बहसतलब : रचना और आलोचना का सवाल :३:मोहन श्रोत्रिय



बहसतलब के अंतर्गत रचना और आलोचना के सवाल पर गोपाल प्रधान और जगदीश्वर चुतर्वेदी के वैचारिकी-क्रम को आगे बढ़ा रहे हैं लेखक मोहन श्रोत्रिय. आलोचना के संकट पर विचार करते हुए हिंदी आलोचना की परम्परा के छल-छद्म  को जहां दृष्टि में रखा गया है वही पश्चिमी आलोचना – पद्धति की राजनीति पर भी नज़र है. उनका मानना है कि आलोचना का संकट व्यापक सांस्कृतिक-सामाजिक संकट का लक्षण-भर है, दरम्यान   विचारधारा की अनिवार्यता और उसकी प्रासंगिकता जैसे मुद्दे गंभीरता से उठे हैं. वैचारिक रूप से सघन आलेख.  








 आलोचना संकट में है, बेशक      
मोहन श्रोत्रिय  

इस संकट के कई कारण हैं, पर मुझे जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण लगता है, वह है खुलेपन का अभाव. यानि पारदर्शिता का ग़ायब हो जाना. मूल्यांकन के उपकरणों की जांच न किया जाना, और बदलते यथार्थ की जटिलता के अनुरूप नए प्रतिमानों के सूत्रीकरण की ज़रूरत के प्रति उदासीनता. बोले हुए और लिखे हुए के प्रति जवाबदेही  का निरंतर कम होते जाना.

पुरानी उक्ति है कि यदि आप केवल अपना विषय ही जानते हैं, तो सही अर्थों में अपना विषय भी नहीं जानते. सीधे शब्दों में इसका अर्थ यही है कि अपना विषय भी तरीक़े से समझने के लिए विषय के इतर भी बहुत कुछ समझना होता है क्योंकि कोई भी विषय ऐसी चौहद्दी के भीतर क़ैद नहीं होता कि इधर-उधर की थोड़ी सी भी हवा उसे न लग पाए. साहित्य तो इस दृष्टि से इसे अनिवार्य बना देता है कि ज्ञान के अन्य अनुशासनों से प्रत्यक्ष परिचय किए बगैर साहित्यिक आलोचना-कर्म असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल अवश्य हो जायेगा क्योंकि साहित्य में मनुष्य के विभिन्न रूप आते हैं या उन्हें आना चाहिए. मनुष्य के अध्ययन के लिए कई पृथक अनुशासन हैं. एक नृतत्वशास्त्री मनुष्य का अध्ययन एक कोण से करता है, जबकि समाजशास्त्री का नज़रिया अलग होता है.

अर्थशात्री जब मांग एवं आपूर्ति की चर्चा करता है तो भी उसके अध्ययन का संदर्भ-बिंदु मनुष्य की ज़रूरतें, और उत्पादकों तथा आपूर्तिकर्ताओं की कारगुज़ारियां भी होती हैं. बदले संदर्भों में पुरानी परिभाषाएं काम की नहीं पाई जातीं तो इन्हें नए ढंग से प्रस्तुत करने की ज़रूरत भी महसूस की जाती है. तो ज़ाहिर है कि जब 'इस' मनुष्य के भावों, अनुभूतियों, अनुभवों और उसके दैनंदिन संघर्षों, टकरावों, भटकावों आदि से साहित्य का कच्चा माल उपलब्ध होगा, और रचनाओं में रूपायित होगा तो यह कैसे संभव है कि बिना इन विविध(चाहे, ऊपर से असंबद्ध-दिखते) विषयों की जटिलताओं से सीधे परिचित हुए, रचना की आलोचना में दाखिल और दीक्षित हुआ जा सकता है, पारंगत होने की तो बात दूर की है.

नवजागरण काल के लेखकों-आलोचकों की बौद्धिक तैयारी की ओर संकेत किया है, गोपाल प्रधान ने, अपने व्यवस्थित आलेख में. महावीरप्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का उल्लेख भी किया है. आगे, रामविलास जी का भी उल्लेख किया है. बहु-श्रुत और बहु-पठित होने का सिलसिला इनके साथ ही समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि आगे भी चलता है. नामवरजी में तो मिलता ही है, थोडा और आगे चलें, तो मैनेजर पांडेय तक भी आता है. पर फिर भी आलोचना का संकट यदि बरकारार रहता है -जो कि सच है- तो उसके कारणों की पड़ताल कहीं -किसी दूसरे तल पर करनी पड़ेगी.

