लोग रौशनी की तलाश में कविता के पास आते हैं : पंकज चतुर्वेदी

पेंटिंग : Victor Ekpuk

क्या कवि का व्यक्तित्व और उसकी कविताओं का औदात्य दोनों अलग-अलग हैं ? कवि को महत्व न देते हुए क्या कविता को ही महत्वपूर्ण माना जाए ? कवि-कर्म और लिपिक-कर्म में क्या वस्तुत: कोई फ़र्क नहीं है ? फिर तो घड़े और दक्ष शिल्पकार द्वारा किसी कलाकृति में भी कोई फ़र्क नहीं करना चाहिए. पोस्टर और पेंटिंग में भी अंतर खत्म कीजिये. संगीत में फिर शास्त्रीयता का क्या अर्थ हुआ.
ठीक है आप कवि कर्म को महिमा मंडित नहीं करना चाहते. उसे ‘ब्रह्म सहोदर’ नहीं मानते कोई बात नहीं. पर कविता में जो असाधारणता है उसे कवि से आप अलग नहीं कर सकते. दिक्कत यह है कि आप कवि से सामाजिक नैतिकता का आग्रह करने लगते हैं और उसके ‘टुच्चेपन’ से आहत हो जाते हैं. संत और कवि में फ़र्क होता है. उसकी मनुष्योचित कमज़ोरी में ही उसकी कविता के बीज छुपे हैं.

कोरोना काल में कविता को लेकर मचे हाहाकार के बीच कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी का यह सुचिंतित आलेख मुझे अच्छा लगा. आप भी पढ़े. 


लोग रौशनी की तलाश में कविता के पास आते हैं       
पंकज चतुर्वेदी


विता से लोग अपने वक़्त और मनुष्यता  की हालत जानना चाहते हैं, उसके आईने  में अपना अक्स देखना और उसकी वाणी में अपनी आत्मा की पुकार सुनना चाहते हैं. जैसा कि ग़ालिब  ने कहा है, बयान का लुत्फ़ ही लोगों के इस एहसास में है कि उनके दिल की बात कही गयी है ; मगर ऐसे अनूठे अंदाज़ में कि उन्हें मालूम हो कि अपनी आत्मा के इस सौन्दर्य से वे अब तक नावाक़िफ़ थे. इस मानी में कविता लिखना ही नहीं, उसे पढ़ना भी अपने को नये सिरे से जानना या 'डिस्कवर' करना है :
"देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा
मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है."

इसके अलावा लोग कवियों से उनकी कविता की ही मानिंद एक निश्छल, संवेदनशील, मूल्यनिष्ठ और उदात्त ज़िंदगी की उम्मीद रखते हैं. यह नहीं हो सकता कि आपके शब्द कुछ और कह रहे हों और आचरण कुछ और. अगर ऐसा अंतराल है, तो उसमें अँधेरा होगा, रौशनी नहीं. लोग एक अँधेरे बर्बर समय में रौशनी की तलाश में कविता के पास आते हैं और वे महज़ उससे नहीं, उसके रचनाकार से भी प्रेम करना चाहते हैं. जब यह नहीं हो पाता, तो उन्हें अपनी तलाश किसी हद तक अधूरी, व्यर्थ और निष्फल लग सकती है. यह स्वाभाविक है. फिर भी मुझे लगता है कि रचनाकारों को आत्मीयता और सहानुभूति से देखे जाने की ज़रूरत है, न कि उपेक्षा और संदेह के भाव से ; क्योंकि वे भी आख़िर इंसान हैं और उनके संघर्ष भी आम इंसानों के-से ही होते हैं.

चूँकि वे 'टॉर्चबियरर'  या पथ-प्रदर्शक की भूमिका में रहते हैं, उनके लिए कसौटी सख़्त रखी जाती  है. लिहाज़ा कभी-कभी कवि-लेखकों की यह शिकायत सुनने में आती है कि वे जीवन-व्यवहार में उतने अच्छे नहीं होते, जितने कि रचना में. इसकी वजह यह हो सकती है कि लिखते समय वे अपनी सर्वोत्तम मन:स्थिति को व्यक्त करते हों और ज़िंदगी की जद्दोजेहद के बीच उतने उदात्त न रह पाते हों. कमज़ोर क्षणों में उन्हें देखकर मूल्यांकन करना वैसा ही है, जैसे रंगमंच पर कलाकार की प्रस्तुति की तुलना ग्रीन रूम  में उसकी अस्त-व्यस्तता और तनाव से की गयी हो.

