मैं और कविता ::
मैं फ़िल्म और टेलीविज़न माध्यम के लिए व्यवसायिक (व्यापारिक) लेखन करता हूँ. ज़ाहिर है कि मैं बाज़ार के बीच खड़ा हूँ. बाज़ार की अपनी मांगें हैं, दबाव हैं, और सीमाएँ भी हैं.मैं यहाँ सब कुछ नहीं लिख सकता. कम से कम वह तो नहीं ही लिख सकता जो मैं कविताओं में लिखता हूँ. बाज़ार में सब कुछ या मन मर्ज़ी के मुताबिक न लिख पाने की प्रतिक्रिया स्वरूप मैं कविता लिखता हूँ. क्यों कि मुझे यह भ्रम कतई नहीं है कि व्यवसायिक (व्यापारिक) स्थिति में कोई बदलाव आयेगा.
कविता मेरी वास्तविक अभिव्यक्ति का अभ्यास है. इससे जूझते हुए मेरे चिंतन को आकार मिलता है. इसलिए यह मेरे व्यक्तित्व का अहम हिस्सा है.
फरीद खान की कुछ नई कविताएँ
क्यों लगता है ऐसा
पता नहीं क्यों हर बार लगता है
रेल पर सफ़र करते हुए
कि टीटी आएगा और टिकट देख कर कहेगा
कि आपका टिकट ग़लत है
या आप ग़लत गाड़ी में चढ़ गये हैं,
आपकी गाड़ी का समय तो कुछ और है,
तारीख़ भी ग़लत है,
आपने ग़लत प्लेटफ़ॉर्म से ग़लत गाड़ी पकड़ ली है,
आप उल्टी तरफ़ जा रहे हैं.
और वह चेन खींच कर उतार देगा
मुझे निर्जन खेतों के बीच.
जबकि ....... हूँ अकेला
हर फ़ैसले के वक़्त लगता है,
कोई ट्रेन छूट रही है,
कोई पीछे से आवाज़ लगा रहा है,
या कोई भागता हुआ आ रहा है रोकता.
मैं जबकि सवा अरब की भीड़ में खड़ा हूँ अकेला.
बकरी
खेत में घास चरती बकरी
बकरी
खेत में घास चरती बकरी
पास से गुज़रती हर ट्रेन को यूँ सिर उठा कर देखती है,
मानो पहली बार देख रही हो ट्रेन.
जैसे कोई देखता है गुज़रती बारात,
जैसे खिड़की से सिर निकाल कर कोई देखता है बारिश,
जैसे एकाग्र हो कर सुनता है कोई तान.
ट्रेन गुज़र जाने के बाद,
उस दृश्य आनन्द से निर्लिप्त वह,
चरने लग जाती है घास नये सिरे से.
ताकतवर इंसान
ईश्वर हमें नंगा पैदा करता है,
और धर्म हमें कपड़े पहनाता रहता है.
सभ्यता लकीरें खींचती हैं.
और जो न अपनी मर्ज़ी से पैदा होता है
और न अपनी मर्ज़ी से मर सकता है,
वह इंसान बम गिरा कर अपनी ताकत दिखाता है.
और धर्म हमें कपड़े पहनाता रहता है.
सभ्यता लकीरें खींचती हैं.
और जो न अपनी मर्ज़ी से पैदा होता है
और न अपनी मर्ज़ी से मर सकता है,
वह इंसान बम गिरा कर अपनी ताकत दिखाता है.
अब कोई राम नहीं
मन और माया के साथ घूमा पूरी दुनिया.
लौट कर आया
तो शरीर को वहीं पाया,
जहाँ छोड़ गया था बरसों पहले.
अब कोई काम नहीं.
अब कोई दाम नहीं.
गगनचुम्बी इमारत के बुर्ज पर लहराती पताका बता रही है,
दूर दूर तक अब कोई राम नहीं.
सिक्का
सिक्का रौन्दता है रात के सन्नाटे में सड़क को.
सिक्का रौन्दता है पुल को.
पानी को, हवा को,
बोली को, बानी को.
