निज घर : गोरख पाण्डेय की डायरी














गोरख पांडेय (१९४५ – ८९, देवरिया)
जे.एन.यू से ज्यां पाल सात्र के अस्तित्ववाद में अलगाव के तंतुओं पर पी.एच.-डी.
जागते रहो सोने वालों और स्वर्ग से विदाई कविता संग्रह प्रकाशित 
भोजपुरी में भी लेखन.
जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य और प्रथम महासचिव रहे. 


गोरख पांडेय : डायरी 

यह डायरी इमर्जेंसी के दिनों में लिखी गयी. इसमें तत्कालीन दौर के साथ गोरख की निजी जिन्दगी भी दिखाई पड़ती है. याद रहे कि गोरख पाण्डे स्किजोफ़्रेनिया के मरीज रहे थे और इसी बीमारी से तंग आकर उन्होंने आत्महत्या भी की थी. अनेक जगहों पर डायरी की टीपें लू शुन की कहानी एक पागल की डायरी की याद दिलाती हैं. चाहें तो उस कहानी की तरह इसे भी रूपक की तरह पढ़ सकते हैं अर्थात उनको महसूस हो रहे त्रास को आपात्काल के आतंक का रूपक समझकर. इसमें संवेदनशील कवि की अपनी ही बीमारी से जूझते हुए रचनाशील बने रहने की बेचैनी दर्ज है. आर्नोल्ड हाउजर ने लिखा है कि कलाकार अक्सर असामान्य होते हैं लेकिन सभी असामान्य लोग कलाकार नहीं होते. गोरख पांडेय की यह डायरी एक कवि की डायरी है- इसका अहसास कदम कदम पर होता है. 

6-3-1976 : 
कविता और प्रेम - दो ऐसी चीजें हैं जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है. प्रेम मुझे समाज से मिलता है और समाज को कविता देता हूँ. क्योंकि मेरे जीने की पहली शर्त भोजन, कपड़ा और मकान मजदूर वर्ग पूरा करता है और क्योंकि इसी तथ्य को झुठलाने के लिये तमाम बुर्जुआ लेखन चल रहा है, क्योंकि मजदूर वर्ग अपने हितों के लिये जगह जगह संघर्ष में उतर रहा है, क्योंकि मैं उस संघर्ष में योग देकर ही अपने जीने का औचित्य साबित कर सकता हूँ-
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इसलिये कविता मजदूर वर्ग और उसके मित्र वर्गों के लिये ही लिखता हूँ. कविता लिखना कोई बड़ा काम नहीं मगर बटन लगाना भी बड़ा काम नहीं. हाँ, उसके बिना पैंट कमीज बेकार होते हैं.

8-3-1976 :
श्यामा को विभाग में सूचना दी कि दो-एक दिन मुझे यहाँ नहीं रहना है. वह उदास थी. धीरे धीरे वह मेरे ऊपर हावी होती जा रही है. मैं होने दे रहा हूँ.
2 बजे बस स्टेशन टुन्ना के साथ. रिक्शे पर टुन्ना से कहा- कहो तो मैं एक कविता बोलूँ-

उसने जीने के लिये खाना खाया
उसने खाने के लिये पैसा कमाया
उसने पैसे के लिये रिक्शा चलाया
उसने चलाने के लिये ताकत जुटायी
उसने ताकत के लिये फिर रोटी खाई 
उसने खाने के लिये पैसा कमाया
उसने पैसे के लिये रिक्शा चलाया
उसने रोज रोज नियम से चक्कर लगाया
अन्त में मरा तो उसे जीना याद आया

मिश्रा की शादी में शरीक हुए. मिश्रा वर की तरह चमक रहा है. बारात की तरह बारात. शादी की तरह शादी. 

13-3-1976 :
परसों ललित कला की प्रदर्शनी देखी . साथ में अवधेश जी, श्रीराम पाण्डेय. एक मर्द का कन्धे से ऊपर का भाग औरत के जांघों और नाभि के बीच गायब हो गया है. प्रधान जी इस सिलसिले में टिप्पणी करते हैं कि एक व्यक्ति पीछे से उन्हें टोक देता है. बाद में पता चलता है कि वह चतुर्थ वर्ष का कला-छात्र है . उसके विचार से हम जितना समझते हैं वह ठीक है वह कहना यह चाहता है कि वैसे तो हमारी समझ के पल्ले बहुत कुछ नहीं पड़ रहा मगर जो पड़ रहा है वह हम जैसे गंवारों के लिये काफ़ी है. फिर खड़े खड़े कला पर बहस. एक-- चित्रकार अपनी भावनाओं के अनुसार चित्र बनाता है. दर्शक उसे अपनी भावनाओं के अनुसार समझता है. अगर चित्र दर्शक के मन में कोई अनुभूति उपजाने में समर्थ हो जाता है तो चित्रकार सफल है .
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क्या हमें हक है कि चित्र में व्यक्त कलाकार की भावना को जानें? या वह मनमानी ढंग से कुछ भी सोचने के लिये छोड़ देता है? क्या चित्रकार हमें अनिश्चित भावनाओं का शिकार बनाना चाहता है? क्या वह अपना चित्र हमारे हाथ में देकर हमसे पूरी तरह दूर और न समझ में आने योग्य रह जाना चाहता है? क्या उसे हमारी भावनाओं के बारे में कुछ पता है?
अन्ततः क्या कलाकार, उसकी कृति और दर्शक में कोई संबंध है? या तीनों एकदम स्वतंत्र एक दूसरे से पूर्णरूपेण अलग इकाइयां हैं?एक तरफ़ कलाकार आपातस्थिति की दुर्गा का गौरव चित्रित कर रहा है, दूसरी तरफ़ कलाकार आपातस्थिति को चित्र में लाना अकलात्मक समझकर खारिज कर देता है . ये दोनों एक ही स्थिति के मुखर और मौन पहलू नहीं हैं ?

