मेघ-दूत : नजवान दरवीश की कविताएं (अनुवाद मंगलेश डबराल)


















फिलिस्तीनी कवि नजवान दरवीश की कुछ कविताओं का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कवि मंगलेश डबराल ने किया है.  



फिलस्तीन के कवि नजवान दरवीश की कविताएं          
अनुवाद: मंगलेश डबराल








आठ दिसम्बर को जन्मे नजवान दरवीश (8 दिसंबर १९७८) को फिलस्तीन के  कवियों की नयी पीढ़ी और समकालीन  अरबी शायरी में सशक्त आवज हैं. महमूद दरवेश के बाद  वे  शायरी में फिलस्तीन के दर्द और संघर्ष के सबसे बड़े प्रवक्ता हैं. उनका  रचना संसार  बेवतनी का नक्शा है. वह एक ऐसी जगह की तकलीफ से लबरेज़ है जो धरती पर नहीं बनी है, सिर्फ अवाम के दिल और दिमाग में ही बसती है. 

नजवान की कविताओं का मिजाज़ और गठन महमूद दरवेश से काफी फर्क है और उनमें दरवेश के  रूमानी और कुछ हद तक क्लासिकी अंदाज़े-बया से हटकर यथार्थ को विडम्बना की नज़र से देखा गया है.  उनकी कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हैं: ‘खोने के लिए और कुछ नहीं’ और ‘गज़ा में सोते हुए’. ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने दो साल पहले उन्हें ‘चालीस वर्ष से कम उम्र का सबसे बड़ा अरबी शायर कहा था. नजवान  लन्दन से प्रकाशित प्रमुख अरबी अखबार ‘अल अरब अल जदीद’ के  सांस्कृतिक सम्पादक हैं और कुछ समय पहले  साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित ‘सबद’ अंतरराष्ट्रीय कविता महोत्सव और रजा फाउंडेशन के एशियाई कविता समारोह ‘वाक्’ में कवितायें पढ़ चुके हैं.

मंगलेश डबराल






हम कभी रुकते नहीं

मेरा कोई देश नहीं जहां वापस जाऊं
और कोई देश नहीं जहां से खदेड़ा जाऊं:
एक पेड़ जिसकी जड़ें
बहता हुआ पानी हैं:
अगर वह रुक जाता है तो मर जाता है
और अगर नहीं रुकता
तो मर जाता है.

मैंने अपने सबसे अच्छे दिन बिताये हैं
मौत के गालों और बांहों में
और वह ज़मीन जो मैंने हर दिन खोयी है
हर दिन मुझे हासिल हुई फिर से
लोगों के पास थी एक अकेली जमीन
लेकिन मेरी हार मेरी ज़मीन को कई गुना बढाती गयी
हर नुक्सान के साथ नयी होती गयी
मेरी ही तरह उसकी जड़ें पानी की हैं:
अगर वह रुक गया तो सूख जाएगा
अगर वह रुक गया तो मर जाएगा
हम दोनों चल रहे हैं
धूप की शहतीरों की नदी के साथ-साथ
सोने की धूल की नदी के साथ-साथ 
जो प्राचीन ज़ख्मों से उगती है
और हम कभी रुकते नहीं
हम दौड़ते जाते हैं
कभी ठहरने के बारे में नहीं सोचते
ताकि हमारे दो रास्ते मिल सकें आपस में

मेरा कोई देश नहीं जहां से खदेड़ा जाऊं,
और कोई देश नहीं जहां वापस जाऊं:
रुकना 
मेरी मौत होगी.





भागो !