इन स्थितियों के बावजूद श्रेष्ठ रचनाकार की पहचान यह भी है कि वह अपनी एक ख़ास 'रीडरशिप'  या पाठक-समाज निर्मित कर लेता है. उसकी रचना इन्हीं पाठकों के संवेदना-जगत् का हिस्सा बनकर लोकप्रिय और दीर्घायु होती है. लोगों के प्यार के अलावा अमरत्व का कोई आश्वासन साहित्य के पास नहीं है. फिर भी साहित्यकार भटककर सत्ता  के सहारे इस दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहते हैं. नतीजतन  रचनाकार दो क़िस्म के होते हैं. एक वे, जो अपने चाहनेवाले पाठकों की बदौलत प्रसिद्ध होते हैं. दूसरे वे, जिन्हें तरह-तरह की सत्ता-संरचनाएँ प्रासंगिक बनाये रखने की चेष्टा करती रहती हैं. नियुक्तियों, साहित्य-उत्सवों, पुरस्कारों वग़ैरह के ज़रिए. हालाँकि दूसरी कोटि में एक अच्छे रचनाकार की आवाजाही अपने आप में कोई बुरी बात नहीं, एक मानी में यह उसके रचना-कर्म की स्वीकृति का ही सबूत है ; मगर ज़िंदगी के किसी दौर में चर्चा में बने रहने के लिए वे उत्कृष्ट लेखन की बजाए प्रमुख तौर पर शक्ति-संरचनाओं पर ही निर्भर हो जाएँ, तो मानना चाहिए कि उनका समय ख़राब चल रहा है.

दुनिया में तमाम स्तरों पर सक्रिय सत्ता-संरचनाओं और उनकी दुरभिसंधियों से टकराने का साहस किये बग़ैर कविता न्याय की हिमायत नहीं कर सकती. वैसी स्थिति में वह जीवन्त, सुन्दर और मूल्यवान् नहीं रह जायेगी. लेकिन कविता अंधा साहस नहीं करती, विवेक की आधारशिला से अन्याय की शक्तियों पर चोट करती है. आक्रोश अनिवार्य है, मगर उसे आप क़ाबू नहीं करते, तो रचना नहीं कर सकते. निरा साहस व्यक्ति को  जटायु का भाईसम्पाती बना सकता है ; जो सूर्य से ऊँचा उठने की महत्त्वाकांक्षा में अपने पंख जला बैठा था. नतीजतन शेष जीवन उसे अपंग अवस्था में समुद्र के किनारे बिताना पड़ा. इसलिए  सुचिंतित साहस श्रेयस्कर है. यह किसी क़िस्म की आत्मरक्षा का तर्क नहीं, बल्कि इस बात का इसरार है कि आत्मवत्ता के अभाव में संघर्ष का सारगर्भित, सशक्त और कारगर होना संभव नहीं. 


कवि के लिए कुंठा और दुस्साहस नहीं, एक समुज्ज्वल साहस वरेण्य है. उस रास्ते पर उसे निर्भय चल सकने का जोखिम उठाना ज़रूरी है, जबकि यह तय है कि वहाँ भौतिक स्तर पर पराभव ही नसीब होगा. जिसमें त्याग और अपरिग्रह का माद्दा नहीं है, उसका न व्यक्तित्व समृद्ध हो सकता है, न कविता. हरिशंकर परसाई  का एक व्यंग्य है


जिसमें एक अफ़सर कवि सरकार के विरुद्ध धारदार कविता लिखते हैं. मुख्यमंत्री नाराज़ हो जाते हैं. इससे चिंतित कवि मुख्यमंत्री के नज़दीकी एक प्रभावशाली नेता के ज़रिए उनसे मिलकर क्षमा-याचना करना चाहते हैं. किसी तरह इस मुलाक़ात का इंतिज़ाम करवाया जाता है. मिलने पर जैसे ही परिचय दिया गया, कविवर मुख्यमंत्री के चरणों पर सिर रख देते हैं. मुख्यमंत्री माजरा समझने के बाद प्रभावशाली नेता से मुख़ातब होकर कहते हैं : "यह वह कवि नहीं हो सकते, जिन्होंने वह कविता लिखी है !"