अज्ञेय की एक कविता की पंक्ति है " ये उपमान मैले पड़ गए हैं...."  वह जब 'उपमानों' की बात कर रहे थे तो उनका तात्कालिक संदर्भ काव्य-मुहावरा था. साथ ही वह उपमानों के मैले पड़ जाने का खुलासा भी कर रहे थे एक रूपक के ज़रिए. प्रकारांतर से यह बात आलोचना पर भी लागू होती ही है. क्यों नहीं? यह दूसरी बात है कि अज्ञेय जिस तरह 'कलगी बाजरे की' को सौंदर्य के नए प्रतिमान के रूप में प्रस्तावित कर रहे थे, वह चला नहीं. पर वह एक अलग चर्चा-विमर्श की मांग करता है. हमारा वास्ता यहां आलोचना के संकट से है, तो सोच कर देखें कि हिंदी आलोचना में नए प्रतिमान निर्मित किए जाने का कोई विश्वसनीय प्रयास हुआ भी था क्या! नामवरजी के प्रतिमानों का जितना शोर था, क्या वे एक विश्वसनीय कसौटी बना सके, मूल्यांकन की? उन प्रतिमानों के स्रोत क्या थे? क्या अंग्रेज़ी के "न्यू क्रिटिसिज़्म" से उधार लिए प्रतिमानों की उनकी मार्क्सवादी दृष्टि के साथ कोई संगति बैठ सकती थी? प्रतिमानों का घालमेल उसी किताब में मूल्यांकन के घालमेल के रूप में भी सामने आया. मुक्तिबोध भी "वाह", और विजयदेव नारायण साही तथा उनकी मंडली भी "वाह" ! इसे "विरोधों को साध लेने की कला" कहकर पिंड छुड़ाना चाहें तो बात और है. मुक्तिबोध की कविता तो नए और विश्वसनीय प्रतिमान घड़ने का तमाम समान उपलब्ध करा देती है. वहां नज़र क्यों नहीं गई? "ज्ञानात्मक संवेदन" और संवेदनात्मक ज्ञान" तो दूर तक प्रतिमानों का आधार निर्मित कर सकता था. पर वैसा होना न था. क्योंकि वैसा हो जाने पर चर्चा के केंद्र वे कवि नहीं बन सकते थे, जो बने.

'पाठ' का 'असंदिग्ध' महत्व है, यह ऐसा एक सूत्र है जिस पर अंग्रेज़ी नव आलोचना और मार्क्सवादी स्थापनाओं में कोई विमति नहीं है. पर विमति का न होना सिर्फ़ यहीं तक सीमित है. मार्क्स-एंगेल्स ने जो कुछ भी कहा बाल्ज़ाक के बारे में, और लेनिन ने जो लिखा तोल्सतोय के बारे में वह इस सूत्र के पक्ष में खड़ा होता है. पर इनके निहितार्थों पर भी ध्यान देना ज़रूरी है. यहां विस्तार में जाने का अवकाश नहीं है, इसलिए एक शब्द से ही काम चलाऊंगा, और वह है "यथार्थ". बहुत लोग चौंके थे जब लेनिन ने तोल्सतोय को "क्रांति का दर्पण" कहा था. तोल्सतोय और क्रांति में कोई भी तो मेल नहीं था. तत्कालीन रूसी सामाजिक यथार्थ को तोल्सतोय ने जिस तरह पकड़ा और चित्रित किया, वह 'यथार्थ' क्रांति का उत्प्रेरक बना, अन्य कारकों के साथ. फ्रांस में जिस समय ज़ोला का जलवा शवाब पर था, उस समय यथार्थ की गहरी पकड़ के आधार पर बाल्ज़ाक महत्व को रेखांकित करने का ऐतिहासिक महत्व का काम किया, मार्क्स-एंगेल्स ने. गौर से देखें तो "विचार, विचारधारा" और "वैचारिक आग्रह" संबंधी बहुत-सी नासमझियां भी दर-किनार हो जा सकती हैं. मूल बात यह होनी चाहिए कि "पाठ" आपको ले कहां जा रहा है? अग्रगामी है या पीछे धकेल देने वाला? और इस तरह देखने पर विचार 'विजातीय' अथवा गैर-साहित्यिक दिखना बंद कर देता है. लेकिन यहां यह जोड़ा जाना अप्रासंगिक नहीं माना जाना चाहिए कि 'पाठ' को निरे उस अर्थ में नहीं लिया जा सकता जिस अर्थ में आई. ए. रिचर्ड्स ने प्रस्तावित किया था. पाठ के साथ रचनाकार के जीवन से जुड़े कतिपय पक्ष भी ध्यान देने योग्य तब बन जाते हैं जब अलग-अलग रचनाएं किसी 'फांक' की तरफ़ इशारा करती हों. 'भोक्ता मनुष्य' और 'सर्जक मस्तिष्क' (THE MAN WHO SUFFERS AND THE MIND THAT CREATES) के द्वैत को स्वीकारना कितनी ही बार ग़लत/ सही के भेद को धुंधला कर देता है. और इसी का प्रच्छन्न लाभ वे लेखक लेना चाहते हैं जो किसी भी प्रकार की रचनात्मक जवाबदेही से बचना चाहते हैं.

पश्चिमी प्रतिमानों को उस समय के 'बड़े' मने जाने वाले कवि और कुछेक आलोचकों ने प्रच्छन्न स्वीकृति दी. इन प्रतिमानों के साथ आए "कुंठा", "संत्रास", "आत्म-परायेपन" के भाव और उनकी औचित्य-रक्षा के रूप में घड़े गए "भोगा हुआ यथार्थ" के प्रतिमान की पड़ताल कर लेना भी इस दृष्टि से काफ़ी दिलचस्प होगा, शिक्षाप्रद भी. पश्चिमी जीवन के यथार्थ को भारतीय भूमि पर प्रत्यारोपित करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? मज़ेदार बात यह है कि दूसरे पैरा में उद्धृत पंक्तियों में अज्ञेय  नया काव्य मुहावरा गढने से शुरू करके भोग हुआ यथार्थ को एक नए प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने की वकालत करने लगते हैं. इसका मक़सद ? यथार्थ के बरक्स एक नई सरणी की प्रस्तुति.जो वास्तविक है वह अवास्तविक बन् जाता है, अगर गहराई से देखें तो पश्चिम के विकसित पूंजीवादी समाजों में कुंठा, संत्रास और आत्म परायापन उस दौर की वास्तविकता हो सकती थी, भारतीय समाज की नहीं, क्योंकि तब तक न ऐसी महानगरीयता ही आई थी, न पारंपरिक साझे जीवन की व्यवस्थाएं चरमराई थीं.