एक आवाज मुझे यह कहते हुए सुनाई देती है: भागो
और इस अंग्रेज़ी टापू को छोड़ कर चल दो
तुम यहाँ किसी के नहीं हो इस सजे-धजे रेडियो के सिवा
कॉफी के बर्तन के सिवा
रेशमी आसमान में कतार बांधे पेड़ों के घेरे के सिवा
मुझे आवाजें सुनाई देती हैं उन भाषाओं में जिन्हें मैं जानता हूँ
और उनमें जिन्हें मैं नहीं जानता  
भागो
और इन जर्जर लाल बसों को छोड़ कर चल दो
इन जंग-लगी रेल की पटरियों को
इस मुल्क को जिस पर सुबह के काम का जुनून सवार है 
इस कुनबे को जो अपनी बैठक में पूंजीवाद की तस्वीर लटकाये रहता  है जैसे कि वह उसका अपना पुरखा हो
इस टापू से भाग चलो
तुम्हारे पीछे सिर्फ खिड़कियां हैं
खिडकियां दूर जहाँ तक तुम देख सकते हो
दिन के उजाले में खिड़कियाँ
रात में खिड़कियाँ
रोशन दर्द के धुंधले नज़ारे
धुंधले दर्द के रोशन नज़ारे
और तुम आवाजों को सुनते जाते हो: भागो
शहर की तमाम भाषाओं में लोग भाग रहे हैं अपने बचपन के सपनों से
बस्तियों के निशानों से जो उनके लेखकों की मौत के साथ ही ज़र्द दस्तखत बन कर रह गयीं  
जो भाग रहे हैं, वे भूल गए हैं कि किस चीज से भागे हैं, वे इस क़दर कायर हैं कि सड़क पार नहीं कर सकते
वे अपनी समूची कायरता बटोरते हैं और चीखते हैं:
भागो.





अगर तुम यह जान सको

मैं मौत से अपने दोस्तों को नहीं खरीद सकता
मौत खरीदती है
लेकिन बेचती नहीं है

ज़िंदगी ने कहा मुझसे:
मौत से कुछ मत खरीदो
मौत सिर्फ अपने को बेचती है
वे अब हमेशा के लिए तुम्हारे हैं, हमेशा के लिए
वे अब तुम्हारे साथ हैहमेशा के लिए
अगर तुम सिर्फ यह जान सको
कि खुद से ही 
ज़िन्दगी हैं तुम्हारे दोस्त.





मैं जो कल्पना नहीं कर सकता

ग्रहों के ढेर के बाद जब एक ब्लैक होल
धरती को निगल लेगा
और न इंसान बचेंगे और न परिंदे
और विदा हो चुके होंगे तमाम हिरन और पेड़ 
और तमाम मुल्क और उनके हमलावर भी...
जब सूरज कुछ नहीं
सिर्फ किसी ज़माने के शानदार शोले की राख होगा
और यहां तक कि इतिहास भी चुक जाएगा,
और कोई नहीं बचेगा किस्से का बयान करने के लिए
या इस ग्रह और हमारे जैसे लोगों के
खौफनाक खात्मे पर हैरान रहने के लिए 

मैं कल्पना कर सकता हूं उस अंत की
उसके आगे हार मान सकता हूँ
लेकिन मैं यह कल्पना नहीं कर सकता
कि तब यह होगा
कविता का भी अंत.





तुम जहां भी अपना हाथ रखो

किसी को भी प्रभु का क्रॉस नहीं मिला
जहां तक अवाम के क्रॉस की बात है
तुम्हें मिलेगा सिर्फ उसका एक टुकड़ा
तुम जहां भी अपना हाथ रखो 
(और उसे अपना वतनकह सको)

और मैं अपना क्रॉस बटोरता रहा हूँ
एक हाथ से
दूसरे हाथ तक
और एक अनंत से
दूसरे अनंत तक.





एक कविता समारोह में

हरेक कवि के सामने है उसके वतन का नाम
मेरे नाम के पीछे यरूशलम के अलावा कुछ नहीं है

कितना डरावना है तुम्हारा नाम, मेरे छोटे से वतन
नाम के अलावा तुम्हारा कुछ भी नहीं बचा मेरी खातिर

मैं उसी में सोता हूं उसी में जागता हूं
वह एक नाव का नाम है जिसके पंहुचने या लौटने की
कोई उम्मीद नहीं.
वह न पंहुचती है और न लौटती है
वह न पंहुचती है और न डूबती है.





आलिंगन

परेशान और तरबतर
मेरे हाथ पहाड़ों, घाटियों, मैदानों के आलिंगन की कोशिश में
घायल हुए 
और जिस समुद्र से मुझे प्यार था वह मुझे बार-बार डुबाता रहा
प्रेमी की यह देह एक लाश बन चुकी है
पानी पर उतराती हुई 

परेशान और तरबतर
मेरी लाश भी
अपनी बांहों को फैलाये हुए
मरी जा रही है उस समुद्र को गले लगाने के लिए
जिसने डुबाया है उसे.