14-3-1976 : 
आशा करना मजाक है
फिर भी मैं आशा करता हूँ
इस तरह जीना शर्मनाक है
फिर भी मैं जीवित रहता हूँ
मित्रों से कहता हूँ -
भविष्य जरूर अच्छा होगा 
एक एक दिन वर्तमान को टालता हूँ
क्या काम करना है ?
इसे मुझे तय नहीं करना है 
लेकिन मुझे तय करना है
मैं मित्रों को बुलाउँगा -
कहूँगा -
हमें (हम सबको) तय करना है
बिना तय किए
इस रास्ते से नहीं गुजरना है .
मुझे किसी को उदास करने का हक नहीं
हालांकि ऐसे हालात में 
खुश रहना बेईमानी है .

हिंदी में कौन सुंदर लेखिका है ? महेश्वर के कमरे में बात आती है . एक लेखिका की विलेन जैसी छवि पर अटक जाती है . क्या पूर्वी उत्तर प्रदेश में सुंदर औरतें हैं ? पहले मैं सोचता था कि नहीं हैं . मेरा यह भ्रम चूर चूर हो गया . मध्यमा में जिस लड़की को चाहता था वह देवरिया के एक गाँव की थी . गोरी, कमल की लम्बी पंखुड़ी सी बड़ी आँखें मुझे अब तक याद हैं . याद है, किस तरह उसने एक बार हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा था, मैं सितार के कसे तारों की तरह झनझना उठा था .
पिछले दिसम्बर तक जिस लड़की को चाहता था वह आजमगढ़ से आयी थी . उसने खुद को सजाने सवारने में कोई कसर नहीं रखी थी . बाब्ड, बेलबाटम, मासूम, कटार सी तीखी . लचीली, तनी हुई, प्रेम से डूबती, घृणा से दहकती . मैंने उसे कविता दी थी--

-----हिंसक हो उठो
मेरे लुटे हुए प्राण----
अन्ततः वह हिंसक हो उठी .

सवाल यह नहीं कि सुन्दर कौन है. सवाल यह है कि हम सुन्दर किसे मानते हैं. यहाँ मेरे subjective होने का खतरा है. लेकिन सच यह है कि सौन्दर्य के बारे में हमारी धारणा बहुत हद तक काम करती है. हम पढ़े लिखे युवक फ़िल्म की उन अभिनेत्रियों को कहीं न कहीं सौन्दर्य का प्रतीक मान बैठे हैं जो हमारे जीवन के बाहर हैं. नतीजतन बालों की एक खास शैली, ब्लाउज, स्कर्ट, साड़ी, बाटम की एक खस इमेज हमारे दिमाग में है. हम एक खास कृत्रिम स्टाइल को सौन्दर्य मानने लगे हैं. शहर की आम लड़कियाँ उसकी नकल करती हैं. जो उस स्टाइल के जितना निकट है हमें सुन्दर लगती है.

फिर भी हम स्टाइल को पसन्द करते हैं, ऐसा मानने में संकोच करते हैं . फ़िल्में, पत्रिकाएँ लगातार औरत की एक कामुक परी टाइप तस्वीर हमारे दिमागों में भरती हैं, लड़कियों को हम उसी से टेस्ट करते हैं. हम विचारों के स्तर पर जिससे घृणा करते हैं भावनाओं के स्तर पर उसी से प्यार करते हैं. भावनाएँ अस्तित्व की निकटतम अभिव्यक्ति हैं. यह हुआ विचार और अस्तित्व में सौन्दर्यमूलक भेद . यह भेद हमारे अंदर चौतरफ़ा वर्तमान है.

हमें कैसी औरत चाहिए ?
निश्चय ही उसे मित्र होना चाहिए. हमें गुलाम औरत नहीं चाहिए. वह देखने में व्यक्ति होनी चाहिए, स्टाइल नहीं. वह दृढ़ होनी चाहिए. चतुर और कुशाग्र होना जरूरी है. वह सहयोगिनी हो हर काम में. देखने लायक भी होनी चाहिए. ऐसी औरत इस व्यवस्था में बनी बनायी नहीं मिलेगी. उसे विकसित करना होगा. उसे व्यवस्था को खतम करने में साथ लेना होगा. हमें औरतों की जरूरत है. हमें उनसे अलग नहीं रहना चाहिए.

15-3-1976 :
दिन मे खूब सोया. सपना देखा. पिता की गिरफ़्तारी हुई. सरकारी लोन न लौटाने की वजह से. मैंने घर का काम सम्हाला.


 खेत में काम करते वक्त जूता बदला.
बदला शहर कि साथ में जूता भी बदल गया
बदले थे ब्रेख्त ने वतन जूतों से जियादह
लीडर ने भी देखा न था कब जूता चल गया
मिलते हैं अब गवाह सबूतों से जियादह

शाम को गम्भीर मानसिक जड़ता और दबाव. गोया बोल ही न सकूं. न हंस सकूं. महेश्वर, अमित, प्रधान, जलेश्वर सब इसे लक्ष्य करते हैं. यह परेशानी काफ़ी दिनों बाद हूई है. एक चट्टान सी दिमाग पर पड़ी हुई है. मैं हंसने की, हल्का होने की कोशिश करता हूं. लेकिन नाकामयाब. लगता है, भीतर ही भीतर कोई निर्णय ले रहा हूं. दुःखों के भीतर से और दुखी होने का निर्णय - ऐसा लगता है. अमित के कमरे में चाय पी. महेश्वर और कभी कभी प्रधान ने गाना गाया. जलेश्वर ने उर्दू शायर की नकल की. जड़ता कुछ टूटी. तब तक मैंने फ़ैसला भी कर लिया. मैं सु को पत्र लिखूंगा . लिखूंगा--

पता नहीं यह पत्र आप तक पहुंचे या नहीं. फिर भी लिख रहा हूं. आप को ताज्जुब होगा.आप नाराज भी होंगे. फिर भी मैं अपने आपको रोक नहीं पा रहा.आप को मेरे व्यवहारों से मेरे न चाहते हुए भी कष्ट पहुंचा. (मैंने लिखा है न चाहते हुए . आप गुस्से में इसका अर्थ चाहते हुए लगा सकते हैं. उन दिनों आप मेरे प्रति जितना खौफ़नाक पूर्वाग्रह के शिकार थे, उसमें सहज ढंग से मेरी हर बात का उल्टा ही अर्थ आपके दिमाग में आया होगा).खैर, जब आपने मेरे प्रति हमलावर रुख अख्तियार किया, तब भी मैं आप पर नाराज नहीं हो सका. 

