वाम बनाम दक्षिण की साहित्य परम्परा : विमल कुमार




हिंदी साहित्यकारों और सेवियों को राजनीतिक आधार पर बांट कर क्या हम समग्र साहित्य को क्षति पहुंचा रहें हैं ?
स्वतंत्रता दिवस पर वरिष्ठ कवि पत्रकार विमल कुमार की यह टिप्पणी



राष्ट्रवादी लेखन और वाम बनाम दक्षिण 
विमल कुमार





राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान  हिन्दी साहित्य की दुनिया में तीन तरह के लेखक हुए. पहली श्रेणी में वे लेखक  हुए जिन्होने खुद सृजनात्मक साहित्य लिखकर अपनी रचनाओं में    स्वतंत्रता  के व्यापक अर्थों की मीमांसा की और मनुष्य की मुक्ति तथा सभ्यता विमर्श भी खडा किया. इनमे प्रेमचन्दजयशंकर प्रसादनिराला, महादेवी  वर्मा और हजारीप्रसाद दिवेदी जैसे लेखक हुए. इन सबका लेखकीय व्यक्तित्व अलग तो है ही. भाषा और शिल्प भी अलग है तथा वैचारिक भाव भूमि एवं  रचनात्मक मनोदशा भी अलग फिर भी ये सब एक बड़े मानवीय मूल्यों के साथ एक दूसरे के के अभिन्न अंग भी हैं.

दूसरी श्रेणी के वे लेखक हुए जिन्होंने साहित्य सृजन तो किया ही, राजनीतिक सामाजिक आंदोलनों में खुल कर भाग लिया और आज़ादी की लड़ाई में भी हिस्सा  लिया और वे जेल भी गये. इनमे माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, राहुल सांकृत्यायन, बालकृष्ण शर्मा नवीन”, रामबृक्ष बेनीपुरी, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी लेखक लेखिकाएं शामिल हैं जो जेल गयीं.

तीसरे वे लेखक थे जो न तो जेल गये न ही उन्होंने प्रेमचंद, प्रसादनिराला की तरह कोई बहुत बड़ी कृति लिखी लेकिन हिन्दी भाषासाहित्य  एवं समाज  के निर्माण में ऐतिहासिक भूमिका निभायी और कई  महती  संस्थाओं को खड़ा किया, नई पीढी का निर्माण किया तथा साहित्य  के वांग्मय को समृद्ध  किया. इनमे महावीरप्रसाद द्विवेदी, श्यामसुन्दर दास, रायकृष्ण दास, रामचन्द्र वर्मा, वासुदेवशरण अग्रवाल, भगवतशरण उपाध्याय, बनारसीदास चतुर्वेदी, शिवपूजन सहाय, किशोरीदास वाजपेयी, जैसे अनेक लोग थे.

पहली श्रेणी के लेखकों की चर्चा साहित्य जगत और अकेडमिक जगत में अधिक हुई. एक श्रेणी उन लेखकों की है जिन्होंने राष्ट्रवादी साहित्य का निर्माण किया और राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी  जिनमे मैथिलीशरण गुप्तरामधारी सिंह दिनकर, सोहनलाल दिवेदी   जैसे लेखक भी थे. हिन्दी शिक्षा जगत एवं साहित्य जगत में पहली श्रेणी के लेखकों की चर्चा अधिक हुई. उन पर शोध कार्य हुए, उनपर किताबें अधिक लिखी गईं उन पर अधिक  सेमीनार गोष्ठियां हुई, वे पाठ्यक्रमों में अधिक  रहे जिसका नतीजा यह हुआ कि नई पीढी उन्हें जानती रही. उनको उसने अपना पथ प्रदर्शक बनाया लेकिन. दूसरी श्रेणी के लेखकों का समुचित  मूल्यांकन नही हुआ. उनके अवदान की चर्चा कम हुई वे पाठ्यक्रमों में कम शामिल किये गये.

तीसरी श्रेणी के लेखकों को तो और भी कम तवज्जोह दी गयी, उनमे से कई का तो अभी मूल्यांकन ही नही हुआ. उनमे से कुछ की छवि दक्षिणपंथी बनाई गयी और उन्हें हिंदुत्व का पैरोकार भी बना दिया गया.