बिलम्बित मान्यता

अक्सर मैं एक पत्थर था राजगीरों द्वारा ठुकराया हुआ  
लेकिन विनाश के बाद जब वे आये
थके-मांदे और पछताते हुए
और कहने लगे ‘तुम तो बुनियाद के पत्थर हो’
तब तामीर करने के लिए कुछ भी नहीं बचा था

उनका ठुकराना कहीं अधिक सहने लायक था 
उनकी विलंबित मान्यता से




नरक में

1.

1930 के दशक में
नात्सियों को यह सूझा
कि पीड़ित लोगों को रखा जाए गैस चैंबरों के भीतर
आज के जल्लाद हैं कहीं अधिक पेशेवर:
उन्होंने गैस चैंबर रख दिए हैं
पीड़ितों के भीतर.




2.
जाओ नरक में... 2010

जालिमो, तुम नरक में जाओ, और तुम्हारी सभी संतानें भी
और पूरी मानव-जाति भी अगर वह तुम्हारे जैसी दिखती हो
नावें और जहाज़, बैंक और विज्ञापन सभी जाएँ नरक में
मैं चीखता हूँ, ‘जाओ नरक में...’
हालंकि मैं जानता हूँ अच्छी तरह
कि अकेला मैं ही हूँ
जो रहता है उधर.



3.
लिहाजा मुझे लेटने दो
और मेरा सर टिका दो नरक के तकियों पर.





‘सुरक्षित’

एक बार मैंने उम्मीद की एक खाली कुर्सी पर
बैठने की कोशिश की
लेकिन वहां पसरा हुआ था एक लकडबग्घे की मानिंद
‘आरक्षित’ नाम का शब्द
(मैं उस पर नहीं बैठा; कोई नहीं बैठ पाया)
उम्मीद की कुर्सियां हमेशा ही होती हैं आरक्षित.





जाल में

जाल में फंसा हुआ चूहा कहता है:
इतिहास मेरे पक्ष में नहीं है
तमाम सरीसृप आदमियों के एजेंट हैं
और समूची मानव जाति मेरे खिलाफ है
और हकीकत भी मेरे खिलाफ है

फिर भी इस सबके बावजूद मुझे यकीन है
मेरी संतानों की ही होगी जीत.


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(photo by Ambarsh Kumar)



हिंदी के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने बेर्टोल्ट ब्रेश्ट, हांस माग्नुस ऐंत्सेंसबर्गर, यानिस रित्सोस, जि़्बग्नीयेव हेर्बेत, तादेऊष रूज़ेविच, पाब्लो नेरूदा, एर्नेस्तो कार्देनाल, डोरा गाबे आदि की कविताओं का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद किया है तथा बांग्ला कवि नबारुण भट्टाचार्य के संग्रह यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देशके सह-अनुवादक भी रहे हैं.

सम्पर्क
मंगलेश डबराल
ई 204, जनसत्ता अपार्टमेंट्स, सेक्टर 9
वसुंधरा गाज़ियाबाद -201012
mangalesh.dabral@gmail.com

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  1. बहुत उम्दा कविताएं और उनका उतना ही बेहतरीन अनुवाद भी। प्रिय अरुण देव जी आपका शुक्रिया,समालोचन से इस कविताओंका नजराना देने के लिए।

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  2. तेजी ग्रोवर7 अक्टू॰ 2019, 10:03:00 am

    शुक्रिया अरुण देव, आभार मंगलेश डबराल, इस तोहफ़े के लिए। शिद्दत से किये गए अनुवाद।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-10-2019) को     "झूठ रहा है हार?"   (चर्चा अंक- 3482)  पर भी होगी। --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    -- 
    श्री रामनवमी और विजयादशमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. Lay your head on my chest:
    I’m listening to the dirt
    I’m listening to the grass
    as it splits through my skin . .
    We lost our heads in love
    and have nothing more to lose

    Most Palestinian poets do have the same voice, though distinctive tonalities...Najwan is brilliant...at times his is a conscious break from his legendary namesake Mahmoud...down the unfolding history, he could be a legend in his own right....if Palestine is transfixed as it is now, if Najwan works in the way he does....through a continuum we'll hv a new voice, post-Mahmoudian, post-Adonisian voice making us hear its silences more intensely... Congrats Mangalesh Dabral ji.....thanks Arun Dev Ji....

