कथा- गाथा : अशोक कुमार पाण्डेय



उपन्यासों को मध्यवर्गीय जीवन का आधुनिक महाकाव्य कहा जाता है. इस मध्यवर्गीय जीवन की कहानियों का बहुत कुछ लेना-देना उस नयी स्त्री से भी है जो औद्योगिक क्रांति के बाद समाज में प्रत्यक्ष हुई. उत्तर– औद्योगिक कथा–संसार में इस स्त्री की छवि फिर बदली है, इस परिवर्तन में प्रवंचना, पीड़ा अभी भी उभयनिष्ठ है. अशोक ने नीलू के माध्यम से स्त्री के मन और तन के बीच जीवन की रूढ़ियों और तनाव को भी देखा है. सधा, सीधा और प्रवाहमय कथा-तत्व.





आई एम सॉरी नीलू…

अशोक कुमार पाण्डेय



देह का क्या है ज़रा सी ढील दी और उड़ने लगती है.

आप कभी उड़े हैं? …  क्या? हवाई जहाज से? उसमें आप कहां उड़ते हैं भाईउड़ता तो हवाई जहाज है और उसे भी उड़ाता कोई और है! उड़ने का सुख तो बस पक्षी जानते हैं और कपास के वे फाहे जो हवा के भरोसे छोड़ देते हैं ख़ुद को और बस निश्चिंत बहते रहते हैं आसमान के समन्दर मेंनिश्चिंत इसलिये कि उन्हें न तो यह पता होता है कि जाना कहां है और न ही उसकी फिक्र. चलना हो या उड़ना मज़ा बेफ़िक्री में है. मंज़िल की फ़िक्र चलने का मज़ा छीन लेती है. आपने कभी सिगरेट पी हैकाम करते वक़्त या लिखते वक़्त सिगरेट पीने का मतलब है बस उसकी जान लेना और अपने सीने में थोड़ी आग़ भरनाजैसे कोई जानवर पेट भर रहा होसिगरेट पीने का मज़ा तो तब है जब उसे अलग से एक काम की तरह कीजिये. चुपचाप, अकेले किसी ऐसी जगह पर बैठकर जहां कोई और काम न करना होजैसे नीलू पीती थीहमेशा कमोड की सीट पर, बाथरूम की सिटकनी लगाकरलेकिन यह उसने शुरु किसी मज़े के लिये नहीं किया थाशुरु तो डर से किया थालोगों के डर सेउसकी ज़िंदगी के सारे क़िस्से डर से ही तो शुरु हुए थे. और कौन सी औरत है डर जिसकी ज़िन्दगी का हिस्सा नहींहिस्सा क्या डर तो हर औरत की ज़िंदगी का दरोगा होता है और दुख चौकीदारइनसे छूटी तो कौन उसे औरत मानेगा? जब वह सिगरेट हाथ में लिये बाथरूम में जाती थी तो औरत को चौखट पर ही छोड़ जाती थीफिर भी दुख तो भीतर आ ही जाता थाऔर वह औरत बाहर खड़ी लगातार दरवाज़ा खटखटाती रहती थी .

दस साल हो गये आजदस सालएक युगजिसमें दुधमुहा बच्चा तीसरी-चौथी में पहुंच जाता है... बच्चे जवान हो जाते हैं... एक हंसती खेलती लड़की उदास औरत में तब्दील हो जाती है...ज्यादातर धाराओं के बंदी छूटकर घर आ जाते हैं...कितना सारा पानी बह जाता है नदियों मेंलेकिन जब ठहर जाते हैं ये बरस समंदर की कोख में पड़ी किसी अभागी जहाज की तरह तो? डूब ही तो गयी थी उसकी जहाज यात्रा के पहले ही पड़ाव परपड़ाव भी कहां बस लंगर से छूटते हीदेह और मन दोनों ख़जाने से लबालब इस अंधेरी गुहा में पटक दिये गये थे अचानक दस साल!