उसकी सुरक्षा अभेद्य है.
सिक्का रौन्दता है धान की बाली को.
बिक रहे हैं अख़बार
अब अख़बार पढ़ने से ज़्यादा बेचने के काम आते हैं.
मेरे सारे अख़बार बिक चुके हैं.
अख़बारों को बेचने के पैसे बहुत मिलते हैं.
और बिग बाज़ार में तो दाम तिगुने मिलते हैं.
पन्ने पर पन्ना छप रही है ख़बर,
क्यों कि लोग ख़रीद रहे हैं अख़बार.
पेपर की रिसाईक्लिंग के बाद
फिर से छपेगी ख़बर,
फिर से लोग ख़रीदेंगे,
और फिर से बिकेंगे अख़बार.
फ़ेसबुक से दूर रहना.............
पांच दिनों तक लगातार कम्प्युटर और फेसबुक से दूर रहना
वैसा ही है,
जैसे बड़ी मुश्किल से शराब छोड़ना.
सिगरेट छोड़ना.
लम्बे अर्से तक तामसिक भोजन के बाद
साग सब्ज़ी खाने लगना.
कम्प्युटर और फ़ेसबुक से दूर रहना
दूर गाँव के खेतों में विचरना है.
भीगे घास पर चलना है.
सचमुच !
अद्भुत !!
अनोखा !!!
कुंभ के मेले में बिछड़े हुए भाई से मिलना है.
अल्लाह मियाँ
अल्लाह मियाँ कभी मुझसे मिलना
थोड़ा वक़्त निकाल के.
मालिश कंघी सब कर दूंगा, तेरा,
वक़्त निकाल के.
घूम के आओ गांव हमारे.
देख के आओ नद्दी नाले.
फटी पड़ी है वहाँ की धरती.
हौसले हिम्मत पस्त हमारे.
चाहो तो ख़ुद ही चल जाओ.
वरना चलना संग हमारे.
अल्लाह मियाँ कभी नींद से जगना
थोड़ा वक़्त निकाल के.
मालिश कंघी सब कर दूंगा, तेरा,
वक़्त निकाल के.
झांक के देखो,
खिड़की आंगन,
मेरा घर,
सरकार का दामन.
ख़ाली बर्तन, ख़ाली बोरी,
ख़ाली झोली जेब है मेरी.
भर कर रखा अन्न वहाँ पर, पहरा जहाँ चहुँ ओर है.
अल्लाह मियाँ ज़रा इधर भी देखो,
मेहर तेरी उस ओर है.
अल्लाह मियाँ कभी ठीक से सोचो
थोड़ा वक़्त निकाल के.
मालिश कंघी सब कर दूंगा,
तेरा, वक़्त निकाल के.
::::::
फरीद की कुछ कविताएँ यहाँ भी देखी जा सकती हैं. उनकी कुछ कविताएँ तद्भव के नये अंक में प्रकाशित हैं.
train ki ye series badi achchhi lagi ..
जवाब देंहटाएंहर फ़ैसले के वक़्त लगता है,
कोई ट्रेन छूट रही है,
कोई पीछे से आवाज़ लगा रहा है,
या कोई भागता हुआ आ रहा है रोकता.
मैं जबकि सवा अरब की भीड़ में खड़ा हूँ अकेला.
farid aapko badhai aur shubhkaamnaen! arun achchhi post ke liye aabhar!
ईश्वर हमें नंगा पैदा करता है,
जवाब देंहटाएंऔर धर्म हमें कपड़े पहनाता रहता है.
गगनचुम्बी इमारत के बुर्ज पर लहराती पताका बता रही है,
दूर दूर तक अब कोई राम नहीं.
अल्लाह मियाँ कभी ठीक से सोचो
थोड़ा वक़्त निकाल के.
मालिश कंघी सब कर दूंगा,
तेरा, वक़्त निकाल के.
कमाल की कविताएँ... आभार
अच्छी कवितायेँ !
जवाब देंहटाएंइन कविताओं के स्वर मुझे उस मजबूर इंसान के स्वरों जैसे लगे जो अब कोई अफ़सोस भी नहीं करता ,पछताता भी नहीं !