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  5. बहुत शानदार अंतरराष्ट्रीय कवियों को पढ़ना सुखद अनुभव।

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  6. वाह अच्छी कविताएं अच्छा अनुवाद

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  7. बेहतरीन कविताएँ... बेहतरीन अनुवाद!!!

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  8. मानवता को सर्वविनाश से आगाह करती हुई इन रचनाओं में वह आक्रोश है जिसे समझ कर वर्तमान पीढ़ी पूँजीवादी मानसिकता से होने वाले उस अंत को देख सकती है जिसे देखना कोई नहीं चाहेगा ।
    इस तरह का लेखन किसी भी ख़ास वाद को प्रोत्साहित नहीं करता बल्कि वह एक सत्य की राह व हक़ीक़त की ओर एक संकेत भर करता है जिस पर चलना या न चलना पाठक की समझ पर समाज की मानसिकता पर निर्भर करता है
    नौजवान नवजान दरवीश नई पीढ़ी के लेखक हैं यह बात इस पीढ़ी के लिये प्रेरणादायी हो सकती है कि वह रचनाओं की अनकही त्रासदी व संकेतों को पहचाने समझे और बहकावे के आडम्बरों से अपने आप को होने वाली हानि से बचाकर हक़ीक़त का साथ दें तो शायद वर्तमान समाज एवं व्यवस्था कुछ बेहतर रूप ले सकेगी ।

    बहुत गम्भीर चिंतन व विमर्श मॉंगती रचनाओं के लिये सुदर्शन जी को नमन

    आभार धागा विमर्श का मंच एवं समालोचन
    अनिल कुमार शर्मा
    आगरा
    9412588226

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  9. 🙏🏻🌻

    फिलिस्तीन के कवि नजवान दरवेशी की कविताओं को समझने के लिए हमें सबसे पहले फिलिस्तीन के इतिहास को खंगालना होगा। फिलिस्तीन में मुख्य रूप से तीन धर्म हैं मुस्लिम, ईसाई और यहूदी।
    यहूदियों ने अपने अलग राष्ट्र की मांग करते हुए इसराइल को जन्म दिया।
    इसराइल के बनने के साथ ही फिलिस्तीन और इसराइल में जंग तभी से जारी है। लड़ाई को धार्मिक रूप भले ही दिया जाता रहा हो लेकिन असल लड़ाई ज़मीन की है और इसी ज़मीन को लेकर कवि कहता है कि 'हम कभी रुकते नहीं'क्योंकि रुक गए तो मारे जाएंगे। ऐसा कोई सुरक्षित स्थान नहीं है जहां पर फिलिस्तीनी स्थाई रूप से रह सकें इसलिए वह अपनी जड़ों की बहते हुए पानी से तुलना करता है जहां के देशवासी अपने वजूद की तलाश में सतत संघर्षरत हैं।

    'भागो' कविता में एक उलाहना है कि जो लोग स्वयं तो कायर हैं सड़क पार करने की हिम्मत नहीं जिनमें,वह अपनी समूची कायरता के साथ चीख़ते हैं कि भागो, जिन्होंने पूंजीवादी सत्ता के आगे घुटने टेक दिए हैं , जिनमें मुकाबला करने की हिम्मत नहीं ।भागो से एक अर्थ ये भी निकलता है कि कभी भी हमला हो सकता है इसलिए उस स्थान छोड़कर भागकर जान की ख़ैर मनाओ।

    'मैं जो कल्पना नहीं कर सकता' मुझे इस कविता में अतिवादीता नज़र आती है कि जब ब्लैक होल में ही सब कुछ समा जाएगा सारे ग्रह,ये पृथ्वी जब कुछ बचेगा ही नहीं तो कविता भी कहां बची रह पाएगी लेकिन यहां पर कवि को उम्मीद है कि कविता का कभी अंत नहीं होगा।

    'तुम जहां भी अपना हाथ रखो' में वही अपने- अपने धर्म की दुहाई है।
    सबको अपना क्रॉस चाहिए लेकिन वह क्रॉस पूरा किसी को हासिल नहीं होता कवि भी अपना क्राॅस बटोरना चाहता है लेकिन एक अनंत से दूसरे अंनत तक भी उसके हाथ कुछ भी नहीं आता।

    कुल मिलाकर कविताओं में फिलिस्तीन के हालात को लेकर एक नैराश्य का भाव झलकता है। जहां दो राष्ट्रों की लड़ाई के बीच आम जनता अपनी जानें गंवाने को अभिशप्त है।