कोई कवि अपने पूर्वज एवं समकालीन कवियों के बौद्धिक और संवेदनात्मक सान्निध्य में ही रचनारत रहता है. दुख-सुख वग़ैरह के अनुभव तो कमोबेश सबके पास होते हैं, मगर सवाल यह उठता है कि किसी कवि के अनुभवों की अद्वितीयता किस बात में है ? यह अनूठापन  ही शिल्प की बुनियाद है. इसके इज़हार की तमीज़ हम अपनी परम्परा और परिवेश से सीखते हैं. इसलिए जिसे हम विशिष्टता समझते हैं, उस पर हमारे समाज और संस्कृति का ऋण रहता है. चारों ओर बिखरे  हुए जीवन-वास्तव को निरे सामान्य और निरायास ढंग से भाषा में बयान कर देना कविता नहीं है. कविता में विचार का वैभव, अर्थ की सान्द्रता, मार्मिकता, व्यंग्य, आत्मीयता, परिहास, विरक्ति, आक्रोश, विस्मय और विनय, सब कुछ  का आना काम्य है. यानी मनोभावों का वह पूरा समारोह, जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और इस दुनिया में निरन्तर प्रेम और संघर्ष का कारण है. उसकी बदौलत ही कविता दिलचस्प और प्रभावी  होती है और लोग सच को सारभूत ढंग से जानने के लिए उसकी ओर आकृष्ट होते हैं. वे वाचाल कविता को पसंद नहीं करते, क्योंकि वह कम शब्दों में अधिक को कह सकने की कला है. 

कविता की दीर्घायु के लिए दो चीज़ें ख़ास तौर पर ज़रूरी हैं : कहानी और  नाटक सरीखी दूसरी विधाओं की रचनात्मक विशेषताओं के समावेश की क्षमता और भाषा के अन्तःसलिल संगीत की समझ. शब्द पर चिंतन एवं अध्यवसाय और श्रेष्ठ कवियों से सजग एवं  निश्छल लगाव  के बिना अच्छी कविता मुमकिन नहीं है. कविता के लिए शिल्प की अनिवार्यता पर इसरार करते हुए शमशेर बहादुर सिंह  ने जो अनूठी और शायद उत्कृष्टतम बात कही है, उसके संदर्भ के तौर पर अपने साथी कवि त्रिलोचन  के प्रति कितना गहरा प्रेम और आदर एक साथ है ; जबकि वह स्वयं 'कवियों के कवि'  माने गये थे. मूल्यों की पहचान के बग़ैर न यह विनयशीलता आ सकती है, न उन्हें धारण और विकसित करने का औदात्य ही :   

"शब्द का परिष्कार
स्वयं दिशा है
वही मेरी आत्मा हो
आधी दूर तक
तब भी
तू बहुत दूर है बहुत आगे
त्रिलोचन."

पेंटिंग : Victor Ekpuk


कविता ब्रह्मांड जितनी ही व्यापक है. कोई विषय ऐसा नहीं, जिस पर श्रेष्ठ कविता संभव न हो. इसके बरअक्स यह भी सच है कि  ऐसा कोई विषय  नहीं है, जिस पर कविता लिखना सुगम, सुविधाजनक या 'सुरक्षित'  हो. सबसे बड़ा सवाल यह है कि विषय का हम करते क्या हैं ? कवि की आत्मा के कारख़ाने में विषय क्या रूप धारण करता है, यानी इन दोनों की अंतःक्रिया का नतीजा क्या निकलता है ? यह शिल्प का ही मामला नहीं, अंतर्वस्तु का भी उतना ही है. 'मैं तुमसे प्यार करता हूँ'--यह कहना जितना मुश्किल  और आसान है, कविता लिखना भी उतना ही मुश्किल और आसान है ; क्योंकि वह लिखी चाहे जिस विषय पर गयी हो, कहीं गहरे में वृहत् विश्व से प्रेम की ही अभिव्यक्ति है और उसकी प्रक्रिया इतनी गतिशील, द्वंद्वात्मक, अपरिहार्य और जादुई होती है कि उसके मद्देनज़र फ़ैज़ अहमद फ़ैज़   का यह शे'र याद आता है :

"दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ़ हम
कहने में उनके सामने, बात बदल बदल गयी."

