तस्वीर : आभार सहित Sughosh Mishra
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हिंदी के कवि व्योमेश शुक्ल, इधर
रंगकर्मी, प्रखर. उनके निर्देशित नाटकों ने देश भर में ध्यान खींचा है, कामायनी,
राम की शक्ति पूजा, रश्मिरथी चित्रकूट आदि को आधार बनाकर मंचित नाटक खूब पसंद
किये जा रहें हैं. संगीत नाटक एकादेमी का युवा वर्ग का पुरस्कार भी उन्हें इधर
मिला है.
उनका यह गद्य भी आप देखें.
ल ट क मत फटक
व्योमेश
शुक्ल
दो
जीवन के बढ़ते हुए नाटक, दुनिया के बाहर और भीतर और मनुष्य के अंत:करण के गहनतम स्तरों पर मचे हुए कोहराम का आम्यंतरीकरण और अभिनय के ज़रिये उसकी अभिव्यक्ति तो बाद की बात है, अभी तो ‘बाउंड स्क्रिप्ट’ को निभा पाने का सामर्थ्य ही जाँच का मुद्दा है. चूँकि वस्तुसत्य पर ‘आलोचकीय ग्रिप’ सबकी– अभिनेता हो, समीक्षक हो या निर्देशक- ढीली हुई है, इसलिए एक कृति कई बार कुपाठ का शिकार होती है.
राष्ट्रीय राजमार्ग
एक : लटक मत फटक
दो : नीम की
लकड़ी किसी चंदन से कम नहीं, हमारा गाँव
किरवाडी किसी लंदन से कम नहीं
तीन : माँ का
आर्शीवाद
चार : माता-पिता
का आशीर्वाद
पाँच : गरिब रथ
छह : Use
Dipper at night
सात : आदि शक्ति
बंसी कौल
मशहूर डिज़ाइनर और रंगनिर्देशक बंसी कौल इन दिनों राष्ट्रीय नाट्य
विद्यालय के दूसरे वर्ष के छात्रों के साथ एक नाटक तैयार कर रहे हैं. तेरह जनवरी
को विद्यालय के ही अभिमंच सभागार में पहली बार प्रस्तुत होने जा रहे इस नाटक का
नाम है खेल पहेली. यह नाटक रवीन्द्रनाथ टैगोर के लिखे कुछ कौतुकों पर आधारित है.
नौ जनवरी की दोपहर मैंने उन्हें अचानक फ़ोन कर दिया और कहने लगा कि
आपसे मिलना चाहता हूँ. मुझे पता था कि वह नाटक की तैयारियों में व्यस्त होंगे, फिर भी. दरअसल वह एक बहुत उजली सोहबत
हैं. एक पैशनेट टाकर. उनसे मुलाक़ात एक क्लास है. वह कभी भी पद्मश्री की तरह बात
नहीं करते. अनोखी अंतर्दृष्टियों और मौलिक चिंताओं के बीच व्यवस्थाओं और
व्यक्तियों को गाली आदि देकर अपने और आपके बीच वह एक आमफ़हम रास्ता बना लेते हैं.
इस बार की मुलाक़ात अलग थी. वह अपनी खेल पहेली के बीच में थे. अभिमंच
सभागार के बाहर पत्थर की बेंच पर बाक़ी धूप के एक छोटे से टुकड़े में बैठे इस
बुज़ुर्ग को देखकर पहली बार मुझे हल्का-सा डर लगा. मैं उनके क़रीब बैठ गया.
उन्होने कहा : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मंच कला संकाय में ड्रामा
डिपार्टमेंट क्यों नहीं है ? मैंने उन्हें बताया : कुछ साल पहले अशोक वाजपेयी इसी बात के लिए तत्कालीन
कुलपति डी. पी. सिंह से मिले थे. मैं उस मुलाक़ात में था. उन्होने हिंदी विभाग के
अंतर्गत रायटर्स चेयर जैसी कोई चीज़ बनाने की बात भी की थी. दोनों काम नहीं हुए.
अब उन्होने पूछा : क्या अशोकजी को काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने
डॉक्टरेट दिया है ? मैंने कहा : नहीं. वह बोले : आज़ादी के बाद हिंदीभाषी समाज में
सर्वोत्तम संस्कृति कर्म करने वालों में से एक इस व्यक्ति को हिंदी पट्टी के किसी
बड़े विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि नहीं दी है. अगर वह उत्तर पूर्व या दक्षिण
भारत के होते तो वहाँ के लोग उन्हें कंधे पर उठाये घूमते. हिंदी समाज बहुत
नाशुक्रा है. मैंने सिर हिलाया : हाँ-हाँ.
