लमही का हमारा कथा समय -१ : निशांत
















लमही का स्त्री कथाकारों पर आधारित अंक 'हमारा कथा समय -१' की चर्चा कर रहें हैं कवि निशांत. इस पत्रिका के संपादक हैं, विजय राय.
                                 




स्त्री कथा का असाधारण अंक
निशांत




हिंदी कथा साहित्य चाँद, तारों, सितारों, ग्रहों, उपग्रहों से भरा पड़ा है. यह एक विशाल दुनिया है जहाँ हर किसी के पास अपनी कहानियाँ है. जिंदगी खत्म हो जाती है, जिंदगी की कहानियाँ कभी खत्म नहीं होती. वैसे भी कहानी एक खत्म न होने वाली विधा है. इसी न खत्म होने वाली विधा को केंद्र में रखकर लमही के सम्पादक विजय राय ने हमारा कथा समय : 1 नाम से लमही का एक अन्य अंक निकाला है. यह कथा समय 1 है अर्थात् गिनती चालू हो गयी है, अभी 2 और 3 एवं आगे भी और अंक आयेंगे ; ऐसी उम्मीद बनती दिख रही है. फिलहाल तो तीन अंकों की योजना बनी हुई है, यह सम्पादकीय पढ़कर जाना जा सकता है.  

इस अंक में 47 स्त्री कथाकारों की प्रमुख कहानियों को आधार बनाकर हमारे समय के प्रमुख आलोचकों से लिखवाकर 220 पृष्ठों में इसे समेटा गया है. इसमें शामिल होने वाली महिला कथाकार है –

ममता कालिया, सूर्यबाला, मृदुला गर्ग, सुधा अरोड़ा, नासिरा शर्मा, शीला रोहेकर, नमिता सिंह, दीपक शर्मा, सुमति सक्सेना लाल, मैत्रेयी पुष्पा, उषा किरण खान, मधु कांकरिया, आशा प्रभात, सुषमा मुनींद्र, सारा राय, गीतांजलि श्री, अलका सरावगी, लवलीन, वंदना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, महुआ माजी, जयश्री राय, जया जादवानी, वंदना देव शुक्ल, उर्मिला शिरीष, रजनी गुप्त, निर्मल भुराड़िया, अल्पना मिश्र, नीलाक्षी सिंह, प्रत्यक्षा, कविता, किरण सिंह, आकांक्षा पारे काशिव, ज्योति चावला, दूर्वा सहाय, उपासना, गीताश्री, पंखुरी सिन्हा, प्रज्ञा पाण्डेय, दिव्या शुक्ल, दया दीक्षित, प्रज्ञा, इंदिरा दागी, अंजली काजल, भूमिका द्विवेदी अश्क और सोनी पाण्डेय .

फिर भी कोई सूची अंतिम सूची नहीं होती. कवि विनोद कुमार शुक्ल की भाषा में कहा जाए तो सब कुछ होने के बाद भी सबकुछ होना बचा रहेगा. कोई न कोई कहानीकार छूट ही जाता है. यह छूटना कई कारणों पर निर्भर करता है, कभी-कभी सम्पादक से ज्यादा आलोचक-रचनाकार भी इस छूटने के लिए जिम्मेदार हो जाते हैं. एक उदाहरण इसी अंक में चित्रा मुद्गल जी के छूटने का है. फिलहाल छूटने से ज्यादा जो है, वह क्या है? यह देखना ज्यादा जरूरी  है.

स्त्री कथाकारों की एक सुदृढ़ और लंबी परम्परा रही है. आधुनिक हिंदी कहानी के जन्म से इंदुबाला घोष अर्थात् बंग महिला की दुलाई वाली कहानी से लेकर ज्योति चावला तक. यह परंपरा आजादी के बाद और मजबूत हुई है. खासकर के स्त्री लेखन के उभार के दौरान .
    