नाराज हुआ तो सिर्फ़ एक आदमी पर. उस पर, जिसने मेरे ऊपर हमले की योजना बनायी.
नाराजगी से ज्यादा सदमा लगा मुझे . पूरी तरह गलत समझ लिये जाने का सदमा. आप लोगों की निगाह में वे तमाम लोग सही हो गये जो झूठ और पाखण्ड के साये में पलते हैं. मैं गलत हो गया. अगर इसे अहंकार न मानकर तथ्य का विवरण देना समझा जाय तो मैं अपने बारे में कह सकता हूं कि मैंने कदम कदम पर पाखण्ड और दमन के खिलाफ़ बगावत की है. 

मैंने अतीत में एक लड़की से सम्बन्ध इसीलिए तोड़ा था कि उसके साथ मेरा सम्बन्ध पूरी तरह से पाखण्ड और दमन पर आधारित था. उसे एक सेकण्ड के लिए भी न चाह सका. साथ ही वह सम्बन्ध मेरे पिता द्वारा बचपन में पैसे के आधार पर तय किया गया था. पिता से नफ़रत करने और उनके निर्णयों को नष्ट करने की कड़ी में यह घटना भी हुई थी.अपने बारे में सफाई देना जरूर कष्टप्रद स्थिति है. मुझे कतई पसन्द नहीं. फिर भी मैं तमाम बार बौखला सा उठता हूं कि मुझे क्यों इस तरह गलत समझा गया. 

आपने पूछा था कि मैं आपको दलाल समझता हूं ? मैं आपसे जानना चाहता था कि क्या आप मुझे लम्पट और व्यभिचारी समझते हैं? आपके पास इसका प्रमाण नहीं है. आपको ताज्जुब होगा कि मुझे लड़कियाँ लगातार फ़ेवर करती हैं. इसका कारण मुझे नहीं पता. लेकिन यह तथ्य है. आपको ताज्जुब होगा यह भी जानकर कि आज तक पूरे जीवन में दो-चार वाक्य अगर मैंने किसी लड़की से कहे हैं, तो वह यही है. उसने मुझे खुद ही बात करने (या सुनने !) के लिए अप्रत्यक्ष तरीके से कहा था. इसका यह मतलब नहीं कि मैं उससे प्रभावित न था. प्रभावों के बावजूद मैं टालने की कोशिश करता रहा था .

वह अंततः हिंसक हो उठी. मैंने उसे पढ़ने को एक कविता दी थी . उसमें कहीं लुटे हुए प्राणों को 'हिंसक' होने को कहा गया है. उसने हिंसक होकर, मुझे लगता है, कविता की सलाह को लागू कर दिया . लेकिन किसके ऊपर हिंसा ? उन पर जो हिंसा के लगातार शिकार हैं या उन पर जो हिंसा से शिकार बनाते हैं ?

उसे मुझसे सिर्फ़ शिकायत यह हो सकती है कि उसके सामने खुलकर मैंने अपने अतीत और वर्तमान की परिस्थितियों को नहीं रखा. इस काम में उसने भी मुझे मदद नहीं दी. एक तो मैं खुद इस मामले में बहुत काम्प्लिकेटेड हो गया हूं, दूसरे जब भी प्रयास किया उसने नकारात्मक रुख अपनाया . कई बार तो लगा कि उससे बात करते ही शायद रो पड़ूंगा या ऊल-जलूल बक जाऊंगा . सो, रुक गया . फिर परिस्थिति और जटिल होती गयी.हालांकि कई मामलों में मैं अपने आपको मूर्ख मानता हूं लेकिन वह बिल्कुल मूर्ख साबित हुई . कभी कभी सोचता हूं कि उसने गद्दारी की. लेकिन फिर लगता है कि यह उसके प्रति शायद ज्यादती होगी. (मजे की बात यह है कि वह मुझे ही गद्दार समझती है !)

वैसे तो आपको पत्र लिखकर धन्यवाद देने की बहुत पहले से इच्छा थी मगर इस बीच दो तीन घटनाओं ने मुझे उत्तेजित कर दिया. उसने अपने एक सहपाठी से मेरे बारे में बिल्कुल एकांगी सूचनाएं दीं . याने कि झूठ बोल गई. मैंने इसके लिए उसे एक बार अप्रत्यक्ष ढंग से डांटा था . फिर आप लंका पर दिखाई पड़े . कई बार आपसे बात करने की इच्छा हुई. लेकिन आप कहीं फिर मुझे गलत न समझ बैठें, इसलिए रोक गया.

आपको मेरे या मेरे किसी मित्र के व्यवहार से कष्ट पहुंचा हो तो मुझे सख्त अफ़सोस है. मुझे आपसे कभी कोई शिकायत, कोई नाराजगी कतई नहीं रही . उसके प्रति जरूर गुस्सा रहा है, जो मेरा ख्याल है कि समय के साथ धीरे धीरे खतम हो जायेगा. (हां, आपको सूचित कर दूं कि किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को चाहा जाना अपराध नहीं है. गैर जिम्मेवारी और झूठ अपराध है. नारी मित्र चुनने का पूरा अधिकार मुझे है. मैं इसके लिए कानून के पोथों को गैर जरूरी मानता हूं. किसी का मूल्यांकन करते वक्त हमें अपने दृष्टिकोण का भी मूल्यांकन करना चाहिए.)
बहुत बहुत धन्यवाद
आपका

16-3-1976 :
होली खेली गयी. खाना हुआ. सोये. शाम को शहर की ओर. महेश्वर, प्रधान, अमित, जलेश्वर, बलराज पाण्डेय. बलराज पाण्डे पत्नी से झगड़कर हास्टल अकेले आये. अस्पताल में अनिल नाम के प्यारे से बच्चे को अबीर लगाया गया. अमित हैदराबाद से अनुत्साहित और विवर्ण सा लौटा . विनोद जी को बुखार है और सिर में काफ़ी दर्द. लंका से अस्सी की ओर बढ़ने पर देखा कि नी के घर के पास एक और मकान उठ रहा है. काफ़ी उठ चुका है. अस्सी पर कालोनी की ओर मुड़ने वाले रास्ते की तरफ़ निगाह गयी.

