परख और परिप्रेक्ष्य : साहित्य और विज्ञान-कथाएँ


साहित्य और विज्ञान–कथाएँ 

साइंस फिक्शन, विज्ञान गल्प या विज्ञान कथा ये सब एक ही विधा के अलग-अलग नाम हैं. विज्ञान से प्रभावित इन कहानियों  में कहानीकार सामाजिक चिंताओं को भविष्य के कैनवास पर उकेरता है. इस मायने में विज्ञान कथा आम साहित्यिक कहानी से थोड़ी जुदा होती  है. वैज्ञानिक खोजों-आविष्कारों से व्युत्पन्न सामाजिक सरोकार इन विज्ञान कथाओं के गाइडिंग फ़ोर्स होते हैं. इसके आलावा विज्ञान कथाओं में बाकी का गढ़न एक आम कहानी जैसा होता है . अंतर्राष्ट्रीय फलक पर मेरी शेली की फ्रैन्केंस्टीन हो या फिर एच जी वेल्स की टाइम मशीन. भारतीय सन्दर्भ में नार्लीकर, देवेन्द्र मेवाड़ी  और अरविन्द मिश्र की विज्ञान कथायों के बिम्ब इस विधा में रूचि रखने वाले अधिसंख्य पाठकों के मन में कहीं  कहीं जरुर मौजूद हैं.

विज्ञान के दौर में विज्ञान के समुचित प्रसार और जनप्रियकरण   के   निमित्त  अनेक विधाएं समाज-साहित्य को प्रभावित करती रही हैं. विज्ञान कविता, विज्ञान नाटक, विज्ञान लेख/निबंध  और विज्ञान कथा विज्ञान संचार के कुछ ऐसे चेहरे हैं जो विज्ञान को साहित्य से लिंक करते  हैं. विज्ञान अपने मूल रूप में दुरूह होता है और आम आदमी को विकर्षित  करता है. ऐसे मे विज्ञान संचार के उपरोक्त वर्णित  चेहरे  अपनी जनोन्मुखी वृत्ति के कारण आम आदमी से सहज भाव में बातचीत  करते हुए उसका परिचय विज्ञान से करा देते हैं. उस स्वरूप में विज्ञान सुबोध हो जाता है. वैज्ञानिक साहित्य की वह  विधा जो आम लोगों  से संवाद स्थापित करती है, लोक विज्ञान कहलाती है. विज्ञान कथा विज्ञान के संचार में प्रभावी भूमिका  निभाती  है. कथा के माध्यम से लेखक विज्ञान की बातें  सहजता से लक्ष्य  वर्ग तक पंहुचा भी देता है और समाज में फैले निर्मूल अंधविश्वासों  पर कुठाराघात भी कर देता है.

विज्ञान कथाओं को विज्ञान और साहित्य का परिणय  की संज्ञा दी जा सकती है और इस विधा  में प्रमाण  और कल्पना दोनों का ही सम्यक समावेश होता है . आम पाठकों और कुछ प्रबुद्ध  लोगों में भी इसकी संरचना और स्वरूप को लेकर मतभेद व्याप्त रहता है. वास्तव में विज्ञान कथा साहित्य की एक उर्वर विधा  है  जिसमें  प्रामाणिकता  और विषयवस्तु  का सटीक चित्रण  विज्ञान की ओर से तथा काल्पनिकता  साहित्य की  ओर से आती है.  'विज्ञान कथा' का सृजन कोई वैज्ञानिक  बेशक कर सकता है अगर उसे साहित्य की  प्रवृतियों  और उनके ट्रीटमेंट की अच्छी  समझ हो. ठीक उसी प्रकार कोई साहित्यकार भी उम्दा विज्ञान कथाएँ लिख सकता है यदि उसे विज्ञान की मौलिक अवधारणाओं  और उनके अनुप्रयोगों की सामयिक  समझ मौजूद हो .