यह जीवन हमें टुकड़ों में नहीं मिला है. इसलिए  विषय अलग-अलग होते नहीं, वे कविता में उसी तरह परस्पर संश्लिष्ट रहते हैं, जैसे कि ज़िंदगी में. अच्छी कविता किसी भी संदर्भ में लिखी जाए, एक ज़्यादा बड़े संदर्भ में अपनी अर्थवत्ता और प्रासंगिकता हासिल कर लेती है. प्रेम के कवि को भी शायद यह अंदाज़ा न रहा हो कि वह राजनीति के कहीं अधिक उदास सच को बयान कर रहा है. इससे साबित होता है कि अनुभूति की गहनता में ही  व्यापक होने की पात्रता निहित  है. नज़ीर है  परवीन शाकिर  का यह शे' :

"मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
वो झूट बोलेगा और लाजवाब कर देगा." 

इस सिलसिले में नासिर काज़मी  का एक शे'र ग़ौरतलब है, जो यों तो प्रेम के संदर्भ में लिखा गया होगा ; मगर कैसी विडम्बना है कि विद्वेष, विभाजन, विध्वंस और ख़ून-ख़राबे की राजनीति के वर्चस्व के मौजूदा  दौर में अक्सर ही याद आ जाता है. समय के साथ संजीदा कविता के अर्थ-विस्तार की यह प्रक्रिया सचमुच विस्मयजनक है : 
"कुछ तो नाज़ुकमिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नयी है अभी !"

प्रेम कविता भी वही अच्छी या श्रेष्ठ होती है, जिसमें निज का साधारणीकरण हो पाता है. अन्यथा वह भी निजी जीवन को सार्वजनिक स्पेस में ले आने की एक अवांछनीय चेष्टा है. मुख़्तलिफ़ रचनाओं में ज़ाहिर किया गया प्रेम अगर निजी ही रह जायेगा, तो दूसरों के किस काम का होगा ? उसमें दूसरों का भी निजी हो सकने की लियाक़त होनी चाहिए.

इसी तरह राजनीतिक कविता लिखना जितना आसान, उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल काम है. इसलिए कि हमारी समूची ज़िंदगी जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे राजनीति की ज़द में आती है और उससे बुरी तरह प्रभावित रहती है. लिहाज़ा एक क़िस्म का राजनीतिक विमर्श- जो अक्सर दलगत होता है- सार्वजनिक जीवन में अहर्निश जारी रहता है. मगर कविता को किसी दल या पार्टी की  बजाए सत्यनिष्ठ एवं मूल्यनिष्ठ होना होता है. इसके अलावा उसे मौन और मुखरता, अंतर्मुख और बहिर्मुख के बीच के संतुलन की तनी हुई रस्सी पर चलना होता है. 

दूसरी ओर राजनीतिक दल अक्सर बहिर्मुख होते हैं और उनका ध्यान अपनी  बजाए दूसरों के ही आचरण की आलोचना पर एकाग्र  रहता है. निहित स्वार्थों में मुब्तला रहने के नतीजे में सत्य और मूल्य उनकी पकड़ से छूटते रहते हैं. शायद ऐसी यथास्थिति क़ायम रखने में वे सुविधा महसूस करते हैं, जबकि कविता को इस सूरतेहाल में घुटन ही हो सकती है. इस सबके मद्देनज़र ख़तरा यह है कि राजनीति से प्रभावित नहीं, बल्कि आक्रांत होने की स्थिति में कविता रोज़मर्रा की चालू राजनीतिक गपशप में रिड्यूस हो जाए. मुक्तिबोध  ने ऐसी सतही, वाचाल और कविता न बन पाती हुई 'कविता'  से ख़ुद को और दूसरों को भी आगाह किया होगा, जब अपनी बाद में क्लासिक मानी गयी कविता ‘अँधेरे में’  में उन्होंने लिखा :
"कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ,
वर्तमान समाज चल नहीं सकता."

