आधुनिक हिंदी कविता में प्रकृति, पर्यावरण
और मनुष्यइतर जीवन आते रहे हैं, पूरी कविता के रूप में भी. रुस्तम सिंह के के यहाँ
ये संग्रह की शक्ल में आयें हैं. लगभग सभी कविताएँ अपने केंद्र में प्रकृति को
धारण करती हैं. मनुष्यों द्वारा प्रकृति के विरूपण की दारुण कथा, जिसका कोई अंत
नहीं है.
व्यवस्था से नाराज़ व्यक्ति की शक्ल हिंदी
कविता में अक्सर हम देखते हैं पर सम्पूर्ण
मनुज संस्कृति का प्रतिपक्ष कैसा होता है इसे देखना हो तो रुस्तम की कविताएँ देखनी
चाहिए. मनुष्यों ने कितना नाश किया है और किस तरह वे इसे और तेजी से करते जा रहें
हैं, वे अब इस धरती के लिए किसी आपदा से कम नहीं. एक बेलाग, खरा व्यक्ति अपने ही
लोगों द्वारा धरती को नष्ट करते हुए विवश देख रहा है वह नाराज़ है, वह गुस्से में है वह यह चाहता है कि यह धरती जल्दी ही मनुष्यों की अति और
उनके अतिवाद से मुक्त हो.
जिस तरह से प्रकृति कुछ भी अतिरिक्त
स्वीकार नहीं करती उसी तरह से ये कविताएँ भी शब्दों के न्यूनतम से अपना कार्य कर
लेती हैं, मौन को और गहरा कर अर्थ तक पहुंच जाती हैं. ये देखती हुई कविताएँ हैं,
देखने में से दृश्य बनाती हुई. अपनी ध्वनियों और आवृत्ति से अर्थ सृजित करती हुई. एक
कविता ‘फँस गया मैं/जीवन के चक्कर में’ का बार-बार मुखरित होना किसी चक्करदार सीढ़ी
की तरह है जहाँ त्रासद अँधेरा आपको विकल कर देता है. यह रुस्तम की शक्ति और हिंदी कविता
की उड़ान है.
ये कविताएँ राजनीतिक उस अर्थ में नहीं है
जिस अर्थ में हम अब तक कविताओं को पढ़ते रहें हैं. ये पृथ्वी को बचाने की वैश्विक
रणनीति का हिस्सा हैं जो सार्वदेशिक है. यह संग्रह पृथ्वी के पक्ष में खड़े कवि की पुकार
है, जो कई जगह चीख में बदल गयी है.
रुस्तम का नया कविता संग्रह ‘न तो मैं कुछ
कह रहा था’ जल्दी ही सूर्य प्रकाशन मंदिर बीकानेर से प्रकाशित होने वाला है. इस
पांडुलिपि को पढ़ते हुए मुझे इन कविताओं नें विचलित किया.
न तो मैं कुछ कह रहा था : रुस्तम की कविताएँ
उनके पाँवों के नीचे
उनके पाँवों के
नीचे
तुम कभी भी दब
जाती हो.
तुम्हारी पीड़ा
की किसे परवाह है?
आज फिर उठना है
आज फिर उठना है.
आज फिर हगना है.
आज फिर नहाना
है.
आज फिर काम पर
जाना है.
आज फिर किसी से
मिलना है, किसी से बोलना है,
किसी को सुनना है.
आज फिर किसी को
देखना है, किसी द्वारा देखा
जाना है.
किसी को गाली
देना है, किसी से गाली खाना
है.
आज फिर कई बार
पानी पीना है, कई बार मूतना है,
कुछ खरीदना है, कुछ बेचना है.
आज फिर पीटना है, पिट कर आना है.
आज फिर लौटना
है.
शायद दुबारा
हगना है.
आज फिर सोना है.
सोने से पहले फिर मूतना है.
फँस गया मैं
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर
में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर
में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर
में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर
में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर
में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर
में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर
में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर
में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर
में.
फँस गया मैं
जीवन के चक्कर
में.
लोग
1.
बहुत से लोग हैं मेरे चहुँ ओर. बहुत से लोग हैं. बहुत से लोग हैं मेरे चहुँ ओर. बहुत, बहुत, बहुत, बहुत. लोग, लोग, लोग, लोग. ऊपर, नीचे, अन्दर, बाहर. बहुत से लोग हैं. लोग बोलते हैं, बतियाते हैं. उनके मुँह रुक नहीं पाते हैं. बहुत से लोग हैं और बहुत से फोन हैं. इन फोनों से लोग आपस में जुड़े हुए हैं और बतियाते जाते हैं. कितनी सयानी-सयानी बातें उनके मुँहों में से निकलती हैं! कितनी बातें और कितने मुँह हैं मेरे चहुँ ओर! बहुत, बहुत, बहुत, बहुत. लोग, लोग, लोग, लोग.