विज्ञान कथा के नाम पर कई भ्रम आज भी लोगों के मन में बैठे हुए  हैं. अवैज्ञानिक एवं  असंभव कल्पनाओं  के नाम पर रची गयी कथाएँ वास्तव में विज्ञान कथाएँ नहीं होती हैं. इन्हे विज्ञान फंतासी की श्रेणी  में रखा जाता है . वास्तव में, विज्ञान फंतासी में स्वैर कल्पना और अतिरंजना का तत्त्व अधिक होता है और एकदम हमारी पौराणिक  कथाओं  के समान इनमें  भी असामान्य और चमत्कारपूर्ण दृश्य एवं वतावारण का वृत्तान्त होता है, जिनके आधार मुख्यतः वैज्ञानिक जानकारियों के बेतुके और असंगत स्वरूप होते हैं. दुनिया के प्रतिष्ठित विज्ञान कथाकार   ह्यूगो गर्न्सबैक  ने कहीं लिखा है- साइंस फिक्शन से मेरा अभिप्राय जुल्स बर्न की, एच.जी.वेल्स और एडगर एलन पो द्वारा लिखी गयी ऐसी कहानियों से है जिनमें आकर्षक  रोमांस के साथ वैज्ञानिक तथ्य और युग्द्रष्टा  की दूरदर्शिता का सम्मिश्रण हो  साथ ही, आज चित्रित किए गए किसी आविष्कार के कल सच हो जाने में असंभव जैसा कुछ नहीं है.

विज्ञान कथा में मर्मज्ञों के आब्जर्वेशन  को यदि आधार मानें  तो विज्ञान कथाएं  दरअसल आज की नहीं, कल की कहानियां  हैं. विज्ञान कथा के मसीहा रुसी मूल के प्रख्यात अमरीकी विज्ञान कथा लेखक आइजक आसीमोव  मानते हैं कि हर विज्ञान कथाकार भविष्य में झांकता है. आज भविष्य की जो कल्पनाएँ  विज्ञान कथाओं में असंगत लगती हैं, वे कल सच साबित हो सकती हैं. कल तक कंप्यूटर, रडार, रोबोट और हवाई जहाज आदि सारे वैज्ञानिक साधन महज कल्पनाएं थीं.

विश्व फलक पर विज्ञान कथा कोई नई साहित्यिक विधा नहीं है और इसका एक समृद्ध अतीत है . आज से करीब पांच सौ वर्ष पीछे मुड़कर देखने पर हमें विज्ञान कथा की शुरुआत देखने को मिलती है, जब इटली के महान चित्रकार, वैज्ञानिक और साहित्यकार लियोनार्दो दा विंसी (1452-1519) ने बर्ड मशीन की कल्पना की थी . इस कल्पना के पीछे उनकी सोच यह थी कि मनुष्य चिड़ियों के समान  कैसे उड़ सकेगा . हवाई जहाज का आविष्कार भले ही राइट ब्रदर्स  ने किया हो, परन्तु उसके पीछे की मूलभूत परिकल्पना लियोनार्दो के ही मस्तिष्क  में कौंधी थी . विज्ञान को लोकप्रिय तरीके से जनमानस तक पहुँचाने का प्रारंभिक श्रेय   लियोनार्दो को ही जाता है. उन्होंने अपनी नोटबुक में भविष्य के विविध रोचक पहलुओं की चित्रमयी झांकी प्रस्तुत की थी.  उनकी ये रचनाएं  विज्ञान  कथाओं के   प्रोटोटाइप कहे जा सकते हैं. इस आधार पर लियोनार्दो दा विंसी को विज्ञान कथाओं का जनक कह सकते हैं.

जर्मन खगोलविद जोहांस केप्लर (1557 -1630) ने  चन्द्रमा पर अपनी स्वप्न यात्रा को कथा रूप में लिपिबद्ध किया था.   पश्चिमी देशों में वैज्ञानिक और प्रोद्योगिक प्रगति के साथ विज्ञान कथा साहित्य का विकास हुआ. अट्ठारहवी शताब्दी में इटली की विज्ञान कथाकार मेरी शैली (1797 -1851) ने विज्ञान कथात्मक उपन्यास फ्रैन्केंस्टीन लिखकर विज्ञान कथा को नया आयाम दिया . इस कालजयी कथा को आज भी पूरी दुनिया में   बड़े चाव से पढ़ी जाती है.मेरी शैली के बाद एडगर एलन पो (1809 -1849), हर्थोने (1804-1864)और फिट्ज  जेम्स ब्रायन जैसे अमरिकी विज्ञान कथाकारों ने इस विधा को  समृद्ध किया. उन्नीसवी सदी में अनेक विज्ञान कथाकारों ने इस विधा के विकास में अपना योगदान दिया  इनमें जुल्स बर्न, एच. जी. वेल्स, आइजक आसिमोव, आर्थर सीक्लार्क  और राबर्ट हिन्लिन के नाम उल्लेखनीय हैं .