    इन कविताओं के लिए आभार सुदर्शन जी🙏🏻💐

    आभार: धागा विमर्श का मंच🙏🌺

    _ख़ुदेजा

    15-11-2021

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  10. मंगलेश डबराल के बेहतरीन अनुवाद के माध्यम से, फिलिस्तीनी युवा कवि नजवान दरवेश की, सुदर्शन जी द्वारा चयनित कुछ कविताएं पढ़ने का अवसर मिला। ये कविताएं मुझे अपने समय का दस्तावेज प्रतीत होती हैं । किसी एक देश नहीं, अपितु किसी भी देश के लिए ये बातें सच हो सकती हैं। पहली कविता 'हम कभी रुकते नहीं' पढ़ते हुए कवि के परिचय में लिखी हुई यह पंक्ति "उनका रचना संसार बेवतनी का नक्शा है" वाक्य बार-बार जेहन में कौंध जाता है। "मेरा कोई देश नहीं जहां वापस जाऊं और कोई देश नहीं जहां से खदेड़ा जाऊं" वर्तमान में मनुष्य की अनिवार्य नियति की ओर संकेत करती कविता है। भूमंडलीकरण के इस दौर में जहां आजीविका मिली, वही देश अपना हो जाता है। आज का मनुष्य उस वृक्ष के समान है जिसकी जड़ बहते हुए पानी की तरह है। नियति तो अंत ही है रुक जाए तो भी, नहीं रुके तो भी।
    'भागो' कविता आज की महानगरीय अस्तव्यस्तता का चित्रण करती अच्छी कविता है। इस कविता में भी कवि नए देश, नए शहर में व्यक्ति के अजनबी होने की पीड़ा के बारे में बात करता है। कवि उस देश को छोड़ कर भाग जाना चाहता है, जहां उसे कोई अपना नहीं दिखाई देता। सब पर धन बटोरने की धुन सवार है।
    ' मैं जो कल्पना नहीं कर सकता' कविता में कवि कविता के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करता है। वह प्रत्येक वस्तु के अंत की कल्पना कर सकता है, किंतु कविता के अंत की नहीं। कविता के शेष रहने का अर्थ है, उम्मीद का बचा होना।
    एक अलग मिजाज़ की, आधुनिक तेवर की कविताएं पढ़ने का संतोष मिला।
    प्रस्तुत कविताओं के चयन के लिए सुदर्शन जी का आभार तथा धागा: विमर्श का मंच का आभार।

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  11. मंगलेश डबराल की अनुदित कविताओं द्वारा एक युवा कवि नजवान दरविश को पहली बार पढ़ने का अवसर मिला. इन कविताओं में बेशक़ फिलिस्तीन के चले आ रहे बेहद बुरे हालातों का आभास होता है किंतु आभास होता है उन सत्ताओं का भी जो इस अति आधुनिक कहलाए जाने वाले विश्व में भी बर्बरता से उभर नहीं पाईं हैं. जिन देशों में धरती के नीचे अकूत सम्पदा होती है, वहां की ही जनता ऐसे मर्मांतक दुख क्यों झेलती है.
    ताकतवर लोग ज़मीन के नीचे की सम्पदा के लोभ में ज़मीन के ऊपर रहने वालों को कीड़े- मकोड़ों से अधिक नहीं समझती.