फिर तेरे कूचे को जाता है खयाल
दिले - गुमगश्ता मगर याद आया

शेखर इन्तजार ही कर रहा था. बहुत प्यारा लड़का है. इस शहर में एकमात्र आदमी जिसने हम सभी को अपने घर निमंत्रित किया था. वैसे रास्ते में नेपाली कवि श्री शेखर वाजपेयी जी मिले. मीठा, पूड़ियां, नमकीन, शराब, गोश्त- उसने सब कुछ खिलाया. हम प्रसन्न हुए. फिर अस्सी चौराहे पर देखा कि शास्त्री जी की दुकान बदल गयी है. बड़ी और खूबसूरत सजावट. केदार जी ने मस्ती में अबीर चारों तरफ़ छिड़क दिया.
पाण्डे जी के साथ उनके घर. राय जी से परिचय हुआ, उनके पड़ोसी हैं. काशी विद्यापीठ में रिसर्च. दोनों की पत्नियां. महेश्वर औरतों के अलग होने से क्षुब्ध हैं. पान, सिगरेट. अन्त में मेरे मुंह से निकलता है - आप लोग जरा स्वतंत्र होइए भाई .

नन्दू के घर - रास्ते में चन्दन भाई और क्रिस्टोफ़र . गोरख दा, उनके बच्चे, मां, दीदी सब घर पर. वहां भी मीठा मिला. लौटते रास्ते में नन्दू मिले. भांग में मस्त. कई लोगों के साथ चाय पीने चले. साथ में धर भी हो गया है. वहां गाना और कविता. भांग की कुल्फ़ी ली जा चुकी है. धर कलकत्ता की खुशखबरी देता है. डायनामाइट. टूटना. निकलना. लौटे. पैदल ही जाना है. पैदल ही आना है. महेश्वर के कमरे में चाय बनी. फिर थककर सो गये. सुबह देर से उठे. लगा, शाम हो गयी है.आज शाम को लंका घूमे. दिन में कपड़ साफ़ किया. पत्र लिखा. स्वप्न देखा कि एक बस ड्राइवर खड्ड में गिरने से बस को रोकने के लिए उसे पीछे मोड़ने की कोशिश कर रहा है. अब थीसिस पर कुछ काम शुरू करना है. 

18-3-1976 : 
एक बिल्कुल बेहूदा जीवन. पंगु, अकर्मण्य समाज विरोधी जीवन. क्या जगह बदल देने से कुछ काम कर सकूंगा ? मैं बनारस तत्काल छोड़ देना चाहता हूं . तत्काल . मैं यहां से बुरी तरह ऊब गया हूं. कुछ भी कर न पा रहा . मुझे कोई छोटी मोटी सर्विस पकड़नी चाहिए. और नियमित लेखन करना चाहिए. यह पंगु, बेहूदा, अकर्मण्य जीवन मौत से बदतर है. मुझे अपनी जिम्मेदारी महसूस करनी चाहिए . मैं भयानक और घिनौने सपने देखता हूं . लगता है, पतन और निष्क्रियता की सीमा पर पहुंच गया हूं . विभाग, लंका, छात्रावास लड़कियों पर बेहूदा बातें . राजनीतिक मसखरी. हमारा हाल बिगड़े छोकरों सा हो गया है. लेकिन क्या फिर हमें खासकर मुझे जीवन के प्रति पूरी लगन से सक्रिय नहीं होना चाहिए ? जरूर कभी भी शुरू किया जा सकता है. दिल्ली में अगर मित्रों ने सहारा दिया तो हमें चल देना चाहिए. मैं यहां से हटना चाहता हूं. बनारस से कहीं और भाग जाना चाहता हूं . मैं जड़ हो गया हूं, बेहूदा हो गया हूं. बकवास करता हूं . कविताएं भी ठीक से नहीं लिखता . किसी काम में ईमानदारी से लगता नहीं. यह कैसी बकवास जिंदगी है ? बताओ, क्या यही है वह जिंदगी जिसके लिए बचपन से ही तुम भागमभाग करते रहे हो ? तुमने समाज के लिए अभी तक क्या किया है ? जीने की कौन सी युक्ति तुम्हारे पास है ? बेशक, तुम्हे न पद और प्रतिष्ठा की तरफ़ कोई आकर्षण रहा है न अभी है. मगर यह इसीलिए तो कि ये इस व्यवस्था में शोषण की सीढ़ियां हैं ? तो इन्हें ढहाने की कोई कोशिश की है ? कुछ नहीं कुछ नहीं. बकवास खाली बकवास. खुद को पुनर्निर्मित करो. नये सिरे से लड़ने के लिए तैयार हो जाओ.

मैं दोस्तों से अलग होता हूं
एक टूटी हुई पत्ती की तरह
खाई में गिरता हूं
मैं उनसे जुड़ा हूं
अब हजारो पत्तियों के बीच
एक हरी पत्ती की तरह 
मुस्कुरा उठता हूं.

मेरे दोस्तो के हाथ में 
हथकड़ियां
निशान मेरी कलाई पर
उभरते हैं
हथकड़ियां टूटती हैं
जासूस मेरी निगाहों में 
झांकने से डरते हैं.