निरंजन और मैने साथ में ही ज्वाइन किया था…एस एस एसी की परीक्षा पास करके वो इलाहाबाद से आया था और मैं लखनऊ से. सफ़ेद बालों, बदरंग साड़ियों और उधड़ी शर्टों के बीच हम दोनों किसी अज़ूबे की तरह थे. हमारी उम्र, हमारे कपड़े, हमारी चमक, हमारे सपने सब उन बजबजाती फाइलों के बीच मिसमैच लगते थे. हज़ार कोशिशों के बाद भी उन महिलाओं की नसीहतें न मान पाने की लाचारी के बीच न जाने कब मैं और निरंजन दोस्त बन गये- पक्के दोस्त. आफ़िस ही नहीं कैंटीन से सिनेमाहालों तक में हमारी कुर्सियां अगल-बगल रहती थीं. पता नहीं उसका असर था कि दफ़्तर में पूरे दिन चलने वाली कानाफूसियों का कि बस मुझे उससे प्रेम होने ही वाला था…फिर उस दिन कैंटीन में तमाम फुसफुसाहटों के बीच निरंजन ने मुझसे कहा – अगर नीलू यह सब सुन ले तो मार ही डाले मुझे! नीलू? यह नाम पहली बार सुना था मैंने और चौंक गयी थी. फिर उसने सब बताया – कैसे नीलू और वो एक ही क्लास में नर्सरी से एम.. तक साथ पढ़े और ऐसे जुड़े कि कभी किसी को प्रपोज़ करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. और दिक्कत भी तो नहीं थी कोई…दोनों के पिता अच्छे दोस्त…एक ही जाति…सब जैसे किस्मत की क़लम से लिखा हुआ. थोड़ा झटका सा ज़रूर लगा मुझे लेकिन फिर संभाल लिया. अगले महीने ही शादी थी उनकी.

फिर सब जैसे कितनी जल्दी हुआ…शादी के बाद उसका लौट कर अकेले आना…नया फ्लैट किराये पर मैंने ही दिलवाया था…गैस के चूल्हे से लेकर सोफ़े तक सब उसके साथ-साथ पसंद कराया…फिर वह नीलू को लेकर लौटने के लिये इलाहाबाद चला गया और लौटी तो बस उसके एक्सीडेंट की ख़बर! उफ़! उस एक पल ऐसा लगा कि मैं नीलू हो गयी थी…कितनी रातें बस आंसूओं में…कितने दिन बस उदासी में…कितने महीनें बस एक चुप्पी में…और फिर जब नीलू को देखा तो लगा कि मैं नीलू कभी हो ही नहीं सकती थी…उसकी आंखें जैसे कोई अन्तहीन सुरंग…जब निरंजन था तो यक़ीनन इनमें कोई समन्दर लहराता होगा…मुझे देखा तो बस लिपट गयी…न आंसू…न कोई आवाज़…बहुत देर बाद जब कहा कि ‘निरंजन आपकी बहुत बातें करते थे’ तो लगा जैसे आवाज़ उसी सुरंग से आई है. बस इतना बोल पाई कि वह तुमसे बहुत प्यार करता था’…और दोनों के आंसू साथ-साथ निकल आयेफिर हिचकियां और फिर रुलाई

जो लोग दफ़्तर में निरंजन को कभी पसंद नहीं करते थे उन्होंने भी नीलू के मर्सी एप्वाइंटमेंट में पूरी मदद की थी. एस ओ साहब ख़ुद फाइल लेकर दिल्ली तक गये नीलू के पापा के साथ और ठीक चार महीने बाद वह मेरे बगल की उसी सीट पर थीएक गंदुमी सी साड़ी, बीच से निकली सीधी मांग जो कहीं ख़त्म ही नहीं होती थी, हाथ में एक काला कंगन और उन सूनी सुरंगों के दरवाज़े पर बैठा ढेर सारा डरसुबह हास्टल से मेरे साथ निकलते हुए उसने पूछा था – ‘मैं कर पाउंगी ये सब?’ मैनें बस उसके कंधे थपथपाये और कहा - कुछ करना नहीं होता हैसब हो जाता है. और सब होता गया