भोगे हुए के नाम पर कुछ भी 'पेला' जा सकता है. हमारे यहां ऐसे लोगों की कमी नहीं रही है जो "नंगे पैर चलने की पीड़ा" को अनुभव करने के लिए "जूतों में कंकड" डाल कर चला करते थे. यह वास्तविक पीड़ा का उपहास भी है, और ग़लत सादृश्य स्थापित करने की कुचेष्टा भी. निर्मल वर्मा की एक कहानी की नायिका प्लेटफॉर्म पर चलती-चलती इस चिंता में घुल और घायल हो जाती है कि उसका उठा हुआ पांव यदि ज़मीं पर नहीं आया तो? और यह 'इतना बड़ा करके दिखाया जैसे यह उसके लिए जीने-मरने का सवाल बन गया हो. यह भाववादी किस्म की पीड़ा लोगों की वास्तविक पीड़ा के बरक्स खड़ी कर दी गई. यह अकारण नहीं था, बल्कि पूरी तरह सुविचारित था. निस्संग भाव से सोचें तो यह प्रतिमान खतरों/ चतुराईयों से भरा था. एक ओर जहां इसका उद्देश्य वस्तुगत यथार्थ से लोगों का ध्यान हटाना था, तो दूसरी ओर लेखकीय जवाबदेही का निषेध करना था.


विचार-शून्य कोई भी काम नहीं होता, मनुष्य का, तो कवि-कर्म/ आलोचना-कर्म भी ऐसा कैसे हो सकता है. टी. एस. इलियट (जो ईसाइयत की पुनर्स्थापना को वैश्विक संकट से उबरने का एक मात्र तरीक़ा बताते थे अपने साहित्येतर लेखन में, पर कविता में कवि-व्यक्तित्व के प्रतिबिम्बन के खिलाफ थे) के निबंध Tradition and Individual Talent की स्थापनाओं को यहां के कलावादी/रूपवादी/प्रयोगवादी कवियों ने जिस तरह कसौटी बना दिया उससे भी आलोचना की वस्तुपरकता को काफ़ी नुक़सान पहुंचा क्योंकि इसे न केवल रचना प्रक्रिया के अनिवार्य अंग के रूप में पेश किया गया, बल्कि आलोचना की कसौटी के रूप में भी प्रस्तावित किया गया. इसे व्यापक मान्यता भी मिली. यह जानना कम दिलचस्प नहीं होगा कि पश्चिम में इलियट को वह मान्यता नहीं मिली जो यहां सहज रूप से मिल गई. डेविड डेशीज़ जैसे आलोचक उन्हें 'छोटे कवियों के बीच बड़ा कवि' (major poets among minor poets) ही मानते थे. (कॉडवेल की तो बात ही अलग है जिन्होंने २९ वर्ष की आयु में मृत्यु से पहले लिख छोड़ी अपनी कृति Romance of Realism में इलियट की मान्यताओं को ऐसे ध्वस्त किया कि उसका खंडन किया ही नहीं जा सका). यह अभी तक रहस्य बना हुआ है कि ऐसे इलियट को यहां विचार के विरोध के प्रबल अस्त्र के रूप में मान्यता देने-दिलाने वाले कवि भी प्रच्छन्न रूप से विचार डाल ही रहे थे कविता में ! अज्ञेय की ये पंक्तियां देखिए :

"अच्छी कुंठारहित इकाई
सांचे ढाले समाज से
अच्छा अपना ठाठ फ़क़ीरी
मंगनी के सुख-साज से."

किसी टिप्पणी की मोहताज नहीं हैं ये पंक्तियां. देख लीजिए इनकी धमक कहां-कहां तक सुनाई पड़ती है! प्रगतिवादी कविता को हाशिए पर डाल देने की सदेच्छा का ही यह परिणाम था यह. आलोचना की जिस सुविज्ञ-सुपठित परंपरा का उल्लेख गोपाल प्रधान ने किया है, उसके संवाहक आलोचक भी इस स्थिति को गड्डमड्ड करने के लिए कम ज़िम्मेदार नहीं हैं, बिना उपयुक्त प्रतिमान सामने रखे हुए आलोचना का खेल चलता रहा. साहित्य में विचारों का वही महत्त्व होना चाहिए जो जीने के लिए वायु का होता है. यह कह देना काफ़ी नहीं होना चाहिए कि 'विचार' साहित्य को 'प्रचार' में बदल देता है. कौनसा साहित्य ऐसा है जो किसी न किसी मूल्य को प्रचारित नहीं करता? साहित्य का कार्यभार/ प्रकार्य(function) क्या है? समाज का दर्पण होना / उसे रूपांतरित करने का उपकरण होना / समाज के आगे 'मशाल' लेकर चलना / पाठकों की रुचियों को परिष्कृत करना / एक बेहतर समाज का सपना सौंपना - ये सब या इनमें से कोई एक भी संभव है क्या बिना विचार के? तुलसी जब मंगलाचरण में ही मानस के शास्त्-सम्मत होंने का विवरण देते हैं तो क्या वे किन्हीं ग्रंथों और मूल्यों का प्रचार नहीं कर रहे होते हैं? मुझे तो लेनिन की यह उक्ति न केवल व्यावहारिक लगती है बल्कि साहित्य-कर्म के लिए सटीक भी : "हर साहित्य प्रचार होता है, किंतु हर प्रचार साहित्य नहीं होता."

