंने यशाशक्य विवेक और काव्योचित उदारता से दे दिया है और वे मुझसे बहुत हद तक सहमत भी हुए हैं। आलोचक की इंडिविडुआलिटी को वे भी दुराग्रह न मानेंगे। न ही वे भी उसे सर्वानुमति पर चलने की सलाह देंगे। आलोचक आलोचक के बीच स्वाभाविक फर्क होता ही है, और वह सर्वथा रहेगा,और वह होना भी चाहिए। उसी तरह जैसे आजादी की लड़ाई में सहबद्ध होते हुए भी गॉंधी के सपनों का भारत नेहरू के सपनों का भारत नही है। जैसे विनोद कुमार शुक्ल की कविता शतप्रतिशत उनकी ही कविता है अपनी मौलिकता में, वैसे ही मेरी समीक्षा आलोचना या प्रस्तावना मेरी अपनी है, किसी अन्य के अवधारण के विपरीत सर्वथा अपनी सरणि अपनाने वाली और अपनी कसौटियों पर उल्लेख्य कवियों को दृष्टि में रखने वाली।
आशा है श्यामल जी, मेरी बातों से सहमत होंगे।
बंधुवर ओम निश्चल जी, यहां आपकी समीक्षाओं में व्यक्त दृष्टिकोणों पर स्वाभाविक रूप से किसी को भी किसी खास अंश ( या कुछेक भी ) अथवा समूची दृष्टि से भी असहमति हो सकती है। असहमति का क्या अन्यथा लेना, बातें तार्किक और विमर्शापेक्षी हों, तो बगैर तैश खाए आगे बातें होनी चाहिए। दरअसल, कतिपय पंक्तियों के हवाले से इसी आलोक में रचनाकार-विशेष के समूचे रचनात्मक व्यक्तित्व को लक्षित कर देना, मेरे ख्याल से समालोचकीय सरलीकरण से अधिक कुछ और नहीं। इस तरह, बेशक, चारों समीक्षाओं में कई स्थलों पर कतिपय अंशों/स्थापनाओं से मेरी भी पूर्ण सहमति नहीं बन पा रही, कभी मौका निकल सका तो अपनी बात को सप्रसंग दर्ज करने का प्रयास होगा। जहां तक विनोद जी की भाषा को लेकर मेरी धारणा का सवाल है, आपकी ताजा टिप्पणी के बाद भी यह जस की तस है। मुझे इसकी क्लिष्टता या दुरुहता को लेकर कोई खास शिकायत नहीं, थीम की मांग हो तो उसके अनरूप भाषा को किसी भी स्वाभाविक संश्लेषण की सीमा तक जाने से नहीं रोका जाना चाहिए। मैंने उनके उपन्यास और कविताओं में से जितना कुछ भी देखा है, उसके बाद मुझे उनमें जो समस्या दिखती है वह यही कि उनकी रचनाएं वस्तु-रूप में तो कहीं कुछ खास गहन या विरल नहीं प्रस्तुत कर पातीं किंतु भाषा में दुर्बोधता सारी सीमाएं रौंदती ही चली जाती है। आप मुझे जरा उनकी किसी भी ऐसी रचना के बारे में समझा दीजिए जिसका कोई भी अनुभव अपने वस्तु-स्तर में ऐसा हो जिसे व्यवहृत सर्पीले अंदाज से अलग अपेक्षाकृत बोधगम्य शैली में व्यक्त करना सर्वथा असंभव ही हो। चूंकि इस संदर्भ में आपने भी जोड़ा है, लिहाजा विनोद जी की भाषा के बारे में बात करते समय यहां निश्चय ही मेरे ध्यान में मुक्तिबोध का रचना फलक भी है। मुक्तिबोध कहीं जटिल तो कहीं दुरुह भी हुए हैं किंतु ऐसे स्थलों पर उनकी भाषा अपने इस स्वरूप के साथ सहमत भी करती चलती है। वह ऐसा अहसास कराती चलती है कि 'इसे' इससे अलग किसी अन्य रूप में इस प्रभावशाली अंदाज में कदापि नहीं कहा जा सकता था। इसलिए वह ( मुक्तिबोध ) कम से कम मेरे लिए अब तक कहीं दुर्बोध तो कदापि नहीं हुए। इसके विपरीत विनोद जी की भाषा अपने 'रूप' के पक्ष में कोई तर्क या सहमति का आधार महसूस नहीं करा पाती। बहरहाल, मिलेंगे तो इस पर भी सविस्तार बतियाया जाएगा.. मेरे ख्याल से, यहां जो कुछ मैंने कहा है, इसमें अन्यथा लेने जैसा शायद कुछ नहीं.. इसके बावजूद आग्रह है, हम इसे चर्चा के रूप में ही लें..