प्रोफेसर इमैरिटस जैसी संस्था दरअसल बौद्धिकता, जिज्ञासा और रचना का माहौल बनाने का
काम करती है. अपनी दुनिया में बहुत कुछ कर चुका एक आदमी एक विश्वविद्यालय में
टहलता है, कक्षाओं के बाहर छात्रों से अनौपचारिक बातचीत करता है. शहर में चला
जाता है. उस शहर की ज्ञान-परंपरा के सूत्रों से विश्वविद्यालय की रोज़ाना
पढ़ाई-लिखाई को जोड़ता है. वह संस्था में माहौल और चरित्र बनाता है. हिंदी के
विश्वविद्यालयों में इस काम के लिए जो पैसा आता है, वह जाता कहाँ है ? उन्होने मुझसे पूछा. मैं क्या बताता.
मुझे क्या पता था. मैं तो यही सब जानने के लिए उनसे मिलने आया था.
बंसी कौल अपने कामकाज को लेकर बहुत निष्कवच हैं. उसके बारे में वह
निर्मम बातें करते हैं. उसे किसी भी तरह की महानता से मंडित करने पर क़तई विश्वास
उनका नहीं है. उन्होने मुझसे कहा : अंदर सेट और लाइट्स का काम चल रहा है. जाओ, देखो.
खेल पहेली का पूरा सेट विकर्णवत है. उसके दरवाज़े नब्बे नहीं, पैतालीस के कोण पर हैं. मुझे टेढ़ी
चीज़ें पसंद हैं. मैं घुसते ही ख़ुश हो गया. सफ़ेद पर्दे के बैकग्राउंड में पीछे की
ओर पूरे मंच की चौड़ाई में बहुत से दरवाज़े हैं और उनपर अनिश्चित ज्यामितिक आकार के
गड्ढे हैं. वैसे, ज्यामितिक आकार पूरे लैंडस्केप पर तारी हैं. मंच के फ्लोर पर भी काले
और सफ़ेद रंगों की जुगलबंदी में अनगिन त्रिभुजवत, चतुर्भुजवत आकार हैं. जैसे दूर से आता
हुआ प्रकाश रास्ते की तमाम चीज़ों से टकराकर, कहीं उन्हीं में बिलमकर, कट-पिट कर ज़मीन पर गिरा हो. विंग्स पर
भी ज्यामिती है. चरित्रों के चेहरों पर भी रंग-बिरंगे ज्यामितिक आकार हैं. इसके
अलावा पूरा मंच आगे की ओर ज़रा-सा ढलवाँ भी है. यों, अलग से मंच पर दो स्लोप और कुछ शुद्ध
गोल चीज़ें हैं, जो अपने ही ढंग से कोणीय ज्यामिती को काउंटर कर रही हैं.
मैंने सोचा : इस प्रस्तुति का सिनिक डिज़ाइन कितना अतियथार्थ है और
बंसी कौल यथार्थ के कितने बीहड़ नागरिक. क्या उनकी कल्पना इन शिल्पों के ज़रिये उनके
ही रोज़मर्रा किरदार को चुनौती देती है ? कुछ देर पहले क्या इसी पशोपेश में शांत बाहर वह पत्थर की बेंच पर सूरज
की रौशनी के क्षरणशील त्रिभुज पर मेरा इंतज़ार करते हुए बैठे थे, जब उन्हें देखकर मैं ज़रा सा डर गया
था.
तभी बनारस से मेरे मामा का फ़ोन आ गया. उनसे बात करता हुआ मैं बाहर
बंसीजी के पास आ गया.
मैंने देखा, इस बीच दूसरे साल के छात्र लगातार उनसे नाटक के पार्श्वसंगीत, ड्रेस और मेकअप आदि दूसरी चीज़ों के
बारे में बातचीत करके चलते बन रहे थे.
अंततः मैंने भी यही किया. मेरी क्लास भी संपन्न हुई और मैं भी उन्हें
प्रणाम कहकर चलता बना.
अपने आप और बेकार
मैं गली से लगे हुए कमरे
में बैठा हूँ और खिड़की खुली हुई है तो बग़ल के घर से तुम्हारी आवाज़ साफ़ सुनाई दे
रही है. न जाने क्यों, कल से,
कई आवाज़ें मुझे साफ़
सुनाई दे रही हैं. तुम्हारी आवाज़ सुनाई देने का पहला मतलब तो यही है कि तुम ज़िन्दा
हो. बोलने के लिए तुम, सुनने के लिए मैं. हम मर नहीं गये हैं, आज के लिए इतना भी काफ़ी
है.