कई विज्ञान लेखक-संपादकों ने भी विज्ञान कथा के विकास में सराहनीय कार्य किये मसलन, अमेरिकी विज्ञान संपादक ह्यूगो  गर्न्स्बैक ने अंग्रेजी में विज्ञान कथाओं की पहली पत्रिका अमेजिंग स्टोरीज का प्रकाशन आरम्भ किया. उन्होंने विज्ञान कथा और इसके लेखकों की एक समूची पीढ़ी को संस्कारित किया. ह्यूगो  पुरस्कार  विज्ञान कथा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए ह्यूगो गर्न्स्बैक की स्मृति में दिया जाता है. अमेरिका में ही उन्नीसवी शताब्दी (1930) में विज्ञान कथाओं की पत्रिका एसटाउटिंग साईंस फिक्शन का प्रकाशन शुरू हुआ था. इसी पत्रिका में आसिमोव, आर्थर क्लार्क, हिन्लिन की विज्ञान कथाएं शुरू-शुरू में प्रकाशित हुयीं और उन्हें इस विधा में ख्याति मिली .

समाज के अन्य क्षेत्रों के अलावा विज्ञान कथा लेखन पर दूसरे विश्व युद्ध का गहरा प्रभाव पड़ा . इस घटना से पहले सभी विज्ञान के महज सुनहरे पक्ष को देखते-सोचते थे मगर इस दुर्दांत घटना ने लोगों के बीच विज्ञान के ख़राब चेहरे को सामने रखा . इसका नतीजा यह हुआ कि विज्ञान कथाकारों ने विज्ञान से उत्पन्न संकटों और भावी समस्यायों पर भी कहानियां लिखना  शुरू किया.

पाश्चात्य जगत में धीरे-धीरे विज्ञान कथा को साहित्य में स्थान दिया जाने लगा . अमेरिका में कालेज  और विश्वविद्यालयों में विज्ञान कथाओं का बाकायदा पाठ्यक्रम चलाया जा रहा है. अन्य देशों में भी इस विधा को उचित सम्मान दिया गया है. मगर भारत में अभी तक यह मुख्यधारा साहित्य में अपना स्थान नहीं बना पाई है.अतीत में झांकने पर यह बात  सामने आती  है कि हिंदी सहित अनेक भारतीय भाषाओँ में विज्ञान कथा लेखन की एक समृद्ध विरासत भारत में रही है . बंगला भाषा में पहली विज्ञान कथा तूफान पर विजय महान  भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने 1897 में  लिखी थी . मराठी भाषा में लगभग इसी अवधि में पहली विज्ञान कथा तेरेचे हास्य (हिंदी: तारे का रहस्य1915 में प्रकाशित हुई जिसके लेखक श्रीधर बालकृष्ण रानडे थे. इसी  काल-खंड में फ़्रांस के जुल्स बर्न और ब्रिटेन के एचजीवेल्स द्वारा लिखित लोकप्रिय विज्ञान कथाओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ .

बंगला विज्ञान कथा के क्षेत्र में सत्यजित रे, अदरिश वर्धनप्रेमेन्द्र मित्रसमरजीत करके तथा मराठी में डॉबाल फोंडके, डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकरलक्ष्मण लोंढेनिरंजन घाटेजावेडकर के योगदान उल्लेखनीय हैं .हिंदी में पहली सर्वमान्य विज्ञान कथा का श्रेय आश्चर्य वृत्तान्त (लेखक: अम्बिकादत्त व्यास) को जाता है जो 1884 में पीयूष प्रवाह नामक मध्य प्रदेश की पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. इसके बाद उपलब्ध आंकड़े के आधार पर  दूसरी हिंदी विज्ञान कथा 1900 ई. में हिंदी की प्रसिद्द साहित्यिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुयी थी. इस विज्ञान कथा का शीर्षक चंद्रलोक की यात्रा था जिसके लेखक बाबू केशव प्रसाद सिंह थे. सरस्वती पत्रिका में ही  1908 में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक द्वारा लिखित विज्ञान कथा आश्चर्यजनक घंटी प्रकाशित हुयी. इसके तदन्तर बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में शिव सहाय चतुर्वेदीराहुल संकृत्यायनआचार्य चतुरसेन शास्त्री और  डॉसंपूर्णानंद  जैसे हिंदी के साहित्यकारों ने विज्ञान कथाएं लिखकर इस विधा को आलोकित किया .यहां बताना प्रासंगिक है कि राहुल सांकृत्यायन, आचार्य चतुरसेन शास्त्री और संपूर्णानंद  जैसे अपने ज़माने के सिद्धहस्त  हिंदी साहित्यकारों ने विज्ञान कथाएं लिखकरइस विधा को समृद्ध  किया था. राहुल सांकृत्यायन की मशहूर विज्ञान कथा कृति बाईसवीं  सदी, चतुरसेन शास्त्री द्वारा लिखित विज्ञान कथा खग्रास और डॉ. संपूर्णानंद रचित पृथ्वी से सप्तर्शिमंडल जैसी रचनाओं नेअपने समय में असंख्य साहित्यकारों और पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा था.