दिन बीतते गयेवह दफ़्तर के माहौल में ढलने लगीदुख की बदलियों के बीच धूप के छोटे-छोटे टुकड़ेडर के कुहासे के बीच रोमांच की क़तरा-क़तरा रौशनीहालांकि वह भी लोगों को कम नहीं खलती थीजिस दिन पहली बार उसने बिंदी लगाई, वह काली बिंदी भी लोगों की नज़रों में शूल की तरह गड़ीउसकी मुस्कराहट लोगों की आंखों में प्रश्नवाचक चिन्हों की क़तारें खड़ी कर देती, साड़ी की जगह सूट क्या पहना नसीहतों की बर्छियां उसके कलेजे को भेदती चली गयींऐसे मौकों पर वह बस चुप रह जातीहाथ में चाय का कप लिए-लिए हिचकियों में डूब जाती और लोग अपनी गलदश्रु सहानूभूतियों में तृप्त कहते निरंजन बेटे जैसे था हमारा तुम्हारे भले के लिये ही कहते हैंऔर उसकी सुरंगे और वीरान हो जातीं. मैं भरसक कोशिश करती उसे उन सबसे दूर रखने की लेकिन कितना कर पाती. हास्टल के कमरे में भी वह बिल्कुल अकेले पड़ी रहतीसामने निरंजन की तस्वीर को घूरती रहतीउसकी पुरानी डायरियां पलटतीउसके पुराने ख़त बार-बार पढ़तीऔर आंखों की कोर से बूंदे अपने-आप बहती रहतीं. छुट्टियों के दिन जैसे पहाड़ बन जातेपूरा हास्टल मौज-मस्ती में डूबा रहता और वह अपने-आप में. कितनी बार कहा कि साथ चला करोघूमोगी-फिरोगी तो मन हल्का होगावह कहती- ‘मन है कहां दीवह तो उसके साथ चला गया’… बहुत ज़िद के बाद रात को टीवी रूम में आकर बैठने लगीकभी किसी दृश्य पर मुस्कुरा देती और कभी उदास हो जातीफिर एक दिन अचानक उसने कहा- दी आज फिल्म देखते हैंकितने दिन हो गये!

देखते-देखते दो साल बीत गये. मेरी शादी के बाद उसने हास्टल छोड़ दिया था और एक दो कमरों के फ़्लैट में रहने चली गयी थी. इस बीच मेरे प्रमोशन के बाद दफ़्तर में हमारे सेक्शन बदल गये थे, उसके कई नये दोस्त बन गये थे और मेरी व्यस्ततायें भी बढ़ गयी थीं तो मिलना-जुलना काफ़ी कम हो गया था. कभी स्कूटर स्टैण्ड पर या कैंटीन में मिलती तो हर बार घर आने का वादा करतीन आ पाने पर अफ़सोस ज़ाहिर करतीफिर दोनों अपनी-अपनी व्यस्तताओं का रोना रोते और अपनी-अपनी राह पकड़ लेते. दफ़्तर में उसके गासिप अब पुराने पड़ चुके थे और वह उन दो हज़ार चेहरों में ऐसे घुलमिल गयी थी जैसे बाकी सबपता नहीं कब और कैसे हम सब उस फाइलों के बज़बज़ाते मैदान में से अपनी-अपनी मेढ़ें बनाकर निकलना सीख जाते हैं, उन बदरंग चेहरों के साथ रहते-रहते वैसे ही होते जाते हैंकहीं पढ़ा था कि तीस-चालीस साल साथ रहते-रहते पति-पत्नी की शक्लें एक जैसी लगने लगती हैंशायद दफ़्तर में भी ऐसा ही होता है कुछ! लेकिन उस दिन जब मिसेज़ सिन्हा ने अलग से बुलाकर कहा कि तुमसे कुछ बात करनी है तो जैसे उस शांत समन्दर में हज़ार पत्थर आ गिरे. कोई और कहता तो मैं उसे हंसकर टाल देती…लेकिन मिसेज़ सिन्हा…पति की मृत्यु के बाद पिछले सत्रह सालों में उनके चेहरे पर गंभीरता के अलावा कोई और रंग नहीं देखा…तीन बच्चों और देवर की ज़िम्मेदारी…दफ़्तर…घर…बस इन्हीं के बीच भागती रहतीं…कभी किसी के बारे में कुछ कहते-सुनते नहीं देखा और आज जब वह नीलू के बारे में बता रही थीं तो भी जैसे शब्द कहीं दूर से आ रहे थे अटक-अटक कर- पूरे दफ़्तर में चर्चा थी कि नीलू का चक्कर उसी के सेक्शन के सुदीप से चल रहा था! सिन्हा मैडम ने ख़ुद दोनों को दफ़्तर के बाहर कई बार एक साथ देखा था…

सुदीप! मैं जैसे आसमान से गिरी…वह तो…ऐसा कैसे हो सकता था…वह तो…नीलू ऐसा कैसे कर सकती थी? उसके मां-बाप का क्या हाल होगा जब सुनेंगे ये…उसकी अभी एक और छोटी बहन है…ऐसा कैसे हो सकता था…कैसे कर सकती थी नीलू यह…मन किया सीधे उसके सेक्शन में पहुंचुं और…फिर लगा कि मुझे क्या…उसकी ज़िंदगी जो चाहे करे…लेकिन ऐसा कैसे…मेरा दोस्त था निरंजन…आख़िर मेरी भी ज़िम्मेदारी थी उसके प्रति…चाहकर भी ख़ुद को रोक नहीं पाई उसे फोन किया और शाम को दफ़्तर से सीधे उसके घर पहुंच गयी. बिना किसी भूमिका के सीधे पूछा- क्या सुन रही हूं मैं? तुम और सुदीप? यह कैसे हो सकता है…कोई और होता तो मैं ख़ुद मदद करती लेकिन सुदीप!