हमारे वक़्त में उदास करनेवाली घटनाएँ बेशुमार हो रही हैं और ढाड़स बँधानेवाली बहुत कम. लेकिन सचाई, संवेदना और समर्पण से हम आम लोगों एवं विद्यार्थियों के बीच जाकर समकालीन कविता की बाबत विचार और रचना, दोनों ही स्तरों पर कुछ प्रयोग करें, तो कामयाबी ज़रूर मिलेगी. दिल्ली के वातानुकूलित सभागारों में--जहाँ प्रायः जाने-पहचाने साहित्यकार और बुद्धिजीवी ही रहते हैं--होने वाले शिष्ट और सम्भ्रान्त कार्यक्रमों की बनिस्बत भारत के हिन्दीभाषी शहरों-क़स्बों में होनेवाले आयोजनों को मैं कहीं अधिक अहम मानता हूँ, क्योंकि इनके ज़रिए हम उस समाज से संबोधित हो पाते और किसी हद तक उसे अपनी अंतर्वस्तु से मुत्मइन कर पाते हैं, जो राजधानियों के 'शिष्ट'  दायरे से बाहर है. 


पेंटिंग : Victor Ekpuk
कविता के भविष्य की उम्मीद शायद हम वहीं अधिक कर सकते हैं, क्योंकि वहाँ संघर्षों का दबाव या असुरक्षा भी ज़्यादा है और उसी अनुपात में कविता से सच्चा, अनगढ़, अदम्य क़िस्म का लगाव भी. ऐसे प्रयोगों की संख्या हमें बढ़ानी चाहिए और उन्हें शहर-शहर आयोजित करने की कोशिशें करनी चाहिए. अन्यथा सचमुच संजीदा और ज़रूरी कविता से व्यापक समाज का अजनबीपन दुखद ढंग से बढ़ता जाएगा. 'कवि-सम्मेलन'  नाम की संस्था लगभग पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है और वैसे मंचों से कोई उम्मीद करना या उनसे न जुड़ पाने का सवाल उठाना अप्रासंगिक और बेकार है ; क्योंकि वहाँ तो अब अपेक्षाकृत बेहतर कवि-सम्मेलनी कवियों के लिए ही जगह नहीं बची है.


इसलिए हमें जनसाधारण के बीच अपने नये और अलग तरह के मंच स्वयं निर्मित करने और काव्य-आवृत्तियों के अवसर बढ़ाने होंगे.
(वागर्थ के नये अंक में भी प्रकाशित)
____________________________
पंकज चतुर्वेदी
 9425614005
.pankajgauri2013@gmail.com

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  1. एक ऐसे वक़्त में जब आलोचकगण (Ashutosh Kumar) कवि की तुलना पंक्चर बनाने वाले से कर रहे हैं और शायद ग़लत नहीं कर रहे तब प्रिय Pankaj Chaturvedi का यह लेख बहुत मासूम और पवित्र लग रहा है और कवि और कविता के बारे में रूमानी (Romantic) अप्रोच से लिखा हुआ जान पड़ रहा है । पढ़ कर आनन्द आया । पंकजजी और समालोचन को बधाई !

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  2. लोग रौशनी की तलाश में बिजली सुधारने वालों के पास जाते हैं या बिजली सुधारने वालों पर लिखी गई कविता के पास? ख़ैर, कविता के पास जाने के लोगों के पास बहुतेरे कारण होते हैं, और नहीं जाने के भी। बेशक कुछ कविताएँ रौशनी की तरह लोगों के पास जाती हैं, और कुछ अंधेरे की तरह भी। कुछ में तो रौशनी और अंधेरे का ऐसा घालमेल होता है कि दोनों को अलगाया ही न जा सके। बहरहाल इस लेख में अच्छी कविता की कुछ अच्छी कसौटियां बताई गई हैं, जैसे अन्याय का बोध , प्रतिरोध का साहस और भाषा के लय की पहचान। लेकिन यह भी नहीं है कि इन्ही चीजों से अच्छी कविता हो जाती है। ऐसा होता तो लेनिन मायकोव्स्की से बेहतर कवि होते!