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में डॉ.ओमप्रकाश शर्मा,डॉ.नवल बिहारी मिश्र,श्री यमुनादत्त वैष्णव 'अशोक',विष्णुदत्त शर्मा,रमेश वर्मा,रमेशदत्तशर्मा,प्रेमानंद चंदोला, कैलाश शाह, राजेश्वर गंगवार,देवेन्द्र मेवाड़ी,राममूर्ति,शुकदेव प्रसाद, माया प्रसाद त्रिपाठी, डॉ. अरविन्द मिश्र,राजीवरंजन उपाध्याय,हरीश गोयल,साबिरहुसैन,जाकिर अली रजनीश, इरफ़ान ह्यूमन,कल्पना कुलश्रेष्ठ,अरविन्द दुबे,विश्वमोहन वारी,डॉ.सुबोधमहंती,लक्ष्मीनारायणकुशवाहा, स्वप्निल भारतीय,अमित कुमार, जीशान हैदर जैदी ने उत्कृष्ट विज्ञान कथाएं लिखीं और इस विधा को स्थापित करने के बहुविध प्रयास किये. 

हिंदी में विज्ञान कथा लेखन का एक समृद्ध अतीत रहा है और इसका इतिहास करीब 125  साल पुराना हो गया है . फिर भी इसे साहित्य की एक समादृत विधा का स्तर हासिल नहीं हो सका है . इसके पीछे शायद लेखकों के संगठन की कमी को कारक माना जा सकता है, परन्तु दूसरी तरफ मुख्य धारा के लेखकों द्वारा इस विधा की निरंतर उपेक्षा  भी विज्ञान कथा की दयनीय स्थिति  के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार है. हिंदी में अनुदित विज्ञान कथा साहित्य को एक तरफ कर दिया जाय तो भी हमारे लेखकों ने अनेक उत्कृष्ट एवं मौलिक विज्ञान कथाएँ लिखी हैं. दरअसल इन कथाओं का  सही मूल्यांकन  नहीं किया गया.









मनीष मोहन गोरे : १५ जुलाई १९८१, देवरिया
विज्ञान लेखक , कई पुस्तकें प्रकाशित
सम्प्रति : वैज्ञानिक, विज्ञान प्रसार, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार.
ई-पता: mmgore@vigyanprasar.gov.in

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  1. हिन्दी साहित्यकारों की एक बड़ी जमात ने यद्यपि पश्चिमी साहित्य से बहुत कुछ आत्मसात किया मगर किन्ही आश्चर्यजनक अज्ञात कारणों से इस विधा को यहाँ प्रोत्साहित नहीं किया ...मगर पिछले कुछ दशकों से कुछ समर्पित प्रयास के चलते अब हिन्दी विज्ञान कथा साहित्य की भी चर्चा गाहे बगाहे होने लगी है -शुभ संकेत !