2.
लोग ही लोग हैं.
पर फिर भी कम हैं. पृथ्वी पर कुछ और जगह अभी बची हुई है! कुछ और लोग बन जायें, आपस में सट जायें, तो प्रेम
पैदा होगा! मीठी-मीठी बातें होंगी! संवाद होगा! संवाद की कितनी कमी है! संवाद होगा
तो सब ठीक हो जायेगा! सब जम जायेगा! कुछ और लोग बन जायें! आपस में सट जायें!
3.
मैं जिधर भी
जाता हूँ वहाँ लोग मिलते हैं. जिस ओर भी कदम बढ़ाता हूँ वहाँ लोग मिलते हैं. वाह!
मैं कितना खुश हूँ! कितना अच्छा जीवन ईश्वर ने मुझे दिया है कि हर जगह लोग उपस्थित
हैं और वे कितने अच्छे हैं! मैं अच्छेपन से घिरा हुआ हूँ! दुकान में अच्छापन! सड़क
पर अच्छापन! गली में अच्छापन! चौक पर अच्छापन! हर दफ़्तर में सब अच्छा ही अच्छा है, क्योंकि वहाँ लोग हैं, और वे सब
मुझे प्रेम करते हैं! सब मुझसे सटे हुए हैं!
सब चाहते थे
सब चाहते थे
कि मैं अपना
मुँह नहीं खोलूँ.
सब चाहते थे
कि वे ख़ुद तो
बोलें
पर मैं नहीं
बोलूँ.
उस वाचाल ज़माने में वे सब मुझे सिर्फ़ अपनी बात बताना चाहते थे.
तुमने उसे पैगम्बर कहा और उसे एक काली कोठड़ी में डाल दिया.
तुमने उसे
एक अन्धे कुएँ
में धकेल दिया
क्योंकि उसका
स्वर
कर्कश था
और वह
केवल सच बोलता
था.
धीरे-धीरे उन्होंने
मेरे होंठ सिल
दिए.
पूरा विश्व जल रहा है
पूरा विश्व जल
रहा है.
जल रहा है मेरा
हिया.
भीतर, बाहर
आग ही आग है
और धुआँ.
वो जो आग में से निकला था
वह जल रहा है.
वो जो बर्फ़ जैसा
ठण्डा था
वह जल रहा है.
आग सुलग रही है.
आग भभक रही है.
उठ रहा है धुआँ.
जुट रहा है
धुआँ.
नदियाँ.
जंगल.
समुद्र.
पर्वत.
हर चीज़ में से
आग निकल रही है.
जल रही है हवा.
पानी जल रहा है.
बुझ रहा है दिया.
यह तुमने क्या किया?
यह तुमने क्या
किया?
अन्तिम मनुष्य
तुम अकेले ही
मरोगे.
तुम्हारे चहुँ ओर मरु होगा.
सूर्य बरसेगा.
तुम मरीचिकाएँ
देखोगे,
उनके पीछे
दौड़ोगे,
भटकोगे.
पानी की एक बूँद के लिए भी तरसोगे.
ओह वह भयावह होगा!
एक मामूली जीव
की तरह
मृत्यु से पहले
असहाय तुम
तड़पोगे.
इतिहास में
सारे मनुष्यों
के
सभी-सभी
कुकृत्यों का
जुर्माना भरोगे.
तुम अकेले ही मरोगे.
कल फिर एक दिन होगा
कल फिर एक दिन
होगा.
कल फिर मैं
चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अन्तिम बार.
पृथ्वी थम जाये
और धमनियों में
बहता हुआ ख़ून
जम जाये अचानक.
गिर पड़े यह जीवन
जैसे गिर पड़ती
है ऊँची एक बिल्डिंग
जब प्रलय की
शुरुआत होती है
और समाप्ति भी
उसी क्षण.
कल फिर एक दिन
होगा.
कल फिर मैं
चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अन्तिम बार.
जो मेरे लिए घृणित है
जो मेरे लिए
घृणित है,
वही तुम्हें
प्रिय है ---
दुःख क्यों है?
इसलिए नहीं कि
इच्छा है,
बल्कि इसलिए कि
जीवन है.