22-3-1976 :
फिर अद्भुत दुर्घटना हो रही है. सु आया 4-5 दिन पहले . बीस तारीख की शाम को गी भी लंका पर दिखी. बाल बांध रखे थे. बहुत सीधी-सादी लड़की लग रही थी. बगल से उसका चेहरा दिखाई पड़ा. दुखी-सी लगी. महेश्वर आदि ने दूर आगे जाकर उसे करीब से देखा. मैंने किसी से कहा- 'चलो. उन्हें छोड़ आयें. वह हमारे घर आयी हैं.' वह एक दुकान पर कुछ खरीदने के लिए रुकी. मैं वहां रुककर दुकान से उसके उतरने का इन्तजार करता रहा. घबराहट और उत्तेजना में तेजी से इधर उधर टहलता रहा. वह उतरी. एक बार उसने मेरी तरफ़ देखा. फिर मैं और सारे दोस्त लौट पड़े . के पी, प्रधान, महेश्वर, टुन्ना, अमित सबने उसे देखा. महेश्वर ने कहा- गुरू, मैं तुमसे ईर्ष्या करता हूं. मेरे अंदर किसी भी लड़की के बारे में यह सोचने की इच्छा क्यों नहीं उभरती कि वह हमारे घर आयी है. चलो, उसे छोड़ आयें. मेरे अंदर प्रेम की यह भावना क्यों नहीं उभरती ? वह बहुत भावुक हो गया है. कल, यानी इक्कीस को दिन में हम सभी अस्सी तक गये थे. कोई नहीं दीखा. आज शाम को सु एक महिला के साथ हम सबके करीब से गुजरा. वह गम्भीर लग रहा था. बाद में हम उसके घर की तरफ़ से अस्सी तक गये. फिर दूसरी तरफ़ से लौट आये. शेखर से उसकी बातें नहीं हुईं. यह अच्छी बात नहीं है. वैसे मैंने मिलने को उससे लिख दिया है. मैं अपनी तरफ़ से कोई शिकायत नहीं रहने देना चाहता.

24-3-1976:
कितना गहरा डिप्रेशन है. लगता है मेरा मस्तिष्क किन्हीं सख्त पंजों द्वारा दबाकर छोटा और लहूलुहान कर दिया गया है. जड़ हो गया हूं. कुछ भी पढ़ने-लिखने, सुनने समझने की इच्छा ही नहीं होती. ठहाके बन्द हो गये हैं. सुबह इन्तजार करता रहा. कोई नहीं आया.
फ़ैज की कविता 'तनहाई' -


फिर कोई आया दिलेजार ! नहीं, कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा. 

मुझे शक हो रहा है कि मेरे देखने, सुनने, समझने की शक्ति गायब तो नहीं होती जा रही है.अगर मेरे पत्र के बाद उन्हें देखा, तो निश्चय ही वे सम्बन्धों को फिर कायम करना चाहते हैं. अगर नहीं, तो हो सकता है कि मैंने भ्रमवश किसी और को देखकर उन्हें समझ लिया हो. यह खत्म होने की, धीरे धीरे बेलौस बेपनाह होते जाने की, धड़कनें बन्द कर देने वाले इन्तजार की सीमा कहां खत्म होती है ? क्या जिन्दगी प्रेम का लम्बा इन्तजार है ? अगर मैं रहस्यवादी होता तो आसानी से यह कह सकता था. लेकिन मैं देखता हूं, देख रहा हूं, कि बहुत से लोग प्रेम की परिस्थितियों में रह रहे हैं. अतः मुझे अपने व्यक्तिगत अभाव को सार्वभौम सत्य समझने का हक नहीं है. यह एक छोटे भ्रम से बड़े भ्रम की ओर बढ़ना माना जायेगा. मुझे प्रेम करने का हक नहीं है, मगर इन्तजार का हक है. स्वस्थ हो जाऊंगा, कल शायद खुलकर ठहाके लगा पाऊंगा.

25-3-1976
तुम्ही कहो कि तेरा इन्तजार क्यों कर हो. दर्द, तनहाई, खमोशी ही बहुत ज्यादा है

तुम्ही कहो कि मुझे तुमसे प्यार क्यों कर हो.मैं तुम्हे एक बहुत ही उत्पीड़ित और उग्र आत्मा मानता हूं. मैं तुम्हे सचमुच चाहता हूं. मैं तुम्हे सुखी देखना चाहता हूं. लेकिन मेरी प्रिय, क्या अच्छा न होगा कि हम एक दूसरे को बिल्कुल भूल जाएं. तुम जिद पकड़ लेती हो तो फिर मान ही नहीं सकती. मैं तुम्हारा सम्मान करता हूं. तुम्हारी सुविधा के लिए भरसक प्रयास करता हूं. लेकिन तुम क्या करती हो ? तुम्हारे लिए कितनी दूर दूर तक अपने आपको झुका लेता हूं. बखुशी. लेकिन तुम हो कि झुकने का नाम नहीं लेतीं. तुम सु को क्यों नहीं मेरे पास भेजती हो ? मैं क्या करूं कि तुम्हे सुखी और तनावमुक्त बना सकूं ?