क्यों क्या प्राब्लम है सुदीप में?

तुम नहीं जानती? मैने सीधे उसकी आंखों में देखा और सहम गयी…उन सुरंगों में समन्दर के क़तरे झिलमिला रहे थे.
मेरे साथ नौकरी करता है…स्मार्ट है…शराब नहीं पीता…मेहनती है…मेरी उम्र का है…अविवाहित है…आख़िर दिक्कत क्या है? वह सोफ़े पर आराम से पसर गयी…

मुझे बहलाओ मत नीलू…यह सब जानती हूं मैं…लेकिन असली बात तुम क्यों नहीं कर रही…मैं झल्ला गयी थी…

असली बात? – वह अनजान बनी रही
नीलू…अपने मां-पिताजी के बारे में सोचा है कभी? और छोटे भाई-बहनों के बारे में…मैने लगभग आख़िरी हथियार चलाया तो उसके चेहरे पर न जाने कितने भाव आ कर चले गये…रह गई तो एक उदासी… ‘मैं क्या करुं दीदी…प्यार करती हूं उससे…

पागल मत बन…

वह उठी और अभी आई कहकर बाथरूम में चली गयी…

मेरा सिर घूम रहा था…चुपके से उसका मोबाइल उठाया और पिताजी का नंबर नोट कर लिया…वह बाहर आई तो पीछे-पीछे तंबाकू की महक भी… एक बार विश्वास नहीं हुआ…पूछना चाहा लेकिन कुछ सोचकर चुप रह गयी. उसके बाद कोई बात नहीं हुई…साथ में चाय पी…और निकलते हुए मैने उसके कंधों पर हाथ रखकर कहा- ‘मेरी छोटी बहन जैसी है तूं…जो कहा तेरे भले के लिये…मेरी बात पर ग़ौर करना’

आज लगता है कि हम जब किसी के भले की ज़िम्मेदारी अपने सर पर ले लेते हैं तो उसकी ख़ुशी और आज़ादी की सारी संभावनायें छीनकर सबसे पहले उसके मन को जकड़ने की कोशिश करते हैं. वह सब उससे छीन लेना चाहते हैं जो उसके मन ने जुटाया होता है…और उसे इतना अकेला और ग़रीब बना देते हैं कि हमारी हर बात मानना उसकी इच्छा नहीं मज़बूरियों से संचालित होने लगता है. यही तो किया था मैंने…उसके पिता को फोन कर सब बताया…उसके एस ओ से बात कर सुदीप को डेपुटेशन पर भेज दिया…जाने से पहले उसे ख़ूब बेइज्जत किया…दफ़्तर के समय में नीलू का बाहर निकलना बंद करा दिया…उफ़…क्या हो गया था मुझे…आज जब तीन-तीन महीने अविनाश यहां नहीं आता…तिल-तिल कर जलती है नीलू तो मैं भी जलती हूं प्रायश्चित की आग़ में…मुझे लगता है कि इन सब कि ज़िम्मेदार मैं हूं…सिर्फ़ मैं…तभी तो इनसे मंगवाकर सिगरेट के पैकेट चुपचाप दे आती हूं उसे…

अविनाश से शादी के बाद से ही नीलू कभी ख़ुश नहीं दिखी मुझे…पहले सोचती थी कि शायद सुदीप से अलग होने का दुःख और गुस्सा होगा इसके पीछे… जब उसके उम्मीद से होने की ख़बर सुनी तो सोचा कि शायद बच्चे के बाद सब सामान्य हो जाये…लेकिन उसके बाद तो हालात और बिगड़ गये…अविनाश महीनों नहीं आता था…आता तो जितने दिन रहता नीलू बुझी-बुझी रहती…पड़ोसियों ने बताया कि रात-रात भर लड़ाईयां चलतीं…नीलू और बच्ची के रोने की आवाज़ें आतीं…वह कभी भी आफिस में आ धमकता और कैंटीन में बैठकर उलटी-सीधी बातें करता…उसके जाने के बाद नीलू अकसर पैसों के लिये परेशान रहती…अब वह किसी से बात नहीं करती थी…बच्ची एक क्रेश में रहती थी…मैने कई बार पूछने की कोशिश की लेकिन उसने कभी कुछ नहीं बताया…फिर आज अचानक उसका फोन आया था!