जिस तरह रामविलास शर्मा ने १९४१ में ही प्रेमचंद पर किताब लिखी और निराला की साहित्य साधना लिखी या अमृत राय ने कलम का सिपाही जैसी जीवनी प्रेमचन्द की लिखी वैसी कोई किताब दूसरी श्रेणी के लेखकों पर आज तक नही लिखी गयी जिससे बाद की पीढी को उनके बारे में सही जानकारी नही मिली और वास्तविक योगदान का पता नही रहा. जो माखनलाल  चतुर्वेदी आजादी की लड़ाई में बारह बार जेल गये, जिनके घर पर ६३ बार पुलिस की तलाशी हुई, जिनके गाँव महात्मा  गाँधी गये यह देखने के लिए कि आखिर किस तरह की मिट्टी ने माखनलाल जी को पैदा किया जो हिन्दी के श्रेष्ठ वक्ताओं में से एक माने गये. उन  पर आज तक एक अच्छी जीवनी नही, यहाँ तक की विद्यर्थी जी की कोई अच्छी जीवनी नही है.



जिस बेनीपुरी ने जयप्रकाश, मार्क्स और रोजा ल्क्जमवर्ग की जीवनी लिखी उनकी भी आज तक जीवनी नही. अगर उनकी रचनावली न छपी होती तो उनके विशाल योगदान के बारे में लोगों को नही पता चलता. रामविलास शर्मा ने उसे पढने के बाद लिखा कि हिन्दी पट्टी  में जिन तीन लेखकों ने युवकों में क्रांतिकारी चेतना फैलाई उनमे विद्यार्थी जी और माखनलाल जी के बाद बेनीपुरी ही थे. लेकिन शिवदान सिंह चौहान से लेकर चन्द्रबली सिंह, शिवकुमार मिश्र नामवर सिंह तक किसी वामपंथी आलोचकों ने दूसरी श्रेणी के लेखकों के योगदान पर कलम नही चलाई. उनका मूल्यांकन नहीं किया.

राहुल जी की चर्चा भी उनकी जन्मशती के बाद शुरू हुई. वे इस से पहले एक यायावर और यात्रा संस्मरणकार के रूप में ही जाने जाते रहे. लेकिन उनका जितना विशद योगदान है उसे देखते हुए उन पर अभी अधिक शोध कार्यों की जरुरत है. 

सुभद्रा कुमारी चौहान को अब तक “झांसी  की रानीकविता के लिए ही जाना जाता रहा लेकिन उन्होंने अन्य विधाओं में लिखा इसकी चर्चा कम हुई तथा एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उनकी भूमिका की चर्चा भी बहुत कम हुई. अब जाकर रूपा गुप्ता ने सुभद्रा जी की रचनाओं के खंड निकाले तो उनकी तरफ ध्यान गया पर लेकिन एक अच्छी जीवनी या मूल्यांकन परक किताब आज तक सुभद्रा जी पर नही है. 

उनकी पुत्री एवं अमृत राय की लेखिका पत्नी सुधा चौहान ने एक विनिबंध उन पर  जरुर लिखा  और  साहित्य अकेडमी ने उसे प्रकाशित किया अन्यथा उनका पर्याप्त मूल्यांकन होना अभी  बाकी है. उनका जीवन कम रोमांचकारी और संघर्ष पूर्ण नही. निराला के संघर्ष की बहुत चर्चा हुई लेकिन सुभद्रा जी ने अपना लेखन भी जारी रखा, जेल की यात्रायें की और परिवार भी संभाला. यह कम बड़ी बात नही लेकिन हिन्दी समाज ने उनकी चर्चा कम हुई.


तीसरी श्रेणी के लेखकों की तो एक तरह से उपेक्षा हुई या उनके कार्यों पर कम ध्यान गया. उन पर  कम ही सेमिनार गोष्ठियां हुईं और पाठ्यक्रमों में कम स्थान दिया गया. उनपर किताबें बहुत कम निकली. आलम यह है कि अगर भारत यायावर नही होते तो महावीरप्रसाद दिवेदी की रचनावली नही निकलती जबकि उनसे पहले रामकुमार भ्रमर तक की रचनावलियां निकाल गईं. उनकी १५० वीं जयन्ती चुपचाप निकल गयी पर हिन्दी समाज सोया रहा. जिस दिवेदी जी ने हिन्दी को खड़ा किया बीस साल तक दौलत पुर में रहते हुए ‘सरस्वती’ निकाली उसका हाल यह है. तब दौलत पुर में बिजली, टेलीफोन की सुविधा नही थी लेकिन दिवेदी जी  हिन्दी की सेवा के लिए रेलवे की सरकारी  नौकरी छोड़कर सरस्वती के संपादक बने थे.

मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, पन्त, निराला, प्रसाद को प्रकाशित कर उन्हें स्थापित किया. उनकी भी आज तक जीवनी नही और न कोई अच्छी मूल्यांकन परक किताब. रज़ा फाउंडेशन को पहले उनकी जीवनी निकालनी चाहिए थी उस जीवनी से पाठक साहित्य के इतिहास से परिचित होते. कमोबेश यही हाल शिवपूजन सहाय का रहा. जिस शिवपूजन बाबू ने अनेक लोगों  पर अभिनंदन ग्रन्थ निकाले. अनेक लेखकों की कृतियों का सम्पादन किया, उनके  संचयन निकाले उस शिवपूजन  बाबू पर अब जाकर  साहित्य अकेडमी ने  संचयन निकाला जबकि राहुल जी पर एक संचयन तक नही निकला जबकि उनके दो शिष्य नागार्जुन और विद्यानिवास मिश्र पर संचयन बहुत पहले निकल चुके थे. हिन्दी में उन पर एक मोनोग्राफ तक नही है,   फिल्म की बात तो  छोड ही दीजिये, जबकि साहित्य अकेडमी ने धर्मवीर भारती पर फिल्म बनाई. नामवर सिंह और केदार जी ने अपने शिष्य से एन.सी.आर.टी. से  अपने ऊपर फिल्म तक बनवाये लेकिन राहुल जी पर नही बनवाया.

किशोरीदास वाजपेयी को स्वाभीमानी होने का खामियाजा अपने जीवन काल में  ही नही बाद में भी भुगतना पडा. हिन्दी भाषा में शब्दानुशासन जैसी किताब लिखने वाले इस अक्खड़  लेखक   पर एक डाक टिकट तक नही निकल पाया जबकि अटल विहारी वाजपेयी तक ने इसकी मांग की. हमारे लेखक संगठनों ने भी इन लेखकों की याद में कोई ठोस कार्यक्रम नहीं किये. प्रगतिशील लेखक संघ ने राहुल जी की १२५ वीं जयंती मनाई लेकिन शिवपूजन सहाय की नही. वाम लेखक संगठनों के लिए ये हिन्दी सेवी अछूत लेखक हो गये. उनकी नज़र में राष्ट्रवादी लेखक हिंदुत्ववादी हैं. यहाँ तक कि प्रसाद भी दक्षिण पंथ के खाते में चले गये, उनके लिए बस प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध ही प्रतीक पुरुष हैं. इसलिए वे भीष्म साहनी का उनकी जन्म शती के तीन साल बाद भी जन्मशती मनाएंगे  पर  अमृत लाल नगर का नही. उनके लिए यशपाल पूजनीय हैं लेकिन भगवती चरण वर्मा  और इला चन्द्र जोशी  अछूत लेखक हैं.

इस तरह वाम आलोचकों और संगठनों ने जनवाद के नाम पर  साहित्य की संकीर्ण परिभाषा बनायी, रचना का सरलीकरण किया. उसने कुजात लेखक बनाये और हमारी विशाल प्रगतिशील परम्परा को छोटा बनाया. आज इस परम्परा को मजबूत बनाने की जरुरत है लेकिन इस  संकीर्ण नजरिये  के कारण हिंदुत्ववादियों ने हमारे लेखकों को भी अपनी और खींच कर अपना प्रतीक पुरुष बनाया. हाल ही में संघ से जुड़े लेखकों पत्रकारों ने शिवपूजन सहाय की पुस्तकों का लोकार्पण आयोजित करवाया जबकि वाम संगठन जन्म शती वर्ष में भी एक आयोजन नही कर सके.

दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त  को भी इन दक्षिणपंथियों ने अपना प्रतीक बनाया जबकि वाम प्रगतिशील आलोचना इन पर संदेह  करती रही. प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ वर्ष  पूर्व विज्ञान भवन मे दिनकर पर एक कार्यक्रम को संबोधित किया और मन  की बात में प्रेमचन्द का जिक्र किया. इस तरह  वे प्रेमचन्द को भी अपने पाले में खींचने  में लगे हैं. इससे सतर्क रहने की जरुरत है. लेकिन यह तब ही होगा जब हम अपनी प्रगतिशील परम्परा को समझें उसकी लोकतान्त्रिक व्याख्या करें और सरलीकरण न करें.


आज मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सियारामशरण गुप्त जैसे अनेक लेखको को गैर वामपंथी मानकर वामपंथी संगठनों ने उन्हें आलोचना से दूर ठेल दिया है, आखिर उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गांधी से कंधा से कंधा मिलाकर लड़ा था तो क्या उनके भीतर गांधी के मूल्य और आदर्श नही थे और अगर थे तो वे किस तरह जनतंत्र विरोधी या प्रगतिशीलता के विरोधी हो गए. ये लेखक जेल गये, वहाँ उन्होंने साहित्यिक कृतियों की रचनाएं की, हिंदी की सेवा कर राष्ट्र की सेवा की.
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  1. आपने लिखा,"राहुल जी पर एक संचयन तक नही निकला जबकि उनके दो शिष्य नागार्जुन और विद्यानिवास मिश्र पर संचयन बहुत पहले निकल चुके थे।" विद्यानिवास मिश्र की पुस्तक "राहुल संचयन" (NBT) देखें।

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    1. हमने साहित्य अकेडमी के संचयन की बात लिखी एनबीटी की नहीं ।ठीक से पढ़े।आपको मालूम होना चाहिए एनबीटी से प्रकाशित राहुल जी की जीवनी 125वें जयंती वर्ष में नहीं छपी

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  2. विमल भाई ने बड़ी प्रासंगिक बात उठायी है और उसका नोटिस लिया जाना चाहिए।जो समाज अपने पुरखों के काम की संभाल कर सम्मान सहित नहीं रखता वह कृतघ्न कहलायेगा।राजनीति और साहित्यिक अवदान गलत ढंग से न जोड़े जायें।
    यादवेन्द्र

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  3. रवि रंजन15 अग॰ 2019, 11:58:00 am

    'होंगे दक्षिण होंगे वाम/जनता को रोटी से काम।'- नागार्जुन.
    इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि बड़े रचनाकारों को आलोचकों की बहुत अधिक दरकार नहीं हुआ करती। वे सीधे-सीधे पाठक के साथ संवाद स्थापित करने में समर्थ होते हैं। दिनकर की कविता इसका जबरदस्त उदाहरण है।
    साथ ही,यह भी कि हमारे बड़े रचनाकारों में से अधिकांश ने कमोबेश बहुत अच्छी आलोचनात्मक पुस्तकें / टिप्पणियां लिखी हैं और इनका पेशेवर आलोचकों की टिप्पणियों से ज्यादा महत्त्व है।
    अंतिम बात यह कि किसी राजनेता /प्रधानमंत्री द्वारा उद्धृत किये जाने से कोई लेखक उनके खेमे का रचनाकार मान लिया जाय,यह उचित नहीं है।

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  4. सारे प्रतीक छीन लिए गए।विवेकानंद गांधी सुभाष अम्बेडकर लोहिया जे पी।आपके पास केवल भगत सिंह और प्रेमचन्द हैं बस।

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-08-2019) को "आजादी का पावन पर्व" (चर्चा अंक- 3429) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    स्वतन्त्रता दिवस और रक्षाबन्धन की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. आपने बड़ी मार्के की बातें लिखी हैं। हम बड़े कृतघ्न लोग हैं। संकीर्ण मानसिकता वाले। धन्यवाद ऐसी बेबाक बात के लिए।

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  7. पंकज मोहन15 अग॰ 2019, 2:32:00 pm