जवाब देंहटाएंसारी कविताएं बहुत सुन्दर हैं!
जवाब देंहटाएंमगर तस्वीर का आभार देना कब सीखेंगे लोग? हैं? :)
kamal ki kavitaye hai .tajgi se vari huyi. kaskar allamiya bhut acchi lagi.farid badhai
जवाब देंहटाएंbahut acchi. ek aam aadmi ki vedna bahut mazboot shabdo me vyakt hui hai . abhar . leena
जवाब देंहटाएंkavitawo me tajgi hai. kayi rang hai. badhi .ईश्वर हमें नंगा पैदा करता है,
जवाब देंहटाएंऔर धर्म हमें कपड़े पहनाता रहता है.
सभ्यता लकीरें खींचती हैं.
और जो न अपनी मर्ज़ी से पैदा होता है
और न अपनी मर्ज़ी से मर सकता है,
वह इंसान बम गिरा कर अपनी ताकत दिखाता है. bhut sundar farid
WOW......Heart touching.........Just like any individual's story....keep going all the best- Kavita Singh
जवाब देंहटाएंप्यारी कविताएं । धन्यवाद , मित्र।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताएं::: एक से बढ़ कर एक
जवाब देंहटाएंबिक रहे हैं अख़बार
अब अख़बार पढ़ने से ज़्यादा बेचने के काम आते हैं.
मेरे सारे अख़बार बिक चुके हैं.
अख़बारों को बेचने के पैसे बहुत मिलते हैं.
और बिग बाज़ार में तो दाम तिगुने मिलते हैं.
पन्ने पर पन्ना छप रही है ख़बर,
क्यों कि लोग ख़रीद रहे हैं अख़बार.
पेपर की रिसाईक्लिंग के बाद
फिर से छपेगी ख़बर,
फिर से लोग ख़रीदेंगे,
और फिर से बिकेंगे अख़बार.
मज़ा आया पढ़ कर. बहुत अच्छा लिख रहा है यह कवि.
जवाब देंहटाएंदूर दूर तक अब कोई राम नहीं...
जवाब देंहटाएंक्या खूब कविताएं...ताज़गी भरी...
फरीद खान जी की 'क्यों लगता है ऐसा' वक्त की आपाधापी, जीवन की जटिलताओं को व्यक्त करती कविता है। यह मनुष्य में निरंतर कम होते आत्मविश्वास से अधिक हमारे समय की भयावहता को रेखांकित करती है। यह अब तक के अर्जित को न चाहते हुए गंवा देने की विडंबना की बात करती है, फिर से शून्य से शुरूआत की बात करती है। इस तरह वह हमारे अब तक के अर्जित पर सवाल खड़ा करती है। जैसा कि वह कहती भी है कि 'और वह चेन खींच कर उतार देगा/ मुझे निर्जन खेतों के बीच।' इसकी दूसरी कविता 'जबकि... हूँ अकेला' में इसके कार्य-कारण के संबंधो को तलाशा जा सकता है। 'पता नहीं क्यों हर बार लगता है/ रेल पर सफ़र करते हुए...' को 'हर फ़ैसले के वक़्त लगता है, कोई ट्रेन छूट रही है' से जोड़कर भी देखा जा सकता है। विशेषकर कि 'रेल पर सफ़र' और 'ट्रेन के छूटने' के निहितार्थों में। शेष फिर...
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताओं के लिए फरीद खान साहब और अरूणदेव जी दोनों को बधाई और शुभकामनाएं।
बहुत सुन्दर !!!
जवाब देंहटाएंdadda bahoot khoob
जवाब देंहटाएंdadda bahoot khoob
जवाब देंहटाएंinme kuchh explain karane ki jaroorat nahin hai. kavitaa likhane ki jid bhi isme jhalak rahi hai. ye kavitaayen ghor sangharsh ka sanket karti hain. aaj ke vyast jeevan ki yahi kahani hai....!!!! aap ne jo bhi likha hai vah man ke kisi kone se uthati aavaj hai, jo sab ke man me uthati hai.