उत्तर -आधुनिकता के प्रभाव में विमर्शों का ज़बर्दस्त दौर चला है, हिंदी साहित्य में. मैं कोई ख़ास टिप्पणी नहीं करना चाहता इस पर. वैसे भी जगदीश्वर ने विस्तार से अपनी बात कह ही दी है, इस मुद्दे पर. एक छोटा सा सवाल ज़रूर है, और वह जुड़ा है रवीन्द्र नाथ ठाकुर की एक कहानी "स्त्रीर पत्र" से. यह कहानी हिंदी में 'पत्नी का पत्र पति के नाम' से आई. स्त्री-विमर्श पर इससे बेहतर रचना इस अल्प-ज्ञानी ने तो नहीं पढ़ी, आज तक. काल-क्रम की दृष्टि से देखें तो दुनिया भर में, कहीं भी, स्त्री-मुक्ति/ स्त्री विमर्श की शुरुआत से पहले की रचना है यह. विचार करें : क्या इन विमर्शों ने साहित्य की कोई उल्लेखनीय  सेवा की है." हां, कुछ लोग विमर्श-विशेषज्ञ अवश्य बन गए हैं. समाज की "ऐतिहासिक संरचना" का "वस्तुगत मूल्यांकन" करके यदि रचना-आलोचना-धर्म को विश्लेषित-व्याख्यायित करें तो, जिस रूप में विमर्श चल रहे हैं, उनसे हट कर सार्थक ढंग से काम किया जा सकता है/ प्रोत्साहित किया जा सकता है. पर हां, ध्यान आया : उत्तर-आधुनिकतावाद ने तो इतिहास के अंत की घोषणा कर दी है. यथार्थ की भी. स्मृति की भी. स्वप्न की भी. तो ऐसे में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तो किसी भी चीज़ का बचेगा/बनेगा कैसे? और "वस्तुगत" भी तो अपने परे से ही निर्मित होता है!

सही कहा जा रहा है कि आलोचकों/ समीक्षकों ने साहित्य के मूल्यांकन में व्यक्तिगत संबंधों का निर्वहन अधिक किया है. यह अभी भी जारी है. किसी अकेले व्यक्ति पर इसका दोष नहीं मढ़ा जा सकता. जहां बोल कर ही मूल्यांकन हो रहा है, वहां तो 'खुला खेल फ़रुक्खाबादी' है ही. आलोचक जानता है कि उसकी एक टिप्पणी से कोई रचनाकार 'कालजयी' थोड़े ही हो जाएगा, तो चलने दो. क्या फ़र्क़ पड़ता है? एक कवि तो इससे आगे बढ़कर कह ही गए " फ़र्क़ पड़ भी जाए तो भी क्या फ़र्क़ पड़ता है?"  दूसरी तरफ़, रचनाकार दो-तीन ऐसी टिप्पणियों के बूते पर दुनिया भर को ललकारने का अधिकार प्राप्त कर लेता है, कि आलोचक वही जो इन रचनाओं को वैसे ही सराहे वरना वह आलोचक/समीक्षक बनने की अर्हता ही नहीं रखता.

तो मेरी नज़र में यह सिर्फ़ आलोचना का संकट नहीं, एक अर्थ में रचना का संकट भी है. फिर भी उजला पक्ष यह है, कि अनेक समराह साहित्यकार इस संकट की परवाह न करते हुए अपना काम कर रहे हैं. साहित्य, समाज की अधिरचना का हिस्सा होने के नाते सापेक्ष स्वायत्तता का ही दवा कर सकता है. इस अर्थ में, आलोचना का संकट व्यापक सांस्कृतिक-सामाजिक संकट का लक्षण-भर है (symptomatic of the general malaise). समाज में यदि मूल्य-विहीनता का बोलबाला है, तो साहित्य में भी इसका कमोबेश असर तो दिखेगा ही. समाज में अराजकता है, तो साहित्य भी इससे कैसे बचेगा? पूरी तरह तो कभी नहीं. अलग-अलग चेतना-स्तरों पर सक्रिय साहित्यकार फ़र्क़ ला सकते हैं, पर सार्वत्रिक नहीं.

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मोहन श्रोत्रिय
६ दिसम्बर १९४४, भरतपुर, राजस्थान
उच्च शिक्षा जे.एन.यू से 
लेखक, संपादक वक्ता
70 के दशक में चर्चित त्रैमासिक 'क्‍यों' का स्‍वयंप्रकाश के साथ संपादन
राजस्‍थान एवं अखिल भारतीय शिक्षक आंदोलन में अग्रणी भूमिका  
18 किताबों का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद
लगभग 40 किताबों के अनुवाद का संपादन
जल एवं वन संरक्षण पर 6 पुस्तिकाएं हिंदी में तथा 2 अंग्रेज़ी में
कविताओं,कहानियों तथा लेखों के अनुवाद पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.
ख़ुद की भी कुछ कविताएं तथा लेख यत्र-तत्र प्रकाशित.
'रेकी' पर दो पुस्‍तकें: 'रेकी रहस्‍य' और Decoding Reiki'.
ई पता :mshrotriya1944@gmail.com

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  1. मोहन श्रोत्रिय का यह आलेख आलोचना और उसके विचारधारात्मक बुनावटो को समझने-सुलझाने में काफी मदद करता है.आलोचना समाज या विचारधारा से कटा हुआ कोई शुद्ध साहित्यिक उद्यम नहीं है. यह आलोचक की अपनी राजनीतिक अवस्थिति से उपजता है. इलियट के सन्दर्भ में उनकी विवेचना इसे बिल्कुल साफ़ करती है...उसके पहले अज्ञेय के सन्दर्भ में भी. नामवर जी के प्रतिमानों के सन्दर्भ में विपरीतों के समन्वय को जिस साफगोई से उन्होंने दर्ज किया है, वह कमाल की है.