27-3-1976 :
26 को विभाग में कविता पढ़ी. लड़के हल्के फुल्के ढंग की चीज सुनना चाहते थे. वह बिल्कुल गम्भीर नहीं होना चाहते थे. बोर हो गये . लेकिन मैंने जबरन सुनाया. एक लड़की, जो काफ़ी दिनों से मुझे अपनी ओर प्रेरित करना चाहती है, पढ़कर चलते वक्त, कह पड़ी,'बहुत बोर किया'. मैं हक्का बक्का था . सचमुच मुझ पर उसने बड़ी चोट की . इसका प्रभाव यह हुआ कि कुछ देर तक मैं उसकी ओर बगैर देखे पड़े रहने के बाद, कुछ गुस्से में और कुछ खुशी में देखने लगा. वह बाल वगैरह झटकने लगी, उत्तेजित और खुश. फिर मैंने withdraw कर लिया. वह खुश रही, फिर दुखी हो गयी. वह जरा छरहरी नहीं है. वर्ना ठीक है. लड़कियां बहुत अच्छी होती हैं . गी बहुत अच्छी है. रात में यादव ने बताया कि वह काफ़ी गम्भीर थी आज. मुझे सुनकर फिर उसके प्रति मोह जगा. यह ठीक नहीं. उसे खुश रहने का हक है. वैसे पता है कि नकली जिन्दगी जीने के लिए वह खुद को तैयार कर चुकी है. नकली जिन्दगी, झूठ, खुशी ये सब हमारी औरत की शोभा हैं. हमें चाहिए कि उनके बदलाव का उपाय करें लेकिन इसकी तकलीफ क्या वे झेल पायेंगी ? यह बिना व्यवस्था के बदले नहीं हो सकता.

खुश रहो जहां भी रहो तुम जाने जिगर
कभी कभी हमें भी याद कर लिया करना

31-3-1976:
दवा की तलाश में गोदौलिया. दवा नहीं मिली. संयोग से सु मिला. hello. वह मुस्कुराया. फिर चौराहे तक साथ साथ आये. चाय पीने की बात उसने अस्वीकार की. मैंने कहा- कभी मिलिए. उसने सिर थोड़ा झुकाकर सोच की मुद्रा अपनायी. फिर स्वीकार के लहजे में सिर हिलाया. मैंने गर्मजोशी से हाथ मिलाया. शाम को जैसे उसका इन्तजार करता रहा. वह निश्चित रूप से उसके द्वारा भेजा गया था लंका पर. फिर जब बुला रहा हूं तो क्यों नहीं आता ? शायद उसने stand बदल दिया है!

मैं इन्तजार में जड़ हो जाता हूं. लिख पढ़ नहीं पाता. थीसिस का काम पड़ा है नहीं कर पाता. मैं यह सब क्या कर रहा हूं ? यह मूर्खता, यह मेरी प्रचण्ड और घातक मूर्खता. मुझे क्या करना चाहिए ? कुछ समझ नहीं पाता. अगर वह नकार रही है तो वह आयी ही क्यों उस दिन ? क्या यह देखने कि अभी तक मैं उसके पीछे जा सकता हूं या नहीं . अपनी ताकत आजमाने ? अगर यह बात है तो उसे खुश होना चाहिए क्योंकि मैं गया उसके पीछे. मैंने उसे follow किया. लेकिन अगर वह सचमुच contact बनाना चाहती है तो उसे क्यों नहीं भेजती. शायद उसने आने से इन्कार कर दिया हो. नहीं, वह आने से इन्कार नहीं करेगा. वही नहीं भेजती. तब इसके दो कारण हो सकते हैं. पहला, वह चाहती है कि मैं college जाकर उससे बातें करूं. दूसरा, यह कि वह इस किस्से का अन्त चाहती है. अगर अन्त चाहती है. तो कोई बात नहीं (टुन्ना से साभार) अगर नहीं चाहती तो मुझे जाना चाहिए या नहीं. मुझे जाना चाहिए. लेकिन मैं डर जाता हूं कि वहां जाकर अगर परिस्थितियां नार्मल नहीं मिलीं तो मैं बात न कर सकूंगा. इसीलिए तो मुझे सु की जरूरत महसूस होती रही है. अगर सु मुझे हेल्प नहीं करता तो क्या वह मेरी c में प्रतीक्षा करती रहे, मैं कभी जा न सकूं और सब कुछ खत्म हो जाए, सब कुछ खत्म हो जाए. अच्छा, यह सब कुछ खत्म हो जाए. मैंने अपनी तरफ़ से सारी बातें स्पष्ट कर दी हैं. उसे तमाम मौका है, सोचने समझने का. मैं इन्तजार करूंगा. खत्म हो जाने तक. अच्छा है.

11-4-1976 :
मेरा पूरा पतन हो गया है. यह मेरी आर्थिक परिस्थिति से अभिन्न रूप से जुड़ा है. मुझे पहले खाना जुटाने का काम करना चाहिए. यह सीख है. सारे अनुभव बताते हैं कि आदमी को दो जून पेट भरने का इन्तजाम करना चाहिए और बातें बाद में आती हैं. लेकिन मैं हवा में प्यार की सोचता रहा हूं. मैं हवा में तिरता सा रहा हूं. बिना देश और दुनिया की परिस्थितियों का विचार किए प्यार के बारे में बेहूदा कल्पनाएं करता रहा हूं. नतीजा कि मैं ही सब कुछ हूं. समाज के बिना एक व्यक्ति कुछ नहीं है. वह बोल नहीं सकता, वह मुस्कुरा नहीं सकता, वह सूंघ नहीं सकता, वह आदमी नहीं बन सकता. मुझे इसके लिए दण्डित किया जाना चाहिए कि एक घृणापूर्ण दम्भ के अलावा मेरे पास कुछ देने को नहीं रह गया है. 

सामाजिक चेतना सामाजिक संघर्षों में से उपजती है. व्यक्तिगत समस्याओं से घिरे रहने पर सामाजिक चेतना या सामाजिक महत्व की कोई चीज उत्पादित करना मुमकिन नहीं. व्यक्तिगत समस्याएं जहां तक सामाजिक हैं, सामाजिक समस्याओं के साथ ही हल हो सकती हैं. अतः व्यक्तिगत रूप से उन्हें हल करने के भ्रम का पर्दाफाश किया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपनी भूमिका स्पष्ट रूप से समझ सके और समाज का निर्णायक अंग बन सके.

यह डायरी प्रोफ़ेसर सलिल मिश्र से प्राप्त हुई है.टिप्पणी गोपाल प्रधान की है .


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आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. गोरख जी के अनुभवों से होकर गुजरना कभी आग का दरिया तैरने तो कभी हिमालय को छूने जैसा अनुभव दे गया! दुर्लभ सामग्री सुलभ कराने के लिए बधाई!