लेखन भी एक तरह से पुरूषों के एकाधिकार वाला क्षेत्र रहा है, कहानियाँ चाहे पुरूषों ने लिखीं हों, वे बची रहीं हैं एक स्त्री के कंठ में ही. स्त्री के कंठ में आकर ही वे अमर होती हैं. मुक्तिबोध ने सगर्व घोषणा की थी, ‘मेरी माँ ने मुझे प्रेमचंद का भक्त बनाया था.इस पुरूष प्रधान समाज और क्षेत्र में इंदुबाला घोष ने भारतीय कहानी के शुरुआती दौर में अपनी जगह सुनिश्चित कर ली थी. कृष्णा सोबती और मन्नू भण्डारी स्त्री लेखन को, खासकर कथा लेखन को आजादी के बाद नयी बुलंदियों की तरफ ले गईं. इन्हीं के बाद साठ के दशक के बाद की स्त्री कथाकारों की  कहानियों पर यह अंक विजय राय ने संपादित किया है. यह अंक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जब-जब कहानियों की मृत्यु की घोषणा हुई है, कहानियाँ थोड़ा और ज्यादा अमर हुई हैं.
(विजय राय)
    
कभी नामवर सिंह ने भारत में कहानी के जन्म देने और पालन-पोषण के संदर्भ में कहा था कि, “आजादी के साथ भारत में वह शिक्षित मध्य वर्ग स्थापित, विकसित और संवर्धित हुआ जो साहित्य के इतिहास में कहानी का जन्मदाता है .” जब से कहानी लिखित फार्म या मुद्रित रूप में आई, तब से ही पढ़ने-लिखने वाले तबकों ने इसे हाथों-हाथ लिया. वैसे भी कहानी पढ़नेवाला-सुननेवाला एक वर्ग हमेशा से रहा है, लिखने वालों की तुलना में. यह पाठक-श्रोता वर्ग, वही मध्यम वर्ग है, जिसकी तरफ नामवर जी ने इशारा किया है. मध्यवर्ग की अवधारणा अंग्रेजों के आने के बाद भारत में बनी, खासकर के शिक्षित मध्यवर्ग की. शिक्षित मध्यवर्ग की स्त्रियों ने ही लेखन के क्षेत्र में एकाधिकार जगाए पुरूषों को चुनौती ही नहीं दी, बल्कि सिक्का बदल गया,वापसी, मैं हार गयी जैसी कालजयी कहानियाँ भी दीं.    
    
कभी सिमोन द बोउवा ने कहा था कि स्त्री पैदा नहीं होती, स्त्री बनाई जाती है. इस स्त्री को बनाने में हमारे पितृसत्तात्मक समाज ने अपने सारे हथकंडों, औजारों और विचारों को लगा दिया. इस बनी हुई स्त्री ने जब अपने बनने का राज खोला तो द सेकेण्ड सेक्सजैसी कालजयी कृति आयी. वास्तव में स्त्री जीवन को जानना-समझना हो तो एक पुरूष कथाकार की कहानियों से ज्यादा एक स्त्री कथाकार के माध्यम से ही हम इसे समझ सकते हैं. पंकज पराशर ने अपने आलेख, जो इस पत्रिका का प्रथम आलेख भी है में इस तरफ सही इशारा किया है –

“मानव होते हुए भी स्त्री-पुरुष की मनोरचना अलग-अलग है. उनकी समाजीकरण की प्रक्रिया, व्यक्तित्व-निर्माण की प्रक्रिया हमारे समाज में नितांत भिन्न है. जाहिर है, लेखन भी भिन्न होगा. स्त्री जब लिखती है तो वह आत्मानुभव होता है. पुरूष जब स्त्री के बारे में लिखता है तो वह परानुभव होता है. स्त्री की भाषा और शैली भी भिन्न होती है . वह न केवल क्या हो रहा है लिखती है बल्कि क्या होना चाहिए यह भी लिखती है. उसका आवेग, उसकी लाल बिंदी का ओज, उसकी चूड़ियों की खनक, उसके बालों की उड़ान, उसके लिबास और उसके रंग, उसकी खुशबू उसके रचे साहित्य में इतने अनूठे ढंग से गुंफित होती है कि पाठक बरबस शब्दों को पकड़ मोहाविष्ट हो कहानी के साथ बहुत सरलता से यात्रा पर निकल पड़ता है . यही स्त्री-लेखन की लोकप्रियता का राज है. दूसरा फर्क यह है कि सेकेंड सेक्स होने के कारण सदियों की पीड़ा और संघर्ष जो कि स्त्री-जीवन का अनिवार्य हिस्सा है, वह निजी होते हुए भी सामाजिक होता है .”