दीदी अभी मेरे घर आ जाओ…

इस वक़्त? अभी तो आफिस में हूं…

छुट्टी ले लो…जैसे भी करो लेकिन आ जाओ…उसकी आवाज़ आवेश से कांप रही थी…

दो दिन पहले ही अविनाश आया था. मैं किसी अनिष्ट की आशंका से कांप गयी…काम बंद किया…आधे दिन की छुट्टी की अर्ज़ी दी और सीधे उसके घर पहुंची.

वह सोफ़े पर बैठी थी…बिल्कुल शांत…सामने टेबल पर ऐश ट्रे और सिगरेट की डब्बी रखी थी…मैने पहली बार उसे जींस-टाप में देखा था. देख के झुंझलाहट हुई कि ख़ुद तो आराम से बैठी है यहां और मुझे बेवज़ह परेशान कर दिया. फिर भी मैने संयत होने की कोशिश करते हुए कहा…क्या हुआ…क्यों बुलाया मुझे?

वह अभी आयेगा…आपके सामने कुछ बात करनी है…

मेरे सामने…ऐसा क्या हुआ?

आने दीजिये उसे फिर बताऊंगी…अभी आता होगा…

जेनिया कहां है?

क्रेश में…उसकी आवाज़ में अजीब सा ठंढापन था…

ये ऐश ट्रे कब लिया?

आज ही…

और इसी बीच अविनाश दरवाज़े पर दिखा…मुझे देखकर ठिठक गया फिर पैर छू कर सामने बैठ गया…तीनों चुप…अविनाश की नज़रें ऐश ट्रे और सिगरेट पर ही टिकी हुई थीं कि अचानक नीलू ने सिगरेट का पैकेट उठाया, एक सिगरेट निकाली…फिर पर्स से लाइटर…सुलगाया और ढेर सारा धुंआ निकालते हुए बोली…दीदी…मुझे अलग होना है इससे…तुमने ही जोड़ा था न रिश्ता…आज तुम्हीं यह फ़ैसला भी करो…

अलग होना है! मैं जैसे सन्न रह गयी…क्या कह रही हो नीलू…पागल तो नहीं हो गयी…

मुझे भी नहीं रहना इस कुलटा के साथ…यह अविनाश की आवाज़ थी

चुप रहो…मैने उसे झिड़का…

बोलने दो उसे…नीलू अब भी शांत थी…हां अविनाश बताओ सब बताओ दीदी को…

तुम्हीं बताओ …मैं क्यूं सुनाऊं तुम्हारे पापों के क़िस्से…किसी शरीफ़ घर की बहू को देखा है आपने ऐसे बेशर्मों की तरह सिगरेट का धुंआ उड़ाते?

ठीक है…मैं ही बताती हूं…दीदी जेनिया इसकी बेटी नहीं है!

क्या? मैं जैसे आसमान से गिरी…लेकिन तुमने तो कहा था कि सुदीप के साथ तुम्हारा…यानि…

सच कहा था मैने…देह का सुख तो जाना ही नहीं था कभी दीदी…निरंजन कहता था कि यहां भीड़-भाड़ में नहीं…जब अपने घर चलेंगे तो…और सुदीप कहता अभी नहीं शादी के बाद…लेकिन शादी हुई तो ऐसे आदमी से जिसके वश में ही नहीं था वह सुख…सुनो अविनाश…शादी के बाद जब पहली बार आये थे तुम और मुझे जलता छोड़कर चले गये थे उसी दिन आया था सुदीप…मेरे कार्ड लौटाने…और लौट जाता वह…लेकिन मैने ही रोक लिया उसे…कहते-कहते उसने सिगरेट ऐश-ट्रे में मसल दी…

झूठ बोल रही है…उस मेहतर के लौण्डे के साथ पता नहीं कितनी बार गुलछर्रे उड़ाये हैं और … वह उठा तो आवेश में था लेकिन जब उसकी आंखे नीलू से मिलीं तो जैसे बिल्कुल ठण्ढा हो गया और सोफे पर बैठ सुबक-सुबक रोने लगा…मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं…एक श्मशानी चुप्पी पसर गयी कमरे में…फिर नीलू ही बोली…इनसे कहिये कि अपना सामान उठायें और यहां से चले जायें…हमेशा के लिये…वह यंत्रवत उठा…अपना सामान बांधा और धीरे-धीरे बाहर निकल गया. मैं वैसे ही बैठी थी…निःशब्द…थोड़ी देर बाद मेरे मुह से निकला- आइ एम सारी नीलू…