मुक्तिबोध और अभंग
हमलोग एक म्यूज़िकट्रैक की रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो में थे. तबला बज
रहा था. एक जगह मैंने तबलावादक से कहा : 'यहाँ कुमार गंधर्व के भजन वाला ठेका
बजना चाहिए'. वह तैयार हो गए और बोले : 'उसे अभंग कहते हैं.'
अभंग - मैं रुक गया. आठ मात्राओं के लोकप्रिय ताल - कहरवे का जो रूप
कुमारजी के भजनों में बजता आया है, उसका नाम अभंग है? मेरा मन तुरंत मान गया. उतनी सादगी, उतने कम बोलों का विन्यास, उतना कम श्रृंगार. कोई तिहाई नहीं, किसी चटपटे अंदाज़ में सम पर पहुँचने
की कोई जल्दबाज़ी नहीं, एक अनंत निरंतर - जैसे यह ताल हमेशा से बजता आया है और हमेशा बजता
रहेगा. नामदेव और तुकाराम लगातार विट्ठल की स्तुति में कविता कहते रहेंगे.
अभंग - मैं रुका ही रहा. आज कुमारजी होते तो ज़रूर मुक्तिबोध को गाते
और पीछे बजता अभंग.
तुलसीदास
थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥
जनक का उपवन. पहली मुलाक़ात में राम को देखते हुए सीता की आँखें थक गयी
हैं, लेकिन पलकें
पल-भर के लिए भी झपकने का नाम नहीं ले रही हैं. अधिक स्नेह के कारण देह विभोर हो
गयी है, जैसे चकोरी शरद के चंद्रमा को देखती हो.
छन्नूलाल मिश्र 'मानस' की यही पंक्तियाँ गा रहे थे. प्रख्यात पर्यावरणविद और संकटमोचन मंदिर
के महंत प्रोफ़ेसर वीरभद्र मिश्र अपने स्वर में इन पंक्तियों को गाकर दोहरा रहे थे.
यह रोज़ का क्रम था. अचानक महंत जी रुके और मुझसे कहने लगे : 'अधिक सनेहँ देह भै भोरी' - इस वाक्य का मंचन भला कैसे संभव है? इतनी सामर्थ्य किसमें है? सिर्फ़ आंगिक से इस 'विभोर' का निदर्शन हो नहीं पायेगा. उसके लिए
बहुत ऊँचा, बहुत गहरा सात्विक चाहिए.
मैं भी चुप होकर सोचता रहा.
कुछ देर बाद, जवाब उन्होंने ही दिया : महज़ दो शब्दों में : अमिट और शाश्वत
केलुचरण महापात्र.
रंगसमीक्षा के बारे में कुछ बातें :
एक
दृश्यालेख इस कदर विपर्यस्त है कि फ़िलहाल भारतीय रंगमंच के एक साथ
अनेक अलग–अलग वर्तमान
पर्यावरण हैं. दृश्य का सामान्यीकरण करने वाली मेधा का यहाँ अभाव है; इसलिए कुछ सूत्रों में – बौद्धिक प्रत्ययों में इस ‘समस्त’ को पहचाना नहीं जा पाता और यों, ख़ासियतें कुंठित हो जाती हैं. प्रायः हम कृतियों
को फुटकर प्रशंसाएँ और निन्दाएँ लौटा रहे हैं और आलोचना के मूल्य सामने नहीं आ पा
रहे हैं. आज के थियेटर लाइकर का ‘कॉमनसेंस’ जिन तत्वों से मिलकर बन रहा है, उसमें आलोचना नहीं है, बल्कि, हमारे दर्शक का ‘कॉमनसेंस’ निर्देशक की छवि के दबदबे, सराहनामूलक समीक्षाओं के आकार-प्रकार और एक अमूर्त तरल वाहवाही पर
निर्भर है – बाक़ी का स्वीकार
प्रदर्शनों की संख्या, चयन और पुरस्कार आदि से तय हो जा रहा है. आलोचनात्मक हस्तक्षेप कम है
और जहाँ है भी, यथास्थिति का मददगार है.