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  2. अरुण इस डायरी ने झकझोर दिया है . इसे बार-बार पढ़ना होगा . आज आभार कह कर बात ख़त्म नहीं कर सकते .

    सारे अनुभव बताते हैं कि आदमी को दो जून पेट भरने का इन्तजाम करना चाहिए और बातें बाद में आती हैं. लेकिन मैं हवा में प्यार की सोचता रहा हूं. मैं हवा में तिरता सा रहा हूं. बिना देश और दुनिया की परिस्थितियों का विचार किए प्यार के बारे में बेहूदा कल्पनाएं करता रहा हूं. नतीजा कि मैं ही सब कुछ हूं.

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  3. बहुत दुर्लभ अनुभव लगा इसे पढ़ना, इतने समसामयिक सवाल कि ....लगा नहीं कि यह साढ़े चार दशक पुरानी डायरी है. मनीषा कुलश्रेष्ठ

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  4. लगा कि जैसे हर दशक की डायरी है .. अभी -अभी लिखी गई . स्याही की तेज़ खुशबू : कलम की वही नोक जिस पर सारा समाज बैठा है .. कई अंतरों के बीच संघर्षों की धूप.

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  5. यह खोपड़ी बहुतै जटिल है; इतनी कि खोलना कठिन! जितना (प्र)दर्शित है वह बहुत कुछ अदर्शित का संकेतक है। और यह संकेतित ( यानी अदर्शित ) पर हम वस्तुनिष्ठ हो नहीं पाते। इसलिये आपकी शुरुआती प्रस्तावना-वाची रक्तवर्णी पँक्तियों को छोड़कर शेष पाठवत्‌ पढ़ने पर ’पढ़्ते जाने’ का लुत्फ मिलता है। इस चम्पू-शिली में जहाँ-तहाँ मौजूद कविताएँ मोहक हैं, इनमें सीधी-सपाट बयानी है, जटिल नहीं! आभार..!!

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  6. yah ek smsaamyik mudda hai kafi kuch hai wartmaan parivesh se mel karta hua

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  7. pahli baar unki dayri padhi..behad aaccha laga
    khaskar mai dosto se alag hota hu..kamal ka hai

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  8. बेचैन कर देने वाली पोस्ट... इसे उपलब्ध करवाने के लिए आपका आभार.

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  9. बेनामी15 मई 2011, 3:16:00 pm

    हमें कैसी औरत चाहिए ?
    निश्चय ही उसे मित्र होना चाहिए. हमें गुलाम औरत नहीं चाहिए. वह देखने में व्यक्ति होनी चाहिए, स्टाइल नहीं. वह दृढ़ होनी चाहिए. चतुर और कुशाग्र होना जरूरी है. वह सहयोगिनी हो हर काम में. देखने लायक भी होनी चाहिए. ऐसी औरत इस व्यवस्था में बनी बनायी नहीं मिलेगी. उसे विकसित करना होगा. उसे व्यवस्था को खतम करने में साथ लेना होगा. हमें औरतों की जरूरत है. हमें उनसे अलग नहीं रहना चाहिए. dayri ke panno me unki jindji ke kayi rang hai. itne sare rango se prichit karane ka shukriya arun

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  10. सुन्दर अनोखा औपन्यासिकता से भरपूर गद्य है। गोरख जी का मनोविश्लेषण करने के लिए बहुत सहायक है यह गद्य।

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  11. गोरख जी, यह नाम ही एक लैंडमार्क है। ऐसा लेखक जो हिलाकर रख दे। हर सोच में विप्लव की आकांक्षाएँ। अपने संसार की चीजों को अनजाने ढंग से देखने की बिलकुल नयी महारत। फ़िर उनमें एक विन्यास की अज़ब ढूँढ़ जो थोड़ा यूटोपियाई लग सकता है ग़र माना जाय की हमारी दुनिया मनुष्य की खल-कामनाओं से बुरी तरह भरी है। Kant की निग़ाह में यह मनुष्य की निर्मिति में सहजात रूप से लगा defective timber है। गोरख पांडेय की सर्जना इसी दुर्गुण से लगातार लोहा लेती एक शानदार यात्रा है। इस क्रम में गोरख प्रेम,कविता,लड़की,लड़कियों की सुंदरता इत्यादि को अपने रचाव में अपने ढंग से अनुस्यूत होने देते हैं। ऊपर डायरी की 13 टीपों में शायद ही कोई टीप ऐसी मिले जिसमें इनकी चर्चा न आयी हो। इसलिए कहीं-न-कहीं लगता है कि गोरख की मनोरचना में प्रेम था और उसकी विभीषिका भी,कुंठा भी। लेकिन कुछ भी हो वे एक दार्शनिक कवि थे जो कम समय में संसार को समझने की नयी संवेदनाएँ छोड़ गये। अंग्रेजी के कवि Ben Jonshon की पंक्तियाँ हैं:
    In small proportion we can beauty see
    And in short measure life may perfect be.

    मैंने डायरी की कोई टीप copy-paste नहीं की और अपने मन की बात लिख दी। हो सकता है कुछ गलतियाँ चली गयी हों। गोरख पांडेय!!! मेरे जनपद,मेरे जवार के कवि,तुझे सलाम।
    अरुण जी ..... तूसी ग्रेट हो।

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  12. अरुण जी, इस पोस्ट को देखा,कई बार टालने की कोशिश की, मैं जानता हूँ गोरख दा के बारे में..कि पढने बैठोगे तो आईना दिखा देगा, हम न जाने क्या क्या गलतफ़हमियां पाले रखते हैं, उन्हें तार तार कर देगा, तमाम नकली सफ़ेदी और उजाले को हटा कर पोत देगा एक बदबुदार कालिख, वही हुआ..इस काम में माहिर हैं गोरख, १९८९ को गये दो दशक हो चुके, थोडा समय नहीं होता किसी कृत को जज करने के लिये..ये तो और प्रासंगिक बन पडा है, शायद १९७०-१९८० के दशकों से भी गहन मूर्छा और अंधकार गिर चुका है, जडता पैठ गयी है, कौन तोडेगा इसे..?एक तार्किक जीवन की परिभाषा कितने सरल तरीके से की गयी है, आज भी जी लें, आज भी चलने और आज भी उससे नाता कोई जोडे तो फ़र्क पता चल जायेगा.सिरहन भरी शानदार पोस्ट. शुक्रिया.