उसने एक सिगरेट निकाली…लाइटर मुठ्ठी में दबोचा और चुपचाप बाथरूम में चली गयी…

______________
अशोक कुमार पाण्डेय
 २४-जनवरी १९७५, आजमगढ़ (उत्तर-प्रदेश)
 
 मेल- ashokk34@gmail.com

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  1. अभी अभी एक साँस में पढ़ गया ,अंतर्द्वंद ,बैचेनी और पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति है ,आई एम सॉरी नीलू.

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  2. दीर्घ उच्छ्वास ..और क्या .. कथा का प्रभाव देर तक डुबोये रखे ..बस यही उसकी सफलता होती है शायद

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  3. खूबसूरती से लिखी गयी कहानी.पठनीय.इसमें अपने कवि होने को भी साधा है अशोक जी ने.पर कथ्य वही है जिसकी इन दिनों बाढ़ आई हुई है.

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  4. मैं!!!!!!!!!और मेरा दिल धक् से निचे गिर गया है कही .....कहानी उडान वाली पर अंत मैं उस बाथरूम के गेट से आई आवाज मेरे दिल से भी कही निकली ...धक् ....सुन्दर प्रस्तुति भाई जी ..अशोक जी की ...उनको शुभकामनायें .!!!!!!!!!

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  5. achchhi kahani .. marmik abhivykti .. samkaaleen aurat!!!!!!!! wahi dwandw .. wahi peeda..
    ek safal katha.

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  6. एक अंतहीन सी .....थकान और उबन से भरी जिंदगी से निकल आने की जद्दोजहद. जब कोई भी नहीं साथ तो शायद धुआं कुछ देर के लिए ही सही....बहुत दिनों बाद कोई ऐसी कहानी पढ़ी जो अपने अंत पे स्वतः आ गयी और हमेशा की तरह सॉरी बोल कर निकल गयी.

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  7. कहानी का कथ्य नया नहीं, पर पठनीय है. एक ही बार में पूरा पढ़ गया. इस नयी स्त्री के स्वातंत्र्य को कई कोनों से देखा जाना जरूरी है. और इस स्त्री के साहस, आकाँक्षाओं और दम-खम को मापना और अभिव्यक्त करना भी होगा. आपकी कहानी किसी हद तक यह करती है. नए युग की स्त्री का, उसके अंतर्मन और प्राणशक्ति का अच्छा खाका खिंचा है. भाषा बहुत सधी हुई है. बधाई.

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  8. दस साल हो गये आज… दस साल…एक युग… जिसमें एक हंसती खेलती लड़की उदास औरत में तब्दील हो जाती है...
    kamaal hai... Ashok bhai, Arun Bhai...

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  9. मैने सीधे उसकी आंखों में देखा और सहम गयी…उन सुरंगों में समन्दर के क़तरे झिलमिला रहे थे.डूब ही तो गयी थी उसकी जहाज यात्रा के पहले ही पड़ाव पर…पड़ाव भी कहां बस लंगर से छूटते ही… देह और मन दोनों ख़जाने से लबालब इस अंधेरी गुहा में पटक दिये गये थे अचानक… दस साल!
    Behad sundar.Badhai Ashok Ji aur Arun bhi.

    @Arun
    Writing from Chennai and my system here is not presently ready to facilitate any interface to comment in Hindi.Sorry.

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  10. ek stree ke man ko bahut samvedansheelta ke saath ukera hai aapne. neelu ka charitr aseemit aayamo aur sambhavnaao wala charitr laga. very intense. kahani bahut sundar hai. kavyaatmkta kai jagah chhalak gai hai. sabhaar.

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  11. अरुण भाई, यहाँ से पढकर एक मित्र ने इसका मराठी में अनुवाद किया है. मुझे लगा कि आपका सार्वजनिक आभार व्यक्त करना ही चाहिए.

    शुक्रिया

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  12. अशोक जी बहुत बधाई आपको...समालोचन की ओर से भी.

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  13. मार्मिक कहानी. नीलू जैसे पात्र आम नहीं हैं, पर ऐसे लोगों का साहस कमाल का होता है। एक पठनीय कहानी के लिए अशोक जी को बधाई।

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  14. सुन्दर प्रस्तुति अशोक भाई

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