मैं चाहता हूँ कि जीवन ख़त्म हो जाये.
सिर्फ़ मिट्टी और चट्टानें और पत्थर यहाँ हों.
तथा पर्वत. और
बर्फ़.
और ---
उफ़नता लावा.
मैं चाहता हूँ कि पृथ्वी अपने उद्गम की तरफ़ लौट जाये.
आग का
घुमन्तू गोला.
फिर बिखर जाये आसमान में.
फिर,
न जल जल था
न जल जल था, न हवा हवा थी, न नदियाँ नदियाँ
थीं, न झीलें झीलें थीं, न समुद्र
समुद्र था, न बादल बादल थे, न बारिश
बारिश थी, न अन्न अन्न था, न फल फल थे,
न प्रेम प्रेम था, न मनुष्य मनुष्य था,
न मन्दिर मन्दिर थे, न ईश्वर ईश्वर था.
ऐसी दुनिया में मैं पैदा हुआ, रहा और फिर चला गया.
मैं पेड़ों का शुक्रगुज़ार हूँ
मैं पेड़ों का
शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं पौधों का
शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं फूलों का
शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं पशुओं का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं पक्षियों का
शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं कीड़ों और
मकौडों का
शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं नदियों, झीलों,
समुद्र और
तालाबों का
शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं पर्वतों का शुक्रगुज़ार हूँ.
मैं चट्टानों का
शुक्रगुज़ार हूँ.
तथा हवा और मिट्टी का भी.
इन सबका अहसान है मुझ पर.
मैं कुछ इन्सानों का भी शुक्रगुज़ार हूँ.
भेड़िया भी मेरा नाम है
भेड़िया भी मेरा
नाम है,
मात्र रुस्तम
नहीं,
और शेर, घोड़ा, हाथी.
इसी तरह के और
भी कई नाम मैंने रखे हुए हैं.
मैं रातों को
दहाड़ता हूँ, गुर्राता हूँ,
हऊँ-हऊँ करता हूँ,
दिन में भी.
मेरे तीखे दाँत
और नाखून हैं.
गहन अन्धेरे में
चमकती हैं मेरी
आँखें,
किसी टॉर्च की
तरह जलती हैं.
अब तुम ---
क्या करोगे?
मुझसे डरोगे?
मुझसे दूर
भागोगे?
मुझे मारने
दौड़ोगे?
मुझे गुलाम
बनाओगे?
मुझ पर
सवारी करोगे?
मेरा सींग काटोगे?
मेरी चमड़ी
उधेड़ोगे?
मेरा घर उजाड़ोगे?
अब तुम
क्या करोगे?
क्योंकि भेड़िया
भी मेरा नाम है,
और शेर, घोड़ा, हाथी.
_____________________________
उन्होंने नॉर्वे के विख्यात कवियों उलाव हाऊगे तथा लार्श आमुन्द वोगे की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है. ये पुस्तकें "सात हवाएँ" तथा "शब्द के पीछे छाया है" शीर्षकों से वाणी प्रकाशन,दिल्ली, से प्रकाशित हुईं.
कवि और दार्शनिक रुस्तम सिंह (जन्म : ३० अक्तूबर 1955) "रुस्तम" नाम से कविताएँ लिखते हैं. अब तक उनके पांच कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. सबसे बाद वाला संग्रह "मेरी आत्मा काँपती है" सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर, से २०१५ में छपा था. एक अन्य संग्रह "रुस्तम की कविताएँ"वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली,से २००३ में छपा था. "तेजी और रुस्तम की कविताएँ"नामक एक ही पुस्तक में तेजी ग्रोवर और रुस्तम दोनों के अलग-अलग संग्रह थे. यह पुस्तक हार्पर कॉलिंस इंडिया से २००९ में प्रकाशित हुई थी. अंग्रेज़ी में भी रुस्तम की तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. उनकी कवितायेँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मलयाली, स्वीडी,नॉर्वीजी, एस्टोनि तथा फ्रांसीसी भाषाओँ में अनूदित हुई हैं. किशोरों के लिए ‘पेड़ नीला था और अन्य कविताएँ' एकलव्य प्रकाशन से २०१६ में प्रकाशित हुई हैं.
वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, तथा विकासशील समाज अध्ययन केंद्र, दिल्ली, में फ़ेलो रहे हैं. वे "इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली", मुंबई, के सह-संपादक तथा श्री अशोक वाजपेयी के साथ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, की अंग्रेजी पत्रिका "हिन्दी : लैंग्वेज, डिस्कोर्स,राइटिंग" के संस्थापक संपादक रहे हैं. वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली, में विजिटिंग फ़ेलो भी रहे हैं.