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  3. लोग रौशनी की तलाश में कविता के पास आते हैं
    ऐसा लिखकर ही इस लेख की मंशा साफ हो जाती है
    कविता लिखना ही नहीं, उसे पढ़ना भी अपने को नये सिरे से जानना या 'डिस्कवर' करना है जो आजकल कम होता जा रहा है उसपर जरूरी कटाक्ष किया है लेखक ने ।हर किताब हर लेखक आपको कुछ सहेज कर दे देता है इसे जानते हुए भी लिखने की होड़ ज्यादा है और पढ़ने की कम!
    लिखते समय कवि अपनी सर्वोत्तम मन:स्थिति में होते हैं और उनसे यह उम्मीद लगाना कि वो हमेशा इसी सर्वोत्तम में जिये नाइंसाफी होगी।
    कविता सच में भाषा के अन्तःसलिल संगीत की समझ और उसके शब्दचिंतन की मांग करती है ।
    मुझ जैसे सीखने वालों के लिए यह बहुत ही जरूरी लेख है ।
    उन युवाओं को भी इसे पढ़ने की सख्त जरूरत है जो अभी चूजे वाली स्थिति में हैं और उनके पर फर है अभी ....
    Pankaj Chaudhary साधुवाद आपको

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  4. हीरालाल नगर30 जून 2020, 11:18:00 am

    भाई पंकज चतुर्वेदी का आलेख मुझे ठीक लगा। कवि निरापद प्राणी नहींं है। वह समस्त कमजोरियों के साथ एक इंसान ही है। अपनी सामर्थ्य भर वह अपने रचनात्मक कार्य को उदात्त मानवीय मूल्यों के अनुरूप निर्वहन करने में प्रयासरत रहता है। इस वक्त उसकी सीख, उसके अनुभव, पठन-पाठन, उसकी शिक्षा-दीक्षा, संगत-कुसंगत सब काम आते हैं। जल से भरा घड़ा हमेशा जल-प्लावित नहीं रहता। वह रीतता भी है। कवि हमेशा कवि बना नहीं रह सकता और न लेखक बरहमेश लेखक। दंत-निमज्जन में उसे दातुन या ब्रश-मंजन का सहारा लेना ही पड़ता है। कवि-लेखक, रचनाकार के अंतर्गमन और बहिर्गमन के बीच जो स्पेस होता है, उसे वह बचाए रखना चाहता
    है-सिर्फ अपने लिए।
    उस पर किसी का हस्तक्षेप क्यों?

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  5. मैं शायद गलत होऊँ पर मेरा मानना है कि एक रचनाकार को अपनी कथनी, करनी और लेखनी में बाकियों की तुलना में कहीं अधिक ईमानदार और पारदर्शी होना चाहिए। और इस जोखिम को उठाने का साहस रखते हुए, इस क्रम में कुछ न पाने या कुछ खो देने के लिए तत्पर और तैयार भी रहना चाहिए। मैं यह बात भी कहता रहा हूँ कि आदमी का कद उसके कवि के कद से भी बड़ा होना चाहिए। हाँ, ईमानदारी को कविता में अखबार-बयानी का बहाना हरगिज नहीं बनने देना चाहिए। यह आलेख अभी वागर्थ के ताजा अंक में भी प्रकाशित हुआ है न?
    - राहुल राजेश।