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  2. "यह सिर्फ़ आलोचना का संकट नहीं, एक अर्थ में रचना का संकट भी है." और थोड़ा इसके बाहर और जाएँ तो पाठकों का संकट भी है ..
    रचना पाठक से होते हुए आलोचना के घेरे में आती है .. और एक चौथी state और जुड़ गई है .. बाज़ारवाद .. उपभोक्तावाद जिसने हर तरह से रचनाशीलता को प्रभावित किया है . यदि संकट symptomatic of the general malaise का है तो डाइगनोस्टिक लैब में जाने से पहले इसका उपचार क्लीनिकली संभव है ....
    एक और बात .. बाज़ारवाद ने कला के मूल्यों को बेतरह प्रभावित किया है .. कैथारटिक process का नितांत अभाव है .. और कहीं दीखता भी है तो फतवेबाज़ी व शोर में कुंठित होता दिखाई देता है .
    यदि आलोचना का संकट सांस्कृतिक-सामाजिक संकट का लक्षण-भर है , तो भावी अराजकता का संशय उतना नहीं रह जाता ..

    एक और महत्त्वपूर्ण बात .. ये पुरुषोत्तम सर से बात करने के उपरान्त अधिक समझ आई .. कि हम आज भी औपनिवेशिकता के शिकार हैं . आज का युवा लेखक भारतीय परिवेश में दोपहर का वर्णन करते में अफ्रीका में दोपहर कैसे हुई .. इससे अधिक प्रभावित रहता है .. कवि के पास विदेशी मुहावरा अधिक है .. आप एक मैनरिज्म में पड़ गए हैं . चमत्कार आपको आकर्षित करता है .. लेकिन ये कितना स्थाई है ? मोह भंग होते ही रचना पाठक और आलोचक की परिधि से बाहर चली जाती है .

    मोहन सर ने बहुत अच्छे से कई पहलुओं को सामने रखा है . ये बहस बढ़िया चल रही है . यहाँ भी वही त्रिकोण अपेक्षित है .. रचनाकार , पाठक और आलोचक .. सभी अपने दायित्व को समझते हुए इस चर्चा में हिस्सा लें

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  3. एक बेहतरीन आलेख है और अब तक चली आ रही बहस को नये आयाम देता है। इस लेख की अधिकांश स्‍थापनाओं से मेरी सहमति है। मुझे लगता है कि हिंदी आलोचना में वो समय सबसे खराब समय रहा, जिसमें रामविलास शर्मा जैसे बड़े आलोचकों ने घनघोर पक्षपात करते हुए लेखकों को खारिज किया अथवा महान सिद्ध किया। दुर्भाग्‍य से यही प्रवृत्ति आलोचना के इस कदर पतित होने या कि संकटग्रस्‍त होने का कारण रही है। आज अगर आलोचना दरिद्र है तो इसलिए कि उसके पुरखों ने सामंतों की तरह अपनी और पैतृक, सारी कमाई उड़ा दी। जब रचना को राह दिखाने वाली आलोचना नहीं होगी तो यही होता है जो दिखाई दे रहा है।

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  4. मोहन श्रोत्रिय ने हिन्‍दी आलोचना पर केन्द्रित इस सामयिक बहस को आगे बढ़ाते हुए जिस पारदर्शिता के अभाव, अन्‍य अनुशासनों/विषयों की जटिलता से अपरिचय और वैश्विक स्‍तर पर आलोचना के जिस बहुआयामी परिदृश्‍य की बारीकी से पड़ताल की है, उससे हिन्‍दी आलोचना के वर्तमान संकट की बहुत-सी गुत्थियां खुलती हैं। अंग्रेजी साहित्‍य के गहन अध्‍येता और हिन्‍दी लेखन से गहरा जुड़ाव रखने के कारण वे इस संकट की असलियत को बेहतर तरीके से जानते भी हैं, उसी के चलते उन्‍होंने सामाजिक यथार्थ और रचनाशीलता के अन्‍तर्संबंधों की वस्‍तुपरक विवेचना के बरक्‍स कलात्‍मकता और स्‍वायत्‍तता पर अतिरिक्‍त आग्रहों की जो सटीक व्‍याख्‍या की है, वह ऐसी बहुत सी वायवीय शंकाओं का निवारण कर देती है, जिसे इधर सा‍हित्यिक आलोचना के एक बड़े संकट के रूप में पेश किया जाता रहा है। अपनी टिप्‍पणी का समाहार करते हुए उन्‍होंने बहुत सही कहा है कि "यह सिर्फ आलोचना का संकट नहीं है, एक अर्थ में रचना का संकट भी है" या कि "आलोचना का संकट व्‍यापक सांस्‍कृतिक-सामाजिक संकट का लक्षण भर है।"

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  5. सारगर्भित आलेख! मोहन श्रोत्रिए जी कई महत्वपुर्ण बिदुओं कि सामने रखा है !
    'समाज में यदि मूल्य-विहीनता का बोलबाला है, तो साहित्य में भी इसका कमोबेश असर तो दिखेगा ही. समाज में अराजकता है, तो साहित्य भी इससे कैसे बचेगा? पूरी तरह तो कभी नहीं. अलग-अलग चेतना-स्तरों पर सक्रिय साहित्यकार फ़र्क़ ला सकते हैं, पर सार्वत्रिक नहीं.'
    बहुत सही लिखा है ! मैं पूरी तरह सहमत हूँ उनके इस वकतव्य से !
    सुन्दर आलेख हेतु अशेष सराहना !
    दीप्ति