    आपके वर्गीकरण का कोई वस्तुनिष्ठ आधार या मापदंड नहीं है. लेखक राष्ट्रीय आंदोलन से गहराई से जुड़ा हो या न जुड़ा हो, जेल गया हो या न गया हो, वह अपनी कृतियों की गुणवत्ता के आधार पर ही प्रथम, द्वितीय या तृतीय श्रेणी में पांक्तेय होता है. मैथिली शरण गुप्त, राहुल सांकृत्यायन या फणीश्वरनाथ रेणु स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जेल की सीखचों में बंद किया, लेकिन वे इसलिए प्रथम कोटि के लेखक हैं क्योंकि उनकी कालजयी रचनाओं में मानवता के सार्वभौम मूल्यों की प्रतिष्ठा है, शैली की मौलिकता है, विषयवस्तु की संश्लिष्टता है, संवेदना की गहराई है, और उन्होंने "मनुष्य की मुक्ति तथा सभ्यता विमर्श भी खडा" किया.
    राहुलजी को आपने दूसरी श्रेणी का लेखक माना है, ऐसा लेखक जिसका "समुचित मूल्यांकन नही हुआ, अवदान की चर्चा कम हुई , पाठ्यक्रमों में कम शामिल किये गये. " राहुल जी अपने समय में ही "लीजेंड" बन गए थे और बहुत सारी पाठ्यपुस्तकों में राहुल जी की संक्षिप्त जीवनियाँ संकलित हुईं. चीन, जापान, रूस. जर्मनी, ब्रिटैन सहित दुनिया के बहुत से देशों में उनपर शोध हुआ. राजेंद्र बाबू और नेहरू जी ने उनकी चर्चा की. साहित्य अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत किया और साहित्य अकादेमी से ही प्रभाकर माचवे कृत राहुलजी की संक्षिप्त जीवनी प्रकाशित हुयी. उनकी जन्मशती के पूर्व ही जेएनयू के उर्मिलेश, मदन राय और चन्द्रभानु सिंह और दूसरे विश्वविद्यालयों के दर्जनों विद्वानों ने राहुल जी पर शोध प्रबंध लिखे, जो बाद में प्रकाशित भी हुए. आपको खेद है कि साहित्य अकादेमी ने राहुल जी की रचना का संचयन नहीं निकाला, लेकिन नैशनल बुक ट्रस्ट ने जब राहुल संचयन प्रकाशित किया, तो उसी प्रोजेक्ट को साहित्य अकादेमी जैसे सरकारी संस्था फिर से कैसे अपने हाथ में ले सकती थी?

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  8. विमल कुमार15 अग॰ 2019, 2:33:00 pm

    तब तो आपको यह भी पता होना चाहिए कि राहुल जी भारत में प्राध्यापक नहीं बने लेकिन रूस में श्रीलंका में अतिथि प्रोफेसर बने।यह भी मालूम हो कि क्या लेखकों के संचयन दो दो सरकारी संस्थानों से निकले हैं।प्रेमचन्द प्रसाद की तुलना में कितने शोध हुए यह मालूम नहीं आपको। माचवे की किताब चलताऊ है वह भी हिंदी में नहीं।कुछ भी मालूम तो आपको है नहीं।बात भी नहीं समझते।उर्मिलेश की किताब और अमृत राय या रामविलास शर्मा के काम का अंतर भी नहीं मालूम आपको।पहले पढ़ ले उन्हें।उर्मिलेश की किताब में कोई जान है।

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  9. पंकज मोहन15 अग॰ 2019, 2:34:00 pm