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  6. प्रिय पंकज जी को इस सार्थक आलेख के लिए साधुवाद।
    बावजूद इसके, बकौल मलयज,याद रहे कि 'भाषा के भीतर जो अनुभूति है,भाषा के बाहर वही कर्म है।कविता सच्ची बनती है अनुभूति की तीव्रता से और बड़ी बनती है कर्म की प्रखरता से।...बौने जीवन से महान कविता पैदा नहीं हो सकती।'
    कहना सिर्फ इतना है कि रचनाकार के व्यक्तिगत जीवन और आचरण से उसकी रचनाओं को बिल्कुल अलग करके देखना मुश्किल है।दोनों के बीच खाई अगर बहुत गहरी और चौड़ी है तो इसका असर रचना के पाठकीय अभिग्रहण पर पड़ना लाजिमी है।
    दीगर बात यह कि हमारे जीवन,समाज और देश-दुनिया की हर बात पर कविता लिखी तो जा सकती है,पर वह सही मायने में 'कविता' हो,यह ज़रूरी नहीं।
    खुद पंकज जी की 'पाकिस्तान टेररिस्तान नहीं है' कविता इसका एक उदाहरण है।जब यह कविता देखने को मिली थी तो मैंने उन्हें लिख भेजा था कि यह कविता के बजाय अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का विषय है।जिस देश के बारे में पूरी दुनिया कह रही थी कि ओसामा वहीं है और वह इसे नकारता रहा जबकि अंततः ओसामा वहीं पकड़ा/मारा गया,उसके बारे में कवि की निर्णयात्मक टिप्पणी सदृश शीर्षक वाली कविता पाठक के दिलोदिमाग को कैसे रौशन कर सकती है।
    बगैर धूर्त हुए भी धूर्तता को और बगैर गंवार हुए किसी ग्रामीण अंचल में रहनेवाले लोगों के जीवन की वास्तविकता को रचना में उजागर किया जा सकता है।इसके अनेक उदाहरण नागार्जुन,रेणु आदि के साहित्य में मौजूद हैं।
    पंकज जी ने ग़ालिब और खास तौर से फ़ैज़ को सही संदर्भों में उधृत किया है।राजेश जोशी का कविता संग्रह है 'दो पंक्तियों के बीच'। प्रायः श्रेष्ठ कविता, त्रिलोचन के शब्दों में 'अनकहनी भी कुछ कहनी है' की तरह हुआ करती है।वह लाउड नहीं होती और इस बात से फ़ैज़ भी सहमत हैं:
    'उनसे जो कहने गए थे 'फ़ैज़' जां सदका किये
    अनकही ही रह गयी वह बात सब बातों के बाद।'

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  7. बहुत ही यथार्थ, सारगर्भित और समीचीन आलेख । पंकज जी को इसके लिए साधुवाद । बहुत ही सरलता से आपने सभी पहलुओं पर प्रकाश बिखेरते हुए काव्य सृजन का वर्णन किया है । आपके आलेख से कविता के वर्तमान परिधि को निस्संदेह और अधिक विस्तार प्राप्त होगा ।आपको और समालोचन को बधाई

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  8. मैं शायद गलत होऊँ पर मेरा मानना है कि एक रचनाकार को अपनी कथनी, करनी और लेखनी में बाकियों की तुलना में कहीं अधिक ईमानदार और पारदर्शी होना चाहिए। और इस जोखिम को उठाने का साहस रखते हुए, इस क्रम में कुछ न पाने या कुछ खो देने के लिए तत्पर और तैयार भी रहना चाहिए। मैं यह बात भी कहता रहा हूँ कि आदमी का कद उसके कवि के कद से भी बड़ा होना चाहिए। हाँ, ईमानदारी को कविता में अखबार-बयानी का बहाना। हरगिज नहीं बनने देना चाहिए।

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  9. श्री पंकज चतुर्वेदी का कवि और कविता के संबंध में लिखा गया विस्तृत आलेख पढ़ा । कविता और पाठक के बीच की दूरी को उन्होंने कई कोणों से परखने की कोशिश की है । इसमें दो मत नहीं कि समाज में कविता की पठनीयता बहुत कम हो चुकी है । इस सच के बावजूद कि कविता अपनी शक्ति से हीं जीती है और कवि के व्यक्तित्व का प्रभामण्डल सिर्फ़ सोने में सुहागा का काम कर सकता है । हमारे यहाँ कविता की जो वाचिक परंपरा थी , उस स्पेस को अब फूहड़ हास्य कविताओं ने दख़ल कर रखा है । वहाँ श्रोताओं की भीड़ आज भी है । अब गंभीर किस्म की कविताओं को सुननेवाली पीढ़ी नहीं है , सिर्फ उसके पाठक बचें हैं । इसका एक असर तो यह हुआ कि कविता मुख्यधारा से कटकर कुछ अंतर्मुखी-सी होती गयी और अपनी निजता में दुरूह से दुरूहतर होती गयी । कविता में एक किस्म का बुझौव्वल आता गया । कविता के बिम्ब , प्रतीक, कथ्य और संरचना से लेकर उसकी हर चीज़ में । यहाँ तक कि मनुष्य के अवचेतन के वर्जित प्रदेश भी अछूते नहीं रहे । अज्ञेय की 'असाध्य वीणा' और मुक्तिबोध की 'अंधेरे में' कालजयी कृतियाँ हैं , लेकिन जनता में उनकी लोकप्रियता कितनी है , इसपर भी विचार होना चाहिए ।