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  6. अरुण जी, आपको बधाई, नव वर्ष पर आपने मोहन जी के इतने सार्थक, अर्थपूर्ण लेख से अवगत कराया. आलोचना का संकट महज साहित्य का प्रश्न नहीं है, समाज की हर चिंतनशील इकाई का यह यक्ष प्रश्न है और जिस प्रकार मोहन सर ने इसकी व्याख्या की है उससे इस विषय के सभी कोणों को आसानी से देखा-परखा जा सकता है. उत्तर आधुनिक काल में यह प्रश्न सिर्फ़ साहित्य तक महदूद नहीं रहा इसकी आंच ज्ञान के सभी अंगों पर आयी है और इसका जवाब भी सिर्फ़ साहित्य के नुक्ते नज़र से न दिया जाना चाहिये और न ही मोहन सर ने दिया है.
    गोपाल प्रधान और जगदीश्वर चतुर्वेदी की बहस और उठाये गये प्रश्नों और वैचारिक द्वदों को मोहन सर ने एक कदम आगे बढाया है. धन्यवाद

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  7. मोहन जी ने विमर्श को और व्यापक बनाया है |मुझे लगता है लेखक-पाठक-आलोचक के त्रिकोण में लेखक और आलोचक. पाठक यानि समाज से अलग होकर नहीं रह सकता |और यदि वह अलग होकर लिखता या आलोचित करता है , तो उसे साहित्य लिखने के बजाय कुछ और करना चाहिए.|समाज से जुडने का आशय उसे समग्रता में जीने और पकड़ने का ही है |लेखक सिर्फ वही नहीं लिख सकता जिसे वह सामने घटित होता हुआ देखता है , उसे वह भी लिखना होता है , जो दिखाई नहीं देता और जिसे घटित होना चाहिए |मतलब उसकी नजर में पूरा समाज और उसका जीवन होना ही चाहिए |उसके बाद आलोचक आता है , जो स्वयं एक पाठक भी होता है और प्रकारांतर से एक लेखक भी |इस अर्थ में कि वह उस पूरी रचना प्रक्रिया को समझे और जिए |अब जिस तरह लेखक समाज से अलग नहीं हो सकता और उसे अनिवार्यतः अपने समय और समाज को समग्रता में जानना / समझाना चाहिए ही होता है , उसी तरह आलोचक की भी कसौटी निर्धारित होती है |उसे लेखक के रूप में रचना को जीना होता है , पाठक के रूप में उसे ग्रहण करना होता है और आलोचक के रूप में दिशा देना होता है..|वह सिर्फ यह कहकर पीछा नहीं छुडा सकता कि अमुक रचना अच्छी है या बुरी , वरण उससे आगे बढ़कर उसकी दिशा भी तय करनी होती है |अब यह अलग विषय है कि लेखक उसे माने या नहीं माने |यदि वह नहीं भी माने तो भी यह तो नहीं कहा जाएगा कि आलोचना का संकट है |मोहन जी की बात शत प्रतिशत सही है कि आलोचना का संकट व्यापक सामाजिक /सांस्कृतिक संकट का लक्षण भर है..|दुःख की बात यह है हमारा आलोचक समय की दीवार पर लिखी हुयी इबारत को नहीं पढ़ पा रहा है , जबकि साहित्यकार होने के नाते उससे ऐसी अपेक्षा होनी ही चाहिए ,जिसके अभाव में रचनाये बिखरती/चिटकती फिर रही है |साहित्य का विद्यार्थी नहीं होने के कारन प्रतिमानों की जटिलता में जाने से बचना चाहता हूँ...बेहतरीन आलेख और समालोचन का यह प्रयास भी |

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  8. यूँ तो एक सामान्य संकट की स्थिति कमोबेश हमेशा बनी रही है ,भाषा, साहित्य ,रचना,और आलोचना को परिप्रेक्ष्य में ! प्रत्येक समय में ऐसे संकट पर चिंतापूर्ण चर्चाये हुई हैं और उससे निकलने के रास्ते तलाशे गए हैं ! देखा जाये तो सभी संकट मनुष्य समाज के संकटग्रस्त होने का ही प्रतिबिम्बन हैं ! साहित्य का ,रचना का, आलोचना का संकट मनुष्य के विवेक का संकट है , जो उसकी निर्णयहीनता और भटकन से प्रसूत है और जो सामजिक मनुष्य की मति और बुद्धि की स्थिरता के साथ ही दूर होगी ! जब -जब मानव समाज ने सामूहिक रूप से किसी निर्णय को स्वीकार किया है ,कोई लक्ष्य तय किया है , उसकी वैचारिक दृढ़ता के संबल से साहित्य को भी अपने सभी अंगों सहित एक सुनिश्चित दिशा और गति मिली है ! मोहन जी का यह लेख आलोचना और रचना के संकट को विरोधी पक्षधरताओं के बीच के कूट और प्रकट संघर्ष से उत्पन्न घटाटोप के आलोक में देखने का अवसर देता है ! इस वार्ता को आगे जाना चाहिए !