जवाब देंहटाएंwaah waah, Farid! Mubaarak ho! vilakshaN kavitaayein :)- Dolly (ye log BLOG WAALE)to benaam karne par tule hain)
जवाब देंहटाएंउफ़.. क्या था ये सब.. कविताओं से जी उचट गया था, लगता है अब फिर से पढ़ने लग जाऊंगा..
जवाब देंहटाएंbehtarin kavitaen hain.
जवाब देंहटाएंसारी कविताएँ जबरदस्त हैं पर सबसे ज्यादा झकझोरती है "क्यों लगता है ऐसा " ...धूमिल का कहना था कि सबसे पहला काम इस उलटी दुनिया को फिर से उलटी कर देना होना चाहिए....ये कविता लगभग उसी लकीर पर चलती हुईहमे अपने जड़ों तक पहुंचाती है....बधाई फरीद भाई इतनी बेहतरीन कविता के लिए..
जवाब देंहटाएंFarid ji aapki kavitayn bahot hi sunder, imandar aur samvednaon se bhari hui hain..waise to sabhi bahot achchi hain lekin mujhe 'allah minyan' bahot pasand aayi..issi tarah likhate rahiye ...kuch kaam aapne liye..achcha lagata hai...
जवाब देंहटाएंआपकी लाजवाब स्वीकारोक्ति और लाजवाब से भी ज़्यादा लाजवाब कविताओं के लिए बहुत बहुत बधाई! मन की गहरी वेदना, दिन-प्रतिदिन की छटपटाहट और अपने सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से ऐसी कविता जन्म लेती है. कई नहीं बल्कि सारी की सारी पंक्तियाँ ही बहुत सुंदर और असरदायक हैं. सारी कविताओं को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है जैसे: "फरीद खड़ा बाज़ार में, लिए कविताएं साथ"
जवाब देंहटाएंअरुण भय्या, आपको भी बहुत बहुत बधाई! समालोचन वास्तव में बहुत बढिया है.
फ़रीद भाई..आपकी कविता पढ़ी...मुझे ऐसा लगा मेरी ही आपबीती है, मेरी ही बात आपने चोरी से अपने शब्दों में कह रहे हैं... बहुत अच्छा लगा..अद्भुत है...
जवाब देंहटाएंफरीद जी की कवितायेँ बहुत अच्छी लगीं .. खास बात खास अंदाज में .सादर
जवाब देंहटाएंprashant johari@bahut ache bhaiya..hamesh ki trah aapki apni shaili aur vastivikta ka mithass liye..
जवाब देंहटाएंshiboo, maine tumhari saari kavita "shanu aur shishir ko padh ker sunai" aur sabse asharyachakit kerne wali baat ye hai ki anth mai "shanu" ne kaha "saari kavitaye achchi hai". usska yeh pehla experience tha kavitao ke saath. I guess he is your youngest admirer.
जवाब देंहटाएंमित्रों और अरुण भाई का बहुत बहुत आभार।
जवाब देंहटाएं"सिक्का" खूब चला व चमका :)
जवाब देंहटाएं"ताकतवर इंसान" ने भी जज़्बात झंझोड़े.
अच्छा है
जवाब देंहटाएंIt's an acknowledgment of a job well-done.
जवाब देंहटाएंAmazing Thoughts and Words.....
Tremendous thought process...Farid Bhai keeps delivering gems.
जवाब देंहटाएंFarid Bhai keep doing the brilliant work..the whole world is going to sing your name with respect as we do!
कुछ बेहतरीन काव्य अभिव्यक्तियाँ...दिल-ज़हन की ईमानदारी
जवाब देंहटाएंका सबूत हैं ये...और आइना भी, जो सत से आपका चित निर्मल करने
में अपना कर्म तो कर ही जायेगा...
कविताओं का आनंद आया- फरीद...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताये है /जिंद्गी के आसपास नये बिम्ब की कविताये जो आज के समय मे विरल होती जा रही है
जवाब देंहटाएंबधाई और शुभकामनाये
स्वप्निल श्रीवास्तव
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