एक स्त्री भिन्नता और निजीपन को कैसे सामाजिक में परिवर्तित करती है, बिना स्त्री रचनाकार को पढ़े नहीं जाना जा सकता है. उदाहरण के लिए इसी अंक में मानसरोवर खण्डके अंतर्गत अंजली देशपाण्डे और उमा झुनझुनवाला की कहानियों को देखा जा सकता है .
    
एक समय महादेवी वर्मा ने लिखा था– “पुरूष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है परंतु अधिक सत्य नहीं, विकृति के अधिक निकट पहुँच सकता है परंतु यथार्थ के अधिक समीप नहीं.” पुरूष अंतत: पुरूष ही होता है. अब तो इस बात को टेलीविजन पर बड़े जोर-शोर से विज्ञापित भी किया जा रहा है. वह स्त्री को देवी, माँ, सहचरी, प्राणही बना सकता है, अपने जैसा इंसान नहीं. इसलिए संपादकीय में विजय राय ने पुरूषों के लेखन के बारे में एकदम सटीक लिखा है कि – “जब पुरूष स्त्रियों के बारे में लिखता है तो अपनी तमाम सहानुभूति और संवेदना के बावजूद वह पूरी तरह न्याय नहीं कर सकता है. दूसरा उसमें किसी या किन्हीं अंशों में पुरूषवादी सोच के आ जाने की संभावना बनी रहती है.”

पुरूष का लेखन वही परानुभव वाला लेखन है, जबकि आजादी के बाद हिंदी कथाकारों की दुनिया  में स्त्रियों के लेखन और विकास को “हिंदी में स्त्री-लेखन के विकास का अगर संक्षेप में समझाना हो तो अभिव्यक्ति, अस्मिता और अभिमान  का ये तीन सूत्र पर्याप्त हैं. विशेष कर कहानी के परिदृश्य में तो ये सूत्र और भी सटीक साबित होते हैं. स्वतंत्रता आंदोलन के समानांतर चली स्त्री अभिव्यक्ति की जद्दोजहद साठ और सत्तर के दशक के बाद की कहानी में स्त्री अस्मिता की पुरजोर वकालत के रूप में सामने आती है. मगर नब्बे के दशक में चली भूमंडलीकरण की बयार ने हिंदी में स्त्री कहानी की सूरत भी बदली. यह और अनुगामी समय ऐसा दौर है जिसमें हिंदी में स्त्री लेखन ने अ‍ॅसर्ट करना शुरू किया.”

इसी दौर में स्त्री कथाकारों ने अपनी पहचान को पुख्ता किया. उसे दुनिया के सामने मजबूती से रखा. उन्होंने बताया कि मजबूरी का नहीं, मजबूती का लेखन है स्त्री साहित्य. नब्बे के बाद हिंदी में स्त्री-लेखन का दायरा काफी विस्तृत होता है. स्त्री-विमर्श, आदिवासी-विमर्श और दलित-विमर्श अर्थात् अस्मितामूलक विमर्शों का एक नया दौर चल पड़ता है. वास्तव में “विमर्शों का आरम्भ समानता की आवश्यकता के कारण ही हुआ है. चाहे अभिव्यक्ति का स्तर कोई भी हो- आत्म की हो या शिल्पगत या शब्दगत.”  

इन विमर्शों की आवाजों को भी पुनीता जैन ने दलित और आदिवासी स्त्री कथाकारों का रचना-संसारवाले आलेख में विस्तार से पकड़ा है. आज दलित और आदिवासी रचनाकार भी दया या उधार की संवेदना के बजाए अपने अनुभव और संवेदना को वाणी देने को तत्पर है. सुशीला टाकभोरे, रजनी दिसोदिया, अनिता भारती, पूनम तुषाभड़, एलिस एक्का, रोज केरकेट्टा, फ्रांसिस्का कुजूर और सुशीला ध्रुवे की कहानियों के पड़ताल के बहाने पुनीता जैन ने एक विस्तृत संसार से हम पाठकों को परिचित करवाया है. इसी तरह का दो और आलेख प्रवासी कथा के भावनात्मक मानचित्र और वैश्विक साहित्य में हस्तक्षेप : पंखुरी सिन्हा तथा प्रवासी महिला लेखन का विस्तृत क्षितिज : प्रांजल धरने लिखा है.