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  9. इस आलेख के द्वारा मोहन श्रोत्रिय जी ने बहस को एक नया आयाम दे दिया है। यह तर्कों और प्रमाणों के साथ लिखा गया पठनीय ही नहीं विचारणीय आलेख है। उन्होंने भारतीय आलोचना में पाश्चात्य की भौंड़ी नकल को महत्वपूर्ण तरीके से रेखाकिंत करते हुए आलोचना के जिन संकटों का उल्लेख किया है उनसे मेरी पूर्ण सहमति है। श्रोत्रिय जी ने बेवाकी और वस्तुनिष्ठ तरीके से आलोचना के संकट पर बात कही है। सबसे अच्छी बात है कि वे बड़े आलोचकों के आभामंडल में नहीं पड़े हैं जैसा कि आज अधिकांश आलोचक कर रहे हैं ,दिल्ली से जो बयार बहती है सभी उसी में बहने लगते हैं। श्रोत्रिय जी आलोचना में जिस भारतीयता की तलाश कर रहे हैं वह बहुत जरूरी है क्योंकि पाश्चात्य भूमि और भारतीय भूमि के यथार्थ के बीच काफी अंतर है इसलिए हमें अपने साहित्य के प्रतिमान और आलोचना के औजार अपनी जमीन से ही खोजने होंगे।

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  10. प्रसंगवश कुछ बात मैं इधर की आलोचना को लेकर कहना चाहुँगा। मुझे लगता है आज की आलोचना के सामने सबसे बड़ा संकट विश्वसनीयता का है। अध्यापकीय आलोचना जो एकेडमी बोझ से दबी है जिसकी भाषा आम पाठक के पल्ले ही नहीं पढ़ती है ,जो रचना को खोलने के बजाय अधिक उलझा देती है , जिसमें पंडिताऊपन भी है और ऊबाउपन भी ,इसके आलावा खेमेबाजी ,एकतरफा आलोचना ,आलोचकों का अपने कर्म के प्रति गंभीर न होना आदि ऐसे कारण हैं जिसके चलते आज की आलोचना अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है। आलोचना की साख धीरे-धीरे घट रही है। जिसका प्रभाव उसकी सामाजिक सार्थकता पर भी पड़ रहा है।
    शेक्सपीयर की एक साॅनेट पंक्ति है- ओह! सौंदर्य कितना स्पंदित करता है/जब जीवन-यथार्थ से मंडित होता है। आलोचक की जीवन से दूरी तथा उसका यथार्थ से अलगाव भी आलोचना के सामने एक संकट ही है क्योंकि आलोचक जीवन की वास्तविकता और जन-संघर्ष से पूरी तरह कटा हुआ हो तो उसकी आलोचना कलावाद के गिरफ्त में आ जाती है। नीरस और ठस तथा अकादमिक हो जाती है। जीवन के सवालों से मुटभेड़ करने में असफल होती है। एक आलोचक का जीवनानुभव एक रचनाकार के जीवनानुभवों से अधिक होना चाहिए तब ही वह रचना का सही-सही मूल्यांकन कर सकता है। जो आलोचक केवल रचना के द्वारा ही जीवन को जानता है स्वयं उस जीवन से अपरिचित है तो वह रचना के साथ न्याय नहीं कर सकता है। आलोचना को रचना से अधिक गहरे स्तर पर समाज से जुड़ा होना चाहिए। तभी वह समाज से रचना के जुड़ाव का सही मूल्यांकन कर सकती है। इधर के आलोचकों में इस बात की कमी दिखाई देती है। जीवन से जुड़ाव की कमी के चलते ही आज की आलोचना लोकधर्मी और जनपदीय चेतना के साहित्य की उपेक्षा करती है। आलोचना मध्यवर्गीय जीवन के आसपास ही घूमती रह गई है। मुक्तिबोध जिसे सभ्यता समीक्षा कहते थे उसका तो लगभग अभाव दिखाई देता है। आज की बहुत सारी आलोचनाओं को पढ़कर यह बताना मुश्किल है कि उनका देश-काल क्या है ? उसमें व्यापक सामाजिक यथार्थ उपस्थित नहीं रहता है। अगर आलोचक समाज के यथार्थ से रचना मंे मौजूद यथार्थ की तुलना न करे तो रचना का मूल्यंाकन कैसे करेगा कि वह रचना कितनी दूर तक समाज के यथार्थ को पहचानती है। इसके लिए उसका ज्ञान के सभी अनुशासनों से प्रत्यक्ष परिचय होना जरूरी है जिसका उल्लेख श्रोत्रिय जी ने भी किया है।
    आलोचना का जो मुख्य काम है-रचना को पाठकों से जोड़ना और रचना तथा पाठक के बीच संवाद स्थापित करने की कोशिश करना ,वह आज काफी कम हो गया है। आलोचक का ज्ञान के अन्य अनुशासनों और जीवन से सीधा संबंध कम है इसलिए जो आलोचना लिखी जा रही है वह निंदा-प्रसंशा तक ही सीमित है या उसमें रचनाकार को दाखिल-खारिज करने की कोशिश अधिक दिखाई देती है। कृति को गंभीरता से पढ़े बिना निष्कर्ष पर पहुँचने की हड़बड़ी और चलताऊ आलोचना की प्रवृत्ति भी बड़ी है। भ्रष्ट ,चलताऊ और मुंह देखी आलोचना का बोलबाला है। संबंधवाद और सत्ता प्रतिष्ठान की दुरभिसंधियों से आलोचना घिरी हुई है। सबके अपने-अपने राम हैं। हर एक के पास रेडीमेड नामों की एक सूची है। जिसको आवश्यकतानुसार कट-पेस्ट कर दिया जाता है। साहित्य के केंद्रों से बाहर रचनारत रचनाकारों पर कम ही आलोचकों की नजर जाती है। समर्थ और समृद्ध सृजन से मुॅह मोड़ते हुए मझोले और चलताऊ सृजन को महत्व दिया जाता है। जबकि आलोचना का सबसे बड़ा काम है- बुरी या औसत रचना को आगे बढ़ने से रोकना और अच्छी रचना के सच को पाठक तक पहुँचाना। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खराब आलोचना खराब रचना से ज्यादा खतरनाक होती है। आलोचना में फतवेबाजी अधिक हो रही है। रचना के स्थान पर रचनाकार को खारिज करने की प्रवृत्ति अच्छी नहीं कही जा सकती। कोई रचना बुरी है तो क्यों है और अच्छी है तो क्यों?यह साफ-साफ बताया जाना चाहिए।
    आज की आलोचना का एक संकट मूर्ति गढ़ना भी है। एक बड़ा आलोचक यदि किसी रचनाकार को अच्छा कह देता है तो दूसरे भी उसी की हाॅ में हाॅ मिलाने लगते हैं। और उसी लकीर को पीटने लगते हैं। इसी का हिस्सा है सर्वनकारवाद या सर्वस्वीकारवाद। इससे हमारे मौलिक चिंतन की सजगता कुुंठित होती है।