जवाब देंहटाएंश्यामल जी,आपकी बातें ध्यान से पढीं। जो समस्या दुरूहता की आपने शुक्ल जी की कविता या उपन्यासों के बारे में उठायी हैं, उनसे मेरी असहमति नही है। सहमति ही है। एक आम खयाल उनके बारे में यही है। पर इस सहमति के बावजूद उन्हें अपनी दृष्टि से पढने समझने की कोशिश की है। कहॉं तक सफल हुआ हूँ, यह तो पाठक ही बता सकते है,वे पाठक जो उतना ही डूब कर उनके भीतर उतर कर उन्हें पढते गुनते रहे हों। यह तो मानना ही होगा कि वे एक बडे कवि हैं और अपनी धुन में लिखने वाले कवियों-कथाकारों में हैं। वे अनर्गल रच रहे हैं ऐसा हम नही कह सकते।
जवाब देंहटाएंरही बात असहमतियों की तो, असहमतियां भी मति से ही चालित -परिचालित होती हैं, इसलिए किसी विमर्श या प्रत्याख्यान में ये तार्किक अहसमतियां कभी कभी जंग लगे ताले को खोलने में कामयाब भी होती हैं। बहरहाल मिलेंगे, इन संशयों, उपपत्तियों, निष्पत्तियों ओर अपनी अपनी असहमतियों के साथ और एक मीठी चाय की दरकार के साथ भी। सुबह के स्नेहिल अभिवादन के साथ।
ओम जी, आग्रह है कि मेरी ऊपर की टिप्पणी को पुन: एक बार देखें.. मैंने दुरूहता नहीं, उनकी भाषा की दुर्बोधता ( ...मुझे इसकी क्लिष्टता या दुरुहता को लेकर कोई खास शिकायत नहीं, थीम की मांग हो तो उसके अनुरूप भाषा को किसी भी स्वाभाविक संश्लेषण की सीमा तक जाने से नहीं रोका जाना चाहिए। मैंने उनके उपन्यास और कविताओं में से जितना कुछ भी देखा है, उसके बाद मुझे उनमें जो समस्या दिखती है वह यही कि उनकी रचनाएं वस्तु-रूप में तो कहीं कुछ खास गहन या विरल नहीं प्रस्तुत कर पातीं किंतु भाषा में दम साध के गढ़ी या ठूंसी हुई दुर्बोधता सारी सीमाएं रौंदती ही चली जाती है।... ) को संकेतित किया है.. बहरहाल, मिलेंगे तो चाय-चौचक चर्चा अवश्य होगी.. अनंत शुभकामनाएं..