दो
पिछले दस साल में लिखी गई– नाटककार या निर्देशक की कीर्ति के रथ का रास्ता रोक देने वाली
समीक्षाओं की संख्या बताइये. विध्वंस और ख़राब नाटक को सज़ा देने का काम आलोचना के
एजेंडे पर नहीं है. यह एक विडंबना है कि इस प्रकार हमारा सर्वोत्तम रंगकर्मी भी
हमारी समवेत बौद्धिकता से– आलोचना जिसका प्रतिनिधित्व करती है– ‘इंडोर्सड’ नहीं है. हमारे अव्वलीन निर्देशकों को भी प्रायः
बग़ैर किसी मूल्यांकन के बड़ा निर्देशक मान लिया गया है. इसलिए यदा–कदा उठ खड़े होने वाले मुद्दे भी वायव्य हो जाने
को अभिशप्त हैं. असहमति की जगह खीझ ने ले ली है और आलोचनात्मक अंतर्वस्तु के क्षीण
हो जाने के कारण दृश्य में कहासुनी, अन्यथाकरण और कांसिपिरेसी थियरी का जलवा है और रचनात्मकता और नावीन्य
हाशिये पर हैं, यानी एक ट्रैजिक नई प्रवृति यह है कि रंग समीक्षा को शामिल बाजा मान
लिया गया है, वह किसी के भी लिए
अनिवार्य नहीं है.
तीन
चूँकि दृश्य में जैविक ऐक्य के सूत्र नहीं खोजे जा सके हैं इसलिए
अलग-अलग दृश्यों की अलग-अलग मुख्य धाराएँ हैं – इनसे संवाद के लिए इतने ही हाशिये भी दरकार हैं.
दिक्कत है कि हाशियों का रेखांकन भी आलोचना के ज़रिये ही मुमकिन है. आलोचना के विरल
हो जाने पर रंगकर्म आत्मविश्वस्त कैसे रह सकता है ? यह तय है कि अगर आलोचना मूल्यांकन की कसौटियां – ‘कैनन’ – प्रस्तावित नहीं
करेगी तो बाज़ार के ‘कैनन’ पर चलना होगा, बाज़ार का सबसे मजबूत औजार है ‘लोकप्रियता’. बहस की अनुपस्थिति
में हमारे यहाँ लोकप्रियता का सवाल किसी तड़प की तरह उठता है और ढह जाता है. उसे
कन्विंसिंग तरीके से ‘प्रोब्लेमेटाइज़’ नहीं किया जा सका है. ‘लोकप्रियता’ से कोई रंजिश नहीं है , लेकिन उसे असमाधेय और अंतिम मान लेना कहाँ की समझदारी है ? उसे प्रश्नांकित करने और वृहत्तर मूल्यसंसार में
उसे ‘लोकेट’ करने की ज़िम्मेदारी को टाला नहीं जा सकता.
चार
आलोचना के विपथन के कारण, ज़ाहिर है, थियेटर का नुक़सान हुआ है. वह चाहे अनचाहे उस ‘कॉमन ग्राउंड’ से दूर हुआ है जहाँ से लोकप्रियता और गंभीरता को एक साथ संबोधित किया जा सके. ‘टेक्स्ट’ के साथ अपने रिश्ते को थियेटर ने तर्कपूर्ण जीवन व्यावहारिकता की सतह पर स्थिर और जड़ीभूत कर लिया है. हमारा रंगकर्म लिखे हुए शब्द – नाटक, उपन्यास, आख्यान और कविता की गहराई से ऑबसेस्ड तो है, लेकिन यही गहराई रिहर्सल की स्पेस और मंचन के फ्लोर पर प्रतिफलित नहीं हो पा रही है. एक ओर हमारा थियेटर ग़ैरपारंपरिक मज़मूनों की ओर बढ़ता दिखता है, वहीं दूसरी तरफ़ वह मशहूर साहित्यिक कृतियों – नाटकों तक को – सम्यक व्याख्या के साथ मंचित कर पाने में असमर्थ हो रहा है.
आलोचना के विपथन के कारण, ज़ाहिर है, थियेटर का नुक़सान हुआ है. वह चाहे अनचाहे उस ‘कॉमन ग्राउंड’ से दूर हुआ है जहाँ से लोकप्रियता और गंभीरता को एक साथ संबोधित किया जा सके. ‘टेक्स्ट’ के साथ अपने रिश्ते को थियेटर ने तर्कपूर्ण जीवन व्यावहारिकता की सतह पर स्थिर और जड़ीभूत कर लिया है. हमारा रंगकर्म लिखे हुए शब्द – नाटक, उपन्यास, आख्यान और कविता की गहराई से ऑबसेस्ड तो है, लेकिन यही गहराई रिहर्सल की स्पेस और मंचन के फ्लोर पर प्रतिफलित नहीं हो पा रही है. एक ओर हमारा थियेटर ग़ैरपारंपरिक मज़मूनों की ओर बढ़ता दिखता है, वहीं दूसरी तरफ़ वह मशहूर साहित्यिक कृतियों – नाटकों तक को – सम्यक व्याख्या के साथ मंचित कर पाने में असमर्थ हो रहा है.