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  13. मैं कुछ वर्ष पूर्व गोरख जी के गाँव गया. इच्छा थी उनके परिजनों से मिलने की परन्तु समय ने कुछ ऐसा बेबस किया की गाँव की देहरी छूकर ही वापस आना पड़ा. उनका गाँव उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में पकड़ी वीरभद्र के पास है. कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने आत्महत्या की, परन्तु मैं कहता हूँ कि उनकी हत्या की गई और हत्यारा और कोई नहीं बल्कि वह समाज है जो 'गोरख पाण्डेय' और 'विद्रोही' जैसे लोगों को पागल करार दे देता है, वह समाज है जो गोरख जी की डायरियों में उनको पल पल मारता हुआ, पल पल उनकी हत्या करता हुआ दिखाई देता है.

    डायरी का सम्पादन और प्रकाशन बहुत ही कठिन कर्म है. बहुत सारी समस्याएँ और डर वहाँ होते है. लेखक की निजता और गोपनीयता की रक्षा, डायरी में आये हुए नामों को इशारे में उजागर करने की विवशता...और भी बहुत सारी कठिनाइयां. प्रो. सलिल मिश्र, गोपाल प्रधान जी और अरुण जी, आप तीनों बहुत बहुत बधाई के पात्र है...इन कठिनाइयों से सफलतापूर्वक पार पाने हेतु.

    हिंदी साहित्य के पाठकों को कविता-कहानी के इतर लेखकों की डायरियाँ पढ़ने का भी शौक पालना चाहिए. शुरू में ये डायरियाँ उबाऊ लग सकती हैं लेकिन ज्यों-ज्यों हम आगे बढते हैं, इन डायरियों में एक पूरे युग का इतिहास बिखरा हुआ मिलता है, ये डायरियाँ एक रोचक उपन्यास जैसी लगने लगती है. मोहन 'राकेश की डायरी'भी एक ऐसी ही डायरी है.

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  14. मित्रों कामरेड गोरख पांडे मेरे एक ऐसे मित्र थे जो अक्सर रात के दो ढाई बजे रात को मुझसे टाइम्स आफ इंडिया पढ़ने के लिए ले जाया करते थे ...उनहोंने एक दिन मुझसे पूछा की आप इस वक्त क्या लिख रहे हैं ..संयोग से उस रोज मैं कविता लिख रहा था ..ये १९८२... की बात है ..जब मुझे एस एफ आई और सी पी एम छोड़े हुए दो साल हो चुका था ...संगठन से अलग होने का गम जब मुझे अखरता था तब मैं कवितायें लिखने लगता था लेकिन यह बात कोई जानता नहीं था ..उस रोज गोरख जी ने एक सिगरेट माँगा और कहा की आप अपनी कविता मुझे जरूर सुनाइये ..खैर मैंने उन्हें दस कवितायें सुना दिया ../ कुछ दिनों बाद गोरख जी मुझे जेएनयू सिटी सेंटर ले गए जहां एक कवी -गोष्टी थी और उसकी अध्यक्षता ..श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कर रहे थे ...वहाँ पर मुझसे लगातार तेरह कवितायें सुनी गईं ...मेरी बड़ी तारीफ़ हुई ..सक्सेना जी ने गाँव और विघ्यान पर लिखी गयी मेरी एक कविता को उस साल की सर्वश्रेष्ट यथार्थवादी कविता कहा और नागभूषण पटनायक की तारीफ़ में एक कविता खुद भी सुनाये .......इस तरह गोरख जी ने मुझे कवी बना दिया लेकिन यह मेरा निजी फैसला था की मैं अपने देशवाशियों के सामने एक कवी के तौर पर पेश नहीं होना चाहता था ..यही कारण है की उसके बाद दुबारा मैं कभी भी मंच से कविता सुनाने के लिए तय्यार नहीं हुआगोरख जी और हम संयोग से पेरियार होस्टल (जेएनयू )में सेकण्ड फ्लूर पर रहते थे ..वे जब चाय पीने जाते थे तो कमरे में टाला नहीं लगते थे ...

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  15. एमरजेंसी में डायरी....बहुत दुर्लभ चीज़ है. इतना खूबसूरत कोई सिज़ोफ्रिनिक ही लिख सकता है. अच्छे - भले और दुनियादार लोग नहीं.

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  16. बहुत सार्थक और प्रासंगिक प्रस्तुति। आभार अरुण भाई।

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  17. अरूण देव जी,
    गोरख पांडे की विरासत से रूबरू कराने के लिए प्रोफ़ेसर सलिल मिश्र, गोपाल प्रधान और आपका तहेदिल आभार...

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  18. सार्थक लेखन |

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
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  19. Dhanyawad Arun dev ji....kamred Gopal pradhan aur Salil Mishra ji ko lal salam....isliye ki aaj kamred Gorakh panday ko samne sahaj pakar...sukh ki anubhuti dilayi.....ye sukh bada kimati hai....

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  20. मैं इकराम अंसारी। गुजरात से। मैं समकालीन कवियों पर उत्तर गुजरात विश्विद्यालय से शोधकार्य कर रहा हूँ। बतौर समकालीन कवि मैने गोरख पांडेय को लिया है। पर कवि के संदर्भ में साहित्य मिल नहीं रहा। यदि कोई कुछ सहायता कर पाएं तो मदद मिल जाएगी।

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  21. कई बार आँखें नम हुईं पढ़ते हुए ....

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