जवाब देंहटाएंभाई, उसी दुर्बोधता को मै दुरूहता कह रहा हूँ। वह भाषा और उनके प्रयोगों दोनों में झलकती है। भाषा समझ में आ जाए फिर भी कविता न आए, ऐसा उनके यहॉं बहुधा होता है। भाषा तो आमफहम ही है, उसे बरतने का ढंग बिल्कुल अलग है। इसलिए यह दुरूहता भाषा और उसकी प्रायोगिक दुरूहता दोनों से जुड़ी है। जैसे देखें कि वे कहते हैं: पेड़ में बहुत सारी पत्तियॉं हैं, अतिरिक्त एक नहीं।----अब ऐसे प्रयोग उनकी अपनी ईजाद हैं। पर यह तो समझ में आ जाती है , पर एक और प्रयोग देखें:
जवाब देंहटाएं''उसने उसके स्पर्श का अनुमान लगाना चाहा/लगा कि अनुमान में स्पर्श का गुणआ रहा है/ उसने अनुमान लगाया अग्नि/वहथोड़ा जल गया/ उसने अनुमान लगाया जल/ वह थोड़ा डूब गया/ उसने धूप का अनुमान लगाया/और उसने छुआ कि सूर्य को ढँके हुए बादल हट गए हैं/ उसने अंतरिक्ष का अनुमान लगाकर ऐसा गहरा स्पर्श किया कि नक्षत्रों की बाढ़ में वह थोड़ा डूब कर भीग गया/
जब उसने उसके स्पर्श का अनुमान लगाना चाहा/ तब वह उसके स्पर्श का अनुमान ठीक ठीक नही लगा सका। ''
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था---कविता भी ऐसी ही है पर एक बार विनोद जी की ऐसी कविताओं में मन रम जाए तो लगेगा, कहां थे अब तक। कविता तो यहॉं है। हां कुछ दिमागी (दिली नही)मशक्कत जरूर करनी पड़ती है। तो श्यामल जी विनोद जी के बहुत से फैन है जिनके लिए उनकी कविताऍं अद्वितीय होती हैं। आज के कवियों में गीत चतुर्वेदी मे कुछ कुछ ऐसे गुण दीख पड़ते हैं। देवीप्रसाद मिश्र में हैं। व्योमेश इस रास्ते पर हैं पर वे कही कहीं अधिक अगोचर और अमूर्त का संधान करते जान पड़ते हैं, पर उनमें यह इल्म है कि शब्दों से कविता का क्राफ्ट कैसे एक नवाचार में बदला जा सकता है। पर इस कला में एक निष्णात कवि ओर हैं--जगूड़ी ---कविता की आईआईटी के कुलपति। उन्हें पढ़ने पर आप उन्हीं के मुरीद बन जाऍं। दूसरों की कविताऍं फीकी लगने लगें---इतना जबर्दस्त प्रभाव होता है। हालॉंकि इस दुरूहता की कवायद में कोई क्यों फँसे। एक तो फुर्सत निकालो कविता पढने के लिए , दूसरे इस कसौटी सेगुजरे बिना वह समझ ही न आए। तो यह चुनौती या जोखिम इन कवियेां के साथ है।
अब मिलिए तो बात हो। यह काग-भुशुंडि संवाद कब तक जारी रहेगा?
मित्रवर ओम जी, वाह.. आप तो विनोद जी की दुरूहता के आरोह-अवरोह में इतने डूब चुके हैं कि उनकी भाषा का ' दुर्बोध ' अब आपको सद्बोध-सुख से भरने लगा है... स्वाद के संसार में कभी-कभी ऐसे रसास्वादक मिल जाते हैं जो चबाते तो कचर-कचर मिर्ची हैं किंतु उनके चेहरे से मिष्ठान-सुख झरता है.. मजा आया... मिलेंगे तो मजा आएगा..
जवाब देंहटाएंश्यामल, आप तो अखबार के सुधी संपादक हैं, 'जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालों' की साहसिक परंपरा के हामी। पर जब शब्द मुकाबिल हों तो ज़रा अदब से झुक कर मिलना पड़ता है। कविता एक ऐसा फलदार वृक्ष है कि उसके सामने जाने पर ज़रा विनम्रता से जाना पड़ता है, अकड़ के साथ्ा नहीं। अकड़ से कविता पकड़ में नहीं आती। वह दूर छिटक जाती है, फिर आप चाहे जैसी अश्व या वृषभ शक्तियों का इस्तेमाल करें।
जवाब देंहटाएंश्यामल जी, मेरा मानना है कि कविता से हमेशा एक प्रेमिका की तरह मिलना चाहिए, खलनायिका की तरह नहीं। यह कविता से सघन आशिकी के बिना संभव नहीं। आशिक तो आप भी हैं, पर इन दिनों शायद आपकी प्रेमिका कोई और है। (प्रियवर, खुलासे की जरूरत नहीं है। )
श्यामल भाई की इस बात से मेरी पूरी सहमत हूँ कि विनोद शुक्ल की रचनाएं वस्तु-रूप में तो कहीं कुछ खास गहन या विरल नहीं प्रस्तुत कर पातीं किंतु भाषा में दुर्बोधता सारी सीमाएं रौंदती ही चली जाती है। ......जो रचनाएँ सम्प्रेषनीय नहीं वह अनर्गल प्रलाप से अधिक कुछ नहीं. कुछ लोग उनकी कितनी ही तारीफ कर लें उससे वह बड़ी नहीं हो जाती हैं. कोई भी रचना सहृदयों के बल पर ही छोटी या बड़ी होती हैं.
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