प्रवासी कथाकारों की यह शिकायत रही है कि उन्हें मुख्यधारा से अलग रख कर देखा जाता है. उनकी इस शिकायत को यह दो आलेख काफी कम कर देते हैं. यहाँ उषाराजे सक्सेना, इला नरेन, अर्चना पेन्युली, अनीता कपूर, सुषमा वेदी, सुधा ओम ढींगरा, दिव्या माथुर, नीना पाल, अनिल प्रभा कुमार, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, कविता वाचकनवी और जाकिया जुबैरी की कहानियों के बहाने एक दूसरी दुनिया से हमारा परिचय कराती हैं. वह दुनिया भी हमारी दुनिया से से किसी भी मायने में कम नहीं है. वहाँ भी स्त्रियाँ, स्त्रियाँ ही हैं. कथालोचक पंकज पराशर की जो चिंता है कि "गैर हिंदी भाषी कथा-भूमि से वावस्ता कहानियाँ बहुत कम मिलती हैं.” वो चिंता यहाँ कुछ कम हो सकती है. इसी कड़ी में एक और महत्वपूर्ण आलेख मुक्ता टंडन का है- 'उभरती कथा लेखिकाओं की दृष्टि में सामाजिक विमर्श'. इसमें रख्शंदा रूही महदी , गजल जैगम, उषा, पूनम मनु राणा, प्रतिभा कटियार, मीना पाठक, सिनीवाला शर्मा, सोनाली मिश्रा, कंचन सिंह चौहान, रमा यादव, शोभा सिंह मिश्रा और इंदु सिंह की कहानियों के बहाने सामाजिक विमर्श पर ध्यान केंद्रित किया गया है. इस तरह कुल 72 महिला कथाकारों को यहाँ समेटा गया है, जिनमें 46 पर स्वतंत्र आलेख है.
    
यह अंक  साठ के बाद की महिला कहानीकारों को समझने के लिए मील का पत्थर साबित होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है. आवरण पर नैना दलाल की लीथो कलाकृति अद्भुत है, करूणा और सौम्यता की प्रतिकृति. विजय राय के दो सालों के मेहनत का फल यहाँ 220 पृष्ठों पर फैला है, लेकिन इसी के साथ एक डर की तरफ भी संपादकीय में इशारा किया गया है

“लमही के सुधी पाठकों का यह जानना बेहद जरूरी है कि एसजीएसटी और सीजीएसटी के साथ-साथ कागज और छपाई में हुई अपार वृद्धि के कारण हम लगातार भारी घाटे में चल रहें हैं. स्थितियाँ बेहतर करने के लिए हम निरंतर संघर्ष और प्रयत्न कर रहें हैं, लेकिन यदि कामयाब नहीं हुए तो अक्टूबर-दिसम्बर 19 अंक से लमही का प्रिंट वर्जन बंद करके हम इसे सिर्फ ऑन लाइन ही जारी रख पायेंगे .”

एक पत्रिका, वह भी लमही जैसी लघु पत्रिका का बंद होना हिंदी समाज पर काले धब्बे की तरह दिखेगा. इतना बड़ा हिंदी समाज है. इसे बचाने, जिलाए रखने का दायित्व इसी हिंदी समाज पर है, होना चाहिए. आप सोचिए और कुछ करिए कि यह पत्रिका बंद न हो ताकि आपके माथे पर टीका शोभे,काला धब्बा नहीं.
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nishant.bijay@gmail.com

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  1. बहुत सुन्दर आलेख है और उतना ही सार्थक 'लमही' का यह अंक रहा है। इस अंक को देश-विदेश में बहुत सराहना मिली है। आदरणीय विजय राय जी इस श्रमसाध्य सम्पादन के लिए सचमुच बधाई के पात्र हैं। यह अंक पाठकों को जानकारी देने के साथ-साथ शिक्षित भी करता है कि हमें आधी दुनिया के सवालों को समग्रता में किस तरह देखना चाहिए, ताकि बेहतर समाज के निर्माण का स्वप्न पूरा किया जा सके।
    सादर,
    प्रांजल धर

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