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  2. बहुत खुब मनीष मोहन जी। संक्षिप्त व सारगर्भित लेख।
    पश्चिम में विज्ञान-कथाओं को काफी प्रोत्साहन मिला और उनपर काफी अच्छा सिनेमा भी निर्मित हुआ।
    सन् 1895 में विलियम हेनेमन्न (William Heinemann) द्वारा प्रकाशित एच. जी. वेल्स के जिस विज्ञान-कथा 'द टाइम मशीन' का जिक्र आपने किया, उसपर एकाधिक फिल्में बनी है।
    सन् 1895 में विलियम हेनेमन्न (William Heinemann) द्वारा प्रकाशित एच. जी. वेल्स के साइंस फिक्शन 'टाइम मशीन' पर पहली फिल्म 'द टाइम मशीन' का निर्माण 1960 में प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक जॉर्ज पॉल (George Pal) ने किया। 2002 में साइमन वेल्स व गोर वेरबिन्सकी (Simon Wells & Gore Verbinski) ने भी उसपर एक फिल्म बनाई। हालांकि इस विज्ञान-कथा के रूपांतरण पर पहला काम 1949 में बीबीसी (BBC) ने किया था और उसके बाद तो सिलसिला ही चल पड़ा जो किसी न किसी रूप में आज भी जारी है।
    पुखराज जाँगिड़

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  3. हिंदी साहित्याकाश में विज्ञानं कथाओ की कमी को आपका अथक प्रयास एक अत्यंत सराहनीय कदम है इस से हिंदी साहित्य को एक और धरोहर प्राप्त हो रही है ! जिसे युग युगांतर तक याद रखा जायेगा !

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  4. विज्ञान कथाओं के सम्‍पूर्ण फलक से परिचित कराता एक सार्थक आलेख।

    हार्दिक बधाई।

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  5. विज्ञान गल्प पर चर्चा के लिए बधाई। विशेष रूप से हिंदी विज्ञान गल्प के समृद्ध अतीत को याद करने के लिए। हिंदी की पहली विज्ञान कथा की खोज जारी रहनी चाहिए। इससे हमारे विज्ञानगल्प के इतिहास की प्रामाणिकता बढ़ेगी। हमें नीर-क्षीर विवेक के साथ भारतीय विज्ञान गल्प की पहचान का काम भी शुरू करना चाहिए। पूर्वग्रह मुक्त युवा पीढ़ी यह काम बखूबी कर सकती है। शुभकामनाएं।

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  6. हिंदी में विज्ञान -गल्पो का अपना एक स्थान है ,ये अलग बात है कि जिस तरह से पश्चिम में विज्ञान कथाएँ लोकप्रिय हुई ,वैसी हिंदी में नहीं हो पाई.हालाँकि सत्य यह भी है कि लोकप्रियता महत्त्व का पैमाना नहीं होती ,पर यह भी विचित्र है कि विज्ञान के लाखो- लाख विद्यार्थी और अध्येताओं के बाद भी विज्ञान गल्प व्यापक रूप से क्यों अपनी छाप नहीं छोड़ पाए?मनीष चूँकि स्वयं एक अच्छे विज्ञान कथाकार हैं ,इसलिए इसकी तह में जा कर व्यापक रूप से उन्होंने इसका अनुशीलन किया है....विज्ञान कथाओं के प्रारब्ध से अभी तक कि यात्रा को बहुत सहजता से मनीष ने इस आलेख में प्रस्तुत किया ,उन्हें बहुत बधाई और अरुण आपको भी ,कि साहित्य से इतर अन्य साहित्यों को भी आप समालोचन में स्थान दे रहें है ,बहुत सुंदर ......

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  7. हमारा समाज स्वभाव से अड़ियल रहा है। उसके पास केवल अपने अतीत का यशगान था। वह स्वघोषित विश्वगुरु की काल्पनिक पदवी पर ही सारे समय रीझता रहा है। ज्ञान-विज्ञान और ब्रह्मांड की पहली समझ के दावों ने इस देश में मौलिक सृजन और सृजन के लिए संघर्ष की चेतना को विकसित नहीं होने दिया। पश्चिम की तर्कशील बुद्धि विज्ञान-प्रौद्योगिकी के अनुकूल रही है। वहाँ के समाज में विज्ञान की मूल जिज्ञासा स्वत:स्वीकृत है। भूमंडलीकरण के बाद दुनिया बदली है और इस समय हमारे जीवन में भी वैज्ञानिक चेतना का उदय हो रहा है। इस दृष्टि से विज्ञान कथाकार और विज्ञान प्रसारकों का काम दूरगामी महत्व का है। इस आलेख में, भारत में विज्ञान कथाओं के अतीत और वर्तमान का एक संतुलित लेखा-जोखा प्रस्तुत हुआ है।