    किसी भी प्रश्न या आलोचनात्मक टिप्पणी का उत्तर खीज, बौखलाहट या "आपको क्या मालूम हैं? आप कुछ नहीं जानते है" आदि सर्वज्ञता की दर्पोक्ति के साथ उत्तर देने वाले व्यक्ति के साथ मैं संवाद नहीं करता. यह टिप्पणी मैं उन लोगों के लिए लिख रहा हूँ जिन्हे राहुल जी के बारे में जिज्ञासा है.
    १. राहुलजी ने अपनी आत्मकथा में खुद लिखा है कि बिहार के शिक्षा मंत्रालय के मुख्य सचिव जगदीशचंद्र माथुर ने काशीप्रसाद जायसवाल रिसर्च इंस्टिट्यूट, पटना के डायरेक्टर पद (प्रोफेसर के समकक्ष) का ऑफर दिया था, लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया. इस पद पर BHU और पटना विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष अनंत सदाशिव अल्टेकर आसीन थे. कमला जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में जब बुद्धिस्ट स्टडीज विभाग की स्थापना हुयी, उन्हें प्रोफेसर और अध्यक्ष पद का ऑफर मिला. इस भी उन्होंने अस्वीकार किया. कमला सांकृत्यायन के अनुसार उन्हें आगरा स्थित भारती हिंदी विद्यापीठ के डायरेक्टर पद का भी ऑफर मिला था. राहुल जी उत्तर भारत की गर्मी से दूर हिमालय की गोद में बसना चाहते थे. साम्यवादी होने के कारण और मांसाहार, बहु-विवाह आदि अपनी भिन्न जीवन शैली के कारण उनकी उपेक्षा हुई और उनके साथ षड़यंत्र भी हुआ, लेकिन हिंदी समाज उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा , हिंदी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता तथा उनके अवदान का क़द्र करता था.
    २. जयशंकर प्रसाद या महादेवी वर्मा को राम विलास शर्मा या अमृत राय जैसा जीवनीकार नहीं मिला, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हिंदी साहित्य में उन्हें यथोचित प्रतिष्ठा नहीं मिली. राम विलास शर्मा, अमृत राय या विष्णु प्रभाकर जैसे प्रतिभावान जीवनीकार हिंदी की विरल विभूतियाँ हैं. शमूएल जॉनसन सौभाग्यशाली थे कि उन्हें जेम्स बॉसवेल जैसा जीवनीकार मिला, लेकिन अगर अठारहवीं सदी के दूसरे साहित्यकारों की जीवनी बोसवेल की जीवनी के टक्कर की नहीं है, इसका अर्थ नहीं है कि उन साहित्यकारों की प्रतिभा के साथ न्याय नहीं हुआ है. दो-तीन वर्ष पहले Oxford University प्रेस ने राहुलजी पर तीन सौ पृष्ठ की एक पुस्तक प्रकाशित की है, जर्मन भाषा में भी राहुल के ऐतिहासिक उपन्यास "सिंह सेनापति"पर एक पुस्तक प्रकाशित हुयी है. दुनिया के अनेक देशों में बहुत सारे शोधार्थी राहुल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के अनेक पहलुओं पर लिख रहे हैं. १९७५ में प्रभाकर माचवे ने "भारतीय साहित्य के निर्माता" श्रृंखला में राहुल जी की संक्षिप्त जीवनी अंग्रेजी में प्रकाशित की और फिर उन्होंने उस पुस्तक को हिंदी में अनूदित किया. उनकी राहुल-विषयक अंग्रेजी और हिंदी पुस्तकें साहित्य अकादमी से प्रकाशित हुईं.

    अगर किसी हिंदी साहित्यकार की जीवनी में राम विलास शर्मा या अमृत राय द्वारा लिखी जीवनियों जैसी समझ की गहराई नहीं है और वैसा विस्तृत फलक नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं होता है कि उस लेखक को यथोचित सम्मान नहीं मिला.

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  10. विमल कुमार15 अग॰ 2019, 6:36:00 pm

    आपने पहले प्रहार किया मुझ पर यह जता कर कि मुझे नही मालूम।नेहरू जी भी चाहते थे कि उन्हें विश्विद्यालय में शिक्षक बनाया जाए लेकिन हुमायूं कबीर सम्भव नही कर पाए।श्री लंका और रूस में तो पहले ही बन गए थे।बोसेवैल के बारे में पता है।गणेश शंकर विद्यार्थी ने खुद बनारसी दास चतुर्वेदी को जीवनी लिखने को कहा और यह भी लिखा कि आप बोसेवैल की तरहः महान हो जाओगे लेकिन आज तक जीवनी नही उनकी।यह नही लिखा कि राहुल जी महत्वपूर्ण नही।आप जितना महत्वपूर्ण मानते हैं उस से दस गुना अधिक मत्वपूर्ण मानता हूँ, राहुल जी की 125 वीं जयन्ती मनाने का प्रस्ताव सरकार ने ठुकरा दिया ।देश मे ही उन्हें कभी पार्टी से निकाला गया तो सत्ता ने सुध नही ली।

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  11. बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा। जानकार बंधु इस आलेख पर अनन्त बहस चला सकते हैं लेकिन ये नहीं झुठला सकते कि मार्क्सवादी आलोचना ने भेदभाव किया और उससे हिंदी साहित्य की क्षति हुई।इसके सबसे बड़े उदाहरण माखनलाल चतुर्वेदी। दिनकर और भवानीप्रसाद मिश्र जैसे कई कवि।
    विमलकुमार को इस लेख के लिये साधुवाद।

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