    *मेरा कोई देश नहीं जहां वापस जाऊं/और कोई देश नहीं जहां से खदेड़ा जाऊं:/एक पेड़ जिसकी जड़ें
    बहता हुआ पानी हैं:/अगर वह रुक जाता है तो मर जाता है/और अगर नहीं रुकता/तो मर जाता है.*
    इन पंक्तियों में ऐसी विवशता दर्शायी गई है जिसका शाब्दिक ब्यान भी सरल नहीं. एक ऐसे पेड़ की उपमा जिसकी जड़ें ही बहते हुए पानी की तरह जो बहने से ठहरी तो भी मरेंगी और बहने से न ठहरी तो भी मरेंगी.
    अपने ही देश पर धर्म, राजनीति और वर्चस्व के चलते, कितने संकटों का सामना करना पड़ता होगा, इस छटपटाहट का अंदाज़ा इस युवा कवि की इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है..
    *मैंने अपने सबसे अच्छे दिन बिताये हैं/मौत के गालों और बांहों में/और वह ज़मीन जो मैंने हर दिन खोयी है/हर दिन मुझे हासिल हुई फिर से*
    इस खोने पाने के बीच बचपन से युवा होते किसी भी व्यक्ति ने खौफ़ के अलावा आखिर क्या हासिल किया?
    *हम दोनों चल रहे हैं/धूप की शहतीरों की नदी के साथ-साथ/सोने की धूल की नदी के साथ-साथ/जो प्राचीन ज़ख्मों से उगती है/और हम कभी रुकते नहीं*
    हर बार की शिकस्त के साथ धूप की शहतीरों और सोने की धूल की नदी पार करना असम्भव है, किंतु दिशाहीन चलते रहना विडम्बना है, उन दो रासतों के मिलने की आस में जहाँ, सम्मान है, जीने की सहुलियत है, जीत की आशा है. निरंतर युद्ध की स्थिति में जहाँ सालों साल बंदूक और सेना की गुलामी और रहमोकरम पर ज़िन्दगी बितानी हो ऐसे में असुरक्षित भविष्य की क्या गारेंटी है. ऐसे ही दृश्य देश में भी दिखाई दिए हैं जब आतंकवाद से छुटकारा दिलाने कश्मीर में धारा 370 समाप्त करने के लगभग 2 वर्षों बाद भी सेना के रहमोकरम पर है वहाँ के नागरिक. किसी की अंतहीन लालसा का शिकार होते हैं मासूम नागरिक.

    *भागो/और इन जर्जर लाल बसों को छोड़ कर चल दो/इन जंग-लगी रेल की पटरियों को/इस मुल्क को जिस पर सुबह के काम का जुनून सवार है/इस कुनबे को जो अपनी बैठक में पूंजीवाद की तस्वीर लटकाये रहता  है जैसे कि वह उसका अपना पुरखा हो/इस टापू से भाग चलो*

    बदहवासी का ऐसा दृश्य अंकित किया गया जिसमें हर वक़्त पलायन के संकेत मिलते रहे हों. अनिश्चितताओं में इनका भागना कोई संभावना तलाशना नहीं है, एक असुरक्षित जगह से भाग कर दूसरी असुरक्षित जगह पहुँचना है. भागने का चक्र निरंतर चलता रहता है, और पूँजीवाद को पूजने वाले इस बदहवासी से बेखबर केवल चिल्ला रहे हैं.
    *शहर की तमाम भाषाओं में लोग भाग रहे हैं अपने बचपन के सपनों से/बस्तियों के निशानों से जो उनके लेखकों की मौत के साथ ही ज़र्द दस्तखत बन कर रह गयीं/जो भाग रहे हैं, वे भूल गए हैं कि किस चीज से भागे हैं, वे इस क़दर कायर हैं कि सड़क पार नहीं कर सकते*
    बहुत गहरे अर्थ समेटी हुईं हैं ये पंक्तियाँ.. भाषाओं का उल्लेख अवश्य ही उन लेखकों के लिए किया गया है जिनका लिखना सत्ताओं का विरोध दर्द करना है, कदाचित उनका प्रतिरोध उनकी मृत्यु का कारण है. हर क्रूर सत्ता की सबसी बड़ी शत्रु कलम की शक्ति होती है, वह या तो इसे चलने से रोकने के हर संभव प्रयास करती है अथवा उसे तोड़ देती है, और यह कलम जिनके लिए लिखती है, वे ही अपने लक्ष्य को भूल पथभ्रष्ट हो जाते हैं. अलोकतांत्रिक ढंग से जनता को तोड़ने के कईं तरीके हैं, भय, मुद्दों से भटकाना अथवा लालच दे कर पथभ्रष्ट कर देना.
    बेहद संवेदनशील कविताएँ, कविताएँ पढ़ कर मनुष्यों द्वारा ही मनुष्यों पर किए गए भयावह अत्याचारों के दस्तावेज की तरह लगत हैं.
    सुदर्शन जी का लाजवाब चयन.. मंगलेश डबराल जी का सार्थक अनुवाद.. पढ़वाने के लिए धागा : विमर्श का मंच का धन्यवाद🙏

    शेष कविताओं पर रुक कर..

    रूपेंद्र राज तिवारी..

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