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  10. पंकज चतुर्वेदी जी बहुत ही प्रखर और सक्रिय आलोचक और कवि हैं। उनके इस आलेख को पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ। उन्होंने बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे को बहुत ही विवेकपूर्ण ढंग से लिखा है। इस पर सोचा विचारा जाना चाहिए। पंकज जी को बहुत बहुत बधाई!

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  11. "कवि मूलतः विचारक नहीं आवश्यक विचारक भी है। उसका काम हमें बौद्धिक बनाना नहीं, बुद्धिमत्ता के प्रति संवेदनशील बनाना है :हमारी समझ के उपकरणों को पेना रखना है ताकि हम वास्तविकता को बुद्धि, मन और प्रज्ञा के विभिन्न स्तरों पर साथ -साथ ग्रहण कर सकें। "**कुंवर नारायण

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  12. आकार में अपेक्षाकृत छोटा किंतु अपनी संकल्पना या वैचारिकता में बहुत बड़ा और अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख जो न सिर्फ़ रोशनी देता है बल्कि बंद रोशनदानों को भी खोलने का प्रयत्न करता है।
    आलेख में कवि व्यक्तित्व और उसकी कविता के मूल्यों में अंतर्विरोध से लेकर अनुभव की अद्वितीयता और काव्य संरचना में सूक्ष्मता के साथ ही संगीत नाटक और अन्य कलाओं की संश्लिष्टता के प्रश्नों को सहज किंतु वैचारिक सजगता के साथ रेखांकित किया गया है।
    ( कुंतक ने भी इस तरह की बात कही है कि कवि को सभी कलाओं का ग्यान होना चाहिए)
    मूल बात तो यह कि कविता कम शब्दों में अधिक कहने की कला है
    और कविता जो प्रतिरोध या विपक्ष में रहने के लिये अभिशप्त है, उसे अब राजधानियों की बजाय छोटे कस्बों की दरकार है।
    यह आलेख अत्यंत सहजता से कवि और कविता की पहचान और उसके विश्लेषण को मूर्त करने की कोशिश है।
    दिलचस्प बात यह कि उदाहरण के लिए जहां वे गा़लिब, फ़ैज़, परवीनशाकिर और नासिर काज़मी के शेरों का उल्लेख करते हैं वहीं हरिशंकर परसाई के गद्य का भी।
    कविकर्म और काव्यभाषा के संदर्भ में यह बात बहुत मानीख़ेज़ है, जिस पर बाद में बात होगी।
    आलेख की भूमिका में ही अरुणदेव ने रेखांकित करदिया है कि कवि संत नहीं होता बल्कि उसके टुच्चे पन में भी कविता के बीज छुपे हो सकते हैं।
    पंकज चतुर्वेदी ने इसे यों कहा है कि लिखते समय कवि अपनी उच्चतम मानसिकता में होता है।एक आलोचक के रूप में
    उनकी एक ख़ासियत यह है कि वे जटिल अवधारणाओं को भी अत्यंत सरल और ग्राह्य बना सकते हैं।

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  13. एक कवि को अपनी कविता में पिरोये भावों और उद्देश्यों के लिए खुद भी जिम्मेदार होना चाहिए | बिगाड़ के दर से ईमान की बात ना कहने वाले लोगों को कवि कहाने का कोई हक नहीं | बहुत सारगर्भित और ज्ञानवर्धक आलेख |सादर

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