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  8. मैंने आपका विज्ञान कथा पर आलेख पढ़ा .बहुत अच्छा लगा.विज्ञान कथा के इतिहास को इतने कम शब्दों
    में समेटना अत्यन्त दुष्कर कार्य है इसे आपने बखूबी अंजाम दिया .हिंदी विज्ञान कथाकारों का भी इतिहास
    अब काफी समृद्ध हो चुका है .जरुरत केवल इस बात की है कि इसे आमजन में लोकप्रिय बनाना.इसके लिये
    हमें कठिन परिश्रम करना होगा.आप स्वयं भी एक उत्कृष्ट विज्ञान कथाकार है .यह आपका बडप्पन ही है
    कि आपने इसका उल्लेख नहीं किया. आपने मेरे नाम का उल्लेख किया .इसके लिये धन्यवाद.आपका लेख सरस ,सुबोध तथा रुचिकर है आशा है यह लोगों में अत्यन्त लोकप्रिय होगा .

    हरीश गोयल

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  9. bahut accha lekh hai ye
    sabh kuch bahut balanced likha gaya hai
    na jyada or na hi kam

    Amrit Bawankan

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  10. कुछ नया कर गुजरने की चाहत लिए अपने धुन के रमी गोरे साहब की लेखनी के रंग से नाता दशक पुराना है.उनके भीतर की टीस को समझ सकता हू.सच कहू तो मैं भी इस हलचल से पूरी तरह से वाकिफ नहीं था.. पर ये ज़रूर कह सकता हू की कुछ विज्ञान गल्प पढ़ा था .. उनमे मनीष मोहन के लिखे गल्प भी थे .मनीष के आत्मिक रिश्तों ने खुद की लेखनी से जोड़ा भी और इस विधा के दुसरे लेखको की रचनाओ से भी रूबरू करवाया......कह सकता हू कि इस विधा की थोड़ी बहुत समझ होने लगी है ..जिसके बल यकीन के साथ कहा जा सकता कि अब मंजिल दूर नहीं..चाहे कोई साथ दे या न दे..मुसाफिर मुस्तैद है विज्ञान की इस यात्रा में ..जो चला वो आगे बढ़ जायेगा, जो नहीं चला वो सदियों पीछे छुट जायेगा .. मुझे अच्छे लगते है मनीष के विनम्रता के गुण...जब आज के दौर में कलमकार अपनी मार्केटिंग के अनेक फंडे अपना रहे है वहां मनीष को अपनी लेखनी और सादगी पर भरोसा है...शायद यही कारण है कि मनीष मेरे प्रिय लेखको में से एक है ..मेरी अनेक शुभकामनाये.

    नवीन पाण्डेय
    रेडियो मंत्रा,गोरखपुर

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  11. कुछ नया कर गुजरने की चाहत लिए अपने धुन के रमी मनीष की लेखनी के रंग से नाता दशक पुराना है| उनके भीतर की टीस को समझ सकता हूँ | सच कहूँ तो मै भी इस हलचल से पूरी तरह से वाकिफ नहीं था, हाँ पर ये जरुर कह सकता हूँ कि कुछ विज्ञान गल्प पढ़ा था, उनमे मनीष मोहन के लिखे गल्प भी थे| मनीष के आत्मिक रिश्तों से खुद को लेखनी से जोड़ा भी और इस विधा के दूसरे लेखकों की रचनाओं से भी इस निबंध के माध्यम से रूबरू हुआ| कह सकता हूँ कि इस विधा की थोड़ी बहुत समझ होने लगी है ...जिसके बल पर यकीं के साथ कहा जा सकता है कि अब मंजिल दूर नहीं...चाहे कोई साथ दे या न दे... मुसाफिर मुस्तैद हैं ,...विज्ञान की इस यात्रा में..जो चला वो आगे बढ़ जायेगा और जो नहीं चला वो सदियों पीछे छुट जायेगा | मुझे अच्छा लगता है मनीष की विनम्रता का गुण...जब आज के दौर में कलमकार अनेक मार्केटिंग के फंडे अपना रहे हैं, वहां मनीष को अपनी लेखनी और सादगी पर भरोसा है... यद यही कारण है कि मनीष मेरे प्रिय लेखकों में से एक हैं..उन्हें मेरी अनेक शुभकामनाएं|

    नवीन पाण्डेय
    रेडियो मंत्रा
    गोरखपुर

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