जीवन के बढ़ते हुए नाटक, दुनिया के बाहर और भीतर और मनुष्य के अंत:करण के गहनतम स्तरों पर मचे हुए कोहराम का आम्यंतरीकरण और अभिनय के ज़रिये उसकी अभिव्यक्ति तो बाद की बात है, अभी तो ‘बाउंड स्क्रिप्ट’ को निभा पाने का सामर्थ्य ही जाँच का मुद्दा है. चूँकि वस्तुसत्य पर ‘आलोचकीय ग्रिप’ सबकी– अभिनेता हो, समीक्षक हो या निर्देशक- ढीली हुई है, इसलिए एक कृति कई बार कुपाठ का शिकार होती है.
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व्योमेश शुक्ल
vyomeshshukla@gmail.com
9519138988
जी ख़ुश हो गया पढ़कर। 😊
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28 -07-2019) को "वाह रे पागलपन " (चर्चा अंक- 3410) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
नामकरण के फेर में न पड़ें तो व्योमेश का यह गद्य बेहद विचारोत्तेजक है। ‘राष्ट्रीय राजमार्ग’ हमारे सार्वजनिक विद्रूप की लगभग छापामार अंदाज़ में धरपकड़ करता है। इसे आप कविता कहें या कुछ और, लेकिन यह जो भी है ग़जब का ऑब्जर्वेशन है। राजमार्ग की— वह भी राष्ट्रीय, पूरी एब्सर्डिटी इतने कम शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती !
जवाब देंहटाएंबंसी कौल से मुलाक़ात कब आत्म-साक्षात्कार बन जाती है, पता ही नहीं चलता। यह प्रविष्टि बंसी कौल की यशगाथा बन सकती थी, लेकिन व्योमेश ने इसे साष्टांग श्रृद्धा बनने से बचा लिया है। एक इतनी अनुभवी और पितृ-छवि के सामने अपनी जिज्ञासा पर टिके रहना मुश्किल होता है।
बाद की प्रविष्टियों में भी एक नहीं कई ऐसे बिंदू हैं जिन पर लेखक से मुकम्मल लेख की उम्मीद की जा सकती है। कोई चाहे तो उनके इस वक्तव्य पर अच्छी-ख़ासी बहस आयोजित कर सकता है: ‘‘ हम कृतियों को फुटकर प्रशंसाएँ और निन्दाएँ लौटा रहे हैं और आलोचना के मूल्य सामने नहीं आ पा रहे हैं. आज के थियेटर लाइकर का ‘कॉमनसेंस’ जिन तत्वों से मिलकर बन रहा है, उसमें आलोचना नहीं है, बल्कि, हमारे दर्शक का ‘कॉमनसेंस’ निर्देशक की छवि के दबदबे, सराहनामूलक समीक्षाओं के आकार-प्रकार और एक अमूर्त तरल वाहवाही पर निर्भर है’’।
अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है कि व्योमेश स्थापित और प्रदत्त को हूबहू स्वीकार नहीं करते। शायद यही वह चीज़ है जो उनके चिंतन-मंथन, दृष्टि और कहन पर दुबारा-तिबारा लौटने की इच्छा पैदा करती है।
इसलिए बधाई-वधाई की बात व्यर्थ होगी। जिसके पास ऐसी साफ़ नज़र हो, उसे शायद बधाई की ज़रूरत नहीं पड़ती!
व्योमेश बेहद प्रतिभाशाली हैं। कविता में भी उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की थी, अब तो वह निरंतर चौंका रहे हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसंस्मरण आधारित दिलचस्प लेख...
जवाब देंहटाएंबहुत वृहत कैनवास समेटे हुए है यह लेख ।बधाई
जवाब देंहटाएंव्योमेश ने बढ़िया गद्य लिखा है । 'मुक्तिबोध और अभंग' शीर्षक के अंतर्गत लिखा सबसे अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंरोचक और धारा प्रवाह लिये सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंरोचक विचारोत्तेजक और अंतर्यात्रा सरीखे गद्य के साथ यायावरी।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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