ईमेल : rustamsingh1@gmail.com
रुस्तम जी को पढ़ना आपको वो सब महसूस करवाता है जिसके लिए हम सब आंखें बंद किए रहते हैं....... प्रकृति प्रेमी..... मानव मन की रोज की खीझ और छटपटाहट को बखूबी बयान करती रचनाएँ
जवाब देंहटाएंI was honoured to share his poems in my poetry post some months ago....a different timbre, pith and depth.... Teji's translation was outstanding as always....more of them I would like to share in future...
जवाब देंहटाएंवाहहह....रूस्तम को पढना बहुत अच्छा लगता है ।नई किताब का इंतज़ार है ।
जवाब देंहटाएंरुस्तम जी को पढ़ना कविता की पदचाप और मौन को भी पढ़ना है। अक्सर आहट और अनुगूँज को साथ भी। वे हमारे समय के अपनी ही धज के कवि हैं। उनके वाक्यों के विन्यास में जो सादगी और गहराई है, वह कविता को उत्कर्ष देती चलती है
जवाब देंहटाएंसार्थक कविताएँ
जवाब देंहटाएंहां, यह सच है, मनुष्य केंद्रित कला और साहित्य की काट अगर ढूंढनी हो, और वह भी कविता की शर्तों पर तो हमें रुस्तम के यहां आना ही पड़ेगा। मैं कुछ दुख के साथ यह भी दर्ज करना चाहती हूँ कि रुस्तम के खरे और सच्चे पाठक हिंदी में कम ही रहे हैं। लेकिन जो रहे हैं वे रुस्तम के पाठक होने की पात्रता रखते हैं। मैं कई लोगों के नाम ले सकती हूँ, लेकिन फ़िलवक्त सिर्फ अपनी सहोदरा पंजाबी कवि Bipan Preet का ज़िक्र कर रही हूँ जिसने रुस्तम की कविता पर एक लंबे आलेख में अत्यंत आत्मीय और गंभीर चिंतन किया है। रुस्तम निकट से निकट मित्र को भी दोटूक और खरी बात कहकर नाराज़ कर लेने की क्षमता रखते हैं। लेकिन उन्हें वे लोग अपने प्रेम के घेरे से कभी बाहर नहीं करते जो उनका सत्व पहचानते हैं। और एक आखरी बात। कविता और अपने जीवन के बीच कोई फाँक न रखने वाले सुकवि त्रिलोचन रुस्तम के सबसे प्रिय कवि हैं। और यह ज़ाहिर है कि त्रिलोचन उन्हें क्यों प्रिय हैं।
जवाब देंहटाएंArun Dev , मित्र, आपने ठीक वैसा ही लिखा है जो आप जैसे खरे पारखी से उम्मीद थी। आपने अपने कवि हृदय की भी क्या ख़ूब झलक दिखलाई है। मीमांसात्मक विवेक भी किसी सुपाठ से कितना मुतासिर होता है न! और कुपाठ के समक्ष वह कितना निरुपाय! वागीश शुक्ल कहा करते थे कि सुपाठ पर ही मनन करना चाहिए। आपको बहुत प्यारभरी बधाई।
जवाब देंहटाएंअद्भुत कहूं तो क्यों, ना कहूं तो क्यों ना
जवाब देंहटाएंऐसे ही भाव आते हैं रुस्तम को पढ़ कर,मन में
फँस गया मैं उलझन में...
प्रेम साहिल
जवाब देंहटाएंअलहदा अंदाज़े बयां है इनका तो | एकदम विस्मयकारी |
जवाब देंहटाएंपूरे आदर और विनम्रता के साथ आदरणीय अरुण जी इस बात पर असहमत कि Rustam Singh सर की कविताएँ पृथ्वी के पक्ष में पुकार होते-होते कुछ जगह चीख में बदल गयी, बल्कि एक पाठक के तौर पर मैंने महसूस किया कि इन कविताओं में चीख-पुकार नहीं, चेतावनी है और चुनौती है कि मनुष्यता के पैमाने बदलना बंद करो या फिर मनुष्य होने के दंभ में जीना... - सादर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 5 सितंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-09-2019) को "हैं दिखावे के लिए दैरो-हरम" (चर्चा अंक- 3450) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Creation lies in finding new expressions for what we are already familiar with . Rustam ji has successfully done that .
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