    इसके साथ ही रचनाकारों में अपनी आलोचना सुननेे के धैर्य की कमी ने भी आलोचना के समाने एक सकंट खड़ा किया है। रचनाकार अपनी कड़ी आलोचना सुनने और पढ़ने का उनमें माद्दा नहीं रह गया है। उनमें असहिष्णुता बढ़ी है। रचनाकारेां में अधीरता भयानक स्तर पर व्याप्त है। ज्यादातर प्रशंसा के भूखे हैं। हिंदी साहित्य जगत में लोकतांत्रिकता का नितांत अभाव है।
    बातें तो और भी हैं पर मुझे लगता अभी यहाँ अधिक विस्तार का अवसर नहीं है।

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  11. kuchh buniyadi batein classical mould mein uthai gayi hain. आलोचना का संकट व्यापक सांस्कृतिक-सामाजिक संकट का लक्षण-भर है kah kar unhone sahi jagah bahas ko pahuchaya hai. aur vistar mein jaye bina is vishay par vimarsha ka agla padav nahi aayega. Bukhar ki tarah aalochana ka sankat sanket bhar hai. bukhar ke peechhe ka karan samaj mein hai. Lekin Literary culture ke bheetar use aur adhik gahrayee se vivechit karne ki zaroorat. is par vistar se likhunga. Mohan Shrotriya ne kuchh upyogi sanket diye hain.

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  12. महेश भाई ने जो बात रखी है...वह अलग से चर्चा की मांग करती है. मेरा उनसे अनुरोध है कि वह इस पर विस्तार से एक आलेख लिखें. वह महत्वपूर्ण होगा.

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  13. बहरहाल क्रिश्टोफर काडवेल की किताब romance of realism नहीं बल्कि romance and realism है ।

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  14. कौन सेलेक्टिव है यह मुझे किसी से जानने के जरूरत नहीं ..और इनके प्रश्नों का जवाब यही की हिन्दू समाज में अगर कुरीतिया या कमिया व्याप्त रही है तो इतना स्कोप भी हिन्दू समाज ने प्रदान किया की उसमे खुले दिल से विचार विमर्श हो सके .यह रेफोर्मेर्स भी इसी हिन्दू समाज ने दिया .चीन और सौदी अरबिया और Cuba से रेफोर्मेर्स नहीं आये ..इसिलए बेहतर यही है की हिन्दू समाज की कमिया गिनाकर जो गंदगी व्याप्त है और जगह उसको ढकने की कोशिश न की जाए ..इतने सारे दर्शन जिसमे चार्वाक से लेकर गरीबो के नाम पर राजनीति करने वाले कोम्मुनिस्ट सबको स्कोप दिया इसके लचीलेपन पे उंगली न उठाये तो बेहतर रहेगा.

    ..जरा कोम्मुनिस्ट जिनको दोगलापन और दोहरापन गाली लगता है यह खुद सोचे की क्यों वे दोगलेपन के सबसे बड़े सशक्त हस्ताक्षर है ...यह वोही लोग है जिनके संस्कार यह रहे है की जब मौका मिला बड़े पैमाने पे Human Genocide कर दिया ..जब किसी ने विरोध किया तो बेरहमी से उनको कुचल दिया चाहे Tiananmen Square massacre हो या फिर नंदीग्राम ..इनकी खुद की औकात क्या रही है , क्या संस्कार रहे है ,क्या तरीके इन्होने अपनाये है पहले वो देखे फिर उस हिन्दू समाज की कमिया गिनाये जिसने चाहे इस्लामी कट्टरवादी हो या कोम्मुनिस्ट समर्थित हिंसक गिरोह सबको tolerate किया ..पर अब नहीं tolerate किया जाएगा कोम्मुनिस्ट या इस्लाम स्पोंसोरेड ड्रामा को ..सेलेक्टिवे होने की बात करते है..आज अगर माओवाद निहत्थे लोगो को बेरहमी से मार रहा है या इस्लामी आतंकवाद देश के एक कोने से दुसरे कोने में व्याप्त है तो उसकी वजह कोम्मुनिस्तो का दोगलापन और दोहरा चरित्र ही रहा है ..तो सच को सच कह दिया तो गाली हो गयी...सही बात है कुछ लोगो को सच गाली लगता है ..Well, the harsh truth is that communists do not deserve even an iota of respect, forget about Gaali.गाली जैसा कुछ शब्द आपको दे दिया अफ़सोस हो रहा है मुझे ..Gaali उन्ही को देना चाहिए जिनका कोई character हो..कोम्मुनिस्तो का तो कोई चरित्र है ही नहीं ..इसलिए अगर गाली जैसा शब्द कोई है तो मै उसे वापस ले रहा हू ...I just came to remember that Communists have no character at all :-))..दूसरो की आँखों पे जो चश्मे देखते है जरा पहले अपने दिमागविहीन दिमाग की फिक्र करे तो ठीक रहेगा :-))

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